February 20, 2015

~~ जे.कृष्णमूर्ति ~~ (-1.)

~~ जे.कृष्णमूर्ति ~~(-1.)
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"The number-system was invented'"
मेरी छत पर खुलनेवाले दरवाजे पर एक बच्चे ने  चॉक से सुन्दर अक्षरों में लिखा है .
मैं सोचने लगा  कि 'invented' को काट कर  'discovered' लिख दूँ .
मुझे अक्सर अनुभव  होता है कि  हमें जो शिक्षा दी जा रही  है उससे हमारा अज्ञान और जटिल, तथा घना होता  जा रहा है . हम  भले ही 'शिक्षित' हो  जाएँ, न तो हमारी संवेदनशीलता का विकास  होता है न भावनात्मक रूप से परिपक्वता आती  है . बल्कि हम  और ज्यादा व्याकुल, त्रस्त  और भ्रमित  होते जा रहे हैं . इसकी एक वज़ह
यह हो सकती  है  कि हमें जिन लोगों से शिक्षा प्राप्त हो रही है, वे भले ही किसी हद तक बुद्धिमान भी हों, उन्हें केवल 'जानकारी-आधारित' शिक्षा ही प्राप्त होती रही  है . 'सूचना' / information को 'ज्ञान' समझ लेना ही आज शिक्षा का एकमात्र अर्थ रह गया है . यद्यपि सभी शिक्षक ऐसे ही होते हैं, यह सोचना भी अनुचित होगा .
'invent' का मतलब होता है, - निर्मित करना, बनाना . 'discovery' का मतलब होता है, - 'आविष्कार करना'.
जिसका आविष्कार किया जाता है वह पहले से ही होता है, बस उसे अप्रकट से प्रकट रूप में लाया जाता है . संक्षेप में, यंत्र का निर्माण / योजना की जाती है, अस्तित्व के मूलभुत नियमों का आविष्कार किया जाता है, हालाँकि प्रचलित अर्थ में, और व्युत्पत्ति की दृष्टि से भी  'आविष्कार' शब्द का प्रयोग  'निर्माण' (devise) के अर्थ में भी किया जाता है, जो शायद गलत भी न होता हो.
इसलिए यन्त्र के निर्माण के लिए तर्क शक्ति ज़रूरी होती है, जबकि विज्ञान या अस्तित्व / प्रकृति के नियमों को उद्घाटित करने के लिए प्रज्ञा और उससे भी पहले अवलोकन ज़रूरी होता है . इसलिए तर्क अवलोकन का विकल्प नहीं होता . अवलोकन को प्रज्ञा के माध्यम से अभिव्यक्त करने के बाद ही तर्क का प्रयोग संभव और उपयोगी होता है . इसलिए तर्क स्वयं भी एक तरीका (tool) है, जिसके प्रयोग के लिए प्रज्ञा ज़रूरी होती है . 'सूचना' को ज्ञान समझ लिए जाने पर  तर्क का इस्तेमाल करने में त्रुटि होने की संभावना बढ़ जाती  है और फिर अपने 'ज्ञान' को सही / सत्य समझे जाने का भ्रम और उसे दूसरों पर थोपने का आग्रह और प्रयास .
इसलिए अवलोकन और तदनुसार विवेचन ही तर्क का उपयुक्त और त्रुटिरहित आधार हो सकता है .
विवेचन अर्थात् 'तथ्य' का विवेकयुक्त चिंतन और 'तथ्य' के बारे में हमारे 'अनुमानों' की सत्यता की परीक्षा .
'तथ्य' क्या है? यहाँ हम देखते हैं कि तथ्यों की प्रतीति से उनके विषय में जो 'निष्कर्ष' प्राप्त किए जाते है, उन्हें अनुभव और प्रयोग की कसौटी पर कसकर ही 'सत्य' स्वीकार किया जाता है . इस पूरी प्रक्रिया में तर्क का अपना योगदान होता है . किन्तु 'तथ्य' के त्रुटिरहित अवलोकन के लिए तर्क क्या एक विक्षेप (distraction) और बाधा (hurdle) ही  नहीं होता?
तर्क अर्थात् विकल्प और विचार, अवलोकन अर्थात् प्रत्यक्ष देखना, इन्द्रिय-ज्ञान, प्रत्यक्ष इन्द्रिय-ज्ञान में 'विचार' या स्मृति क्या एक विक्षेप और बाधा ही नहीं होती?
अवलोकन के साथ होनेवाले इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त प्रतीतियों में दिखलाई देती विसंगतियों को दूर कर उनमें विद्यमान सुसंगाति (harmony) / एकरूपता (uniformity) खोज लेना ही तो विज्ञान का आधार है .
