November 28, 2010

"Desiderata" by Max Ehrmann मॅक्स ऍरमॅन लिखित ’डिसाइडॅरेटा’

~~"Desiderata" by Max Ehrmann~~
~~~~ मॅक्स ऍरमॅन लिखित ’डिसाइडॅरेटा’~~~~
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शोर-गुल और दौड़-भाग के बीच से शान्तिपूर्वक ग़ुजर जाओ ।
और स्मरण रखो कि मौन में कौन सी शान्ति हो सकती है ।
जहाँ तक हो सके, 
समझौते न करते हुए,
सभी लोगों से अच्छी तरह से पेश आओ ।
अपना सत्य शान्तिपूर्वक और स्पष्टता से कहो ।
और दूसरों को सुनो ।
मंदमति और अज्ञानियों को भी ।
उनके पास भी उनकी अपनी कहानी होती है ।
धृष्ट और आक्रामक लोगों से बचो ।
वे आत्मा को व्याकुल कर देते हैं ।
यदि तुम दूसरों से अपनी तुलना करोगे,
तो हो सकता है, तुम घमंडी और कटु हो जाओ ।
क्योंकि कुछ लोग तो तुमसे श्रेष्ठ,
या निकृष्ट भी होंगे ही । 
अपनी उपलब्धियों और इरादों का पूरा मज़ा लो !
भले ही साधारण हो, अपने काम-धंधे में रस लो ।  
वक्त  की लगातार घटती-बढ़ती दौलत में,
यही तो एक सच्ची संपत्ति है । 
अपने काम-धंधे के मामलों में सतर्कता रखो ।
क्योंकि संसार में छल-कपट भी कम नहीं है ।
किन्तु सिर्फ़ इसीलिये संसार में मौज़ूद अच्छाइयों से,
अपनी आँखें मत बंद कर लेना । 
ऐसे भी हैं अनेक, 
जो उच्च आदर्शों के लिये संघर्षरत रहते हैं ।
और जीवन, 
सर्वत्र ही शौर्य से परिपूर्ण है ।
जैसे तुम वस्तुतः हो,
वैसे रहो ।
ख़ासकर, प्यार का झूठा दिखावा मत करो ।
और न ही,
प्यार के लिये भावुकता का शिकार बन बैठो ।
क्योंकि प्यार,
सारे रूखेपन और मोहभंगों के बीच भी,
सतत बनी रहनेवाली हरी घास की तरह है,
बीत रहे वर्षों को,
युवावस्था की चीज़ें,,
सम्मानसहित समर्पित करते हुए,
उनकी सलाह को,
विनम्रता से स्वीकार करो ।
आकस्मिक आनेवाले दुर्भाग्य से सुरक्षा के लिये,
आत्मबल का संवर्धन करते रहो । 
किन्तु खुद को, 
अन्धकारपूर्ण कल्पनाओं से,
अनावश्यक संकट में मत डालो ।
क्योंकि अनेक भय,थकान और अकेलेपन से भी पैदा होते हैं ।
परिपूर्ण अनुशासन का पालन करते हुए भी,
अपने प्रति मृदु रहो । 
वृक्षों और सितारों की ही तरह,
तुम भी विश्व की सन्तान हो ।
और तुम्हें यहाँ होने रहने का हक़,
उतना ही है,
जितना उन्हें है !
और भले ही तुम्हें यह स्पष्ट हो, 
या न भी हो,
इसमें शक नहीं,
कि
विश्व वैसा ही प्रस्फुटित हो रहा है,
जैसा कि उसे होना चाहिए ।
इसलिये ईश्वर के साथ,
शान्तिपूर्वक सह-अस्तित्व में रहो ।
फ़िर,
तुम्हारी ईश्वर के बारे में जो भी धारणा हो !
और जीवन के कोलाहल भरे द्वन्द्वों के बीच,
तुम्हारे जो भी श्रम और आकांक्षाएँ हों,
उनके साथ-साथ,
अपनी आत्मा में शान्तिपूर्वक स्थित रहो ।
अपने सारे छलों, बेग़ारी, 
और टूटे स्वप्नों के बावज़ूद,
एक सुरम्य संसार है यह ।
प्रसन्न रहो,
आनन्दित होने के लिये,
सदा प्रयत्नरत रहो !!
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~~अर्थ-अनर्थ~~

