May 29, 2019

आतंक की राजनीति और हिंसा

आतंक का मनोविज्ञान 
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आतंकित होना भयभीत होने का लक्षण है।
जैसा प्रायः हर व्यक्ति के बारे में सत्य है, मृत्यु से भयभीत किसी भी व्यक्ति का भय भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है :
पहला मृत्यु हो जाने का डर, दूसरा मृत्यु जैसा कष्ट होने का डर।
पुनः दोनों प्रकार के डर तीन कारणों से पैदा हो सकते हैं :
पहला - मृत्यु के विचार मात्र से पैदा होनेवाला डर,
दूसरा - मृत्यु के समय होनेवाले कष्ट के विचार / उसकी कल्पना से पैदा होनेवाला डर,
तीसरा - मृत्यु होने से होनेवाली क्षति से, और मृत्यु के बाद की स्थिति की कल्पना से पैदा होनेवाला डर।
जैसे किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर ऑपरेशन किए जाने की ज़रूरत के बारे में बतलाता है, और उसके मन में इस बात से डर पैदा होता है वह इन्हीं तीनों में से एक, दो या तीनों प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है, उसी तरह आतंक से पैदा होनेवाला डर भी इन तीनों  प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है।  यहाँ तक कि कभी-कभी कोई व्यक्ति केवल संभावित लाभ-हानि या बदनामी की कल्पना या संभावना के विचार मात्र से ही इतना सिहर  और डर जाता है कि इससे बचने के लिए वह आत्महत्या करने तक के बारे में सोचने लग सकता है, उसी तरह आतंक से ग्रस्त व्यक्ति भी कभी कभी संभावित मृत्यु (की अवश्यम्भाविता) के प्रति इतना लापरवाह भी हो सकता है, कि उसका ध्यान केवल इस पर केंद्रित होकर रह जाता है कि अब उसे क्या करना होगा जिससे मृत्यु होने या न होने की स्थिति में उसे न्यूनतम संभवित कष्ट / हानि और अधिकतम संभावित लाभ की प्राप्ति हो सके। डॉक्टर द्वारा ऑपरेशन की ज़रूरत बतलाए जाने के बाद, यह भी हो सकता है कि ऑपरेशन किए जाने का, या न किए जाने से पैदा होनेवाली हालत का भी एक नया डर पैदा हो जाए ! यही कष्ट / लाभ / हानि उसे किसी आदर्श के लिए प्राण देने जैसे कार्य में भी दिखाई दे सकती है, और स्पष्ट ही है कि यह मूलतः एक भ्रम और brain-washing का ही दुष्परिणाम होता है।
एक कोमल मन-मस्तिष्कवाले, 8 वर्ष की अबोध आयु के अपरिपक्व बच्चे को जब बहला-फ़ुसलाकर suicide-jacket पहनाकर किसी ऐसे 'अभियान' पर भेज दिया जाता है जो उसे सीधे 'अल्लाह' से मिला देगा, तो उसमें यह क्षमता तक विकसित नहीं हुई होती, कि वह इस पर सोच-समझ सके। और यद्यपि वह आतंकग्रस्त नहीं भी होता, फिर भी वह आतंक फ़ैलाने के लिए एक औज़ार बन जाता है।  उसे न तो मृत्यु के कष्ट का, न मृत्यु होने की स्थिति की कल्पना का डर होता है। लेकिन वे दूसरे लोग, जिनका धर्म के बहाने brain-wash किया जा चुका होता है, और जो स्वयं शायद मृत्यु के कष्ट या मृत्यु के बाद की स्थिति के प्रति 'मोहित-बुद्धि' होने के कारण इस डर को छोड़ चुके होते हैं, या शायद इसीलिए भी, उसे बलपूर्वक मृत्यु-मुख में धकेल देते हैं। या शायद वे बस मूढ बुद्धि होते हैं जिनकी बुद्धि बुरी तरह कुंठित होती है या कर दी गयी होती है।
और हालाँकि श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने यह बात काश्मीर या पाकिस्तान के सन्दर्भ में कही हो, यह बात नाइजीरिया, सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे देशों में भी देखी जा सकती है।
बच्चे तो ठीक, स्त्रियाँ तक खुशी-खुशी (?) मानव-बम बनने में फ़ख्र महसूस करती हैं जैसा कि श्रीलंका में हाल में हुआ। ऐसे लोग स्वयं भी धर्मभीरु होने से या अपने निजी स्वार्थों / तथाकथित आदर्शों से प्रेरित होकर उन धर्मान्ध कट्टरपंथी धूर्त लोगों के आसान शिकार हो जाते हैं जो अपने सुरक्षित आरामगाहों में रहते हुए ऐशो-आराम में डूबे रहते हैं।
श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के अनुसार इस्लाम, - धर्म नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा मात्र है, जिसका सामना इससे अधिक शक्तिशाली, किसी दूसरी ताकतवर विचारधारा से ही किया जा सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या इस विचारधारा का जवाब विचारधारा से ही दिया जा सकता है?
