June 30, 2021

व्याकुल प्रीत!

कविता : 30-06-2021

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पग-पग कंटक हैं बिछे,

डग-डग आहत पाँव, 

दृग-दृग आँसू बह रहे, 

मग-मग ऐसा ठाँव! 

रग-रग पीडा़ हो रही, 

जग-मग जलते दीप, 

खग-खग लौटें नीड़ को, 

युग-युग व्याकुल प्रीत! 

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अस्तित्व और भान

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भान, प्रेम और ज्ञान

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अस्तित्व का भान अस्तित्व से अभिन्न है। 

अस्तित्व है तो उसका भान है, और निःसन्देह भान का अस्तित्व ही भान है। इस प्रकार भान और अस्तित्व एक ही वस्तु को दिए गए दो अलग अलग शब्द मात्र हैं।

किन्तु यह सत्य भी इतना ही रोचक तथ्य है कि अस्तित्व और उसके भान में जिसका अस्तित्व है, वह उससे अभिन्न है जिसे कि अस्तित्व का भान है।

इसलिए ऐसे अस्तित्व और इस भान में अपने-पराये अर्थात् 'मैं' तथा 'मुझसे भिन्न' जैसा कोई विभाजन होता ही नहीं ।

किन्तु जब इसी अस्तित्व अर्थात् भान में बुद्धि के सक्रिय होने पर 'मैं' नामक विचार उठता है तो जो ज्ञानरूपी आभास पैदा होता है उस ज्ञानरूपी आभास में ही पुनः 'मैं' नामक विचार का रूपान्तरण 'मैं' के कर्ता, विचारकर्ता, अनुभवकर्ता, तथा स्वामी होने के रूप में प्रतीत होने लगता है।

स्पष्ट है कि अस्तित्व तथा भान किसी 'चेतना' के अन्तर्गत संभव होते हैं। यह चेतना मूलतः तो यद्यपि ज्ञान-अज्ञान-निरपेक्ष, नित्य, शाश्वत, चिरन्तन, काल-स्थान-निरपेक्ष अधिष्ठान-मात्र ही होती है, किन्तु किसी शरीर-विशेष से इसका संबंध होने पर इसे इसके निर्वैयक्तिक स्वरूप से भिन्न वैयक्तिक प्रकार की तरह बुद्धि के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया जाता है।

इस प्रकार से 'मैं' के अस्तित्व को ज्ञान के माध्यम से एक स्वतंत्र सत्ता की तरह अपने-आपका अस्तित्व समझ लिया जाता है। 

यह 'मैं' अर्थात् आभासी सतत विकारशील स्वतंत्र सत्ता जब अपने स्रोत को खोजने में प्रवृत्त हो उठती है, तो इसका ध्यान ज्ञान-अज्ञान-निरपेक्ष उस भान की ओर जाता है जो कि इसका अविकारी अस्तित्व और इसकी वास्तविक निजता है।

अपनी यह निजता ही अस्तित्व, अस्तित्व का भान, तथा वह प्रेम है जो अविकारी, परस्पर अविभाज्य तथा अनिर्वचनीय है।

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June 29, 2021

मुक्त-प्रेम / उन्मुक्त प्रेम

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विचार-स्वातंत्र्य 

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बेहतर होगा कि पहले हम प्रेम और संबंध के बारे में ठीक से जानने का प्रयास करें। 

प्रत्येक जीव प्रेम को जानता है। उसे सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रेम तो अपने-आप से ही होता है। इसलिए ऐसा कोई नहीं जो मूलतः प्रेम से अनभिज्ञ होता हो। 

फिर संबंध क्या है? 

क्या संबंध आवश्यकता ही नहीं होता?

जीवन के लिए अनुकूल अपरिहार्यतः आवश्यक स्थितियाँ और वस्तुएँ निरंतर बदलती रहती हैं। आवश्यकताएँ किसी सीमा तक अधूरी या पूरी हो पाती हैं। उनके पूरे होने पर संतुष्टि का अनुभव होता है। उनके अधूरे होने पर असंतोष अनुभव होता है। इस संतुष्टि को ही सुख तथा असंतुष्टि को दुःख समझा जाता है। अतः सुख एवं दुःख दोनों अनुभव ही हैं और अनुभव है स्मृति। स्मृति ही संबंध और संबंध का तथा अनुभव का सार है।

क्या प्रेम --स्मृति या अनुभव, --संबंध अथवा विचार है?

स्पष्ट है कि स्मृति, संबंध, अनुभव कोई भौतिक या अभौतिक, मूर्त या अमूर्त वस्तु कभी नहीं बल्कि विचार के ही रूप में मन में प्रकट-अप्रकट होते रहते हैं। और विचार स्वयं भी मस्तिष्क की एक यांत्रिक गतिविधि है। विचार की यह गतिविधि किन नियमों से संचालित होती है यह कहना तो कठिन है किन्तु इसके शुरू होने के लिए प्रेरक कारक अनेक होते हैं। 

भाव से विचार की, और विचार से भाव की, भाव से भावना की तथा भावना से भाव की, और भावना से विचार एवं विचार से भावना की प्रेरणा जागृत हो सकती है। विचार को ही बुद्धि भी कहा जा सकता है। 

यह किसी स्मृति के उठने से हो सकता है, या बाहरी परिस्थिति से भी हो सकता है। मनुष्य की स्थिति में, उसका समाज, लोग और सामाजिक मान्यताएँ आदि से भी ऐसा हो सकता है।

क्या प्रेम, स्मृति, या अनुभव, संबंध अथवा विचार है?

इसी प्रकार प्रेम न तो कोई भाव, भावना, भावुकता, आदि है।

प्रेम बुद्धि भी नहीं है, न बुद्धिजनित अवस्था, आदर्श, नैतिकता या अनैतिकता, श्रद्धा, आस्था, विश्वास, संदेह, अज्ञान या ज्ञान, लोभ, भय, अविश्वास, आदि है। 

इसी प्रकार प्रेम, --काम अथवा कामुकता भी नहीं है। 

ये सभी मन की अस्थायी स्थितियाँ और अवस्थाएँ हैं।

और प्रेम आवश्यकता भले ही हो, स्थिति या अवस्था नहीं है। 

फिर भी प्रेम ही सभी का मूल स्रोत, उत्स और उद्गम है। 

जैसे ही प्रेम, जो नित्य जीवन है, इनमें से किसी में परिवर्तित हो जाता है, प्रेम नहीं रह जाता। वह बस नष्ट हो जाता है, क्योंकि प्रेम यद्यपि नष्ट या विलुप्त तो हो सकता है, विकृत कदापि नहीं होता। 

इसलिए किसी को शब्दों से प्रेम होता है, किसी को किसी वस्तु, विचार, व्यक्ति, समुदाय, संबंध, स्मृति, आदर्श, लक्ष्य, धर्म, ईश्वर, राष्ट्र या संकल्प से प्रेम होता है, किन्तु ऐसा कोई भी नहीं, जिसे किसी न किसी से प्रेम न हो। 

यदि कोई ऐसा है भी, तो ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उसका प्रेम कहीं कुंठित या अवरुद्ध होकर रह गया है। तब वह हिंसक, क्षुब्ध, उग्र और विकल हो उठता है।

विचार सदा किसी से बँधा होता है, इसलिए वैचारिक-स्वातंत्र्य जैसी कोई वस्तु हो ही नहीं सकती।

जो किसी भी विचार से बँधा होता है, वास्तव में प्रेम के अभाव के कारण ही किसी से बँधकर उस अभाव को दूर करने का असफल प्रयास सतत करता रहता है ।

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June 28, 2021

एक क़ोशिश या उम्मीद !

कविता : 28-06-2021

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हाँ, दूर तक सिर्फ अन्धेरा ही नजर आता है, 

ये भी क्या कम है कि कुछ तो नजर आता है!

रौशनी हो या अन्धेरा हो, कुछ भी दिखाई दे, 

ये भी तो पूछो कि ये किसको नजर आता है!

क्या आँखें देखती हैं, रौशनी को, या अन्धेरे को, 

इस तरह देखना, न देखना, किसको नजर आता है!

तय है, कोई तो देखता है, आँखें हों बन्द तब भी,

जिसे दिखाई देता है, वो किसको नजर आता है! 

मगर कोई क्यों नहीं देखता, उस देखनेवाले को, 

देखना चाहे भी अगर, वो किसको नजर आता है!

आँखें, दिल, ज़ेहन, तबीयत तो बदलते रहते हैं,

जो नहीं है बदलता कभी, वो किसको नजर आता है!

