आज की कविता / 17/09/2014.
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© विनय वैद्य, उज्जैन,
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मन्दिर नहीं जानते
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मन्दिर नहीं जानते,
प्रशंसा,
वे सिर्फ़ खड़े रहते हैं,
आशीर्वाद देने को,
चाहें आप उनमें विराजित प्रतिमा की पूजा करें,
या उसे तोड़ दें,
चाहे आप उसे किसी दर्शन, धर्म या सिद्धान्त का नाम देकर,
तलवार बना लें,
काट दें उन सब को,
जिनके हाथों में हैं,
ऐसी ही दूसरी तलवारें,
चाहें आप उस मन्दिर को ही तोड़कर,
नाम दे दें अपने धर्मस्थल का,
और घोषित कर दें,
कि आपका धर्म ही एकमात्र ईश्वरीय धर्म है,
बाँट दें पूरे विश्व को,
सिर्फ़ दो मज़हबों में,
और जो आपके मज़हब को नहीं मानता,
उसे मिटा देना आपका परम धार्मिक कर्तव्य है,
हाँ एक तीसरा मज़हब भी इसमें आपका मददग़ार होता है,
जो या तो बुद्धिजीवी होता है,
प्रतिष्ठित,
या बस अवसरवादी,
जिसके कोई सिद्धान्त नहीं होते,
वह मन्दिर की सत्ता का भी मज़ाक उड़ाता है,
किन्तु आपके धर्म, और आपके ईश्वर पर उँगली नहीं उठाता,
क्योंकि उसे मन्दिर के होने न होने से कोई मतलब नहीं,
वह मन्दिर से तो नहीं, लेकिन आपकी तलवार से जरूर डरता है,
और वक़्त आने पर खुद ही रख देता है शीश,
आपके चरणों में,
और जिसे मतलब है,
वह किसी मज़हब तक बँधा नहीं होता,
वह सिर्फ़ अपने मज़हब का पाबन्द होता है,
कि मज़हब मुक्ति है,
मज़हब स्वतन्त्रता है,
और यह तभी होती है,
जब आप दूसरों की मुक्ति का सम्मान करते हैं,
और इसे न तो आप किसी को दे सकते हैं,
न कोई और आपको दे सकता है,
लेकिन कोई इसे आपसे छीन भी नहीं सकता,
मुक्ति,
जो वह आपके आदर्शों और विश्वासों से विपरीत ही क्यों न हो ।
और तब आप निर्भय होते हैं,
आप मिटने से नहीं डरते,
क्योंकि मिटना तो जीवन की रीत है,
पर फ़िर भी, तब आप मिटाने से ज़रूर डरते हैं,
क्योंकि आप अस्तित्व का सम्मान करते हैं,
अपने, और सम्पूर्ण, -अथाह जीवन का,
जिसमें आपके होने-न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
क्योंकि आप उससे पृथक् नहीं हैं,
क्योंकि यह अपने आपको ही मिटाने का सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तरीका है,
और तब आप समझ पाते हैं,
कि मन्दिर मिट क्यों जाते हैं, मिटाते क्यों नहीं?
मन्दिर जानते हैं अमर होना,
और देते हैं यही आशीर्वाद,
बिना कहे ।
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© विनय वैद्य, उज्जैन,
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मन्दिर नहीं जानते
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मन्दिर नहीं जानते,
प्रशंसा,
वे सिर्फ़ खड़े रहते हैं,
आशीर्वाद देने को,
चाहें आप उनमें विराजित प्रतिमा की पूजा करें,
या उसे तोड़ दें,
चाहे आप उसे किसी दर्शन, धर्म या सिद्धान्त का नाम देकर,
तलवार बना लें,
काट दें उन सब को,
जिनके हाथों में हैं,
ऐसी ही दूसरी तलवारें,
चाहें आप उस मन्दिर को ही तोड़कर,
नाम दे दें अपने धर्मस्थल का,
और घोषित कर दें,
कि आपका धर्म ही एकमात्र ईश्वरीय धर्म है,
बाँट दें पूरे विश्व को,
सिर्फ़ दो मज़हबों में,
और जो आपके मज़हब को नहीं मानता,
उसे मिटा देना आपका परम धार्मिक कर्तव्य है,
हाँ एक तीसरा मज़हब भी इसमें आपका मददग़ार होता है,
जो या तो बुद्धिजीवी होता है,
प्रतिष्ठित,
या बस अवसरवादी,
जिसके कोई सिद्धान्त नहीं होते,
वह मन्दिर की सत्ता का भी मज़ाक उड़ाता है,
किन्तु आपके धर्म, और आपके ईश्वर पर उँगली नहीं उठाता,
क्योंकि उसे मन्दिर के होने न होने से कोई मतलब नहीं,
वह मन्दिर से तो नहीं, लेकिन आपकी तलवार से जरूर डरता है,
और वक़्त आने पर खुद ही रख देता है शीश,
आपके चरणों में,
और जिसे मतलब है,
वह किसी मज़हब तक बँधा नहीं होता,
वह सिर्फ़ अपने मज़हब का पाबन्द होता है,
कि मज़हब मुक्ति है,
मज़हब स्वतन्त्रता है,
और यह तभी होती है,
जब आप दूसरों की मुक्ति का सम्मान करते हैं,
और इसे न तो आप किसी को दे सकते हैं,
न कोई और आपको दे सकता है,
लेकिन कोई इसे आपसे छीन भी नहीं सकता,
मुक्ति,
जो वह आपके आदर्शों और विश्वासों से विपरीत ही क्यों न हो ।
और तब आप निर्भय होते हैं,
आप मिटने से नहीं डरते,
क्योंकि मिटना तो जीवन की रीत है,
पर फ़िर भी, तब आप मिटाने से ज़रूर डरते हैं,
क्योंकि आप अस्तित्व का सम्मान करते हैं,
अपने, और सम्पूर्ण, -अथाह जीवन का,
जिसमें आपके होने-न होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता,
क्योंकि आप उससे पृथक् नहीं हैं,
क्योंकि यह अपने आपको ही मिटाने का सर्वाधिक मूर्खतापूर्ण तरीका है,
और तब आप समझ पाते हैं,
कि मन्दिर मिट क्यों जाते हैं, मिटाते क्यों नहीं?
मन्दिर जानते हैं अमर होना,
और देते हैं यही आशीर्वाद,
बिना कहे ।
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