~~~~~~ अर्थ-अनर्थ ~~~~~~

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(facebook  में 
सुनिता ’सुनि’ के वक्तव्य 
"स्कूल की घंटी बजते ही वह सारे काम छोड़ सड़क तक आ 
जाता, सुबह की प्रार्थना कर रहे बच्चों को देख उसके मन में
टीस सी उठती, मालिक की डाँट सुन वो दौड़ा दौड़ा जाता,
और अपने काम में मशगूल हो जाता, स्कूल में प्रार्थना कर
रहे बच्चों की प्रार्थना में एक प्रश्न उसका भी होता था, :
 ’मेरे साथ ऐसा क्यों ?’
सच था,,,,
 उसे *बंधुआ मजदूर *शब्द का पता जो नहीं था ...!")
के सन्दर्भ में 
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एक ऐसी ज़िन्दगी जीना,
जिसका उसे पता भी नहीं होता,
इन्सान की,
कितनी बड़ी विडम्बना है !
ज़रूरी नहीं कि वह कोई,
ग़रीब मज़दूर का बेटा,
"बन्धुआ"-मज़दूर ही हो !
हो सकता है कि वह कोई बहुत 
’सफल’ व्यक्ति हो,
जो ’सफलता’ के अर्थ से अनभिज्ञ हो,
और ’सफल होने’ के अनर्थ से भी ।
लेकिन यही तो होता है !
जिस चीज़ का हमें पता नहीं होता,
उसके बारे में हमें यह भी कहाँ पता होता है,
कि हम उससे अनभिज्ञ हैं ।
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November 18, 2010

जब जे.कृष्णमूर्ति ने स्वयं ही अपनी पुस्तक की समीक्षा की !

जब जे.कृष्णमूर्ति ने स्वयं ही अपनी पुस्तक की समीक्षा की !
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( कृष्णमूर्ति की 'नोटबुक' के प्रकाशन के संबंध में उनकी जीवनी
'कृष्णमूर्ति : द ईयर्स ऑफ़ फ़ुलफ़िलमेंट' में लिखते हुए मेरी ल्यूटेंस
कहती हैं ; 
   कृष्णजी ने अवश्य ही इस (पुस्तक) का अवलोकन किया होगा,
क्योंकि उन्होंने सोचा कि वे 'बस कौतूहलवश' इसकी समीक्षा करना
चाहेंगे ।
   उक्त समीक्षा का एक अंश प्रस्तुत है ।) 
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मुझे ऐसा लगता है, कि 'कृष्णमूर्ति की नोटबुक' नामक यह पुस्तक
उपनिषदों तथा वेदान्त से भी परे निकल गयी है । जब वे ज्ञान और
ज्ञान के अंत की बात करते हैं, तो यही तो अक्षरशः वेदान्त है, और  
जिसका शाब्दिक अर्थ भी बिलकुल यही होता है;-'ज्ञान का पर्यवसान'
जबकि, विश्व भर के विभिन्न भागों में, वेदांती और उनके अनुयायी, 
वस्तुतः ज्ञान के ढाँचे को सुरक्षित रखने की ही चेष्टा में संलग्न हैं, 
शायद वे ऐसा सोचते होंगे कि ज्ञान ही स्वतन्त्रता है, जैसा अधिकाँश
वैज्ञानिक भी महसूस किया करते हैं ।
मन परम्परा के दृढ बंधन में इतनी बुरी तरह से जकड़ जाया करता
है, कि कोई बिरला ही इस पकड़ से छूट पाता है, और मुझे लगता है
कि कृष्णमूर्ति की बात यहीं से शुरू होती है । वे इस बात पर निरंतर
बल देते हैं, कि स्वतन्त्रता ही पहला और अंतिम कदम है । जबकि
परम्परा के पक्षधर इस पर जोर देते हैं, कि स्वतन्त्रता के लिए मन 
का अत्यंत अनुशासित होना ज़रूरी है, : 
"पहले दासता स्वीकारो, फ़िर तुम स्वतंत्र हो सकोगे."
कृष्णमूर्ति की दृष्टि में, जो बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, तथा जिसे
अपने सभी संभाषणों और संवादों में जिसे वे दोहराते हैं, वह यह है,
कि अवलोकन कर सकने के लिए स्वतन्त्रता होना आवश्यक है, और 
ऐसी स्वतन्त्रता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं होती, बल्कि यह उस ज्ञान और 
अनुभव-मात्र से भी मुक्ति है, जिसे कल, अतीत में एकत्र किया गया 
था । यहाँ हमारा सामना एक विकट प्रश्न से होता है,:यदि अतीत का,
बीते हुए सारे 'कलों' का ज्ञान अनुपस्थित है, तो 'वह' क्या है, जिसके
पास अवलोकन करने की क्षमता होती है ? यदि अवलोकन के लिए
ज्ञान को सहारे की तरह से नहीं प्रयुक्त नहीं किया जा सकता,तो फ़िर
आपमें ऐसा 'क्या' है, जिसके जरिये अवलोकन संभव होता हो ? यदि
उन सारे विगत 'कलों' को विस्मृत कर देना ही स्वतन्त्रता का मौलिक
तत्व है, तो क्या उन्हें विस्मृत किया भी जा सकता है ? वे मानते हैं,
हाँ, यह संभव है । और सिर्फ़ तभी संभव है जब अतीत की समाप्ति
वर्तमान में होती हो, जब अतीत समग्र रूप से, प्रत्यक्षतः वर्तमान में
समा जाता हो । जैसा कि वे निश्चयपूर्वक कहते हैं, अतीत ही अहंकार
है, यही ’मैं’ का वह ढाँचा है, जो समग्र अवलोकन में बाधक होता है ।
   इस पुस्तक को पढ़नेवाला एक सामान्य पाठक अवश्य ही चीत्कार
कर उठेगा, वह कहेगा, :
 ’आप किस बारे में कह रहे हैं ?’
कृष्णमूर्ति अत्यन्त सावधानीपूर्वक, अनेक तरीकों से उसके लिये यह
स्पष्ट करते हैं कि व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से आवश्यक स्मृति,
एवं मनोगत स्मृति के बीच क्या फ़र्क होता है । हमारे नित्य-प्रति के
जीवन के हर क्षेत्र में व्यवहार करने के लिये ज्ञान तो आवश्यक है, 
परन्तु हमारे मानसिक आघातों, उद्वेगों, पीड़ाओं और दुःखों की मनोगत
स्मृति, मन के विखंडन का कारण हुआ करती है, और इसके फलस्वरूप
आवश्यकता की दृष्टि से उपयोगी ज्ञान, जैसे कि कार चलाने का ज्ञान 
आदि, और ज्ञान के अनुभव अर्थात्‌ अन्तःकरण की समग्र गतिविधि, 
इन दोनों के बीच विसंगति पैदा हो जाती है । हमारे संबंधों में, जीने के
हमारे तौर-तरीकों में पाए जानेवाले इस तथ्य की ओर वे हमारा ध्यान 
आकर्षित करते हैं । मैंने इस पुस्तक को बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ा है । 
मैंने उपनिषदों को भी बहुत ध्यान देकर पढ़ा है, और बुद्ध की शिक्षाओं
का भी गहन अध्ययन किया है । मनोविज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक समय
में जो अध्ययन किए जा रहे हैं, उनसे भी मैं भली-भाँति परिचित हूँ ।
अब तक मैंने कहीं भी,जितना भी कुछ पढ़ा है, उसमें अपने यह उक्ति,