वक्त बदलता है, याद भी, पहचान, बदल जाती है,

'देखना' जो नहीं बदलता, वो किसको नजर आता है!

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यमदण्ड

ब्रह्मदण्ड और संसारगति

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घोर तप के माध्यम से महापंडित रावण ब्रह्माजी से सहस्र वर्षों की आयु का वरदान जब प्राप्त कर चुका, तो उसने तय किया कि अभी इतना भी पर्याप्त है। दस सहस्र वर्षों में और अधिक  तप करते हुए मैं निरंतर अमर बने रहने की आशा कर सकता हूँ। तब उसने पृथ्वीलोक, द्युलोक और देवलोक पर विजय प्राप्त की। अंततः उसने इंद्र पर विजय पाने का यत्न किया, किन्तु इन्द्र ने उसे अपने समान शक्तिशाली और सामर्थ्य-वान संतान होने का प्रलोभन देकर उससे संधि कर ली। अपने दुर्भाग्य या दुर्बुद्धि से रावण इस प्रलोभन से मोहित हो गया। 

तब रावण ने यमलोक पर आक्रमण किया। यमराज के सभी रक्षक, सैनिक और सेनापति रावण के द्वारा मार दिए जाने पर यमदेवता ने रावण पर वार करने के लिए यमदण्ड का प्रयोग करना चाहा। 

तब ब्रह्माजी वहाँ आए और यमराज को ऐसा करने से रोका । वे बोले :

यमराज!  तुम स्वयं भी यमपाश से बँधे हो, जिसका उल्लंघन करना तुम्हारे लिए अक्षम्य अपराध होगा। यदि तुमने रावण पर इसका प्रयोग किया, तो मेरा विधान एवं रावण को मेरे द्वारा दिया गया वरदान मिथ्या हो जाएगा, और तब तो संपूर्ण जगत का ही विनाश अर्थात् प्रलय हो जाएगा। इसलिए तुम रावण से पराजय स्वीकार कर लो। यही तुम्हारे और जगत के लिए शुभ और कल्याणकारी होगा।

इस प्रकार रावण ने अपने आप को विश्वविजेता समझ लिया। 

महापंडित रावण की ही परंपरा में आज का विज्ञान भी विधाता के कार्यों में तथा जेनेटिक स्ट्रक्चर और जीन्स की बनावट में भी  जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से हस्तक्षेप करते हुए इस हद तक जा पहुँचा है कि जैवास्त्र के निर्माण के क्रम में कोरोना जैसा वायरस पैदा कर जाने-अनजाने संसार में फैला चुका है।

इसी क्रम में वह एजिंग जीन्स की रचना में फेर-बदलकर मनुष्य को अमर बनाने के विचार से भी मोहित है।

यह भी एक विरोधाभास,  विसंगति और विडंबना ही है कि वही कोरोना वायरस के विरुद्ध काम आनेवाली वैक्सीन भी बनाने के लिए भी यत्नरत है। 

प्रश्न यह है कि क्या यमराज इस बार भी अपने यमदण्ड का प्रयोग करने से रुक जाएँगे? 

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June 26, 2021

समय, स्थान और द्रव्य

मीमांसा दर्शन

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भारतीय दर्शन की छः परम्पराओं में से एक है कर्म-मीमांसा। 

आज का जो विज्ञान है, उसे एक शब्द में कहना हो तो वह यही होगा :

मीमांसा!

विज्ञान परिभाषाओं के माध्यम से समय, स्थान और द्रव्य के विषय में माप-जोख करता है। भौतिक विज्ञान समय, स्थान और द्रव्य की प्रकृति का अध्ययन करने की चेष्टा करता है। 

इसका आधार तर्क है और तर्क का आधार अनुमान है,  जो पुनः मीमांसा की ही सतह मात्र है। 

अनुमान की सत्यता गणितीय स्थापनाओं पर अवलंबित होती है और गणित केवल विचार पर आश्रित होता है। विचार भी पुनः शाब्दिक मूल्यांकन है, जिसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्यता नहीं होती। 

भौतिक विज्ञान में जिन तीन आधार-बिन्दुओं के बारे में विचार किया जाता है वे हैं :

प्रकाश, जडत्व और गतिशीलता। 

इसे ही क्रमशः  Light, Inertia तथा movement कहा जाता है। मीमांसा के दृष्टिकोण से यही तीन गुण हैं, जो अव्यक्त प्रकृति (कारण) हैं और इनका अनुमान किया जाता है, जबकि व्यक्त प्रकृति (प्रभाव / कार्य) को प्रत्यक्षतः जाना जाता है। कार्यों के बीच क्रम की कल्पना द्वारा भौतिक विज्ञान के विभिन्न 'निष्कर्ष' प्रस्थापित किए जाते हैं। 

इस प्रकार विज्ञान कारणों के संबंध में कितनी भी गहराई तक खोज या अनुसंधान क्यों न कर ले, अव्यक्त के बारे में अनभिज्ञ और संशयग्रस्त ही बना रहता है। 

सांख्य दर्शन में प्रकृति के इन तीन अव्यक्त तत्वों को ही उसके गुण कहा जाता है, जो क्रमशः :

सत् (प्रकाश, Light), 

रज (movement)  और 

तम (Inertia) 

के समकक्ष हैं।

इन सबका भान जिसे होता है वह न तो भौतिक प्रकाश, गति,  या जडता है, बल्कि तीनों गुणों से अछूता, उनका अधिष्ठान तथा आधार होते हुए भी उनसे अप्रभावित होता है। 

संवाद की सुविधा के लिए और उसे इंगित करने के लिए 'अहं',  'त्वं' या 'तत्' इन तीन सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु वह केवल बाध्यतावश है। 

'अहं' (मैं) आत्मा अर्थात् उत्तम पुरुष एकवचन पद है, जो कि 'अस्मि' (मैं-हूँ) का वाचक है, इसलिए 'अहं' आत्मा है, 'अहंकार'  अहं-प्रत्यय है।

'त्वं' (तुम) जीव अर्थात् वह चेतन तत्व है, जो 'अहं' के परिप्रेक्ष्य में ही होता है। 'त्वं' मध्यम पुरुष एकवचन पद है, जो कि 'असि' (तुम-हो) का वाचक है, इसलिए 'त्वं' चेतना है, जो चेतन प्राणियों में ही पाई जाती है।

अपने अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ चेतन अथवा जड हो सकती हैं ।

'तत्' (वह) पद का प्रयोग ऐसी वस्तुओं को इंगित करने के लिए किया जाता है। 'तत्' अन्य पुरुष एकवचन पद है जिससे केवल जड वस्तुओं को ही इंगित किया जाता है ।

'तत्' पद का प्रयोग ब्रह्म के लिए भी किया जाता है, क्योंकि ब्रह्म का कोई ऐसा लिंग या लक्षण नहीं पाया जाता, जो स्त्रीलिंग या पुंल्लिंग की तरह व्यक्त होता हो। इसलिए ब्रह्म को नपुंसकलिंग सर्वनाम 'तत्' से इंगित किया जाता है। 

किन्तु ब्रह्म को जड और / या चेतन भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ब्रह्म के बारे में जिसे भान है वह 'अहं' ब्रह्म से अन्य नहीं अर्थात् अनन्य है। 

इसलिए ब्रह्म तथा 'अहं' दोनों ही एकमेव चैतन्य मात्र हैं और समस्त भेद आभासी और काल्पनिक हैं।

समय, स्थान और जडता, गति, सभी आभास और कल्पना हैं। 

'अहं' नित्य चेतन (conscious) होता है, 

'त्वं' प्रसंग के अनुसार चेतन (sentient), 

या जड (insentient) हो सकता है, 

'तत्' नित्य जड (insentient) होता है ।

ये तीनों भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में क्रमशः प्रकाश, गति, और जडत्व के समानांतर हैं।

इस पूरी विवेचना में 'ईश्वर' का क्या स्थान है? 

'ईश्वर' को 'अहं' पद से इंगित नहीं किया जा सकता,

ईश्वर को 'त्वं' पद से संबोधित करते ही 'ईश्वर' तथा 'अहं' के बीच एक विभाजन हो जाता है, तथा 'तत्' पद से इंगित करते ही वह अपने से भिन्न हो जाता है। फिर भी 'ईश्वर' के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जो एक है, अनेक भी है, एक और अनेक से परे भी है। एक और अनेक, गुण हैं। ईश्वर गुण-निर्गुण आदि तक सीमित नहीं हो सकता। 

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June 24, 2021

अगर होना यही है!

