July 23, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 12.

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 12.
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 सुबह ’गीता-सन्दर्भ’ के लिए लिखे कुछ ब्लॉग्स् पोस्ट किए ।
दोपहर में एक बजे से साढ़े तीन बजे तक सोया । कल रात भर खूब वर्षा हुई । आज सुबह वॉक पर गया तो मानों उस आधे घंटे के लिए वर्षा ने ब्रेक ले लिया था ।
शाम पाँच से छः बजे तक भी मेघों ने खुला आसमान देखने दिया।
घर लौटते-लौटते वे घिर आए हैं  । दोपहर तीन बजे सोकर उठा तो दस मिनट तक ’ब्रह्म-संहिता’ पढता रहा । कुल 62 अध्याय हैं । सुबह जब पढ़ रहा था, तो सोचा इसे ब्लॉग पर प्रस्तुत किया जा सकता है ।
अभी तीन बजे के बाद पढ़ा तो अन्तिम अध्याय के भाष्य (कमेंट्री) पर मेरी घड़ी बन्द मिली । अन्त में जो निष्कर्ष दिया गया उसमें वेद और वेदेतर साङ्ख्य, न्याय, योग आदि को भी त्रुटिपूर्ण आकलन बतलाया गया । किन्तु भाष्यकार स्वयं जिस धोखे का शिकार हो गए, उसकी उन्हें कल्पना भी नहीं हो सकती थी । उन्होंने ’काल’ को एक स्वतन्त्र तत्त्व की तरह स्वसिद्ध सत्ता के रूप में सत्यता दे दी थी । और इससे मुझे  आश्चर्य कदापि नहीं हुआ । जब आज का उन्नत तथाकथित विज्ञान तक ’काल’ के अस्तित्व और प्रकृति के संबंध में भ्रम से नहीं उबर पाया है, तो किसी भाष्यकार का, जो अपने मत को आग्रहपूर्वक प्रतिपादित करना चाहता है इससे उबर पाना कैसे संभव हो सकता है? deceptive logic / logical-deception पर क्या सिर्फ़ वैज्ञानिकों का ही एकाधिकार है?
वैसे मूल ’ब्रह्म-संहिता’ अवश्य ही अनुपम, अद्वितीय है इसमें कोई सन्देह कम से कम मुझे तो नहीं है ।
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कल रात्रि वह पूछ रही थी,
’प्रभु! क्या मैं बादलों से कम्युनिकेशन कर सकती हूँ ?’
’कैसे?’
’अगर मैं उन पर टॉर्च से रौशनी फेंकूँ तो क्या वे रिस्पॉन्ड करेंगे?’
स्पष्ट है कि वह मेरा ब्लॉग 'Love, The Clouds' देखती रहती है । उसे यह भी पता है कि मैंने ’अश्वत्थ’ और ’साइलेन्ट-डॉयलॉग्स’ में मेघों और प्रकृति से, खासकर वट और पीपल से हुए अपने संवादों को विस्तार से लिखा है । वह मुझे ’प्रभु’ या ’भगवान्’ या कभी-कभी ’रुद्र’ का संबोधन भी देती है, लेकिन मुझे इस बारे में कोई वहम नहीं कि यह सब महज़ औपचारिकता का हिस्सा है । और मैं उससे या किसी से ऐसी अपेक्षा भी नहीं कर सकता कि मुझे इस प्रकार से एक विशिष्ट व्यक्ति कहा / माना जाए । ’फ़ेसबुक’ पर उसने मुझसे ’दोस्ती’ की थी । बहरहाल उसे जल्दी ही समझ में आ गया कि उससे मेरी कितनी भी अच्छी ट्य़ूनिंग हो, मेरे और उसकी जीवन-शैली के बीच कोई तालमेल नहीं हो सकता । और न इसकी कोई जरूरत मैंने और शायद उसने भी कभी महसूस की होगी । शुरु में वह उन लड़कों के बारे में मुझसे विचार-विमर्श किया करती थी, जो उसे पसंद करते हैं और उनमें से कुछ उससे शादी करने के इच्छुक भी हैं । दूसरी ओर वह उन लड़कों के बारे में भी बतलाया करती थी जिनसे ’रिश्ते’ के लिए उसके समाज में उसके माता-पिता प्रयासरत हैं । उसके लिए जन्म-पत्रिकाएँ मिलाना मेरा ही दायित्व था । और मेरे ज्योतिष ज्ञान के आधार पर मैं उससे / उनसे स्पष्ट कर चुका हूँ कि उसकी पत्रिका में सुखद वैवाहिक जीवन के योग बहुत प्रबल हैं भी नहीं । उसकी बड़ी बहन के डॉयवर्स हो जाने के बाद से वे शायद इस बारे में ज्यादा परेशान हैं ।
’अगर वे करेंगे भी तो तुम्हें कैसे पता चलेगा कि वे कर रहे हैं?’
