November 27, 2015

नागलोक -2

नागलोक -2 
(कल्पित)
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उस विशाल वट-वृक्ष के नीचे,
मनोराज्य की भूमि के,
सहस्रों योजन के विस्तार में,
उनका लोक, था अवस्थित ।
जनमेजय को देखते ही,
उसकी आहट पाकर ही,
वे कंपित-गात्र हो जाते,
और पूरी त्वरा से वहँ से भाग निकलते ।
जनमेजय की शक्ति के वृत्त में,
भूल से भी आ जाने पर,
उनकी सारी शक्ति छीन ली जाती थी ।
और वे बरबस,
उस अग्नि-कुण्ड की ओर खिंचते चले जाते,
जहाँ जनमेजय का नाग-यज्ञ हो रहा था,
अहर्निश ।
विनता का पुत्र, वैनतेय ही,
कालान्तर में हुआ था जनमेजय ।
जनम् एजयसि त्वं,
माता विनता ने उससे कहा ।
अतस्त्वं जनमेजयो!
हर जीव तुम्हें देखकर भय से काँपता है,
इसलिए तुम्हारा नाम हुआ,
जनमेजय!
वह नित्य जागृत रहता ।
उसे नागों से कोई द्वेष या वैर नहीं था ।
वे तो उसके यज्ञ की समिधा भर थे ।
वह नित्य जागृत रहता ।
उसकी गति सर्वत्र, सूक्ष्म से सूक्ष्म,
और दूर से भी दूर तक थी ।
विष्णु उस पर आरूढ़ होते,
इसीलिए आज्ञा का संकेत पाते ही,
वह तत्क्षण उन्हें उनके गंतव्य तक ले जाता ।
वह भौतिक-शास्त्र की वह ’संभावना’ था,
जिस पर आरूढ़,
परमाणु के सूक्ष्मतम कण में प्रविष्ट विष्णु,
किसी दिशा में अन्तर्धान होते हुए दिखलाई देते हुए भी,
अगले ही पल, किसी सर्वथा अनपेक्षित,
किसी बिलकुल अप्रत्याशित दिशा में,
पुनः आविर्भूत हो उठते,
जिसका अनुमान वैज्ञानिक नहीं लगा सकता था ।
जब विष्णु विश्राम करते,
तो वैनतेय भी खड़े-खड़े,
जागृत-निद्रा में विश्राम पाता ।
जब जनमेजय के रूप में वैनतेय का जन्म हुआ,
तो एकमात्र लक्ष्य था उग्र तप ।
और इसलिए निराहार रहते हुए,
वह ज्ञानाग्नि में विचार की आहुति देता ।
ये विचार वही थे जो अपनी स्थूल-देह में नाग थे,
जो अपनी सूक्ष्म, प्राण-देह में विचार,
जो अपनी कारण-देह में भावनाएँ थे ।
जनमेजय ने नाग-यज्ञ आरंभ किया,
और वे आने लगे,
झुण्ड के झुण्ड,
बन रहे थे समिधा ।
हाँ कुछ इने-गिने विशालकाय नागराज ही,
बचे रह गए थे उस भूमि पर ।
वे दौड़कर गए श्रीहरि की शरण में ।
श्रीहरि ने अभयदान दिया,
जब मैं विश्राम करता हूँ,
तो वह भी विश्राम करता है ।
इसलिए तुम मुझे शैया दो !
तब नागराज शेष ने प्रसन्नतापूर्वक,
अर्पित की श्रीहरि को,
अपनी सेवाएँ,
और सुखपूर्वक जीने लगे फिर से,
नागलोक के निवासी ।
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