दृष्टा ही दृष्ट है, *(the observer is the observed)'

-अपने संपूर्ण आशय-सहित कहीं भी दृष्टिगत न हुई । अवलोकनकर्ता 
स्वयं ही ’वह’ है, जिसका कि अवलोकन किया जा रहा है ।
  शायद किन्हीं प्राचीन चिंतकों ने ऐसा कहा हो, किन्तु कृष्णमूर्ति के
द्वारा खोजी गई सर्वाधिक महत्वपूर्ण बातों में से यह, एक महान सत्य
है -और जब यह (किसी के साथ) वस्तुतः घटित होता है, जैसा कि 
अनेक अवसरों पर व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ घटा है, तो यह काल 
की गतिविधि का अक्षरशः निवारण कर देता है । मैं यहाँ पर यह भी
कहना चाहूँगा कि मैं न तो उनका अनुयायी हूँ, और न कृष्णमूर्ति को
अपने गुरु के रूप में स्वीकारता हूँ । उनकी दृष्टि में, गुरु का स्थान 
ग्रहण करना सर्वाधिक अशोभनीय कार्य है । इसे आलोचना की दृष्टि से
परखने के बाद मुझे महसूस होता है कि यह ऐसी अत्यन्त ही रोचक
पुस्तक है, जिसे पढ़ते हुए पाठक इसमें पूरी तरह तल्लीन हो जाता है,
क्योंकि वे उस हर-एक वस्तु को मिटा डालते हैं, जिसे ’विचार’ ने रचा
है । और जब यह पता चलता है, तो एक गहरा धक्का लगता है ।
एक यथार्थ, वास्तविक आघात होता है यह !
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*An Excerpt :
[The concept I found most difficult to understand was
that of 
'the observer is the observed'.
 I finally came to an interpretation of this : the self
looks at all its inner states of being with its own 
conditioned mind and therefore what it sees is a replica
of itself; what we are is what we see. The conception of 
a superior self which can direct one's other selves is an 
illusion, for there is only one self. When K said in other 
talks;
'The experiencer is the experienced'
and,
'The thinker is the thought',
he was merely using different words to express the same
idea.
   -from 'Life and Death of J.Krishnamurti'
-Mary Lutyens,ch.14,(1967),-"Ideals are brutal things" ]
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'The observer is the observed'
’दृष्टा स्वयं ही दृष्ट है ।’
"अवलोकनकर्ता स्वयं ही ’वह’ है, जिसका कि अवलोकन किया जा 
रहा है" -
इस अवधारणा को समझ पाना मुझे सर्वाधिक कठिन प्रतीत हुआ । 
अन्ततः मुझे इसकी यह व्याख्या सन्तोषजनक लगी :
  अस्मिता (स्व, अहं) अपनी सत्ता की समस्त आन्तरिक अवस्थाओं 
को अपने संस्कारित मन के माध्यम से देखती है, अतएव यह जो 
कुछ भी देखती है, वह सब इसका अपना ही प्रतिरूप होता है, -हम
वही होते हैं, जो कि हम देखते हैं । ऐसी किसी महत्तर अस्मिता की
संकल्पना, जो हमारी अन्य सारी अस्मिताओं को दिशा-निर्देश दे सके,
मात्र भ्रम है, क्योंकि सच केवल एक है । अपनी अन्य कुछ वार्ताओं 
में जब कृष्णजी ने 
’अनुभवकर्ता ही अनुभवित है’,
और 
’विचारकर्ता ही विचार है’ 
कहा, तो वे उसी वक्तव्य की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न शब्दों में कर 
रहे थे ।
(’लाइफ़ ऎंड डेथ ऑफ़ कृष्णमूर्ति’,
-मैरी ल्युटियन्स द्वारा लिखित जे.कृष्णमूर्ति की जीवनी, अध्याय १४,
ऑयडियल्स आर ब्रूटल थिंग्स)   

