December 31, 2019

मैंने सुना है... !

Happy New Year !
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एक लड़का, कुछ कुछ पागल सा,
उस पहाड़ी पर खड़ा है, जिसके शिखर पर कोई ध्वज लहरा रहा है।
नीचे उस रास्ते पर असंख्य लोग खड़े हैं जो शिखर तक जाने के लिए अनुशासन का पालन करते हुए कतारबद्ध खड़े हैं और अपनी बारी आने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
एक व्यक्ति अब उस लडके के पास पहुँच चुका है।
लड़का चिल्लाता है :
"उन्नीस, उन्नीस, उन्नीस .. "
"उन्नीस ....?"
वह व्यक्ति पूछता है।
"उधर देखो!" :
लड़का बोलता है।
वह व्यक्ति जब झाँककर रास्ते के किनारे की उस गहरी खाई की तरफ देखता है, जहाँ अनगिनत लोग चीख कराह रहे होते हैं,  तो लड़का एक जोर की लात मारकर उसे खाई में धकेल देता है।
"बीस, बीस, बीस, ... "
अब लड़का चिल्लाने लगा है।
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Welcome '20,
With All the best wishes.
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December 30, 2019

राम राम !

शीत का एक सर्द दिन,
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19 मार्च 2016 को उज्जैन छोड़ा था।
उसी दिन रात्रि 9:00 बजे नावघाट-खेड़ी पहुँचा।
5 अगस्त 2016 की सुबह नर्मदा किनारे का वह स्थान भी छोड़ा जहाँ पूरे चार माह 25 दिन रहा था।
बाद के एक हफ़्ते उसी छोटे से गाँव के एकमात्र बड़े से हॉस्पिटल में मेहमान था।
5 अगस्त को देवास आया और जहाँ साल भर से परफेक्ट कार सर्विस का वर्कशॉप है, उसके पिछले हिस्से में पूरे 3 साल 3 माह 23 दिन रहा।  24 नवंबर 2019 की शाम  वहाँ से उज्जैन आ गया हूँ।
अभी यहाँ से कहीं जाने का विचार नहीं है।
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कल साल का आख़िरी दिन है।
नया पोस्ट नए साल में।
राम राम !

 
  

December 27, 2019

विषवृक्ष

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
विषवृक्ष
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संयोगवश भारत राष्ट्र के दोनों राष्ट्रगीत बांग्ला साहित्यकारों की लेखनी से लिखे गए हैं।
18 दिसंबर 2019 को नख-शल-वाद शीर्षक से एक छोटा पोस्ट लिखा, तो ख़याल आया कि किस प्रकार सूर्य-ग्रहण के समय चन्द्रमा सूरज को ढँक लेता है।
कुछ ऐसा ही लगता है अगर दोनों राष्ट्रगीतों के इन दोनों रचनाकारों के व्यक्तित्व की तुलना की जाए।
शायद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी प्रकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रभामंडल को ढँक लिया था।
और भारत के राष्ट्रगान के लिए 'जन-गण-मन' का चयन कर लिया गया।
साहित्यिक प्रतिभा की दृष्टि से बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर से उन्नीस नहीं थे, किन्तु अपने राजनैतिक विचारों और आचरण के कारण उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जो दिया जाना चाहिए था।
उन्हें नोबेल-पुरस्कार दिए जाने का तो इसीलिए सवाल ही नहीं उठता था।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिए जाने के पीछे और भी कुछ कारण हो सकते हैं किन्तु अनेक ऐसे और भी महान भारतीय लेखक / साहित्यकार हैं जो उनके समान ही प्रतिभावान थे यद्यपि उन्हें इस पुरस्कार के लिए प्रस्तावित तक नहीं किया गया। शायद यह संयोग ही है।    
रवीन्द्रनाथ ने जो राष्ट्रगीत लिखा था उसके मुख्य प्रयोजन के बारे में हमेशा विवाद रहा है, और नख-शल-वादी विषवृक्ष की जड़ों से पोषित होनेवाली उसकी शाखाएँ आज भी इसका सम्मान करने में स्वयं को अपमानित अनुभव करती है।
फिर 'वन्दे-मातरम्' भी उनके लिए इतना ही, या शायद इससे भी अधिक अस्वीकार्य है।
शायद यह विवाद का विषय नहीं है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखे गए राष्ट्रगीत के मूल में उनका क्या प्रयोजन था, और इस गीत का चयन राष्ट्रगीत / राष्ट्रगान के लिए किया जाना कितना उचित था। किन्तु   
'वन्दे-मातरम्' के साथ साथ 'जन-गण-मन' को भी विवादास्पद बना दिया जाना अवश्य ही चिंता का विषय है।
जब तक नख-शल-वाद के इस विषवृक्ष का समूल उच्छेदन नहीं कर दिया जाता, भारत को सतत संघर्ष करते रहना होगा।
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'वन्दे-मातरम्' या 'बन्दे-मातरम्' की रचना सन् 1870 के आसपास हुई थी, 'जबकि जन-गण-मन' का प्रथम बार सन् 1911 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पाठ किया गया था।
एक प्रश्न यह भी उठाया जा सकता है कि क्या गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को इसकी प्रेरणा 'वन्दे-मातरम्' से मिली होगी?     

