December 28, 2015
December 25, 2015
आज की कविता / 25 / 12 / 2015.
आज की कविता
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© विनय वैद्य / 25/12/2015.
मेहमान
दर्द मेहमाँ था मेरा चन्द रोज़,
जैसे आया था, लौटा वापिस भी,
किसी शरीफ़ से मेहमाँ जैसा,
और अब याद उसकी है मेहमाँ !
--
इतनी ठंड में ....
कोयले से आग लिखो,
आग से लिखो उम्मीद,
और उम्मीद से लिखो मेहनत,
फ़िर लिखो मेहनत से तक़दीर अपनी ।
--
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© विनय वैद्य / 25/12/2015.
मेहमान
दर्द मेहमाँ था मेरा चन्द रोज़,
जैसे आया था, लौटा वापिस भी,
किसी शरीफ़ से मेहमाँ जैसा,
और अब याद उसकी है मेहमाँ !
--
इतनी ठंड में ....
कोयले से आग लिखो,
आग से लिखो उम्मीद,
और उम्मीद से लिखो मेहनत,
फ़िर लिखो मेहनत से तक़दीर अपनी ।
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मेहमान
November 28, 2015
किंगफ़िशर और मछेरे
दो कविताएँ
किंगफ़िशर,
--
वे मारते हैं पर,
हवा में ।
वे मारते हैं डुबकी,
पानी में ।
पकड़ लाते हैं,
चोंच में ।
साँस लेने के लिए तड़फ़ती,
एक मछली।
और फ़िर दूसरी नाश्ते के बाद,
थोड़ी देर से ।
--
मछेरे
वे फ़ैलाते हैं जाल,
पानी में,
समेटते हैं जाल,
हौले-हौले,
पकड़ लाते हैं,
जाल में.
साँस लेने के लिए तड़फ़ती,
बहुत सी मछलियाँ ।
और फ़िर दूसरी,
इन्हें बेचने के बाद ।
--
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दो कविताएँ
November 27, 2015
नागलोक -2
नागलोक -2
(कल्पित)
--
©
--
उस विशाल वट-वृक्ष के नीचे,
मनोराज्य की भूमि के,
सहस्रों योजन के विस्तार में,
उनका लोक, था अवस्थित ।
जनमेजय को देखते ही,
उसकी आहट पाकर ही,
वे कंपित-गात्र हो जाते,
और पूरी त्वरा से वहँ से भाग निकलते ।
जनमेजय की शक्ति के वृत्त में,
भूल से भी आ जाने पर,
उनकी सारी शक्ति छीन ली जाती थी ।
और वे बरबस,
उस अग्नि-कुण्ड की ओर खिंचते चले जाते,
जहाँ जनमेजय का नाग-यज्ञ हो रहा था,
अहर्निश ।
विनता का पुत्र, वैनतेय ही,
कालान्तर में हुआ था जनमेजय ।
जनम् एजयसि त्वं,
माता विनता ने उससे कहा ।
अतस्त्वं जनमेजयो!
हर जीव तुम्हें देखकर भय से काँपता है,
इसलिए तुम्हारा नाम हुआ,
जनमेजय!
वह नित्य जागृत रहता ।
उसे नागों से कोई द्वेष या वैर नहीं था ।
वे तो उसके यज्ञ की समिधा भर थे ।
वह नित्य जागृत रहता ।
उसकी गति सर्वत्र, सूक्ष्म से सूक्ष्म,
और दूर से भी दूर तक थी ।
विष्णु उस पर आरूढ़ होते,
इसीलिए आज्ञा का संकेत पाते ही,
वह तत्क्षण उन्हें उनके गंतव्य तक ले जाता ।
वह भौतिक-शास्त्र की वह ’संभावना’ था,
जिस पर आरूढ़,
परमाणु के सूक्ष्मतम कण में प्रविष्ट विष्णु,
किसी दिशा में अन्तर्धान होते हुए दिखलाई देते हुए भी,
अगले ही पल, किसी सर्वथा अनपेक्षित,
किसी बिलकुल अप्रत्याशित दिशा में,
पुनः आविर्भूत हो उठते,
जिसका अनुमान वैज्ञानिक नहीं लगा सकता था ।
जब विष्णु विश्राम करते,
तो वैनतेय भी खड़े-खड़े,
जागृत-निद्रा में विश्राम पाता ।
जब जनमेजय के रूप में वैनतेय का जन्म हुआ,
तो एकमात्र लक्ष्य था उग्र तप ।
और इसलिए निराहार रहते हुए,
वह ज्ञानाग्नि में विचार की आहुति देता ।
ये विचार वही थे जो अपनी स्थूल-देह में नाग थे,
जो अपनी सूक्ष्म, प्राण-देह में विचार,
जो अपनी कारण-देह में भावनाएँ थे ।
जनमेजय ने नाग-यज्ञ आरंभ किया,
और वे आने लगे,
झुण्ड के झुण्ड,
बन रहे थे समिधा ।
हाँ कुछ इने-गिने विशालकाय नागराज ही,
बचे रह गए थे उस भूमि पर ।
वे दौड़कर गए श्रीहरि की शरण में ।
श्रीहरि ने अभयदान दिया,
जब मैं विश्राम करता हूँ,
तो वह भी विश्राम करता है ।
इसलिए तुम मुझे शैया दो !
तब नागराज शेष ने प्रसन्नतापूर्वक,
अर्पित की श्रीहरि को,
अपनी सेवाएँ,
और सुखपूर्वक जीने लगे फिर से,
नागलोक के निवासी ।
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(कल्पित)
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©
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उस विशाल वट-वृक्ष के नीचे,
मनोराज्य की भूमि के,
सहस्रों योजन के विस्तार में,
उनका लोक, था अवस्थित ।
जनमेजय को देखते ही,
उसकी आहट पाकर ही,
वे कंपित-गात्र हो जाते,
और पूरी त्वरा से वहँ से भाग निकलते ।
जनमेजय की शक्ति के वृत्त में,
भूल से भी आ जाने पर,
उनकी सारी शक्ति छीन ली जाती थी ।
और वे बरबस,
उस अग्नि-कुण्ड की ओर खिंचते चले जाते,
जहाँ जनमेजय का नाग-यज्ञ हो रहा था,
अहर्निश ।
विनता का पुत्र, वैनतेय ही,
कालान्तर में हुआ था जनमेजय ।
जनम् एजयसि त्वं,
माता विनता ने उससे कहा ।
अतस्त्वं जनमेजयो!
हर जीव तुम्हें देखकर भय से काँपता है,
इसलिए तुम्हारा नाम हुआ,
जनमेजय!
वह नित्य जागृत रहता ।
उसे नागों से कोई द्वेष या वैर नहीं था ।
वे तो उसके यज्ञ की समिधा भर थे ।
वह नित्य जागृत रहता ।
उसकी गति सर्वत्र, सूक्ष्म से सूक्ष्म,
और दूर से भी दूर तक थी ।
विष्णु उस पर आरूढ़ होते,
इसीलिए आज्ञा का संकेत पाते ही,
वह तत्क्षण उन्हें उनके गंतव्य तक ले जाता ।
वह भौतिक-शास्त्र की वह ’संभावना’ था,
जिस पर आरूढ़,
परमाणु के सूक्ष्मतम कण में प्रविष्ट विष्णु,
किसी दिशा में अन्तर्धान होते हुए दिखलाई देते हुए भी,
अगले ही पल, किसी सर्वथा अनपेक्षित,
किसी बिलकुल अप्रत्याशित दिशा में,
पुनः आविर्भूत हो उठते,
जिसका अनुमान वैज्ञानिक नहीं लगा सकता था ।
जब विष्णु विश्राम करते,
तो वैनतेय भी खड़े-खड़े,
जागृत-निद्रा में विश्राम पाता ।
जब जनमेजय के रूप में वैनतेय का जन्म हुआ,
तो एकमात्र लक्ष्य था उग्र तप ।
और इसलिए निराहार रहते हुए,
वह ज्ञानाग्नि में विचार की आहुति देता ।
ये विचार वही थे जो अपनी स्थूल-देह में नाग थे,
जो अपनी सूक्ष्म, प्राण-देह में विचार,
जो अपनी कारण-देह में भावनाएँ थे ।
जनमेजय ने नाग-यज्ञ आरंभ किया,
और वे आने लगे,
झुण्ड के झुण्ड,
बन रहे थे समिधा ।
हाँ कुछ इने-गिने विशालकाय नागराज ही,
बचे रह गए थे उस भूमि पर ।
वे दौड़कर गए श्रीहरि की शरण में ।
श्रीहरि ने अभयदान दिया,
जब मैं विश्राम करता हूँ,
तो वह भी विश्राम करता है ।
इसलिए तुम मुझे शैया दो !
तब नागराज शेष ने प्रसन्नतापूर्वक,
अर्पित की श्रीहरि को,
अपनी सेवाएँ,
और सुखपूर्वक जीने लगे फिर से,
नागलोक के निवासी ।
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November 10, 2015
आज की कविता : कितने सपने,
आज की कविता !
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©
उस दीपावलि,
इस दीपावलि,
हर दीपवलि,
कितने सपने,
कितने सुख-दुःख,
हमने जिए,
जलते रहे,
बुझते रहे,
पिघलते रहे,
बहते रहे,
साथ-साथ,
फिर भी तुम,
पूछती हो,
दिए लिये??
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उस दीपावलि,
इस दीपावलि,
हर दीपवलि,
कितने सपने,
कितने सुख-दुःख,
हमने जिए,
जलते रहे,
बुझते रहे,
पिघलते रहे,
बहते रहे,
साथ-साथ,
फिर भी तुम,
पूछती हो,
दिए लिये??
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भ्रू-माहात्म्य
आज की कविता : भ्रू-माहात्म्य
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देखते जिसको भी वह जडीभूत भयमुग्ध है,
भयग्रस्त इस संसार में हर-एक है डरा-डरा
हर-एक हर पल जी रहा जैसे कि हो मरा मरा ॥
भ्रूकुटी हो तीक्ष्ण या मृदु जैसे सुतीक्ष्ण की,
भ्रूकुटी एकाग्र हो या काँपती ज्यों दीप की,
भ्रूकुटी सुषुप्त हो जैसे कि हो वह सीप की,
योग की समाधि में मग्न अन्तरीप की ।
भ्रू-भंगिमा नटी मुद्रा, भ्रू-भंगिमा अनुरंजिनी
भ्रू-भंगिमा उल्लास चञ्चल, भ्रू-भ्ंगिमा अनुरागिणी,
भ्रू-भंगिमा यदि शान्त हो तो चित्त हो समाधि में
भ्रू-भंगिमा ही यदि नहीं तो सार क्या संसार में ?
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आज की कविता : भ्रू-माहात्म्य,
कविता
November 07, 2015
आज की कविता / 07/11/2015
आज की कविता / 07/11/2015
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©
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
हर दिन कंपित प्रतिपल चञ्चल,
ऊष्मप्राण ऊर्जितगातमन,
ऊषारुणवेला में सूर्यस्नात,
लहराती रहती हैं साँझ तक,
मुक्तमनोत्स्फूर्तचित्त,
डोलता फिरता हुआ,
तितलियों की छ्ँह छूने,
फैलाकर दोनों हाथ,
और फिर थकित प्राण,
लेकर अपना मुख म्लान,
सो जाता उनींदा सा,
क्रोड में यामिनी के,
सो जाती शिखा-पताकाएँ,
समेटकर उत्सव-उल्लास,
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
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ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
हर दिन कंपित प्रतिपल चञ्चल,
ऊष्मप्राण ऊर्जितगातमन,
ऊषारुणवेला में सूर्यस्नात,
लहराती रहती हैं साँझ तक,
मुक्तमनोत्स्फूर्तचित्त,
डोलता फिरता हुआ,
तितलियों की छ्ँह छूने,
फैलाकर दोनों हाथ,
और फिर थकित प्राण,
लेकर अपना मुख म्लान,
सो जाता उनींदा सा,
क्रोड में यामिनी के,
सो जाती शिखा-पताकाएँ,
समेटकर उत्सव-उल्लास,
ध्वनि-ध्वज शिखा-पताकाएँ,
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आज की कविता / 07/11/2015,
कविता
November 03, 2015
आज की कविता / वो एक अहसास!
आज की कविता
--
©
वो एक अहसास!
देह थकती है ख़याल थकता है,
साँस थकती है दिमाग़ थकता है,
कभी कभी दोनों न थकें तो भी,
कोई होता है जो कि थकता है ।
यह थकान दिलो-ज़िस्म से परे,
यह थकान जो है दुनिया से जुदा,
कभी कभी गो महसूस हुआ करती है,
यह महसूसना कभी नहीं थकता ।
कभी तो हस्ती में इस थकान से मैं,
होता हूँ वाक़िफ़ कभी नहीं होता,
कभी तो होती है नुमाँ रुख-ब-रुख,
कभी कभी इसका ग़ुमां नहीं होता,
किसे हुआ है कभी और कभी किसे होगा,
जिसे भी होगा जहाँ से अलहदा होगा ।
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©
वो एक अहसास!
देह थकती है ख़याल थकता है,
साँस थकती है दिमाग़ थकता है,
कभी कभी दोनों न थकें तो भी,
कोई होता है जो कि थकता है ।
यह थकान दिलो-ज़िस्म से परे,
यह थकान जो है दुनिया से जुदा,
कभी कभी गो महसूस हुआ करती है,
यह महसूसना कभी नहीं थकता ।
कभी तो हस्ती में इस थकान से मैं,
होता हूँ वाक़िफ़ कभी नहीं होता,
कभी तो होती है नुमाँ रुख-ब-रुख,
कभी कभी इसका ग़ुमां नहीं होता,
किसे हुआ है कभी और कभी किसे होगा,
जिसे भी होगा जहाँ से अलहदा होगा ।
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03/11/2015,
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वो एक अहसास!
October 31, 2015
प्रसंगवश : राजनीति के पुरस्कार बनाम पुरस्कार की राजनीति
राजनीति के पुरस्कार बनाम पुरस्कार की राजनीति
प्रसंगवश
नमस्कार: पुरस्कार लौटाने वालों को समझें !! आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने साहित्य ,प्रचार व इतिहास संस्थानों पर काँग्रेस की मदद से कब्जा किया l भारतीय इतिहास को पराजित मानसिकता का बनाया व प्राचीनता और गौरव को नकारा l साहित्य को भारत भक्ति से शून्य व सत्ता का गुलाम बनाया व विदेशी धन, प्रशंसा , तमगों की लालच में भारत को बदनाम करते रहे l इन्होने भारत की अस्मिता, गौरव की अनुभूति से जुड़े हर आंदोलन , साहित्य ,व्यक्ति ,संस्था ,प्रयास पर चोट की l
2014 के चुनाव में मोदी व भा.ज .पा को हराने की अपील की थी l
.........इन्हें अब लग गया कि अब ये हिंदू संस्कृति, संस्थाओं , विचारो को गाली नहीँ दे सकते , इनका षडयंत्र चल नहीँ सकता तो ये उन तमाम राष्ट्र विरोधी कार्यों , हिंसक कृत्यों , दंगो , हिंदू अपमान के मुद्दों पर चुप रहने वाले कायर लोग अब प्रचार पाने हेतु अवॉर्ड लौटा रहे हैं l अपने व अपनी विचारधारा के अस्तित्व के आखिरी पड़ाव में इनका असली रुप सामने आ ही गया l सारा देश जान रहा है publicity stunt के सहारे जीते आ रहे इन बेईमान लोगों का आखिरी publicity stunt . हम समझते रहें l....
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October 24, 2015
हे शंकर त्रिपुरारी!
आज की कविता
हे शंकर त्रिपुरारी!
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तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
तात मात नहि तुम बिन कोऊ, भ्रात-भगिनी, नहि नारी,
नहि घर-बार नहीं धन-संपति, नहि कोऊ मीत हितैषी!
तीन ताप त्रिशूल भये हैं, हे त्रिनेत्र त्रिशूलधारी !
षड्-रिपु मोहे त्रस्त किए हैं, हे प्रिय-शैलदुलारी!
अब तो मुझ पर किरपा कीजे, गंगाधर डमरूधारी!
बिनती है चरनन में लीजे, मोहे हे मदनारी!
तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
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©
हे शंकर त्रिपुरारी!
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तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
तात मात नहि तुम बिन कोऊ, भ्रात-भगिनी, नहि नारी,
नहि घर-बार नहीं धन-संपति, नहि कोऊ मीत हितैषी!
तीन ताप त्रिशूल भये हैं, हे त्रिनेत्र त्रिशूलधारी !
षड्-रिपु मोहे त्रस्त किए हैं, हे प्रिय-शैलदुलारी!
अब तो मुझ पर किरपा कीजे, गंगाधर डमरूधारी!
बिनती है चरनन में लीजे, मोहे हे मदनारी!
तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
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स्तोत्रं . शिव-स्तोत्र,
स्वरचित
October 15, 2015
आज की कविता अकसर
आज की कविता
अकसर
©
मुझे अकसर,
आवाजों में रंग दिखाई देते हैं,
रंगों में महक महसूस होती है,
महक में स्वाद,
और स्वाद में नमी भी,
नमी में स्नेह,
स्नेह में प्रेम,
और प्रेम में प्रिय,
किन्तु तब मैं नहीँ होता!
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अकसर
©
मुझे अकसर,
आवाजों में रंग दिखाई देते हैं,
रंगों में महक महसूस होती है,
महक में स्वाद,
और स्वाद में नमी भी,
नमी में स्नेह,
स्नेह में प्रेम,
और प्रेम में प्रिय,
किन्तु तब मैं नहीँ होता!
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October 05, 2015
आज की संस्कृत रचना : नाट्यशास्त्रम्
आज की संस्कृत रचना :
नाट्यशास्त्रम् / नाट्यशास्त्रसारम्
©
नाट्यम् नटति कोऽपि कोऽपि नटराजो भवेत् ।
कोऽपि नटसूत्रधारको सञ्चालको सूत्रधारो ॥
--
और हिन्दी में :
नटनागर नटखट बहुत, जैसे हों नटराज,
नटी भई मैं नट गयी बिसरे सगरे काज ।
नाट्यशास्त्रम् / नाट्यशास्त्रसारम्
©
नाट्यम् नटति कोऽपि कोऽपि नटराजो भवेत् ।
कोऽपि नटसूत्रधारको सञ्चालको सूत्रधारो ॥
--
और हिन्दी में :
नटनागर नटखट बहुत, जैसे हों नटराज,
नटी भई मैं नट गयी बिसरे सगरे काज ।
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कविता गूँगे का गुड, कविता पैरबिवाई
जो जाने समझा करै, देखे ना समझे कोई ।
--कविता गूँगे का गुड, कविता पैरबिवाई
जो जाने समझा करै, देखे ना समझे कोई ।
(गूँगे केरी सर्करा ...)
September 25, 2015
आज की कविता- सच का सच /2
आज की कविता
--
सच का सच /2
______________
©
चल अचल के साथ में,
अचल चंचल हो रहा,
चल बँधा यूँ स्नेह में
अब भला जाए कहाँ ?
नेह का बँधन अनोखा,
देह-मन की प्रीत सा,
एक चंचल एक चल,
जग की अनोखी रीत सा!
और यूँ जीवन हरेक,
पल-पल युगों से जी रहा,
अस्तित्व के इस नृत्य में,
जीव हर हर्षा रहा ।
--
--
सच का सच /2
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©
चल अचल के साथ में,
अचल चंचल हो रहा,
चल बँधा यूँ स्नेह में
अब भला जाए कहाँ ?
नेह का बँधन अनोखा,
देह-मन की प्रीत सा,
एक चंचल एक चल,
जग की अनोखी रीत सा!
और यूँ जीवन हरेक,
पल-पल युगों से जी रहा,
अस्तित्व के इस नृत्य में,
जीव हर हर्षा रहा ।
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September 24, 2015
आज की कविता / सच का सच
आज की कविता
सच का सच
______________
©
हालाँकि यह,
एकदम सच है कि,
कुछ न कुछ,
’हमेशा’ होता रहता है,
लेकिन फिर,
यह भी,
इतना ही सच है कि,
’हमेशा’ जैसा कुछ कहीं नहीं होता,
--
सच का सच
______________
©
हालाँकि यह,
एकदम सच है कि,
कुछ न कुछ,
’हमेशा’ होता रहता है,
लेकिन फिर,
यह भी,
इतना ही सच है कि,
’हमेशा’ जैसा कुछ कहीं नहीं होता,
--
September 21, 2015
नैन भए बोहित के काग.. . . . -सूरदास
नैन भए बोहित के काग.. . . .
-सूरदास
--
सूरदास चर्मचक्षुओं से वंचित थे । और शायद यही कारण है कि अपने अन्तर्चक्षु से उन्हें परमात्मा के दर्शन होते थे । और इस संसार के चर्मचक्षुयुक्त अन्तर्दृष्टिरहित लोगों की उपमा वे गोपिकाओं के रूप में दिया करते थे । उनका एक पद है जिसमें वे कहते हैं :
"मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे,
जैसे उड़ि जहाज को पँछी पुनि जहाज पर आवे..."
यहाँ भी जहाज के पँछी के रूप में वे संसार के वैराग्य-विवेक से रहित मनुष्यों के लिए पँछी की उपमा देते हुए कहते हैं कि वे घूम-फिरकर पुनः पुनः इन्द्रिय-सुखों रूपी अपने संसार में लौट आते हैं, जैसे समुद्र में दूर स्थित जहाज पर रहनेवाला पँछी घूम-फिरकर पुनः जहाज पर ही लौट आता है, किन्तु यदि कभी सौभाग्यवश उसका जहाज किसी ऐसे तट पर उसे ले जाता है जहाँ से वह अपने स्वाभाविक परिवेश, जँगल या वन-उपवन में पहुँच जाए, तो भूलकर भी पुनः जहाज पर नहीं लौटता, वैसे ही जिनके नयन श्याम के रूप से बँध जाते हैं वे पुनः भूलकर भी संसार की तुच्छ गर्हित विषय-वासनाओं की ओर नहीं लौटते । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे मन को इस संसार में अनत (अनंत) सुख कैसे मिल सकता है, यह तो जहाज के पंछी की मज़बूरी है कि समुद्र पार कर दूर तट पर न जा पाने के ही कारण वह पुनः पुनः जहाज पर लौट आता है । इस पद में भी वही उदाहरण है । हमारे नेत्र-रूपी दो काग घूमफिरकर ’फ़ेसबुक’ / ’ट्विट्टर’ तथा गूगल / याहू पर लौट आते हैं जहाँ अनन्त सुख नहीं मिल सकता । अनन्त सुख तो श्याम के दर्शन में ही है।
यह ’पोत-कपोत’ का सन्दर्भ तो भाषा-शास्त्रियों के लिए है, हमारे आपके जैसे लोगों के लिए नहीं ।
-सूरदास
--
सूरदास चर्मचक्षुओं से वंचित थे । और शायद यही कारण है कि अपने अन्तर्चक्षु से उन्हें परमात्मा के दर्शन होते थे । और इस संसार के चर्मचक्षुयुक्त अन्तर्दृष्टिरहित लोगों की उपमा वे गोपिकाओं के रूप में दिया करते थे । उनका एक पद है जिसमें वे कहते हैं :
"मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे,
जैसे उड़ि जहाज को पँछी पुनि जहाज पर आवे..."