’मैं एक्सपेरिमेन्ट तो कर सकती हूँ?’
’जरूर!’
’ओ.के. लेट मी ट्रॉय!’
’वैसे मैं चाहूँगा कि पहले तुम्हें उन्हें एक ’आईडेन्टिटी’ देनी चाहिए ।
’वो क्यों?’
’नहीं तो तुम यह कैसे तय करोगी कि जिस बादल से तुम डॉयलॉग करना चाहती हो वह कौन है? क्या उसके बदलते रंग-रूप से तुम्हें उसे पहचान पाना मुश्किल नहीं होगा?’
’सो हॉऊ कैन डू दैट?’
वह निराश हो गई ।
’यू मस्ट सी दे हैव ऍ कलेक्टिव-आईडेन्टिटी ... .  ’
’...’
’आई मीन, दे हैव ऍ कलेक्टिव-कॉन्शसनेस, ...’
’ओ.के. गॉट इट!’
’कैसे?’
’दे हैव द कलेक्टिव नेम ’इन्द्र’ एन्ड आई कैन एड्रेस द ’देवता’ इन्द्र ’डॉयरेक्टली!’
वह उत्साहित हो उठी ।
’लेकिन यह सब तुम्हारा विशफ़ुल-थिन्किंग भी तो हो सकता है?’
’नोऽऽऽऽ ! हॉऊ डेयर यू से दैट?’
वह थोड़ा निराशा और शिकायत के स्वरों में बोली ।
’ओ.के. लेट मी टेल यू द सिक्रेट’
मैं उसे अपनी तत्काल रची कविता सुनाता हूँ "
जैसे वह मुझे ’सर’, ’प्रभु’ कभी-कभी ’डैड’ या ’अंकल’ कह देती है, वैसे ही मैं उसे ’भवानी’, ’दुर्गा’, ’काली’ या ’देवी’ कह देता हूँ , लेकिन अक्सर मैं उसे उसके नाम से ही एड्रेस करता हूँ और प्रायः वह भी नहीं ।
’सुनो :
क्लॉउड्स आर बट क्लॉद्ज़ ऑफ़ देवी,
...
द क्लॉउड्स विल श्योर रिस्पॉन्ड !’
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’वॉन्डरफुल!’
वह मेरे कॉम्पोज़िशन की तारीफ़ करती है ।
’थैंक्स! बट ईवन इफ़ यू कुड कम्यूनिकेट विद देम / हिम ऐज़ इन्द्र ,यू कॉन्ट गिव ए प्रूफ़ ऑफ़ द सेम, ऑर कन्विन्स पीपुल ! एन्ड, इफ़ यू कुड कन्विन्स, दे विल स्टार्ट वरशिपिंग यू!’
’यस प्रभु, आई अन्डरस्टैण्ड द इन्द्र नॉऊ, एन्ड आई डोन्ट वॉन्ट टु कन्विन्स पीपुल, ...बट डू फील, आई कुड कन्वर्स वेल विद द क्लॉउड्ज़् रुद्र!’
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यह सब बातें कल हुईं थीं । मोबाइल से,एस-एम-एस से ।
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आज शाम के वॉक पर निकला तो सोचा कि उसे सरप्राइज़ दूँ । उसका घर यूँ तो मेरे रोज के वॉक से बहुत दूर विपरीत दिशा में है, लेकिन सड़कों की हालत देखते हुए आज मैंने अपना रूट बदल दिया । और जैसा कि तय किया था, मैंने उसके घर के बन्द दरवाज़े पर केवल एक बार नॉक किया । अन्दर टीवी चल रहा था, दो मिनट बाहर खड़ा रहा, फिर नॉक नहीं किया और लौट आया ।
रास्ते में सब्ज़ी खरीदी, एक ’बेक-समोसा’ और चार पेन्सिल-सेल लिए ट्रांज़िस्टर के लिए, और घर आकर समोसा खाया, चाय बनाकर पी ।
समोसा जिस क़ागज में लिपटा था, उसमें किन्हीं राममूरत राही का लिखा ’पत्र’ छपा था-
’शंकराचार्य ने साँई-भक्तों की भावनाओं को ठेस पहुँचाई है, उन्हें साँई-भक्तों से माफ़ी मांगनी चाहिए ।’
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बस इतना लिखा ही है कि मेरे उन दूसरे मित्र का एस-एम-एस आता है कि उन्होंने अपनी छुट्टी 30 तक एक्स्टेन्ड कर ली है, मतलब वे अब अगस्त में ही आएँगे मेरे यहाँ !