कविता : 24-05-2021

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किसी दिन अगर ना मिले भी तो क्या है! 

किसी ना किसी दिन तो होना यही है!

किसी दिन अगर ग़म मिले भी तो क्या है!

किसी ना किसी दिन तो होना यही है!

किसी दिन अगर नींद टूटे न तो क्या!

किसी ना किसी दिन तो होना यही है! 

जो होना अगर है किसी ना किसी दिन,

हो जाए अभी ही तो होना यही है!

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June 18, 2021

जैविक हथियार

Biological Weapons 

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(कृपया इस पोस्ट को पिछले पोस्ट के क्रम में आगे पढ़ें)

इस प्रकार कोई शक्तिशाली राष्ट्र अपने सामरिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करता हुआ जैव-हथियारों के निर्माण में प्रवृत्त होकर किसी भयानक वायरस का आविष्कार करता है, जिसमें कोई दूसरा शक्तिशाली राष्ट्र प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उसे सहायता देता है। वैश्विक राजनीति की दृष्टि से ये दोनों वैसे तो परस्पर शत्रु समझे जाते हैं, लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि राजनीति में न तो कोई स्थायी शत्रु होता है, न स्थायी मित्र, इन दोनों के संबंध से पूरे विश्व के लिए कोरोना जैसा गंभीर संकट पैदा हो जाता है। यदि मनुष्य और राष्ट्र लोभ और भय से प्रेरित होकर कर्म करते हैं और उसके परिणाम की जान-बूझ कर या अज्ञान अथवा प्रमादवश उपेक्षा करते हैं तो उसके शुभ अशुभ परिणाम तो होंगे ही। और वे सभी को और हर किसी को आज या कल समान रूप से प्रभावित भी अवश्य ही करेंगे भी।

जिस ज्ञान (या विज्ञान, तकनीक आदि) की बुनियाद ही लोभ और भय पर गढ़ी गई हो, वह नैतिकता-अनैतिकता के दायरे में शुभ-अशुभ की उपेक्षा करते हुए केवल तात्कालिक रूप से भले ही उपयोगी प्रतीत होता हो, संशय और भ्रम से युक्त होता है।

कोरोना का वायरस और उसकी वैक्सीन बनानेवाले किन्हीं भी लक्ष्यों से प्रेरित हुए हों, उनके इस कर्म के परिणाम शुभ ही हों यह ज़रूरी नहीं है। 

विचार, लोभ और भय से या विवेक से भी प्रेरित हो सकता है ।

किन्तु विचार फिर भी अपने या अपने समुदाय की दृष्टि से बँधा होता है। 

विवेक लोभ और भय से रहित होता है और यथार्थ को देखने का एक उपक्रम होता है। 

विचार का आधार और कसौटी है बुद्धि और तर्क, जबकि विवेक की कसौटी है नित्य और अनित्य (के भेद) का वह दर्शन, जो कि किसी भी आग्रह से मुक्त होता है।

यह कसौटी ही मनुष्य को अनायास लोभ और भय से मुक्त कर कर्म के लिए एक ऐसा आधार प्रदान करती है जो वैचारिक द्वन्द्व से रहित होता है। और उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि के लिए स्वतंत्र अन्तर्दृष्टि भी देती है।

विचार कर्म है, विवेक दृष्टि है। न तो कर्म-रहित दृष्टि की, और न ही दृष्टि-रहित कर्म की कोई सार्थकता है।

सच तो यह है कि दृष्टि के अभाव में कर्म, और कर्म के अभाव में दृष्टि, दुःख का ही निरंतर और अंतहीन क्रम भर है।

यह दर्शन (philosophy नहीं), approach, realization ही प्रज्ञा है। 

भारतीय ग्रन्थों में दर्शन को सांख्य, कर्म (मीमांसा), न्याय, योग, वैशेषिक और वेदान्त इन छः प्रकारों का कहा जाता है। 

दर्शन (realization of truth) एक है, किन्तु उसे प्रतिपादित करने के छः तरीके। 

वेद, पुराण, इतिहास (रामायण,  महाभारत) इसे ही ज्ञान अर्थात्  सूचना (information) की तरह प्रस्तुत करते हैं ।

यह ज्ञान अपरा विद्या अर्थात् विचार (thought) है, जो पुनः उपरोक्त दर्शन या दर्शकों से सुसंगत या विसंगत भी हो सकता है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि इन्हें जिस परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, वह परिप्रेक्ष्य प्रत्येक के लिए भिन्न भिन्न होता है। 

वेदों से संबद्ध छः वेदाङ्ग क्रमशः :

शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दस्, ज्योतिष् कहे जाते हैं।

धर्म और अधर्म  का उद्भव और मर्यादा दर्शन के ही अन्तर्गत उस परिसीमा तक है।

इस दृष्टि से वेद साहित्य हैं।

वेदाङ्ग ज्ञान है, और धर्म-अधर्म कर्म हैं। 

इस सबकी तुलना किसी भी मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, (faith) आदि से नहीं की जा सकती, और यदि की जाती है तो इसका ऐसा कोई सुनिश्चित परिणाम नहीं प्राप्त किया सकता, जिससे विचारकों के बीच के पारस्परिक अन्तर्विरोध मिट सकें। 

मान्यता, श्रद्धा, विश्वास, आस्था, निष्ठा आदि विचार-प्रेरित तथा विचार तक सीमित कल्पित बौद्धिक धारणाएँ  होती हैं, जबकि प्रज्ञा इन से नितान्त भिन्न यथार्थ दर्शन मात्र है।

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नैतिकता-अनैतिकता

उचित-अनुचित की पराकाष्ठा 

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इसे हमारा प्रमाद, या दुर्भाग्य कहा जाए या विधाता का विधान, कि भारतवर्ष के विगत 2,000 वर्षों के इतिहास में जो हमारे साथ घटित हुआ उसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं। 

इसे ही :

"समरथ को नहिं दोष गुसाईं"

की उक्ति से भी देखा जा सकता है।

विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत के सनातन धर्म को कुटिलता से प्रत्यक्षतः एवं अप्रत्यक्षतः नियोजित रीति से नष्ट-भ्रष्ट किया उस तरफ हमारा ध्यान जाना तो दूर की बात, हमें उसकी भनक तक न लग सकी, क्योंकि हम अपनी आपसी छोटी-छोटी शत्रुताओं और अहंकार के दंभ में लिप्त थे।

इसका एक उदाहरण जयचन्द और आम्भि हो सकते हैं, किन्तु दूसरा उदाहरण स्वयं पुरु (पोरस) तथा पृथ्वीराज चौहान भी थे। पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी को इसका मौका ही क्यों दिया कि वह 17 बार भारत पर आक्रमण कर सका!

परन्तु इस पोस्ट में एक अन्य उदाहरण को आधार बनाकर पाप-पुण्य और नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न के बारे में विचार किया जा रहा है। 

प्रश्न यह है :

समाज और व्यवस्था को, अपना आचरण न्यायसंगत है या नहीं इसे नैतिकता-अनैतिकता की कसौटी पर तय करना चाहिए, या पाप क्या है और पुण्य क्या है, इस कसौटी पर?

सभी विदेशी शासकों और नीति-निर्माताओं ने कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्धारण पाप-पुण्य के आधार पर अर्थात् पाप क्या है और पुण्य क्या है, इस कसौटी पर नहीं, बल्कि उनके परंपरा से उन्हें प्राप्त (तथाकथित) धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित और परिभाषित पैमानों से किया, जबकि भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्रों ने जो अपने तथा दूसरों सभी के लिए भी अशुभ तथा पतन का कारण है, उसे 'पाप' या 'पातक', और जो स्वयं और दूसरों के लिए भी शुभ, उत्कर्ष तथा वास्तविक कल्याण का कारण है उसे 'पुण्य' का नाम दिया। 

पाप और पुण्य मूलतः एक ऐसा कर्म ही है, जिसका  मनुष्यमात्र के लिए, इसीलिए पूरे समाज तथा संसार के लिए भी अशुभ या  शुभ फल होता है। 

नैतिकता-अनैतिकता के आधार पर उचित या अनुचित, कर्तव्य या अकर्तव्य की शिक्षा देनेवाले (बुद्धिजीवी / विचारक) पाप-पुण्य के मौलिक तत्व को जान-बूझकर या शायद संयोगवश ही  भूलकर केवल किसी वर्ग-विशेष के सांसारिक-भौतिक लाभ-हानि को दृष्टि में रखकर हमारा ध्यान इस आवश्यक, व मौलिक प्रश्न से हटा देते हैं कि मनुष्य का आचरण, - पाप क्या है, पुण्य क्या है, इस आधार से कर्तव्य तथा अकर्तव्य तय किया जाना चाहिए या किसी और आधार (कसौटी) से? 