यहाँ भी जहाज के पँछी के रूप में वे संसार के वैराग्य-विवेक से रहित मनुष्यों के लिए पँछी की उपमा देते हुए कहते हैं कि वे घूम-फिरकर पुनः पुनः इन्द्रिय-सुखों रूपी अपने संसार में लौट आते हैं, जैसे समुद्र में दूर स्थित जहाज पर रहनेवाला पँछी घूम-फिरकर पुनः जहाज पर ही लौट आता है, किन्तु यदि कभी सौभाग्यवश उसका जहाज किसी ऐसे तट पर उसे ले जाता है जहाँ से वह अपने स्वाभाविक परिवेश, जँगल या वन-उपवन में पहुँच जाए, तो भूलकर भी पुनः जहाज पर नहीं लौटता, वैसे ही जिनके नयन श्याम के रूप से बँध जाते हैं वे पुनः भूलकर भी संसार की तुच्छ गर्हित विषय-वासनाओं की ओर नहीं लौटते । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे मन को इस संसार में अनत (अनंत) सुख कैसे मिल सकता है, यह तो जहाज के पंछी की मज़बूरी है कि समुद्र पार कर दूर तट पर न जा पाने के ही कारण वह पुनः पुनः जहाज पर लौट आता है । इस पद में भी वही उदाहरण है । हमारे नेत्र-रूपी दो काग घूमफिरकर ’फ़ेसबुक’ / ’ट्विट्टर’ तथा गूगल / याहू पर लौट आते हैं जहाँ अनन्त सुख नहीं मिल सकता । अनन्त सुख तो श्याम के दर्शन में ही है।
यह ’पोत-कपोत’ का सन्दर्भ तो भाषा-शास्त्रियों के लिए है, हमारे आपके जैसे लोगों के लिए नहीं ।
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प्रसंगवश
September 19, 2015
आज की कविता : एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
आज की कविता
एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
--
©
अतिथि तुम कब आओगे?
--
देह पत्थर का बना भारी घर,
साँस बूढ़ी की तरह,
चढ़ती उतरती रहती है,
सीढ़ियाँ काठ की,
डगमगाती काँपती जर्जर,
और भूकंप के अंदेशे हरदम ।
हवा के चलने से,
खड़क जाती हैँ खिड़कियाँ जो कभी,
तुम्हारे आने का वहम होता है,
और इंतज़ार का हर इक लमहा
ख़त्म न होता हुआ तनहा सफ़र होता है ।
सिलसिला यूँ ही चल रहा है यहाँ,
बस यही रोज का है अपना बसर,
और यही आज की भी ताज़ा ख़बर!
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एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
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©
अतिथि तुम कब आओगे?
--
देह पत्थर का बना भारी घर,
साँस बूढ़ी की तरह,
चढ़ती उतरती रहती है,
सीढ़ियाँ काठ की,
डगमगाती काँपती जर्जर,
और भूकंप के अंदेशे हरदम ।
हवा के चलने से,
खड़क जाती हैँ खिड़कियाँ जो कभी,
तुम्हारे आने का वहम होता है,
और इंतज़ार का हर इक लमहा
ख़त्म न होता हुआ तनहा सफ़र होता है ।
सिलसिला यूँ ही चल रहा है यहाँ,
बस यही रोज का है अपना बसर,
और यही आज की भी ताज़ा ख़बर!
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September 15, 2015
हिंदी -दिवस / भाषा-दिवस
हिंदी -दिवस / भाषा-दिवस
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जैसे हर शहर का अपना एक चरित्र होता है और शहर एक जीवंत इकाई होता है, वैसे ही हर भाषा का एक चरित्र होता है, और हर भाषा अपने-आप में अनेक खूबियों से भरी होती हैं इसलिए भाषाओं का झगड़ा व्यर्थ की नासमझी है, अगर हम अधिक से अधिक, या कम से कम अपनी ही भाषा से ही प्रेम रखें, तो हमें दूसरी भाषाओं से वैर / भय रखने की क़तई ज़रूरत नहीं और इसीलिए सभी भाषाएँ साथ-साथ ही पनपती या नष्ट होती हैं, अलगाव में नहीं! हिन्दी-दिवस को इस भावना से मनाएँ तो शायद हम अधिक सुखी होंगे ।
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___________
जैसे हर शहर का अपना एक चरित्र होता है और शहर एक जीवंत इकाई होता है, वैसे ही हर भाषा का एक चरित्र होता है, और हर भाषा अपने-आप में अनेक खूबियों से भरी होती हैं इसलिए भाषाओं का झगड़ा व्यर्थ की नासमझी है, अगर हम अधिक से अधिक, या कम से कम अपनी ही भाषा से ही प्रेम रखें, तो हमें दूसरी भाषाओं से वैर / भय रखने की क़तई ज़रूरत नहीं और इसीलिए सभी भाषाएँ साथ-साथ ही पनपती या नष्ट होती हैं, अलगाव में नहीं! हिन्दी-दिवस को इस भावना से मनाएँ तो शायद हम अधिक सुखी होंगे ।
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September 08, 2015
आज की कविता / क़ाश !
आज की कविता / क़ाश !
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©
कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
ऊँघती उठती ठिठकती सिमटती सी,
लेके अंगड़ाई गले से लिपटती सी,
देखकर चूहे को डर से काँपती सी,
भागकर तेज़ी से कुछ-कुछ हाँफ़ती सी,
स्याह कजरारी सुरमई चितकबरी,
लाल भूरी रेशमी सी मखमली सी,
हर तरफ़, हाँ हर तरफ़ बिखरी हुईं सी,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
खेलती चूज़ों से मुर्ग़े-मुर्ग़ियों से,
धूप में उस दौड़ती उन गिलहरियों से,
आपके सोफ़े पे बैठी हो सलीके से,
देखती हो आपको बस कनखियों से,
कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
...
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©
कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
ऊँघती उठती ठिठकती सिमटती सी,
लेके अंगड़ाई गले से लिपटती सी,
देखकर चूहे को डर से काँपती सी,
भागकर तेज़ी से कुछ-कुछ हाँफ़ती सी,
स्याह कजरारी सुरमई चितकबरी,
लाल भूरी रेशमी सी मखमली सी,
हर तरफ़, हाँ हर तरफ़ बिखरी हुईं सी,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
खेलती चूज़ों से मुर्ग़े-मुर्ग़ियों से,
धूप में उस दौड़ती उन गिलहरियों से,
आपके सोफ़े पे बैठी हो सलीके से,
देखती हो आपको बस कनखियों से,
कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
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September 06, 2015
आज की कविता / बेटियाँ,
आज की कविता
--
©
बेटियाँ ...
बूटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
सकुचाकर सिमट जाती हैं,
छाया भी छूना मत उनकी,
अपरिचित, उन्मुक्त, चंचल,
बेटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
खिलखिला उठती हैं,
पल भर गले लगकर,
हो जाती हैं गद्-गद्,
पवित्र, नाज़ुक, चंचल,
कर देती हैं भावुक,
बूढ़े पिता को,.....
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©
बूटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
सकुचाकर सिमट जाती हैं,
छाया भी छूना मत उनकी,
अपरिचित, उन्मुक्त, चंचल,
बेटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
खिलखिला उठती हैं,
पल भर गले लगकर,
हो जाती हैं गद्-गद्,
पवित्र, नाज़ुक, चंचल,
कर देती हैं भावुक,
बूढ़े पिता को,.....
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दिग्विजय
आज की कविता
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©
यौवन-रथ कब रुका है,
लाँघकर समुद्र-पर्वत,
दिग्विजय करता रहा है,
दिग्-दिगंत तक!
उन्नत पथ लेकिन झुका है,
क़दमों तले उसके,
बिछ-बिछ गया है,
लाल कालीन सा!
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©
यौवन-रथ कब रुका है,
लाँघकर समुद्र-पर्वत,
दिग्विजय करता रहा है,
दिग्-दिगंत तक!
उन्नत पथ लेकिन झुका है,
क़दमों तले उसके,
बिछ-बिछ गया है,
लाल कालीन सा!
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August 26, 2015
आज की कविता
आज की कविता
©
--
मुझमें रहते हैं बहुत से लोग, मैं कोई नहीं,
उनमें से ही कहता कोई एक, मैं कोई नहीं ।
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©
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मुझमें रहते हैं बहुत से लोग, मैं कोई नहीं,
उनमें से ही कहता कोई एक, मैं कोई नहीं ।
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August 22, 2015
आज की कविता / सहारा
आज की कविता / सहारा
--
©
ठिठका रहा मैं द्वीप सा पानी के बीच,
इर्द-गिर्द यातनाओं का प्रवाह,
डूबते थे तुम, सहारा दे सका,
धन्य था गद्-गद् हृदय, मैं अश्रु-सिक्त ।
--
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©
ठिठका रहा मैं द्वीप सा पानी के बीच,
इर्द-गिर्द यातनाओं का प्रवाह,
डूबते थे तुम, सहारा दे सका,
धन्य था गद्-गद् हृदय, मैं अश्रु-सिक्त ।
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August 13, 2015
आज की कविता / वज़ह
आज की कविता
--
©
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©
आदमी ज़िन्दा ही मरा करता है,
बहाने मरने के यूँ तो हज़ार होते हैं
बहाना हो कोई लेकिन फ़िर भी,
वज़ह ज़िन्दगी ही हुआ करती है,
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August 12, 2015
हे भारत! (राष्ट्र-वंदना) - स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’
हे भारत!
(राष्ट्र-वंदना)
स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’
--
तुझको या तेरे नदीश,
गिरि-वन को करूँ नमन मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत,
किसको नमन करूँ मैं?
--
भू के मानचित्र पर अंकित,
त्रिभुज यही क्या तू है?
नर के नभश्चरण की दृढ़
कल्पना नहीं क्या तू है?
वेदों का ज्ञाता,
निगूढ़ताओं का चिरज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश,
नहीं तू पत्थर है, पानी है ।
जडताओं में छिपे किसी चेतन को करूँ नमन मैं,
--
भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं,
शील यह भूमण्डल भर का है ।
देश-देश में वहाँ खड़ा
भारत जीवित भास्कर है..
निखिल विश्व की जन्मभूमि के
वंदन को करूँ नमन मैं
--
मित्र-भाव की ओर,
विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो, जीवन-
सरिता में प्रेम-रसायन,
खोल रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन,
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को करूँ नमन मैं...
--
उठे जहाँ भी घोष शांति का,
भारत स्वर तेरा है,
धर्मदीप हो जिसके भी,
कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर,
सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए,
प्राण अर्पित करने आता है,
मानवता के इस ललाट,
वंदन को करूँ नमन मैं !
--
(राष्ट्र-वंदना)
स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’
--
तुझको या तेरे नदीश,
गिरि-वन को करूँ नमन मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत,
किसको नमन करूँ मैं?
--
भू के मानचित्र पर अंकित,
त्रिभुज यही क्या तू है?
नर के नभश्चरण की दृढ़
कल्पना नहीं क्या तू है?
वेदों का ज्ञाता,
निगूढ़ताओं का चिरज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश,
नहीं तू पत्थर है, पानी है ।
जडताओं में छिपे किसी चेतन को करूँ नमन मैं,
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भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं,
शील यह भूमण्डल भर का है ।
देश-देश में वहाँ खड़ा
भारत जीवित भास्कर है..
निखिल विश्व की जन्मभूमि के
वंदन को करूँ नमन मैं
--
खंडित है यह मही,
शैल से सरिता से सागर से,
पर जब भी दो हाथ निकल,
मिलते आ द्वीपान्तर से,
तब खाईं को पाट,
शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह,
भारत ही रचता है !
मंगलमय यह महासेतु-,
बंधन को करूँ नमन मैं !
--
दो हृदयों के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,मित्र-भाव की ओर,
विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो, जीवन-
सरिता में प्रेम-रसायन,
खोल रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन,
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को करूँ नमन मैं...
--
उठे जहाँ भी घोष शांति का,
भारत स्वर तेरा है,
धर्मदीप हो जिसके भी,
कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर,
सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए,
प्राण अर्पित करने आता है,
मानवता के इस ललाट,
वंदन को करूँ नमन मैं !
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August 11, 2015
आज की कविता / स्वतन्त्रता
आज की कविता / स्वतन्त्रता
--
©
तुम प्यास हो तो मिट जाओ,
तुम प्यार हो तो बह जाओ,
जहाँ में रहना अगर मुश्किल हो,
साँस सी मुझमें तुम ठहर जाओ ।
--
जिस प्रकार मनुष्य को जीने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, वैसे ही उसे स्वेच्छया अपने मर जाने के अधिकार से भी वंचित नहीं किया जाना चाहिए ।
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तुम प्यास हो तो मिट जाओ,
तुम प्यार हो तो बह जाओ,
जहाँ में रहना अगर मुश्किल हो,
साँस सी मुझमें तुम ठहर जाओ ।
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जिस प्रकार मनुष्य को जीने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, वैसे ही उसे स्वेच्छया अपने मर जाने के अधिकार से भी वंचित नहीं किया जाना चाहिए ।
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August 07, 2015
आज की कविता - दुविधा / अनामिका
आज की कविता
दुविधा / अनामिका
--
©
एक खो-खो का खेल शुरु किया,
वृन्दा ने,
और हम रूमाल लिए हुए हैं ।
इस कली की पहचान,
-कठिन है ।
खिले फूल पेड़ पर नहीं दिखे,
और जो थे भूमि पर,
लगते थे गंधराज जैसे,
किन्तु थे कुछ और ही,
क्योंकि पेड़ बड़ा था !
--
(यह सिर्फ़ कविता के रूप में लिखा है, उसी रूप में देखें, इसका किसी और से कोई संबंध नहीं है।)
दुविधा / अनामिका
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©
वृन्दा ने,
और हम रूमाल लिए हुए हैं ।
इस कली की पहचान,
-कठिन है ।
खिले फूल पेड़ पर नहीं दिखे,
और जो थे भूमि पर,
लगते थे गंधराज जैसे,
किन्तु थे कुछ और ही,
क्योंकि पेड़ बड़ा था !
--
(यह सिर्फ़ कविता के रूप में लिखा है, उसी रूप में देखें, इसका किसी और से कोई संबंध नहीं है।)
August 05, 2015
आज की कविता - इत्ती सी हँसी ...
आज की कविता
--
इत्ती सी हँसी ...
©
इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
जीने के लिए, मरने के लिए,
जब शिशु थे, तो पाई थी,
लोगों को हँसाया करते थे,
जब बड़े हुए तो खोने लगी,
सबको भरमाते रहते थे,
जब पैसा पद सम्मान मिला,
इत्ती सी हँसी भी बची नहीं,
जीवन की आपाधापी में
जाने गिरकर खो गयी कहीं,
इत्ती सी हँसी को तरस गये,
तो त्यागी सारी मोह ममता,
इत्ती सी हँसी फ़िर लौट आई,
जब सबमें नज़र आई समता,
दुःख में सुख में, हानि-लाभ में,
रोग-शोक में, यश-अपयश में,
पशु-पक्षी चींटी हाथी में,
दुश्मन में या फ़िर साथी में,
इत्ती सी हँसी बस शेष रही,
इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
--
--
इत्ती सी हँसी ...
©
इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
जीने के लिए, मरने के लिए,
जब शिशु थे, तो पाई थी,
लोगों को हँसाया करते थे,
जब बड़े हुए तो खोने लगी,
सबको भरमाते रहते थे,
जब पैसा पद सम्मान मिला,
इत्ती सी हँसी भी बची नहीं,
जीवन की आपाधापी में
जाने गिरकर खो गयी कहीं,
इत्ती सी हँसी को तरस गये,
तो त्यागी सारी मोह ममता,
इत्ती सी हँसी फ़िर लौट आई,
जब सबमें नज़र आई समता,
दुःख में सुख में, हानि-लाभ में,
रोग-शोक में, यश-अपयश में,
पशु-पक्षी चींटी हाथी में,
दुश्मन में या फ़िर साथी में,
इत्ती सी हँसी बस शेष रही,
इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
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कविता
August 04, 2015
फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता - हिंदी अनुवाद
I do not know how many souls I have
--
फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता
हिंदी अनुवाद
--
मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
--
मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
हर पल बदलता गया हूँ मैं,
अपने आपको हमेशा अजनबी महसूस करते हुए,
कभी नहीं देखा, या पाया अपने आपको मैंने,
इतना सब होते हुए भी, एक ही तो है अस्मिता मेरी,
जिनकी होती हैं अनेक अस्मिताएँ, उन्हें शांति नहीं मिलती,
वह, जो कि देखता है, वही होता है, जिसे कि वह देखता है,
वह, जो कि वह महसूस करता है,
-वह नहीं होता, जिसे कि वह महसूस करता है,
मैं जो हूँ और जिसे मैं कि देखता हूँ,
उस ओर मेरा ध्यान दिया जाना ही,
मुझे उनमें बदल देता है,
मेरा हर स्वप्न और मेरी हर इच्छा,
उसकी है, जो कि उन पर आधिपत्य रखता है,
-न कि मेरी!
अपना धरातल, मैं तो स्वयं ही हूँ,
मैं बस साक्षी हूँ,
-अपनी स्वयं की यात्रा का ।
विविध दिशाओं की ओर गतिशील,
और अकेला,
मैं नहीं महसूस कर सकता,
-अपने-आपको,
कि कहाँ हूँ मैं!
और यही कारण है,
कि पढ़ता हूँ,
एक अजनबी की तरह,
अपने अस्तित्व के पृष्ठों को मैं,
वह जो होनेवाला है,
मैं उसे होने से नहीं रोक सकता,
जो गुज़र चुका, उसे मैं भूल जाता हूँ,
जो कुछ भी मैं पढ़ता हूँ,
उसे हाशिए पर नोट कर देता हूँ,
जो भी सोचा, जो भी महसूस किया,
दोबारा उसे पढ़ते हुए कहता हूँ,
"क्या यह मैं था?"
भगवान जाने!
क्योंकि उसने ही इसे लिखा है ।
--
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फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता
हिंदी अनुवाद
--
मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
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मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
हर पल बदलता गया हूँ मैं,
अपने आपको हमेशा अजनबी महसूस करते हुए,
कभी नहीं देखा, या पाया अपने आपको मैंने,
इतना सब होते हुए भी, एक ही तो है अस्मिता मेरी,
जिनकी होती हैं अनेक अस्मिताएँ, उन्हें शांति नहीं मिलती,
वह, जो कि देखता है, वही होता है, जिसे कि वह देखता है,
वह, जो कि वह महसूस करता है,
-वह नहीं होता, जिसे कि वह महसूस करता है,
मैं जो हूँ और जिसे मैं कि देखता हूँ,
उस ओर मेरा ध्यान दिया जाना ही,
मुझे उनमें बदल देता है,
मेरा हर स्वप्न और मेरी हर इच्छा,
उसकी है, जो कि उन पर आधिपत्य रखता है,
-न कि मेरी!
अपना धरातल, मैं तो स्वयं ही हूँ,
मैं बस साक्षी हूँ,
-अपनी स्वयं की यात्रा का ।
विविध दिशाओं की ओर गतिशील,
और अकेला,
मैं नहीं महसूस कर सकता,
-अपने-आपको,
कि कहाँ हूँ मैं!
और यही कारण है,
कि पढ़ता हूँ,
एक अजनबी की तरह,
अपने अस्तित्व के पृष्ठों को मैं,
वह जो होनेवाला है,
मैं उसे होने से नहीं रोक सकता,
जो गुज़र चुका, उसे मैं भूल जाता हूँ,
जो कुछ भी मैं पढ़ता हूँ,
उसे हाशिए पर नोट कर देता हूँ,
जो भी सोचा, जो भी महसूस किया,
दोबारा उसे पढ़ते हुए कहता हूँ,
"क्या यह मैं था?"
भगवान जाने!
क्योंकि उसने ही इसे लिखा है ।
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July 26, 2015
आज की 2 कविताएँ
आज की 2 कविताएँ
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©
1. बाढ़
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घर में पानी, पानी में घर,
और हुआ देखो मैं बेघर!
--
2.
अन्योन्याश्रित
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घट में पानी, पानी में घट,
दुनिया, गोरी! गागर पनघट!
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©
1. बाढ़
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घर में पानी, पानी में घर,
और हुआ देखो मैं बेघर!
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2.
अन्योन्याश्रित
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घट में पानी, पानी में घट,
दुनिया, गोरी! गागर पनघट!
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July 25, 2015
आज की कविता / ’क्यों?’
आज की कविता / ’क्यों?’
--
©
मन हमेशा ऊब जाता है नई हर बात से,
आदमी क्यों मन से ऊबता नहीं ?
बहता ही रहता है मन के साथ क्यों ,
क्यों दिल की गहराई में डूबता नहीं ?
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©
मन हमेशा ऊब जाता है नई हर बात से,
आदमी क्यों मन से ऊबता नहीं ?
बहता ही रहता है मन के साथ क्यों ,
क्यों दिल की गहराई में डूबता नहीं ?
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July 19, 2015
आज की कविता / मंज़र
आज की कविता
--
©
मंज़र
रोज़ बदल जाते हैं,
निज़ाम हुकूमत के,
रोज़ बदल जाती है,
तक़दीर रिआया की ।
रोज़ बदल जाते हैं,
नजूमी सियासत के,
रोज़ बदल जाती है,
पेशीनग़ोई उनकी ।
--
शुभ रात्रि !
--
©
मंज़र
निज़ाम हुकूमत के,
रोज़ बदल जाती है,
तक़दीर रिआया की ।
रोज़ बदल जाते हैं,
नजूमी सियासत के,
रोज़ बदल जाती है,
पेशीनग़ोई उनकी ।
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शुभ रात्रि !
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July 17, 2015
July 16, 2015
आज की कविता / 'अच्छे दिन!'
आज की कविता
_____________
'अच्छे दिन!'
--
©
वह ढोती,
सिर पर,
घास का गट्ठर,
घर पहुँचकर,
देगी गाय को,
गाय को दुहकर,
बनाएगी चाय,
पति आता होगा,
पिएँगे दोनों,
ए.टी.एम. कार्ड,
उसके पास भी होगा,
शायद मोबाईल भी,
दोनों में शायद बैलेंस भी हो,
शून्य ही सही !
--
_____________
'अच्छे दिन!'
--
©
वह ढोती,
सिर पर,
घास का गट्ठर,
घर पहुँचकर,
देगी गाय को,
गाय को दुहकर,
बनाएगी चाय,
पति आता होगा,
पिएँगे दोनों,
ए.टी.एम. कार्ड,
उसके पास भी होगा,
शायद मोबाईल भी,
दोनों में शायद बैलेंस भी हो,
शून्य ही सही !
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आज की कविता / 'अच्छे दिन!',
आजकल,
आषाढ़ का एक दिन,
इन दिनों.,
कविता.
July 09, 2015
प्रसंगवश : गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर
प्रसंगवश,
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर
कौन है ’जन-गण-मन-अधिनायक’?
जन अर्थात् जन-सामान्य,
गण अर्थात् गण्यमान अर्थात् देवता, गणतन्त्र के प्रतिनिधि,
मन अर्थात् राष्ट्र की चेतना,
अधिनायक अर्थात् सर्वोच्च शासक-शक्ति,
स्पष्ट है कि ’अधिनायक’ का अर्थ कोई मनुष्य-विशेष न होकर परमेश्वर मात्र है ।
हम सामान्यतः अधिनायक शब्द को dictator के अर्थ में ग्रहण करते हैं, और जिन्हें अधिनायक शब्द का यही भाव और अर्थ गुरुदेव की इस रचना में दिखलाई देता है, उनके पूर्वाग्रह पर मुझे हँसी आती है । और इसकी रचना की तारीख़ किंग जॉर्ज के भारत-आगमन के आसपास होने का यह मतलब निकालना कि गुरुदेव ने यह रचना उनकी प्रशस्ति में लिखी है, शुद्ध काल्पनिक अनुमान ही होगा, और इस आधार पर ठाकुर रवीन्द्रनाथ के साथ हमारा घोर अन्याय भी होगा । क्या देखना यह उचित नहीं होगा कि गीताञ्जलि और दूसरी असंख्य रचनाओं में उन्होंने ’ईश्वर’ का उल्लेख नहीं किया है? क्या कहीं किंग जॉर्ज का परोक्ष / अपरोक्ष उल्लेख किया है?