क्या यही पर्याप्त और अधिक उचित नहीं होगा कि इस विचारधारा को धर्म कहे बिना ही इसके सभी पक्षों पर सबका ध्यान आकर्षित किया जाए सबको जागरूक किया जाए, ताकि इसकी कट्टरवादी व्याख्या से सब सावधान और सतर्क रहें?
किसी विचारधारा को सीधे नष्ट नहीं किया जा सकता, न ऐसा करना ज़रूरी ही है, बल्कि यह एक खतरनाक विकल्प भी हो सकता है। किसी विचारधारा का विरोध करना भी, उसे और भी ज़्यादा ताकतवर बना सकता है।
किसी भी तथाकथित 'धर्म' (religion) का उसके आरंभ से अब तक का इतिहास जानना इससे अधिक ज़रूरी है।विशेषकर वह धर्म जो राज्यसत्ता या प्रचार के सहारे प्रचलित होता है। जिसका प्रचार किया जाना पड़ता है वह धर्म नहीं व्यापार का एक प्रकार होता है। (सनातन) धर्म किसी पर बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित नहीं किया जाता। और जिसे बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित किया जाता हो, वह और कुछ भी हो, 'धर्म' तो क़तई नहीं होता।
धर्म और रिलिजन (religion) के बीच परस्पर लगभग वैसा ही संबंध / भेद देखा जा सकता है, जैसा कि 'वाणी' (voice) और भाषा (Language) के बीच होता है।
संस्कृत भाषा में क्रियापद 'लग्' से अंग्रेज़ी में (शायद लैटिन के रास्ते) जितने सज्ञात cognate बने हैं उनमें से leg, lag, ligature, legate, legacy, legal, legitimate, legion, log, lug का प्रयोग / संबंध 'लगने' या 'जुड़ने' के अर्थ में होता है। 'religion' इसी प्रकार 'परिलग्न' का सज्ञात / सज्ञाति / cognate है । अंग्रेज़ी के जितने शब्दों में 're' उपसर्ग (prefix) से बने हैं प्रायः सभी इसी 'परि' का  're' में परिवर्तन (reversion) है।
इसलिए religion का धर्म से बहुत भिन्न अर्थ है, और क्रिश्चियनिटी, इस्लाम, यहूदी, पारसी यहाँ तक कि जैन, हिन्दू, बौद्ध, सिख आदि परंपराओं में से कोई भी शुद्धतः धर्म न होकर परंपराओं (legacy) का मिश्रण है, जिसमें यद्यपि धर्म के कुछ लक्षण प्राप्त होते हैं किन्तु वास्तविक धर्म उससे बहुत भिन्न है।  इन लक्षणों में कुछ तो अधर्मपरक भी हैं और इसका कारण यही है कि वैदिक धर्म अर्थात् सनातन धर्म के अनुसार वर्ण-आश्रम-धर्म ही वह धर्म है जिससे मनुष्य मात्र सच्चे अर्थों में सुखी हो सके। दूसरी ओर जैन तथा बौद्ध धर्म श्रमण और तपस्वियों के लिए हैं।  आज की स्थिति में जब वर्ण-आश्रम परंपरा ही लुप्तप्राय हो रही है, तो दुर्भाग्य से धर्म के नाम पर अधर्म को भी धर्म कहा और सिद्ध भी किया जा रहा है, उसका ही प्रचार हो रहा है, लेकिन इसके परिणाम से स्पष्ट है कि भौतिकता पर केंद्रित यह धर्म संसार को विनाश के गर्त में धकेल रहा है।          
धर्म तो खोज और अंतःप्रेरणा है। धर्म तो परम स्वातंत्र्य है किन्तु उसकी मर्यादा है। धर्म उच्छृंखल, अमर्यादित आचरण नहीं है। धर्म राजनीति और व्यापार नहीं हो सकता। राजनीति और व्यापार धर्म के आचरण के साथ भी किए जा सकते हैं, जबकि बिना धर्म के वे आरंभ में और अंततः भी सबके लिए अहितकारी और विनाशकारी ही सिद्ध होते हैं।
इसलाम पूरे संसार की दुःखती रग क्यों बन गया है?
