December 26, 2014

हाथी से बड़ी पूँछ !

हाथी से बड़ी पूँछ !
--
कुछ समय पहले एक छोटी सी कविता लिखी थी, :
तुम्हारे लिए,
मैं दुखी हूँ,
लेकिन  निराश नहीं !
अपने लिए,
मैं निराश हूँ,
लेकिन दुखी नहीं !!
--
एक मित्र को 'टेक्स्ट' भेजा  तो उसने  पूछा :
'मतलब? ऐसा क्या हुआ?'

मैंने कहा,
'यह कविता मेरे और मेरी दुनिया के बारे में है |'
'मतलब?'
'जब किसी का कष्ट देखता हूँ, तो मुझे दुःख होता है, लेकिन जानता हूँ कि उसका कष्ट अवश्य दूर होगा, और चूँकि मुझे न किसी चीज़ की कामना है, और न आशा, इसलिए मैं दुखी भी नहीं हूँ और निराश भी हूँ |'
'हाथी से बड़ी पूँछ!'
उसने जवाब दिया |
'मतलब?'
'यही कि तुम्हारी कविता से बड़ी उसकी व्याख्या !'
--
:)
  

December 23, 2014

आज की कविता / कथ्य - अकथ्य और नेपथ्य

आज की कविता / कथ्य - अकथ्य और नेपथ्य
--
प्रेम' को कहा नहीं जा सकता,
लिखा नहीं जा सकता,
किया नहीं जा सकता,
महसूस भी नहीं किया जा सकता,
क्योंकि जिसे महसूस किया जा सकता है,
वह बासी हो जाता है,
जबकि प्रेम कभी बासी नहीं हो सकता,
हाँ प्रेम 'हो' जरूर सकता है,
प्रेम, 'हुआ' भी जा सकता है,
लेकिन इसकी स्मृति नहीं बनती,
यदि बनती भी है,
तो वह आराध्य की प्रतिमा से उतरे फूलों सी,
- 'निर्माल्य' होती है,
जिसे विसर्जित कर दिया जाना ही,
उसका सर्वोत्तम सम्मान है.
--.

December 16, 2014

क्रिसमस - 2014 ...

क्रिसमस - 2014 ...
सांता क्लाज़ और क्रेसेंट
--
चाँद इतना नुकीला क्यूँ है.
देखकर झर गईं पंखुरियाँ,
-सूरजमुखी की,
ताकता है उदास सूरज,
चाँद को,
और देखता है तुम्हेँ,
-चाँद से खेलते हुए,
प्याज़ की परतों में जमा आँसू,
ठिठककर थम गए हैं,
और ओस की बूँदें,
उड़ रही हैं यूँ,
नाज़ुक बुलबुलों सी,
-कि डरता हूँ,
कहीं टकरा न जाएँ,
चाँद की धारदार किनारी से,
वैसे इस डर से भी सहम गया हूँ,
कि कहीं हो न जाए,
तुम्हारी हथेलियाँ,
लहूलुहान!
--

December 07, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ - 3

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ - 3
__________________________

पिनाकपाणिन् असौ।
पिदधाति बाणम् ॥
वितनोति प्रत्यञाम् ।
प्रति चिनोति वर्णान् ।
प्रति अञ्चते वर्णैः।
क्षिपति तान् दिग्-दिगन्तान् ।
अस्यति शास्ता तथा,
पिनाकपाणि कोऽपि ।
अक्षर समाम्नायम् तदिदम् परिव्रजेत् ।
प्रत्याहरेत् हरः
आदिरन्त्येन सहेता ।
अ इ उ ण् ।
ऋ लृ क् ।
ए ओ ङ् ।
ऐ औ च् ।
ह य व र ट् ।
ल ण् ।
ञ म ङ ण म् ।
झ भ ञ् ।
घ ढ ध ष् ।
ज ब ग ड द श् ।
ख फ छ ठ थ च ट त व् ।
क प य् ।
श ष स र् ।
ह ल् ।।
--
समर्पयति शिवो महाकालो,
अक्षर समाम्नायमिदम्
ऋषिभ्यः ॥ 
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ॥
--
॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥
भावार्थ :
--

पिनाकपाणी वह,
बाणों को,
खोलता-छिपाता है, 
खींच ता है,
प्रत्यञ्चा धनुष की ।
वर्णों को चुनता / चिह्नित करता है,
उनकी संयुति करता है,
परस्पर ।
उछाल देता है उन्हें,
दिग्-दिगन्तों में ।
शास्ता इस तरह से,
पिनाकपाणि कोई !
यह अक्षर-समाम्नाय,
प्रसरित होता है,
इस तरह ।
प्रत्याहरण करते हैं हरः,
आदिरन्त्येन सहेता ।
आदि को अन्त्य से युक्त कर,

अ इ उ ण् ।
ऋ लृ क् ।
ए ओ ङ् ।
ऐ औ च् ।
ह य व र ट् ।
ल ण् ।
ञ म ङ ण म् ।
झ भ ञ् ।
घ ढ ध ष् ।
ज ब ग ड द श् ।
ख फ छ ठ थ च ट त व् ।
क प य् ।
श ष स र् ।
ह ल् ।।
--
इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादिसंज्ञार्थानि ॥
--
अणादि संज्ञाओं के तात्पर्य के सूचक,
इन माहेश्वर सूत्रों को,
अर्पित कर देते हैं शिव,
यह अक्षरमणिमाल
ऋषियों को!
-- 
॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥
उज्जैन / 07 /12 /2013 

December 01, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥ -2

॥ अज्ञातपथगामिन्  कोऽपि  ॥ -2
__________________________

स विहरति वने कान्तारे पथान् दुर्गमाञ्च  ।
अपि दूरे अंतरिक्षम् आत्मनि स्वेन स्वया ॥1
सर्वम् हि इह तस्य बहिः तस्य अंतरेव ।
सर्वम् तु अपि तस्य न तस्य अंतरेण ॥2
नादयति स्वरै: ढक्काम् नटराज शिवो ।
प्रसारयति नादम् त्रिलोकेषु अथ अन्तरे ॥3
देवाः ऋषयः गन्धर्वाः मनुजाः यक्षरक्षांसि ।
प्रार्थयन्ति तम् कमप्यज्ञातपथगामिनम्  ॥4
प्रसीदयन्ति तम् दिव्यस्तुवनैः तस्मै तदापि ।
न शक्नुवन्ति द्रष्टुम् तमज्ञातपथगामिनम् ॥5
उद्धर्त्तुकामः सनकादि सिद्धान्
एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।
नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्काम् नवपञ्चवारम् ॥6
कटाक्षेण दृष्ट्वा तान् एकदा सः विहसित्वा ।
ननाद ढक्काम् मुदितो शिवो नवपञ्चवारम् ॥7
इति ।
अक्षर समाम्नाये  अइउण् च प्रथमाः स्युः ।
ऋलृक् द्वितीयास्तथा एओङ् तृतीयाः अपि  ॥8
ऐऔच् चतुर्थाः सन्ति पञ्चमाः हयवरट् तथा ।
लण् च  ञमङणम्  एतानि षष्ठसप्तमाः  ॥9
ततः झभञ् घढधष् इति अष्टमा तथा नवमाः ।
एताः प्रदर्शिताः ताभ्यः ऋषिभ्यः  समाम्नायाः ॥10    
तदनन्तरे जबगडदश्दशमा खफछठथचटतवाः इति ।
कपय् शषसर् हलाः एताः पञ्चाभिः शिवेन ॥11
एतमक्षरसमाम्नायम् श्रुत्वा ऋषिभिः अन्तरे ।
अज्ञातपथगामिनम् नत्वा ससर्जुः संस्कृतामिमाम् ॥12
--
फलश्रुतिः
चतुर्दशसमाम्नाये यो पठेदिदमक्षरम्  ।
चतुर्दशभुवनेषु सः प्राप्नुयात्  शारदाकृपाम् ॥
--         
भावार्थ :
स विहरति वने कान्तारे पथान् दुर्गमाञ्च  ।
अपि दूरे अंतरिक्षम् आत्मनि स्वेन स्वया ॥1
भावार्थ :
वह अज्ञात पथ पर चलनेवाला (भगवान शिव) वनों और बीहड़ों के दुर्गम रास्तों पर भ्रमण करता है । वह सुदूर अंतरिक्ष में भी अपनी ही आत्मा से अपने ही भीतर विचरता है । ॥ 1.
--
सर्वम् हि इह तस्य बहिः तस्य अंतरेव ।
सर्वम् तु अपि तस्य न तस्य अंतरेण ॥2. 
भावार्थ :
यह सम्पूर्ण जगत उससे बाहर और उसके ही भीतर है । सब उसी का उसी से है, उसके बिना कुछ नहीं । ॥ 2.
--
नादयति स्वरै: ढक्काम् नटराज शिवो ।
प्रसारयति नादम् त्रिलोकेषु अथ अन्तरे ॥3.
भावार्थ :
(वे) नटराज शिव अपने डमरू से स्वरों को निनादित करते हैं  । वे स्वर तीनों  लोकों तथा अपने हृदय में गूँजते हैं । ॥ 3.
--
देवाः ऋषयः गन्धर्वाः मनुजाः यक्षरक्षांसि ।
प्रार्थयन्ति तम् कमप्यज्ञातपथगामिनम्  ॥4.
भावार्थ :
देव, ऋषि, गन्धर्व, मनुष्य, यक्ष तथा राक्षस सभी उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव) की प्रार्थना करते हैं । ॥ 4.
--
प्रसीदयन्ति तम् दिव्यस्तुवनैः तस्मै तदापि ।
न शक्नुवन्ति द्रष्टुम् तमज्ञातपथगामिनम् ॥5.
भावार्थ :
यद्यपि अनेक दिव्य स्तोत्रों से उन्हें प्रसन्न करते हैं, तथापि उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव)  को कोई नहीं देख पाता । ॥ 5.
--
उद्धर्त्तुकामः सनकादि सिद्धान्
एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।
नृत्तावसाने नटराजराजो
ननाद ढक्काम् नवपञ्चवारम् ॥6.
भावार्थ :
(ऐसे ही किसी समय) सनक सनन्दन आदि सिद्धू का उद्धार करने हेतु  उस अज्ञातपथगामी (नटराज भगवान शिव) ने उनकी कामना की पूर्ति के लिए नृत्य करते हुए अंत में अपने डमरू को मुदित होकर नौ तथा पाँच, अर्थात चौदह बार बजाया । ॥ 6.
--
कटाक्षेण दृष्ट्वा तान् एकदा सः विहसित्वा ।
ननाद ढक्काम् मुदितो शिवो नवपञ्चवारम् ॥7.
--
भावार्थ :
एक बार स्मितपूर्वक उन्हें कटाक्ष से देखते हुए भगवान शिव ने नौ तथा पाँच संकेतों से उन्हें अक्षर समाम्नाय की दीक्षा प्रदान की।  ॥ 7.   
इति  ।
--
अक्षर समाम्नाये  अइउण् च प्रथमाः स्युः ।
ऋलृक् द्वितीयास्तथा एओङ् तृतीयाः अपि  ॥8.
भावार्थ :
(शिवोक्त इस) अक्षर समाम्नाय में  अइउण् प्रथम हैं । ऋलृक् द्वितीय तथा एओङ् तृतीय हैं  ॥8.
--
ऐऔच् चतुर्थाः सन्ति पञ्चमाः हयवरट् तथा ।
लण् च  ञमङणम्  एतानि षष्ठसप्तमाः  ॥9.
भावार्थ :
ऐऔच् चतुर्थ  तथा हयवरट् पञ्चम । लण् तथा ञमङणम् क्रमशः छठे और सातवें हैं ॥9
--
ततः झभञ् घढधष् इति अष्टमा तथा नवमाः ।
एताः प्रदर्शिताः ताभ्यः ऋषिभ्यः  समाम्नायाः ॥10.
भावार्थ :
इसके बाद झभञ् तथा घढधष् ये क्रमशः आठवें तथा नवें हैं । इस प्रकार से उन भगवान शिव ने उन ऋषियों के लिए इस अक्षरसमाम्नाय प्रदान किया  ॥10.
--
तदनन्तरे जबगडदश्दशमा खफछठथचटतवाः इति ।
कपय् शषसर् हलाः एताः पञ्चाभिः शिवेन ॥11. 
इसके पश्चात जबगडदश् दसवें खफछठथचटतव् ग्यारहवें आदि हैं ।
कपय् शषसर् तथा हल् ये बारहवें तेरहवें तथा चौदहवें हैं, इस प्रकार शेष पाँच का स्वरूप  भगवान शिव ने उन्हें स्पष्ट किया । ॥11.
--
एतमक्षरसमाम्नायम् श्रुत्वा ऋषिभिः अन्तरे ।
अज्ञातपथगामिनम् नत्वा ससर्जुः संस्कृतामिमाम् ॥12.
भावार्थ :

अपने ही अन्तर्हृदय में ऋषियों ने इसे सुना, सुनकर उस अज्ञातपथगामी (भगवान शिव) को प्रणाम किया और संस्कृत भाषा के वैखरी स्वरूप को लोक के लिए उद्घाटित किया।
--
फलश्रुतिः
चतुर्दशसमाम्नाये यो पठेदिदमक्षरम्  ।
चतुर्दशभुवनेषु सः प्राप्नुयात्  शारदाकृपाम् ॥
भावार्थ :
भगवान शिवप्रदत्त इस चौदह सूत्रयुक्त अक्षरसमाम्नाय का जो मनुष्य पाठ करता है, उस पर चौदह भुवनों में माँ शारदा के कृपा रहती है।    
--        

॥ ॐ शिवार्पणमस्तु ॥
   
                

November 28, 2014

॥ उल्लूक दर्शनम् ॥

॥ उल्लूक दर्शनम् ॥
--
कुशयनम् रात्रौ तस्य निवसति अगेहे कुशासु ।
कुशासनस्थो स्वपत्यपि उल्लूको मुनि कौशिको ।।
--
अर्थ :
--
रात्रि में सोना उसके लिए वर्ज्य है। कुशयुक्त उजाड़ स्थान में वह किसी स्थायी घर की चिंता से रहित निवास करता है।  कुशा (घास) आसन पर बैठकर निद्रा (समाधि) सुख पाता है, उल्लूक को इसलिए कौशिक भी कहा जाता है।     
--

आज की कविता / सबब

 आज की कविता / सबब
____________________
*********************
साँस लेना भी ख़ता ही तो है,
जिन्दा रहना भी सज़ा ही तो है,
कौन सा है किसका सबब क्या मालूम,
सोचने मेँ इसका मज़ा भी तो है!
--

