April 22, 2019

कल का सच

कल / काल का सच 
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भौतिक प्रमाणों से परिभाषित काल के पैमाने पर, बीते कल  दो कविताएँ लिखीं और यहाँ पोस्ट की थीं।
तब कल्पना तक नहीं थी, श्रीलंका में कहीं कुछ भयावह त्रासदी होनेवाली होगी।  बाद में कुछ विस्फोट कहीं हुए हैं ऐसी उड़ती सी ख़बर का पता चला तो सोचा कोई छोटी-मोटी घटना कहीं हुई होगी।  जैसे यमन या लीबिया में होनेवाले, सीरिया या अफ़्ग़ानिस्तान में होनेवाले आए दिन के धमाके।
दोपहर दो बजे पता चला कि ये विस्फोट श्रीलंका के गिरजाघरों और होटलों में हुए हैं।  दोपहर तक घटना में मरनेवालों का जो आँकड़ा सौ तक था शाम होते-होते दो सौ पार कर गया।  चार सौ से ज़्यादा ज़ख़्मी हैं जो ज़रूर इस हादसे के बाद मानसिक आघात (trauma) से भी जूझ रहे होंगे।
आज सुबह NewsX के विडिओ पर पढ़ा कि आततायी होटल में परोसे जानेवाले 'फीस्ट' के लिए खड़े लोगों की लाइन में खड़ा था और पलक झपकते ही उसने आत्महत्या को अंजाम दे दिया।
अब तमाम तरह के अनुमान और क़यास लगाए जा रहे हैं कि कौन सी तंज़ीमें इस वारदात में मुलव्विस हो सकती हैं ! एक एक्सपर्ट बतला रहे थे संभावित फॉल्ट-लाइन्स के बारे में, कि ऐसी ख़ास तीन में से पहली 'एथनिक' हो सकती है, दूसरी जियो-पोलीटिक और तीसरी रिलीजियस हो सकती है।
यह था नतीज़ा और नतीजे के दो भतीजे भी थे जिसके अनुसार "हमें पूरे पिक्चर को ग्लोबल टेररिज्म के परि-प्रेक्ष्य में देखना ज़रूरी है।  एक एंगल 'तमिळ-सिंहल' कॉन्फ्लिक्ट था तो दूसरा 'बौद्ध-वर्सस अदर रिलीजन्स' के बीच का कॉन्फ्लिक्ट था तो तीसरा 'जेहादी-कनेक्शन' का था।"
इसे ISIS और पाकिस्तान से प्रायोजित किया गया है, ऐसी संभावनाएँ भी व्यक्त की गईं।
पूरा कार्नेज निश्चित ही बहुत सुनियोजित ढंग से किया गया था और इसमें अवश्य ही किसी बड़ी शक्ति का हाथ था क्योंकि तमाम स्ट्रेटेजिक और लॉजिस्टिक सपोर्ट बारीकी से प्रोवाइड किये गए थे।
 'लोकल-कनेक्शन' के सपोर्ट के बिना यह सब होना लगभग असंभव ही कहा जा सकता है।
हाँ, यह सब जानना-खोजना और दोषियों को न्याय के कटघरे तक लाना अपरिहार्यतः ज़रूरी है, लेकिन क्या उससे अधिक ज़रूरी यह नहीं है कि आतंक के मूल स्रोत का पता लगाया जाए?
नहीं, कोई 'धर्म' या विचार / विचारधारा को इसका ज़िम्मेवार ठहरा कर हम इस दायित्व से मुक्त नहीं हो सकते, क्योंकि उस या किसी भी अन्य  'धर्म' या विचार / विचारधारा के प्राण एक अमूर्त तत्व होते हैं जिनके पीछे पूरा मानव-इतिहास ज़िम्मेवार होता है। और फिर यह 'इतिहास' भी क्या पुनः ऐसा ही एक अमूर्त अर्थहीन और कोरा, रिक्त शब्द नहीं है, जो असंख्य घटनाओं की स्मृति है जिन्हें 'अतीत' कहकर जिसे एक ठोस 'यथार्थ' मान लिया जाता है? क्या ये घटनाएँ अपने-आप में कोई स्वतंत्र और निरपेक्ष 'सत्य' हैं ? या बस स्मृति का विशिष्ट क्रम और तारतम्य भर है जो हर व्यक्ति के मन में किसी भी दूसरे व्यक्ति से अत्यंत भिन्न प्रकार का है ?
आप 'सच' पर उंगली नहीं रख सकते, उंगली उठा तक नहीं सकते क्योंकि सत्य अभेद्य, अस्पर्श्य और अच्छेद्य, अविच्छिन्न भी है, लेकिन आप असत्य अवश्य ही इंगित कर सकते हैं।  लेकिन आखिर कितने 'असत्य' / झूठ आप अंततः तय कर सकते हैं, जिन्हें 'जोड़कर' 'इतिहास' का एक पृष्ठ, -उसकी कोई इबारत लिख सकेंगे? फिर इबारत की व्याख्या हर कोई अपने ढंग से करेगा इस बीच 'सत्य' लहूलुहान होकर तड़पता रहेगा।
क्या किसी घटना के होने -न -होने के लिए हर मनुष्य ही सामूहिक और वैयक्तिक रूप से भी समान रूप से उत्तरदायी नहीं होता ? फिर इसका दायित्व केवल किसी 'समूह' तक कैसे तय किया जा सकता है? लेकिन क्या हम अक्षरशः यही नहीं कर रहे हैं ? क्या राजनीति ऐसा ही नहीं करती? वह फिर चाहे धर्म के नाम पर हो, राष्ट्र के नाम पर, भाषा या जाति, समाज या समुदाय, संस्कृति या लिंगभेद के आधार पर हो !
जब तक हम राजनीति में कोई हल पाने की आशा रखते हैं तब तक हमारे दुर्भाग्य का अंत कैसे हो सकता है?
हिंसा, युद्ध और शान्ति, सौहार्द्र और वैमनस्य, मानव के भीतर भी वैसे ही अमूर्त हैं जैसे कि वे समूह में प्रकट और प्रत्यक्ष जान पड़ते हैं।  
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April 19, 2019