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गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर
कौन है ’जन-गण-मन-अधिनायक’?
जन अर्थात् जन-सामान्य,
गण अर्थात् गण्यमान अर्थात् देवता, गणतन्त्र के प्रतिनिधि,
मन अर्थात् राष्ट्र की चेतना,
अधिनायक अर्थात् सर्वोच्च शासक-शक्ति,
स्पष्ट है कि ’अधिनायक’ का अर्थ कोई मनुष्य-विशेष न होकर परमेश्वर मात्र है ।
हम सामान्यतः अधिनायक शब्द को dictator के अर्थ में ग्रहण करते हैं, और जिन्हें अधिनायक शब्द का यही भाव और अर्थ गुरुदेव की इस रचना में दिखलाई देता है, उनके पूर्वाग्रह पर मुझे हँसी आती है । और इसकी रचना की तारीख़ किंग जॉर्ज के भारत-आगमन के आसपास होने का यह मतलब निकालना कि गुरुदेव ने यह रचना उनकी प्रशस्ति में लिखी है, शुद्ध काल्पनिक अनुमान ही होगा, और इस आधार पर ठाकुर रवीन्द्रनाथ के साथ हमारा घोर अन्याय भी होगा । क्या देखना यह उचित नहीं होगा कि गीताञ्जलि और दूसरी असंख्य रचनाओं में उन्होंने ’ईश्वर’ का उल्लेख नहीं किया है? क्या कहीं किंग जॉर्ज का परोक्ष / अपरोक्ष उल्लेख किया है?
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गीतांजलि,
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर,
प्रसंगवश
July 08, 2015
आज की कविता / हवा में ठहरा हुआ पँख
आज की कविता
©
हवा में ठहरा हुआ पँख
--
हवा में ठहरा हुआ पंख,
हवा है,
हवा के साथ डोलता हुआ,
पानी है,
बून्दों में भींगता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
धरती है,
धरती की ओर गिरता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
अग्निशिखा है,
धूप में चमकता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख आकाश है,
आकाश में खेलता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
सब-कुछ है,
सबसे बँधा हुआ,
संसक्त, असक्त, अनासक्त,
विरक्त, अनुरक्त,
उन्मुक्त, मुक्त, विमुक्त,
सबसे निर्लिप्त,
निरीह!
--
©
हवा में ठहरा हुआ पँख
--
हवा में ठहरा हुआ पंख,
हवा है,
हवा के साथ डोलता हुआ,
पानी है,
बून्दों में भींगता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
धरती है,
धरती की ओर गिरता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
अग्निशिखा है,
धूप में चमकता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख आकाश है,
आकाश में खेलता हुआ,
हवा में ठहरा हुआ पंख,
सब-कुछ है,
सबसे बँधा हुआ,
संसक्त, असक्त, अनासक्त,
विरक्त, अनुरक्त,
उन्मुक्त, मुक्त, विमुक्त,
सबसे निर्लिप्त,
निरीह!
--
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आज की कविता / हवा में ठहरा हुआ पँख,
कविता
July 07, 2015
अेक सवाल !
अेक सवाल !
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वक़्त की धीमी गति की ट्रेन के रुक जाने पर हर बार मैं ट्रेन में बैठे रहने से ऊबकर बाहर उतर आता हूँ, और ट्रेन के चल पड़ने पर दौड़कर डिब्बे में चढ़ जाता हूँ । जहाँ से ट्रेन में जिस डिब्बे में बैठा था, हर बार उतरते-उतरते बहुत पीछे पहुँच गया हूँ, शायद आखिरी या उसके पहले के दूसरे या तीसरे डिब्बे में । अब सोचता हूँ कि क्या अगली बार अपने डिब्बे से उतरने का रिस्क लिया जाए? और उस पर तुर्रा यह कि मुझे नहीं पता कि ट्रेन का गन्तव्य कहाँ है, जहाँ वक़्त का सफ़र ख़त्म हो जाएगा ! क्या मैं किसी दिन वक़्त से परे कहीं पहुँच जाऊँगा? इसका क्या मतलब हुआ आख़िर????
©
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वक़्त की धीमी गति की ट्रेन के रुक जाने पर हर बार मैं ट्रेन में बैठे रहने से ऊबकर बाहर उतर आता हूँ, और ट्रेन के चल पड़ने पर दौड़कर डिब्बे में चढ़ जाता हूँ । जहाँ से ट्रेन में जिस डिब्बे में बैठा था, हर बार उतरते-उतरते बहुत पीछे पहुँच गया हूँ, शायद आखिरी या उसके पहले के दूसरे या तीसरे डिब्बे में । अब सोचता हूँ कि क्या अगली बार अपने डिब्बे से उतरने का रिस्क लिया जाए? और उस पर तुर्रा यह कि मुझे नहीं पता कि ट्रेन का गन्तव्य कहाँ है, जहाँ वक़्त का सफ़र ख़त्म हो जाएगा ! क्या मैं किसी दिन वक़्त से परे कहीं पहुँच जाऊँगा? इसका क्या मतलब हुआ आख़िर????
©
July 06, 2015
आज की कविता / विवेक
आज की कविता / विवेक
--
(सन्दर्भ- इन्द्रधनु के रंग)
©
हिंस्र जीवों से भरा है अति गहन,
भोग का प्रवाह पर संकीर्ण है,
इस तरफ़ या उस तरफ़ तो बच सकेंगे,
मझधार में संभावना तो क्षीण है ।
--
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(सन्दर्भ- इन्द्रधनु के रंग)
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हिंस्र जीवों से भरा है अति गहन,
भोग का प्रवाह पर संकीर्ण है,
इस तरफ़ या उस तरफ़ तो बच सकेंगे,
मझधार में संभावना तो क्षीण है ।
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July 05, 2015
आज की कविता / इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ
आज की कविता
इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ
--
©
देह से मुक्ति का उद्घोष है यह,
या मनोविकृति का जोश है यह,
एक उन्माद है विक्षिप्तता का,
या मुक्तिपूर्ण नया होश है यह?
इन्द्रियों की दासता क्या मुक्ति है?
काम का आवेग कोई युक्ति है?
वृत्तियाँ अवसाद न बनें जिसमें,
क्या ये ऐसी कोई प्रवृत्ति है?
सुख की लालसा है अन्तहीन,
मृग-मरीचिका है अन्तहीन,
इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं पर,
कामना भोग की है अन्तहीन ।
यह नया उल्लास है पतंगों का,
अग्नि को ज्योति समझने की भूल,
ज्योति जब जागती है हृदय में,
हृदय खिलता है जैसे कोई फूल ।
किन्तु किसे चाहिए मुक्ति यहाँ,
भोग का उन्माद सबको चाहिए,
हर तरफ़ जब हो यही कोलाहल,
योग का प्रसाद किसको चाहिए?
है पतंगों की नियति ही जल जाएँ,
है उमंगों की नियति कि ढल जाएँ,
किसमें है धैर्य अब कहाँ इतना,
फ़िसलने से पहले ही सँभल जाएँ?
--
इन्द्रधनु के रंग / LGBTQ
©
देह से मुक्ति का उद्घोष है यह,
या मनोविकृति का जोश है यह,
एक उन्माद है विक्षिप्तता का,
या मुक्तिपूर्ण नया होश है यह?
इन्द्रियों की दासता क्या मुक्ति है?
काम का आवेग कोई युक्ति है?
वृत्तियाँ अवसाद न बनें जिसमें,
क्या ये ऐसी कोई प्रवृत्ति है?
सुख की लालसा है अन्तहीन,
मृग-मरीचिका है अन्तहीन,
इन्द्रियाँ क्षीण हो जाती हैं पर,
कामना भोग की है अन्तहीन ।
यह नया उल्लास है पतंगों का,
अग्नि को ज्योति समझने की भूल,
ज्योति जब जागती है हृदय में,
हृदय खिलता है जैसे कोई फूल ।
किन्तु किसे चाहिए मुक्ति यहाँ,
भोग का उन्माद सबको चाहिए,
हर तरफ़ जब हो यही कोलाहल,
योग का प्रसाद किसको चाहिए?
है पतंगों की नियति ही जल जाएँ,
है उमंगों की नियति कि ढल जाएँ,
किसमें है धैर्य अब कहाँ इतना,
फ़िसलने से पहले ही सँभल जाएँ?
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July 02, 2015
आज की कविता /आह उदयपुर !
आज की कविता /आह उदयपुर !
--
©
सुदूर है वह हरित पर्वत,
पास है यह सुरम्य झील,
वे घनेरे मेघ काले,
और नभ वह नील,
झोंके पवन के धीमे-धीमे,
छेड़ते हैं राग कोई,
लहरों में बज उठा अनोखा
मधुर स्वर में साज़ कोई,
एक नौका झील में,
एक मेरे हृदय में भी,
तुम कहो तो साथ ले लें
चाँद तारों को अभी,
हाँ मगर मत भूल जाना,
सँजो रखना याद में भी ,
और फ़िर फ़िर याद करना,
प्रीति को तुम बाद में भी !
--
--
©
सुदूर है वह हरित पर्वत,
पास है यह सुरम्य झील,
वे घनेरे मेघ काले,
और नभ वह नील,
झोंके पवन के धीमे-धीमे,
छेड़ते हैं राग कोई,
लहरों में बज उठा अनोखा
मधुर स्वर में साज़ कोई,
एक नौका झील में,
एक मेरे हृदय में भी,
तुम कहो तो साथ ले लें
चाँद तारों को अभी,
हाँ मगर मत भूल जाना,
सँजो रखना याद में भी ,
और फ़िर फ़िर याद करना,
प्रीति को तुम बाद में भी !
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July 01, 2015
इण्डिया और / या भारत - एक अनावश्यक विवाद
इण्डिया और / या भारत - एक अनावश्यक और दुर्भाग्यपूर्ण विवाद
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’इंडिया’ एकदम उपयुक्त और प्रामाणिक नाम है भारत का, यद्यपि यह भारत से प्राचीन है या नहीं इस बारे में शायद ठीक से नहीं कहा जा सकता । ’इंडिया’ हमें याद दिलाता है कि ’आर्यावर्त’ की संस्कृति का विस्तार वर्तमान अफ़गानिस्तान से लेकर सुदूर इन्दोनेशिया और निकटवर्ती क्षेत्रों तक रहा है । ’इन्दु’ / चन्द्र से भारतीय वैदिक ’पञ्चाङ्ग’ तथा चन्द्रवंशी पाण्डवों / ’भारत’ की व्युत्पत्ति हुई है । यह ’इंडिया’ शब्द ’सिन्धु’ या ’इंडस्’ से नहीं बना है जैसा कि हमारी स्मृति में भर दिया गया है , ’सिन्धु’ > ’हिन्दु’ की अलग कथा है और ’हिन्दु’ / ’हिन्दु’ शब्द वर्तमान में हमारे लिए अत्यन्त कष्ट का कारण बना हुआ है इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ।
अभी भी बहुत से लोगों का आग्रह है कि 'इण्डिया' नाम हमें विदेशियों से प्राप्त हुआ है।
--
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’इंडिया’ एकदम उपयुक्त और प्रामाणिक नाम है भारत का, यद्यपि यह भारत से प्राचीन है या नहीं इस बारे में शायद ठीक से नहीं कहा जा सकता । ’इंडिया’ हमें याद दिलाता है कि ’आर्यावर्त’ की संस्कृति का विस्तार वर्तमान अफ़गानिस्तान से लेकर सुदूर इन्दोनेशिया और निकटवर्ती क्षेत्रों तक रहा है । ’इन्दु’ / चन्द्र से भारतीय वैदिक ’पञ्चाङ्ग’ तथा चन्द्रवंशी पाण्डवों / ’भारत’ की व्युत्पत्ति हुई है । यह ’इंडिया’ शब्द ’सिन्धु’ या ’इंडस्’ से नहीं बना है जैसा कि हमारी स्मृति में भर दिया गया है , ’सिन्धु’ > ’हिन्दु’ की अलग कथा है और ’हिन्दु’ / ’हिन्दु’ शब्द वर्तमान में हमारे लिए अत्यन्त कष्ट का कारण बना हुआ है इससे इन्कार नहीं किया जा सकता ।
अभी भी बहुत से लोगों का आग्रह है कि 'इण्डिया' नाम हमें विदेशियों से प्राप्त हुआ है।
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आज की कविता / 'मोदी' होने का मतलब
आज की कविता / 'मोदी' होने का मतलब
--
© मोदी मोदी सब भये मोदी भया न कोय,
एक बार मोदी भये हर कोई मोदी होय!
(यमक या श्लेष?)
© मोदकं दृष्ट्वा लुब्धो गणेशोऽपि भवेत् मोदी ।
मोदते मोदयति भक्तान् भक्तेन्द्रो गणेशो सः ॥
--
© modakaṃ dṛṣṭvā lubdho gaṇeśo:'pi bhavet modī |
modate modayati bhaktān bhaktendro gaṇeśo saḥ ||
--
© मोदी चेत् सर्वे अभवन् न कोऽपि अभवत् मोदी ।
एकदापि भूत्वा मोदी एकैको मोदी भवेत् ॥
--
modī cet sarve abhavan na ko:'pi abhavat modī |
ekadāpi bhūtvā modī ekaiko modī bhavet ||
--
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© मोदी मोदी सब भये मोदी भया न कोय,
एक बार मोदी भये हर कोई मोदी होय!
(यमक या श्लेष?)
© मोदकं दृष्ट्वा लुब्धो गणेशोऽपि भवेत् मोदी ।
मोदते मोदयति भक्तान् भक्तेन्द्रो गणेशो सः ॥
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© modakaṃ dṛṣṭvā lubdho gaṇeśo:'pi bhavet modī |
modate modayati bhaktān bhaktendro gaṇeśo saḥ ||
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एकदापि भूत्वा मोदी एकैको मोदी भवेत् ॥
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modī cet sarve abhavan na ko:'pi abhavat modī |
ekadāpi bhūtvā modī ekaiko modī bhavet ||
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हास्य-कविता
June 27, 2015
उन दिनों / 27-06-2015.
उन दिनों / 27-06-2015.
______________________
*©
1974 की गर्मियों की एक शाम,
इंजीनियरिंग कॉलेज के आवासीय परिसर स्थित एक क्वार्टर में भोजन करते हुए बड़े भाई ने बतलाया कि मैं पास हो गया हूँ । बी.एस-सी. अंतिम वर्ष की परीक्षा में । मुझे तो उम्मीद तक नहीं थी, बहरहाल डूबते को तिनके का सहारा । मैंने सोचा कि साँख्यिकी में एम.एस-सी. कर लूँ, क्योंकि तृतीय श्रेणी (जिसे हम व्यंग्य या मजाक में अद्वितीय श्रेणी कहते थे) में ’उत्तीर्ण’ होने के बाद या तो मुझे हिन्दी / अर्थशास्त्र / राजनीतिशास्त्र में प्राइवेट या रेगुलर एम.ए. करना या कोई छोटा-मोटा ’जॉब’ ही एक रास्ता था । बी.एस-सी. के पहले दो साल (तीन वर्षों में) में मैं द्वितीय श्रेणी प्राप्त कर सका था, और उम्मीद थी कि अन्तिम वर्ष में भी इतना तो कर ही पाऊँगा, किन्तु अन्तिम वर्ष में कॉलेज बदलना पड़ा, भौतिक-शास्त्र के जिस पेपर से बहुत उम्मीद थी उसमें ’सिलेबस’ के अनुसार तीन हिस्से थे और उनमें से मैंने अपनी पसन्द के ’इम्पॉर्टेन्ट’ हिस्से अच्छी तरह तैयार कर लिए थे और तब मुझे उम्मीद थी कि मैं बेहतर कर पाऊँगा । किन्तु जब ’पेपर’ देखा तो मेरे होश उड़ गये । अगर ’सिलेबस’ के अनुसार ’क्वश्चन-पेपर’ बनाया गया होता तो मैं तीन हिस्सों में विभाजित ’पेपर’ के छः प्रश्न हल कर सकता था, किन्तु अन्तिम समय में देखा कि ’पेपर’ में तीन हिस्से नहीं थे, और मेरी सब तैयारी धरी की धरी रह गई । और मेरे सारे ’इम्पॉर्टेन्ट टॉपिक्स’ नदारद थे । बी.एस-सी. में कमज़ोर नतीज़े का एक कारण यह भी था कि तमाम परेशानियों के बावज़ूद मैंने ’इंग्लिश मीडियम’ चुन लिया था, जबकि स्कूल में मेरी शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई थी । पिताजी रिटायर हो चुके थे, तीन बड़ी बहनें अविवाहित थीं, और बड़ा भाई मुम्बई में आई.आई.टी. से एम्.टेक्. कर रहा था । छोटा भाई अभी स्कूल ही में पढ़ता था । और इन सब परिस्थितियों के जो ज्ञात अज्ञात कारण थे, उन्हें बदल पाने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है? तभी मेरे मन में यह धारणा बनने लगी थी कि जब ’वर्तमान’ अतीत के सारे कारणों पर आश्रित और उनका परिणाम है, और इसे बदला नहीं जा सकता, तो ’भविष्य’ जिसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है क्या उसे बनाने या बदलने का प्रयास करना मनुष्य के लिए संभव है? मैं मानता हूँ कि शायद ही कोई व्यक्ति मेरे इस प्रकार के चिन्तन से राजी होगा, किन्तु मेरे पास इस प्रश्न का न तो कोई उत्तर था और न किसी और को इसके लिए राजी कर पाने की ज़रूरत या मेरा सामर्थ्य ही था ।
--
कल और पिछले दिनों 'इमरजेंसी' के 'चालीसवें' पर बहुत कुछ लिखा गया। और उस सबको पढ़ते हुए यहाँ 'अतीत' जो मेरी स्मृति के अलावा कहीं है या नहीं इस बारे में मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है, के बारे में सोचते हुए यह सब याद आया।
--
उन दिनों ’सारिका’ और ’धर्मयुग’ में कमलेश्वर जी के मित्र स्व. दुष्यन्तकुमार की ग़ज़लों से मैं बहुत प्रभावित था । फेसबुक पर बुद्धिजीवी और साहित्यकार मित्र 'बदलाव' की ज़रूरतों और 'सम्भावनाओं' पर लम्बी-लम्बी चर्चाएं और बहसें कर रहे हैं, मुझे 'उन दिनों' के सन्दर्भ में दुष्यंत कुमार के कुछ शेर याद आए -
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीक़े-ज़ुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी क़ोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
…
…
…
'गरगजी' या 'अविज्नान' यहाँ होते, तो वे मुझसे या मैं उनसे पूछता :
"कौन सी सूरत? क्या इस 'वर्तमान' की अनगिनत सूरतें नहीं होतीं ? क्या हर शख्स का 'वर्तमान' उसका एक अपना, सबसे जुदा अकेला संसार नहीं होता? निपट और नितांत अकेला? उसके उसे संसार को कितने लोग जानते हैं ? और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कितने लोग उस संसार को 'महसूस' करते हैं?
क्या 'खयालों' के अलावा कोई वाकई किसी से कुछ 'शेयर' कर सकता है? क्या हर किसी का संसार किसी भी दूसरे के संसार से मुक़म्मल तौर पर एकदम अलहदा, जुदा नहीं होता? "
लेकिन न तो 'गरगजी' और न 'अविज्नान' आज मेरे आसपास कहीं हैं, और मैं उन बुद्धिजीवी दुष्यंतकुमार जैसे तेवरों वाले साहित्यकारों से अपने को बहुत दूर पाता हूँ।
-- .
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*©
इंजीनियरिंग कॉलेज के आवासीय परिसर स्थित एक क्वार्टर में भोजन करते हुए बड़े भाई ने बतलाया कि मैं पास हो गया हूँ । बी.एस-सी. अंतिम वर्ष की परीक्षा में । मुझे तो उम्मीद तक नहीं थी, बहरहाल डूबते को तिनके का सहारा । मैंने सोचा कि साँख्यिकी में एम.एस-सी. कर लूँ, क्योंकि तृतीय श्रेणी (जिसे हम व्यंग्य या मजाक में अद्वितीय श्रेणी कहते थे) में ’उत्तीर्ण’ होने के बाद या तो मुझे हिन्दी / अर्थशास्त्र / राजनीतिशास्त्र में प्राइवेट या रेगुलर एम.ए. करना या कोई छोटा-मोटा ’जॉब’ ही एक रास्ता था । बी.एस-सी. के पहले दो साल (तीन वर्षों में) में मैं द्वितीय श्रेणी प्राप्त कर सका था, और उम्मीद थी कि अन्तिम वर्ष में भी इतना तो कर ही पाऊँगा, किन्तु अन्तिम वर्ष में कॉलेज बदलना पड़ा, भौतिक-शास्त्र के जिस पेपर से बहुत उम्मीद थी उसमें ’सिलेबस’ के अनुसार तीन हिस्से थे और उनमें से मैंने अपनी पसन्द के ’इम्पॉर्टेन्ट’ हिस्से अच्छी तरह तैयार कर लिए थे और तब मुझे उम्मीद थी कि मैं बेहतर कर पाऊँगा । किन्तु जब ’पेपर’ देखा तो मेरे होश उड़ गये । अगर ’सिलेबस’ के अनुसार ’क्वश्चन-पेपर’ बनाया गया होता तो मैं तीन हिस्सों में विभाजित ’पेपर’ के छः प्रश्न हल कर सकता था, किन्तु अन्तिम समय में देखा कि ’पेपर’ में तीन हिस्से नहीं थे, और मेरी सब तैयारी धरी की धरी रह गई । और मेरे सारे ’इम्पॉर्टेन्ट टॉपिक्स’ नदारद थे । बी.एस-सी. में कमज़ोर नतीज़े का एक कारण यह भी था कि तमाम परेशानियों के बावज़ूद मैंने ’इंग्लिश मीडियम’ चुन लिया था, जबकि स्कूल में मेरी शिक्षा हिन्दी माध्यम से हुई थी । पिताजी रिटायर हो चुके थे, तीन बड़ी बहनें अविवाहित थीं, और बड़ा भाई मुम्बई में आई.आई.टी. से एम्.टेक्. कर रहा था । छोटा भाई अभी स्कूल ही में पढ़ता था । और इन सब परिस्थितियों के जो ज्ञात अज्ञात कारण थे, उन्हें बदल पाने का तो प्रश्न ही कहाँ उठता है? तभी मेरे मन में यह धारणा बनने लगी थी कि जब ’वर्तमान’ अतीत के सारे कारणों पर आश्रित और उनका परिणाम है, और इसे बदला नहीं जा सकता, तो ’भविष्य’ जिसकी सिर्फ़ कल्पना ही की जा सकती है क्या उसे बनाने या बदलने का प्रयास करना मनुष्य के लिए संभव है? मैं मानता हूँ कि शायद ही कोई व्यक्ति मेरे इस प्रकार के चिन्तन से राजी होगा, किन्तु मेरे पास इस प्रश्न का न तो कोई उत्तर था और न किसी और को इसके लिए राजी कर पाने की ज़रूरत या मेरा सामर्थ्य ही था ।
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कल और पिछले दिनों 'इमरजेंसी' के 'चालीसवें' पर बहुत कुछ लिखा गया। और उस सबको पढ़ते हुए यहाँ 'अतीत' जो मेरी स्मृति के अलावा कहीं है या नहीं इस बारे में मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है, के बारे में सोचते हुए यह सब याद आया।
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उन दिनों ’सारिका’ और ’धर्मयुग’ में कमलेश्वर जी के मित्र स्व. दुष्यन्तकुमार की ग़ज़लों से मैं बहुत प्रभावित था । फेसबुक पर बुद्धिजीवी और साहित्यकार मित्र 'बदलाव' की ज़रूरतों और 'सम्भावनाओं' पर लम्बी-लम्बी चर्चाएं और बहसें कर रहे हैं, मुझे 'उन दिनों' के सन्दर्भ में दुष्यंत कुमार के कुछ शेर याद आए -
मत कहो आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों।
इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीक़े-ज़ुर्म हैं,
आदमी या तो ज़मानत पर रिहा है या फरार।
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी क़ोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
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'गरगजी' या 'अविज्नान' यहाँ होते, तो वे मुझसे या मैं उनसे पूछता :
"कौन सी सूरत? क्या इस 'वर्तमान' की अनगिनत सूरतें नहीं होतीं ? क्या हर शख्स का 'वर्तमान' उसका एक अपना, सबसे जुदा अकेला संसार नहीं होता? निपट और नितांत अकेला? उसके उसे संसार को कितने लोग जानते हैं ? और इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि कितने लोग उस संसार को 'महसूस' करते हैं?