यही मौलिक भेद पाप-पुण्य और नैतिकता-अनैतिकता के बीच है। 

अभी कोरोना महामारी का विस्फोट हुआ। 

प्रश्न उठा कि कोरोना की औषधि, उपचार क्या हो सकता है?  

हमें अन्ततः इस सत्य को चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने स्वीकार करना ही होगा कि जब तक मनुष्य और समाज, नैतिकता तथा अनैतिकता (ethical / unethical, moral / immoral) के पैमाने से न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य को तय करने का प्रयास करता है तब तक केवल एक विचारधारा या विचार से दूसरे विचार या विचारधारा के बीच भटकता रहता है। 

किन्तु जब मनुष्य और समाज पाप-पुण्य के पैमाने / कसौटी से न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य को तय करने का प्रयास करता है, तो विचार की सीमित क्षमता से परे जाकर, विचार से ऊपर उठकर, विवेक का आविष्कार और प्रयोग करने लगता है। इसे शायद प्रत्युत्पन्नमति :

"Out of the box thinking"

कह सकते हैं।

विवेक से सभी के लिए और सभी के साथ अपने लिए भी जो हितकारी है, ऐसा शुभ कर्म या जो अन्ततः इस प्रकार सभी के लिए और अपने लिए भी अहितकारी है, ऐसा अशुभ कर्म क्या हो सकता है इस ओर ध्यान दिया जाना संभव हो पाता है। 

दूसरी ओर, जब मनुष्य विचार और वैचारिक आधार तथा नीति-अनीति (ethics and morality) के छद्म से मोहित-बुद्धि हो  केवल अपनी स्वार्थ-साधना में तत्पर होता है, तब विवेक पर भी उसका ध्यान  नहीं जा पाता। तब अपना वर्ग, जाति, समुदाय,  समाज आदि को ही केन्द्र में रखकर नैतिक-अनैतिक क्या है, इसे तय किया जाता है।

इसलिए युद्ध न्यायसंगत है या नहीं इस प्रश्न के बहाने मनुष्य और समुदाय :

"सबके लिए क्या शुभ और हितप्रद है, और क्या अहितप्रद और अशुभ है?"

इस बुनियादी प्रश्न से पलायन कर जाता है। 

तब वह यह नहीं देख पाता कि युद्ध बाध्यता है, या कर्तव्य।

इस प्रकार समाज अर्थात् धरती पर मनुष्यों का जो समूह है वह  अनेक वर्गों में बँट जाता है।

ऐसा ही कोई वर्ग किसी विचार-विशेष को महत्व देकर उसे आदर्श और ध्येय मानकर उसका प्रचार, प्रसार और विस्तार करने को ही परम महत्वपूर्ण मानने लगता है। 

ऐसा ही एक प्रेरक विचार है :

'प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त'

जिसकी दुहाई सभी देते हैं, भले ही अपनी मान्यताओं के संबंध में वे एक-दूसरे के कट्टर शत्रु ही क्यों न हों। 

आभास तो यही होता है कि इस विचार से मनुष्य-मनुष्य के भेद से ऊपर उठकर सबको समान समझने की प्रेरणा मिलती है।  इसे 'नैतिकता' भी कहा जा सकता है। 

क्या विचार और वैचारिकता के इस आधार को व्यवहार के स्तर पर सरलता से प्रयोग में लाया जाना संभव है?

लगता तो यही है कि नैतिकता की इस कसौटी पर सभी सहमत होंगे। किन्तु फिर, स्वार्थ से प्रेरित होकर इसका रूपान्तरण :

"all are equal but some are more equal than the others"

में हो जाता है।

भिन्न भिन्न स्वार्थ-केन्द्रित वैचारिकताएँ और सामूहिक विभाजन इस प्रकार और अधिक आग्रह से अपने अपने पक्ष में उग्रता से प्रतिबद्ध होकर कार्य करने लगते हैं और तब समष्टि हित दृष्टि से ओझल हो जाता है।

कोरोना का उद्भव और उससे सामना करने का हमारा प्रयास  हमारी इसी विवशता, उत्तरदायित्वहीनता, सामूहिक मूर्खता तथा मूढ़ता की ओर संकेत करता है।

यदि कोई राष्ट्र-सत्ता या मनुष्यों के किसी भी वर्ग की राजनैतिक शक्ति जो अपने-आपको घोषित या अघोषित रूप से किसी भी  (तथाकथित) धर्म-विशेष से जुडी़ या किसी राजनैतिक वाद के अनुसार नास्तिक भी मानती हो, और इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष या तटस्थ भी हो, और अपने आपके न्यायसंगत होने का दावा भी करती हो, तो उसे अपने तथाकथित नैतिक मूल्यों के लिए कोई  आधार या कसौटी तो तय करना ही होगी। स्पष्ट है कि वैचारिक भिन्नताएँ ऐसा कोई सुनिश्चित समुचित आधार नहीं हो सकती क्योंकि वे मूलतः परस्पर भिन्न और अनेक बार एक-दूसरे की प्रखर और घोर विरोधी तक होती हैं। यही तो हमारे समय की  विडंबना / दुखती रग है! 

दूसरी ओर यदि  हमारा ध्यान इस पर हो कि वह पाप-पुण्य क्या है, - जिसको आधार बनाकर ऐसी कोई कसौटी तय की जा सके, तो अवश्य ही वैचारिकताओं की भूलभुलैयाओं और विसंगतियों आदि से छूटकर सबके लिए हितकारी मूल्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित और तय भी किया जा सकता है।

कोरोना का वायरस प्रकृति से आया, प्रयोगशाला में बनाया गया या उसे भूल से या इरादतन जान-बूझकर लीक कर दिया गया, इसे जान पाना वैसे भी बहुत कठिन है, किन्तु इसे जान लेने के बाद भी इस वायरस के दुष्प्रभावों से बच पाना तो उससे और भी ज्यादा कठिन है।

किन्तु जिस मानसिकता से प्रेरित होकर से इस मुद्दे के हल के बारे में प्रयास किए जा रहे हैं वह मानसिकता भी मनुष्य को केन्द्र में रखकर इस विचार पर आधारित है कि मनुष्य के हित के लिए दूसरे समस्त जीवों के जीने के अधिकार की अवहेलना कर दी जाए। क्या यह "प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त" के अनुरूप है? 

प्रश्न उठता है कि हमारी तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद क्या हम इस अथवा किसी भी वायरस की उत्पत्ति के मूल कारणों को जान सके हैं? 

एक आनुषङ्गिक (किन्तु गौण नहीं) प्रश्न यह भी उठ खड़ा हुआ है कि वैक्सीन का निर्माण जिस विधि से किया जाता है उसमें गौवंश (bovine) से प्राप्त सीरम को आधार बनाकर वैक्सीन विकसित किया जाता है और इसलिए यह प्रश्न किसी वर्ग या समुदाय के लिए केवल सामाजिक नैतिकता का न होकर धर्म से जुड़ा मामला हो जाता है। 

क्या तथाकथित वैज्ञानिक समझ को बलपूर्वक किसी समुदाय पर थोपा जा सकता है! नैतिकता (ethics) के आधार पर इस बारे में क्या कहा जा सकता है?

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--- क्रमशः ...

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June 16, 2021

क्या मिलेगा!

कविता : 16-06-2021

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क्या मिलेगा किसी से दोस्ती करके, 

क्या मिलेगा किसी से दुश्मनी करके! 

क्या मिलेगा किसी से मुहब्बत करके, 

क्या मिलेगा किसी से नफ़रत करके! 

क्या मिलेगा किसी को मौत से डर के, 

क्या मिलेगा किसी को ज़िंदगी जी के! 

क्या मिलेगा दुःखदर्द किसी से बाँटकर,

क्या मिलेगा रखकर खुशी सहेजकर!

नहीं है पास जो उसके, उससे न माँगो चीज़ ऐसी,

क्या मिलेगा किसी को बेवजह शर्मिन्दा करके!

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June 12, 2021

Time and Space.