एक छोटी रचना / कविता

टुकड़े-टुकड़े गैंग
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शोक होने पर वो जलाया करते हैं मोमबत्ती,
और जन्म-दिन पर खुशी-खुशी से बुझाते हैं,
उलटी खोपड़ी वाले आज के 'मॉडर्न' लोग,
लिबरल, सेकुलर, बुद्धिजीवी कहे जाते हैं !
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April 16, 2019

हिन्दुत्व-समग्र

बॉलीवुड से -
"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं?"
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बॉलीवुड की एक नर्त्तकी ने अभी दो-तीन दिन पहले कहा था :
"हिन्दू हिंसक होते हैं ।"
अभी-अभी राजनीति में उसने प्रवेश किया हैं ।
मोदी-लहर हो या मोदी-विरोध की लहर, क्या पता कौन सी काम आ जाए ! 
एक बुद्ध-कथा याद आती है ।
कोई गणिका एक युवा भिक्षु पर आसक्त थी ।
वह बार-बार उसे चुनौती देती थी कि अगर उसमें पौरुष है तो वह इसे सिद्ध करे । संकेत स्पष्ट था कि वह उसके प्रेमजाल में फँसकर इसे सिद्ध करे । तात्पर्य यह भी था कि गणिका को उससे वैसा ही ’प्रेम’ था जिसका उल्लेख और प्रदर्शन बॉलीवुड की फ़िल्मों में किया जाता है ।
और इसमें शायद कोई भी ’चैनॆल’ पीछे नहीं है, वो ’चैनॆल’ भी जो ’हिन्दुत्व’ की संस्कृति और परंपरा के स्वघोषित संरक्षक बन-बैठे हैं ।
कथा कहती है, उस नर्त्तकी से भिक्षु ने कहा :
"उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा, प्रतीक्षा करो ।"
वर्षों बीत गए ।
वह गणिका अब युवा न रही, केशों में सफ़ेदी झाँकने लगी, दूसरे भी ऐसे लक्षण प्रकट होने लगे जिसे छिपाना उसके लिए संभव न रहा । तब उन सभी ने, जो उसके रूप और यौवन के आकर्षण से मोहित होकर उससे प्रेम-याचना करते थे, उसे छोड़ दिया और उसे भूल ही गए । तब अत्यन्त विपन्न, निर्धनता की अवस्था में एक बार पुनः उस भिक्षु से उसका सामना होने पर उसने देखा कि वह भिक्षु भी बहुत वृद्ध हो चुका था ।
तब भिक्षु ने उससे पूछा : "क्या तुम्हें याद है कि तुम्हें मैंने एक वचन दिया था?"
"नहीं तो!"
"कुछ समय पहले तुम मेरे पौरुष पर शंका प्रकट किया करती थी । तब तुम बस रूप-यौवन से संपन्न स्त्री ही थी, और मैं युवा था। तब तुमसे मैंने कहा था कि उचित समय आने पर मैं इसका उत्तर अवश्य दूँगा ।
सुनो ! तब मैं युवा था और उस समय वासना में न बह जाना ही मेरे लिए, मेरे पौरुष के समक्ष अत्यन्त प्रबल चुनौती थी, और इसका प्रत्युत्तर मैंने मन पर संयम रखकर सफलता से दिया । अब मैं वृद्ध हो रहा हूँ । अब वह चुनौती भी न रही । यही मेरा पौरुष है । यदि मैं तुम्हारे या किसी दूसरी स्त्री से आकर्षित होकर संयम खो देता तो इस परीक्षा में सफल कैसे हो सकता था ?"
बॉलीवुड या अन्य तथाकथित ’कला-क्षेत्र’ में ’सफल’ या ’विफल’ हो जाने के बाद कुछ कलाकार / बुद्धिजीवी / खिलाड़ी राजनीति और पत्रकारिता में नई संभावनाएँ तलाशने लगते हैं ।
तब तक उन्हें इतनी ’प्रसिद्धि’ मिल चुकी होती है जिसे भुनाकर वे नए मंच पर अवतरित हो सकें ।
फिर वे ’हिन्दू’ और ’हिन्दुत्व’ के पक्ष (या विरोध) में खड़े होकर समाज के विभिन्न वर्गों को आकर्षित करने की क़ोशिश करते हैं । (चित भी मेरी पट भी मेरी अंटी मेरे बाप की !)