December 25, 2019

जलधि लाँघ गए अचरज नाहीं !

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माँही 
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हनुमान जी ने प्रभु श्रीराम की मुद्रिका (अनामिका में पहने जानेवाली अँगूठी) मुख में रखी और जलधि को लांघ गए इसमें आश्चर्य की क्या बात है?
जब मन (हनुमान) राम नाम रूपी मुद्रा को मुख में धारण कर लेता है तो जल (मन) तथा उसके आगार (धि) अर्थात् बुद्धि का अतिक्रमण कर लेता है।
यः बुद्धेः परतस्तु सः ....
[इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43
-गीता अध्याय 3 ]
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धर्म / धर्मनिरपेक्षता, Religion & (Secularism)

क्या धर्म मन है?
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सभ्यता / संस्कृतियों का मनोवैज्ञानिक युद्ध 
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
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क्या कर्म कुरुक्षेत्र है?
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फिर धर्म / Religion, धर्मनिरपेक्षता / Secularism,
सभ्यता (Civilization) संस्कृति (Culture) और राष्ट्रवाद (Nationalism) क्या है?
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December 24, 2019

बाल समय रवि भक्ष लियो तब,

बाल समय रवि भक्ष लियो तब,
तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
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ॐ हं हनुमते नमः
वैसे तो यू-ट्यूब पर ज्योतिष से संबंधित विडिओ कम ही देखता हूँ, लेकिन संयोगवश एक ऐसा वीडिओ देखने को मिला जो अवश्य ही प्रेक्षणीय लगा।
विशेष यह कि प्रस्तुतकर्ता ने जिस प्रकार भारत के सन्दर्भ में ग्रहों की गति के अनुसार भारत पर उसके प्रभाव की विवेचना की है, वह प्रशंसनीय है।
ग्रह-नक्षत्रों की प्रवृत्ति उनके आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक सन्दर्भों के अनुसार स्थूल, सूक्ष्म और कारण स्तरों पर समझी और विवेचित की जा सकती है।
हनु का अर्थ इसमें बिजित दो वर्णाक्षरों 'ह' तथा 'न' के आधार पर देखा जा सकता है।
संस्कृत व्याकरण में ये दोनों प्रत्यय की तरह अनेक अर्थों में परस्पर स्वतंत्र दो शब्दों की तरह प्रयुक्त किए जाते हैं। कारण-स्तर पर 'हनु' इस प्रकार मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा का नाम है।
सूक्ष्म स्तर पर यह उस देवता का नाम है जो मुख्यतः प्राण-तत्व है और इसलिए :
सूक्ष्म-रूप धरि सियहिं दिखावा,
विकट रूप धरि  लंक जरावा,
भीम रूप धरि असुर संहारे,
तथा
ज्यों ज्यों सुरसा बदन बढ़ावा,
तासु दून कपि रूप दिखावा,
में श्री हनुमान जी के इसी लक्षणों का दर्शन होता है।
स्थूल आधिभौतिक स्तर से देखें तो वे राहु और शनि जैसे ग्रहों को भी पछाड़ देते हैं।
शनि सूर्य-पुत्र हैं, राहु सिंहिकागर्भसम्भूत हैं।
शनि छाया के पुत्र हैं, यम संज्ञा के पुत्र हैं।
इस प्रकार आध्यात्मिक अर्थ में दोनों क्रमशः कृत्रिम ज्ञान तथा चेतना-रूपी जीव के स्व-संवेदन रूपी ज्ञान के निदर्शक हैं। वहीँ राहु राक्षसरूपी तमोगुण का लक्षण है।