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November 17, 2010

~~बेवज़ह~~

~~~~~~~~~~ बेवज़ह ~~~~~~~~~~
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अब वहाँ शब्द उभर आये हैं,
और तैर रहे हैं, 
जहाँ पहले कभी,
मौन का गुँजार था ।
जहाँ पहले शून्य था,
अब वह हमारी मिलन-स्थली है,
जहाँ पहले शून्य का फ़ैलाव था,
अस्तित्व का यह आयाम,
जहाँ मेरे खयाल तुम्हारे खयालों को छूते हैं,
क्या ईश्वर को इस टुकड़े की सचमुच कोई ज़रूरत थी भी ?
नहीं, मेरे प्रिय !
बिलकुल नहीं थी,
उसी तरह,
जैसे, कि डामरीकृत सड़क पर,
घास,
चाँद को देखकर कुत्तों का भौंकना,
अँधेरे का डर,
विक्षिप्त की मूढ हँसी,
बिलकुल ही ग़ैर-ज़रूरी होते हैं !
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( * एक मित्र की इस अंग्रेज़ी कविता  का हिन्दी 
अनुवाद, जिसे आप मेरे यहाँ पर भी देख सकते हैं  )
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Words have emerged and float
where before the silence vibrated
Where was empty 
now is the place
of our meeting,
radius of the real
where my thoughts
touch your thoughts
is this fragment needful for God?
No, my love, it is not,
as are not needed
the grass between the asphalt,
the bark of dogs at the moon,
the fear of the dark,
the foolish laugh of a madman.



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November 16, 2010

कविता "॥नाग लोक॥" की रचना-प्रक्रिया-(भूमिका)