क्योंकि हमने ईमानदारी से कभी इस्लाम को समझने की कोशिश ही नहीं की। इसलाम के इतिहास और सिद्धांतों को ध्यान से समझने पर हमें स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों इसकी अनेक व्याख्याएँ हैं और इसके क्या अंतर्विरोध  / विसंगतियाँ हैं।  सवाल यह भी है कि क्या संसार को इस्लाम की ज़रूरत है? और, क्या इस्लाम को संसार की ज़रूरत है? इन प्रश्नों का उत्तर उस हर व्यक्ति को स्वयं ही खोजना होगा जो इस्लाम के पक्ष या विपक्ष में है। लेकिन राजनीति ऐसा नहीं करने देती।  राजनीति तो इस्लाम (या किसी भी दूसरी विचारधारा) के पक्ष में, या विरोध में होती है। इसलिए यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है।         
नक्सलवाद, माओवाद इसी प्रकार के आंदोलन हैं, जो हिंसा के माध्यम से राज्य को अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं।
संक्षेप में; -कहीं भी, कोई भी मनुष्य आतंक से आतंकित होकर या बिना आतंकित हुए भी, मृत्यु के भय से घबराकर, या बिना घबराए भी इतना विक्षिप्त हो सकता है (या उसे विक्षिप्त किया जा सकता है), कि बेख़ौफ़ और बेहिचक होकर आतंक फैलाने और मरने-मारने पर उतारू हो जाए।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि तमाम चिंताओं और प्रयासों के बाद भी आतंक की खेती या उद्योग (फैक्ट्री) पनपती ही जा रही है।  आदर्श और लक्ष्य भले ही परस्पर कितने ही विपरीत या विरोधी क्यों न हो कुल परिणाम यही है कि कुछ लोग हमेशा आतंक की बलि चढ़ते रहेंगे जबकि कुछ दूसरे लोग धर्म के नाम पर उनकी बलि देते रहेंगे।
मनुष्य मात्र आतंकित होने से हिंसक हो जाता है और हिंसक होने से आतंकित भी।
कमज़ोर पर हिंसा करते हुए उसमें एक तात्कालिक उन्माद अवश्य पैदा हो जाता है जो उसे स्वयं के शक्तिशाली होने का भरोसा दिलाता है। लेकिन दूसरी ओर उसकी मानवीय-संवेदनशीलता भी उतनी ही अधिक कुंठित और जड होने लगती है इस ओर से वह और भी लापरवाह होने लगता है।
हिंसा का यही उन्माद उसमें ऐसे ही दूसरे उन्मादों से जुड़कर 'राष्ट्रवाद', 'धर्म' या समाज के लिए प्राण तक ले लेने और दे देने का ज़ोश जगाता है।
'धर्म' ही जब युद्ध के लिए उकसाने लगे, तो इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी?