भारत के सन्दर्भ में यदि निकट अतीत, वर्त्तमान और निकट भविष्य में ग्रह-गति का अवलोकन करें तो बृहस्पति / गुरु  अस्त है।  बृहस्पति देवताओं के गुरु हैं, जबकि गुरु ग्रह पृथ्वी की भाँति वह स्थूल पिंड है जो पृथ्वी की तरह सूर्य की परिक्रमा करता है।
पृथ्वी स्वयं भी अपने अक्ष पर सूर्य के प्रति सिर झुकाकर प्रदक्षिणा करती है।
पृथ्वी को अपने अक्ष पर प्रदक्षिणा / परिक्रमा करने में जहाँ पूरे चौबीस घंटे का समय लगता है, वहीँ गुरु को लगभग केवल दस घंटे का समय लगता है।
किन्तु दोनों ही सूर्य की प्रदक्षिणा / परिक्रमा भी करते हैं।
किसी देवता की परिक्रमा / प्रदक्षिणा करने का तांत्रिक अर्थ है उसे अपने दाहिनी ओर रखते हुए उसके चारों ओर चलना। दूसरी ओर प्रदक्षिणा का एक तरीका और भी है, और जो प्रायः इसके बाद किया जाता है, - वह है अपने स्थान पर खड़े होकर स्वयं के ही चारों और परिभ्रमण करना।  यह भी दो प्रकार से किया जा सकता है। किन्तु मुख्यतः इसे भी इस प्रकार किया जाता है कि शरीर के दाहिने हिस्से को केंद्र में रखा जाए और बाँए को परिधि पर। इसमें भी सूक्ष्म-कारण यही है कि मनुष्य का भौतिक (शारीरिक) हृदय यद्यपि शरीर के बाँए हिस्से में होता है, उसका आध्यात्मिक हृदय शरीर के दाहिने हिस्से में।  तात्पर्य यह कि जीवात्मा का स्थान यद्यपि शरीर के भौतिक (शारीरिक) हृदय में है, किन्तु परमात्मा का स्थान उसके आध्यात्मिक हृदय में होता है।
गीता में इस बारे में अध्याय 18 में कहा गया है:
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानां यन्त्रारूढानि मायया।।61
इस प्रकार प्राणी या तो माया के द्वारा परिभ्रामित हुआ संसार के चक्र में घूमता रहता है या अपनी ही आत्मा के चतुर्दिक घूमकर ईश्वर की प्रदक्षिणा कर सकता है।
श्री रमण महर्षि विशेष रूप से उपरोक्त सिद्धांत का वर्णन करते हैं की किस प्रकार ईश्वर को अपने ही भीतर पाया जा सकता है, और उसका संकेत करते हुए स्थूल भौतिक और आधिदैविक तथा आध्यात्मिक हृदय की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं।
पुनः हनुमान जी के सन्दर्भ में :
"बाल-समय रवि भक्ष लियो" का दर्शन इस अर्थ में भी किया जा सकता है कि मन, जो कि 'मैं' का ही समानार्थी और समलक्षण है, हनुमान (देवता-तत्व) है जो क्रमशः जागृत स्वप्न तथा सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं / लोकों  से गुजरता रहता है। वही मन जब अपने ही प्रकाशक (सूर्य) को ग्रस लेता है तो उसके तीनों लोकों में अन्धकार व्याप्त हो जाता है। इसी प्रकार स्थूल स्तर पर भी, जब राहु सूर्य को ग्रास लेता है तो जगत / संसार अंधकारमय हो जाता है।
चूँकि 26 दिसंबर 2019 को होनेवाले सूर्यग्रहण में बृहस्पति भारत में अस्त प्रतीत होंगे इसलिए यह ग्रहण भारत के लिए तथा विश्व में भी जहाँ जहाँ देखा जा सकेगा, वहाँ वहाँ अनिष्टप्रद होगा।
भारत में चल रहा दौर इसी का द्योतक है और आशा की जा सकती है कि बृहस्पति के उदय के बाद वर्तमान उपद्रव, अशांति, हिंसा आदि का यह दौर समाप्त हो जाएगा।
चूँकि बृहस्पति के साथ सूर्य और शनि पर भी राहु की दृष्टि है, इसलिए यह दौर राजनीतिक घटनाक्रम की दृष्टि से भी उथल-पुथल पैदा करेगा।
इस दृष्टि से यह संयोग अवश्य ही रोचक और बहुआयामी अनेक संकेत देता है।
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December 22, 2019