November 26, 2014

॥ अज्ञातपथगामिन् कोऽपि ॥


A Hindi Poem by Anuj Agrawal and its Sanskrit rendering by me :
--
समय की डुगडुगी बजाते बढ़ता जाता है
अज्ञात पगडंडियों से गुज़रता
अपने चिन्ह छोड़ जाता है
पर वो नज़र नहीं आता
देखने वालों को बस रास्ता नज़र आता है ।
सारे चिन्ह उसका पीछा करते हैं
वो हमेशा आगे चलता है
पर कहीं नहीं पहुंचता
कहीं नहीं जाता
उस तक पहुँचने वालों का इंतज़ार करता है ।
उसकी छोड़ी गयी मुस्कुराहट संसार है भूल भुलैया
हर कोई उस में खोया रहता है
वो कोई वजह नहीं बताता
गम्भीर मुद्रा में सोया रहता है
वो समझ नहीं आता
उसकी मुस्कान का रहस्य
कोई उस सा मुस्कुराने वाला ही जान पाता है !
अ से
--
॥ अज्ञातपथगामिन्  कोऽपि  ॥
_______________________

डमड्डमड्डमड्डमयन् महाकालो
अग्रे सरति नादयन् काल-ढक्काम्
गच्छति अज्ञातचरणपथैः
स्थापयन् त्यक्त्वा निज पद चिह्नान्।
न दृश्यते अपि अन्यान्
अवलोकयन्ति  ते पथमेव तस्य।
येन अनुगच्छति कोऽपि सः.
चिह्नान् सर्वान् अनुसरन्ति  ते तदपि
सैव गच्छति अग्रे सर्वेषाम्।
न पर्याप्नोति लक्ष्यम् कमपि
न च गच्छति कुत्रापि
अपि ईक्षते-प्रति पथमागन्तुकानाम्
ये प्रपद्यन्ते पथम् तस्य।
तस्य स्मितम् हि  लोको
स्मृतिविस्मृतिविभ्रमो
जनाः विस्मृताः तस्मिन्
न वदति सः किमर्थम्।
स्वपिति गभीरामुद्रया ध्यानस्थ सः
न कोऽपि अभिजानाति
गूढ़ो हि तस्य  मर्मम्।
तदपि कोऽपि विरलो
विहसिते तस्य सदृशः
विजानाति सः अवश्यः
कोऽपि एव तस्य तुल्यः ॥
--        


     

November 20, 2014

आज की कविता / 20/11/2014

आज की कविता :20/11/2014
____________________

पता नहीं कितने युगों से,
द्वार पर तुम प्रतीक्षारत,
द्वार मेरा या तुम्हारा,
तय न कर पाया अभी तक!
सोचता हूँ तुम बुलाओ,
या मुझे होगा बुलाना,
द्वार पर आकर तुम्हारा,
इस तरह से मुस्कुराना,
छोड़कर भ्रम में मुझे,
भ्रमित करती बुद्धि मेरी,
द्वार पर तुम प्रतीक्षारत !
--
©

November 18, 2014

आज की कविता : ख़ता

आज की कविता : ख़ता
__________________

(© विनय वैद्य / 18 / 11 / 2014)
___

पहले आती थी हाले-दिल पे हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।
मौत का दिन है मुअय्यन फिर भी,
नींद क्यों रात भर, .... … …।
--
पहले हर बात पे चौंकता था मैं,
अब किसी बात पर नहीं चौंकता।
पहले हर शख्स पे भौंकता था वो,
मेरा कुत्ता अब किसी पर नहीं भौंकता।
अब किसी से भी नहीं पूछता हूँ वज़ह,
अब किसी को भी मैं नहीं टोकता।
अब न मुज़रिम है कोई और न जुर्म है कुछ भी,
क़ायदा अब किसी को भी कभी नहीं रोकता।
कीजिए खुशी-खुशी से जो भी चाहें करना,
जुर्म करना तो अब है फ़र्ज़, न करना है ख़ता !
और अंत में,
निभाया फ़र्ज़ जो ईमां से मिलेगा ईनाम,
मिलेगी सज़ा भी जो इसमें हुई कोई ख़ता !
--          

November 16, 2014

आज की कविता / संध्या के क्षण

आज की कविता / संध्या के क्षण
________________________

गूँजती हैं घन्टियाँ
मन के कानोँ से सुनूँ,
बज रही हो कहीं जैसे
कृष्ण की व्रजवेणु ।
स्वप्न जैसा मधुर कोई
खुले नयनों से देखूँ,
राधा के चरण छूती
कालिन्दी रजरेणु ।
संध्या की इस वेला में
दिन प्रतिदिन यही लगता,
लौटते जब गौधूलि में
गोपाल गोविन्द धेनु ।।
--©

November 02, 2014

आज की कविता /02 /11 /2014 अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः ॥

आज की कविता /02 /11 /2014 
___________________________
***************************
--©

अद्यरचिता संस्कृता रचना 
अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
__

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
अतिदुर्लभं खलु नरजन्म,
ततो हि विप्रत्वम् द्विजत्वमपि ।
ततो दुःखदर्शनम् जगति
अस्मिनशाश्वति दुःखालये ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

तदपि ईशानुग्रहेण कोऽपि
भवति समर्थोऽस्मिन् ।
विचिन्तयति तत्त्वम् 
स्वरूपमात्मनः जगतश्च ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

केचिदिच्छन्ति रूपम्
केचिदिच्छन्ति शक्तिम् ।
केचिद्धनमपि सुखञ्च
विरलो हि कोऽपि भक्तिम् ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

त्यजति नरो गृहम् 
निजपरिवारम् धनञ्च ।
स्वमित्वमपि जगति 
न  कोऽपि त्यजति व्यक्तिम् ॥ 

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

सत्यम् न त्यज्यमानः 
कुटिलो अहं-सङ्कल्पो ।
न  कोऽपि जानाति कथं वा 
सङ्कल्पमिमम् त्यक्तम्  ॥
अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

परं तु यदा जानाति 
सङ्कल्पदू:ख मूलम् ।
अयि पतत्यहं तूर्तम्
क्षिप्रम् हि भजेदीशम् ॥

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....

अर्पयनात्मनम् स्वाम् 
प्राप्नोति तस्य भक्तिम् ।
विन्दति स्वात्मनिष्ठाम् 
विन्दति श्रीहरिम् सः  

अय्ये अति दुर्लभा भक्तिः, ....
-- 

आज की कविता / 02 /11 /2014 - इरादे

आज की कविता / 02 /11 /2014
________________________

इरादे
--
मिले-जुले इरादे,
कुछ काठ कुछ बुरादे,
जलते हैं रवाँ - रवाँ,
बुझते हैं धुआँ - धुआँ ।
कुछ लोहे से तपकर,
निखरकर पिघलकर,
बना जाते हैं तलवार,
ढूँढते हैं सान,
धार पाने को,
कुछ स्वर्ण या रजत से,
पाते है नया श्रृंगार,
बनने को आभूषण,
ढूँढते हैं शिल्पकार,
मिले-जुले इरादे,
कुछ अटे, कुछ सिमटे,
कुछ परस्पर सटे,
और कुछ बँटे,
बुनते हैं स्वप्न कोई,
जिजीविषा में,
अधूरा सा, बेतरतीब,
चिथड़े चिथड़े, पैबंद लगा।
या रचते हैं,
कोई अनूठा 'कोलॉज',
कोई परिपूर्ण जगत,
उल्लास,संगीत, आनन्द भरा,
ज्योतिर्मय,
मिले जुले इरादे ,
रचते हैं, बनाते हैं,
बदलते हैं, मिटाते हैं,
फिर नया रचते हैं,
फिर बदलते / मिटाते हैं,
चलता रहता है चक्र,
अनवरत !
--©

 
    
  

October 30, 2014

आज की कविता / 30 / 10 / 2014

आज की कविता / 30 / 10 / 2014
_________________________

आत्म-स्वीकृति
--
मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता,
ये फिर भी सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता ।
गो कि ये सच है कि  कोई भी मुझको पा नहीं सकता,
जिस पहचान के परदे में हूँ उसको कोई हटा नहीं सकता ।
वो भी इक ज़माना था जब खो गया था अपने-आप से,
पहचान के परदे में लिपटा था अजनबी के लिबास में ।
और जब परदे हटे परदे फटे आँधियों तूफानों में,
हुआ था पल भर में ही मुझे दीदार अपने-आप का ।
ये सच है अब कभी मैं ख़ुद से हो जुदा नहीं सकता ,
और बस इसलिए भी ख़ुद को फिर से पा नहीं सकता ।
और न दूसरा कोई मुझे या मैं भी किसी भी दूसरे को,
मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता ।
--©
       

October 29, 2014

आज की कविता : आहिस्ता - आहिस्ता

आज की कविता : आहिस्ता - आहिस्ता
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*****************************
सरकती जाए है पाँवों तले से ज़मीं आहिस्ता-आहिस्ता,
क़यामत को नज़र आने लगे हैं हमीं आहिस्ता-आहिस्ता ।
न पत्तों में है, न अब्र में और  न रही है आँखों में भी,
हवा में भी जो थी वो उड़ गई नमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
कुछ अपने बाज़ुओं में थी कभी, कुछ हौसले जो दिल में थे,
वक़्त गुज़रते गुज़रते आ गई उनमें कमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
शरमो-हया के तकल्लुफ़ के लिहाज़ के गिरते ही रहे हैं परदे,
इज़हारे-मुहब्बत की मुरव्वत की रौ थमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
दिल डूबता है, डूब जाए हौले-हौले धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता,
हो रहा है सबसे जुदा अब ख़ुशी हो या ग़मी, आहिस्ता-आहिस्ता ।
--©   

October 26, 2014

आज की कविता : 26 /10/2014 / दुःस्वप्न

आज की कविता : 26 /10/2014
_______________________

दुःस्वप्न
--
डर,
एक दुःस्वप्न सा,
लौट आता है,
ख़याल तो होता है,
कि वह अचानक,
की-बोर्ड की किसी भी ’की’ को दबाते ही,
’ब्लो-अप’ की तरह,
आक्रमण कर देगा,
पर वह इतना सतर्क और धूर्त होता है,
कि किसी सर्वथा अप्रत्याशित क्षण में ही,
झपटकर दबोच लेता है,
किसी चीते की तरह,
जब किसी क्षण के दसवें हिस्से के लिए,
मैं अनायास अन्यमनस्क हो जाता हूँ ।
लेकिन कोई इलाज नहीं है मेरे पास,
अगर मुझे दुःस्वप्न से बचना है,
तो जागृत रहना होगा,
हर पल,
जागते हुए,
स्वप्न में,
या गहरी से गहरी नींद में भी !
-- ©

बस एक ख़याल !... ,

आज की कविता / 25/10/2014
_______________________

बस एक ख़याल !... ,
--
कल भी इस वक़्त,
ठीक यही समय था,
कल फिर होगा,
इस वक़्त,
ठीक यही समय,
हर दिन होता है !
इसमें कौन सी नई बात है?
पर फ़िर भी हैरत की बात तो है ही ! ...
शुभ रात्रि !
--

October 24, 2014

आज की कविता, व्यथा एक दीप की !

आज की कविता,
_______________

व्यथा एक  दीप की !


दर्द पोशीदा है, ठहरा ठहरा है आँखों में,
मोम जैसे पिघलता सा जमा जमा सा हो,
शौक से देखते हैं लोग रौशनी, परवाने से,
पता किसे है दर्द क्या है शमा सा जलने में ।

--©
शुभ रात्रि,
(रात भर जलना है !)
--

October 21, 2014

आज की कविता : कोलकाता !

आज की कविता : कोलकाता
___________________©

जब तक इन्सान बिकाऊ है, ...
--
जब तक,
इन्सान बिकाऊ है,
हर जगह / कहीं न कहीं,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
गोल हो, या चौकोर,
सोने या चाँदी का,
काग़ज़ का, प्लास्टिक का,
या फ़िर हो चमड़े का,
सिक्का चलेगा ।
जब तक हैं घोड़े,
घोड़े से इन्सान,
युद्ध के मैदान में,
या फिर बारात में,
रेसकोर्स या स्ट्रीट पर,
इक्का चलेगा,
दोपहिया, चारपहिया,
रेल हो या जहाज,
घड़ी, कंप्यूटर, या फ़ैक्ट्री,
या कोई कल-कारखाना,
सरकार चलेगी ।
और तभी सरकार का,
दरबार भी चलेगा,
दरबार में सरकार का,
हुक्का चलेगा,
दलालों बिचौलियों का,
क़ारोबार चलेगा,
दुःखियारी जनता का,
घरबार चलेगा,
स्कूटर चलेगा,
टेम्पो चलेगा,
बाईक चलेगी,
मोबाइल चलेगा,
सिक्का चलेगा ।
सिक्का चलेगा,
तो बाज़ार चलेगा !
चक्का चलेगा,
तब तक चलेगा,
जब तक है बिकाऊ,
चाहे फिर चलाए,
उसको इन्सान ही,
चाहे फिर बैठे भी,
उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
हर जगह / कहीं न कहीं,
हर समय, हर वक़्त,
चाहे चलाए उसे इन्सान ही,
चाहे बैठे उस पर इन्सान ही,
रिक्शा चलेगा,
--


October 19, 2014

आज की कविता / संशय


आज की कविता / संशय
__________________©

प्रमाण,
प्रमाणित होने से,
सत्य तो नहीं हो जाते,
प्रमाण,
सत्यापित होने से ,
सत्यार्पित तो नहीं हो जाते,
संशय खड़ा ही रहता है,
अर्जुन की तरह,
गाण्डीव को छोड़कर,
निढाल !
--

October 18, 2014

आज की कविता : क्यूँ?

क्यूँ?
_______________________©

एकता के लिए,
नारायण को समर्पित यह रचना,
--
दिल के तारों को छू गया कोई,
छेड़कर दर्द क्यों गया कोई,
लौटकर यादें ही आया करती हैं,
याद में क्यों उभर आया कोई,
दोस्त हाँ दोस्त हैं सभी अपने,
फिर भी होता है क्यों बिरला कोई,
जिसका मिलना था सिर्फ़ इक सपना,
मिल के वो क्यूँ बिछड़ गया कोई,
--

October 16, 2014

आज की कविता : यह पथ बन्धु था !