क्या 'खयालों' के अलावा कोई वाकई किसी से कुछ 'शेयर' कर सकता है? क्या हर किसी का संसार किसी भी दूसरे के संसार से मुक़म्मल तौर पर एकदम अलहदा, जुदा नहीं होता? "
लेकिन न तो 'गरगजी' और न 'अविज्नान' आज मेरे आसपास कहीं हैं, और मैं उन बुद्धिजीवी दुष्यंतकुमार जैसे तेवरों वाले साहित्यकारों से अपने को बहुत दूर पाता हूँ।
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उन दिनों / 27-06-2015.,
उपन्यास उन दिनों
June 26, 2015
आज की कविता / प्रश्न यह है !
आज की कविता / प्रश्न यह है !
--
विसंगतियाँ,
विडम्बनाएँ,
विकृतियाँ,
परिकल्पनाएँ,
कुरूपताएँ,
विद्रूपताएँ,...!
बुद्धिजीवी कल्पनाएँ,
अल्पजीवी तर्जनाएँ,
मसिजीवि वर्जनाएँ !
श्रमजीवी सर्जनाएँ !
रक्तजीवी गर्जनाएँ !
जाएँ तो कहाँ जाएँ ??
--
©
--
विसंगतियाँ,
विडम्बनाएँ,
विकृतियाँ,
परिकल्पनाएँ,
कुरूपताएँ,
विद्रूपताएँ,...!
बुद्धिजीवी कल्पनाएँ,
अल्पजीवी तर्जनाएँ,
मसिजीवि वर्जनाएँ !
श्रमजीवी सर्जनाएँ !
रक्तजीवी गर्जनाएँ !
जाएँ तो कहाँ जाएँ ??
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प्रश्न यह है !
June 24, 2015
आज की कविता / आत्मकथ्य
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आज की कविता / आत्मकथ्य
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©एक ठहरा आसमाँ है आँखों में,
एक व्याकुल उन्माद भी पसरा हुआ,
जैसे मेघाच्छन्न से आकाश में,
घनघोर मेघों में सूरज छिपा हुआ,
किन पलों में फूट पड़ना है उसे,
अग्निज्वाला सा प्रखर है क्या पता,
या बरस पड़ना है अश्रुधार सा,
करुणा बन शीतल धार सा,
तड़ित् भी है छिपी प्रतीक्षा में जहाँ
मेघगर्जन घोर प्रचण्डनाद सा,
एक चेहरा आवरण में है छिपा,
एक चेहरा अपरिचित संवाद सा ।
गुमशुदा सा शख़्स हाँ लगता है ये,
इसकी तलाशी भी तो होनी चाहिए,
खोया खयालों में या है दुनिया में ये,
तफ़्तीश इसकी भी तो होनी चाहिए !
खोजें इसे हम या जमाना क्या पता,
खोजे ये ख़ुद को ही या हमको क्या पता,
खोजना लेकिन ज़रूरी भी तो है,
हर शख़्स ही तो है यहाँ पर लापता !
--
June 08, 2015
आज की कविता /
आज की कविता
--
तारों की रौशनी जहाँ है छाँव सी,
चाँद का आलोक स्वप्निल ज्योत्स्ना ।
रेत का विस्तार सागर सा अथाह दूर तक,
झील का लावण्य झिलमिल स्वप्न सा !
नींद किसको आ सकेगी इस जगह,
और कोई किस तरह सोया रहेगा?
स्वप्न का उल्लास सोने भी न देगा,
जागना भी कैसे संभव हो सकेगा?
--
©
--
तारों की रौशनी जहाँ है छाँव सी,
चाँद का आलोक स्वप्निल ज्योत्स्ना ।
रेत का विस्तार सागर सा अथाह दूर तक,
झील का लावण्य झिलमिल स्वप्न सा !
नींद किसको आ सकेगी इस जगह,
और कोई किस तरह सोया रहेगा?
स्वप्न का उल्लास सोने भी न देगा,
जागना भी कैसे संभव हो सकेगा?
--
©
June 06, 2015
प्रार्थना !
प्रार्थना !
--
शिव तुम कितने भक्तपरायण,
उमा को तुमने हृदय लगाया,
गंगा और शशि को भी तुमने
हँसकर अपने शीश बिठाया,
सुर-असुरों मनुजों राक्षस पर
रहती सदा तुम्हारी करुणा,
कालकूट विष को भी तुमने,
इसी तरह से गले लगाया!
मुझ पर भी तुम कृपा करो ना,
प्रियतम करो न मेरी वञ्चना
मुझको नहीं लगाते पर क्यों,
हे शिव अपने पावन चरणा?
--
--
शिव तुम कितने भक्तपरायण,
उमा को तुमने हृदय लगाया,
गंगा और शशि को भी तुमने
हँसकर अपने शीश बिठाया,
सुर-असुरों मनुजों राक्षस पर
रहती सदा तुम्हारी करुणा,
कालकूट विष को भी तुमने,
इसी तरह से गले लगाया!
मुझ पर भी तुम कृपा करो ना,
प्रियतम करो न मेरी वञ्चना
मुझको नहीं लगाते पर क्यों,
हे शिव अपने पावन चरणा?
--
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॥ शिव तुम कितने सुन्दर हो ॥,
ईश्वर,
प्रार्थना !,
प्रेम और कविता,
स्वरचित
June 05, 2015
आज की कविता / श्वेत श्याम
आज की कविता / श्वेत श्याम
____________________
©
उम्र के उस दौर में जब,
श्वेत श्याम केश हुए,
वक़्त के इस दौर में जब
श्वेत श्याम वेश हुए,
देश जब परदेश हुए,
विदेश जब स्वदेश हुए,
एक मुज़रिम की तरह,
हम यहाँ पर पेश हुए!
एक पेशा था तिज़ारत
इक तिज़ारत राजनीति
एक धंधा धरम भी था,
एक नीति थी अनीति,
शोहरत दौलत इबादत,
फ़र्ज़ ईमाँ लफ़्ज़ महज़,
सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी ही मक़सद,
कामयाबी ही सबब,
और इस माहौल में
हम गए थे बस रच-बस,
ऐश में डूबे हुए हम,
फ़िक्र से बस लैस हुए,
श्वेत श्याम केश हुए,
श्वेत श्याम वेश हुए,
एक मुज़रिम की तरह,
हम यहाँ पर पेश हुए!
--
____________________
©
उम्र के उस दौर में जब,
श्वेत श्याम केश हुए,
वक़्त के इस दौर में जब
श्वेत श्याम वेश हुए,
देश जब परदेश हुए,
विदेश जब स्वदेश हुए,
एक मुज़रिम की तरह,
हम यहाँ पर पेश हुए!
एक पेशा था तिज़ारत
इक तिज़ारत राजनीति
एक धंधा धरम भी था,
एक नीति थी अनीति,
शोहरत दौलत इबादत,
फ़र्ज़ ईमाँ लफ़्ज़ महज़,
सिर्फ़ लफ़्फ़ाज़ी ही मक़सद,
कामयाबी ही सबब,
और इस माहौल में
हम गए थे बस रच-बस,
ऐश में डूबे हुए हम,
फ़िक्र से बस लैस हुए,
श्वेत श्याम केश हुए,
श्वेत श्याम वेश हुए,
एक मुज़रिम की तरह,
हम यहाँ पर पेश हुए!
--
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आज की कविता / श्वेत श्याम,
कविता,
कीड़ा
June 04, 2015
आनन्द क्या है ?
आनन्द क्या है ?
____________________
©
नन्दो अथ कृष्णस्य पिता,
यशोदा इति तथा माता ।
एते तस्य धाताधात्र्यौ,
नन्दति तत्र स परमात्मा ॥
आनन्दयति अपि रमते चापि
यो उद्बभूव कारायाम् ।
नन्दयति तत्र च अत्रापि,
इति आनन्द-संज्ञकः ॥
देवकी स्यात् तस्य जननी
वसुदेवो आसीत् जनको तथा ।
करागृहे द्वौ विबन्धीतौ
कंसराज्ञा च मातुलेन ॥
स जीवो हि परमात्मा
आनन्द-चित्-सत्-रूपा ।
यदा यदा हि उद्भवति
संप्रसारयति आनन्दम् ॥
स्वमाप्नोति स्वात्मनि
लीलया च स्वेन अपि ।
एतद्दृष्टम् स्वेन चैव
आत्मना जगदीश्वरेण ॥
--
अर्थ :
नन्द और यशोदा कृष्ण के पालक माता-पिता हैं। देवकी और वसुदेव, वासुदेव के जनक और जननी हैं जो कारागृह में कृष्ण के मामा कंस द्वारा बंदी बनाए गए हैं। उस परमात्मा ने इस प्रकार जीवरूप से कारागृह में जन्म लिया। आनंद उसका ही नाम है। वही स्वयं आनंद है और दूसरों को भी आनंद देता है। जब भी वह जन्म लेता है सर्वत्र आनंद ही फैलाता है। कारागृह में भी और कारा से बाहर भी। अनेक लीलाओं से आनंद में मग्न वह परमेश्वर अपनी ही आत्मा में जगत् को, तथा जगत् में अपने को ही देखता है।
--
____________________
©
नन्दो अथ कृष्णस्य पिता,
यशोदा इति तथा माता ।
एते तस्य धाताधात्र्यौ,
नन्दति तत्र स परमात्मा ॥
आनन्दयति अपि रमते चापि
यो उद्बभूव कारायाम् ।
नन्दयति तत्र च अत्रापि,
इति आनन्द-संज्ञकः ॥
देवकी स्यात् तस्य जननी
वसुदेवो आसीत् जनको तथा ।
करागृहे द्वौ विबन्धीतौ
कंसराज्ञा च मातुलेन ॥
स जीवो हि परमात्मा
आनन्द-चित्-सत्-रूपा ।
यदा यदा हि उद्भवति
संप्रसारयति आनन्दम् ॥
स्वमाप्नोति स्वात्मनि
लीलया च स्वेन अपि ।
एतद्दृष्टम् स्वेन चैव
आत्मना जगदीश्वरेण ॥
--
अर्थ :
नन्द और यशोदा कृष्ण के पालक माता-पिता हैं। देवकी और वसुदेव, वासुदेव के जनक और जननी हैं जो कारागृह में कृष्ण के मामा कंस द्वारा बंदी बनाए गए हैं। उस परमात्मा ने इस प्रकार जीवरूप से कारागृह में जन्म लिया। आनंद उसका ही नाम है। वही स्वयं आनंद है और दूसरों को भी आनंद देता है। जब भी वह जन्म लेता है सर्वत्र आनंद ही फैलाता है। कारागृह में भी और कारा से बाहर भी। अनेक लीलाओं से आनंद में मग्न वह परमेश्वर अपनी ही आत्मा में जगत् को, तथा जगत् में अपने को ही देखता है।
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May 31, 2015
आज की कविता : वर्तमान
आज की कविता
--
वर्तमान
एक खिड़की अँधेरी सी,
एक खिड़की उजली सी,
खिड़की के भीतर,
के भीतर की खिड़की...
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©
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वर्तमान
एक खिड़की अँधेरी सी,
एक खिड़की उजली सी,
खिड़की के भीतर,
के भीतर की खिड़की...
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May 27, 2015
May 26, 2015
आज की संस्कृत रचना
आज की संस्कृत रचना
_________________
©
युधि स्थिरो यो युधिष्ठिरः
कृष्णो तु कार्ष्णमेव च ।
अर्जुनो हि ऋजुताम् याति
अर्जति लभते जयम् ॥
--
युधिष्ठिर तो युद्ध से अप्रभावित हैं,
और श्रीकृष्ण सदा पार्श्व में, पर्दे के पीछे से सूत्र संचालन करते हैं,
केवल अर्जुन ही हैं जो सरल भाव से अपने प्राप्त हुए कर्तव्य को पूरा करते हैं और अन्त में विजय प्राप्त करते हैं ।
इसलिए गीता का उपदेश युधिष्ठिर को नहीं अर्जुन को ही दिया गया । वे ही सर्वाधिक प्रासंगिक हैं ।
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युधि स्थिरो यो युधिष्ठिरः
कृष्णो तु कार्ष्णमेव च ।
अर्जुनो हि ऋजुताम् याति
अर्जति लभते जयम् ॥
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युधिष्ठिर तो युद्ध से अप्रभावित हैं,
और श्रीकृष्ण सदा पार्श्व में, पर्दे के पीछे से सूत्र संचालन करते हैं,
केवल अर्जुन ही हैं जो सरल भाव से अपने प्राप्त हुए कर्तव्य को पूरा करते हैं और अन्त में विजय प्राप्त करते हैं ।
इसलिए गीता का उपदेश युधिष्ठिर को नहीं अर्जुन को ही दिया गया । वे ही सर्वाधिक प्रासंगिक हैं ।
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May 18, 2015
इस बारे में
इस बारे में ?
--
बहुत समय से इस बारे में सोचता रहा हूँ ।
अनेक बार कुछ लिखा भी, लेकिन अभी तक उसे 'पब्लिश' करने से कतराता ही रहा।
लगता है, अभी भी यह 'पोस्ट' शायद 'ड्राफ़्ट' ही रहेगी।
मेरी आखिरी 'पोस्ट' जिसे इससे पहले लिखा था, मेरी एक संस्कृत रचना थी जिसे मैंने कोई शीर्षक नहीं दिया था। उस रचना पर एक पाठक की 'प्रतिक्रिया' 'God bless you' के रूप में प्राप्त हुई थी । नाम का उल्लेख किए बिना बतलाना चाहूँगा कि उसने अपना परिचय एक 'Jesuit' के रूप में दिया था।
वर्ष 1970 में मैंने ग्यारहवीं उत्तीर्ण किया था और मेरे बड़े भाई द्वारा दिए गए 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढ़ रहा था। यद्यपि उस ग्रन्थ की भाषा थोड़ी कठिन और अपरिचित सी लगती थी लेकिन उसकी विषय-वस्तु एक हद तक रोचक भी थी। वहीं से मुझे भारत में मौजूद बहुत से पंथों सम्प्रदायों और 'धर्मों' के बारे में पढ़ने को मिला। 'वेद' की महानता और स्वामीजी का अपना दृष्टिकोण मुझे प्रभावित जरूर करते थे लेकिन मुझे लगता था कि 'पुराणों' के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं था। 'भागवत' की तो वे और कठोर आलोचना करते थे। और यह तो मानना ही होगा कि पंडे-पुजारियों ने 'धर्म' का जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे यह कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि महर्षि दयानंद सरस्वती (सत्यार्थ प्रकाश के रचयिता) के मन में 'भागवत' और 'पुराणों', रामायण और महाभारत की ऐसी प्रतिमा क्यों बनी होगी कि वे इनके कट्टर विरोधी बन गए।
वर्ष 1983 में मुझे प्रथम बार 'I AM THAT' (जिसका हिंदी अनुवाद मैंने किया, जो 'अहं ब्रह्मास्मि' शीर्षक से वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ) और श्री निसर्गदत्त महाराज से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की इस बातचीत के बारे में पता चला, और जब मैंने इसे पढ़ना प्रारम्भ किया, तो उसके 'संकलनकर्ता' मॉरिस फ्रीडमन की प्रतिभा के बारे में पढ़कर जितना विस्मयमुग्ध हुआ उतना शायद और कभी नहीं हुआ।
'यहूदी' (Jew) परंपरा के बारे में मुझे बचपन से ही उत्सुकता रही है और मेरा ख़याल है कि इस 'जाति' में जितने प्रतिभाशाली और विश्वविख्यात व्यक्ति हुए हैं उतने शायद ही किसी अन्य जाति में हुए होंगे। Albert Einstein, Yehudi Manuhin, Sigmund Freud, जैसे लोग बिरले ही होते हैं, और इनके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे हमेशा रही। किन्तु उनके 'धर्म' के बारे में सदैव से विश्वसनीय जानकारी न मिल पाने से उनके बारे में प्रामाणिकता से कुछ लिखना मुझे हमेशा अनुचित प्रतीत होता रहा।
किन्तु जब मैंने वेदों में 'यह्व' (ऋग्वेद मण्डल 10) में विस्तार से पढ़ा तो मुझे इस बारे में विश्वसनीय ऐसा कुछ मिला जिससे 'Jew', 'Catholic' और 'Christianity' तथा 'Islam' की पारस्परिक अवस्थिति (stance) को मैं सूत्रबद्ध कर सकता हूँ। मेरा कोई दावा नहीं है कि मेरी विवेचना त्रुटिरहित है, किन्तु मेरे अपने लिए तो अवश्य ही संतोषजनक है। लेकिन फिर भी उसे यहाँ व्यक्त करने से किसी की 'धार्मिक भावनाओं' को चोट लग सकती है इसलिए संयम रखते हुए उस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा।
किन्तु जब ईसाई (कैथोलिक / प्रोटेस्टेंट / और दूसरे विभिन्न प्रकार के) मतावलम्बी मुझसे संपर्क करना चाहते हैं तो मुझे अवश्य ही दुविधा होती है, क्योंकि मुझे उस परम्परा से वैर नहीं तो ऐसा कोई लगाव भी नहीं है, और 'श्रद्धा' तो कतई नहीं है।
इसलिए जब चर्चों के द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों को अपने मत में दीक्षित करने के बारे में पढ़ता हूँ, जब उनके बाल-यौन-शोषण के (सु?)समाचार दृष्टिगत होते हैं तो भी बस उपेक्षा ही करता हूँ। लेकिन जब बारे में पढ़ता हूँ कि कैसे उन उन ईसाई 'मठों' में फँसे हुए कुछ अभागे बुरी तरह त्रस्त हैं और त्राण के लिए इधर उधर हाथ-पैर पटक रहे हैं, तो कभी कभी लगता है कि उनमें से यदि कोई मेरी ओर आशाभरी दृष्टि से देखता है तो मुझे उसकी सहायता करना चाहिए। दूसरी ओर जब मुझे पता चलता है कि मैं ही अपनी खयाली दुनिया में ऊटपटाँग कुछ सोच रहा था, और वास्तव में मुझसे 'संपर्क' करनेवाला किसी भी चर्च से जुड़ा वह 'ईसाई' तो मुझे ही अपने 'मत' / 'विशवास' में दीक्षित करने के ध्येय से मुझसे संपर्क करना चाहता है, तो मुझे अपनी मूर्खता पर हँसी आ जाती है।
इस 'Jesuit' से जब 'God bless you' की प्रतिक्रिया मिली तो मैंने सोच लिया -
'… और नहीं बस और नहीं, … ग़म के प्याले और नही … "
और यह सब लिखते लिखते नज़र जाती है इस खबर पर
--
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बहुत समय से इस बारे में सोचता रहा हूँ ।
अनेक बार कुछ लिखा भी, लेकिन अभी तक उसे 'पब्लिश' करने से कतराता ही रहा।
लगता है, अभी भी यह 'पोस्ट' शायद 'ड्राफ़्ट' ही रहेगी।
मेरी आखिरी 'पोस्ट' जिसे इससे पहले लिखा था, मेरी एक संस्कृत रचना थी जिसे मैंने कोई शीर्षक नहीं दिया था। उस रचना पर एक पाठक की 'प्रतिक्रिया' 'God bless you' के रूप में प्राप्त हुई थी । नाम का उल्लेख किए बिना बतलाना चाहूँगा कि उसने अपना परिचय एक 'Jesuit' के रूप में दिया था।
वर्ष 1970 में मैंने ग्यारहवीं उत्तीर्ण किया था और मेरे बड़े भाई द्वारा दिए गए 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढ़ रहा था। यद्यपि उस ग्रन्थ की भाषा थोड़ी कठिन और अपरिचित सी लगती थी लेकिन उसकी विषय-वस्तु एक हद तक रोचक भी थी। वहीं से मुझे भारत में मौजूद बहुत से पंथों सम्प्रदायों और 'धर्मों' के बारे में पढ़ने को मिला। 'वेद' की महानता और स्वामीजी का अपना दृष्टिकोण मुझे प्रभावित जरूर करते थे लेकिन मुझे लगता था कि 'पुराणों' के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं था। 'भागवत' की तो वे और कठोर आलोचना करते थे। और यह तो मानना ही होगा कि पंडे-पुजारियों ने 'धर्म' का जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे यह कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि महर्षि दयानंद सरस्वती (सत्यार्थ प्रकाश के रचयिता) के मन में 'भागवत' और 'पुराणों', रामायण और महाभारत की ऐसी प्रतिमा क्यों बनी होगी कि वे इनके कट्टर विरोधी बन गए।
वर्ष 1983 में मुझे प्रथम बार 'I AM THAT' (जिसका हिंदी अनुवाद मैंने किया, जो 'अहं ब्रह्मास्मि' शीर्षक से वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ) और श्री निसर्गदत्त महाराज से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की इस बातचीत के बारे में पता चला, और जब मैंने इसे पढ़ना प्रारम्भ किया, तो उसके 'संकलनकर्ता' मॉरिस फ्रीडमन की प्रतिभा के बारे में पढ़कर जितना विस्मयमुग्ध हुआ उतना शायद और कभी नहीं हुआ।
'यहूदी' (Jew) परंपरा के बारे में मुझे बचपन से ही उत्सुकता रही है और मेरा ख़याल है कि इस 'जाति' में जितने प्रतिभाशाली और विश्वविख्यात व्यक्ति हुए हैं उतने शायद ही किसी अन्य जाति में हुए होंगे। Albert Einstein, Yehudi Manuhin, Sigmund Freud, जैसे लोग बिरले ही होते हैं, और इनके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे हमेशा रही। किन्तु उनके 'धर्म' के बारे में सदैव से विश्वसनीय जानकारी न मिल पाने से उनके बारे में प्रामाणिकता से कुछ लिखना मुझे हमेशा अनुचित प्रतीत होता रहा।
किन्तु जब मैंने वेदों में 'यह्व' (ऋग्वेद मण्डल 10) में विस्तार से पढ़ा तो मुझे इस बारे में विश्वसनीय ऐसा कुछ मिला जिससे 'Jew', 'Catholic' और 'Christianity' तथा 'Islam' की पारस्परिक अवस्थिति (stance) को मैं सूत्रबद्ध कर सकता हूँ। मेरा कोई दावा नहीं है कि मेरी विवेचना त्रुटिरहित है, किन्तु मेरे अपने लिए तो अवश्य ही संतोषजनक है। लेकिन फिर भी उसे यहाँ व्यक्त करने से किसी की 'धार्मिक भावनाओं' को चोट लग सकती है इसलिए संयम रखते हुए उस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा।
किन्तु जब ईसाई (कैथोलिक / प्रोटेस्टेंट / और दूसरे विभिन्न प्रकार के) मतावलम्बी मुझसे संपर्क करना चाहते हैं तो मुझे अवश्य ही दुविधा होती है, क्योंकि मुझे उस परम्परा से वैर नहीं तो ऐसा कोई लगाव भी नहीं है, और 'श्रद्धा' तो कतई नहीं है।
इसलिए जब चर्चों के द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों को अपने मत में दीक्षित करने के बारे में पढ़ता हूँ, जब उनके बाल-यौन-शोषण के (सु?)समाचार दृष्टिगत होते हैं तो भी बस उपेक्षा ही करता हूँ। लेकिन जब बारे में पढ़ता हूँ कि कैसे उन उन ईसाई 'मठों' में फँसे हुए कुछ अभागे बुरी तरह त्रस्त हैं और त्राण के लिए इधर उधर हाथ-पैर पटक रहे हैं, तो कभी कभी लगता है कि उनमें से यदि कोई मेरी ओर आशाभरी दृष्टि से देखता है तो मुझे उसकी सहायता करना चाहिए। दूसरी ओर जब मुझे पता चलता है कि मैं ही अपनी खयाली दुनिया में ऊटपटाँग कुछ सोच रहा था, और वास्तव में मुझसे 'संपर्क' करनेवाला किसी भी चर्च से जुड़ा वह 'ईसाई' तो मुझे ही अपने 'मत' / 'विशवास' में दीक्षित करने के ध्येय से मुझसे संपर्क करना चाहता है, तो मुझे अपनी मूर्खता पर हँसी आ जाती है।
इस 'Jesuit' से जब 'God bless you' की प्रतिक्रिया मिली तो मैंने सोच लिया -
'… और नहीं बस और नहीं, … ग़म के प्याले और नही … "
और यह सब लिखते लिखते नज़र जाती है इस खबर पर
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May 15, 2015
आज की संस्कृत रचना
आज की संस्कृत रचना
__________________
©
यत्वाऽपि न शक्नोति त्यक्तुम् काकः कर्कशम् ।
कोकिला तु अयत्नेनैव भाषते मधुरस्वरम् ॥
--
yatvā:'pi na śaknoti tyaktum kākaḥ karkaśam |
kokilā tu ayatnenaiva bhāṣate madhurasvaram ||
--
Even if tries so, a crow can't get rid of rough tone,
(In comparison,)
A koel (kokila) sings in sweet tones without any effort!