युगान्तर - कविता / 22 / 12 / 2019

अग्नि और जल 
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आग जल रही है,
जल गर्म हो रहा है,
वह जल हो रही है,
वह आग हो रहा है।
हवा बह रही है,
रेत उड़ रही है,
वह हवा हो रही है,
वह रेत हो रहा है।
वह जो कि पुरुष है,
वह जो कि स्त्री है,
वह पुरुष हो रही है,
वह स्त्री हो रहा है,
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युगान्तर
कविता / 22 / 12 / 2019
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आरंभ / आरम्भ

20 जनवरी 2009 
के दिन यह ब्लॉग आरम्भ किया था।
इसे आरंभ करते समय कल्पना नहीं थी कि दस वर्षों से अधिक तक यह क्रम चलता रहेगा।
आभार गूगल का !
नेट मेरे लिए कोई व्यावसायिक आवश्यकता नहीं है, इसलिए तब थोड़ी कोफ़्त होती है जब पूरे नेट को शुद्धतः व्यवसायपरक होता हुआ देखता हूँ। इस पूरे दशक में फेसबुक और ट्विटर पर भी कुछ वर्षों तक अभिव्यक्ति देता रहा। राजनीति, कला, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य को इस हद तक व्यवसायपरक और व्यवसाय-केंद्रित बना दिया गया है कि जो व्यक्ति केवल सृजनात्मक स्फूर्ति से प्रेरित होने से कुछ रचता है, अगर वह साधनहीन हो; -जिसकी रुचि पैसे कमाने के लिए ज़रा भी न हो तो इस धन-केन्द्रित सभ्यता, समाज, संस्कृति, व्यवस्था में उसके लिए सूचना के स्रोतों तक पहुँचना भी कठिन हो जाता है।
मुझे कभी कहीं से सहायता मिली तो ऐसे लोगों से जिनके बारे में मुझे कुछ पता तक नहीं था।
इसलिए बिना किसी स्वार्थ के नेट पर कार्य करते रह पाना संभव हो सका।
दूसरी ओर साधन-संपन्न वर्ग के वे लोग हैं चाहे राजनीति, फिल्मोद्योग, साहित्य आदि से जुड़े हों, या किसी सामाजिक सरोकार से, जिनके अनेक महान लक्ष्य, महत्वाकाँक्षाएँ, ध्येय, उद्देश्य होते हैं।
उनसे न तो मेरी स्पर्धा है न उनके बारे में मेरी कोई राय है।
बस इतना ज़रूर लगता है कि लिखता रहूँ, चाहे कोई इसे पढ़े या न पढ़े।
जो इसे पसंद न करेगा, उससे ऐसा आग्रह या अपेक्षा भी नहीं है।
शायद और कुछ समय (जब तक सुविधा है!) ब्लॉग लिखे जा सकते हैं !
मेरे अन्य एक ब्लॉग 'स्वाध्याय' की पाठक-संख्या वैसे तो बढ़ती जा रही है किन्तु मैं नहीं जानता कि वह कब तक रहेगा। क्योंकि लिखने के प्रति उत्साह धीरे धीरे कम होता जा रहा है।   
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December 21, 2019