यहाँ उनका गणित कभी तो काम आ जाता है, लेकिन कभी-कभी फ़ेल भी हो जाता है ।
पहला सवाल यह है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या है? -इस बारे में क्या ऐसा कोई सुनिश्चित उत्तर दिया जा सकता है, जिस पर सब राज़ी हो सकें?
जबकि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ क्या नहीं है? - इस बारे में शायद ऐसा स्पष्ट उत्तर अवश्य ही दिया जा सकता है ।
फ़िर भी ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’, राजनीति, संस्कृति और सामाजिक धर्म और 'राष्ट्र' की कसौटी पर इतना व्यापक अर्थ रखता है कि यही ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ की ताक़त और कमज़ोरी भी है ।
और इसी को पेशेवर राजनीति करनेवाले, ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ के पक्षधर और विरोधी भी अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल करते हैं ।
"क्या हिन्दू हिंसक होते हैं ?" -यह प्रश्न इन्हीं पेशेवर राजनीतिज्ञों के लिए एक ऐसा खिलौना है जिससे वे अनंत काल तक (या उम्र भर) खेलते रह सकते हैं ।
सवाल यहाँ यह भी है कि ’हिन्दू’ या ’हिन्दुत्व’ को समग्रतः समझने के लिए :
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या है ?
और
'हिन्दू / हिंदुत्व क्या नहीं है?
इन दोनों प्रश्नों पर साथ-साथ सोचा जाना क्या बहुत ज़रूरी नहीं है ?
इसके बावज़ूद, ऐसी समझ अंततः बस आपकी अपनी ही होगी।
ज़रूरी नहीं कि जिससे आप दूसरों को भी राज़ी कर ही सकें ।
इसे दुर्भाग्य कहें या लापरवाही यह हमें ही तय करना है ।  
चुनाव और राजनीति का चोली-दामन का साथ तो होता ही है!
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April 15, 2019

विडम्बनाएँ,

प्रवंचनाएँ
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व्यस्तताएँ,
राजनीति की !
त्रस्तताएँ,
नीति-अनीति की !
अर्थहीन,
व्यर्थताएँ ,
निरर्थकताएँ,
प्रतीति की !
दौड़ते रहते हैं,
छूट न जाए कुछ !
ढूँढते रहते हैं,
मिल जाए कुछ!
समझौते,
बनते-बिगड़ते !
मसौदे,
सुलझते-उलझते!
सपने,
टूटते-सँवरते !
विडम्बनाएँ,
प्रीति की !
प्रवंचनाएँ,
रीति की !
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लोहा अभी गर्म है

सावधान ! होशियार !
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टुकड़े-टुकड़े गैंग के टुकड़े-टुकड़े होंगे,
टुकड़े-टुकड़े गैंग के टुकड़े-टुकड़े कर दो,
धर्म, जाति, भाषा, मज़हब के झगड़े छोड़ो,
मातृभूमि-चरणों पर अपना मस्तक धर दो,
मातृभूमि के शत्रु कई हैं, ये जो बहुरूपिए,
आज उनके चेहरे चिकने-चुपड़े, बेनक़ाब कर दो,
क़ातिल महबूबा के दिल में क्या है देखो,
अदाओं पर मत फ़िदा होना, बचना सीखो,
ये देश किसी परिवार की जागीर नहीं है,
हम सबकी भारत माता है कभी मत भूलो !
लोहा अभी गर्म है इसको, ठंडा मत होने दो,
हथौड़े पर ताकत लगाओ, और आघात कर दो !
पता नहीं वक़्त ऐसा फ़िर, कब आयेगा दुबारा,
हाथ से मत जाने दो, आज के इस सुअवसर को !
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April 14, 2019