आज की कविता :
यह पथ बन्धु था !
_______________

छः साल पहले,
किसी बाध्यता के चलते,
खरीद लिया था,
इस ’पथ’ को,
यह ’पथ’,
जो कितने अगम्य, दुर्गम्य स्थानों से होकर गुजरता है !
तब लेखनी को विश्राम दिया था,
वर्तनी के पग अविश्रांत चलते रहे ।
इस पथ पर मिले कितने पथिक,
कितने घुमन्तू,
कितने भटकते,
तृष्णातुर,
प्यास से दम तोड़ते,
यायावर मृग,
कितने दोनों हाथों से,
द्रविण उलीचते हुए,
कितने शिकार की तलाश में,
जाल बिछाए !
मैं मुस्कुरा देता था,
जानता था कि इसमें
पथ का कोई दोष नहीं है ।
पंथ का शायद होता हो,
अब जब इस पर काफी चल चुका हूँ,
इससे कुछ परिचित हो चुका हूँ,
तो लौट जाने का मन है,
लौटना जरूरी भी है,
उस नगरी,
जहाँ सरस्वती का वास है,
लेखनी चंचल है,
तूलिका व्यग्र है,
और वीणा तरंगित,
हाँ, विदा पथ !
पर आता रहूँगा कभी-कभी पुनः फिर,
तुमसे मिलने भी !
--

October 11, 2014

भाषा का यह प्रश्न (1)

भाषा का यह प्रश्न (1)
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बहुत से लोगों को यह लगना स्वाभाविक है कि संस्कृत को उसका उचित स्थान मिलना चाहिए । किन्तु इसके लिए संस्कृत का प्रचार करना और उसे प्रचलन में, व्यवहार की भाषा के रूप में लाया जाना कहाँ तक संभव और जरूरी है? और यदि वह संभव न हो तो जरूरी होने का तो प्रश्न तक नहीं पैदा होता । यदि आपको संस्कृत से प्रेम है, तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आप अंग्रेज़ी के या उर्दू के शत्रु हैं । दुर्भाग्य से किसी भी भाषा से प्रेम रखनेवाले अपनी प्रिय भाषा के अतिरिक्त दूसरी सभी भाषाओं के साथ जाने-अनजाने शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं । किन्तु उनका ध्यान इस ओर बिरले ही कभी जाता है कि यह एक नकारात्मक और हानिकारक तरीका है, न सिर्फ़ अपनी भाषा के प्रचलन और उन्नति की दृष्टि से बल्कि पूरे समाज के हर वर्ग के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा को अपनी कहता हो ।  सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि कौन सी भाषा सरकारी मान्यता प्राप्त ’राजभाषा’ हो, बल्कि यह भी है, कि उसे ’लादा’ न गया हो । और चूँकि भाषा काफी हद तक भावनात्मक महत्व भी रखती है, व्यावहारिक स्तर पर भी उसकी उतनी ही उपयोगिता
होने के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । भाषा शिक्षा का माध्यम होती है और अन्य अनेक विषयों की भाँति शिक्षा के एक विषय के रूप में भी उसका एक महत्वपूर्ण स्थान तो है ही । इसलिए जहाँ एक ओर भाषा की शिक्षा एक ओर उसके ’माध्यम’ होने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिए, वहीं दूसरी ओर इसे एक विषय के रूप में भी दिया जा सकता है । इसलिए ’भाषा’ की शिक्षा के दो भिन्न भिन्न किन्तु संयुक्त आयाम हैं ।
संस्कृत या किसी भी भाषा के ’प्रचार’ और उसे प्रचलन में लाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ एक कठिनाई यह है कि जब तक लोग उसे अपने लिए जरूरी नहीं समझते तब तक या तो उसकी उपेक्षा करते हैं, या फ़िर उसका विरोध तक करने लगते हैं । और यह विरोध तब और प्रखर हो जाता है जब उस भाषा की ’अपने’ समुदाय की भाषा से किसी प्रकार से भिन्नता या विरोधी होने का भ्रम हम पर हावी हो जाए । उस ’भिन्न’ भाषा से भय  हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा है, और इससे दूसरे भी अनेक भय मिलकर इसे और भी जटिल बना देते हैं ।  दूसरी ओर किसी भी भाषा के उपयोग की बाध्यता या जरूरत महसूस होने पर हम उसे सीखने, प्रयोग करने के लिए खुशी-खुशी, या मन मारकर राजी हो जाते हैं । अंग्रेज़ी ऐसी ही एक भाषा है । अंग्रेज़ी का उपयोग तो सर्वविदित और सर्वस्वीकृत है ही । तब, जो किन्हीं कारणों से अंग्रेज़ी नहीं सीख पाए, उन्हें अफ़सोस होता है, उनमें हीनता की भावना जन्म लेती है, और वे अंग्रेज़ी को कोसने लगते हैं । और अगर उनके बच्चे फ़र्राटे से (सही या गलत भी) अंग्रेज़ी बोल-लिख सकते हैं, तो वे ही लोग, अपने आपको धन्य समझते हैं, गर्व करते हैं । फिर बहुत संभव है कि बच्चे भी अपनी उपलब्धि पर गर्व करने लगें और माता-पिता को हेय दृष्टि से देखने लगें, उन्हें अनपढ़ या गँवार समझने लगें । भले ही मुँह से न कहें, किन्तु उन्हें लोगों से अपने माता-पिता का परिचय कराने में शर्म और झिझक महसूस होने लगे । माता-पिता और बच्चों में दूरियाँ बढ़ने का यह भी एक बड़ा कारण है ।
फिर कोई भाषा क्यों सीखता है? स्पष्ट है कि इसमें बाध्यता, उपयोगिता, भावनात्मक लगाव ये सभी बातें जुड़ी होती हैं । किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि ’मातृभाषा’ ही सीखने के लिए सभी के लिए स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक अनुकूल हो सकती है । और मातृभाषा के बाद हम अपनी जरूरत और रुचि के अनुसार दूसरी भाषाओं में से चुनाव कर सकते हैं ।
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एक उदाहरण :
हिन्दी से मिलती-जुलती किसी बोली में बहुत प्रसिद्ध कहावत है,
’निज-भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, ...’
मैंने इसका संस्कृत अनुवाद कुछ यूँ किया :
’निजभाषोन्नत्यर्हति, सर्वोन्नतिमूलम्’
(निज-भाषा-उन्नति-अर्हति सर्व-उन्नति-मूलम्)
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यद्यपि मैं मानता हूँ कि उपरोक्त अनुवाद में संस्कृत व्याकरण की कोई त्रुटि हो सकती है, जिसे संस्कृत के विद्वान ही इंगित और परिमार्जित कर सकते हैं , किन्तु यहाँ इसे प्रस्तुत करने का एकमात्र ध्येय यह है कि यदि किसी भाषा में आपकी स्वाभाविक रुचि है तो उसे सीखना मजबूरी या उपयोगिता के दबाव में उसे सीखने से अधिक आसान है । अपने इसी भाषा-प्रेम के चलते मैं किसी भी भाषा को समझने का यत्न करता हूँ तो अक़सर अनुभव करता हूँ कि यदि आपने पाणिनी की अष्टाध्यायी का अध्ययन किया है, तो आपको प्रायः हर भाषा में ऐसे संकेत सूत्र दिखलाई दे जाएँगे जहाँ पाणिनी आपको बरबस याद आएँगे । और वह न सिर्फ़ भाषा की बनावट और उसके व्याकरण के कारण, बल्कि उसके शब्दों के स्वनिम (phonetic form) और रूपिम (figurative form) के भी कारण । और तब आपको अनायास स्पष्ट होगा कि भाषा भाषा की शत्रु नहीं बल्कि सखी या भगिनी होती है । यह ठीक है कि हम अपनी भाषा को महत्व दें और उसके विकास के लिए प्रयत्न करें, लेकिन उसे समाज के किसी छोटे या बड़े वर्ग पर लादा जाना न तो समाज के लिए और न अपनी भाषा के लिए ही उचित है । आप चाहें या न चाहें, भाषाएँ सरिताओं की तरह होती हैं, अपने रास्ते बदलती रहती हैं, कई बार तो अपने रास्ते से पूरी तरह दूर होकर दिशा तक बदल लेती है । नदियों की भाँति वे विलुप्त भी हो जाती हैं, और अगर हम आग्रह न करें तो उनका नाम तक बदलता रहता है ।
मैंने सिंहल से लेकर बाँग्ला तक और गुजराती से लेकर उर्दू तक भारत की अधिकाँश भाषाओं को सीखने-समझने का प्रयास किया, और भारतीय के अतिरिक्त तिब्बती, नेपाली, बर्मी तथा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में भी मेरी अत्यन्त रुचि है । स्पष्ट है कि तमिल, तेलुगु तथा मलयालम, मराठी, आदि में भी मेरी दिलचस्पी है । इन सब भाषाओं के मेरे सतही या गंभीर अध्ययन के बाद मैं जिन निष्कर्षों पर पहुँचा वह यह कि ये सभी संस्कृत से घनिष्ठतः जुड़ी हैं । भाषाशास्त्रियों के लिए यह कोई नई बात न होगी । किन्तु यहाँ इसे लिखने का मेरा उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि तमाम भाषाई झगड़े केवल हमारी नासमझी, आधी-अधूरी जानकारी और काल्पनिक भयों के ही कारण हैं । यदि आप भारत की एक से अधिक भाषाएँ सीखते हैं, खासकर एक दक्षिण भारतीय और एक उत्तर भारतीय भाषा तो आपको स्वयं ही महसूस होगा कि भाषाएँ जल में जल की तरह मिल जाती हैं । किन्तु यदि हमारे मन में पहले से ही दूसरी भाषा के प्रति अरुचि या शत्रुता का, भय या हीन होने की भावना भर दी गई हो, तो हम इस सच्छाई से अपरिचित ही रह जाते हैं । यदि आप भाषा के दो रूपों बोली जानेवाली भाषा तथा लिखी जानेवाली भाषा, की बनावट पर ध्यान दें तो आपको स्पष्ट हो जायेगा कि भाशाओं की विविधता हमारी विरासत और समृद्धि ही है और किसी भी भाषा में सृजन दूसरी सभी भाषाओं को भी समृद्ध ही करता है । यह केवल कोरा बौद्धिक व्यायाम न होकर, उपयोगिता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । जैसे दो चित्रकार दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, चित्रों की भाषा समझते हैं, और दो संगीतज्ञ भी इसी प्रकार एक दूसरे की रचनाओं को समझ पाते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं में जिनकी दिलचस्पी है, वे कभी न कभी सभी भाषाओं के मूल उत्स को पहचान ही लेते हैं, और उनके लिए भाषाएँ परस्पर शत्रु नहीं रह जातीं ।
--
इंडोनेशिया के बारे में बहुत नहीं जनता, किन्तु आज (01 नवम्बर 2014) को प्रकाशित 'नईदुनिया - इंदौर' / 'ग्लैमर और कैरियर' में पढ़ा कि इंडोनेशिया की भाषा सीखने की दृष्टि से बहुत सरल है।  इससे मेरी अपनी इस समझ की पुष्टि ही हुई की संपूर्ण भारतीय महाद्वीप और सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक की भाषाएँ संस्कृत से व्युत्पन्न हैं भाषा (बहासा) के ध्वन्यात्मक तथा रूपात्मक / लिप्यातक दोनों रूपों में।
कुछ माह पूर्व मेरा एच. पी।  का कार्ट्रिज ख़त्म हो गया था।  जब नया ख़रीदा तो उस पर लिखा देखा :
triga verna + * / tri-color + black . (triga = त्रिक, verna = वर्ण तो दृष्टव्य ही हैं , * 'काले के लिए ब्लैक का समानार्थी याद नहीं किन्तु वह संस्कृत से निकला है, इसमें संदेह के लिए कोई स्थान नहीं।
--
इसलिए भाषा के बारे में मेरा सोचना यह है कि बच्चों को शुरू में मातृभाषा के ही माध्यम से पढ़ाया जाना चाहिए, और शासकीय कार्य के लिए बहुत धीरे-धीरे समय आने पर स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए, उसके बाद ही राष्ट्रभाषा को स्वीकार्य बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए।  वास्तव में व्यक्तिगत रूप से तो मेरा अनुमान है कि अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा के स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता और न उससे किसी का कोई भला होना है।  मेरा शायद अतिरंजित ख्याल यह भी है, की आज नहीं तो कल अंग्रेजी की पगडंडियाँ ही संस्कृत के आगमन के लिए मार्ग प्रशस्त करेंगी।
--
(निरन्तर - भाषा का यह प्रश्न -2 )
--         
         

October 04, 2014

आज की कविता / माँ शारदे !

माँ शारदे !
_________

ओजस्विनी,
तेजस्विनी,
श्वेतवसना,
गरिमामयी,...
यशस्विनी,
श्रेयस्विनी,
शुभ्ररूपा,
महिमामयी ,...
सरस्वती,
शारदा,
वाग्देवी,
करुणामयी,...
तपःशीला,
चारुवचना,
वरदायिनी,
तपस्विनी !
_/\_


कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 30

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 30
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कीड़ा है, पर सुन्दर है !
सुन्दर है, पर कीड़ा है,
यह क़ुदरत की क्रीड़ा है,
इससे ना उसको कोई,
ना क़ुदरत को पीड़ा है ।
कीड़ा है, पर सुन्दर है !
--
वह मनुष्य की दृष्टि में कीड़ा है, मनुष्य उसकी दृष्टि में क्या है, उससे भी तो पूछो!
कल एक लड़की कह रही थी कि रावण को इतना बुरा क्यों कहा जाता है? उसने साबित कर दिया कि मनुष्य में दृढ संकल्प हो तो वह क्या नहीं कर सकता? मैं मानता हूँ कि यह सच है किन्तु अधूरा सच है, और इसलिए रावण का अन्त बहुत अच्छा तो नहीं हुआ । लेकिन संसार में सौ प्रतिशत बुरा तो वास्तव में कुछ नहीं होता । बुराई में भी एक अच्छाई तो होती ही है कि वह आत्मघाती होती है । अर्थात् स्वयं ही विनष्ट हो जाती है ।
रावण कीड़ा तो शायद नहीं था किन्तु साधारण मनुष्य भी नहीं था । किन्तु उसकी दृढ संकल्प की उस प्रवृत्ति के कारण वह महापुरुष बन गया, वह बहुत कुछ कर सकता था । और उसे बखूबी पता था कि वह नदी के आधे रास्ते को पार कर चुका था और अब उस पार ही जाया जा सकता था, लौटना असंभव था ।
हमारे आज की मानव-सभ्यता का प्रेरक और निर्देशक-सूत्र यही तो हैं, जो रावण के थे ।
यही, कि दृढ इच्छा-शक्ति से दृढ-संकल्प से पक्के इरादे से सफलता के लिए यत्न करो । किन्तु क्या हर सफलता बर्बादी की ओर ही नहीं ले जाती है ? क्योंकि सफल होने के लिए क्रूर, असंवेदनशील होना जरूरी होता है । दूसरी ओर उत्साह सफलता अथवा असफलता की भाषा नहीं समझता । उत्साह स्वयं ही जीवन का उत्स है, किन्तु सफलता या असफलता की छाया छूते ही वह लक्ष्य-केन्द्रित हो जाता है और उसका प्रवाह दिशा-निर्देशित और संकीर्ण हो जाता है । और जरूरी नहीं कि यह लक्ष्य अन्ततः सुखद ही सिद्ध हो । रावण का दृष्टिकोण एकांगी था । दूसरी ओर राम का दृष्टिकोण था प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वहन । यहाँ प्रश्न रावण और राम की तुलना करने का नहीं बल्कि यह देखने का है कि परिस्थितियों के प्रवाह में कैसे वे एक दूसरे के आमने-सामने आए और उससे किसको क्या मिला । हम कह सकते हैं कि ऐतिहासिक रूप से, यहाँ राम और रावण को दो मनुष्यों के रूप में, दो राजाओं की तरह देखा जा रहा है ।
--
राम और रावण दो सँस्कृतियों के प्रतीक पुरुष हैं । और ये संस्कृतियाँ भारतीय या विदेशी नहीं आर्य और अनार्य हैं । इतिहासकारों ने आर्य और अनार्य को जाने-अनजाने नस्ल और जाति की तरह प्रस्तुत किया, उन्होंने आर्य-द्रविड को भी इसी चश्मे से देखा और इस आधार पर भारत के लोक-मानस का ऐसा विखण्डन किया जो उनके (गर्हित) उद्देश्य की सफलता के पैमाने पर खरा उतरता था / है । किन्तु आर्य जाति नहीं है, शुद्ध ऐतिहासिक अस्तित्व और परिभाषा है आर्य तथा आर्यावर्त की, जो न सिर्फ़ ’धर्मनिरपेक्षता’ की कसौटी पर भी स्वीकार्य है, बल्कि ’जाति-निरपेक्षता’ तक पर भी खरी उतरती है । भारत-भूमि पर अस्तित्व में आए विभिन्न (धर्मों नहीं,)  धार्मिक मतों में ’आर्य’ शब्द का सीधा तात्पर्य है मानवीय अर्थों में सभ्य, परिष्कृत, सुसंस्कृत मनुष्य । और यह उसके आचरण पर आधारित उसकी पहचान है, न कि उसकी जाति, भाषा, परंपरा, उसके विश्वासों अथवा मान्यताओं पर आधारित निष्कर्ष । बौद्ध और जैन ग्रन्थों में आर्य शब्द आसानी से देखा जा सकता है । और ईरान के या जर्मनी के नरेश अपने-आपको आर्य कहने में गौरवान्वित होते थे तो मूलतः यह इसलिए नहीं था कि उनकी जाति या नस्ल आर्य थी, वरन् सिर्फ़ इसलिए कि उनकी परम्परा आर्य थी । वह परंपरा जिसका आधार आचरण था ।
क्या हमारी सभ्यता और संस्कृति इन अर्थों में आर्य है?
क्या इस आधार पर मनुष्य मात्र की संस्कृति आर्य नहीं हो सकती?
’अनार्य’ शब्द अपनी व्याख्या स्वयं ही स्पष्ट कर देता है, जो ’आर्य’ नहीं है, इसकी व्युत्पत्ति ही इस ओर ध्यान दिलाती है कि यह ’जो नहीं है’ का समेकित नाम है । इसलिए यह कोई विशिष्ट जाति है ऐसा सोचना मौलिक रूप से कोरा भ्रम ही है । इसलिए आर्य-अनार्य का द्वन्द्व किन्हीं दो संस्कृतियों का द्वन्द्व नहीं बल्कि मनुष्य के अपने भीतर का द्वन्द्व है ।
--
इसलिए रावण का धर्म ’राक्षस-धर्म’ था, रक्षा करो, किन्तु किसकी? रावण का कहना था ’अस्मिता की’ और उसकी अस्मिता शुद्धतः देह-केन्द्रित और देह से संबन्धित परिजनों, सुखों से थी । ’भोगवाद’ का चरम, जिसे विकास कहा जाता है ।
राम का धर्म इस प्रकार का राक्षस-धर्म न होकर विश्व-धर्म, समष्टि-धर्म था । क्योंकि धर्म वस्तुतः आचरण और आचरण की परंपरा अर्थात् संस्कृति होता है । इसलिए धर्म और सँस्कृति को नाम देकर बाँटा नहीं जा सकता । धर्म और संस्कृति बस आर्य, अनार्य और उनका मिला-जुला रूप भर होते हैं ।
--       

October 03, 2014

आज की कविता / जैसे झाड़ू के दिन फिरे,

आज की कविता

जैसे झाड़ू  के दिन फिरे,
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जब झाड़ू ने दिन बुहरे,  तब झाड़ू के दिन बुहरे ।

जैसे झाड़ू ने दिन बुहरे, वैसे झाड़ू के दिन बुहरे ।

जैसा हम सुनते आये थे,  जैसा हम सुनते आये हैं,

वे झाड़ू लेकर आए थे,  सोचा झाड़ू से पा लेंगे,

कुर्सी सत्ता सरकार सभी, सोचा झाड़ू से जीतेंगे,

जाएँगे दुश्मन हार सभी, पर झाड़ू से वे गए हार

झाड़ू ने दिखलाया जादू, बन-बैठी जैसे सूत्रधार ।

जैसे कि झाड़ू के दिन फ़िरे, वैसे सबके ही दिन भी फ़िरें ।

अब तो वह कुछ यूँ लगती है, पूजाघर बैठक गलियारे में,

सड़कों राहों या दफ़्तर में, बाज़ार गली चौराहों में,

जैसे कोई क़लम लिखे  अफ़्साना नई रौशनी का,

जैसे कोई चित्र उकेरे, एक नए सूर्योदय का,
 --


October 02, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 29.

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 29.
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पिछले साल अक्तूबर के पहले हफ़्ते में एक स्वप्न देखा था ।
उस मैदान पर जहाँ सुबह-सुबह गाँधी-जयन्ती के कार्यक्रम चल रहे थे, दोपहर तक सन्नाटा फ़ैल चुका था । हाँ उस दोपहर में भी वहाँ अन्धेरा था । मुझे कुछ अजीब लगा कि आसमान में सूरज चमक रहा था, लेकिन जमीन पर नीम-अन्धेरा था । पर मुझे अचरज नहीं हुआ, क्योंकि मैं अपने शहर में दिन में कभी-कभी ऐसा महसूस करता हूँ जब अचानक बिजली चली जाती है । लेकिन मुझे तब जरूर अचरज हुआ जब कौओं को यह कहते सुना कि गाँधी बाबा की प्रतिमाएँ जगह जगह लगी होने से उन्हें अपनी चोंच को धारदार बनाए रखने में आसानी हो गई है । वहाँ स्थित गाँधीजी की प्रतिमा के चेहरे पर स्थित स्थायी मुस्कान कौओं की बातें सुनकर तब और अधिक खिल उठी । मुझे तुरंत स्पष्ट हो गया कि मैं यह सब किसी स्वप्न में ही देख रहा हूँ । और तभी मैंने बाबा को बोलते देखा ।
’हर साल का तमाशा है यह!’
वे सारे कौए बाबा को ध्यान से देख रहे थे ।
’बाबा हैप्पी बड्डे !’
 वे कोरस में बोले !
’उसे बीते हुए सवा सौ से भी ज्यादा साल बीत चुके,  मैं तो  सवा सौ साल तक ही जीने की उम्मीद करता था ।’
’लेकिन बाबा, सारी दुनिया आपको मानती है ।’
’ऐ तुम ! इधर आओ !’ वे इशारे से मुझे बुलाते हैं ।
मैं जो उनसे सौ फ़ीट दूर था, उनके नज़दीक पहुँच जाता हूँ । उनके चरणों और मेरे सिर के बीच कोई दस फ़ीट का फ़ासला है, क्योंकि उनकी प्रतिमा ही धरती से पन्द्रह बीस फ़ीट की ऊँचाई पर स्थापित है ।
वे पूछते हैं, :
’आज का अख़बार लाए ?’
 मैं अपनी गाँधी-थैली (शोल्डर-बैग) टटोलता हूँ, उसमें से एक अख़बार निकलता है, वैसा ही जैसा मेरी एम.एस-सी की डिग्री का कवर था । मैं सोचता हूँ यह तो डिग्री है । बाहर निकालता हूँ तो देखता हूँ वह डिग्री नहीं अख़बार है । सोचता हूँ, उसे उछालकर वैसे ही बाबा के पास पहुँचा दूँ, जैसे सुबह अख़बारवाला मेरे घर की दूसरी मंजिल की बालकनी में फ़ेंक जाता है ।
’नहीं नहीं, बस तुम जरा ऊँची आवाज में सुना दो कि इसमें क्या छपा है!’
’बाबा, इसमें पहले पूरे पृष्ठ पर एक बाइक का ऐड है, वैसे ऊपर दाहिने कोने में आपका फोटो भी पास-पोर्ट साइज़ का दिख रहा है । बीच में अख़बार का नाम है, बाँयी तरफ़ किसी सौन्दर्य-प्रसाधन का विज्ञापन है ।’
बाबा शान्तभाव से मुस्कुराते रहते हैं ।
जैसी की मेरी आदत है, मैं अन्तिम दो और प्रथम दो ’पृष्टों’ पर सरसरी निगाह डालकर उन्हें एक ओर फेंक देता हूँ, वैसे ही मैं यहाँ भी किया । फिर देखता हूँ, और उन्हें तमाम हालात बयान करता हूँ, जैसा कि अख़बार में छपा है । बाबा के चेहरे से मुस्कान ग़ायब हो जाती है । जब मैं उन्हें बतलाता हूँ कि आपके बारे में भी बहुत समाचार-विचार हैं और एक न्यूज़ यह है कि गुजरात के मुख्यमन्त्री ने आपके द्वारा लिखी गई भग्वद्गीता बराक़ ओबामा को गिफ़्ट की, तो उनके चेहरे से कोई प्रतिक्रिया नहीं प्रकट होती ।
’बाबा क्या आपकी शिक्षाएँ समझने में हमसे कोई भूल हुई?’
वे अपनी धोती में कमर पर खोंसकर रखी एक पुड़िया निकलते हैं और उसे खोलकर पढ़ते हुए से कहते हैं,
’मैंने कभी सपने नहीं देखे, जब तुम सपने देखते हो तब या तो सोए हुए होते हो या बस भ्रमित ।’
वे पुड़िया मेरी तरफ़ उछाल देते हैं, जिसमें बस दो तीन शब्द लिखे होते हैं,
सादगी, सरलता, निश्छलता, संवेदनशीलता , ....
मैं उनसे पूछता हूँ,
’क्या विकास, सबके लिए सुख, शान्ति, वैज्ञानिक और भौतिक उन्नति भी उतने ही महत्वपूर्ण नहीं हैं ?’
’हैं, लेकिन इनकी क़ीमत पर नहीं !’
मैं आगे कुछ सोचूँ इससे पहले ही मेरा स्वप्न भंग हो जाता है ।
--
मुझे कोई आश्चर्य नहीं होता जब ऐसे विचित्र स्वप्न दिखलाई दे जाते हैं । गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री (और आज के भारत के प्रधानमन्त्री) को अमेरिका के द्वारा वीसा दिए / न दिए जाने पर उन दिनों अख़बार में और ’मीडिया’ में भी काफी कुछ चल रहा था । और इसलिए सपने में यह देख लेना कि वे अमेरिका जाकर व्हाइट-हाउस में अमेरिका के राष्ट्रपति को महात्मा गाँधी की गीता भेंट कर रहे हैं शुद्ध कल्पना-विलास नहीं तो और क्या हो सकता था, जो मेरे स्वप्न में मुझे उस रूप में दिखाई दिया । किन्तु जब वास्तव में अभी दो दिन पहले समाचारों में यह पढ़ा कि सचमुच श्री मोदी ने श्री ओबामा को महात्मा गाँधी द्वारा लिखी गई भग्वद्गीता उपहार के रूप में भेंट की, तो अचानक पिछले साल के सपने की याद ताज़ा हो उठी । हलाँकि मुझे अभी भी इस बात पर सन्देह हो रहा है कि क्या सचमुच ऐसा हुआ या यह समाचार मेरी कल्पना मात्र है ? जो भी हो,...
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मुझे मेरे बचपन में पढ़ी वह अंग्रेज़ी कविता याद आई,
If the wealth is lost,
Nothing is lost,
If the health is lost,
Something is lost,
But if the character is lost,
Everything is lost,...
मैं सोचने लगा कि गाँधीजी की शिक्षा को न समझ पाना  (और समझने की इच्छा न होना) ही हमारी सबसे बड़ी भूल थी,  सचमुच हमने अपना आचरण चरित्र खो दिया है, और इसे हमने  किसी नैतिक-शिक्षा के अभाव से उतना नहीं बल्कि  सादगी, सरलता, निश्छलता, संवेदनशीलता , .... को खोने की क़ीमत पर खोया है ।
--              

              