--
__________________
©
कोकिला तु अयत्नेनैव भाषते मधुरस्वरम् ॥
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yatvā:'pi na śaknoti tyaktum kākaḥ karkaśam |
kokilā tu ayatnenaiva bhāṣate madhurasvaram ||
--
Even if tries so, a crow can't get rid of rough tone,
(In comparison,)
A koel (kokila) sings in sweet tones without any effort!
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(स्वरचित ),
आज की संस्कृत रचना /15/05/2015.,
कविता,
संस्कृत
May 14, 2015
आज की कविता / एक दिन
आज की कविता
____________
एक दिन
©
और,
एक दिन प्रियतम ने मुझसे कहा,
इससे पहले,
कि तुम मुझे खोज पाते,
मैं तुम्हें खोज चुका था !
--
(मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी मेरी कविता
And one day,
My beloved said unto me,
"I found out you,
Before you could find out,
me!"
©
का हिन्दी अनुवाद)
--
____________
एक दिन
©
और,
एक दिन प्रियतम ने मुझसे कहा,
इससे पहले,
कि तुम मुझे खोज पाते,
मैं तुम्हें खोज चुका था !
--
(मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी मेरी कविता
And one day,
My beloved said unto me,
"I found out you,
Before you could find out,
me!"
©
का हिन्दी अनुवाद)
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अनुवादित-कविता.,
आज की कविता,
आज की कविता / एक दिन
माटी कहे इन्सान से!
आज की कविता
--
माटी कहे इन्सान से!
--
शहर की मिट्टी, ख़ाक गर्द, धूल,
गाँव की मिट्टी, साँस, भभूति, फूल!
शहर की मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती,
गाँव की मिट्टी, नेह में मुस्कुराती ।
शहर की मिट्टी, आँधी तूफ़ान बवण्डर,
गाँव की मिट्टी, प्यार का समन्दर,
शहर की मिट्टी, धूप में जलती सड़क,
गाँव की मिट्टी, भोर की उजली महक !
--
©
--
माटी कहे इन्सान से!
--
शहर की मिट्टी, ख़ाक गर्द, धूल,
गाँव की मिट्टी, साँस, भभूति, फूल!
शहर की मिट्टी, मिट्टी में मिल जाती,
गाँव की मिट्टी, नेह में मुस्कुराती ।
शहर की मिट्टी, आँधी तूफ़ान बवण्डर,
गाँव की मिट्टी, प्यार का समन्दर,
शहर की मिट्टी, धूप में जलती सड़क,
गाँव की मिट्टी, भोर की उजली महक !
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©
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आज की कविता,
कविता,
माटी कहे इन्सान से!
May 05, 2015
शेक्सपीयर, सॉनेट् 147 / SONNET 147
Shakespere / Sonnet 147.
--
I admit I never read Him.
Yesterday I was 'searching' for "As black as dark" because I was thinking of writing a poem including / starting with this very line.
And then in 'Search' I found this Sonnet, namely -147.
I read this several times, and because my way of understanding literature is first understanding the same in my own way and comprehending it in many aspects. Sometimes when I feel I am really 'connected', I translate the same in Hindi / Sanskrit. And in the same vein I translated this one.
Dedicated to those who can understand and love Hindi.
And I don't think this needs any 'introduction'. In my view, an artist, a painter, composer, and a man of letters needs no introduction.
The one who really appreciates 'Art' in any form could readily find oneself in tune with the 'composition'.
--
SONNET 147
My love is as a fever, longing still,
For that which longer nurseth the disease,
Feeding on that which doth preserve the ill,
The uncertain sickly appetite to please.
My reason, the physician to my love,
Angry that his prescriptions are not kept,
Hath left me, and I desperate now approve,
Desire is death, which physic did except.
Past cure I am, now reason is past care,
And frantic-mad with evermore unrest;
My thoughts and my discourse as madmen's are,
At random from the truth vainly express'd;
For I have sworn thee fair and thought thee bright,
Who art as black as hell, as dark as night.
--
शेक्सपीयर,
सॉनेट् 147.
--
मेरा प्रेम एक ज्वर है, अभी तक तरसता हुआ,
उसके लिए जो देर तक पालता है रोग को,
और उससे पोषित, जो यद्यपि रोगी की रक्षा करता है,
इष्ट को प्रसन्न करने की उस रुग्ण, अनिश्चित क्षुधातुरता से ।
मेरे प्रेम का चिकित्सक, मेरा युक्तिसंगत तर्क,
नाराज है, कि उसकी सलाहों पर ध्यान नहीं दिया जाता,
छोड़ दिया है उसने मुझे, और मेरा हताश आग्रह है,
कि इच्छा मृत्यु है, जिसे मान्य नहीं करता, मेरा चिकित्सक !
उपचार से परे हो चुका मैं, चिन्ता से परे हुआ तर्क,
और लगातार बढ़ता जा रहा है, -विक्षिप्त-पागलपन;
मानों मेरे ख़याल और चिन्तन किसी पागल के हों,
व्यर्थ में व्यक्त किए जा रहे यथार्थ से विभ्रमित;
क्योंकि मैंने तुम्हें निर्मल समझा, सोचा था तुम्हें उज्ज्वल,
यद्यपि तुम, जो कि हो नरक जैसी घोर, रात्रि जैसी गूढ़ ।
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--
I admit I never read Him.
Yesterday I was 'searching' for "As black as dark" because I was thinking of writing a poem including / starting with this very line.
And then in 'Search' I found this Sonnet, namely -147.
I read this several times, and because my way of understanding literature is first understanding the same in my own way and comprehending it in many aspects. Sometimes when I feel I am really 'connected', I translate the same in Hindi / Sanskrit. And in the same vein I translated this one.
Dedicated to those who can understand and love Hindi.
And I don't think this needs any 'introduction'. In my view, an artist, a painter, composer, and a man of letters needs no introduction.
The one who really appreciates 'Art' in any form could readily find oneself in tune with the 'composition'.
--
SONNET 147
My love is as a fever, longing still,
For that which longer nurseth the disease,
Feeding on that which doth preserve the ill,
The uncertain sickly appetite to please.
My reason, the physician to my love,
Angry that his prescriptions are not kept,
Hath left me, and I desperate now approve,
Desire is death, which physic did except.
Past cure I am, now reason is past care,
And frantic-mad with evermore unrest;
My thoughts and my discourse as madmen's are,
At random from the truth vainly express'd;
For I have sworn thee fair and thought thee bright,
Who art as black as hell, as dark as night.
--
शेक्सपीयर,
सॉनेट् 147.
--
मेरा प्रेम एक ज्वर है, अभी तक तरसता हुआ,
उसके लिए जो देर तक पालता है रोग को,
और उससे पोषित, जो यद्यपि रोगी की रक्षा करता है,
इष्ट को प्रसन्न करने की उस रुग्ण, अनिश्चित क्षुधातुरता से ।
मेरे प्रेम का चिकित्सक, मेरा युक्तिसंगत तर्क,
नाराज है, कि उसकी सलाहों पर ध्यान नहीं दिया जाता,
छोड़ दिया है उसने मुझे, और मेरा हताश आग्रह है,
कि इच्छा मृत्यु है, जिसे मान्य नहीं करता, मेरा चिकित्सक !
उपचार से परे हो चुका मैं, चिन्ता से परे हुआ तर्क,
और लगातार बढ़ता जा रहा है, -विक्षिप्त-पागलपन;
मानों मेरे ख़याल और चिन्तन किसी पागल के हों,
व्यर्थ में व्यक्त किए जा रहे यथार्थ से विभ्रमित;
क्योंकि मैंने तुम्हें निर्मल समझा, सोचा था तुम्हें उज्ज्वल,
यद्यपि तुम, जो कि हो नरक जैसी घोर, रात्रि जैसी गूढ़ ।
--
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May 04, 2015
आज की कविता / 04/05/2015
आज की कविता
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हवा में हर तरफ़ ज़हर है,
कभी जो गाँव था शहर है ।
शीत की, उमस की या गर्मी की,
ग़म की गुस्से की नफ़रत की लहर है ।
आप भी हाथ धो लिया कीजै,
बहती गंगा की ही, नहर है ।
रात गहरी हुई तो ये सोचा,
बीत जाएगी फ़िर सहर है ।
और बीते न बीत पाती हो,
समझ लो वक़्त का क़हर है ।
--
©
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हवा में हर तरफ़ ज़हर है,
कभी जो गाँव था शहर है ।
शीत की, उमस की या गर्मी की,
ग़म की गुस्से की नफ़रत की लहर है ।
आप भी हाथ धो लिया कीजै,
बहती गंगा की ही, नहर है ।
रात गहरी हुई तो ये सोचा,
बीत जाएगी फ़िर सहर है ।
और बीते न बीत पाती हो,
समझ लो वक़्त का क़हर है ।
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आज की कविता,
आज की कविता / 04/05/2015,
कविता.
April 22, 2015
आज की नज़्म !
©
आज की नज़्म !
वक़्त के साथ साथ मौसम भी बदल जाते हैं,
दोस्त बदल जाते हैं दुश्मन भी बदल जाते हैं,
जब हवा चलती है बदलाव की तो ग़ुल भी,
ग़ुल-ए-रंग भी, तहज़ीब और इंसां भी, बदल जाते हैं
--
फ़िर भी है क़ायनात इन्सां की,
फ़िर भी है दौलत-ओ-क़द्र ईमां की,
वो बदलते नहीं हर्ग़िज़ किसी भी सूरत में,
हाँ मगर पैमाने मीज़ान बदल जाते हैं ।
--
आज की नज़्म !
वक़्त के साथ साथ मौसम भी बदल जाते हैं,
दोस्त बदल जाते हैं दुश्मन भी बदल जाते हैं,
जब हवा चलती है बदलाव की तो ग़ुल भी,
ग़ुल-ए-रंग भी, तहज़ीब और इंसां भी, बदल जाते हैं
--
फ़िर भी है क़ायनात इन्सां की,
फ़िर भी है दौलत-ओ-क़द्र ईमां की,
वो बदलते नहीं हर्ग़िज़ किसी भी सूरत में,
हाँ मगर पैमाने मीज़ान बदल जाते हैं ।
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April 01, 2015
|| कृष्णं शरणम् ||
|| कृष्णं शरणम् ||
--
आज की संस्कृत रचना :
~
लोको मोहितो कामेन, कामो तु कृष्णेन सः |
यो कृष्णं शरणम् व्रजति क्षिप्रं कामेन मुच्यते |
~ ~
संसार में लोग काम (कामनाओं) से मोहित होकर क्लेश उठाते रहते हैं, जबकि काम स्वयं भी कृष्ण से मोहित है, इसलिए जो कृष्ण की शरण जाते हैं उन्हें कामनाएं व्यथित नहीं करतीं |
--
--
आज की संस्कृत रचना :
~
लोको मोहितो कामेन, कामो तु कृष्णेन सः |
यो कृष्णं शरणम् व्रजति क्षिप्रं कामेन मुच्यते |
~ ~
संसार में लोग काम (कामनाओं) से मोहित होकर क्लेश उठाते रहते हैं, जबकि काम स्वयं भी कृष्ण से मोहित है, इसलिए जो कृष्ण की शरण जाते हैं उन्हें कामनाएं व्यथित नहीं करतीं |
--
March 31, 2015
प्रेम - एक त्रिकोण / कविता
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
प्रेम-त्रिकोण-1
--
प्रेम एक त्रिकोण है,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
जब मैँ तुमसे मिला था,
जब तुम मिली थी मुझसे,
तब यह प्रेम ही तो था,
जो मिला था हमसे,
जिसे साझा किया था,
मैँने तुमसे, तुमने मुझसे,
और प्रेम ने तुमसे-मुझसे।
जैसे सोई हुई अग्नि,
ढूँढती है चिगारी,
जैसे सोई हुई हवा,
ढूँढती है आग को,
मैं तुम्हेँ, तुम मुझे,
और प्रेम ढूँढता था.
तुमको और मुझको,
चिनगारी की तरह,
और फिर तुमने, मैंने,
हम दोनों ने की भूल,
प्रेम को समझने में,
उस प्रेम ने हालाँकि,
नहीं की भूल कोई !
और हम सोचने लगे,
क्या हुआ, क्यों हुआ,
किस वज़ह से हुआ,
प्रेम दोनों का, हमारा,
एक दिन धुआँ-धुआँ !
प्रेम तो है अनश्वर,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
होता रहता है वह,
व्यक्त या अव्यक्त,
कभी अभिव्यक्त,
कभी अनभिव्यक्त !
बनता या मिटता नहीं,
बनाता या मिटाता नहीं,
सिमटता है या फैलता है,
अग्नि सा, ज्योति सा,
अँधेरे या रौशनी सा.
--
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
प्रेम-त्रिकोण-1
--
प्रेम एक त्रिकोण है,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
जब मैँ तुमसे मिला था,
जब तुम मिली थी मुझसे,
तब यह प्रेम ही तो था,
जो मिला था हमसे,
जिसे साझा किया था,
मैँने तुमसे, तुमने मुझसे,
और प्रेम ने तुमसे-मुझसे।
जैसे सोई हुई अग्नि,
ढूँढती है चिगारी,
जैसे सोई हुई हवा,
ढूँढती है आग को,
मैं तुम्हेँ, तुम मुझे,
और प्रेम ढूँढता था.
तुमको और मुझको,
चिनगारी की तरह,
और फिर तुमने, मैंने,
हम दोनों ने की भूल,
प्रेम को समझने में,
उस प्रेम ने हालाँकि,
नहीं की भूल कोई !
और हम सोचने लगे,
क्या हुआ, क्यों हुआ,
किस वज़ह से हुआ,
प्रेम दोनों का, हमारा,
एक दिन धुआँ-धुआँ !
प्रेम तो है अनश्वर,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
होता रहता है वह,
व्यक्त या अव्यक्त,
कभी अभिव्यक्त,
कभी अनभिव्यक्त !
बनता या मिटता नहीं,
बनाता या मिटाता नहीं,
सिमटता है या फैलता है,
अग्नि सा, ज्योति सा,
अँधेरे या रौशनी सा.
--
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प्रेम - एक त्रिकोण / कविता
March 29, 2015
आज की कविता / उस दिन /29/03/2015
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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आज की कविता /
उस दिन /29/03/2015
--
एक दिन,
तुम मुझे संसार में न पा सकोगे,
इसलिए नहीं ,
क्योंकि मैं संसार में न रहूँगा,
और न ही इसलिए,
क्योंकि तुम संसार में न रहोगे,
बल्कि सिर्फ इसलिए,
क्योंकि उस दिन,
संसार ही तुममें न रह जाएगा!
किन्तु तुम तब भी रहोगे,
वैसे ही अक्षुण्ण, यथावत्,
जैसे / जो अभी हो तुम!
और हो, सदा, सदैव!
--
(vinayvaidya111@gmail.com)
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आज की कविता /
उस दिन /29/03/2015
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एक दिन,
तुम मुझे संसार में न पा सकोगे,
इसलिए नहीं ,
क्योंकि मैं संसार में न रहूँगा,
और न ही इसलिए,
क्योंकि तुम संसार में न रहोगे,
बल्कि सिर्फ इसलिए,
क्योंकि उस दिन,
संसार ही तुममें न रह जाएगा!
किन्तु तुम तब भी रहोगे,
वैसे ही अक्षुण्ण, यथावत्,
जैसे / जो अभी हो तुम!
और हो, सदा, सदैव!
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March 25, 2015
तलाश एक सिक्के की! / अंतर्द्वंद्व
आज की 2 कविताएँ
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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1.तलाश एक सिक्के की!
--
देह के पार जाना था मुझे,
देह को कहीं नहीं जाना था,
देह को फिर भी पार जाना था,
अपार संसार से परे!
देह को ही तो पार उतरना था,
देह खुद ही किराया भी थी,
देह खुद ही नदी थी नौका थी,
देह खुद ही तो खेवैया थी,
देह एक सिक्का थी खोटा या खरा,
इसे भी वक्त ही करेगा तय,
फिर भी जाना है पार किसको यहाँ,
किसे पता है ये कहाँ है तय?
ये वो सिक्का है जिसे वक्त ने ही ढाला था,
एक दिन लौटाना भी होगा ही वक्त को वापिस,
एक दिन लौटना भी तो होगा ही!
फिर क्यों फैलाना हाथ दुनिया में,
किसी के आगे किराए के लिए,
वक्त से पार उतर जाऊँ अगर,
पार हो जाऊँगा मैं खुद के लिए....
--
2.अंतर्द्वंद्व
--
क्या अस्मिता देह है,
या है देह अस्मिता कोई?
क्या देह की अस्मिता है?
या अस्मिता की है देह कोई?
क्या 2 देह हैं, या हैं 2 ये अस्मिताएँ?
किसका है ये सवाल?
- देह का या अस्मिता का?
एक ही तो है देह यह,
एक ही यह अस्मिता भी,
एक ही है जगत भी,
एक ही जगदात्मा भी,
फिर भी कैसा प्रपंच माया है?
जगत है देह जिसकी छाया है,
यद्यपि दोनों की 1 काया है,
जिसमें सभी-कुछ तो समाया है,
फिर भी वक्त यूँ ही भ्रम जगाता है,
भ्रम से खुद भी तो वह उपजता है,
खुद ही बनता है खुद ही खोता है,
खुद ही हँसता है, खुद ही रोता है.
खुद ही बँधता है, बाँधता है खुद को,
खुद ही फिर खुद से छूट जाता है,
खुद से कैसा है खुद का रिश्ता यह,
खुद से कैसा ये खुद का नाता है!
--
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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1.तलाश एक सिक्के की!
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देह के पार जाना था मुझे,
देह को कहीं नहीं जाना था,
देह को फिर भी पार जाना था,
अपार संसार से परे!
देह को ही तो पार उतरना था,
देह खुद ही किराया भी थी,
देह खुद ही नदी थी नौका थी,
देह खुद ही तो खेवैया थी,
देह एक सिक्का थी खोटा या खरा,
इसे भी वक्त ही करेगा तय,
फिर भी जाना है पार किसको यहाँ,
किसे पता है ये कहाँ है तय?
ये वो सिक्का है जिसे वक्त ने ही ढाला था,
एक दिन लौटाना भी होगा ही वक्त को वापिस,
एक दिन लौटना भी तो होगा ही!
फिर क्यों फैलाना हाथ दुनिया में,
किसी के आगे किराए के लिए,
वक्त से पार उतर जाऊँ अगर,
पार हो जाऊँगा मैं खुद के लिए....
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2.अंतर्द्वंद्व
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क्या अस्मिता देह है,
या है देह अस्मिता कोई?
क्या देह की अस्मिता है?
या अस्मिता की है देह कोई?
क्या 2 देह हैं, या हैं 2 ये अस्मिताएँ?
किसका है ये सवाल?
- देह का या अस्मिता का?
एक ही तो है देह यह,
एक ही यह अस्मिता भी,
एक ही है जगत भी,
एक ही जगदात्मा भी,
फिर भी कैसा प्रपंच माया है?
जगत है देह जिसकी छाया है,
यद्यपि दोनों की 1 काया है,
जिसमें सभी-कुछ तो समाया है,
फिर भी वक्त यूँ ही भ्रम जगाता है,
भ्रम से खुद भी तो वह उपजता है,
खुद ही बनता है खुद ही खोता है,
खुद ही हँसता है, खुद ही रोता है.
खुद ही बँधता है, बाँधता है खुद को,
खुद ही फिर खुद से छूट जाता है,
खुद से कैसा है खुद का रिश्ता यह,
खुद से कैसा ये खुद का नाता है!
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March 18, 2015
प्रसंगवश / जीवन-मृत्यु
प्रसंगवश / जीवन-मृत्यु
__________________
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
" जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है । मृत्यु का बोध ही जीने की कला सिखाता है,..."
मुझे इस वाक्य में एक गहरी भूल दिखलाई देती है, क्या जीवन का अंत है? हम लोगों को मरते हुए देखते हैं और सोचने लगते हैं कि यह जीवन का अंतिम सत्य है, और मेरा भी यही होगा. क्या किसी ने कभी 'जीवन' का अंत देखा है? जिसे हम 'जीवन' कहते हैं, क्या उसका 'आरम्भ' है? किसी ने कभी देखा? क्या जीवन निरंतर ही एक सतत 'सत्य' नहीं है? किन्तु हम 'जीवन' का एक मानसिक-चित्र बना लेते हैं, जो या तो कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया मात्र होता है, न कि वह जिसके सम्बन्ध में हमारे मन में यह कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया पैदा होती है. समस्या यह है कि हम जीवन से अभिन्न हैं, किन्तु इस कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया के जन्म के बाद इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि हम कोई 'व्यक्ति-विशेष' हैं, कोई 'शरीर-विशेष', मनुष्य, स्त्री, पुरुष, अमीर-गरीब, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि हैं,... इस भ्रम का ही वस्तुतः 'जन्म' है, और 'मृत्यु' भी इस भ्रम की ही है, या कहें कि 'जन्म' और 'मृत्यु' 'विचार' / ख़याल भर है.