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July 12, 2014

आज की कविता / 12 /07 /2014 / आशा के वातायन

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 11

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 11
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उन्हें मेरा 'पात्रता', 'कर्तव्य', 'अधिकार' और 'उत्तरदायित्व' का 'मॉडल' पसंद आया ।
'देखिए, इस तरह से मैंने सोचा कि जब सचमुच हम 'अधिकार' की बात करते हैं, तो इससे जुड़ी बाक़ी तीन बातों पर ध्यान देना भूल जाते हैं।  सिर्फ 'पात्रता' होने से 'अधिकार' नहीं मिल जाता।  लेकिन बोलचाल की भाषा में हम इस बुनियादी शर्त को भूल जाते हैं, या जान-बूझकर नज़रंदाज़ कर देते हैं। और ऐसा करना ही हमारी 'पात्रता' की वैधता को संदिग्ध बना देता है।'
'जी,…'
'लेकिन मैं आपके 'समाज के अवचेतन' वाली बात से ज्यादा प्रभावित हुआ। आप तो विद्वान हैं, लेकिन मैं भी इन बातों पर सोचता हूँ और समझने की क़ोशिश करता हूँ। मुझे लगता है कि आपकी इस बात पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है।'
'मैं इससे भी एक क़दम पीछे जाना चाहता हूँ। '
'मतलब?'
'मतलब यह कि क्या मनुष्य कुछ करने या न करने के लिए स्वतंत्र होता है?'
'वह तो वह है ही ! स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।'
थोड़े नक़ली उत्साह से वे जवाब देते हैं। लेकिन तत्क्षण ही उन्हें अपनी बात में छिपी भूल नज़र आ जाती है।
'हाँ, यह तो मानना होगा कि आपके मॉडल में अधिकार तीसरी स्टेज पर है, इसलिए वह जन्म-सिद्ध कैसे हो सकता है?'
'मतलब स्वतंत्रता नामक कोई चीज़ वस्तुतः होती ही नहीं ?'
'जी।'
वे सोच में पड़ गए।
'और धार्मिक या राजनैतिक स्वतंत्रता?'
'धर्म तो सदैव एक स्वतंत्र तत्व है, लेकिन धार्मिक या राजनैतिक स्वतंत्रता जो वास्तव में एक ही चीज़ के दो अलग अलग नाम हैं, का तात्पर्य है किसी समुदाय या वर्ग के अधिकारों की स्वतंत्रता।'
'और  स्वतंत्रता से आपका क्या आशय है?'
'धर्म ही एकमात्र स्वतंत्र तत्व है जो सम्पूर्ण अस्तित्व की तमाम गतिविधियों को संचालित करता है।'
'और वह स्वतंत्र कैसे है?'
'बल्कि स्वतंत्र से बढ़कर, वह तो निरंकुश भी है, क्योंकि उस पर किसी दूसरे का नियंत्रण नहीं हो सकता।'
'ईश्वर?'
'क्या धर्म ही एकमात्र ईश्वर नहीं है?'
'तो क्या मनुष्य केवल उद्वेलित होने, एक दूसरे से लड़ने झगड़ने के अलावा, और कुछ नहीं कर सकता ?'
 'मनुष्य तो चाहने या न चाहने के लिए भी कहाँ स्वतंत्र  है?'
'तो क्या मनुष्य किसी बात के लिए स्वतंत्र है भी?'
'हाँ सिर्फ यह देखने के लिए कि स्वतंत्रता शब्द सीमित सत्ता पर लागू नहीं होता।'
'जी धन्यवाद, मैं बस स्तब्ध हूँ, मैंने कभी इस तरह से नहीं सोचा था।'
'यू आर ऑल्वेज़ वेलकम !'