September 30, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 28

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 28
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18 वर्ष बाद, ……,
यह किसी फ़िल्म के शीर्षक जैसा लगता है ।
जया ललिता न्यायालय में दोषी क़रार दी गईं । उनके प्रशंसकों में से कितने इस सदमे को नहीं सह सके, कुछ की मृत्यु दिल के दौरे से, तो कुछ की आत्महत्या के प्रयास से हो गई । जया जी से मेरी पूरी सहानुभूति है, क्योंकि मेरी हर उस व्यक्ति से सहानुभूति है जिसे जेल भेज दिया जाता है और वहां अमानवीय परिस्थितियों में रखा जाता है । क्योंकि मेरा मानना है कि मूलतः कोई अपराधी होता ही नहीं, हाँ यह हो सकता है कि कोई बौद्धिक या मानसिक रूप से अपरिपक्व हो। और पैसे, पद, पहचान, प्रतिष्ठा से अभिभूत होने की हद तक प्रभावित हो।  हो सकता है कि इसके मूल में भी असुरक्षा की या प्रतिद्वंद्विता की भावना छिपी हो,  जो भी हो, यदि कोई मनुष्य समाज या औरों के लिए हानिप्रद या खतरनाक भी हो गया है, तो उसके ऐसा होने के लिए समाज ही उससे अधिक जवाबदार है।  जिन कारणों से  व्यक्ति विकृत या अपरिपक्व मानसिकता से ग्रस्त होता है, वे कारण समाज में ही होते हैं, और मनुष्य जब बच्चा होता है, तब उससे यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि वह इस सारी प्रक्रिया को ठीक  समझ सके।  इसलिए उससे उसके नैसर्गिक मानवीय अधिकार छीन लिए जाएँ, यह तो कोई हल नहीं है।  और समाज के पास इसका भी कोई हल नहीं है कि दूसरे ऐसे लोग जो जयाजी उनके जैसे अन्य लोगों से भावनात्मक रूप से जुड़े हैं उनके लिए कोई रास्ता बतला सकें।  जब किसी अपराधी को सजा दी जाती है, तो निश्चित ही उसके निकट सम्बन्धियों को भी इसके परिणाम भुगतने होते हैं।  क्या इसके लिए अपराधी को दोषी कहा जाना चाहिए?
मुद्दा यह है कि सभ्य समाज में अपराध के लिए दण्ड दिए जाने से वास्तव में कोई लक्ष्य नहीं प्राप्त होता। यह हमारा भूल भरा दृष्टिकोण है कि हम दंड देकर मनुष्य को अपराध करने से रोक सकते हैं।  हाँ, यह अवश्य हो सकता है, और प्रायः देखा भी जाता है कि दंड के भय से लोग अधिक चालाक, अधिक दुष्ट, अधिक क्रूर और निर्मम हो जाते हैं।  अपराध किसी भी क़िस्म का हो, एक रुग्णता है, जिसे रोकना उसके उपचार की तुलना में अधिक आवश्यक और पर्याप्त उपाय है।
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September 27, 2014

जगत् : ऊसर भूमि

जगत् : ऊसर भूमि
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(मेरी मूल हिन्दी कविता और उसका मेरे द्वारा किया गया अंग्रेज़ी भाषान्तर)
(T.S.Eliot  से क्षमा-याचना सहित / With apologies from T.S.Eliot)




September 26, 2014

आज की कविता / फ़र्क / 26/09/2014

आज की कविता
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फ़र्क

© विनय वैद्य, उज्जैन 26/09/2014
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ऊसर में वो भी बोते हैं,
मैं भी ऊसर में बोता हूँ ।

वो उम्मीदों की फ़सलें बोएँ,
वो सिक्कों की फ़सलें बोएँ
मैं स्वेदकणों को बीज बनाकर,
सूखी धरती में बोता हूँ ।

वो खून से सींचें खेतों को,
नफ़रत की खादें डालें,
मैं अश्रुकणों को बून्द बून्द,
प्यासी धरती में बोता हूँ ।

उनके खेतों में उगता सोना,
कनक कनक से मोहित वे,
मैं कण कण प्यार उगाता हूँ,
कण कण धरती में बोता हूँ,

ऊसर में वो भी बोते हैं,
मैं भी ऊसर में बोता हूँ ।
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September 24, 2014

आज की कविता / 24/09/2014

आज की कविता / 24/09/2014
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कुछ मेंढक ज़हरीले होते हैं,
कुछ ज़हरीले मेंढक होते हैं,
कुछ मेंढक तो होते हैं शाकाहारी
तो कुछ शाकाहारी मेंढक होते हैं !
शाकाहारी हो या हो ज़हरीला,
ज़हरीला हो या शाकाहारी,
मेंढक तो आखिर मेंढक ही होता है,
उछलकूद करना है उसकी लाचारी !
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( © विनय वैद्य, उज्जैन,)

September 20, 2014

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 27 ~~

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 27 ~~
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1977 में विक्रम विश्वविद्यालय से गणित में M. Sc. करने के बाद रिसर्च करने की तीव्र अभिलाषा थी। किन्तु नौकरी करना अधिक जरूरी था। बहरहाल गणित में दिलचस्पी बनी रही।  संस्कृत और गणित दोनों अस्तित्व की अपनी भाषा है।  गीता पढ़ते हुए अध्याय 8 के प्रथम श्लोक पर आधुनिक गणित की धारा में कुछ कौंधा और प्रभु की कृपा से उसे व्यक्त भी कर पाया।  सोचा उसे इस ब्लॉग के पढ़नेवालों को भी अर्पित कर दूँ !

 

September 19, 2014

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 26 ~~

~~ कल का सपना : ध्वंस का उल्लास / 26 ~~
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परसों दोपहर या रात्रि में, एक स्वप्न देखा । एक स्नेही मित्र के साथ मैं जंगल में हूँ  बहुत कम वृक्ष आस-पास हैं, और जमीन मटमैली हल्की लाल-पीली सी है । अचानक देखता हूँ कि वे मित्र कहीं दिखाई नहीं दे रहे । थोड़ी दूर पर एक वृक्ष है जिस पर दो-तीन बड़ी शाखाएँ और जरा से पत्ते हैं, या शायद वो भी नहीं  । सोचता हूँ कि वे मित्र उस वृक्ष पर तो नहीं चढ़ गए हैं? उन्हें आवाज देता हूँ लेकिन मेरी आवाज में इतनी ताकत नहीं है शायद कि उन तक पहुँच सके । कुछ दूरी पर एक मनुष्य दिखलाई देता है, जो मेरे बड़े भाई जैसा प्रतीत होता है । मैं सोचता हूँ कि वह ग्रामीण सा, बूढ़ा सा व्यक्ति जो मेरे बड़े भाई जैसा प्रतीत हो रहा था, तो मेरा मित्र नहीं कोई और ही है । और स्वप्न टूट जाता है ।
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कल, और आज भी सुबह से इस स्वप्न के बारे में दो-तीन बार सोचा । उस मित्र को फोन करने का खयाल आता है, लेकिन चूँकि उसे वैसे ही बहुत जरूरी होने पर ही फोन करता हूँ, इसलिए वह भी जरा मुश्किल है । बस इन्तज़ार कर रहा हूँ कि क्या होता है ! वैसे मेरा अनुमान है कि शायद वह स्नेही मित्र दिवंगत हो चुका है । चूँकि इस उम्र में हूँ, कि मेरी उम्र के कितने ही दोस्त और परिचित हर हफ़्ते दस दिन में दिवंगत होते रहते हैं, इसलिए उस मित्र के लिए चिन्ता नहीं है, बस थोड़ा सा कौतूहल अवश्य है ।
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September 18, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -25

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -25
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16 मार्च 2014  के आसपास यह श्रंखला शुरू हुई थी।  ध्वंस तो सृजन की सहयोगी गतिविधि है।  लेकिन उसकी अभिव्यक्ति इस तारीख के बाद अधिक प्रखर हो उठी है। ट्विटर पर एक नए फॉलोवर बने हैं।  पता नहीं क्या अपेक्षा मुझसे होगी उन्हें ! बहरहाल उनका पेज देखा तो ऐसा लगा कि वे 'राष्ट्रवाद' के प्रबल समर्थक और सेकुलरिज्म के उतने ही प्रबल विरोधी होंगे।
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पिछले साल भर कई बार इन दोनों शब्दों पर चिंतन करता रहा।  गीता पर ब्लॉग्स लिखते समय भारत पर भी बहुत बार सोचा।  अध्याय 3 का श्लोक 38 जब भी पढ़ता हूँ, जे. कृष्णमूर्ति याद आते हैं !
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'धूमेनाव्रियते वह्निः यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा  तेनेदमावृतम्।।'
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संस्कृत में 'आदर्श' का मतलब होता है आईना। आदर्श पर हमेशा विचार की धूल चढ़ जाती है । आदर्श वस्तुतः निर्मल होता है।  इतना निर्मल कि दिखलाई तक नहीं देता। फिर किसी दूसरे को उस आदर्श को दिखलाना तो लगभग असंभव ही होता है।  और जब भी विचार के माध्यम से उस आदर्श की ओर इशारा भी किया जाता है , तो विचार की धूल उस पर लग जाती है, उसे कलंकित भी कर देती है।  हाँ यह हो सकता है कि इस धूल को सावधानी से साफ़ कर दिया जाए। राष्ट्रवाद का आदर्श भी इसका अपवाद नहीं है। राष्ट्रवाद का प्रचलित अर्थ है, अपने देश को श्रेष्ठ मानना उसके प्रति गौरव अनुभव करना।  किन्तु देश क्या है? स्वाभाविक है कि इसका तात्पर्य भूमि समझा जाए। अर्थात् 'जन्मभूमि' । इस दृष्टि से देखें तो अपने देश से बाहर जन्म लेने वाले जिनके माता-पिता इस देश के नागरिक हैं, क्या इस देश को अपना न कहें? स्पष्ट है कि देश न सिर्फ भौगोलिक बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, सामाजिक और भाषाई इकाई भी है। और एक सच्चाई भी है।
वैदिक रूप से 'राष्ट्र' का तात्पर्य है संपूर्ण भूमि अर्थात पृथ्वी।  वैदिक दृष्टि से इस भूमि की अपनी चेतन सत्ता है। देवी अथर्वण में देवी अपने बारे में कहती है :
'अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् .. …'
दूसरी ओर राज्य एक और इकाई है, जिसकी भौगोलिक सीमाएँ समय के साथ बदलती रहती हैं।  किन्तु जहाँ साँस्कृतिक सीमाएँ समय के बदलने के साथ नहीं बदलतीं ऐसी एक और इकाई होती है जिसके आधार पर किसी समुदाय के 'देश' का अस्तित्व परिभाषित होता है।  स्पष्ट है कि एक ही 'देश' में अनेक भाषाई समुदाय हो सकते हैं, जिनकी साँस्कृतिक पहचान तक समान हो।
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आज 18  सितम्बर 2014 को सुबह समाचारों में सुना की स्कॉटलैंड में इस बारे में रेफरेंडम हो रहा है कि क्या
वह भौगोलिक क्षेत्र यू.के. में रहेगा या कि उससे अलग एक स्वतंत्र 'राष्ट्र' होगा?
तिब्बत के बारे में भारत की केंद्रीय सरकार की ढुलमुल नीति, कश्मीर के बारे में श्री जवाहरलाल नेहरू की इरादतन या गैर इरादतन भूल का ख़ामियाज़ा हम झेल रहे हैं। इस बारे में हमारी उदासीनता ही हमारे और संसार के विनाश का कारण है। यह ठीक है कि संसार की गति को कोई न तो दिशा दे सकता है, न कम या अधिक कर सकता है। बाँग्लादेश का जन्म इसका स्पष्ट प्रमाण है। चीन या दूसरी विस्तारवादी शक्तियाँ कितनी ही कोशिश कर लें, संसार के नक़्शे में राई-रत्ती का फ़र्क नहीं ला सकती। लेकिन यदि उन शक्तियों को इसका विश्वास है कि वे ऐसा कर सकती हैं तो यह उनकी ग़लतफ़हमी है।
--
इस पोस्ट को यहीं पूर्ण करना चाहूँगा।  अभी काफी कुछ लिखना है, 'हिंदी' / 'हिन्दू' / 'भारत' / 'इण्डिया' / 'इंडिया' / 'इन्डिया' के बारे में।  वह सब अगली पोस्ट्स में।
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September 17, 2014

आज की कविता / 17/09/2014.

आज की कविता / 17/09/2014.
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© विनय वैद्य, उज्जैन,
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मन्दिर नहीं जानते 
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मन्दिर नहीं जानते,
प्रशंसा,
वे सिर्फ़ खड़े रहते हैं,
आशीर्वाद देने को,
चाहें आप उनमें विराजित प्रतिमा की पूजा करें,
या उसे तोड़ दें,
चाहे आप उसे किसी दर्शन, धर्म या सिद्धान्त का नाम देकर,
तलवार बना लें,
काट दें उन सब को,
जिनके हाथों में हैं,
ऐसी ही दूसरी तलवारें,
चाहें आप उस मन्दिर को ही तोड़कर,
नाम दे दें अपने धर्मस्थल का, 
और घोषित कर दें,
कि आपका धर्म ही एकमात्र ईश्वरीय धर्म है,
बाँट दें पूरे विश्व को,
सिर्फ़ दो मज़हबों में,
और जो आपके मज़हब को नहीं मानता,
उसे मिटा देना आपका परम धार्मिक कर्तव्य है,
हाँ एक तीसरा मज़हब भी इसमें आपका मददग़ार होता है,
जो या तो बुद्धिजीवी होता है,
प्रतिष्ठित,
या बस अवसरवादी,
जिसके कोई सिद्धान्त नहीं होते,
वह मन्दिर की सत्ता का भी मज़ाक उड़ाता है,
किन्तु आपके धर्म, और आपके ईश्वर पर उँगली नहीं उठाता,
क्योंकि उसे मन्दिर के होने न होने से कोई मतलब नहीं,
वह मन्दिर से तो नहीं, लेकिन आपकी तलवार से जरूर डरता है,
और वक़्त आने पर खुद ही रख देता है शीश,
आपके चरणों में, 
और जिसे मतलब है,
वह किसी मज़हब तक बँधा नहीं होता,
वह सिर्फ़ अपने मज़हब का पाबन्द होता है,
कि मज़हब मुक्ति है,
मज़हब स्वतन्त्रता है,
और यह तभी होती है,
जब आप दूसरों की मुक्ति का सम्मान करते हैं,
और इसे न तो आप किसी को दे सकते हैं,
न कोई और आपको दे सकता है,
लेकिन कोई इसे आपसे छीन भी नहीं सकता,
मुक्ति,
जो वह आपके आदर्शों और विश्वासों से विपरीत ही क्यों न हो ।
और तब आप निर्भय होते हैं,
आप मिटने से नहीं डरते,
क्योंकि मिटना तो जीवन की रीत है,
पर फ़िर भी, तब आप मिटाने से ज़रूर डरते हैं,
क्योंकि आप अस्तित्व का सम्मान करते हैं,
अपने, और सम्पूर्ण, -अथाह जीवन का,
जिसमें आपके होने-न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
क्योंकि आप उससे पृथक् नहीं हैं, 
क्योंकि यह अपने आपको ही मिटाने का सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तरीका है,
और तब आप समझ पाते हैं,
कि मन्दिर मिट क्यों जाते हैं, मिटाते क्यों नहीं?
मन्दिर जानते हैं अमर होना,
और देते हैं यही आशीर्वाद,
बिना कहे ।
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September 03, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -23,

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -23,
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कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!