--
पुनश्च :
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया :
'जीवन का अंत या प्रारम्भ है कि नहीं यह तो कभी खत्म न होने वाली बहस का मुद्दा है.' ...
एक सरल प्रश्न : क्या 'जीवन' की अनुपस्थिति में किसी बहस की कोई संभावना है? मतलब यही कि बहस का आरम्भ और अंत होने के लिए कोई 'बहस करनेवाला' होना तो अपरिहार्यतःआवश्यक है, मतलब यह कि 'जीवन' स्वतः-प्रमाणित यथार्थ है, भले ही उसके स्वरूप को भौतिक वस्तुओं की तरह अनुभव या सिद्ध न भी किया जा सके. जब आप कहते हैं 'हम जो शरीर धारण किए हैं....,' तब आप कहें या न कहें, यह स्पष्ट ही है कि आप शरीर भर नहीं, बल्कि उस शरीर से भी सूक्ष्म और विराट वह तत्व हैं, जो शरीर के जन्म से शरीर की मृत्यु तक अपरिवर्तित रहता है, जन्म से पहले या मृत्यु के बाद क्या है, इस बारे में मैं भी कुछ नहीं कह रहा.. मैं तो इस दौरान जो है, उसकी बात कर रहा हूँ. और उस रूप में हमारा यथार्थ कोई नश्वर वस्तु नहीं हो सकता, भले ही हम अपने को शरीर और व्यक्ति मानकर नश्वर मान बैठें और जन्म-मृत्यु को सत्य मानकर दार्शनिक अंतहीन तर्क-वितर्क करते रहें, जब तक हम इस यथार्थ पर ध्यान नहीं देते तब तक उस तर्क-वितर्क /बहस से चाहकर भी नहीं भाग सकते. वह प्रश्न अंत (मृत्यु) तक हमारे सामने मुंह बाए खडा रहेगा....
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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" जीवन का अंतिम सत्य मृत्यु है । मृत्यु का बोध ही जीने की कला सिखाता है,..."
मुझे इस वाक्य में एक गहरी भूल दिखलाई देती है, क्या जीवन का अंत है? हम लोगों को मरते हुए देखते हैं और सोचने लगते हैं कि यह जीवन का अंतिम सत्य है, और मेरा भी यही होगा. क्या किसी ने कभी 'जीवन' का अंत देखा है? जिसे हम 'जीवन' कहते हैं, क्या उसका 'आरम्भ' है? किसी ने कभी देखा? क्या जीवन निरंतर ही एक सतत 'सत्य' नहीं है? किन्तु हम 'जीवन' का एक मानसिक-चित्र बना लेते हैं, जो या तो कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया मात्र होता है, न कि वह जिसके सम्बन्ध में हमारे मन में यह कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया पैदा होती है. समस्या यह है कि हम जीवन से अभिन्न हैं, किन्तु इस कल्पना, धारणा, विचार या प्रतिक्रिया के जन्म के बाद इस भ्रम में पड़ जाते हैं कि हम कोई 'व्यक्ति-विशेष' हैं, कोई 'शरीर-विशेष', मनुष्य, स्त्री, पुरुष, अमीर-गरीब, बच्चे, युवा, वृद्ध आदि हैं,... इस भ्रम का ही वस्तुतः 'जन्म' है, और 'मृत्यु' भी इस भ्रम की ही है, या कहें कि 'जन्म' और 'मृत्यु' 'विचार' / ख़याल भर है.
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पुनश्च :
मुझसे एक प्रश्न पूछा गया :
'जीवन का अंत या प्रारम्भ है कि नहीं यह तो कभी खत्म न होने वाली बहस का मुद्दा है.' ...
एक सरल प्रश्न : क्या 'जीवन' की अनुपस्थिति में किसी बहस की कोई संभावना है? मतलब यही कि बहस का आरम्भ और अंत होने के लिए कोई 'बहस करनेवाला' होना तो अपरिहार्यतःआवश्यक है, मतलब यह कि 'जीवन' स्वतः-प्रमाणित यथार्थ है, भले ही उसके स्वरूप को भौतिक वस्तुओं की तरह अनुभव या सिद्ध न भी किया जा सके. जब आप कहते हैं 'हम जो शरीर धारण किए हैं....,' तब आप कहें या न कहें, यह स्पष्ट ही है कि आप शरीर भर नहीं, बल्कि उस शरीर से भी सूक्ष्म और विराट वह तत्व हैं, जो शरीर के जन्म से शरीर की मृत्यु तक अपरिवर्तित रहता है, जन्म से पहले या मृत्यु के बाद क्या है, इस बारे में मैं भी कुछ नहीं कह रहा.. मैं तो इस दौरान जो है, उसकी बात कर रहा हूँ. और उस रूप में हमारा यथार्थ कोई नश्वर वस्तु नहीं हो सकता, भले ही हम अपने को शरीर और व्यक्ति मानकर नश्वर मान बैठें और जन्म-मृत्यु को सत्य मानकर दार्शनिक अंतहीन तर्क-वितर्क करते रहें, जब तक हम इस यथार्थ पर ध्यान नहीं देते तब तक उस तर्क-वितर्क /बहस से चाहकर भी नहीं भाग सकते. वह प्रश्न अंत (मृत्यु) तक हमारे सामने मुंह बाए खडा रहेगा....
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March 12, 2015
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन'
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन'
_____________________
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
मुझे आश्चर्य होता है कि शायद प्रत्येक ही मनुष्य इन तीन शब्दों का इस्तेमाल अनेक बार और लगभग रोज़ ही करता है, और फिर भी इन शब्दों का उसके लिए क्या तात्पर्य है, इस पर गंभीरता से सोचता हो. अगर आप बीमार हैं तो आपको यह समझने में अधिक समय नहीं लगता कि अब आपको क्या करना चाहिए . शायद आप इसे छोटी-मोटी बात समझकर छोटे-मोटे तरीके से इसका उपाय कर लें, या अधिक कष्ट अनुभव होने पर डॉक्टर और हॉस्पिटल जाने के बारे में सोचें. इसका सीधा कारण यह है कि आप बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ और असुविधा को 'महसूस' करते हैं. 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिन्हें हम उस तरह महसूस नहीं करते जैसे कि बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ को सीधे महसूस किया करते हैं. बीमार होने से होनेवाली तकलीफ़ पहले महसूस की जाती है और फ़िर उसके अस्तित्व के बारे में विचार या निर्णय होता है. इस दृष्टि से जिसे 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' कहा जाता है, उसके 'महसूस' किए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वे 'विचार-जनित निष्कर्ष' होते हैं, न कि 'अनुभवगम्य तथ्य'. और 'विचार जनित निष्कर्ष' / 'विचार-जनित प्रश्न' का कोई वास्तविक और प्रत्यक्ष 'हल' या 'समाधान' कैसे हो सकता है? हाँ, यह हो सकता है कि कोई ऐसा भाषागत उपाय हो जिससे उस प्रश्न को अप्रासंगिक और निष्क्रिय बना दिया जाए. और प्रायः ऐसा ही होता भी है.
'समय' की समस्या के भी दो प्रकार हैं, एक तो 'समायोजन' की, जिसे 'परमाणु-घड़ी' से लेकर यांत्रिक घड़ी या 'सौर-घड़ी' तक से साधा जाता है, और वह निश्चित ही 'समय' की एक ऐसी 'शुद्धतः भौतिक' सत्ता का 'वैज्ञानिक प्रमाण' भी है, जिसे 'विचार' की सहायता से अनुमानित किया जा सकता है और उन अनुमानों से ऐसे 'निष्कर्षों' को पाया जा सकता है, जिन्हें 'प्रयोग', 'अवलोकन' और पुनरावृत्ति द्वारा 'नियमों' के रूप में उनकी पुष्टि भी गणितीय सटीकता के साथ 'तय' की जा सकती है. और निश्चित ही इससे जीवन अत्यंत सुचारू और व्यवस्थित भी किया जा सकता है (वैसे हम शायद ही कभी इस बारे में सोचते हों).
'समय' का दूसरा प्रकार वह है जिसमें 'समय' की गति उपरोक्त अनुमानों से तय की गई हमारी अपेक्षा से धीमी या तेज हो जाती है. जैसे बस या ट्रेन के इंतज़ार के समय, या किसी ज़रूरत के पूरे होने के इंतज़ार में. वह ज़रूरत 'सुख' का होना, या 'दुःख' / 'चिंता' / 'भय' का दूर होना आदि भिन्न भिन्न रूपों में हो सकता है.
कभी कभी 'समय' कम उपलब्ध होता है, कभी इतना अधिक कि हमारा मन स्थिति से सामंजस्य नहीं कर पाता. जैसे नल में पानी का बहुत तेज़ी से या बहुत धीरे धीरे आना. ऐसे कितने ही उदाहरण हर कोई दिखला सकता है.
यह ठीक है कि 'समय' उसकी अपनी 'वैश्विक-घड़ी' के अनुसार चलता है, लेकिन 'बीतता' हमारी अपनी अपनी वैयक्तिक घड़ी के कम या अधिक अनुकूल या प्रतिकूल है.
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' इन तीनों की एक रोचक सच्चाई यह भी है कि जब हम सो जाते हैं, उस समय हमारे लिए इनमें से कोई भी समस्या नहीं होता. शायद इसीलिए मनुष्य किसी 'माध्यम' की सहायता से 'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' से छुटकारा पाने की कोशिश करता है, और उसका 'आदी' भी हो जाता है. इस 'माध्यम' को किसी समाज में स्वीकृति / सम्मान प्राप्त हो सकता है, किसी में ऐसा नहीं भी हो सकता. तम्बाकू, शराब सामान्यतः अनुचित समझे जाते हैं, किन्तु उन्हें भी गौरव प्रदान किया जाता है, उनमें भी 'शान' महसूस की जाती है. दूसरे 'ड्रग्स' जिन्हें डॉक्टर की सलाह से लिया जाता है, भी ऐसे 'माध्यम' हो सकते हैं, जीवन में कोई 'लक्ष्य' तय कर लेना, महान और सफल होना भी ऐसी 'प्रेरणा' हो सकता है जो जीवन को 'सार्थकता' देता प्रतीत होता हो, 'आध्यात्म' और 'धर्म' कोई राजनीतिक विचारधारा, कोई कल्पित या स्मृति में आरोपित 'ईश्वर' भी हमारे लिए ऐसे माध्यम का कार्य बखूबी करते हैं, क्योंकि यह सबसे सरल है. किसी 'विचार' / 'सिद्धान्त' के अनुयायी होना 'आत्म-गौरव' प्रदान करता है, भले ही कुछ समय बाद हम खुद ही उस 'विचार'/ 'सिद्धान्त' से ऊब जाएँ ! कभी कभी तो उसके बाद भी वह 'प्रतिष्ठा' का प्रश्न बन जाने से मनुष्य न चाहते हुए भी उसे नहीं छोड़ पाता.
दूसरी ओर शरीर कुछ कार्य तो किसी सीमा तक सरलता से और स्वाभाविक रूप से कर सकता है, किन्तु उस सीमा के बाद थक जाने पर या रुचि / बाध्यता न होने पर उसी कार्य से ऊब होने लगती है. यह ऊब भी स्वाभाविक ही है, किन्तु जीवन-यापन के लिए, आजीविका के लिए मनुष्य इसे जीवन कि अपरिहार्य ज़रूरत समझने लगता है. और तब उसे अपने कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा अपने ही भीतर मिल जाती है.
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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मुझे आश्चर्य होता है कि शायद प्रत्येक ही मनुष्य इन तीन शब्दों का इस्तेमाल अनेक बार और लगभग रोज़ ही करता है, और फिर भी इन शब्दों का उसके लिए क्या तात्पर्य है, इस पर गंभीरता से सोचता हो. अगर आप बीमार हैं तो आपको यह समझने में अधिक समय नहीं लगता कि अब आपको क्या करना चाहिए . शायद आप इसे छोटी-मोटी बात समझकर छोटे-मोटे तरीके से इसका उपाय कर लें, या अधिक कष्ट अनुभव होने पर डॉक्टर और हॉस्पिटल जाने के बारे में सोचें. इसका सीधा कारण यह है कि आप बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ और असुविधा को 'महसूस' करते हैं. 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिन्हें हम उस तरह महसूस नहीं करते जैसे कि बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ को सीधे महसूस किया करते हैं. बीमार होने से होनेवाली तकलीफ़ पहले महसूस की जाती है और फ़िर उसके अस्तित्व के बारे में विचार या निर्णय होता है. इस दृष्टि से जिसे 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' कहा जाता है, उसके 'महसूस' किए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वे 'विचार-जनित निष्कर्ष' होते हैं, न कि 'अनुभवगम्य तथ्य'. और 'विचार जनित निष्कर्ष' / 'विचार-जनित प्रश्न' का कोई वास्तविक और प्रत्यक्ष 'हल' या 'समाधान' कैसे हो सकता है? हाँ, यह हो सकता है कि कोई ऐसा भाषागत उपाय हो जिससे उस प्रश्न को अप्रासंगिक और निष्क्रिय बना दिया जाए. और प्रायः ऐसा ही होता भी है.
'समय' की समस्या के भी दो प्रकार हैं, एक तो 'समायोजन' की, जिसे 'परमाणु-घड़ी' से लेकर यांत्रिक घड़ी या 'सौर-घड़ी' तक से साधा जाता है, और वह निश्चित ही 'समय' की एक ऐसी 'शुद्धतः भौतिक' सत्ता का 'वैज्ञानिक प्रमाण' भी है, जिसे 'विचार' की सहायता से अनुमानित किया जा सकता है और उन अनुमानों से ऐसे 'निष्कर्षों' को पाया जा सकता है, जिन्हें 'प्रयोग', 'अवलोकन' और पुनरावृत्ति द्वारा 'नियमों' के रूप में उनकी पुष्टि भी गणितीय सटीकता के साथ 'तय' की जा सकती है. और निश्चित ही इससे जीवन अत्यंत सुचारू और व्यवस्थित भी किया जा सकता है (वैसे हम शायद ही कभी इस बारे में सोचते हों).
'समय' का दूसरा प्रकार वह है जिसमें 'समय' की गति उपरोक्त अनुमानों से तय की गई हमारी अपेक्षा से धीमी या तेज हो जाती है. जैसे बस या ट्रेन के इंतज़ार के समय, या किसी ज़रूरत के पूरे होने के इंतज़ार में. वह ज़रूरत 'सुख' का होना, या 'दुःख' / 'चिंता' / 'भय' का दूर होना आदि भिन्न भिन्न रूपों में हो सकता है.
कभी कभी 'समय' कम उपलब्ध होता है, कभी इतना अधिक कि हमारा मन स्थिति से सामंजस्य नहीं कर पाता. जैसे नल में पानी का बहुत तेज़ी से या बहुत धीरे धीरे आना. ऐसे कितने ही उदाहरण हर कोई दिखला सकता है.
यह ठीक है कि 'समय' उसकी अपनी 'वैश्विक-घड़ी' के अनुसार चलता है, लेकिन 'बीतता' हमारी अपनी अपनी वैयक्तिक घड़ी के कम या अधिक अनुकूल या प्रतिकूल है.
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' इन तीनों की एक रोचक सच्चाई यह भी है कि जब हम सो जाते हैं, उस समय हमारे लिए इनमें से कोई भी समस्या नहीं होता. शायद इसीलिए मनुष्य किसी 'माध्यम' की सहायता से 'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' से छुटकारा पाने की कोशिश करता है, और उसका 'आदी' भी हो जाता है. इस 'माध्यम' को किसी समाज में स्वीकृति / सम्मान प्राप्त हो सकता है, किसी में ऐसा नहीं भी हो सकता. तम्बाकू, शराब सामान्यतः अनुचित समझे जाते हैं, किन्तु उन्हें भी गौरव प्रदान किया जाता है, उनमें भी 'शान' महसूस की जाती है. दूसरे 'ड्रग्स' जिन्हें डॉक्टर की सलाह से लिया जाता है, भी ऐसे 'माध्यम' हो सकते हैं, जीवन में कोई 'लक्ष्य' तय कर लेना, महान और सफल होना भी ऐसी 'प्रेरणा' हो सकता है जो जीवन को 'सार्थकता' देता प्रतीत होता हो, 'आध्यात्म' और 'धर्म' कोई राजनीतिक विचारधारा, कोई कल्पित या स्मृति में आरोपित 'ईश्वर' भी हमारे लिए ऐसे माध्यम का कार्य बखूबी करते हैं, क्योंकि यह सबसे सरल है. किसी 'विचार' / 'सिद्धान्त' के अनुयायी होना 'आत्म-गौरव' प्रदान करता है, भले ही कुछ समय बाद हम खुद ही उस 'विचार'/ 'सिद्धान्त' से ऊब जाएँ ! कभी कभी तो उसके बाद भी वह 'प्रतिष्ठा' का प्रश्न बन जाने से मनुष्य न चाहते हुए भी उसे नहीं छोड़ पाता.
दूसरी ओर शरीर कुछ कार्य तो किसी सीमा तक सरलता से और स्वाभाविक रूप से कर सकता है, किन्तु उस सीमा के बाद थक जाने पर या रुचि / बाध्यता न होने पर उसी कार्य से ऊब होने लगती है. यह ऊब भी स्वाभाविक ही है, किन्तु जीवन-यापन के लिए, आजीविका के लिए मनुष्य इसे जीवन कि अपरिहार्य ज़रूरत समझने लगता है. और तब उसे अपने कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा अपने ही भीतर मिल जाती है.
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'ऊब' और 'अकेलापन',
'समय',
बेखयाली,
बेखुदी,
बेचैनी
March 11, 2015
आज की कविता
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
आज की कविता
--
दिव्य प्रभा वह !
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वह आती पथ पर,
जैसे कोई दिव्य प्रभा,
आसमान से मानो उतरी
जैसे कोई रश्मि-रेखा.
स्तब्ध चकित करती,
विस्मित वह सबको,
ठिठके खड़े देखते अपलक,
जन सब उसको.
पल दो पल में,
युग युग बीत,
गुज़र जाते हैं,
और प्रशंसक,
स्मृतियों में उसे,
संजो लेते हैं....
--
(vinayvaidya111@gmail.com)
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आज की कविता
--
दिव्य प्रभा वह !
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वह आती पथ पर,
जैसे कोई दिव्य प्रभा,
आसमान से मानो उतरी
जैसे कोई रश्मि-रेखा.
स्तब्ध चकित करती,
विस्मित वह सबको,
ठिठके खड़े देखते अपलक,
जन सब उसको.
पल दो पल में,
युग युग बीत,
गुज़र जाते हैं,
और प्रशंसक,
स्मृतियों में उसे,
संजो लेते हैं....
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इरा,
कविता,
दिव्य प्रभा वह!,
प्रतीक्षा
March 09, 2015
आज की कविता : भीतर और इर्द-गिर्द.
आज की कविता / भीतर और इर्द-गिर्द.
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है,
आईना तोड़ कर अक्स बदलोगे कैसे,
अक्स दुरुस्त करना हो तो आईना ही बदल डालो,
और उससे भी न होता हो ग़र मक़सद हासिल,
हो सके तो आईने से नज़रें हटा लो,
पर कहाँ ठहरेंगी नज़रें तुम्हारी,
हर तरफ अगर सिर्फ आईने ही हों,
हाँ ये मुमकिन है सिर्फ उस सूरत में,
देख पाओगे खुद को जब हर मूरत में,
और तब अगर तस्वीर नहीं भी बदले,
तुम्हारी शक्ल तुम्हें नज़र ज़रूर आएगी,
और फिर शक्ल को बदल पाना,
इतना मुश्किल भी नहीं कोई सपना !
वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है, ...
--
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है,
आईना तोड़ कर अक्स बदलोगे कैसे,
अक्स दुरुस्त करना हो तो आईना ही बदल डालो,
और उससे भी न होता हो ग़र मक़सद हासिल,
हो सके तो आईने से नज़रें हटा लो,
पर कहाँ ठहरेंगी नज़रें तुम्हारी,
हर तरफ अगर सिर्फ आईने ही हों,
हाँ ये मुमकिन है सिर्फ उस सूरत में,
देख पाओगे खुद को जब हर मूरत में,
और तब अगर तस्वीर नहीं भी बदले,
तुम्हारी शक्ल तुम्हें नज़र ज़रूर आएगी,
और फिर शक्ल को बदल पाना,
इतना मुश्किल भी नहीं कोई सपना !
वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है, ...
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आज की कविता,
कविता,
प्रतिमाएँ,
भीतर और इर्द-गिर्द.,
मुक्ति
March 08, 2015
आज की कविता
आज की कविता
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अनकिया का किया हो जाना,
अनकिया से किया हो जाना,
किया का पुनः अनकिया हो जाना,
अनकिया से किया हो जाना ...
अकर्म में कर्म देखता हूँ मैं,
कर्म में अकर्म देखता हूँ मैं,
कृष्ण जो कह रहे हैं गीता में,
धर्म का मर्म देखता हूँ मैं .
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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अनकिया का किया हो जाना,
अनकिया से किया हो जाना,
किया का पुनः अनकिया हो जाना,
अनकिया से किया हो जाना ...
अकर्म में कर्म देखता हूँ मैं,
कर्म में अकर्म देखता हूँ मैं,
कृष्ण जो कह रहे हैं गीता में,
धर्म का मर्म देखता हूँ मैं .
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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आज का श्लोक,
आज की कविता,
कविता,
कविता.
March 07, 2015
आज की कविता : ' अगर प्रेम कविता है! '
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
आज की कविता : 'अगर प्रेम कविता है!'
--
अगर प्रेम 'कविता' है,
तो ठीक,
मैं बहस नहीं करूँगा,
मैं सिर्फ पढूँगा, सुनूँगा, गुनूँगा,
अगर प्रेम जड़त्व है ,
और भारीपन से भर जाते हैं लोग,
तो भरूँगा खुद को,
हो जाऊँगा इतना भारी,
कि धरती को भेदकर समा जाऊँगा,
उसके गर्भ में,
और,
प्रेम अन्धकार है ,
कि पार देखते ही डर जाते हैं लोग,
तो मैं डरूँगा,
या आँखें फाड़कर देखूँगा,
कि कहाँ तक है अन्धकार,
और उसके पार क्या है,
या कुछ है भी या नहीं,
अगर प्रेम अवसाद है,
बुझे बुझे ही मर जाते हैं लोग ,
तो अवसन्न होकर मिट जाऊँगा,
जैसे शाम को उजाला मिट जाता है,
और अगर प्रेम उम्र का दलदल है,
तो डूबते-उतरते,
गिरते-पड़ते भी,
उभर आऊँगा,
जैसे सुबह उजाला लौट आता है,
और उबार लूँगा,
तुम्हें भी!
--
(vinayvaidya111@gmail.com)
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आज की कविता : 'अगर प्रेम कविता है!'