देर आयद दुरुस्त आयद

हफ़्ते भर से गर्मी अचानक परवान चढने लगी है। 
"दिन तो गुज़र जायेगा,
क्या होगा जब रात हुई !!"
ये हालत है।
नावघाट-खेड़ी में रहते हुए सोचा था कि खिड़कियों पर वैसी ही प्लास्टिक-जाली लगा दूँगा जैसे उज्जैन के मकान में लगा दी थी। कमाल है जो एक भी मच्छर तशरीफ़ ला सकता हो! बहरहाल कुछ तो मेरी इस बदतमीज़ी को धता बता कर शान से तब चले आते थे जब किसी वजह से कभी-कभी लापरवाही से दरवाज़ा खुला रह जाता था।  पर इससे ख़ास परेशानी नहीं थी।  उन दिनों इतनी गर्मी भी कभी कभी ही पड़ती थी।
नावघाट-खेड़ी किन्हीं दूसरे कारणों से छोड़ना पड़ा और प्लास्टिक की वो जालियाँ कभी नहीं लग पाईं वहाँ से आते समय यहाँ ले आया ।
इससे यही साबित होता है कि हालाँकि हम अकसर किसी भी बात के बहुत से संभावित कारण तय करते रहते हैं लेकिन जो होता है वह क्यों हुआ इसके कुछ ही कारण उनमें से सत्य सिद्ध होते हैं। और जो होता है वह प्रायः बहुत अनिश्चित और अप्रत्याशित ही होता है फिर वह अच्छा होता  या बुरा, सही हो या गलत।
इस शहर में आने के बाद उन जालियों को खिड़कियों पर उसी तरह फिट कर दिया गया जैसा कि उज्जैन के मकान में किया था।  लेकिन खिड़कियों के खुलने से क्या होता है? पिछली गर्मियों में देखा कि या तो इस शहर में हवा इतनी ठिठकी ठिठकी सी शरमाई सी रहती है कि मच्छर तो क्या, हवा का कोई झोंका तक भूल कर भी भीतर नहीं झाँकता।
"इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात,
अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ!"
जब बरसों पहले (अगर मेरी याददाश्त सही है तो), स्व. दुष्यंत कुमार जी के लिखे इस शेर को पढ़ते ही मैं झूम उठा था।  मेरी उम्र तब 23-24 साल थी। जब हम हर किसी झोंके के साथ दिशा बदलते रहते हैं और बहुत जोश में लेकिन थोड़े या बहुत कम ही होश में होते हैं। तब मैंने इस शेर को सामाजिक असंवेदनशीलता की ओर किए गए संकेत की तरह साहित्यिक अर्थ में ग्रहण किया था। उस अर्थ में ग्रहण करने के 40 साल बाद आज सुबह सुबह ब्रह्म-मुहूर्त में छत से घर में और घर से छत पर पेंडुलम की तरह फेरे लगाते-लगाते 'खिड़कियों' का एक दूसरा अर्थ मुझ पर प्रकट हुआ।  ऐसा कहना गलत न होगा कि शायर का संकेत साहित्यिक अर्थ में प्रकटतः भले ही सामाजिक असंवेदनशीलता की ओर रहा होगा, लेकिन वास्तविक इशारा उन खिड़कियों की ओर रहा होगा जो हमारे बंद दिमाग़ में रोशनी के आने का रास्ता हो सकती हैं। जिनके खुलने से उन रूढ़ियों और मान्यताओं पर रौशनी और हमारी नज़र एक साथ पड़ती है, जिनमें हमारा दिमाग इस क़दर जकड़ा हुआ है कि हम बरात के निकलने या वारदात के होने या होने से टालने के लिए क्या किया जाना ज़रूरी है इसके प्रति लापरवाह होते हैं।
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April 12, 2019

चूना-पत्थर / सीमेंट,


मैंने बचपन में ऐसा पहिया देखा था,
जो चलता था गहरी गोलाकार नाली में,
उसमें फिर एक चूना-पत्थर डाला जाता,
टुकड़े-टुकड़े कर पिस जाता था नाली में,
उसे चलाता था  बैल एक चक्कर चलकर,
बनता था चूरा बारीक तब वह चूना-पत्थर,
उसे पकाया जाता था फिर अलाव-आँव में,
और वह अनबुझा (पका) चूना आता था गाँव में,
फिर था उसमें रेत आदि मिलाया जाता,
उससे ईंटों दीवारों को, छत को भी जोड़ा जाता,
वे मकान अद्भुत् बहुत मजबूत भी होते थे,
शीत में वो गरम, तो गरमी में ठंडे होते थे ।
अब सीमेंट के बहुमंज़िला भवनों में,
शीत में ठंडे, गरमी में तपते भवनों में,
बहुत शान से हालाँकि हम रहते हैं,
हर मौसम में मार प्रकृति की सहते हैं ।
पर जब तक हमको विकास यूँ करना है
प्रकृति का, अपना विनाश ही करना है !
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April 09, 2019

'बचपन हर ग़म से बेगाना होता है !'