~~~~कविता "॥नाग लोक॥" की रचना-प्रक्रिया ~~~
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कल ही मैंने उपरोक्त कविता लिखी थी ।
उस समय मुझे इस बात की कल्पना तक नहीं थी,कि मैं क्या लिखने
जा रहा हूँ ।यह अवचेतन का प्रस्फुटन था, जिसे मैं काग़ज पर रास्ता
दे रहा था । बस, वैसे ही जैसे ’अवचेतन’ के प्रस्फुटीकरण के लिये
कभी-कभी मैं एक प्रयोग किया करता हूँ ।
मैं पहले कागज रंग, और तूलिका लेकर शान्तिपूर्वक बैठ जाता हूँ, फ़िर
कुछ पल ठहरकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाता हूँ, फ़िर दृष्टि को रंगों और
कागज पर वापस ले आता हूँ, अन्यमनस्क सी स्थिति में जब ’विचार’
निष्क्रिय सा पड़ा होता है, मैं एक तूलिका उठा लेता हूँ, या कभी-कभी
कोई पेन्सिल । फ़िर कागज पर उसे इधर-उधर गति देता हूँ । ज़ाहिर
है, तब ’विचार’ अर्थात्‌ मेरा ’चेतन’ मन चुप होता है । निरुद्देश्य हो
रही इस प्रक्रिया में, अवचेतन धीरे-धीरे खुलने लगता है । मैं उसकी
कोई व्याख्या नहीं करता ।
"मैं" कौन ?
-मेरा चुप पडा़ ’चेतन’ मन ।
मैं / वह कागज पर उभरती आकृति पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते ।
उन्हें इसकी अनुमति भी नहीं होती । कुछ समय तक इस गतिविधि में 
संलग्न रहते हुए, या तो जीवन की दूसरी ज़रूरतें मुझे इससे दूर कर देती
हैं, या अनचाहे ही यह प्रक्रिया जैसे शुरू हुई थी, वैसे ही रुक भी जाती है ।
तब, या तो ’चेतन’ मन की ही भाँति, ’अवचेतन’ मन भी ’ठहर’ जाता है,
या फ़िर ’चेतन’ अपने क्रिया-कलाप शुरु कर देता है ।
तब, मैं कागज-पेन्सिल, रंग-तूलिका एक ओर रख देता हूँ, और विरले ही
अवसर पर कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है, कि ’चेतन’ और ’अवचेतन’,
दोनों ही चुप होते हैं, और मैं ’सोया’ भी नहीं होता । मुझे मेरे आसपास
के संसार और उसकी गतिविधियों का शुद्ध इन्द्रिय-गम्य बोध, ’भान’ तो
रहता है, और ’चेतन’ मन किसी भी क्षण ज़रूरत होते ही काम में जुट भी
सकता है, किंतु मैं उस शान्ति में, ’चेतन’ और ’अवचेतन’ से भी परे के
किसी तत्त्व को ’प्रस्फुटित’ होते देखने लगता हूँ ।
"मैं" कौन ?
-मेरा अवधान, ’अटेन्शन’।
क्या ’अवधान’ को ’चित्त’ कहना ठीक होगा ?
-नहीं, क्योंकि ’चित्त’ कभी ’अवधानयुक्त’ अर्थात्‌ ’सावधान’ होता है,
और कभी-कभी नहीं भी होता
(हालाँकि, ’अवधान’ को ’मेरा’ कहना भी त्रुटिपूर्ण है ।) 
’मन’ की उस अवस्था में यदि मैं आँखे बंद कर लेता हूँ, तो या तो नींद
मे चला जाता हूँ, या स्वप्न जैसी ’तंद्रा’ में, जिसमें मैं सारे संसार से 
एक हो जाता हूँ । लेकिन ज़रा ठहरिये । तब संसार से मैं इस दृष्टि से
एक हो जाता हूँ कि अपने को किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी, या पेड़-पौधे
जैसा पाता हूँ । इस क्षण इसकी कल्पना नहीं कि जा सकती कि तब 
मैं ’क्या’ होता हूँ ! क्योंकि इस क्षण तो ’चेतन’ ही कार्यरत है । और 
उस बहुत बड़े ’अंतराल’ को, जिसे मैं ’अचेतन’ कहना चाहूँगा, यदि 
मैं पार कर सकता हूँ, तो एक और नया तत्त्व ’अवधान’ के आलोक में
प्रकट होता है । इस सब बारे में फिर कभी विस्तार से ।
अभी तो यही कहूँगा कि इसी तरह की मनःस्थिति में यह रचना, यह
कविता, कम्प्यूटर के मॉनीटर पर उभरी थी ।-एक शब्द-चित्र की भाँति ।
यह ’अज्ञात’ से आई थी ।
(क्या इसे हम 'ईश्वर' कह सकते हैं ?)
फ़िर मैंने इस पर चिंतन किया, और पाया कि ’नाग’ शब्द वस्तुतः 
’विचार’,’सूचना’, ’इन्फ़ॉर्मेशन’ के लिये प्रयुक्त किया गया है । यहाँ 
तैत्तिरीय उपनिषद्‌ की शिक्षा-वल्ली और श्री जे.कृष्णमूर्ति की वाणी के
संदर्भ में अब मैं इस रचना और इसकी ’कुंजी’ क्या है, इस बारे में इस 
लेख के अगले हिस्से में प्रकाश डालूँगा ।