--
अगर प्रेम 'कविता' है,
तो ठीक,
मैं बहस नहीं करूँगा,
मैं सिर्फ पढूँगा, सुनूँगा, गुनूँगा,
अगर प्रेम जड़त्व है ,
और भारीपन से भर जाते हैं लोग,
तो भरूँगा खुद को,
हो जाऊँगा इतना भारी,
कि धरती को भेदकर समा जाऊँगा,
उसके गर्भ में,
और,
प्रेम अन्धकार है ,
कि पार देखते ही डर जाते हैं लोग,
तो मैं डरूँगा,
या आँखें फाड़कर देखूँगा,
कि कहाँ तक है अन्धकार,
और उसके पार क्या है,
या कुछ है भी या नहीं,
अगर प्रेम अवसाद है,
बुझे बुझे ही मर जाते हैं लोग ,
तो अवसन्न होकर मिट जाऊँगा,
जैसे शाम को उजाला मिट जाता है,
और अगर प्रेम उम्र का दलदल है,
तो डूबते-उतरते,
गिरते-पड़ते भी,
उभर आऊँगा,
जैसे सुबह उजाला लौट आता है,
और उबार लूँगा,
तुम्हें भी!
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March 04, 2015
हेतु और प्रयोजन
हेतु और प्रयोजन
______________
मनुष्य के लिए चार 'पुरुषार्थ' कहे गए हैं. 'धर्म' 'अर्थ' 'काम' और 'मोक्ष'
'धर्म' का तात्पर्य है जो सहज, स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुआ कर्तव्य है जिसके न करने से मनुष्य का जीवन नष्ट के समान है, इस धर्म / या कर्तव्य में भी विहित, प्रासंगिक, काम्य, निषिद्ध और श्रेय ये पाँच प्रकार हैं. विहित - जो विधिसम्मत वर्ण-आश्रम-धर्म हैं, प्रासंगिक, जो परिस्थितियों के अनुसार उचित या अनुचित होते हैं, काम्य - जिनकी कामना होना स्वाभाविक ही है - जैसे दुःख के दूर होने और सुख तथा सबके कल्याण की कामना होना . निषिद्ध - जिनके करने से अपनी तथा दूसरों की भी हानि (हा > हानि >हेय = त्याज्य ) होती हो, अर्थात् मूलतः जिसमें हिंसा होती हो, श्रेय - जिनसे अपना तथा संसार का कल्याण हो.
'अर्थ' का अर्थ है 'हेतु' और 'प्रयोजन' . 'हेतु' > 'हित' > 'धा' धातु के साथ 'क्त' प्रत्यय होने पर बना शब्द है . 'धा' अर्थात् जिसे धारण किया गया, पाया गया है .
'प्रयोजन' का अर्थ है 'उद्देश्य' अर्थात् 'उत् + देश्य' जिसे आगे चलकर पाया जा सकता है,
इसलिए 'प्रयोजन' भी 'हेतु' का एक तात्पर्य होता है, जैसे बीज वृक्ष और वृक्ष बीज होता है, इसका एक मतलब 'कारण' तथा 'कार्य' भी होता है .
'संपत्ति' चूँकि जीवन के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए आवश्यक होती है, इसलिए 'गौण' अर्थ में 'संपत्ति' को 'अर्थ' कहा जाता है .
'अर्थ' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से 'पुरुषार्थ' के लिए किया जाता है, जबकि 'गौण' / secondary रूप से धन के लिए.
संपत्ति / धन जब साधन होता है तब गौण अर्थ में, और जब साध्य होता है तो 'प्रयोजन' के अर्थ में.
--
______________
मनुष्य के लिए चार 'पुरुषार्थ' कहे गए हैं. 'धर्म' 'अर्थ' 'काम' और 'मोक्ष'
'धर्म' का तात्पर्य है जो सहज, स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुआ कर्तव्य है जिसके न करने से मनुष्य का जीवन नष्ट के समान है, इस धर्म / या कर्तव्य में भी विहित, प्रासंगिक, काम्य, निषिद्ध और श्रेय ये पाँच प्रकार हैं. विहित - जो विधिसम्मत वर्ण-आश्रम-धर्म हैं, प्रासंगिक, जो परिस्थितियों के अनुसार उचित या अनुचित होते हैं, काम्य - जिनकी कामना होना स्वाभाविक ही है - जैसे दुःख के दूर होने और सुख तथा सबके कल्याण की कामना होना . निषिद्ध - जिनके करने से अपनी तथा दूसरों की भी हानि (हा > हानि >हेय = त्याज्य ) होती हो, अर्थात् मूलतः जिसमें हिंसा होती हो, श्रेय - जिनसे अपना तथा संसार का कल्याण हो.
'अर्थ' का अर्थ है 'हेतु' और 'प्रयोजन' . 'हेतु' > 'हित' > 'धा' धातु के साथ 'क्त' प्रत्यय होने पर बना शब्द है . 'धा' अर्थात् जिसे धारण किया गया, पाया गया है .
'प्रयोजन' का अर्थ है 'उद्देश्य' अर्थात् 'उत् + देश्य' जिसे आगे चलकर पाया जा सकता है,
इसलिए 'प्रयोजन' भी 'हेतु' का एक तात्पर्य होता है, जैसे बीज वृक्ष और वृक्ष बीज होता है, इसका एक मतलब 'कारण' तथा 'कार्य' भी होता है .
'संपत्ति' चूँकि जीवन के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए आवश्यक होती है, इसलिए 'गौण' अर्थ में 'संपत्ति' को 'अर्थ' कहा जाता है .
'अर्थ' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से 'पुरुषार्थ' के लिए किया जाता है, जबकि 'गौण' / secondary रूप से धन के लिए.
संपत्ति / धन जब साधन होता है तब गौण अर्थ में, और जब साध्य होता है तो 'प्रयोजन' के अर्थ में.
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अथातो जिज्ञासा .,
हेतु और प्रयोजन
March 02, 2015
एक संस्कृत शब्द : 'वृत्तिः'
एक संस्कृत शब्द : 'वृत्तिः'
___________________
'वृ' > 'वरण करना', हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है, जागृति, स्वप्न और गहरी निद्रा इन तीन स्थितियों में पाया / देखा / अनुभव किया जाता है . इनमें से जागृति ही एक ऐसी स्थिति है जब हम भूत और भविष्य के बारे में अनुमान कर सकते हैं, यह अनुमान स्वयं उस भूत और उस भविष्य से बिलकुल अलग एक तत्त्व है, जिसे चित्त कहा जाता है . चित्त भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुज़रता रहता है . अर्थात् हमारा मन चित्त के रूप में भिन्न-भिन्न स्थितियों का 'वरण' करता और उन्हें त्यागता भी रहता है .अर्थात् इस प्रकार से चुनने और छोड़ने के पहले भी अस्तित्व में होता है . 'वृत्' > 'होना' . वह जो चुनता / छोड़ता है, जो पहले से ही विद्यमान है, वह है हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है. वृत् > वृत्तिः होती है . वृत्ति परिवर्तनशील है, जबकि 'वृत्' > 'वृतम्' / 'वृतः' स्थिर आधार है . परिवर्तनशीलता में भी पुनरावृत्ति की संभावना होती ही है . इसलिए मन की स्थिर अवस्था को चित् / चेतना (अर्थात् बोध) और परिवर्तनशील स्थिति / चंचलता को चित्त अर्थात् 'वृत्ति' कहा जाता है . यदि इस 'वृत्ति' को शांत कर दिया जाए, तो मन के यथार्थ स्वरूप के रह जाने से 'वह क्या है?' इसका ज्ञान / बोध हो जाता है . यह ज्ञान कोई 'वृत्ति' नहीं बल्कि 'समझ' / 'समाधान' है . सामान्यतः हमारा मन 'वृत्ति' / किसी वृत्ति के उठने या शान्त होने के बीच की, अर्थात एक 'विचार' के उठने और विलीन होने के बाद दूसरे 'विचार' के उठने के बीच की 'अपनी' स्वाभाविक सहज स्थिति को नहीं देख पाता. और इसलिए एक वृत्ति के जाने के बाद 'दूसरी' के उठने पर उससे एकात्म हो जाता है, अर्थात् मन जो वस्तुतः 'दृष्टा' है, वृत्ति से सारूप्य स्थापित कर 'अपनी' पहचान कल्पित कर लेता है. किन्तु यह 'कल्पना' वृत्ति नहीं बल्कि कोरा अज्ञान मात्र है, जिसका निराकरण करने पर वृत्ति को भी नहीं पाया जाता .
योगशास्त्र में इसी तथ्य से पारंभ किया जाता है :
अथ योगानुशासनम् |
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः |
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् |
वृत्तिसारुप्यम् इतरत्र |
--
___________________
'वृ' > 'वरण करना', हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है, जागृति, स्वप्न और गहरी निद्रा इन तीन स्थितियों में पाया / देखा / अनुभव किया जाता है . इनमें से जागृति ही एक ऐसी स्थिति है जब हम भूत और भविष्य के बारे में अनुमान कर सकते हैं, यह अनुमान स्वयं उस भूत और उस भविष्य से बिलकुल अलग एक तत्त्व है, जिसे चित्त कहा जाता है . चित्त भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुज़रता रहता है . अर्थात् हमारा मन चित्त के रूप में भिन्न-भिन्न स्थितियों का 'वरण' करता और उन्हें त्यागता भी रहता है .अर्थात् इस प्रकार से चुनने और छोड़ने के पहले भी अस्तित्व में होता है . 'वृत्' > 'होना' . वह जो चुनता / छोड़ता है, जो पहले से ही विद्यमान है, वह है हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है. वृत् > वृत्तिः होती है . वृत्ति परिवर्तनशील है, जबकि 'वृत्' > 'वृतम्' / 'वृतः' स्थिर आधार है . परिवर्तनशीलता में भी पुनरावृत्ति की संभावना होती ही है . इसलिए मन की स्थिर अवस्था को चित् / चेतना (अर्थात् बोध) और परिवर्तनशील स्थिति / चंचलता को चित्त अर्थात् 'वृत्ति' कहा जाता है . यदि इस 'वृत्ति' को शांत कर दिया जाए, तो मन के यथार्थ स्वरूप के रह जाने से 'वह क्या है?' इसका ज्ञान / बोध हो जाता है . यह ज्ञान कोई 'वृत्ति' नहीं बल्कि 'समझ' / 'समाधान' है . सामान्यतः हमारा मन 'वृत्ति' / किसी वृत्ति के उठने या शान्त होने के बीच की, अर्थात एक 'विचार' के उठने और विलीन होने के बाद दूसरे 'विचार' के उठने के बीच की 'अपनी' स्वाभाविक सहज स्थिति को नहीं देख पाता. और इसलिए एक वृत्ति के जाने के बाद 'दूसरी' के उठने पर उससे एकात्म हो जाता है, अर्थात् मन जो वस्तुतः 'दृष्टा' है, वृत्ति से सारूप्य स्थापित कर 'अपनी' पहचान कल्पित कर लेता है. किन्तु यह 'कल्पना' वृत्ति नहीं बल्कि कोरा अज्ञान मात्र है, जिसका निराकरण करने पर वृत्ति को भी नहीं पाया जाता .
योगशास्त्र में इसी तथ्य से पारंभ किया जाता है :
अथ योगानुशासनम् |
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः |
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् |
वृत्तिसारुप्यम् इतरत्र |
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'वृत्तिः',
'समाधानम्',
आत्म-विचार.,
एक संस्कृत शब्द
February 27, 2015
एक संस्कृत शब्द, 'समाधानम्'
एक संस्कृत शब्द,
'समाधानम्'
--
Aa good word,
सं + आ + धान >
सं उपसर्ग becoms 'con'
-prefix as is in most of the English words,
beginning with 'con'
-prefix as is in most of the English words,
beginning with 'con'
सं उपसर्ग becoms 'syn' prefix as is in most of the English words,
beginning with 'syn',
beginning with 'syn',
'धा' उभयपदी धातु / क्रियापद verb-root है,
परस्मैपदी - when the verb supports the object (कर्म) of action (क्रिया)
दधामि > मैं धारण करता हूँ ; अर्थात् सहारा देता / देती हूँ |
अहम् सोमं त्वष्टारम् पूषणम् भगम् दधामि |
अहम् विष्णुमुरुक्रमम् ब्रह्माणमुत प्रजापतिम् दधामि |
अहम् दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते |
(देवी अथर्व शीर्षम् - मन्त्र 6 )
अहम् राष्ट्री सङ्गमनी वसूनाम् चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् |
मम योनिर्महद्ब्रहम तस्मिन्गर्भम् दधामि अहम् |
आत्मनेपदी - when the verb supports the subject (कर्ता) of action (क्रिया)
धत्ते > आधत्ते - अपने लिए रखना
दधे > मैं रखता / रखती हूँ |
>
आधाय > आधार प्रदान कर ,
'आ' उपसर्ग, 'धा' आत्मनेपदी धातु, 'क्त्वा' / 'ल्यप्' प्रत्यय > कृत्वा = करके, हत्वा = मारकर, भुक्त्वा = भोगकर विहाय = त्यागकर, विधाय > विधान कर,
समाधाय = resolution / solution,
समाधान (संज्ञा / noun)
--
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'समाधानम्',
एक संस्कृत शब्द,
गीता,
देवीअथर्वशीर्षम्,
शब्द-ब्रह्म,
संस्कृत
February 24, 2015
February 23, 2015
त्रासदी जीवन की!
त्रासदी जीवन की!
--
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
(मेरी मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी कविता,
"Tragedy of life"
का हिंदीरूपान्तर)
--
जब हम जन्म लेते हैं,
और जी रहे होते हैं,
जब हमारे भीतर से उमगता है जीवन,
और होता है रूबरू,
हमारे बाहर के जीवन से,
तो हालाँकि दोनों ही,
एक ही जीवन के दो चेहरे होते हैं,
उस भीतरवाले के,
और उस बाहरवाले के बीच,
एक खेल शुरू होता है,
और परवान चढ़ता है.
आईने में उभरती,
अनेक छवियों के बीच,
वह भी जीवन ही है.
और हालाँकि,
ये सभी छवियाँ जीवन ही की होती हैं,
उनमें से हर छवि,
अपने-आपको एक व्यक्ति-विशेष,
और बाकी सबको 'एक संसार' समझती है .
जब हम जन्म लेते हैं,
यह छवि, -यह व्यक्ति,
मरने से डरता है,
जबकि वह जीवन,
जो हमारे भीतर,
हमारी अपनी छवि बनता है,
न तो कभी जन्मा होता है,
और न कभी जनता है,
-किसी मृत्यु को.
और इसकी सीधी सी वज़ह,
सिर्फ यह होती है,
कि मृत्यु हो जाने पर,
कोई मृत्यु को नहीं जान सकता,
और न ही कोई मृत्यु को,
मृत्यु होने से पहले कभी .
किन्तु फिर भी इंसान,
इंसान की तरह,
'अपने' संसार' में,
रोज़ रोज़ जागते और सोते हुए,
मृत्य को सच मान बैठता है.
अपने को एक व्यक्ति मानकर.
और हालांकि,
ऐसा कोई 'संसार' दर-असल कहीं नहीं होता,
जैसा कि भूल से,
व्यक्ति मान बैठता है,
जैसा कि अपनी कल्पनाओं और अनुभूतियों से,
उनकी स्मृतियों के धागों से,
असंख्य रूप-रंगों, और डिज़ाइनों में,
अनेक आकारों-प्रकारों में,
बुन लिया करता है,
और कर लेता है यकीन,
स्मृति से उपजी अपनी उस,
स्वरचित दुनिया को पूरा सच.
भूल जाता है,
कि ऐसी कोई दुनिया,
यक़ीनन कहीं नहीं है,
और न हो सकती है.
न तो मृत्यु, और न ही,
किसी ख्वाहिश का पूरा न हो पाना,
या अपने भीतर कुछ मर जाना,
कोई त्रासदी है जीवन की,
अगर कोई है, या हो सकती है,
तो बस यही एक त्रासदी है,
कि हम भूल जाते हैं,
और फिर याद भी नहीं कर पाते,
कि न तो हमारा कभी कोई जन्म हुआ था,
और न किसी रोज़ हम मर जाएंगे!
--
©
--
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
--
(मेरी मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी कविता,
"Tragedy of life"
का हिंदीरूपान्तर)
--
जब हम जन्म लेते हैं,
और जी रहे होते हैं,
जब हमारे भीतर से उमगता है जीवन,
और होता है रूबरू,
हमारे बाहर के जीवन से,
तो हालाँकि दोनों ही,
एक ही जीवन के दो चेहरे होते हैं,
उस भीतरवाले के,
और उस बाहरवाले के बीच,
एक खेल शुरू होता है,
और परवान चढ़ता है.
आईने में उभरती,
अनेक छवियों के बीच,
वह भी जीवन ही है.
और हालाँकि,
ये सभी छवियाँ जीवन ही की होती हैं,
उनमें से हर छवि,
अपने-आपको एक व्यक्ति-विशेष,
और बाकी सबको 'एक संसार' समझती है .
जब हम जन्म लेते हैं,
यह छवि, -यह व्यक्ति,
मरने से डरता है,
जबकि वह जीवन,
जो हमारे भीतर,
हमारी अपनी छवि बनता है,
न तो कभी जन्मा होता है,
और न कभी जनता है,
-किसी मृत्यु को.
और इसकी सीधी सी वज़ह,
सिर्फ यह होती है,
कि मृत्यु हो जाने पर,
कोई मृत्यु को नहीं जान सकता,
और न ही कोई मृत्यु को,
मृत्यु होने से पहले कभी .
किन्तु फिर भी इंसान,
इंसान की तरह,
'अपने' संसार' में,
रोज़ रोज़ जागते और सोते हुए,
मृत्य को सच मान बैठता है.
अपने को एक व्यक्ति मानकर.
और हालांकि,
ऐसा कोई 'संसार' दर-असल कहीं नहीं होता,
जैसा कि भूल से,
व्यक्ति मान बैठता है,
जैसा कि अपनी कल्पनाओं और अनुभूतियों से,
उनकी स्मृतियों के धागों से,
असंख्य रूप-रंगों, और डिज़ाइनों में,
अनेक आकारों-प्रकारों में,
बुन लिया करता है,
और कर लेता है यकीन,
स्मृति से उपजी अपनी उस,
स्वरचित दुनिया को पूरा सच.
भूल जाता है,
कि ऐसी कोई दुनिया,
यक़ीनन कहीं नहीं है,
और न हो सकती है.
न तो मृत्यु, और न ही,
किसी ख्वाहिश का पूरा न हो पाना,
या अपने भीतर कुछ मर जाना,
कोई त्रासदी है जीवन की,
अगर कोई है, या हो सकती है,
तो बस यही एक त्रासदी है,
कि हम भूल जाते हैं,
और फिर याद भी नहीं कर पाते,
कि न तो हमारा कभी कोई जन्म हुआ था,
और न किसी रोज़ हम मर जाएंगे!
--
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अनवरत !,
आज की कविता,
आस्था,
इन दिनों.,
त्रासदी जीवन की!
February 22, 2015
आज की कविता -- फिर भी यह तथ्य है!
© Vinay Kumar Vaidya,
vinayvaidya111@gmail.com
--
आज की कविता
--
फिर भी यह तथ्य है!
(मूलतः अंग्रेजी में लिखी मेरी कविता,
"It is still a fact "
का हिंदी रूपांतरण )
--
फिर भी यह तथ्य है !
--
फिर भी यह तथ्य है,
कि हम कभी तथ्य का सामना नहीं करते.
और सिर्फ़ इसलिए,
क्योंकि हम तथ्य को देखते तक नहीं .
और शायद ही कभी हम,
उसे जानने का प्रयास करते हैं.
और, जैसे ही, जिस क्षण भी,
वह हमारे समक्ष अवतरित होता है,
सर्वथा नग्न, अनावृत,और अपरिभाषित,
तत्काल ही उस पर हम,
एक आवरण फेंक देते हैं,
उसे हम एक शब्द भी कहने का,
मौक़ा तक नहीं देते.
और यद्यपि वह,
शब्द का उच्चार तक नहीं करता,
और शब्दों से कुछ कहता भी नहीं,
उसके पास फिर भी छिपाने जैसा भी,
कुछ नहीं होता.
वह जो कुछ भी है,
साक्षात् होता है.
वास्तविकता का सदैव प्रकट,
उज्जवल प्रकाश-मात्र.
और यदि हम पल भर भी चुप रह सकें,
तो तथ्य के रूप में विदा हो,
लौट जाया करता है,
उसी वास्तविकता में,
वह जिसका प्रकाश है.
बहा ले जाता है अपने साथ,
अपनी रौ में, हमें भी.
--
और यद्यपि,
वास्तविकता जैसे कभी नई,
या पुरानी भी नहीं होती,
तथ्य भी वैसे ही,
कभी पुराना नहीं होता.
सदा ही नया होता है वह भी.
- वास्तविकता की ही तरह.
उसकी ही तरह वह भी,
न तो एक होता है,
-न ही अनेक.
किन्तु हमारा तर्क,
और हमारी टिप्पणी,
अकस्मात् ही उसे खंडित कर देती है,
बहुत से, विविध और असंख्य रूप देकर,
बाँट देती है, टुकड़े-टुकड़े !
क्या यह आश्चर्य नहीं है,
कि कल्पना कैसे तथ्य को,
फ़ौरन ही नया जामा पहना देती है!
बदल देती है उसे,
ले जाती है हमें,
अराजक संघर्षपूर्ण संसार में.
जबकि तथ्य का मौन दर्शन,
हमें वास्तविकता से जोड़ देता है.
कल्पना से परे और पूर्व की वास्तविकता से,
हम जिसके आलोक-मात्र हैं.
--
vinayvaidya111@gmail.com
--
आज की कविता
--
फिर भी यह तथ्य है!
(मूलतः अंग्रेजी में लिखी मेरी कविता,
"It is still a fact "
का हिंदी रूपांतरण )
--
फिर भी यह तथ्य है !
--
फिर भी यह तथ्य है,
कि हम कभी तथ्य का सामना नहीं करते.
और सिर्फ़ इसलिए,
क्योंकि हम तथ्य को देखते तक नहीं .
और शायद ही कभी हम,
उसे जानने का प्रयास करते हैं.
और, जैसे ही, जिस क्षण भी,
वह हमारे समक्ष अवतरित होता है,
सर्वथा नग्न, अनावृत,और अपरिभाषित,
तत्काल ही उस पर हम,
एक आवरण फेंक देते हैं,
उसे हम एक शब्द भी कहने का,
मौक़ा तक नहीं देते.
और यद्यपि वह,
शब्द का उच्चार तक नहीं करता,
और शब्दों से कुछ कहता भी नहीं,
उसके पास फिर भी छिपाने जैसा भी,
कुछ नहीं होता.
वह जो कुछ भी है,
साक्षात् होता है.
वास्तविकता का सदैव प्रकट,
उज्जवल प्रकाश-मात्र.
और यदि हम पल भर भी चुप रह सकें,
तो तथ्य के रूप में विदा हो,
लौट जाया करता है,
उसी वास्तविकता में,
वह जिसका प्रकाश है.
बहा ले जाता है अपने साथ,
अपनी रौ में, हमें भी.
--
और यद्यपि,
वास्तविकता जैसे कभी नई,
या पुरानी भी नहीं होती,
तथ्य भी वैसे ही,
कभी पुराना नहीं होता.
सदा ही नया होता है वह भी.
- वास्तविकता की ही तरह.
उसकी ही तरह वह भी,
न तो एक होता है,
-न ही अनेक.
किन्तु हमारा तर्क,
और हमारी टिप्पणी,
अकस्मात् ही उसे खंडित कर देती है,
बहुत से, विविध और असंख्य रूप देकर,
बाँट देती है, टुकड़े-टुकड़े !
क्या यह आश्चर्य नहीं है,
कि कल्पना कैसे तथ्य को,
फ़ौरन ही नया जामा पहना देती है!