एक और बुद्ध-कथा

ठहरा हुआ पानी 
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बामियान की पहाड़ियों में किसी समय अनेक बौद्ध विहार थे।
मूर्तिपूजकों ने भगवान बुद्ध की कुछ प्रतिमाएँ उन विहारों के समीप स्थापित कर रखीं थीं।
उस काल में भी वहाँ की जलवायु वैसी ही थी जैसी आज है।  अति शीत, अति आतप और अति वर्षा।
यद्यपि कुछ भिक्षु उस वातावरण में अधिक समय तक जीवित न रह पाते थे, लेकिन वहाँ रहनेवाले कुछ भिक्षुओं के शरीर जलवायु-सह्य (acclimatized) हो जाते थे।
त्यक्तजीवित उन विवेक-वैराग्य-संपन्न भिक्षुओं के जीवन में यदि कुछ था तो वह थी प्रतीक्षा।
ऐसे ही किसी समय भिक्षु अमितगुप्त उन बौद्ध प्रतिमाओं की पूजा किया करते थे जिन्हें भविष्य कभी किन्हीं मूर्तिभंजकों द्वारा तोप के गोलों से तोड़ दिया जाना था।
यह जानते हुए भी कि पृथ्वी के किसी सुदूर भविष्य में ऐसा होनेवाला है, बुद्ध के प्रति उनकी अविचलित निष्ठा को देखकर उनके एक शिष्य ने प्रश्न किया :
"भन्ते।  जब आपको यह अच्छी तरह विदित है कि ये प्रतिमाएँ किसी दिन तोड़ दी जानेवाली हैं तो फिर आप इस निष्ठापूर्वक उनकी पूजा कैसे कर पाते हैं ?"
तब अमितगुप्त ने कहा :
"तुम्हें याद है जब तुम प्रथम बार यहाँ आए थे, और मैंने तुमसे सामने की नदी से पीने के लिए जल लाने के लिए कहा था ?"
"हाँ, याद है।"
"तब तुम बिना जल लिए वापस आ गए थे और मुझसे तुमने कहा था कि अभी अभी वहाँ से पशुओं का एक झुण्ड पानी पीकर गुज़रा है इसलिए पानी गंदला और मैला हो गया है। तब आपने मुझसे और थोड़ी देर बाद पुनः वहाँ जाने और बहते हुए पानी के स्थिर होकर निर्मल हो जाने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा था।"
"क्या फिर पानी पुनः स्वच्छ नहीं हुआ था ?"
"हाँ भन्ते !"
"यह क्रम ऐसा ही है।  जगत नित्य मलिन और शुद्ध होता रहता है।
ये प्रतिमाएँ तोड़ दिए जाने के बाद पुनः निर्मित होंगी।
इन प्रतिमाओं को अपने बनने-टूटने का भान नहीं है, क्योंकि वे उस बुद्ध-चेतना में भली प्रकार से अवस्थित और प्रतिष्ठित हैं जिसका बनने-टूटने से कोई लेना-देना नहीं है।
राष्ट्र और सनातन-धर्म वही बुद्ध-चेतना है जो संसार-धर्म से; जगदधर्म से नितान्त अछूती है।
इसलिए अन्याय और दुष्टता का प्रतिरोध मत करो, प्रतिशोध अवश्य करो !"   
"प्रतिशोध ?"
"हाँ, प्रतिशोध का अर्थ है कि
'नित्य क्या है और अनित्य क्या है';
- इस बारे में निरन्तर शोध, सतत अनुसन्धान करते रहना,
तब तुम्हारे सामने बुद्ध-चेतना का सत्य प्रकट और स्पष्ट होगा।"
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December 16, 2019

कविता / 16/12/2019

हासिल 
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किसी भी हासिल से कभी मिला क्या है,
जो मिला भी है उससे भी पाया क्या है?
वो क़ामयाबियाँ और वो सिलसिले सारे,
आख़िर उन सबका भी सिला क्या है?
कितनी राहें, मरहले, मुश्क़िलें थीं,
कितने ही दोस्त थे, हमसफ़र कितने !
सब चले गए हैं, राह अपनी-अपनी,
किसी से शिकवा क्या गिला क्या है!
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December 11, 2019

संवाद या विवाद ?