दिक्काल कथा : आत्मा के परिप्रेक्ष्य में :

Sri J.Krishnamurti notes :

Time and Space

But exist in mind, 

(Poems and Parables of J.Krishnamurti)

श्री जे.कृष्णमूर्ति द्वारा लिखी गईं उपरोक्त पंक्तियाँ उनकी इस उल्लिखित पुस्तक में पढ़ी जा सकती हैं। 

हिन्दी में :

काल और समय,

होते हैं मन के भीतर! 

--

श्री रमण महर्षि के शब्दों में :

क्व भाति दिक्काल कथा विनाऽस्मा 

न्दिक्काल लीलेह वपुर्वयं चेत् ।

न क्वापि भामो न कदापि भामो

वयं तु सर्वत्र सदा च भामः ।।१८

--

(सद्दर्शनम्)

हमारे अपने (शरीर रूपी अस्तित्व के) अभाव में स्थान और काल की प्रतीति किसे और कैसे हो सकती है! यह दिक्काल कथा वास्तव में हम पर ही अवलंबित है! यदि हम न हों तो न तो यह शरीर, न दिक्काल ही हो सकता है।

अतः दिक्काल के रूप में, तथा संसार के रूप में भी जो भी है, वह सब हमारा अपना ही (आत्मा का) ही अस्तित्व है। 

--

इसी प्रकार  श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।। १२

(अध्याय २)

किसी काल में मैं (अहं अर्थात् आत्मा) नहीं था, ऐसा नहीं किंतु अवश्य था, अर्थात् भूतपूर्व शरीरों की उत्पत्ति और विनाश होते हुए भी मैं (अहं - आत्मा) सदा ही था / होता है। 

वैसे ही तू नहीं था सो नहीं किंतु अवश्य था,  ये राजागण नहीं थे सो नहीं किंतु ये भी अवश्य थे। 

इसके बाद अर्थात् इन शरीरों का नाश होने के बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किंतु अवश्य रहेंगे। अभिप्राय यह है कि तीनों कालों में ही आत्मरूप से सब नित्य हैं।

यहाँ बहुवचन का प्रयोग देहभेद के विचार से किया गया है, न कि आत्मभेद के अभिप्राय से। 

(गीता शाङ्करभाष्य से) 

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सोचता था...

कविता : 12062021

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वैज्ञानिक / गणितज्ञ 

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सोचता था वह अकसर,

क्या ही अच्छा हो अगर,

हो स्केल कोई रबर की, 

छोटी बड़ी हो वक्त पर!

दोस्त हँसते थे सब उसके,

समझते थे उसे पागल,

हँसते थे शिक्षक उस पर,

दूसरे भी सब उस पर!

उसने भी फिर तय किया, 

क्यों न खोजें कुछ ऐसा ही,

खोज ऐसी चीज़ की, 

आसान है, मुश्किल नहीं!

गया उसका ध्यान तब, 

ऐसी ही एक चीज़ पर,

नाप सकता है कोई भी, 

जब भी जो चाहे अगर! 

और ये हैरत कि वह भी, 

चीज़ भी ऐसी ही है,  

जिसको सब हैं जानते, 

जिससे हैं वाकिफ सभी!

फिर जो उसने राज़ यह, 

जो पूछकर सबसे देखा, 

कोई न दे पाया जवाब, 

उससे फिर सबने पूछा ।

वक्त ही क्या वह शै नहीं,

जिससे हैं वाकिफ सभी, 

जो कभी होता है लंबा, 

या कि फिर छोटा कभी!

हाँ नाप सकता है उसे,

जो भी चाहे आदमी, 

और उसके ही सहारे, 

चलता है संसार भी!

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June 09, 2021

जब

कविता : 09-06-2021

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जिज्ञासा / कौतूहल, 

अजीब दासताँ है ये....!

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जब मुझे कुछ भी, महसूस नहीं होता, 

क्या मैं होता हूँ तब, ज़िन्दा या मुर्दा!

जब मुझे कोई भी, एहसास नहीं होता,

क्या मैं होता हूँ तब, इंसां या पत्थर!

जब मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता, 

जब मुझे कोई भी एहसास नहीं होता, 

क्या होता है तब मेरा, वजूद या हस्ती कोई!

जो कह सके कि मैं हूँ, या कि, मैं हूँ ही नहीं!

क्या ये एहसास होना, और ये महसूस होना,

ये मुझसे हुआ करते हैं, या हुआ करता हूँ मैं!

सिर्फ़ ये दोनों ही हैं, अगर वजूदो-हस्ती भी,

और ये दोनों ही हैं, सिर्फ़ जिस्मो-जान अगर,

फिर है क्या मतलब, मेरे कुछ भी होने का,

फिर है क्या मतलब, मेरे कोई भी होने का! 

तो फिर वो क्या, कौन है, जिसे ये लगा करता है,

कि मैं हूँ कौन? कोई, और क्या है, पहचान उसकी!

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प्रवाह-पतित

कविता : 09-06-2021

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वृक्ष से टूटा हुआ पत्ता,

बहती हुई निर्मल नदी, 

अभी वह हरा ही था,

अभी वह गिरा ही था,

अभी तो देखे ही थे,

 उसने, दो-चार ही दिन !

धीरे-धीरे, पर उमंग में, 

नृत्य सा करता हुआ,

उस हवा से बात करता, 

जिसने गिराया था उसे, 

छू लिया जब अंततः तो,

नदी-जल की सतह को, 

चल पड़ा उल्लास में, 

बहता हुआ, पानी के संग,

बहता हुआ ही साथ साथ,

खेलता, मछलियों के संग,

क्या पता, क्या था भविष्य,

अतीत की, स्मृतियाँ थी बस,

न आशा थी, न कोई भय,

वहाँ तो था उत्साह बस,

और फिर बहता हुआ ही,

पहुँचा जब नदी के तट,

पल भर तो ठिठका रहा,

देखा वहाँ वही विटप, 

जिससे गिरा था टूटकर,

और तब ही गिरा एक, 

और पत्ता जीर्ण शीर्ण,

पका हुआ, प्रौढ़, वृद्ध! 

दो पल रहे, दोनों विस्मित,

आलिंगित रहे दो पल, 

वृक्ष से यूँ टूट कर भी, 

इस मिलन में हर्षचकित। 

चल पड़े फिर साथ साथ, 

थाम इक दूजे का हाथ,

पुनः किन्तु हो गए अलग, 

बह चले वो, अपनी राह, 

वहाँ न था विषाद, न शोक, 

उनका वह प्रकृति-लोक,

जन्म-मृत्यु से परे, 

चिरंतन, अमृत-आलोक! 

***











June 08, 2021

तो मेरे कितने घर!

कविता : 08-06-2021

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तीतर के दो आगे तीतर, 

तीतर के दो पीछे तीतर,

बोलो कितने तीतर? 

एक तो वो, जो मेरे बाहर, 

वो भी एक, जो मेरे भीतर,

बोलो मेरे, हैं कितने घर?

मैं हूँ कहाँ, कहाँ मेरा घर, 

मैं जो भी हूँ, वह मेरा घर! 

सवाल यह है, कौन हूँ मैं, 

सवाल यह है, क्या हूँ मैं!?

अतीत है एक, स्मृति है एक, 

भविष्य है एक, कल्पना, एक!

लेकिन हैं जिस वर्तमान में, 

दोनों, वह वर्तमान भी एक! 

तीनों तीतर, आगे-पीछे,

एक-दूसरे के हैं पीछे, 

क्या हैं, कितने हैं तीतर, 

बोलो कितने तीतर! 

पानी केरा बुदबुदा, 

अस मानस की जात,

देखत ही छिप जाएगा, 

ज्यौं तारा परभात! 

मैं पानी का बुदबुदा, 

मैं पानी की जात,

मैं मानस, मैं बुदबुदा,

मानस मेरी जात! 

मेरे इतने घर लेकिन,

नहीं ठिकाना एक,

इसीलिए रचता रहता,

रहने के लिए अनेक! 

कभी अतीत में जा रहता,

कभी भविष्य के सपने में, 

कभी ढूँढ़ता खुद को बाहर, 

कभी ढूँढ़ता 'अपने' में! 

तीतर के दो आगे तीतर, 

तीतर के दो पीछे तीतर,

एक भटकता है बाहर,

एक छिपा रहता है भीतर! 

तो मैं तीतर, तितर-बितर, 

खुद अपने ही बाहर भीतर,

नित व्याकुल, नित घबराता,

नहीं कहीं, मैं आता जाता!

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर,

बोलो कितने तीतर!!

***







June 07, 2021

ठहरा हुआ समय

तलाश, घर की! 