पहला चुनाव !
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अगर मुझे ठीक ठीक याद है, तो पहली बार मैंने 1962 के चुनाव देखे थे।
उस समय कांग्रेस का चुनाव-चिन्ह दो बैलों की जोड़ी था, तो जनसंघ का चुनाव-चिन्ह था दीपक।  और जो दो चुनाव-चिन्ह याद आते हैं, वे थे संसोपा तथा प्रसोपा के बरगद तथा झोंपड़ी। तब मेरी उम्र 8 वर्ष की उम्र थी।
बैल-जोड़ी और दीपक के बहुत से गोल बैज़ मेरे पास न जाने कहाँ से आ गए थे और हम लोग उनसे 'ताश' खेला करते थे। ऐसे ही 13-13 कार्ड चारों पार्टियों के जमा कर लिए थे और हम चार दोस्त जिनमें से एक कांग्रेसी, एक जनसंघी एक प्रसोपाई तथा एक संसोपाई था मिलाकर ताश का पूरा पैक था हमारे पास। उसमें से मेरा तो कोई नहीं था, हाँ बाकी दो दोस्तों ने ही सभी कार्ड इकट्ठे किए थे।
तब खैरागढ़-'राज' (अब छत्तीसगढ़) में एक 'राज-फैमिली' हुआ करती थी। बहरहाल, हमने अपने कार्ड्स के पीछे A, 1, 2, 3, 4, 5, 6, 7, 8, 9, 10, J, Q तथा K लिखकर पूरे बावन कार्ड चार तरह के स्पेड, हार्ट्स, डायमंड्स और क्लब के बना लिए थे। बड़ी मेहनत से बने ये कार्ड एक दिन एक दोस्त के पापा ने ज़ब्त कर लिए थे और उन्हें जला भी दिया था।
उसी साल चीन का हमला हुआ और मेरे उसी दोस्त ने बताया कि मास्टरजी ने कक्षा में सबको कहा है; उसकी हिंदी की किताब का पाठ ८ 'चीनी' फाड़कर फेंक दो। मुझे याद है उस किताब में तीन चीनियों का एक चित्र था जिसमें उनके बाल चोटी की तरह गुँथे हुए थे।  और मैं सोचता था कि सभी चीनी केवल स्त्रियाँ होते / होती हैं।
फिर मुझे पता चला था कि चीन के प्रधानमंत्री चाऊ-एन-लाई और राष्ट्रपति माओ-त्से-तुंग हैं।
हमारे स्कूल में देशभक्ति की एक फिल्म दिखाई गयी थी जिसमें एनिमेटेड ड्रॉइंग्स के माध्यम से चीनी फौजों द्वारा लद्दाख और नेफ़ा (North East Frontier Area) में चीनियों के आक्रमण को दर्शाया गया था।
राष्ट्रीय सुरक्षा कोष के लिए मैं घर से पैसे चुरा कर रोज़ 'जमा' करता था।
मैं नहीं जानता था कि इसे 'चोरी' कहा जाता है !
अध्यापक ने स्कूल की सभा में मेरा नाम लेकर मेरी प्रशंसा भी की थी और मैं सोच रहा था कि मेरे इस योगदान के बाद भारतीय सैनिकों को कितनी मदद मिली होगी !
जल्दी ही हमारा स्कूल उस स्थान से हटकर 'इमलीपारा' में लगने लगा था और मेरे पिताजी जो पहले हॉस्टल में वार्डन थे, उन्हें वह क्वार्टर छोड़ना पड़ा तो हम लोग एक दूसरे छोटे से मकान में रहने के लिए चले गए।
वास्तव में वे दिन और तब का खैरागढ़ आज भी हॉन्ट करता है।  न कुछ सुखद था, न कुछ दुःखद।  इसके बाद पिताजी का ट्रांसफर हो गया तो हम लोग एक छोटे से गाँव में रहने लगे। बाद के कई साल बहुत कष्ट और परेशानियों भरे थे।
लेकिन ज़िंदगी में किसी चुनाव में मेरी दिलचस्पी कभी नहीं रही।
1978 में जे.कृष्णमूर्ति के साहित्य में 'Choice-less Awareness' / 'चुनावरहित सजगता' के बारे में पढ़ा तो लगा कि मेरे बचपन से ही मैं इसी तथ्य को जीता रहा हूँ।
यही मेरा 'प्रथम और अंतिम चुनाव' भी सिद्ध हुआ।
और यही 'प्रथम और अंतिम मुक्ति' भी ।
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April 08, 2019