बहस के मायने 
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कल एक पोस्ट लिखा था जिसमें बच्चों की किसी किताब का एक पृष्ठ प्रस्तुत किया था।
याद आई उस व्यक्ति की कहानी जिसे बतौर ज्ञानी प्रचारित किया जाता है।
वह भरी दोपहरी में जलती हुई लालटेन हाथ में लेकर सड़कों पर, बाज़ार और बस्ती में घूमता था।
वह पिछली पोस्ट के 'रामू' की तरह अंधा नहीं था।
अंधे को शिष्टाचारवश प्रज्ञाचक्षु कहा जाता है।
अंग्रेज़ी में 'प्रज्ञा' शब्द के लिए शायद 'sixth sense' कहा जा सकता है।
वैसे इसे 'Artificial Intelligence' (A.I.) भी कह सकते हैं किन्तु जहाँ 'Artificial Intelligence' (A.I.) यान्त्रिक बुद्धि होती है और स्मृति पर आधारित होती है; - वहीँ 'प्रज्ञा' किसी जीते-जागते मनुष्य का वह विवेक होता है, जो उसे नैतिक-अनैतिक की, शुभ-अशुभ की 'दृष्टि' देता है। यह दृष्टि शाब्दिक आवरण में व्यक्त किया जानेवाला कोई कोरा वैचारिक सिद्धांत या सूत्र (formula) नहीं होता।
गीता में कहा गया है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।
ततः परिमार्गितव्यं .......
आत्मा इतना सरल स्पष्ट सत्य है कि इससे कोई अनभिज्ञ नहीं हो सकता।
क्या कोई अपने-आप के अस्तित्व से इंकार करता है?
अगर करता भी हो तो भी यह इंकार भी उसके अस्तित्व की सत्यता को ही प्रमाणित करता है।
किन्तु आत्मा की यह वास्तविकता बुद्धि के आवरण से ढँकी होने से हर मनुष्य अपनी अपनी सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी बुद्धि के अनुसार इस सत्य को जिस 'तथ्य' के रूप में ग्रहण करता है वह 'तथ्य' प्रायः सत्य का विरूपित चित्र ही होता है।
बुद्धि में होने वाले इस भ्रम के निवारण के लिए ही गीता या सनातन धर्म के अन्य शास्त्र वेद उपनिषद इत्यादि उस सत्य को जानने के लिए सम्यक शोध करने का उपदेश / सुझाव देते हैं।  उपदेश का अर्थ है संकेत। यह आदेश या बौद्धिक सिद्धांत नहीं होता क्योंकि बौद्धिक सिद्धांत पुनः बुद्धि की सीमा में होने से बुद्धि के गुण-दोषों से युक्त होता है, जबकि आदेश तो सरासर बाध्यतावश स्वीकार करना होता है और इसलिए दूसरे की 'स्वतन्त्रता' का हनन तक हो सकता है।
एक अंधा व्यक्ति हो या स्वस्थ आँखों वाला कोई व्यक्ति, चाहे वह दिन में भरी दुपहर में जलती लालटेन लिए बाज़ार और बस्ती में घूमता हो, लोगों में कौतूहल तो पैदा कर सकता है, लेकिन बस वही तक उसकी सीमा होती है। वह शायद ही लोगों की बुद्धि को प्रभावित या परिवर्तित कर सकता हो। क्योंकि यह विभिन्न लोगों की अपनी अपनी रुचि पर भी निर्भर करता है।
इसलिए तमाम बहसें प्रायः समय बिताने का एक तरीका होती हैं और बहस करनेवालों के अपने-अपने आग्रहों से प्रेरित होती हैं।
इस प्रकार स्वस्थ बहस जैसी कोई चीज़ प्रायः नहीं पाई जाती।
तमाम बहस के बाद भी बहस करनेवाले न तो किसी ऐसे नतीजे पर पहुँच पाते हैं, जो सबको दिल से स्वीकार हो, या उन पर थोपा न गया हो।
प्रज्ञाचक्षु दूसरी तरफ जानता है कि तमाम शास्त्र लालटेन होते हैं जिन्हें जलाए रखना होता है।
इस दृष्टि से तमाम शास्त्रों को लालटेन की तरह जलाया जाना भी जरूरी तो है ही !
(यहाँ 'जलाया जाना' का तात्पर्य है : प्रकाशयुक्त करना; - न कि आग के हवाले कर देना।)
इस प्रकार से शास्त्र को स्वयं ही समझना अधिक ज़रूरी है, दूसरे की लालटेन का प्रकाश किसी में बुद्धि तो शायद जगा सकता है लेकिन प्रज्ञा के जागृत होने के किए तो मनुष्य को स्वयं ही शोध, परिप्रश्न (investigation) ही करना होगा, न कि बहस। और ऐसे शोध में उसकी रुचि है भी या नहीं या कितनी है, यह तो उसे ही बेहतर पता होता है।
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December 10, 2019