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November 15, 2010

॥ नाग-लोक ॥



~~~~~~~~~~ ॥ नाग-लोक ॥~~~~~~~~~~~
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वे अनेक थे,
हर एक-दो साल में केंचुल बदल लिया करते थे ।
अकसर तब,
जब केंचुल उनकी आँखों पर चढ़ने लगती थी ।
कभी-कभी वे बाहर आ जाते थे ।
-जब उनके बिलों में गरमी या उमस बढ़ जाती थी,
या जब बारिश में पानी भरने लगता था ।
और कभी कभी अपने अन्धेरों से बाहर इसलिये भी आ जाते थे,
क्योंकि बाहर शिकार मिल सकता था ।
अकसर तो वे एक दूसरे को ही खा जाया करते थे,
और कोई नहीं जानता था कि कौन कब किसका ग्रास बन जाएगा ।
खुले में आने पर वे कभी किसी जानवर या मनुष्य के पैरों 
   तले दब जाते, 
तो बरबस उन्हें काट भी लेते थे ।
इसलिये सभी को खतरनाक समझा जाता था ।
अन्धेरों से आलोकित उनके लोक में,
उनकी अपनी-अपनी 'व्यवस्थाएँ' थीं !
उनके अपने ’दर्शन’ थे, ’नैतिकताएँ’ थीं,
’मान्यताएँ’, और ’आदर्श’ भी थे ।
’राष्ट्र’ और ’भाषाएँ’ थीं,
जिनके अपने अपने ’संस्करण’ थे ।
और इस पूरे समग्र ’प्रसंग’ को वे,
'सभ्यता', ’धर्म’ तथा ’संस्कृति’ कहते थे ।
सब अनेक समूहों में......।
अकसर तो यही होता था, कि किसी एक 
'सभ्यता, ’दर्शन’,’धर्म’, ’भाषा’, या ’सँस्कृति’ का अनुयायी,
किसी दूसरे के समूह में,
या उसके विरोधी समूह में भी होता ही था,
और अकसर नहीं,
बेशक होता ही था । 
और फ़िर अन्धेरे भी इस सबसे अछूते कैसे हो सकते थे ?
उनके अपने रंग थे, अपने स्पर्श, अपने स्वाद,
और अपनी ध्वनियाँ ।
वे वहाँ थे -
उनकी भावनाओं में,
उनके विचारों में,
उनकी संवेदनाओं में ,
उनकी संवेदनशीलताओं में ।
उन अँधेरों के अपने विन्यास थे,
’विचार’,
राजनीतिक विचार,
’प्रतिबद्धताएँ’
और यह सब उनका अपना ’लोक’ था,
-अपनी दुनिया,
जिसे वे लगातार बदलना चाहते थे,
एक ’बेहतर दुनिया’ में तब्दील करना चाहते थे ।
इसलिये उनके पास हमेशा एक ’कल’ होता था,
एक बीता हुआ,
एक आगामी ।
उनके आज में वे दोनों आलिंगनबद्ध होते ।
’विचार’ अपने रास्ते तय करते थे,
अन्धेरों से अन्धेरों तक,
अकसर वे एक से दूसरे अंधेरों में चले जाते थे,
और भूल जाते थे कि यह ’निषिद्ध’ क्षेत्र है उनके लिये,
’वर्जित’ ।
फ़िर वे केंचुल छोड़ देते थे ।
’नये’ अन्धेरे के अभ्यस्त होने तक वे लेटे रहते थे,
एक अद्भुत्‌ अहसास में ।
लाल, रेशमी, गर्म, मादक सुगंधवाले,
मीठी ध्वनिवाले अंधेरे से निकलकर,
हरे-भरे, मखमली, शीतल, कोमल सुगंधवाले अंधेरे तक
पहुँचने का सफ़र,
एक ऐसा समय होता था,
जब ’समय’ नहीं होता था ।
और वे जानते थे,
कि ऐसा भी कोई वक़्त हुआ करता है !
लेकिन उस वक़्त में अपनी मरज़ी से आना-जाना,
मुमकिन नहीं था,
उनके लिए । 

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संस्कार

~~~~~~~ "संस्कार" ~~~~~~~
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उसका चेहरा हरदम ढँका रहता था !
अक्सर वह अपनी पोशाक बदलता रहता था ।
और इसलिये लोगों को अकसर परेशानी रहती थी ।
उसे हर कोई अपने ढंग से पहचानता ज़रूर था,
-लेकिन ’जानता’ कोई नहीं था ।
अकसर उसे लेकर लोग आपस में झगड़ने लगते थे ।
और उसके जैसे भी एक नहीं, कई थे !
इसलिये बहुत अधिक अराजकता थी ।
यह अन्धेरे में रास्ता टटोलने जैसा होता था ।
पर उन्हें कभी ख़याल ही नहीं आता था कि ऐसा 
  भी हो सकता है !


