तलाश, घर की!
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बरसों से यही चल रहा है ।
अचानक पता चलता है, कहीं जाना है।
और जाना मतलब, - यहाँ से कहीं दूर जाना है।
जहाँ हूँ वह सिर्फ़ पड़ाव है, जहाँ मजबूरी में रुका हुआ हूँ।
बिलकुल बचपन से ही।
अकसर लोगों को बहुत हद तक यह पता होता है, कि उन्हें कहाँ जाना है! जहाँ वे हैं, उससे बेहतर, दूसरी किसी जगह।
लेकिन मुझे हमेशा से यही महसूस होता रहा है कि मुझे कहाँ जाना है यह भी न मालूम है, न पता है, और न तय!
अकसर लोग किसी जगह कुछ दिनों (या वर्षों) के लिए जाते हैं, और वह समय बीत जाने पर लौट आते हैं। या फिर, घर से दूर मर जाना न चाहते हुए, गिरते-पड़ते हुए जैसे तैसे घर लौट या पहुँच जाते हैं, और या तो वहीं मर जाते हैं, या किस्मत खराब हो तो रास्ते में ही कहीं पर उनकी मृत्यु हो जाती है, जहाँ कोई पराए और अनजान लोग इंसानियत के नाते दया करते हुए उनका अंतिम संस्कार कर देते हैं। कभी कभी घर तक उनकी खबर पहुँच जाती है, तो कभी कभी वे ऐसे ही एकाएक अदृश्य और विस्मृत हो जाते हैं।
हर किसी को अकसर कोई न कोई तात्कालिक, वास्तविक या आभासी घर मिल जाता है, जहाँ वह ऐसे ही कुछ वास्तविक या आभासी 'अपनों' के साथ आपस में अपने सुख-दुःख बाँटता हुआ जीता रहता है।
उसका यह घर किसी गाँव, कस्बे, शहर या महानगर में होता है, या किताबों, कला, राजनीति, खेल, व्यापार-व्यवसाय, साहित्य, फ़िल्मों, काव्य-मंचों, या तलवार-तमंचों में उसे महसूस होता है!
मुझे ऐसा कोई घर न तो मिल पाया, न कभी मैंने खोजा ही।
आज भी मैं नहीं कह सकता, कि क्या ऐसा कोई घर वाकई कहीं होता है, या कि हो भी सकता है क्या!
लेकिन कभी कभी जरूर यह खयाल दिल में शिद्दत से आता है, कि मेरा घर कहाँ है!
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