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बरसों से यही चल रहा है ।

अचानक पता चलता है, कहीं जाना है। 

और जाना मतलब, - यहाँ से कहीं दूर जाना है। 

जहाँ हूँ वह सिर्फ़ पड़ाव है, जहाँ मजबूरी में रुका हुआ हूँ। 

बिलकुल बचपन से ही। 

अकसर लोगों को बहुत हद तक यह पता होता है, कि उन्हें कहाँ जाना है! जहाँ वे हैं, उससे बेहतर, दूसरी किसी जगह। 

लेकिन मुझे हमेशा से यही महसूस होता रहा है कि मुझे कहाँ जाना है यह भी न मालूम है, न पता है, और न तय! 

अकसर लोग किसी जगह कुछ दिनों (या वर्षों) के लिए जाते हैं, और वह समय बीत जाने पर लौट आते हैं। या फिर, घर से दूर मर जाना न चाहते हुए, गिरते-पड़ते हुए जैसे तैसे घर लौट या पहुँच जाते हैं, और या तो वहीं मर जाते हैं, या किस्मत खराब हो तो रास्ते में ही कहीं पर उनकी मृत्यु हो जाती है, जहाँ कोई पराए और अनजान लोग इंसानियत के नाते दया करते हुए उनका अंतिम संस्कार कर देते हैं। कभी कभी घर तक उनकी खबर पहुँच जाती है, तो कभी कभी वे ऐसे ही एकाएक अदृश्य और विस्मृत हो जाते हैं।

हर किसी को अकसर कोई न कोई तात्कालिक, वास्तविक या आभासी घर मिल जाता है, जहाँ वह ऐसे ही कुछ वास्तविक या आभासी 'अपनों' के साथ आपस में अपने सुख-दुःख बाँटता हुआ जीता रहता है। 

उसका यह घर किसी गाँव, कस्बे, शहर या महानगर में होता है, या किताबों, कला, राजनीति, खेल, व्यापार-व्यवसाय, साहित्य, फ़िल्मों, काव्य-मंचों, या तलवार-तमंचों में उसे महसूस होता है!

मुझे ऐसा कोई घर न तो मिल पाया, न कभी मैंने खोजा ही।

आज भी मैं नहीं कह सकता, कि क्या ऐसा कोई घर वाकई कहीं होता है, या कि हो भी सकता है क्या!

लेकिन कभी कभी जरूर यह खयाल दिल में शिद्दत से आता है, कि मेरा घर कहाँ है!  

***


परिचिन्तयन्

माया और चिन्ता :

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दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।। १४

(श्रीमदभगवद्गीता अध्याय ७)

किसी संत कवि ने कहा है :

ब्रह्मा के ब्रह्माणी भई, शंकर के भई शिवानी,

विष्णू के लक्ष्मी भई माया, महाठगिनी हम जानी।

ये संत कवि कितने भी महान रहे हों कवि भी तो थे ही।

कवि होने के कारण उनकी बुद्धि शायद मोहित हो गई होगी, या मोहित न भी हुई हो, तो उन्हें पता ही रहा होगा कि कर्म क्या है तथा अकर्म क्या है, क्योंकि इस बारे में प्रायः हर किसी की बुद्धि मोहित हुआ करती है:

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।। १६

(गीता, अध्याय ४)

चिन्ता चिन्मयी माया की एक अभिव्यक्ति है, और चिन्माया ही जगज्जननी है, जगन्माता है। यह माता कभी कभी अपने उन शिशुओं से उस समय छल करती प्रतीत होती है, जब वे उसका केवल अनादर ही नहीं, प्रमाद व अज्ञान से ग्रस्त होने से उपहास और अवमानना भी करने लगते हैंं, उसे उसके गौरव से वंचित कर अपने अधिकार की उपभोग की वस्तु मान लेते हैं ।

और तब इसका दंड उन्हें प्राप्त होता है। फिर भी कभी कभी वे नहीं चेतते और माया पर महाठगिनी होने का दोषारोपण करने लगते हैं।

किन्तु एक अन्य भक्त कवि आदि शंकराचार्य इस विषय में सचेत करते हैं :

कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।।३

(देव्यापराधक्षमापन-स्तोत्रम्)

यह "छल" क्या है?

यही वह दंड है जो माता के प्रति ऐसी बुद्धि रखनेवालों को प्राप्त होता है। यह है मोहित और भ्रमित, दूषित और कुटिल बुद्धि। 

कल्पना से भी माया का उपहास करना गलतफहमी नहीं है, तो और क्या है? किन्तु ऐसा भी तो हो सकता है कि संत कवि को यह गलतफहमी न हुई हो और उन्होंने कविता की पृष्ठभूमि के रूप में माया को महाठगिनी कहा हो!

तो,  चिन्ता का रोचक पक्ष यह भी है :

अज्ञश्च अश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।। ४०

(गीता अध्याय ४)

इसलिए चिन्ता कभी कभी भूल से, केवल कोरे अज्ञान, भ्रम या गलतफ़हमी से भी पैदा हो जाती है। 

यही मायारूपी गुणमयी माया के तीन तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण हैं, जो क्रमशः शिव, विष्णु तथा ब्रह्मा जैसे बड़े बड़े देवताओं को भी मुग्ध कर देते हैं। 

यह हुआ औपचारिक सत्य ।

जब इन बड़े बड़े देवताओं की चेतना परमात्मा से हटकर अज्ञान और मोह से ग्रस्त हो जाती है, तो वे भी साँसारिक मनुष्यों जैसे ही माया के वश में हो जाते हैं। किन्तु जिस मनुष्य का चित्त या मन परमात्मा के ध्यान में संलग्न और रमा होता है, उसका मन साँसारिक विषयों की तरफ क्यों जाएगा! 

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।

परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।। ८

(गीता अध्याय ८) 

अर्जुन ने इसीलिए भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा था :

कथं विद्यामहं योगिंस्त्वां सदा परिचिन्तयन्।

केषु केषु च भावेषु चिन्त्योऽसि भगवन्मया।। १७

(गीता, अध्याय १०)

यह हुआ चिन्ता से निवृत्ति होकर चिन्तन, चिन्तन से अनुचिन्तन, तथा अनुचिन्तयन् से परिचिन्तयन् की दिशा में अग्रसर होना।  

***

बोलो, माया मैया की! 

--- जय हो!!

***




 

June 06, 2021

किन्तु

चिन्ता का आध्यात्मिक पक्ष :

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चिन्ता के दो पहलुओं पर पिछले दो पोस्ट में लिखा। 

लेकिन चिन्ता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और जिस पर एकाएक ध्यान ही नहीं जा पाता वह तीसरा पहलू है यह प्रश्न :

चिन्ता "किसे" होती है?

जिसे चिन्ता होती है, वह क्या है?

क्या वह शरीर, मन, या बुद्धि है?

चिन्ता की ही तरह क्या शरीर, मन और बुद्धि भी संवेदनशीलता के ही कारण, और संवेदनशीलता में ही नहीं प्रतीत  होते?

फिर वह कौन / क्या है, जो संवेदनशील है?

क्या वह, सिर्फ संवेदनशीलता, बोधगम्यता और बोध-मात्र नहीं है? क्या इस संवेदनशीलता या बोधगम्यता में, ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय की तरह, अनुभव (विषय-संवेदन), अनुभवकर्ता (विषयी) और अनुभव किए जानेवाले विषय की तरह तीन भिन्न भिन्न आयाम होते हैं?

अतः यह संवेदनशीलता, जिसमें संसार (और शरीर), तथा मन, बुद्धि, भावनाएँ तथा स्मृति / पहचान आते जाते हैं, क्या कोई व्यक्ति है? क्या यह संवेदनशीलता / बोध और बोधगम्यता स्वयं ही अपना अचल अविकारी (immutable) अधिष्ठान नहीं है?

तो चिन्ता किसे होती है? 

तो चिन्ता क्या मन की एक वृत्ति ही नहीं है?

जैसे अस्मिता अर्थात् "मैं" का विचार, भावना या बुद्धि एक वृत्ति (mode of mind) है!

इस प्रकार चिन्ता जो कि वृत्ति-मात्र (mode of mind) है, और जहाँ से उठती है, जहाँ विलीन होती है, वह अन्तःकरण, हृदय या अन्तर्हृदय ही तो अस्तित्व की आत्मा है।

इस प्रकार अस्तित्व की अर्थात् अपनी और जगत की भी आत्मा यह अन्तर्हृदय ही है, जहाँ अहंकार (ego)  के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता।

***

  


... चिन्ता (निरंतर...)