नर्मदा और कावेरी

from my swaadhyaaya blog.
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hindi-ka-blog के पाठकों के लिए
वितस्ता, वितण्डा और वैतरणी
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नर्मदा और कावेरी कुछ दूर चलती हैं जिसके बाद ओंकारेश्ववर से कुछ मील पहले ही उनका संगम होता है ।
संगम के बाद एक ही नदी की तरह दिखाई देती उस नदी के रास्ते में मांधाता पर्वत (अर्थात् ॐकारेश्वर भगवान् शिव) के सामने प्रस्तुत होने से वह नदी पुनः दो धाराओं में बँटकर दो भिन्न नदियों का भ्रम पैदा करती हुई उसके दोनों ओर से रास्ता बना लेती हैं ।
इस प्रकार उस स्थान पर वास्तव में उस नदी का पुनः दो धाराओं में विभाजन हो जाता है किंतु सामान्यतः उसे ’संगम’ ही समझ लिया जाता है । पर्वत के दोनों ओर से जाने के बाद वे दो धाराएँ  पुनः मिलती हैं और उसे वास्तव में उनका संगम कहा जा सकता है । पर्वत के चतुर्दिक् एक् मार्ग है जिसे परिक्रमा-पथ कहा जाता है जिस पर श्रद्धालु किसी भी पर्व या तिथि पर या वैसे ही भक्ति की भावना से प्रेरित होकर प्रदक्षिणा करते हैं । यह प्रदक्षिणा एक दृष्टि से पर्वत की ही प्रदक्षिणा है किंतु उसे नर्मदा की भी उस प्रदक्षिणा के समान ही पुण्य फल देने वाला कहा गया है जिसे पैदल चलकर पूर्ण करने के लिए किसी को प्रायः तीन वर्ष तीन माह और तेरह दिन लगते हैं ।
उस दूसरे संगम पर जहाँ नर्मदा नदी की पृथक् हुई दो धाराएँ पुनः मिलती हैं कभी कभी मैं शाम को भ्रमण करते हुए पहुँच जाता था ।
अवसर या तिथि आदि के अनुसार प्रायः वहाँ इने-गिने या बहुत से यात्रियों का आगमन दिन भर होता रहता था और शाम होते-होते वह तट सुनसान हो जाता था । वहीं एक दिन एक औघड़ साधु के दर्शन हुए थे । मैंने कौतूहलवश जाकर उन्हें चरण-स्पर्श किए । उन्होंने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया तो मैं उनके समीप ही बैठ गया । वह भूमि बहुत स्वच्छ थी और सामने ही नर्मदा-कावेरी का मन्दिर होने से भी उसकी सफ़ाई भी कोई न कोई रोज़ ही करता था । किनारे पर एक दो गुमटियाँ और कच्ची-पक्की झोंपड़ियाँ थीं जहाँ नारियल, पूजा-सामग्री और दूसरी ऐसी वस्तुएँ मिल जाती थीं जिन्हें वहाँ आनेवाले श्रद्धालु खरीदा करते थे । पर्यटकों के लिए चने-चिरोंजी, परमल, सेंव आदि भी  मिलते थे जिसमें से चने बन्दरों को और परमल मछलियों को खिलाया जाता था । वहाँ चाय तो मिलती ही थी ।
उस दिन उस साधु के पास बैठते ही मेरे मन में प्रश्न उठा कि इस साधु का जीवन क्या है, संसार उसके लिए क्या और कैसा है, ’मुक्ति’ ईश्वर आदि के बारे में उसकी क्या अनुभूति, धारणा आदि हैं और मैं बस इन्हीं प्रश्नों पर सोचता हुआ चुपचाप बैठा था ।
"माई के दर्शन करने आए हो?"
उसने पूछा ।
"जी!"
"कर लिए दर्शन?
"जी!"
"हो गए दर्शन!"
तब मैं चौंका ।
वे हँसने लगे ।
"क्या पता?"
मैंने असमंजस प्रकट करते हुए कहा ।
वे कुछ नहीं बोले ।
कुछ पल बाद मैंने साहसपूर्वक पूछा :
"दर्शन करने और दर्शन होने में क्या फ़र्क है?"
"जब हम दर्शन ’करते’ हैं तब हमारे मन में दुनिया होती है और हम अपनी दुनिया के बारे में अपने खयालों में डूबे होते हैं । लेकिन हमें दर्शन तब होता है जब हमारे मन में ऐसे या दूसरे भी तमाम खयाल, चिन्ताएँ, इच्छा आदि नहीं होते ।"
"जी!"
"देखो ! यहाँ क्या है?"
"पानी, माई, आप और मैं ।
"सचमुच यह सब है?"
"आप बतलाइये ।"
"यह सब तुम्हारा खयाल है ।"
"आपको क्या दिखाई देता है?"
वे मौनभाव से मुझे देखते रहे ।
"मुझे बस माई दिखाई पड़ती हैं और वह शिवस्वरूपा है इसलिए तुम कह सकते हो कि उनमें मुझे शिव ही दिखाई देते हैं । लेकिन मैं कहाँ दर्शन करता हूँ । मुझे बस दर्शन होता है और मैं उसे शब्दों में जोड़-तोड़कर कोई नाम बना लेता हूँ या कोई खयाल पैदा हो जाता है ।"
मैं नहीं जानता था कि क्या कहूँ ।
फ़िर वे ही कहने लगे :
"देखो ये माई जो पानी हैं, इसके पानी की तीन धाराएँ हैं जो अनादि काल से शिव की प्रदक्षिणा करती हैं ।
इन तीन धाराओं में से वह जो नदी के इस किनारे पर हमारी तरफ़ है, उसे वितण्डा कहते हैं :
’मैंने जाना ।’
इस धारा में थोडी दूर जाओगे तो नदी की बीच-धारा है, उसे वितस्ता कहते हैं । और अगर उसे पार कर लिया तो जो तीसरी धारा नदी के दूसरे तट से लगी हुई है, उसे वैतरणी कहते हैं ।
मै अपने संस्कृत ज्ञान को टटोलने लगा :
वितस्ता का विग्रह होगा वितः ता;
पुनः वितः ’वित्’ प्रातिपदिक का पञ्चमी / षष्ठी एकवचन हुआ ।
अर्थात् ज्ञान (के आभास) का विस्तार ।
वैतरणी का अर्थ है यदि कोई इस नदी में उतरा है तो उसे इससे पार होने के लिए या तो वितस्ता से वितण्डा में लौटना और इस पार तक आना होगा जहाँ यह साधु हैं जिन्हें दर्शन हुआ है, या उस दूसरे तट तक जाने के लिए वैतरणी को पार करना होगा ।
मेरी आँखें कब बंद हो गईं मुझे पता तक न चल सका ।
और जब आँखें खुलीं तो मैंने पाया यह तो स्वप्न था !
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April 04, 2019