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November 09, 2010

"वज़ह"

~~~~~~~~~~~~~~~वज़ह~~~~~~~~~~~~~~~~~
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( प्रेरणा :  'फेसबुक' पर लिखे सुनीता 'सुनी' के स्टेटस से )


"हर दिन के साथ यूँ बढ़ रही हूँ, जैसे बबूल का पेड़ ............"





बबूल से मैंने पूछा,
"ये काँटे किसलिये ?"
हँसकर बोला वह,
"बकरियों से बचने के लिये ।"
"और पत्तियाँ किसलिये ?"
"बकरियों के लिये ।"
"!?"
"ताकि पत्तियाँ घटती रहें,
कटती रहें,
बढ़ती रहें,
और वे मुझे खाकर बिल्कुल ही ख़त्म न कर दें,
-इसलिये काँटों का होना भी उतना ही ज़रूरी है !"


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पुनश्च  : ---------
(सुनीताजी का कहना है कि वे बबूल नहीं,
'खजूर' लिखना चाहतीं थीं ,तो मुझे पुनः 
एक नई प्रेरणा मिली,
प्रस्तुत है- )


फ़िर,
मैंने पास ही खड़े खजूर को देखा,
जो गर्व से सर उठाये,
बादलों से बतियाता जान पड़ता था,
और खजूर तुम ?
तुम्हारे बारे में तो किसी ने कहा ही है, :
"बड़ा हुआ तो क्या हुआ .....!!"
वह शायद ही मुझे सुन पाया हो .
जवाब बबूल ने ही दिया, :
"नहीं, उसका हृदय भी उतना ही उच्च है,
-जितना कि उसका कद ."
"कैसे ?"
"उसके हृदय में छिपे रस के झरने को,
उलीच लेते हैं आदिवासी मनुष्य,
और भोर होने से पहले तक उस अमृत 
का पान किया जा सकता है,
उसे कहते हैं 'नीरा',
..................."
"लेकिन ताड़ी भी तो वही हो जाता है !"
-छेड़ा मैंने पुनः .
"हाँ, लेकिन मनुष्य ही तो उसे ,
सूरज की धूप दिखाकर,
बना देता है मादक  ! ............"
खजूर तो अनुद्विग्न,
हवा में झूमता रहा ,
नहीं जानता उसने हमारी बातें,
सुनी या नहीं सुनी  !!


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November 07, 2010

देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ (Devyaaparaadhakshamaapana-Stotram.)

~~~ देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ~~~
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न मंत्रं नो यंत्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो
न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः ।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं
      परं जाने मातस्त्वदनुसरणं क्लेशहरणं      ॥१॥

    हे माते ! मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, और
स्तुतिकथा आदि के माध्यम से उपासना कैसे की जाती
है, मैं नहीं जानता । मुद्रा तथा विलाप आदि के प्रयोग 
से तुम्हारा पूजन कैसे करूँ, यह भी मैं नहीं जानता ।
हे माता, मैं तो बस इतना ही जानता हूँ कि तुम्हारा 
अनुसरण समस्त क्लेशों का हरण करता है । ॥१॥

विधेरज्ञानेन        द्रविणविरहेणालसतया
विधेयाशक्यत्वात्तव  चरणयोर्या च्युतिरभूत्‌    ।
तदेतत्क्शन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे 
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥२॥

विधिपूर्वक पूजन कैसे किया जाता है, इसका ज्ञान न 
होने से, धन के अभाव से, तथा आलस्यवश, तुम्हारे
चरणों की आराधना करने में यदि मुझसे कोई त्रुटि 
हुई हो, तो हे सब का उद्धार करनेवाली शिवे ! तुम 
मुझे क्षमा करना, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह  तो संभव
है, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।  ॥२॥

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
परं तेषां मध्ये विरलतरोऽहं  तव  सुतः           ।
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥३॥
  
हे माँ, धरती पर विचरण करनेवाले तुम्हारे सरल 
पुत्र तो बहुत से होंगे, किन्तु मैं उनसे भिन्न प्रकृति 
का तुम्हारा पुत्र हूँ । हे शिवे ! फिर भी तुम मुझे त्याग 
दो, यह उचित न होगा, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह तो 
संभव है, किन्तु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती ।  ॥३॥ 

जगन्मातस्तव  चरणसेवा  न  रचिता
न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया        ।
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे 
     कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति   ॥४॥

हे जगज्जननि ! मैंने कभी तुम्हारे चरणों की सेवा नहीं
की, और न ही हे देवि !, मैंने कभी तुम्हें धन आदि अर्पित
किया, तथापि तुम मुझ पर अत्यंत अप्रतिम स्नेह रखती
हो, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो यह तो संभव है, किन्तु माता
कभी कुमाता नहीं हो सकती । ॥४॥ 

परित्यक्ता देवा विविधविधि सेवाकुलतया
मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि        ।
इदानीं चेन्मातस्तव कृपानापि भविता
     निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणं   ॥५॥

