June 05, 2021

लकड़ी की काठी,

कविता : 05-06-2021

----------------©---------------

काठ को बेचैनी कभी नहीं होती, 

चाहे पड़ा हो पानी में, या नदी में, 

बहता-रुकता हुआ, नदी की धारा में,

या कि भँवर में डूबता-उतराता हुआ! 

या हो कठपुतली, किसी के हाथों की,

जिसकी उँगलियाँ ही नचाती हों उसे, 

खोखली वंशी, मुरलिया गिरिधर की! 

जिसको बच्चा कोई बजाता हो,

या नटवर मोहन कहीं कोई व्रज में, 

काठ को चिन्ता भी नहीं होती, 

काठ का उल्लू हो, या घोड़ा कोई!

एक ही स्थान पर डगमग होता है, 

न पीछे जाता, और न आगे जाता!

तुम अगर काठ हो, तो बेचैन क्यों हो,

और नहीं हो अगर, तो फिर क्या हो!

काठ हो, सोना हो, पत्थर हो, या मिट्टी!

ये सभी,  सबके सब होते हैं सम-दृष्टि!

काठ हो, तो क्यों न हो रहो तुम काठ ही!

क्यों न सीख लो सम-दृष्टि का पाठ ही!

***





No comments:

Post a Comment