त्रिवेणी घाट, उज्जैन

शनि-मन्दिर, 
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(बच्चों की किसी किताब का एक पृष्ठ) 
24 नवंबर को यहाँ आने के दो हफ़्तों बाद रुद्राक्ष होटल / रिसोर्ट की तरफ घूमने के लिए गया।
थोड़ा संकल्प तो ज़रूरी होता है किसी नए एडवेंचर के लिए।
रुद्राक्ष होटल से आगे इन्दौर रोड पर एक रास्ता पुल से होकर त्रिवेणी के पार इन्दौर की ओर जाता है, और दूसरा शनि-मन्दिर तक।  याद आया यह वही स्थान है जिसे कभी (और अभी भी) नवग्रह-मन्दिर भी कहा जाता था / है।
इसके ठीक पहले एक रोड चिंतामन गणेश की दिशा में जाता है और उसी मोड़ पर स्वामीनारायण टेम्पल है।
भूख लग रही थी, तो सामने दूसरी साइड पर सड़क-किनारे के एक रेस्टोरेंट में पोहे खाए।  चाय पी ।
पोहे खाने के बाद उस कागज़ पर निगाह पड़ी जिसमें पोहे दिए गए थे।
यथावत प्रस्तुत है। 
Let's Read
  Read this story and answer the questions given under it :
Ramu was a blind old man. One dark night he came out of his cottage and went along the road. He had a pitcher of water under his right arm and a lantern in his left hand.
A young man was coming from the other end of the road. He came to Ramu and shouted, Ramu you can't see, but you are carrying a lantern in your hand, why?
Ramu smiled and said, "Do not shout, young man. Listen to me. This light is not for me. It is for you and others. I go out every night with a lantern in my hand. So that people may see me and avoid knocking against me."
The young man was ashamed of his behavior and went away.
--
(a) Who said these words and to whom:
(i) "Do not shout young man. Listen to me."
(ii) "People may see me and avoid knocking against me."
(b) Answer these questions.
(i) Ramu came on the road. What did he have in his hands?"
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आज इस कहानी के सन्दर्भ और निहितार्थ किसी हद तक बदल गए हैं और तमाम बहसें मुझे इसी कहानी की पुनरावृत्ति लगती हैं।
बहरहाल मुझे यह भी लगता है कि मैं ही कहानी का 'रामू' हूँ और 'यंग-मैन' भी हूँ, पर मेरे हाथ की लालटेन बुझी हुई है जिससे इन दोनों इंसानों की तरह, मैं स्वयं भी अनभिज्ञ हूँ !
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December 01, 2019

जहाँ मन नहीं होता ...

जहाँ कोई नहीं होता ...
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मेरे इस ब्लॉग में
"जब मन नहीं होता .."
कविता को बहुत अधिक बार देखा गया है।
इसी के क्रम में sequel की तरह एक कविता आज लिखी।
हिन्दी में लिखने का मन प्रायः होता है किन्तु जब कुछ ऐसा लिखा जाता है जो मेरी अपनी दृष्टि से बहुत उत्साह और प्रसन्नता देता है तो उसे स्वाध्याय में लिख देता हूँ। जो अपेक्षाकृत गंभीर या क्लिष्ट लगता है, उसे भी वहीँ लिख देता हूँ।  क्योंकि मुझे लगता है, इस ब्लॉग के पाठक मेरे स्वाध्याय ब्लॉग को अवश्य देखते होंगे। क्योंकि उसके views 259000 हो चुके हैं, जबकि इस hindi-ka-blog के केवल 69000 !
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कविता / 1 दिसंबर 2019 
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किसी गतिशीलता में क्या,
कोई मन नहीं होता?
किसी गतिशीलता में क्यों,
कोई मन नहीं होता?
किसी गतिहीनता में क्यों,
ऊबने लग जाता है मन,
लेकिन सो जाने पर क्यों,
कोई मन नहीं होता?
या फिर सो जाते ही क्या,
कोई मन नहीं होता?
या लग जाता है, तब क्या,
कोई मन नहीं होता?
उचट जाता है जब क्या,
कोई मन नहीं होता?
होता है निमग्न तब क्या,
कोई मन नहीं होता?
कहाँ से आता है यह मन,
कहाँ हो जाता है ओझल,
खोज तो लें, पर ऐसा क्या,
कोई मन नहीं होता?
जहाँ से आता है यह मन,
जहाँ पर फिर खो जाता है,
जहाँ होने पर फिर यह मन,
कभी ग़मगीन नहीं होता,
कहाँ है वह जगह सोचो,
अगर मन सोच सकता हो,
कहाँ है वह जगह लेकिन,
जहाँ कोई नहीं होता?
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