अध्याय 4 श्लोक 18,

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥
--
(कर्मणि अकर्म यः पश्येत् अकर्मणि च कर्म यः ।
सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः कृत्स्नकर्मकृत् ॥)
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भावार्थ :
जो कर्म में अकर्म को तथा इसी प्रकार अकर्म में कर्म को देखता है, केवल वही मनुष्यों में अन्यों की तुलना में बुद्धिमान मनुष्य है, वही योग से युक्त और कृतकृत्य है ।
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श्रीमद्भग्वद्गीता को बचपन से पढ़ता रहा हूँ ।  नए पुराने कुछ आचार्यों विद्वानों की व्याख्याएँ भी पढ़ीं । किन्तु मुझे हमेशा से लगता रहा कि किसी ग्रन्थ को उसकी मूल भाषा में पढ़ने से जो (तात्पर्य) समझ में आता है, वह उसके अनुवाद या व्याख्याओं के अध्ययन से शायद ही समझा जा सकता हो । और संस्कृत के ग्रन्थों के पढ़ने का सबसे अच्छा एक तरीका यही है कि उनका उनके मूल-स्वरूप में ’पाठ’ किया जाए । शायद शुरु में यह ’रटना’ जान पड़े, लेकिन ’रटने’ का मतलब है आप बाध्यतावश यह कार्य कर रहे हैं । लेकिन यदि आप खेल-खेल में इसे करते रहें, तो जल्दी ही इससे जुड़ाव होने लगता है । और इस जुड़ाव को पैदा होने, पनपने में एक दो नहीं, बीस पच्चीस वर्ष या और अधिक समय भी लग सकता है । और फिर अचानक लगने लगता है कि इसे पढ़ना न सिर्फ़ अपना, बल्कि संसार के भी कल्याण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण एक कार्य है । क्योंकि तब आप और संसार दो पृथक् सत्ताएँ नहीं होते । शायद इसे ही आत्म-ज्ञान भी कह सकते हैं ।
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एक दृष्टि से यह अध्ययन एक ’कर्म’ है, वहीं यह ’अकर्म’ भी है । जैसे रोज सवेरा होता है, शाम होती है, या कहें सुबह और शाम के होने से हम ’रोज’ नामक वस्तु / समय को परिभाषित कर लेते हैं । ’समय’ जो इस रूप में दृश्य भी है और अदृश्य भी ! और सुबह और शाम का होना सूरज के उगने और डूबने से ही तो होता है ! हम सूरज पर उगने और डूबने का इल्ज़ाम कितने जल्दी लगा देते हैं ! फिर हम कह सकते हैं कि ठीक है, धरती के सूरज के चारों ओर चक्कर काटने से सूरज उगता या डूबता दिखलाई देता है ।
लेकिन क्या धरती इरादतन सूरज का चक्कर काटती होगी ? अभी तो हमें यह भी पक्का नहीं कि क्या धरती का कोई ऐसा दिल-दिमाग होता है या नहीं, जो इरादा कर सके । फिर हम कहते हैं कि यह तो प्रकृति (और विज्ञान) के नियमों से संचालित होता है । इसमें दो बातें स्पष्ट हैं । ’प्रकृति’ इस शब्द को कहने से हमें धरती, आकाश, सूरज या ऐसी किसी वस्तु का प्रमाण तो नहीं मिल जाता जिसे हम ’प्रकृति’ कह रहे हैं । दूसरी बात विज्ञान के नियमों के बारे में ! क्या विज्ञान के नियम उस ’समय’ (और ’स्थान’) की परिभाषा के आधार पर ही नहीं तय किए जाते जिसकी अपनी ही विश्वसनीयता अभी प्रमाणित नहीं हो सकी है?
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फिर भी समय और स्थान,”प्रकृति’ का दृश्य रूप है, ऐसा अनुमान लगाना शायद गलत न होगा । और इस ’प्रकृति’ को ’जाननेवाला’ भी एक तत्व इस ’प्रकृति’ के अस्तित्व को स्वीकार या अस्वीकार करने से पहले भी स्वतः प्रमाणित है ही । जैसे यदि हम कर्म / कार्य को स्थान और समय के आधार पर बाँटकर न देखें तो इसे परिभाषित तक नहीं कर सकते, वैसे ही यदि हम इस कर्म / प्रकृति को ’जाननेवाले’ तत्व को भी समय और स्थान के आधार पर न बाँटें, तो क्या इस तत्व को परिभाषित किया जा सकता है ? किन्तु क्या इससे यह सिद्ध हो जाता है कि उनका अस्तित्व नहीं है? इन सबका समष्टि अस्तित्व तो स्वप्रमाणित तथ्य / सत्य है । क्या इस समष्टि अस्तित्व को हम ’कर्म’ / ’प्रकृति’ / ’चेतना’ या ईश्वर कह सकते हैं ? क्या इनके अतिरिक्त इनसे भिन्न इस आयोजन का कोई ’कर्ता’ उनसे अलग है?  क्या वही इस सारे आयोजन का / की सूत्रधार नहीं है? क्या वह कुछ करता है? क्या कभी कुछ होता है? यदि कभी कुछ होता या किया नहीं जाता तो कर्म का क्या प्रमाण? तो क्या कर्म और अकर्म एक ही सत्ता के दो पक्ष नहीं हुए?
कर्मण्यकर्म यः पश्येत् ...!
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August 27, 2014

August 25, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 20

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 20
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ध्वंस का उल्लास अभी जारी है,
कल  का सपना भी अभी तारी है,
है यकीं मुझको कि मैं नीचे इसके,
दबके मर जाऊँगा, एहसास बहुत भारी है।
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कुछ  लिखना है, और बहुत संक्षेप में, लेकिन अभी वक्त है उसके लिए ।
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अख़बार पढ़ना मेरी मज़बूरी है।  वैसी ही जैसे कि सुबह लैट्रिन जाना। सोचता हूँ कि मज़बूरी और स्वेच्छया करने में क्या फर्क है!  चूँकि मैं भूख और प्यास से तो लड़ सकता हूँ, क्योंकि जब खाने के लिए पास कुछ नहीं होता, और पीने के लिए दूर दूर तक पानी कहीं नहीं होता, तब आप भूख और प्यास से लड़ते हुए या तो जीत जाते हैं या फिर बस हार जाते हैं। भले ही इसे आप सामाजिक  या राजनीतिक रंग दें या न भी दें, सच्चाई पर इससे कोई फर्क कहाँ पड़ता है?
और जब आप इन बुनियादी चीज़ों की फिक्र करने और इनकी मज़बूरियों से ऊपर उठ चुके होते हैं, तब आप मनोरंजन की समस्या, बोरियत की समस्या से दो-चार हो जाते हैं।  मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा जीवन में वस्तुतः कोई समस्या है, हाँ मन के स्तर पर 'भविष्य' की कल्पना जरूर होती है, जो अनहोनी की आशंका या (यथार्थपरक या कल्पनापरक) चाह के पूरे होने संभावना की कल्पना के सिवा और क्या हो सकता है? पहली संभावना को भय कहा जा सकता है, और दूसरी को आशा।
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फिर  राजनीति और मनोरंजन क्या है?
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किसी भी विचारशील मनुष्य के मन में शारीरिक जरूरतें और राजनीति / मनोरंजन, इन दो सिरों के बीच एक प्रश्न जीवन की सार्थकता और प्रयोजन, अर्थात औचित्य और महत्त्व  के बारे में अवश्य ही उठता होगा। फिर यह प्रश्न भी अपने और दूसरे इन दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द सिमट जाता होगा।
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अपने और दूसरे, यह वर्गीकरण भी पुनः हर मनुष्य के लिए अनेक स्तरों और उसकी संवेदनशीलता के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप ले लेता है। अक्सर हर मनुष्य अपने की परिभाषा में समय समय पर बदलाव करता रहता है, उसके भाव को संकुचित या विस्तीर्ण भी करता रहता है। और इसलिए कोई व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, वस्तु, विचार, आदर्श, भाषा, भावना, दृष्टि या दृष्टिकोण, यहाँ तक कि राष्ट्र भी, जो किसी समय अपना कहा जाता है, पलक झपकते ही दूसरा या पराया हो जाता है।
यह अपने-पराये का वर्गीकरण मनुष्य के मन / चेतना में जहाँ जन्म लेता है, क्या वह स्थान हम सब में एक सा और एक ही नहीं है?
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पिछले पैराग्राफ़ में मैंने जान-बूझकर एक शब्द छोड़ दिया था।  वह शब्द है 'धर्म' । ऐसा ही एक अन्य शब्द जो छूट गया, वह है 'जाति' । शायद परंपरा, रीति-रिवाज, भी इसी तरह के कुछ और शब्द हो सकते हैं।
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इन सारे शब्दों के वाच्यार्थ भले ही एक प्रतीत होते हों, लक्ष्यार्थ भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। 'वाच्यार्थ' से मेरा मतलब है उस शब्द का व्यवहारिक तात्पर्य। और 'लक्ष्यार्थ' का मतलब है, जिसे कहने / सुननेवाला समझता है। जैसे जब कहा जाता है, 'आटा पिसवाना है।' तो मतलब होता है 'गेहूँ पिसवाना है।' ऐसे ही जब कहा जाता है, 'नल आ गए?'  मतलब होता है 'नलों से पानी आ रहा है क्या?' 'घर आ गया।' का मतलब होता है, 'हम घर पहुँच गए।'
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वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का यह भेद / फर्क अगर हम व्यवहारिक धरातल पर समझ लें, तो भाषा के सम्प्रेषण में होनेवाली त्रुटियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। और व्यावहारिक धरातल पर जिस तरह हम हँसकर अपनी भूलों को सुधार लेते हैं,अगर वैसे ही विचारगत होनेवाली संभावित भूलों को भी सुधार सकें तो हमारे अधिकांश मतभेद सरलता से दूर हो सकते हैं।
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'धर्म','जाति', 'परंपरा', 'रीति-रिवाज', 'ईश्वर' ऐसे ही कुछ शब्द हैं जिनके वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हुआ करते हैं। अलग अलग लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न समुदायों के लिए भी। और मजे की बात यह है कि कोई एक व्यक्ति भी इस बारे में स्पष्टता से, निर्विवाद रूप से सुनिश्चित होता हो, कि इनमें से किस शब्द का वह क्या वाच्यार्थ और क्या लक्ष्यार्थ ग्रहण करता है! फिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि हम इनके प्रयोजन, सार्थकता और प्रयोग के बारे में एक दूसरे से सहमत हो सकेंगे? ऐसा होने से पहले अपने-आप को ध्वंस से गुजरना होता है। अपने-आप के ध्वंस से गुजरते हुए समुदाय और सम्पूर्ण मानव समाज का यह ध्वंस कोई नकारात्मक नहीं, बल्कि बहुत सार्थक एक प्रक्रिया हो सकती है।
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August 21, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -17

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -17
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राम (रीतेन्द्र शर्मा) से बहुत समय बाद आज संवाद हुआ।  और फिर आज ही एक कविता लिखी,
It is all in the Stars   
उस वक़्त मैं वह मुलाक़ात याद करने की कोशिश कर रहा था जो डॉ. वेदप्रताप वैदिक तथा हाफिज सईद के बीच 2 जुलाई 2014 को हुई थी।
दरअसल मैं 15 अगस्त के लाल किले पर दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण के उस अंश के बारे में सोच रहा था, जिसमें उन्होंने सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच हुए संवाद का जिक्र किया था।
'मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है'
सिद्धार्थ या देवदत्त की माँ ने निर्णय दिया था, और हंस सिद्धार्थ को मिल गया जिसने उसके शरीर पर देवदत्त के तीर से लगे घाव का उपचार किया।
प्रधानमंत्री ने इस कथा के पात्रों का सीधा उल्लेख तो नहीं किया, लेकिन मैंने इसे इसी रूप में पढ़ा था।
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हाफिज सईद से मिलने और मिलकर सुरक्षित लौट जाने से यही साबित होता है कि बचानेवाला अवश्य ही मारनेवाले से बड़ा होता है।  खुद डॉ.वेदप्रताप वैदिक को लग रहा था कि उन्हें हाफिज सईद से नहीं मिलना चाहिए था। खैर अंत भला सो सब भला।
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मुझे लगता है कि इस घटना और इसके समय से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, मैं नहीं कह सकता कि जब श्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में राजकुमार सिद्धार्थ और देवदत्त के इस प्रसंग का जिक्र किया तो उन्होंने यह डॉ.वेदप्रताप वैदिक और हाफिज सईद की मुलाक़ात के सन्दर्भ में किया था या किसी और वज़ह से किया होगा।
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ध्वंस का उल्लास अभी जारी है।
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August 20, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -16

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -16
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सन्दर्भ : 'नईदुनिया', इंदौर, सोमवार 18 अगस्त 2014, पृष्ठ 11

* ये बातें पाकिस्तान जाकर मुंबई हमले के आरोपी हाफिज सईद मिलने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने रविवार को इंदौर के आनंद मोहन माथुर सभागार में नईदुनिया की शृंखला 'संवाद' में बतौर मुख्य अतिथि कही ।

वह नहीं जानता जेहाद-ए-अकबर 

*उन्होंने बताया कि मैंने हाफिज सईद से कहा कि यह कैसा जेहाद है? मुंबई में बेकसूर लोगों को क्यों मारा ? कौन से इस्लाम में लिखा है कि बेकसूर लोगों को मारो? पैगंबर मोहम्मद साहब ने कहाँ कहा है कि बेकसूरों  पर गोली चलाओ, कौन सी हदीस ने कहा है कि यह एक जेहाद है।  यह सुनकर वह सकते में आ गया। फिर मैंने उससे पूछा 'जेहाद-ए-अकबर' जानते हो, उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा तो मैंने उसे बताया कि काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को कम करना और जितेन्द्रिय बनना 'जेहाद-ए-अकबर' है । इसमें हिंसा और पशुत्व की जगह कहाँ है?
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 'जेहाद-ए-अकबर' के बारे में तो मैं भी कुछ नहीं जानता, हाँ मैं  यह देखकर चकित अवश्य हुआ कि
गीता तथा संस्कृत भाषा में 'जहाति' 'प्रजहाति' शब्द का प्रयोग 'छोड़ने' के अर्थ में, और 'नष्ट करने' के अर्थ में,