हे गणेशजननि ! मेरी आयु के पचासी वर्ष व्यतीत
हो चुके हैं, विविध देवताओं की आराधना की विविध
विधियों से व्याकुल होकर मैंने उन सबको छोड़ दिया,
और अब यदि तुम्हारी कृपा भी मुझ पर न हुई, तो
मैं किसकी शरण जाऊँगा ?  ॥५॥

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा
निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकैः  ।
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं
    जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ   ॥६॥

हे अपर्णा ! माता, तुम्हारे मन्त्राक्षर कानों में पड़ने
मात्र से चाण्डाल मधुर रस से भरी सुन्दर वाणी 
बोलने लगता है, रंक भी वैभवशाली होकर निर्भय
विचरण करने लग जाता है । यदि तुम्हारा नाम
सुनने भर से ही ऐसा हो जाता है, तो विधिपूर्वक 
जो इसका जप करता है, उसे इसका क्या फल 
प्राप्त होता है, कौन जान सकता है ?  ॥६॥
  
चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो
जटाधारी  कण्ठे  भुजगपतिहारी   पशुपतिः   ।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
    भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्‌   ॥७॥



हे भवानी ! चिता की भस्म रमानेवाले, विष का 
सेवन करनेवाले दिगम्बर, सिर पर जटा, कण्ठ में
भुजंगमाला और कपालमाला धारण करनेवाले 
पशुपति (भगवान्‌ शंकर), भूतेश्वर को जगदीश्वर 
की जो पदवी प्राप्त हुई है, वह तुम्हारे साथ उनके
विवाह का ही तो फल है ! ॥७॥

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभवाञ्छापि च न मे 
न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः ।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै 
    मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः  ॥८॥


हे चन्द्रमुखि ! मुझे न तो मोक्ष-प्राप्ति की आकाँक्षा 
है, न सांसारिक वैभव की वाञ्छा, मुझे न तो विज्ञान
की अपेक्षा है, और न सुख आदि की प्राप्ति की ही 
इच्छा, हे माता ! मैं तो तुमसे केवल यही याचना 
करता हूँ कि मेरा सारा जीवन मृडानी, रुद्राणी, एवं 
शिव-शिव, भवानी आदि जपते हुए व्यतीत हो ॥८॥  

नाराधीतासि    विधिना    विविधोपचरैः
     किं   रुक्षचिन्तनपरैर्न   कृतं    वचोभिः       ।
श्यामे  त्वमेव  यदि  किञ्चन  मय्यनाथे
    धत्से      कृपामुचितमम्ब    परं  तवैव     ॥९॥


मैंने कभी तुम्हारी (एकोपचार, षोडशोपचार आदि)
शास्त्र-निर्दिष्ट विविध उपचारों से युक्त आराधना नहीं 
की, इतना ही नहीं, इसके विपरीत मैंने चिन्तनपरक,
रुक्ष बुद्धि से क्या क्या अनर्गल विचार तक नहीं किये ?
हे श्यामा ! इसलिये यदि तुम ही मुझ अनाथ पर कृपा
करो तो यह सर्वथा उपयुक्त है, क्योंकि तुम मेरी माता 
हो । ॥९॥


आपत्सु   मग्नः   स्मरणं   त्वदीयं
    करोमि   दुर्गे    करुणार्णवेशि   ।
नैतच्छठत्वं   मम   भावयेथाह् 
    क्षुधातृषार्ता जननीं  स्मरन्ति                  ॥१०॥

हे दुर्गे ! जब भी मैं विपत्तिग्रस्त होता हूँ, तो तुम्हारा
ही स्मरण करने लगता हूँ, इसे तुम मेरी शठता मत
समझना, माता तुम करुणासागर हो, क्योंकि क्षुधा 
और प्यास से आकुल बालक माता का ही तो स्मरण
करते हैं । ॥१०॥


जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि ।
अपराधपरम्परावृतं  न  हि  माता समुपेक्षते सुतं  ॥११॥


हे जगन्माता ! मुझ पर तुम्हारी पूर्ण कृपा है, तो 
इसमें आश्चर्य क्या है ? क्योंकि माता दुष्ट प्रवृत्ति 
रखनेवाले बालक को भी नहीं त्यागती । ॥११॥



मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ॥१२॥


हे माँ !! न तो मेरे समान कोई और पापी है, 
और न ही तुम्हारे तुल्य पापनाश करनेवाली 
कोई और । यह जानकर हे महादेवि, जो तुम्हें 
उचित प्रतीत होता हो, वही करो । ॥१२॥ 



॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं देव्यापराधक्षमापनस्तोत्रम्‌ ॥
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                                     ॐ