December 11, 2019

संवाद या विवाद ?

बहस के मायने 
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कल एक पोस्ट लिखा था जिसमें बच्चों की किसी किताब का एक पृष्ठ प्रस्तुत किया था।
याद आई उस व्यक्ति की कहानी जिसे बतौर ज्ञानी प्रचारित किया जाता है।
वह भरी दोपहरी में जलती हुई लालटेन हाथ में लेकर सड़कों पर, बाज़ार और बस्ती में घूमता था।
वह पिछली पोस्ट के 'रामू' की तरह अंधा नहीं था।
अंधे को शिष्टाचारवश प्रज्ञाचक्षु कहा जाता है।
अंग्रेज़ी में 'प्रज्ञा' शब्द के लिए शायद 'sixth sense' कहा जा सकता है।
वैसे इसे 'Artificial Intelligence' (A.I.) भी कह सकते हैं किन्तु जहाँ 'Artificial Intelligence' (A.I.) यान्त्रिक बुद्धि होती है और स्मृति पर आधारित होती है; - वहीँ 'प्रज्ञा' किसी जीते-जागते मनुष्य का वह विवेक होता है, जो उसे नैतिक-अनैतिक की, शुभ-अशुभ की 'दृष्टि' देता है। यह दृष्टि शाब्दिक आवरण में व्यक्त किया जानेवाला कोई कोरा वैचारिक सिद्धांत या सूत्र (formula) नहीं होता।
गीता में कहा गया है :
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनः तत्वदर्शिनः।।
ततः परिमार्गितव्यं .......
आत्मा इतना सरल स्पष्ट सत्य है कि इससे कोई अनभिज्ञ नहीं हो सकता।
क्या कोई अपने-आप के अस्तित्व से इंकार करता है?
अगर करता भी हो तो भी यह इंकार भी उसके अस्तित्व की सत्यता को ही प्रमाणित करता है।
किन्तु आत्मा की यह वास्तविकता बुद्धि के आवरण से ढँकी होने से हर मनुष्य अपनी अपनी सतोगुणी, रजोगुणी या तमोगुणी बुद्धि के अनुसार इस सत्य को जिस 'तथ्य' के रूप में ग्रहण करता है वह 'तथ्य' प्रायः सत्य का विरूपित चित्र ही होता है।
बुद्धि में होने वाले इस भ्रम के निवारण के लिए ही गीता या सनातन धर्म के अन्य शास्त्र वेद उपनिषद इत्यादि उस सत्य को जानने के लिए सम्यक शोध करने का उपदेश / सुझाव देते हैं।  उपदेश का अर्थ है संकेत। यह आदेश या बौद्धिक सिद्धांत नहीं होता क्योंकि बौद्धिक सिद्धांत पुनः बुद्धि की सीमा में होने से बुद्धि के गुण-दोषों से युक्त होता है, जबकि आदेश तो सरासर बाध्यतावश स्वीकार करना होता है और इसलिए दूसरे की 'स्वतन्त्रता' का हनन तक हो सकता है।
एक अंधा व्यक्ति हो या स्वस्थ आँखों वाला कोई व्यक्ति, चाहे वह दिन में भरी दुपहर में जलती लालटेन लिए बाज़ार और बस्ती में घूमता हो, लोगों में कौतूहल तो पैदा कर सकता है, लेकिन बस वही तक उसकी सीमा होती है। वह शायद ही लोगों की बुद्धि को प्रभावित या परिवर्तित कर सकता हो। क्योंकि यह विभिन्न लोगों की अपनी अपनी रुचि पर भी निर्भर करता है।
इसलिए तमाम बहसें प्रायः समय बिताने का एक तरीका होती हैं और बहस करनेवालों के अपने-अपने आग्रहों से प्रेरित होती हैं।
इस प्रकार स्वस्थ बहस जैसी कोई चीज़ प्रायः नहीं पाई जाती।
तमाम बहस के बाद भी बहस करनेवाले न तो किसी ऐसे नतीजे पर पहुँच पाते हैं, जो सबको दिल से स्वीकार हो, या उन पर थोपा न गया हो।
प्रज्ञाचक्षु दूसरी तरफ जानता है कि तमाम शास्त्र लालटेन होते हैं जिन्हें जलाए रखना होता है।
इस दृष्टि से तमाम शास्त्रों को लालटेन की तरह जलाया जाना भी जरूरी तो है ही !
(यहाँ 'जलाया जाना' का तात्पर्य है : प्रकाशयुक्त करना; - न कि आग के हवाले कर देना।)
इस प्रकार से शास्त्र को स्वयं ही समझना अधिक ज़रूरी है, दूसरे की लालटेन का प्रकाश किसी में बुद्धि तो शायद जगा सकता है लेकिन प्रज्ञा के जागृत होने के किए तो मनुष्य को स्वयं ही शोध, परिप्रश्न (investigation) ही करना होगा, न कि बहस। और ऐसे शोध में उसकी रुचि है भी या नहीं या कितनी है, यह तो उसे ही बेहतर पता होता है।
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