राजीव दीक्षित के विडिओ

लिखना कितना आसाँ / मुश्किल 
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लिखने के लिए हर घड़ी तक़रीबन इतना होता है कि उसे क्रमबद्ध ढंग से सहेजना तक मुमकिन नहीं हो पाता। इतने अलग-अलग तरह के मुद्दे होते हैं जिन पर बहुत कुछ लिखने का मन होता है। इतनी अलग-अलग तरह की एप्रोच होती है कि उनमें से किसे लेकर लिखा जाए यह दुविधा भी बाधा देती है । फिर समय और सुविधा के अनुसार जो लिखा जाता है वह ज़रूरी नहीं कि संतोषप्रद होता ही हो !
कभी कोई कहानी बनते-बनते मिट या भूल जाती है।  कभी किसी वजह से लगता है कि इसे 'पोस्ट' करना कहाँ तक ठीक होगा ।
आज ही एक पोस्ट 'स्वाध्याय' में लिखा।  कुछ अलग शैली / genre में ।
फिर घर का सामान लेने बाहर गया।  वैसे ज़रूरत की सभी चीज़ें आसपास ही मिल जाती हैं, दस मिनट में ले आ सकता था लेकिन तीस मिनट लग गए । जिस परिचित की दूकान पर समय लग गया वे कुछ दिनों पहले  बाज़ार के दूसरे सिरे से शाम को पैदल आते हुए मिल गए थे । मतलब यह कि वे मोटर-साइकिल पर मेरी दिशा में मेरे पीछे पीछे आ रहे थे । बोले : "बैठ जाइए!" मैंने कहा : मुझे थोड़ा सामान लेना है। बोले "ले लीजिए।" मैं पास की हार्डवेयर की दूकान पर गया, जो चाहिए था नहीं मिला तो लौट आया ।
बोले : क्या लेना था?
"तारपीन का तेल"
"कुछ रंग-रोगन वग़ैरे कर रहे हैं?"
"नहीं, मच्छर भगाने के लिए। "
"उससे कैसे भागेंगे मच्छर ?"
"जी उसे 'ऑल-ऑउट' की खाली बॉटल में भर देंगे।"
तब तक मेरा घर आ चुका था तो बात अधूरी रह गयी।
आज जब उनकी दूकान पर गया तो मिल गए।
"उससे मच्छर कैसे दूर होंगे?"
"जी कपूर को पीस कर उस तेल में मिलाकर  'ऑल-ऑउट' की पुरानी खाली शीशी में भर कर उसका वैसे ही इस्तेमाल करने से।"
"हाँ ये बड़ी बीमारी है मच्छरों की समस्या भी !"
उनका बेटा मेरे लिए सामान तौल रहा था।
फिर बोले : "हम वो स्प्रे लाए थे तो रोज़ करना पड़ता है। और फिर उसकी गंध से परेशानी भी अलग होती है। इसका कोई स्थायी इलाज नहीं है क्या?"
फिर मैं उन्हें यू-ट्यूब पर देखे उपायों की जानकारी देने लगा। तब तक उनकी दिलचस्पी ख़त्म हो चुकी थी।  फिर मैं उन्हें राजीव दीक्षित के विडिओ के बारे में बतलाने लगा । वे किसान हैं इसलिए मैंने उन्हें इस बारे में राजीवजी के द्वारा की गई गहरी रिसर्च और जानकारी के बारे में बताया ।