अवलोकन के लिए तर्क की आवश्यकता नहीं होती , जबकि उपयुक्त तर्क के लिए अवलोकन पूर्व-आवश्यकता है.
तथ्य क्या है?
जब इस प्रकार से अवलोकन द्वारा प्राप्त 'वैचारिक' निष्कर्षों को अनुभव की कसौटी पर बार बार जाँचा और सत्य पाया जाता है, तो 'निश्चयात्मक' तथ्य प्राप्त होता है . भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में इसे अधिक स्पष्टता से और  सरलता से देखा और समझा / समझाया जा सकता है .
तथ्य क्या है?
'तथ्य' भी एक परिवर्तनशील वस्तु (phenomenon) ही तो है ! कुछ तथ्य पुनरावृत्ति-परक होते हैं कुछ तथ्य कभी एक रूप में ग्रहण किए जाते हैं, कभी 'होते' हैं,  कभी किसी अन्य समय 'नहीं होते' .
जैसे सूर्योदय या सूर्यास्त, आकाशीय पिंडों की गतिविधियाँ, हमारी 'भावनाएं', 'विचार', 'स्मृति' 'विश्वास', 'भय', 'आवेग', भूख-प्यास, निद्रा और जागृति . क्या  ये सभी भिन्न भिन्न स्तरों पर भिन्न भिन्न प्रकार के 'तथ्य' नहीं हैं?  विज्ञान के नियमों की तरह सुपरिभाषित भले ही न हों, किन्तु उनके अस्तित्व से कोई कैसे इनकार कर सकता है?
'स्थान' और 'काल', 'द्रव्य' और 'ऊर्जा', और  इस सब का अवलोकन करनेवाली 'चेतनता', क्या ये सब तथ्य नहीं हैं? और क्या प्रथम चार, अंतिम (चेतनता) पर ही आश्रित और अवलंबित नहीं हैं. बहुत से 'वैज्ञानिक' बुद्धिवाले भी यह दलील देते हैं कि 'चेतनता' पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, अगर ऐसा ही है, तो इस परस्पर व्यवहार के प्रमाण का क्या आधार होगा? और अगर वैसा प्रमाण नहीं है तो यह विचार, कि चेतनता पदार्थों के (रासायनिक प्रतिक्रियाओं, संयोग) परस्पर व्यवहार का परिणाम है, एक अप्रमाणित अनुमान ही तो हुआ .
स्थान और काल (दिक्काल) द्रव्य और ऊर्जा, ऐसे 'तथ्य' हैं, जिनके अध्ययन से उनकी आधारभूत, उनमें निहित, उनके रूप में व्यक्त, उन्हें संचालित करनेवाली एकमेव 'प्रज्ञा' के दर्शन अनायास हो जाते  हैं, क्या यह 'दर्शन' तर्क पर आधारित सत्य है? या यह तर्क 'दर्शन'  से उत्पन्न समझ है ?
यद्यपि उस 'प्रज्ञा' के स्वरूप के बारे में कुछ कहना कठिन है, किन्तु उसका अस्तित्व  निर्विवाद और असंदिग्ध , अकाट्य सत्य है, यह तो मानना ही होगा .
'तथ्य' परिवर्तनशील होते हैं, जबकि 'सत्य' निरंतर, सतत, अव्याहत, अजेय, अपरिवर्तनशील.
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क्या सत्य का संश्लेषण / विश्लेषण किया जा सकता है? स्पष्ट है कि सत्य न तो 'नया' हो सकता है, और न ही 'पुराना', वह तो सदा और सनातन है. जबकि 'तथ्य' नया या पुराना, या पुनरावृत्तिपरक हो सकता है, -और'असत्य' ? असत्य का अर्थ है ऐसी धारणा / विश्वास विचार / मान्यता जिसके सत्य या तथ्य होने की परीक्षा / जाँच नहीं की गई है. जब ऐसी जाँच की जाती है, तो यह मान्यता 'विचारमात्र' न रहकर या तो दूर हो जाती है, या तथ्य या सत्य के रूप में स्पष्ट हो जाती है . उदाहरण के लिए ईश्वर की धारणा या विचार. क्या ईश्वर को उसके बारे में हमारी कल्पना या विचार के अलावा किसी अन्य रूप में पाया जाता है? किसी ऐसे अनुभव-गम्य या बुद्धिगम्ये रूप में, जिसका आदान-प्रदान हो सके? सवाल यह नहीं है कि ईश्वर है या नहीं है, सवाल यह है कि ईश्वर क्या है?
(यहाँ यह उल्लेख रोचक होगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति की एक पुस्तक 'On God' के हिंदी में प्रकाशित अनुवाद का शीर्षक अक्षरशः यही है - ईश्वर क्या है?)
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