चिन्ताक्रम 

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चिन्ता को मारो गोली, 

या फिर करो ठिठोली, 

या कर लो अनबोली,

पर चिन्ता है अलबेली!

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चल दोस्त दारू पीते हैं! 

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एक तरीका है :

स्वेट मार्डन की किताब :

"चिन्ता छोड़ो,  सुख से जियो!"

पढ़ो! 

नॉर्मन विन्सेन्ट पील की किताब भी सहायक हो सकती है! 

मोटीवेशनल स्पीकर्स की मोटी मोटी किताबें पढ़ने का धैर्य न हो, तो वीडियो ही वॉच कर लें!

--

चिन्ता "क्या" है, इस पर अनेक चिन्तकों ने विस्तार से विचार किया है। 

--

हम चिन्ता "क्यों" करते हैं, इस पर भी बहुत से मनोवैज्ञानिकों ने अनुसंधान किया है! 

--

हम "किसकी", अर्थात् किस विषय में चिन्ता करते हैं, इस ओर ध्यान देना भी उपयोगी हो सकता है।

प्रश्न यह भी है, कि क्या वाकई हम चिन्ता करते हैं, या चिन्ता हमें अचानक, अनपेक्षित रूप से वैसे ही होने लगती है, जैसे ज़ुकाम या फ्लू हो जाता है!

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है, कि चिन्ता क्या एक स्वैच्छिक गतिविधि होती है, या अनैच्छिक गतिविधि होती है?

क्या हमें एक ही चिन्ता होती है? 

मतलब यह, कि क्या किसी एक ही सुनिश्चित क्षण में हमें एक से अधिक चिन्ताएँ हो सकती हैं?

स्पष्ट है कि किसी भी समय पर एक से अधिक चिन्ताएँ हम पर हावी नहीं हो सकती, क्योंकि ऐसी स्थिति में स्वाभाविक रूप से  हमारा मन ठिठक जाता है, और तब उन दोनों में से जो चिन्ता अधिक महत्वपूर्ण या शक्तिशाली होती है, वही हमें वश में कर लेती है! 

उदाहरण के लिए, जब हमें भूख भी लगी हो, और नींद भी आ रही हो, लेकिन हम बस या ट्रेन में बैठे हुए न तो सो पा रहे हों, न खाने के लिए ही कुछ पास हो, तो यह चिन्ता हमारे लिए अधिक आवश्यक होती है कि पहले सावधानी से यात्रा पूरी हो जाए।

इसलिए चिन्ता दूर तो हो सकती है, लेकिन चिन्ता को किसी प्रयास से ही दूर किया जा सकता है। इसलिए यदि हो सके तो ऐसा कोई प्रयास किया जाना चाहिए न कि चिन्ता! 

यह तो हुआ चिन्ता का व्यावहारिक पक्ष। 

किन्तु चिन्ता का एक मनोवैज्ञानिक पक्ष भी है, क्योंकि चिन्ता मन से जुड़ा तत्व है।

जब जीवन हमारे सामने ऐसी कोई नई चुनौती प्रस्तुत करता है, जिसे न तो हम अपने ज्ञात / ज्ञान के, और न ही अपने पहले के किसी और अनुभव के आधार से समझ पाते हैं, तो हम उस चुनौती का सामना करने के लिए या तो किसी से सहायता लेते हैं, या उसके स्वरूप का आकलन करने के लिए पहले उस चुनौती पर अपना ध्यान एकाग्र करते हैं। हम पूरी स्थिति को ठीक ठीक समझने के लिए अपने इंद्रिय-ज्ञान का सहारा लेते हैं, और इसके बाद बुद्धि और फिर स्मृति का सहारा लेते हैं। 

किन्तु जैसा कि अंतिम पैराग्राफ़ में कहा गया है। जब जीवन हमारे सामने ऐसी कोई सर्वथा नई चुनौती प्रस्तुत करता है, तब आवश्यक नहीं, कि इनमें से किसी भी उपाय से उस चुनौती का समुचित प्रत्युत्तर दिया ही जा सके। 

चिन्ता करने से ही यदि हम किसी चुनौती का सामना सफलता-पूर्वक कर सकते हैं तो चिन्ता की अवश्य ही अपनी उपयोगिता है । किन्तु जब मन (जीवन के संबंध में) सीखने के लिए उत्सुक और उत्कंठित होता है तो चिन्ता की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती। उस समय मन अतीत-रूपी किसी ज्ञात, अथवा ज्ञान रूपी आशा या भय से मुक्त होता है, और तब हम आश्चर्यजनक रूप से अकस्मात् ही जीवन की किसी भी चुनौती का सामना तत्क्षण और उत्साह पूर्वक करते हैं। तब हमें सफल होने या न होने की चिन्ता भी नहीं रहती, और चिन्ता अनायास, अप्रासंगिक और अनावश्यक भी हो जाती है। 

***


 






चिन्ता और चिन्तन

किसी ने कहा है :

माया महाठगिनी!

शायद माया और चिन्ता एक ही वस्तु है।

जैसे माया बड़े-बड़े ज्ञानियों ध्यानियों का पीछा नहीं छोड़ती,  चिन्ता भी इसी तरह सबके साथ लगी रहती है। 

साधु-सन्त हों, तथाकथित वैरागी-संन्यासी, या वैज्ञानिक विद्वान, सभी चिन्ता के वश में होते हैं। चिन्ता भी माया की ही तरह वैसे तो निराकार और अमूर्त होती है, किन्तु अपने प्रभाव की दृष्टि से माया की तुलना में अधिक प्रत्यक्षतः अनुभव होती है।

चिन्ता भी क्या आशा का ही पर्याय नहीं है! 

कालः क्रीडति गच्छति आयुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः।। 

उक्त पंक्ति के बारे में किसी पाठक का आग्रह था, कि यहाँ आशा का तात्पर्य hope नहीं, desire (इच्छा) है!

कठोपनिषद् १,१ के अनुसार :

आशाप्रतीक्षे संगत्ँ सूनृतां च

इष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान्। 

एतद् वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो

यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे।। ८

के सन्दर्भ में आशा का अर्थ इच्छा से उत्पन्न मनोदशा हो सकता है। इच्छा, आशा, अवश्य ही 'भविष्य' नामक अमूर्त और अग्राह्य काल्पनिक वस्तु की प्राप्ति होने की संभावना से प्रेरित विचार मात्र होता है। इस प्रकार यद्यपि कोई आशा, इच्छा यदि पूर्ण हो भी जाती है, तो भी ऐसी अनेक दूसरी आशाएँ और इच्छाएँ तो निरंतर उत्पन्न होती रहती हैं जिनका पूर्ण होना असंभव होता है, क्योंकि उनमें से बहुत सी परस्पर विरोधाभासी और विसंगत ही होती हैं। 

चिन्ता इस अर्थ में और भी विलक्षण है, कि उसमें आशा के साथ साथ आशंका भी छिपी होती है। आशंका अर्थात् यह डर भी कि कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए।

***

क्रमशः --

अगली पोस्ट में भी... 

June 05, 2021

लकड़ी की काठी,

कविता : 05-06-2021

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काठ को बेचैनी कभी नहीं होती, 

चाहे पड़ा हो पानी में, या नदी में, 

बहता-रुकता हुआ, नदी की धारा में,

या कि भँवर में डूबता-उतराता हुआ! 

या हो कठपुतली, किसी के हाथों की,

जिसकी उँगलियाँ ही नचाती हों उसे, 

खोखली वंशी, मुरलिया गिरिधर की! 

जिसको बच्चा कोई बजाता हो,

या नटवर मोहन कहीं कोई व्रज में, 

काठ को चिन्ता भी नहीं होती, 

काठ का उल्लू हो, या घोड़ा कोई!

एक ही स्थान पर डगमग होता है, 

न पीछे जाता, और न आगे जाता!

तुम अगर काठ हो, तो बेचैन क्यों हो,

और नहीं हो अगर, तो फिर क्या हो!

काठ हो, सोना हो, पत्थर हो, या मिट्टी!

ये सभी,  सबके सब होते हैं सम-दृष्टि!

काठ हो, तो क्यों न हो रहो तुम काठ ही!

क्यों न सीख लो सम-दृष्टि का पाठ ही!

***





वह लड़की छोटी सी!

एक स्वप्न विचित्र सा! 

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बहुत पहले मैं एक लड़की को जानता था! 