यहाँ इस बात को नज़र-अंदाज़ करना ही सबसे भयानक भूल है कि हमने विभिन्न और परस्पर विरोधी मतों-मतान्तरों, रूढ़ियों और परंपराओं को बिना उनकी सत्यता जाने-समझे 'धर्म' कहा और अब हम यह तक भूल गए हैं कि वास्तविक 'धर्म' तो उन सबमें समान रूप से विद्यमान वह तत्व है जो सभी मनुष्यों में सर्वत्र ही परस्पर विश्वास, सौहार्द्र और प्रेम पैदा करता है। दूसरी ओर बारम्बार यह भी कहा जाता है कि सब धर्म सामान हैं ! क्या यह एक प्रत्यक्ष विरोधाभास नहीं है?
इस विरोधाभास को पहचानने के बाद यह स्वयं ही दूर हो जाता है, और केवल इसी तरह से हम इसे दूर कर सकते हैं।  लेकिन इसके लिए समाज के स्तर पर कार्य कर पाना शायद बहुत मुश्किल काम होगा।  अगर कर सकें तो ज़रूर करें ! शुभकामनाएँ !         
इसलिए उस स्तर पर तो शायद व्यक्ति लगभग पूरी तरह बेसहारा और असहाय है लेकिन स्वयं अपने भीतर इस बारे में विवेकपूर्वक अपना और संसार का विनाश रोकने के लिए हमेशा और अवश्य ही भरसक कुछ कर सकता है।       
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May 26, 2019

'ल्यूटेंस' और अंतिम अरण्य

मैरी ल्यूटेंस वह पहली महिला थी जिसका नाम मैंने वर्ष 1982 के बाद कभी पहली बार पढ़ा था।  यद्यपि यह भी सत्य है कि 'ल्यूटेंस' की दिल्ली के बारे में सबसे पहले मैंने निर्मल वर्मा की कहानियों और उपन्यास में इससे भी पहले बहुत बार पढ़ा था।
निर्मल वर्मा से मेरा लगाव उतना ही गहरा और किसी हद तक भावुकता भरा रहा है जितना कि श्री रमण-महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, श्री निसर्गदत्त महाराज और श्री मॉरिस फ्रीडमन से था और आज भी है।
शायद 1984-1985 में पहली बार मैंने मैरी ल्यूटेंस द्वारा लिखी गयी श्री जे. कृष्णमूर्ति की जीवनी के दोनों भागों को पढ़ा था।  इससे पहले ही निर्मल वर्मा के साहित्य से मेरा लगाव बहुत गहरा हो चुका था।
एक चिथड़ा सुख, कौए और काला पानी, एक दिन का मेहमान, वे दिन, आदि अविस्मरणीय हैं, और आज भी मैं उन्हें इतना ही डूबकर पढ़ सकता हूँ जितना पहले कभी आश्चर्यचकित होकर रोमांच में डूबकर पढ़ा करता था।
उनकी अंतिम पुस्तक 'अंतिम अरण्य' को मैंने तीन बार पढ़ा, जबकि दूसरी किताबों / कहानियों को पचीसों बार। 'अंतिम अरण्य' को आज के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सन्दर्भ में भी बेहतर ढंग से रखा जा सकता है, जहाँ हर कोई उस निर्जन में अपनी ही आहटों के यूटोपिया में भटकता हुआ अंततः स्मृति से परे खो जाता है।
निर्मल वर्मा का साहित्य इस दृष्टि से बेजोड़ है कि वह यूरोपीय और अमेरिकन साहित्य की शैली में होने पर भी मनुष्य के मन की परतों को भारतीय दर्शन के आधार पर खोलकर हमारे सामने रख देता है। 
वह केवल रोमांच और फिक्शन न होकर पाठक को उसके उस अंतर्जगत में ले जाता है जहाँ से वह उस यथार्थ में छलाँग लगा सकता है जिसके बारे में मैंने श्री रमण-महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, श्री निसर्गदत्त महाराज की शिक्षाओं से जानने समझने का प्रयास किया।  इस प्रकार निर्मल वर्मा के साहित्य वस्तुतः शाश्वत साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है।