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July 11, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 10

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 10
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इन दिनों स्वामी स्वरूपानंद शंकराचार्य नाम अखबारों की सुर्ख़ियो में रहता है।  मेरे पास न तो टीवी है, न उसके लिए समय।  लेकिन मिलने जुलने वाले किसी बहाने से मुझे टटोलते / कुरेदते रहते हैं।
ऐसे ही एक परिचित पिछले दिनों फ़ोन पर मुझसे चर्चा करते रहे।  मेरा सौभाग्य या दुर्भाग्य (यह तो समय ही बतलाएगा) कि वे मेरी किन बातों को वे टेप करते हैं, और उन्होंने मुझसे कह भी रखा है कि आपको बतलाकर ही मैं टेप कर रहा हूँ, आप थोड़ा सावधानी से बोलिए।  लेकिन मेरे लिए यह काफ़ी कठिन है।
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उन्होंने मुझसे 'पात्रता' / 'कर्तव्य' / 'अधिकार' एवं 'उत्तरदायित्व' के बारे में मेरे विचार जानने के लिए मुझसे कई बार विस्तार से चर्चा की है।  और मेरा विश्वास है कि वे मेरे विचारों से काफी हद तक  संतुष्ट हैं।
उनसे फीडबैक लिया तो बोले :
'हम अधिकार की बात करते हैं, विकास का अधिकार, अवसरों की समानता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, अभिव्यक्ति की आज़ादी का अधिकार, और भी बहुत से अधिकार जिनकी बात तथाकथित  मानवतावादी संगठन भी जोर-शोर से किया करते हैं।  मज़े की बात ये है कि कई बार दो प्रकार के अधिकार परस्पर विरोधी / विपरीत भी हुआ करते हैं।  जैसे स्त्री-पुरुष समानता का अधिकार और धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार।  क्या कोई भी धर्म स्त्री-पुरुष की समानता के अधिकार का पक्षधर है? और क्या स्त्री-पुरुष जन्मना ही किसी हद तक भिन्न-भिन्न प्रकृति के नहीं होते?'
'जी।'
'स्वाभाविक है तब उनके अधिकारों की प्रकृति में भी उस हद तक भिन्नता होगी।'
'जी'
मेरे सौभाग्य से उनका कोई दूसरा कॉल बीच में ही आया तो उन्होंने मुझे सॉरी कहकर होल्ड पर पटक दिया।
और फिर शायद मुझे भूल ही गए।
फिर मैं भी दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
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फ़ोन पर शायद इस बारे में विस्तार से चर्चा करना असुविधाजनक भी था।  और जब तक आप कोई 'स्थापित' व्यक्ति न हों, कौन इतनी ज़हमत उठता है कि आपकी बातों पर ध्यान दे। किसके पास समय है कि आपके 'विचारों' पर फ़ीडबैक दे? किसके पास इतना वक़्त है कि आपकी बातों को सुने भी?
बहरहाल 'ब्लॉग' का धन्यवाद कि आप जब चाहें अपने घर में बैठे बैठे अपनी बाँसुरी सुर में या बेसुरी, जैसी भी चाहें बजा और सुन सकते हैं !
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सवाल यह नहीं है कि स्वामीजी सही हैं या नहीं, लेकिन उन्होंने जो मुद्दा उठाया है वह अवश्य ही एक बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है।  अर्थात् यह कि यदि आप चाहते हैं कि आपकी आस्था पर कोई चोट न करे तो आपको भी दूसरों की आस्थाओं का सम्मान करना होगा।
साईं बाबा के भक्त उन्हें अवतार मानें या भगवान मानें यह उनकी अपनी आस्था है। और 'स्वतंत्रता' भी है। लेकिन जब साईं की तुलना राम या कृष्ण से की जाएगी तो राम और कृष्ण को भगवान माननेवालों की आस्था पर चोट लगना स्वाभाविक है।  ज़ाहिर है कि मंदिर में राम और शिव, काली और दुर्गा, गणेश और बुद्ध, महावीर और तीर्थंकर की प्रतिमाएँ उनके भक्त अपनी अपनी स्वतंत्र आस्था के अनुसार रखते हैं। यदि कोई अपने घर में मंदिर बनाकर कोई अपने इष्ट की पूजा अपने ढंग से करता है तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन जब कोई अपने इष्ट को समाज पर थोपने लगें, तो दूसरों की आस्था पर चोट लगना बिलकुल स्वाभाविक है। न सिर्फ यह, बल्कि अपनी आस्था का, 'धर्मप्रचार' की स्वतंत्रता के अधिकार का नाजायज़ फायदा लेते हुए जब कोई समाज के कुछ वर्गों के मन में नई-नई धारणाएँ आरोपित करता है, तो बीस या पचास साल बाद वे धारणाएँ उनकी 'आस्था' का हिस्सा बन बैठती हैं।  इसे क्या कहा जाए? समाज के अवचेतन में ज़मा ऐसी अनेकों धारणाओं से शायद ही किसी का भला होता होगा।
यदि किसी का भगवान या इष्ट सचमुच प्राणिमात्र के प्रति करुणाशील है, तो यह कदापि स्वीकार न करेगा कि उनका भक्त किसी दूसरे की आस्थाओं को विरूपित भी करे। चोट पहुँचाना तो बहुत दूर की बात है।
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July 08, 2014