बदल देती है उसे,
ले जाती है हमें,
अराजक संघर्षपूर्ण संसार में.
जबकि तथ्य का मौन दर्शन,
हमें वास्तविकता से जोड़ देता है.
कल्पना से परे और पूर्व की वास्तविकता से,
हम जिसके आलोक-मात्र हैं.
--
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J.Krishnamurti,
Poetry,
poetry.,
अथातो जिज्ञासा .,
अनुवादित-कविता.
February 20, 2015
~~ जे.कृष्णमूर्ति ~~ (-1.)
~~ जे.कृष्णमूर्ति ~~(-1.)
--
"The number-system was invented'"
मेरी छत पर खुलनेवाले दरवाजे पर एक बच्चे ने चॉक से सुन्दर अक्षरों में लिखा है .
मैं सोचने लगा कि 'invented' को काट कर 'discovered' लिख दूँ .
मुझे अक्सर अनुभव होता है कि हमें जो शिक्षा दी जा रही है उससे हमारा अज्ञान और जटिल, तथा घना होता जा रहा है . हम भले ही 'शिक्षित' हो जाएँ, न तो हमारी संवेदनशीलता का विकास होता है न भावनात्मक रूप से परिपक्वता आती है . बल्कि हम और ज्यादा व्याकुल, त्रस्त और भ्रमित होते जा रहे हैं . इसकी एक वज़ह
यह हो सकती है कि हमें जिन लोगों से शिक्षा प्राप्त हो रही है, वे भले ही किसी हद तक बुद्धिमान भी हों, उन्हें केवल 'जानकारी-आधारित' शिक्षा ही प्राप्त होती रही है . 'सूचना' / information को 'ज्ञान' समझ लेना ही आज शिक्षा का एकमात्र अर्थ रह गया है . यद्यपि सभी शिक्षक ऐसे ही होते हैं, यह सोचना भी अनुचित होगा .
'invent' का मतलब होता है, - निर्मित करना, बनाना . 'discovery' का मतलब होता है, - 'आविष्कार करना'.
जिसका आविष्कार किया जाता है वह पहले से ही होता है, बस उसे अप्रकट से प्रकट रूप में लाया जाता है . संक्षेप में, यंत्र का निर्माण / योजना की जाती है, अस्तित्व के मूलभुत नियमों का आविष्कार किया जाता है, हालाँकि प्रचलित अर्थ में, और व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी 'आविष्कार' शब्द का प्रयोग 'निर्माण' (devise) के अर्थ में भी किया जाता है, जो शायद गलत भी न होता हो.
इसलिए यन्त्र के निर्माण के लिए तर्क शक्ति ज़रूरी होती है, जबकि विज्ञान या अस्तित्व / प्रकृति के नियमों को उद्घाटित करने के लिए प्रज्ञा और उससे भी पहले अवलोकन ज़रूरी होता है . इसलिए तर्क अवलोकन का विकल्प नहीं होता . अवलोकन को प्रज्ञा के माध्यम से अभिव्यक्त करने के बाद ही तर्क का प्रयोग संभव और उपयोगी होता है . इसलिए तर्क स्वयं भी एक तरीका (tool) है, जिसके प्रयोग के लिए प्रज्ञा ज़रूरी होती है . 'सूचना' को ज्ञान समझ लिए जाने पर तर्क का इस्तेमाल करने में त्रुटि होने की संभावना बढ़ जाती है और फिर अपने 'ज्ञान' को सही / सत्य समझे जाने का भ्रम और उसे दूसरों पर थोपने का आग्रह और प्रयास .
इसलिए अवलोकन और तदनुसार विवेचन ही तर्क का उपयुक्त और त्रुटिरहित आधार हो सकता है .
विवेचन अर्थात् 'तथ्य' का विवेकयुक्त चिंतन और 'तथ्य' के बारे में हमारे 'अनुमानों' की सत्यता की परीक्षा .
'तथ्य' क्या है? यहाँ हम देखते हैं कि तथ्यों की प्रतीति से उनके विषय में जो 'निष्कर्ष' प्राप्त किए जाते है, उन्हें अनुभव और प्रयोग की कसौटी पर कसकर ही 'सत्य' स्वीकार किया जाता है . इस पूरी प्रक्रिया में तर्क का अपना योगदान होता है . किन्तु 'तथ्य' के त्रुटिरहित अवलोकन के लिए तर्क क्या एक विक्षेप (distraction) और बाधा (hurdle) ही नहीं होता?
तर्क अर्थात् विकल्प और विचार, अवलोकन अर्थात् प्रत्यक्ष देखना, इन्द्रिय-ज्ञान, प्रत्यक्ष इन्द्रिय-ज्ञान में 'विचार' या स्मृति क्या एक विक्षेप और बाधा ही नहीं होती?
अवलोकन के साथ होनेवाले इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त प्रतीतियों में दिखलाई देती विसंगतियों को दूर कर उनमें विद्यमान सुसंगाति (harmony) / एकरूपता (uniformity) खोज लेना ही तो विज्ञान का आधार है .
अवलोकन के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती , जबकि उपयुक्त तर्क के लिए अवलोकन पूर्व-आवश्यकता है.
तथ्य क्या है?
जब इस प्रकार से अवलोकन द्वारा प्राप्त 'वैचारिक' निष्कर्षों को अनुभव की कसौटी पर बार बार जाँचा और सत्य पाया जाता है, तो 'निश्चयात्मक' तथ्य प्राप्त होता है . भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में इसे अधिक स्पष्टता से और सरलता से देखा और समझा / समझाया जा सकता है .
तथ्य क्या है?
'तथ्य' भी एक परिवर्तनशील वस्तु (phenomenon) ही तो है ! कुछ तथ्य पुनरावृत्ति-परक होते हैं कुछ तथ्य कभी एक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, कभी 'होते' हैं, कभी किसी अन्य समय 'नहीं होते' .
जैसे सूर्योदय या सूर्यास्त, आकाशीय पिंडों की गतिविधियाँ, हमारी 'भावनाएं', 'विचार', 'स्मृति' 'विश्वास', 'भय', 'आवेग', भूख-प्यास, निद्रा और जागृति . क्या ये सभी भिन्न भिन्न स्तरों पर भिन्न भिन्न प्रकार के 'तथ्य' नहीं हैं? विज्ञान के नियमों की तरह सुपरिभाषित भले ही न हों, किन्तु उनके अस्तित्व से कोई कैसे इनकार कर सकता है?
'स्थान' और 'काल', 'द्रव्य' और 'ऊर्जा', और इस सब का अवलोकन करनेवाली 'चेतनता', क्या ये सब तथ्य नहीं हैं? और क्या प्रथम चार, अंतिम (चेतनता) पर ही आश्रित और अवलंबित नहीं हैं. बहुत से 'वैज्ञानिक' बुद्धिवाले भी यह दलील देते हैं कि 'चेतनता' पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, अगर ऐसा ही है, तो इस परस्पर व्यवहार के प्रमाण का क्या आधार होगा? और अगर वैसा प्रमाण नहीं है तो यह विचार, कि चेतनता पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, एक अप्रमाणित अनुमान ही तो हुआ .
स्थान और काल (दिक्काल) द्रव्य और ऊर्जा, ऐसे 'तथ्य' हैं, जिनके अध्ययन से उनकी आधारभूत, उनमें निहित, उनके रूप में व्यक्त, उन्हें संचालित करनेवाली एकमेव 'प्रज्ञा' के दर्शन अनायास हो जाते हैं, क्या यह 'दर्शन' तर्क पर आधारित सत्य है? या यह तर्क 'दर्शन' से उत्पन्न समझ है ?
यद्यपि उस 'प्रज्ञा' के स्वरूप के बारे में कुछ कहना कठिन है, किन्तु उसका अस्तित्व निर्विवाद और असंदिग्ध , अकाट्य सत्य है, यह तो मानना ही होगा .
'तथ्य' परिवर्तनशील होते हैं, जबकि 'सत्य' निरंतर, सतत, अव्याहत, अजेय, अपरिवर्तनशील.
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क्या सत्य का संश्लेषण / विश्लेषण किया जा सकता है? स्पष्ट है कि सत्य न तो 'नया' हो सकता है, और न ही 'पुराना', वह तो सदा और सनातन है. जबकि 'तथ्य' नया या पुराना, या पुनरावृत्तिपरक हो सकता है, -और'असत्य' ? असत्य का अर्थ है ऐसी धारणा / विश्वास विचार / मान्यता जिसके सत्य या तथ्य होने की परीक्षा / जाँच नहीं की गई है. जब ऐसी जाँच की जाती है, तो यह मान्यता 'विचारमात्र' न रहकर या तो दूर हो जाती है, या तथ्य या सत्य के रूप में स्पष्ट हो जाती है . उदाहरण के लिए ईश्वर की धारणा या विचार. क्या ईश्वर को उसके बारे में हमारी कल्पना या विचार के अलावा किसी अन्य रूप में पाया जाता है? किसी ऐसे अनुभव-गम्य या बुद्धिगम्ये रूप में, जिसका आदान-प्रदान हो सके? सवाल यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं है, सवाल यह है कि ईश्वर क्या है?
(यहाँ यह उल्लेख रोचक होगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति की एक पुस्तक 'On God' के हिंदी में प्रकाशित अनुवाद का शीर्षक अक्षरशः यही है - ईश्वर क्या है?)
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"The number-system was invented'"
मेरी छत पर खुलनेवाले दरवाजे पर एक बच्चे ने चॉक से सुन्दर अक्षरों में लिखा है .
मैं सोचने लगा कि 'invented' को काट कर 'discovered' लिख दूँ .
मुझे अक्सर अनुभव होता है कि हमें जो शिक्षा दी जा रही है उससे हमारा अज्ञान और जटिल, तथा घना होता जा रहा है . हम भले ही 'शिक्षित' हो जाएँ, न तो हमारी संवेदनशीलता का विकास होता है न भावनात्मक रूप से परिपक्वता आती है . बल्कि हम और ज्यादा व्याकुल, त्रस्त और भ्रमित होते जा रहे हैं . इसकी एक वज़ह
यह हो सकती है कि हमें जिन लोगों से शिक्षा प्राप्त हो रही है, वे भले ही किसी हद तक बुद्धिमान भी हों, उन्हें केवल 'जानकारी-आधारित' शिक्षा ही प्राप्त होती रही है . 'सूचना' / information को 'ज्ञान' समझ लेना ही आज शिक्षा का एकमात्र अर्थ रह गया है . यद्यपि सभी शिक्षक ऐसे ही होते हैं, यह सोचना भी अनुचित होगा .
'invent' का मतलब होता है, - निर्मित करना, बनाना . 'discovery' का मतलब होता है, - 'आविष्कार करना'.
जिसका आविष्कार किया जाता है वह पहले से ही होता है, बस उसे अप्रकट से प्रकट रूप में लाया जाता है . संक्षेप में, यंत्र का निर्माण / योजना की जाती है, अस्तित्व के मूलभुत नियमों का आविष्कार किया जाता है, हालाँकि प्रचलित अर्थ में, और व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी 'आविष्कार' शब्द का प्रयोग 'निर्माण' (devise) के अर्थ में भी किया जाता है, जो शायद गलत भी न होता हो.
इसलिए यन्त्र के निर्माण के लिए तर्क शक्ति ज़रूरी होती है, जबकि विज्ञान या अस्तित्व / प्रकृति के नियमों को उद्घाटित करने के लिए प्रज्ञा और उससे भी पहले अवलोकन ज़रूरी होता है . इसलिए तर्क अवलोकन का विकल्प नहीं होता . अवलोकन को प्रज्ञा के माध्यम से अभिव्यक्त करने के बाद ही तर्क का प्रयोग संभव और उपयोगी होता है . इसलिए तर्क स्वयं भी एक तरीका (tool) है, जिसके प्रयोग के लिए प्रज्ञा ज़रूरी होती है . 'सूचना' को ज्ञान समझ लिए जाने पर तर्क का इस्तेमाल करने में त्रुटि होने की संभावना बढ़ जाती है और फिर अपने 'ज्ञान' को सही / सत्य समझे जाने का भ्रम और उसे दूसरों पर थोपने का आग्रह और प्रयास .
इसलिए अवलोकन और तदनुसार विवेचन ही तर्क का उपयुक्त और त्रुटिरहित आधार हो सकता है .
विवेचन अर्थात् 'तथ्य' का विवेकयुक्त चिंतन और 'तथ्य' के बारे में हमारे 'अनुमानों' की सत्यता की परीक्षा .
'तथ्य' क्या है? यहाँ हम देखते हैं कि तथ्यों की प्रतीति से उनके विषय में जो 'निष्कर्ष' प्राप्त किए जाते है, उन्हें अनुभव और प्रयोग की कसौटी पर कसकर ही 'सत्य' स्वीकार किया जाता है . इस पूरी प्रक्रिया में तर्क का अपना योगदान होता है . किन्तु 'तथ्य' के त्रुटिरहित अवलोकन के लिए तर्क क्या एक विक्षेप (distraction) और बाधा (hurdle) ही नहीं होता?
तर्क अर्थात् विकल्प और विचार, अवलोकन अर्थात् प्रत्यक्ष देखना, इन्द्रिय-ज्ञान, प्रत्यक्ष इन्द्रिय-ज्ञान में 'विचार' या स्मृति क्या एक विक्षेप और बाधा ही नहीं होती?
अवलोकन के साथ होनेवाले इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त प्रतीतियों में दिखलाई देती विसंगतियों को दूर कर उनमें विद्यमान सुसंगाति (harmony) / एकरूपता (uniformity) खोज लेना ही तो विज्ञान का आधार है .
अवलोकन के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती , जबकि उपयुक्त तर्क के लिए अवलोकन पूर्व-आवश्यकता है.
तथ्य क्या है?
जब इस प्रकार से अवलोकन द्वारा प्राप्त 'वैचारिक' निष्कर्षों को अनुभव की कसौटी पर बार बार जाँचा और सत्य पाया जाता है, तो 'निश्चयात्मक' तथ्य प्राप्त होता है . भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में इसे अधिक स्पष्टता से और सरलता से देखा और समझा / समझाया जा सकता है .
तथ्य क्या है?
'तथ्य' भी एक परिवर्तनशील वस्तु (phenomenon) ही तो है ! कुछ तथ्य पुनरावृत्ति-परक होते हैं कुछ तथ्य कभी एक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, कभी 'होते' हैं, कभी किसी अन्य समय 'नहीं होते' .
जैसे सूर्योदय या सूर्यास्त, आकाशीय पिंडों की गतिविधियाँ, हमारी 'भावनाएं', 'विचार', 'स्मृति' 'विश्वास', 'भय', 'आवेग', भूख-प्यास, निद्रा और जागृति . क्या ये सभी भिन्न भिन्न स्तरों पर भिन्न भिन्न प्रकार के 'तथ्य' नहीं हैं? विज्ञान के नियमों की तरह सुपरिभाषित भले ही न हों, किन्तु उनके अस्तित्व से कोई कैसे इनकार कर सकता है?
'स्थान' और 'काल', 'द्रव्य' और 'ऊर्जा', और इस सब का अवलोकन करनेवाली 'चेतनता', क्या ये सब तथ्य नहीं हैं? और क्या प्रथम चार, अंतिम (चेतनता) पर ही आश्रित और अवलंबित नहीं हैं. बहुत से 'वैज्ञानिक' बुद्धिवाले भी यह दलील देते हैं कि 'चेतनता' पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, अगर ऐसा ही है, तो इस परस्पर व्यवहार के प्रमाण का क्या आधार होगा? और अगर वैसा प्रमाण नहीं है तो यह विचार, कि चेतनता पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, एक अप्रमाणित अनुमान ही तो हुआ .
स्थान और काल (दिक्काल) द्रव्य और ऊर्जा, ऐसे 'तथ्य' हैं, जिनके अध्ययन से उनकी आधारभूत, उनमें निहित, उनके रूप में व्यक्त, उन्हें संचालित करनेवाली एकमेव 'प्रज्ञा' के दर्शन अनायास हो जाते हैं, क्या यह 'दर्शन' तर्क पर आधारित सत्य है? या यह तर्क 'दर्शन' से उत्पन्न समझ है ?
यद्यपि उस 'प्रज्ञा' के स्वरूप के बारे में कुछ कहना कठिन है, किन्तु उसका अस्तित्व निर्विवाद और असंदिग्ध , अकाट्य सत्य है, यह तो मानना ही होगा .
'तथ्य' परिवर्तनशील होते हैं, जबकि 'सत्य' निरंतर, सतत, अव्याहत, अजेय, अपरिवर्तनशील.
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क्या सत्य का संश्लेषण / विश्लेषण किया जा सकता है? स्पष्ट है कि सत्य न तो 'नया' हो सकता है, और न ही 'पुराना', वह तो सदा और सनातन है. जबकि 'तथ्य' नया या पुराना, या पुनरावृत्तिपरक हो सकता है, -और'असत्य' ? असत्य का अर्थ है ऐसी धारणा / विश्वास विचार / मान्यता जिसके सत्य या तथ्य होने की परीक्षा / जाँच नहीं की गई है. जब ऐसी जाँच की जाती है, तो यह मान्यता 'विचारमात्र' न रहकर या तो दूर हो जाती है, या तथ्य या सत्य के रूप में स्पष्ट हो जाती है . उदाहरण के लिए ईश्वर की धारणा या विचार. क्या ईश्वर को उसके बारे में हमारी कल्पना या विचार के अलावा किसी अन्य रूप में पाया जाता है? किसी ऐसे अनुभव-गम्य या बुद्धिगम्ये रूप में, जिसका आदान-प्रदान हो सके? सवाल यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं है, सवाल यह है कि ईश्वर क्या है?
(यहाँ यह उल्लेख रोचक होगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति की एक पुस्तक 'On God' के हिंदी में प्रकाशित अनुवाद का शीर्षक अक्षरशः यही है - ईश्वर क्या है?)
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February 17, 2015
आज की संस्कृत रचना
आज की संस्कृत रचना
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गौमेधम् यज्ञम् मुनयः
राजर्षयः अश्वमेधम् |
मेधितया मेधितव्यान्
यज्ञान् ब्राह्मणैः सर्वैः ||
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अर्थ :
कुछ मननशील मनुष्य गौ के यथार्थ तत्व / स्वरूप पर अर्थात् 'ब्राह्मणे गवि हस्तिनी' (भगवद्गीता अध्याय 5, shloka 18 के अनुसार) ब्रह्मभावना से ब्रह्म-चिंतन और मनन करते हैं जो गौमेध-यज्ञ के समान है, कुछ राजर्षि अश्व के यथार्थ तत्व / स्वरूप पर (ऐतरेय-उपनिषद् / अध्याय 1, खण्ड 2, मंत्र 2 के अनुसार)
(ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति)
इस प्रकार से सभी ब्रह्मजिज्ञासु तथा ब्रह्मवेत्ता निरंतर यज्ञ में संलग्न रहते हैं .
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अन्याः मिश्रितकर्मिणः
अशुचयः मलिनमतयः |
नरमेध मनु युञ्ज्यन्ते
नरकाय वै ते नराः ||
--
अर्थ :
(वहीँ दूसरी ओर) अन्य कुछ मलिन और अशुद्ध्बुद्धि वाले मनुष्य मनुष्यों की ह्त्या (को धर्म समझकर) मनुष्यों पर हिंसा में संलग्न रहते हुए नरकों के भागी होते हैं .
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गौमेधम् यज्ञम् मुनयः
राजर्षयः अश्वमेधम् |
मेधितया मेधितव्यान्
यज्ञान् ब्राह्मणैः सर्वैः ||
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अर्थ :
कुछ मननशील मनुष्य गौ के यथार्थ तत्व / स्वरूप पर अर्थात् 'ब्राह्मणे गवि हस्तिनी' (भगवद्गीता अध्याय 5, shloka 18 के अनुसार) ब्रह्मभावना से ब्रह्म-चिंतन और मनन करते हैं जो गौमेध-यज्ञ के समान है, कुछ राजर्षि अश्व के यथार्थ तत्व / स्वरूप पर (ऐतरेय-उपनिषद् / अध्याय 1, खण्ड 2, मंत्र 2 के अनुसार)
(ताभ्यो गामानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति ताभ्योऽश्वमानयत्ता अब्रुवन्न वै नोऽयमलमिति)
इस प्रकार से सभी ब्रह्मजिज्ञासु तथा ब्रह्मवेत्ता निरंतर यज्ञ में संलग्न रहते हैं .
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अन्याः मिश्रितकर्मिणः
अशुचयः मलिनमतयः |
नरमेध मनु युञ्ज्यन्ते
नरकाय वै ते नराः ||
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अर्थ :
(वहीँ दूसरी ओर) अन्य कुछ मलिन और अशुद्ध्बुद्धि वाले मनुष्य मनुष्यों की ह्त्या (को धर्म समझकर) मनुष्यों पर हिंसा में संलग्न रहते हुए नरकों के भागी होते हैं .
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January 21, 2015
कल्पित कथा
कल्पित कथा
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"एक बारमाता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा :
"सुना है आपकी महिमा अनंत है, उसके बारे में कुछ ज्ञान देने की कृपा मुझ पर भी हो! "
माता पार्वती के इस निवेदन पर भगवान शिव अपने स्वरूप पर चिंतन करते हुए समाधि में डूब गए .
उधर माता पार्वती भी एकाग्रचित्त हो आंखें मूंदकर भगवान शिव की वाणी सुनने के लिए प्रतीक्षा करती रहीं . ऐसे ही न जाने कितना काल व्यतीत हो गया, ...
त्रेतायुग में एक बार माता सीता ने भी यही प्रश्न भगवान राम से किया, भगवान राम माता सीता के साथ वन वन भटकते हुए अंत में वहाँ जा पहुँचे जहाँ भगवान शिव और पार्वती प्रगाढ़ समाधि में लीन थे . भगवान राम तथा माता सीता के वहाँ पहुँचतेेे ही माता पार्वती तथा भगवान शिव की समाधि भंग हुई, और वे चारों अदृश्य हो गए...
हे मुनि! तब उस स्थान पर एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ,..."
" वह स्थान कहाँ है प्रभु?"
मनुष्य का हृदय ही तो वह स्थान है वत्स!"
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©
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"एक बारमाता पार्वती ने भगवान शिव से पूछा :
"सुना है आपकी महिमा अनंत है, उसके बारे में कुछ ज्ञान देने की कृपा मुझ पर भी हो! "
माता पार्वती के इस निवेदन पर भगवान शिव अपने स्वरूप पर चिंतन करते हुए समाधि में डूब गए .
उधर माता पार्वती भी एकाग्रचित्त हो आंखें मूंदकर भगवान शिव की वाणी सुनने के लिए प्रतीक्षा करती रहीं . ऐसे ही न जाने कितना काल व्यतीत हो गया, ...
त्रेतायुग में एक बार माता सीता ने भी यही प्रश्न भगवान राम से किया, भगवान राम माता सीता के साथ वन वन भटकते हुए अंत में वहाँ जा पहुँचे जहाँ भगवान शिव और पार्वती प्रगाढ़ समाधि में लीन थे . भगवान राम तथा माता सीता के वहाँ पहुँचतेेे ही माता पार्वती तथा भगवान शिव की समाधि भंग हुई, और वे चारों अदृश्य हो गए...
हे मुनि! तब उस स्थान पर एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ,..."
" वह स्थान कहाँ है प्रभु?"
मनुष्य का हृदय ही तो वह स्थान है वत्स!"
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January 19, 2015
January 05, 2015
January 02, 2015
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