तथा,

जहत् अजहत् एवं जहत्-अजहत् लक्षणाओं में प्रचुरता से पाया जाता है ।

मैं नहीं कह सकता कि इस्लाम या अरबी भाषा में इस शब्द का क्या अर्थ होता है, किन्तु डॉ. वेदप्रताप वैदिक के इस विचार से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि 'जेहाद' का वास्तविक अर्थ, निरपराध / बेकसूर लोगोँ को मारना नहीं, बल्कि काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को कम करना और जितेन्द्रिय बनना अवश्य हो सकता है ।
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राजनीति में न मेरी रुचि है, न दखल, न क़द्र।  लेकिन ब्लॉग लिखने के लिए मुझे अवश्य एक थीम मिली !
थैंक्स डॉ. वैदिक, हाफिज सईद, नईदुनिया !
यहाँ संक्षेप में उस थीम के बारे में उसकी आउटलाइन :
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शब्द-सन्दर्भ, ’जहाति’ / ’jahāti’
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संस्कृत भाषा में ’हा’ धातु का प्रयोग प्रधानतः ’त्यागने’ / ’छोड़ने’ और गौणतः ’नष्ट करने’ / ’मारने’ के अर्थ में पाया जाता है ।
’हा’ जुहोत्यादि गण में परस्मैपदी धातु का स्थान रखती है ।
इससे व्युत्पन्न कुछ मुख्य शब्द इस प्रकार से हैं :
जहाति - त्यागता है, छोड़ता है, प्रजहाति,
जहि - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, प्रजहि,
हास्यति - छोड़ देगा, प्रहास्यति,
हास्यसि - तुम छोड़ दोगे, प्रहास्यसि,
जहातु - (वह) छोड़ दे, त्याग दे, उसके द्वारा छोड़ दिया जाना चाहिए, उसने त्याग देना चाहिए,
हीयते - जिसे त्याग दिया जाना चाहिये,
हेयः - तिरस्कृत्य, अस्वीकार्य,
हीनः - से रहित, विना, के बिना,
जहत् - त्यागता हुआ, त्यागते हुए, (शानच् प्रत्यय),
अजहत् - न त्यागता हुआ,
हित्वा - छोड़कर, त्यागकर,
विहाय - छोड़कर, त्यागकर,
हापयति - छुड़ाता है,
जिहासति - छोड़ने की इच्छा रखता है,  
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अध्याय 2, श्लोक 22, ’विहाय’ -छोड़कर,
अध्याय 2, श्लोक 33, ’हित्वा’ - नाश करते हुए,
अध्याय 2, श्लोक 50, ’जहाति’ - छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
अध्याय 2, श्लोक 55, ’प्रजहाति’ - त्याग देता है,
अध्याय 2, श्लोक 71 - ’विहाय’ - त्याग कर, त्यागने से,
अध्याय 3, श्लोक 41, - ’प्रजहि’ - नष्ट कर दो, मिटा दो, समाप्त कर दो,
अध्याय 3, श्लोक 43, - ’जहि’ - (कामरूपी शत्रु को) मार डालो,
अध्याय 11, श्लोक 34, - ’जहि’ - मारो, वध करो, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस सन्दर्भ में अर्जुन को शत्रु को मारने का निर्देश दिया है वह आश्चर्यजनक है । श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन अपने स्वजनों को कैसे मार सकता है? वह अत्यन्त व्यथित है, वे उससे कहते हैं कि तुम व्यथित मत होओ क्योंकि वे पहले ही से मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं ।
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आज की कविता / 20 /08 / 2014

आज की कविता / 20 /08 / 2014 
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शिव तुम सपनों में आते हो,
लेकिन सच में कब आओगे ?
जीते जी चाहे मत आओ,
मौत में तो तुम आ जाओगे .... ? 
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August 16, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 15

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -15,
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बचपन से मुझे (?) अपना यह दोहरा अस्तित्व दिलचस्प लगता रहा था।
अक्सर देखता था, शरीर अपने ढंग से अपना जीवन बिता रहा है और मन का उसे पता हो ऐसा भी नहीं कह सकते।  जबकि मन को शरीर का भी पता होता था, खुद का भी और दुनिया का भी।  लेकिन मन का यह सारा ज्ञान बस उसकी याददाश्त भर होता था।  इसलिए जब मन कुछ कहता था तो वह एक विचार भर होता था। मन सोचता था कि शरीर उसका गुलाम है, लेकिन मन को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि वह खुद विचार का गुलाम है ! विचार जो याददाश्त से आते हैं, वहीं जमा रहते हैं, घटते बढ़ते रहते हैं।
और विचार को यह नहीं पता था कि मस्तिष्क ही उसे क्षणिक अस्तित्व देता है।
फिर मस्तिष्क भी दो तरह की याददाश्त रखता है। एक तो विचार के रूप में, दूसरी अनुभव के रूप में।
ये दोनों भी पहला तो इम्पल्स (impulse) के रूप में और दूसरा रासायनिक प्रतिक्रियाओं के रूप में होता है। शरीर भी इन दो तरह की भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है, और जब तक ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं, शरीर को जीवित कहा जाता है।
Conversely,
जब तक शरीर जीवित रहता है, ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं।
(शरीर के दूसरे हिस्सों और ) मस्तिष्क में चलनेवाली  ये दोनों भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ यूँ तो दो तरह की होती हैं, लेकिन जैसे voltaic cell में रासायनिक ऊर्जा बिजली में बदल जाती है, और electrolysis में विद्युत् - ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है, और हालाँकि होती दोनों एक ही हैं पर दिखलाई देती है दो रूपों में, वैसे ही शरीर में चल रहे impulses और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ मूलतः एक ही शक्ति के दो रूप भर होते हैं।
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मन कुछ नहीं कहता, यह तो विचार होता है जो मन की सतह पर उभर आता है, और फिर डुबकी लगा जाता है। वही, जिसे मस्तिष्क लगातार उगलता रहता है। जो हर बार नए रंग रूप में सामने आता है। 
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'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
जब यह विचार सतह पर उभरकर आता है, तो ज़ाहिर सी बात है कि शरीर ऐसा कोई ख्याल नहीं कर सकता। इस गूढ विचार की anatomy / physiology पर ध्यान दें तो समझ में आ जाता है कि विचार जो एक impulse का ही शब्दीकरण (verbalization) है, न तो खुद को मार सकता है, न शरीर को।  वह बेचारा तो जैसे ही पैदा होता है, तुरंत ही खो भी जाता है। इसलिए जब
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
यह विचार मन में आता है तो यह अपने आप में absurd ख्याल ही होता है ! यह विचार 'कौन' करता है? ज़ाहिर है कि 'विचार करनेवाला' कहीं कोई अलग से नहीं होता।  लेकिन मन ही 'मैं' के भ्रम से ग्रस्त हो जाता है और शरीर को और शरीर के सन्दर्भ से  नाम-रूपधारी व्यक्ति को 'मैं' कहा जाता है। जो सिर्फ बस एक ख्याल ही तो होता है!
हृदय  इस सब से अछूता बस देखता रहता है इस नाटक को।  वह न कुछ कहता है, न सोचता है, और न चाहता या करता है।  लेकिन उसे कौन जानता है?  जो जानता है क्या वह हृदय ही नहीं है?
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इसलिए
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
का ख्याल मूलतः एक भ्रम का ही परिणाम है। भ्रम से उत्पन्न होनेवाला एक विचार।
जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो शरीर और मन की 'जरूरतों' के बीच टकराहट नहीं होती।  दोनों अपना अपना जीवन साथ साथ लेकिन स्वतंत्र भी जीते रहते हैं और जीवन जब चाहता है, हृदय तब देखता है कि अब वे और उनका नाटक समाप्त हो चुका।
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कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 14

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -14
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बचपन में कभी कभी जब मैं कहता था, :
'मुझे भूख लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन नहीं है,'
या,
'मुझे भूख नहीं लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन हो रहा है,'
तो लोग मुझे पागल समझने लगते थे।
अब 55 साल बाद जब मैं कहता हूँ,
'मुझे आत्महत्या करने का मन हो रहा है, लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,'
या,
'मैं मरना तो चाहता हूँ लेकिन मेरा आत्महत्या करने  का मन नहीं हो रहा,'
तो भी लोग मुझे पागल समझने लगते हैं,
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इस छोटी सी समझ ने मुझे समझाया कि मन और शरीर की जरूरतें कभी तो एक जैसी होती हैं और कभी कभी ऐसा नहीं भी होता। और जब ऐसा नहीं होता तो जीवन में द्वंद्व / दुविधा पैदा होती है।
लेकिन क्या मन की और शरीर की जरूरतें अक्सर ही अलग-अलग नहीं होती हैं?
हम मन की जरूरतों को 'इच्छा' कहते हैं, और जब शरीर की जरूरतों को इस इच्छा की तुलना में कम महत्व देते हैं, तब शरीर मन का, और मन भी शरीर का ध्वंस करने लगते हैं।
और इस ध्वंस से उबरने का न तो कोई रास्ता होता है, न रास्ते की जरूरत,  यह तो जीवन की जरूरत है, रीत भी, और उल्लास भी है ।
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बचपन में ही एक गाना सुना था,
आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है, … '
दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो हैं !
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August 15, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 13

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 13
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गीता - सन्दर्भ  लगभग पूरा हो चला है।  जब शुरू किया था तो ख्याल नहीं था कि इसे कैसे लिखना है ! फिर एक दिन वह भी आया जब सोच रहा था कि शायद ही आगे और लिख पाऊँगा, लेकिन उस दिन सुबह के वक़्त अश्वत्थ के समीप पहुँचा तो उसने पूछा :
"आजकल silent dialogues     नहीं लिख रहे?"
मैंने कुछ अचरज से उसे देखा ।
"नहीं, …"
"फ़िर मेरे बारे में गीता वाले ब्लॉग में लिख सकते हो !… "
"यह प्रश्न है या सलाह ?"
मैंने परिहास किया।
"न प्रश्न, न सलाह, बस एक अनुरोध भर है !"
मैं सोच में पड़ गया।
"लेकिन कुछ सूझ नहीं रहा कैसे लिखूँ , क्या लिखूँ ?"
"तुम अंत से शुरू करो। "
"मतलब?"
वह इस बीच डिसकनेक्ट हो चुका था।
सुबह का भ्रमण कर लौटा तो देवी अथर्व का पाठ करते हुए एक बीजाक्षर चित्त में अंकुरित हो उठा ।
थोड़ी देर बाद ब्लॉग देख रहा था तो वही बीजाक्षर पुनः चित्त में लहलहा रहा था।  एक अद्भुत उल्लास में विभोर यूँ ही गीता के पन्ने पलटने लगा तो वही बीजाक्षर वहाँ प्रत्यक्ष साक्षात् दर्शन दे रहा था।
दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुका कर मैंने प्रणाम किया और गीता बंद करने लगा।  अंतिम पृष्ठ पर पुनः जब उसके ही दर्शन हुए तो मैंने पुनः प्रणाम किया और अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
उसी दिन शाम के भ्रमण के समय अश्वत्थ को देखते हुए मन ही मन मैं उसी बीजाक्षर का ध्यान  कर रहा था कि सोचा अब मैं इसी से गीता की नई पोस्ट्स लिखूँगा।
तब (18 जनवरी 2014) से गीता-सन्दर्भ के ब्लॉग्स सुचारु रूपेण लिखता चला गया हूँ।
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इस बीच दिल्ली में सत्ता सूत्र दूसरे हाथों में चले गए।
आज  twitter पर नरेंद्र मोदी के लाल किले पर दिए गए स्वतंत्रता दिवस के संबोधन के बारे में लिखे  tweets पर ध्यान गया तो computer बंद कर ट्रांज़िस्टर पर उसे सुनता  रहा।
मुझे लगा कि अब हमने ऐसा प्रधानमंत्री पाया है, जो dreamer नहीं visionary है और जिससे बहुत उम्मीदें की जा सकती हैं।
मुझे मई 2014 लिखी मेरी वो पोस्ट्स भी याद आईं जिनमें मैंने उनका ज़िक्र किया था और स्वामी विवेकानंद से उनकी तुलना की थी, सिर्फ़ मनोरंजन की दृष्टि से।
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ध्वंस का उल्लास जारी है।
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July 23, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 12.