मैं उत्साहपूर्वक उन्हें बता रहा था कि कैसे पिछले पचास साठ साल में हमने ज़मीन, किसान, और कृषि की हालत बर्बाद कर दी है। कैसे प्राकृतिक तरीके से बिना मशीनों और केमिकल फर्टिलाइज़र्स पेस्टीसाइड्स आदि का उपयोग किए बिना गाय-बैलों की सहायता से ज़मीन को निरंतर उपजाऊ बनाए रखकर अधिक से अधिक उपज पाई जा सकती है । अधिक लोगों को रोज़गार भी दिया जा सकता है, बिजली और पेट्रोल की बचत भी हो सकती है, प्रदूषण भी कम हो सकता है । उनमें इतना धैर्य नहीं था। और मैं राजीवजी के दूसरे विषयों से संबंधित वीडियो के बारे में बता रहा था।
फिर मैंने दूकान पर लगे एक विज्ञापन की ओर इशारा करते हुए कहा :
"देखिए आपके यहाँ भी ये पान-तमाखू गुटका पॉउच आदि मिलते हैं। "
तभी उनका बेटा बोला :
"वहाँ लिखा तो है कि तमाखू से कैन्सर होता है !"
उस विज्ञापन में लिखा है :
"..... फ़िल्टर-बीड़ी दूसरी बीड़ियों से 70 % कम हानिकारक है ।"
"हाँ, आप भी अपनी जवाबदारी से मुक्त और सरकार भी ! व्यापार-व्यवसाय, रोज़गार और देश की प्रगति भी तो ज़रूरी है !"
तभी दीवार पर लगे कैलेंडर पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे इस सन्देश की ओर मेरा ध्यान गया :
 "जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो होगा अच्छा होगा, तुम क्या लेकर आए थे जिसे तुमने खो दिया ? तुम क्या लेकर जाओगे? जो लिया यहीं से लिया।  क्यों व्यर्थ चिंता करते हो?"
मैंने उनके बेटे को सामान के पैसे चुकाए। तब तक उनसे मिलने उनके कोई दूसरे परिचित आ गए थे, और उन्होंने राहत की साँस ली ।
लौटते समय सोच रहा था कि यह दुनिया मेरी है या नहीं ? इसके लिए मुझे कितना सोचना चाहिए ?
लेकिन अभी तय नहीं कर पा रहा हूँ।
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April 03, 2019

एक सवाल यह भी !

घूमते हुए !
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जिंदगी ये घूमती है या घूमते हैं हम?
क्या खबर कि क्या यहाँ पे ढूँढते हैं हम!
आदमी अकेला है फिर भी कहाँ अलग,
जुड़ा नहीं किसी से तो भी है कहाँ जुदा?
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एक अजीब सवाल !

बहुत दिनों बाद सोचा यूँ,
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सपनों की दुनिया,
दुनिया के सपने,
दुष्चक्र कहाँ से,
होता है प्रारंभ,
और क्या होता है,
कहीं अन्त इसका?
वो कौन है कि जो,
देखता है सपने?
'मैं' और 'हम' जैसे?
क्या 'मैं' और 'हम'
नहीं है जैसे आईना?
वो सपना कि जन्मा 'मैं',
ये सपना कि मर जाऊँगा,
क्या देखते हैं 'हम' ?
वो सपना कि जन्मे 'हम',
ये सपना कि मर जाएँगे,
क्या देखता हूँ 'मैं' ?   
ये अपना बँट जाना,
'मैं' और 'हम' की तरह,
यह भी क्या सपना ही नहीं?
वो कौन है कि जो,
देखता है सपने?
उसकी शक्ल कैसे देखें?
उसकी शक्ल कैसे देखूँ?
सवाल है बहुत ही अजीब !
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