वह मेरे शिक्षक की बेटी थी। तब मैं कक्षा 9 में पढ़ता था। वह 4-5 वर्ष की रही होगी। अकसर मैं उसके साथ खेलता था। सच तो यह है, कि जहाँ मैं रहता था, उस गाँव में पिताजी के अलावा कुछ इने-गिने नौकरी-पेशा लोग ही थे, जिन्हें रहने के लिए वहाँ  पी.डब्ल्यू.डी. के क्वार्टर मिले हुए थे। 

उस लड़की से सिर्फ पहचान थी, कोई लगाव नहीं था। शायद बच्चों की जैसे आपस में हो जाती है, वैसी ही उससे दोस्ती थी। मेरी ऐसी ही दोस्ती दो और लड़कियों से थी, जो उम्र में मुझसे तीन-चार साल छोटी थीं। उनके साथ मैं कभी-कभी बैडमिन्टन खेलता था। उनके छोटे भाई के साथ स्कूल जाता था, इसलिए उससे और उन दोनों बहनों से पहचान हो गई थी। उनसे लगाव या किसी प्रकार का कोई आकर्षण नहीं था। जिस लड़की के प्रति थोड़ा आकर्षण था, उससे मिलने की न तो कोई वजह थी, न बहाना। 

हाँ मेरी बहनों से वह अकसर मिलती रहती थी।

गाँव में किसी घर में अखंड रामायण का पाठ हो रहा था, जहाँ वह दिखाई दी थी, तो मैं भी मित्र के साथ खुशी खुशी चला गया। वह सामने की पंक्ति में स्त्रियों और लड़कियों के साथ बैठी हुई थी, और मैं लड़कों और पुरुषों की पंक्ति में उसके सामने ही बैठा था। मेरा दोस्त उसके ठीक सामने बैठा हुआ था। कभी कभी हम दोनों की नजरें पल भर के लिए टकरा जाती थीं। उस समय या तो वह कोई चौपाई पढ़ रही होती, और मैं अपनी बारी आने की प्रतीक्षा में चुपचाप होता, या मैं कोई चौपाई पढ़ रहा होता और वह इधर उधर देखते हुए, अपनी बारी का इंतजार कर रही होती। 

केवल 

"मंगल भवन अमंगल हारी।

द्रवहुँ सो दसरथ अजरबिहारी।।

दीनदयाल बिरद संभारी।

हरहु नाथ मम संकट भारी।।"

कहते समय हमारे सुर अवश्य मिल जाते थे।

वहाँ अभी अधिक समय बीता भी न था, कि एक बडा़ आदमी आया, और उसने मुझसे और मेरे दोस्त से भी रामचरितमानस ले ली, इसलिए हम वहाँ से लौट आए।

जब रामायण पूरी हो चुकी, तो हम प्रसाद लेने गए थे, और उस लड़की ने ही मुझे परोसा था। उसके साथ की स्त्री को शरारत सूझी। उसने मेरे सामने ही, कटाक्ष से मुझे देखकर उससे पूछा :

'ऐसा कौन सा भारी संकट तुझ पर आ गया है?'

मैं तो कुछ समझ न सका, लेकिन दूसरे लोग कोई खुलकर तो कोई मुँह ढाँपकर हँसने लगे थे। 

इसके बाद मेरी उस लड़की से कभी मुलाकात नहीं हुई। 

शायद मुझे यह सब याद न आता, यदि चार दिन पहले मुझे यह स्वप्न न आता। वह स्वप्न भी दो हिस्सों में आया। 

पहला हिस्सा :

किसी स्थान पर मैं किसी जंगली रास्ते से गुजर रहा था। 

अचानक एक गोल-मटोल, बहुत छोटी सी लड़की मेरे पास आई और मुझसे बोली :

"मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।"

मैंने कहा,  

"ठीक है!"

लेकिन वह थक रही थी। उसके पास कोई खिलौना था। वह बोली :

"बप्पा को तुम उठा लो न!  मैं थक गई हूँ!"

मैंने देखा, वह शायद गणेशजी की छोटी सी मूर्ति थी।

"ठीक है! मैंने कहा और उस प्रतिमा को अपने कंधे पर रख लिया। अभी हम थोड़ी दूर चले थे कि उसने कहा :

"लाओ मेरे बप्पा मुझे दे दो!"

और उसने मुझे झूठ-मूठ का लड्डू देते हुए कहा :

"यह लो बप्पा का प्रसाद!"

मैंने भी हाथ फैलाकर प्रसाद लेने का अभिनय किया, और वह "बाय" कहकर दौड़कर चली गई। 

दूसरा हिस्सा :

अभी मैं आधी नींद में था, कि स्वप्न फिर शुरू हुआ। 

मैं उसी रास्ते पर चला जा रहा था, कि वही लड़की फिर मिल गई! इस बार फिर उसके हाथ में उसके 'बप्पा' थे। 

"मैं बहुत थक गई हूँ, क्या तुम मुझे उठाकर थोड़ी दूर चल सकते हो! मुझे बहुत नींद भी आ रही है।"

मैंने कहा :

"ठीक है।"

मैंने उसे गोद में उठा लिया और उससे कहा :

"बप्पा को यहीं छोड़ दें?"

वास्तव में मेरे कंधे दुखने लगे थे।

अभी मैंने वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि वह चीख मारकर रोने लगी :

"नहीं!"

और मेरी नींद तो टूटी, सपना भी टूट गया।

फिर मुझे ध्यान आया, यह तो वही लड़की थी, जिसके बालों में मैं फूल लगाना चाहता था, और मेरी बड़ी बहन मुझे देखकर हँस रही थी। बाद में उसने हँसते हुए यही बात माँ से भी कही थी। 

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संवाद

कविता : 05-06-2021.

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संवाद के वे सेतु टूटे, 

संवाद के संदर्भ छूटे,

संवाद की संभावनाएँ,

भी विलीन हो गईं !

बन गई थी एक आदत,

चलते चलते, साथ साथ,

राह के मुड़ते ही मानों

वह भी जैसे खो गई!

दो दिशाएँ, दो पथिक, 

कुछ दूर तक दोनों चले,

मोड़ के आते ही दोनों, 

राह अपनी मुड़ चले! 

कोई तभी तक साथ चलता,

राह जब तक एक हो, 

मोड़ पर वह छोड़ देता, 

जब न मंजिल एक हो! 

इसमें क्या शिकवा-गिला,

इसमें क्या ग़म या खुशी, 

यही जीवन की हक़ीक़त,

यही तो है ज़िन्दगी! 

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June 04, 2021

वो कहानी!

कविता : हौसले! 

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जो कहानी ख़त्म हुई,

क्यों करें फिर से शुरू!

बिलकुल नई कोई कहानी, 

क्यों न करें हम शुरू!

हर नई शुरुआत हाँ,

मुश्किल ज़रूर होती है,

ज़िन्दगी हर क़दम पर,

चुनौती ज़रूर होती है! 

हार के या जीत के,

अवसर ज़रूर होते हैं, 

जिनके हौसले हैं होते, 

सफल ज़रूर होते हैं!

हौसले रखना ज़रूर,

कामयाबी भी मिलेगी,

ज़िन्दगी का यही हासिल, 

कहानी नई कोई बनेगी!

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काल्पनिक भविष्य

कौतूहल! 

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भविष्य की कल्पना, 

और

कल्पना का भविष्य

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अतीत के संबंध में उतनी दुविधा, अनिश्चय, डर, आशंका, संदेह या संशय नहीं होता, जितना कि भविष्य को लेकर हुआ करता है। 

जिस तरह से वर्तमान, अतीत का ही कुल जमा परिणाम होता है, उसी तरह से काल्पनिक भविष्य या / और, कल्पना का भविष्य (अर्थात् जिसकी कल्पना की जाती है), और वस्तुतः जो भविष्य में घटित होता है, भी वर्तमान को प्रभावित करते हैं।

अतीत को प्रायः ऐसी वस्तु समझा जाता है जिसे बदल पाना लगभग असंभव सा प्रतीत होता है किन्तु वर्तमान (जिसे वास्तव में 'भविष्य का बीज' कहा जा सकता है), और भविष्य को किसी हद तक बदला जा सकता है, ऐसा भी लगता है।

किन्तु क्या हम वर्तमान या भविष्य को, इतना भी जानते हैं कि उसे बदला जा सके? और अगर हम जानते हैं, तो स्पष्ट ही है कि उसे बदल नहीं सकते । और हम उसे / उन्हें अगर नहीं जानते, तो उसे / उन्हें बदल पाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है?

फिर हम ज्योतिषियों के पास क्यों जाते हैं! 

क्या यह भी पूर्व-निर्धारित, दैववश होता है? 

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