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 12.
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 सुबह ’गीता-सन्दर्भ’ के लिए लिखे कुछ ब्लॉग्स् पोस्ट किए ।
दोपहर में एक बजे से साढ़े तीन बजे तक सोया । कल रात भर खूब वर्षा हुई । आज सुबह वॉक पर गया तो मानों उस आधे घंटे के लिए वर्षा ने ब्रेक ले लिया था ।
शाम पाँच से छः बजे तक भी मेघों ने खुला आसमान देखने दिया।
घर लौटते-लौटते वे घिर आए हैं  । दोपहर तीन बजे सोकर उठा तो दस मिनट तक ’ब्रह्म-संहिता’ पढता रहा । कुल 62 अध्याय हैं । सुबह जब पढ़ रहा था, तो सोचा इसे ब्लॉग पर प्रस्तुत किया जा सकता है ।
अभी तीन बजे के बाद पढ़ा तो अन्तिम अध्याय के भाष्य (कमेंट्री) पर मेरी घड़ी बन्द मिली । अन्त में जो निष्कर्ष दिया गया उसमें वेद और वेदेतर साङ्ख्य, न्याय, योग आदि को भी त्रुटिपूर्ण आकलन बतलाया गया । किन्तु भाष्यकार स्वयं जिस धोखे का शिकार हो गए, उसकी उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती थी । उन्होंने ’काल’ को एक स्वतन्त्र तत्त्व की तरह स्वसिद्ध सत्ता के रूप में सत्यता दे दी थी । और इससे मुझे  आश्चर्य कदापि नहीं हुआ । जब आज का उन्नत तथाकथित विज्ञान तक ’काल’ के अस्तित्व और प्रकृति के संबंध में भ्रम से नहीं उबर पाया है, तो किसी भाष्यकार का, जो अपने मत को आग्रहपूर्वक प्रतिपादित करना चाहता है इससे उबर पाना कैसे संभव हो सकता है? deceptive logic / logical-deception पर क्या सिर्फ़ वैज्ञानिकों का ही एकाधिकार है?
वैसे मूल ’ब्रह्म-संहिता’ अवश्य ही अनुपम, अद्वितीय है इसमें कोई सन्देह कम से कम मुझे तो नहीं है ।
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कल रात्रि वह पूछ रही थी,
’प्रभु! क्या मैं बादलों से कम्युनिकेशन कर सकती हूँ ?’
’कैसे?’
’अगर मैं उन पर टॉर्च से रौशनी फेंकूँ तो क्या वे रिस्पॉन्ड करेंगे?’
स्पष्ट है कि वह मेरा ब्लॉग 'Love, The Clouds' देखती रहती है । उसे यह भी पता है कि मैंने ’अश्वत्थ’ और ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ में मेघों और प्रकृति से, खासकर वट और पीपल से हुए अपने संवादों को विस्तार से लिखा है । वह मुझे ’प्रभु’ या ’भगवान्’ या कभी-कभी ’रुद्र’ का संबोधन भी देती है, लेकिन मुझे इस बारे में कोई वहम नहीं कि यह सब महज़ औपचारिकता का हिस्सा है । और मैं उससे या किसी से ऐसी अपेक्षा भी नहीं कर सकता कि मुझे इस प्रकार से एक विशिष्ट व्यक्ति कहा / माना जाए । ’फ़ेसबुक’ पर उसने मुझसे ’दोस्ती’ की थी । बहरहाल उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि उससे मेरी कितनी भी अच्छी ट्य़ूनिंग हो, मेरे और उसकी जीवन-शैली के बीच कोई तालमेल नहीं हो सकता । और न इसकी कोई जरूरत मैंने और शायद उसने भी कभी महसूस की होगी । शुरु में वह उन लड़कों के बारे में मुझसे विचार-विमर्श किया करती थी, जो उसे पसंद करते हैं और उनमें से कुछ उससे शादी करने के इच्छुक भी हैं । दूसरी ओर वह उन लड़कों के बारे में भी बतलाया करती थी जिनसे ’रिश्ते’ के लिए उसके समाज में उसके माता-पिता प्रयासरत हैं । उसके लिए जन्म-पत्रिकाएँ मिलाना मेरा ही दायित्व था । और मेरे ज्योतिष ज्ञान के आधार पर मैं उससे / उनसे स्पष्ट कर चुका हूँ कि उसकी पत्रिका में सुखद वैवाहिक जीवन के योग बहुत प्रबल हैं भी नहीं । उसकी बड़ी बहन के डॉयवर्स हो जाने के बाद से वे शायद इस बारे में ज्यादा परेशान हैं ।
’अगर वे करेंगे भी तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि वे कर रहे हैं?’
’मैं एक्सपेरिमेन्ट तो कर सकती हूँ?’
’जरूर!’
’ओ.के. लेट मी ट्रॉय!’
’वैसे मैं चाहूँगा कि पहले तुम्हें उन्हें एक ’आईडेन्टिटी’ देनी चाहिए ।
’वो क्यों?’
’नहीं तो तुम यह कैसे तय करोगी कि जिस बादल से तुम डॉयलॉग करना चाहती हो वह कौन है? क्या उसके बदलते रंग-रूप से तुम्हें उसे पहचान पाना मुश्किल नहीं होगा?’
’सो हॉऊ कैन डू दैट?’
वह निराश हो गई ।
’यू मस्ट सी दे हैव ऍ कलेक्टिव-आईडेन्टिटी ... .  ’
’...’
’आई मीन, दे हैव ऍ कलेक्टिव-कॉन्शसनेस, ...’
’ओ.के. गॉट इट!’
’कैसे?’
’दे हैव द कलेक्टिव नेम ’इन्द्र’ एन्ड आई कैन एड्रेस द ’देवता’ इन्द्र ’डॉयरेक्टली!’
वह उत्साहित हो उठी ।
’लेकिन यह सब तुम्हारा विशफ़ुल-थिन्किंग भी तो हो सकता है?’
’नोऽऽऽऽ ! हॉऊ डेयर यू से दैट?’
वह थोड़ा निराशा और शिकायत के स्वरों में बोली ।
’ओ.के. लेट मी टेल यू द सिक्रेट’
मैं उसे अपनी तत्काल रची कविता सुनाता हूँ "
जैसे वह मुझे ’सर’, ’प्रभु’ कभी-कभी ’डैड’ या ’अंकल’ कह देती है, वैसे ही मैं उसे ’भवानी’, ’दुर्गा’, ’काली’ या ’देवी’ कह देता हूँ , लेकिन अक्सर मैं उसे उसके नाम से ही एड्रेस करता हूँ और प्रायः वह भी नहीं ।
’सुनो :
क्लॉउड्स आर बट क्लॉद्ज़ ऑफ़ देवी,
...
द क्लॉउड्स विल श्योर रिस्पॉन्ड !’
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’वॉन्डरफुल!’
वह मेरे कॉम्पोज़िशन की तारीफ़ करती है ।
’थैंक्स! बट ईवन इफ़ यू कुड कम्यूनिकेट विद देम / हिम ऐज़ इन्द्र ,यू कॉन्ट गिव ए प्रूफ़ ऑफ़ द सेम, ऑर कन्विन्स पीपुल ! एन्ड, इफ़ यू कुड कन्विन्स, दे विल स्टार्ट वरशिपिंग यू!’
’यस प्रभु, आई अन्डरस्टैण्ड द इन्द्र नॉऊ, एन्ड आई डोन्ट वॉन्ट टु कन्विन्स पीपुल, ...बट डू फील, आई कुड कन्वर्स वेल विद द क्लॉउड्ज़् रुद्र!’
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यह सब बातें कल हुईं थीं । मोबाइल से,एस-एम-एस से ।
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आज शाम के वॉक पर निकला तो सोचा कि उसे सरप्राइज़ दूँ । उसका घर यूँ तो मेरे रोज के वॉक से बहुत दूर विपरीत दिशा में है, लेकिन सड़कों की हालत देखते हुए आज मैंने अपना रूट बदल दिया । और जैसा कि तय किया था, मैंने उसके घर के बन्द दरवाज़े पर केवल एक बार नॉक किया । अन्दर टीवी चल रहा था, दो मिनट बाहर खड़ा रहा, फिर नॉक नहीं किया और लौट आया ।
रास्ते में सब्ज़ी खरीदी, एक ’बेक-समोसा’ और चार पेन्सिल-सेल लिए ट्रांज़िस्टर के लिए, और घर आकर समोसा खाया, चाय बनाकर पी ।
समोसा जिस क़ागज में लिपटा था, उसमें किन्हीं राममूरत राही का लिखा ’पत्र’ छपा था-
’शंकराचार्य ने साँई-भक्तों की भावनाओं को ठेस पहुँचाई है, उन्हें साँई-भक्तों से माफ़ी मांगनी चाहिए ।’
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बस इतना लिखा ही है कि मेरे उन दूसरे मित्र का एस-एम-एस आता है कि उन्होंने अपनी छुट्टी 30 तक एक्स्टेन्ड कर ली है, मतलब वे अब अगस्त में ही आएँगे मेरे यहाँ !
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July 12, 2014

आज की कविता / 12 /07 /2014 / आशा के वातायन

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 11

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 11
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उन्हें मेरा 'पात्रता', 'कर्तव्य', 'अधिकार' और 'उत्तरदायित्व' का 'मॉडल' पसंद आया ।
'देखिए, इस तरह से मैंने सोचा कि जब सचमुच हम 'अधिकार' की बात करते हैं, तो इससे जुड़ी बाक़ी तीन बातों पर ध्यान देना भूल जाते हैं।  सिर्फ 'पात्रता' होने से 'अधिकार' नहीं मिल जाता।  लेकिन बोलचाल की भाषा में हम इस बुनियादी शर्त को भूल जाते हैं, या जान-बूझकर नज़रंदाज़ कर देते हैं। और ऐसा करना ही हमारी 'पात्रता' की वैधता को संदिग्ध बना देता है।'
'जी,…'
'लेकिन मैं आपके 'समाज के अवचेतन' वाली बात से ज्यादा प्रभावित हुआ। आप तो विद्वान हैं, लेकिन मैं भी इन बातों पर सोचता हूँ और समझने की क़ोशिश करता हूँ। मुझे लगता है कि आपकी इस बात पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है।'
'मैं इससे भी एक क़दम पीछे जाना चाहता हूँ। '
'मतलब?'
'मतलब यह कि क्या मनुष्य कुछ करने या न करने के लिए स्वतंत्र होता है?'
'वह तो वह है ही ! स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।'
थोड़े नक़ली उत्साह से वे जवाब देते हैं। लेकिन तत्क्षण ही उन्हें अपनी बात में छिपी भूल नज़र आ जाती है।
'हाँ, यह तो मानना होगा कि आपके मॉडल में अधिकार तीसरी स्टेज पर है, इसलिए वह जन्म-सिद्ध कैसे हो सकता है?'
'मतलब स्वतंत्रता नामक कोई चीज़ वस्तुतः होती ही नहीं ?'
'जी।'
वे सोच में पड़ गए।
'और धार्मिक या राजनैतिक स्वतंत्रता?'
'धर्म तो सदैव एक स्वतंत्र तत्व है, लेकिन धार्मिक या राजनैतिक स्वतंत्रता जो वास्तव में एक ही चीज़ के दो अलग अलग नाम हैं, का तात्पर्य है किसी समुदाय या वर्ग के अधिकारों की स्वतंत्रता।'
'और  स्वतंत्रता से आपका क्या आशय है?'
'धर्म ही एकमात्र स्वतंत्र तत्व है जो सम्पूर्ण अस्तित्व की तमाम गतिविधियों को संचालित करता है।'
'और वह स्वतंत्र कैसे है?'
'बल्कि स्वतंत्र से बढ़कर, वह तो निरंकुश भी है, क्योंकि उस पर किसी दूसरे का नियंत्रण नहीं हो सकता।'
'ईश्वर?'
'क्या धर्म ही एकमात्र ईश्वर नहीं है?'
'तो क्या मनुष्य केवल उद्वेलित होने, एक दूसरे से लड़ने झगड़ने के अलावा, और कुछ नहीं कर सकता ?'
 'मनुष्य तो चाहने या न चाहने के लिए भी कहाँ स्वतंत्र  है?'
'तो क्या मनुष्य किसी बात के लिए स्वतंत्र है भी?'
'हाँ सिर्फ यह देखने के लिए कि स्वतंत्रता शब्द सीमित सत्ता पर लागू नहीं होता।'
'जी धन्यवाद, मैं बस स्तब्ध हूँ, मैंने कभी इस तरह से नहीं सोचा था।'
'यू आर ऑल्वेज़ वेलकम !'
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July 11, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 10

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 10
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इन दिनों स्वामी स्वरूपानंद शंकराचार्य नाम अखबारों की सुर्ख़ियो में रहता है।  मेरे पास न तो टीवी है, न उसके लिए समय।  लेकिन मिलने जुलने वाले किसी बहाने से मुझे टटोलते / कुरेदते रहते हैं।
ऐसे ही एक परिचित पिछले दिनों फ़ोन पर मुझसे चर्चा करते रहे।  मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य (यह तो समय ही बतलाएगा) कि वे मेरी किन बातों को वे टेप करते हैं, और उन्होंने मुझसे कह भी रखा है कि आपको बतलाकर ही मैं टेप कर रहा हूँ, आप थोड़ा सावधानी से बोलिए।  लेकिन मेरे लिए यह काफ़ी कठिन है।
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उन्होंने मुझसे 'पात्रता' / 'कर्तव्य' / 'अधिकार' एवं 'उत्तरदायित्व' के बारे में मेरे विचार जानने के लिए मुझसे कई बार विस्तार से चर्चा की है।  और मेरा विश्वास है कि वे मेरे विचारों से काफी हद तक  संतुष्ट हैं।
उनसे फीडबैक लिया तो बोले :
'हम अधिकार की बात करते हैं, विकास का अधिकार, अवसरों की समानता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार, और भी बहुत से अधिकार जिनकी बात तथाकथित  मानवतावादी संगठन भी जोर-शोर से किया करते हैं।  मज़े की बात ये है कि कई बार दो प्रकार के अधिकार परस्पर विरोधी / विपरीत भी हुआ करते हैं।  जैसे स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार।  क्या कोई भी धर्म स्त्री-पुरुष की समानता के अधिकार का पक्षधर है? और क्या स्त्री-पुरुष जन्मना ही किसी हद तक भिन्न-भिन्न प्रकृति के नहीं होते?'
'जी।'
'स्वाभाविक है तब उनके अधिकारों की प्रकृति में भी उस हद तक भिन्नता होगी।'
'जी'
मेरे सौभाग्य से उनका कोई दूसरा कॉल बीच में ही आया तो उन्होंने मुझे सॉरी कहकर होल्ड पर पटक दिया।
और फिर शायद मुझे भूल ही गए।
फिर मैं भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
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फ़ोन पर शायद इस बारे में विस्तार से चर्चा करना असुविधाजनक भी था।  और जब तक आप कोई 'स्थापित' व्यक्ति न हों, कौन इतनी ज़हमत उठता है कि आपकी बातों पर ध्यान दे। किसके पास समय है कि आपके 'विचारों' पर फ़ीडबैक दे? किसके पास इतना वक़्त है कि आपकी बातों को सुने भी?
बहरहाल 'ब्लॉग' का धन्यवाद कि आप जब चाहें अपने घर में बैठे बैठे अपनी बाँसुरी सुर में या बेसुरी, जैसी भी चाहें बजा और सुन सकते हैं !
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सवाल यह नहीं है कि स्वामीजी सही हैं या नहीं, लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया है वह अवश्य ही एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है।  अर्थात् यह कि यदि आप चाहते हैं कि आपकी आस्था पर कोई चोट न करे तो आपको भी दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना होगा।
साईं बाबा के भक्त उन्हें अवतार मानें या भगवान मानें यह उनकी अपनी आस्था है। और 'स्वतंत्रता' भी है। लेकिन जब साईं की तुलना राम या कृष्ण से की जाएगी तो राम और कृष्ण को भगवान माननेवालों की आस्था पर चोट लगना स्वाभाविक है।  ज़ाहिर है कि मंदिर में राम और शिव, काली और दुर्गा, गणेश और बुद्ध, महावीर और तीर्थंकर की प्रतिमाएँ उनके भक्त अपनी अपनी स्वतंत्र आस्था के अनुसार रखते हैं। यदि कोई अपने घर में मंदिर बनाकर कोई अपने इष्ट की पूजा अपने ढंग से करता है तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन जब कोई अपने इष्ट को समाज पर थोपने लगें, तो दूसरों की आस्था पर चोट लगना बिलकुल स्वाभाविक है। न सिर्फ यह, बल्कि अपनी आस्था का, 'धर्मप्रचार' की स्वतंत्रता के अधिकार का नाजायज़ फायदा लेते हुए जब कोई समाज के कुछ वर्गों के मन में नई-नई धारणाएँ आरोपित करता है, तो बीस या पचास साल बाद वे धारणाएँ उनकी 'आस्था' का हिस्सा बन बैठती हैं।  इसे क्या कहा जाए? समाज के अवचेतन में ज़मा ऐसी अनेकों धारणाओं से शायद ही किसी का भला होता होगा।
यदि किसी का भगवान या इष्ट सचमुच प्राणिमात्र के प्रति करुणाशील है, तो यह कदापि स्वीकार न करेगा कि उनका भक्त किसी दूसरे की आस्थाओं को विरूपित भी करे। चोट पहुँचाना तो बहुत दूर की बात है।
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