निर्मल वर्मा के साहित्य में अनायास दर्शन (न कि दर्शन-शास्त्र) के वे वन-लाइनर मन को बाँध लेते हैं जिनके बारे में हमेशा और बार बार चिंतन किया जा सकता है।  यहाँ तक कि वे आपको जीवन में हर समय याद आने लगते हैं और धीरे-धीरे आपको उस स्थिति तक ले जाते हैं जहाँ से गीता के तत्व को अनायास ही समझ लिया जाता है। वे कोई उपदेश नहीं देते बस अनायास आपको कहीं बहुत गहरे छूकर पल भर के लिए 'वहाँ' ले जाते हैं जहाँ से आप लौटकर इस संसार में नहीं आ सकते।  आप यहाँ होते हुए भी कहीं और होते हैं, और वह 'कहीं और' कोई यूटोपिया या मीटूपिया नहीं होता।   
दिल्ली से होकर मैं जीवन में बहुत बार गुज़रा हूँ लेकिन सिर्फ एक बार एक रात के लिए (जब मैं बैंक ऑफ़ महाराष्ट्र के प्रोबेशनरी ऑफिसर के लिए इंटरव्यू देने गया था) रुका था, और एक बार दो तीन दिनों के लिए नैनीताल से लौटते समय।
वैसे उत्तराखंड हरिद्वार, ऋषिकेश, उत्तरकाशी आदि जाते समय भी दिल्ली से गुज़रना बहुत बार हुआ है लेकिन वह दिल्ली जो एक शहर था / है, जहाँ 'था' को क्रॉस पर चढ़ा दिया गया है, उस दिल्ली के भीतर मैं कभी नहीं गया।
आज के परिप्रेक्ष्य में अर्नब गोस्वामी जैसे लोगों ने 'ल्यूटेंस की दिल्ली' को एक सर्वथा नया प्रभामंडल दिया है और उसके तमाम निहितार्थ, विहित और अविहित अर्थ दिए हैं तो निर्मल वर्मा की याद आती है जिन्होंने इसे 'लुटियन्स की दिल्ली' कहा था।
एमिली ल्यूटेंस (मैरी ल्यूटेंस की माता) का और एडवर्ड ल्यूटेंस  (जिन्होंने नई दिल्ली का वास्तुकल्प किया था) के इतिहास पर ध्यान जाता है।
श्री जे. कृष्णमूर्ति और मैरी ल्यूटेंस की मैत्री का कुछ अनुमान मैरी ल्यूटेंस की लिखी श्री जे. कृष्णमूर्ति की जीवनी से किया जा सकता है। थियोसॉफी और ऑर्डर ऑफ़ द स्टार के विसर्जन (dissolution) से  पहले और बाद के दो युगों में वैसा ही कुछ फ़र्क है जैसा कि ल्यूटेंस की तब की और आज की दिल्ली के बीच है।
पता नहीं कितने लोगों को लुटियंस की इन दिल्लियों के इतिहास के अदृश्य होकर छिपी कहानियों का पता है।
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May 23, 2019

तदपि न मुञ्चति आशावायुः !

Alzheimer's disease
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पिछली सदी के अंतिम वर्षों में कंप्यूटर की ज़रूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी। उस दशक (1990-1999) के समय मैंने बस अपने जीवन का वह महानतम कार्य किया था जिससे (दुनिया में) मेरी पहचान मेरे जीवन के बाद भी किन्हीं अवशेष-चिन्हों की तरह कुछ वर्षों तक रह जाना मुमकिन है। लेकिन कंप्यूटर की उपयोगिता और महत्त्व भी इसीलिए थे । यूँ तो इससे पहले 1988 में ही बैंक में कार्य करते हुए कंप्यूटर पर काम करने का अनुभव मिल चुका था, लेकिन तब win 1.98 o.s. पर दो-रंगी मॉनिटर पर बस डाटा-एंट्री और फ्लॉपी-डिस्क स्क्रैचिंग, फॉर्मैटिंग और बैक-अप से अधिक कुछ सीखने-करने के लिए नहीं था। यहाँ तक कि सिस्टम में एच.डी. तक नहीं थी।
बहरहाल कुछ गेम्स ज़रूर खेल सकते थे। और हर संडे दोपहर को, या बाकी दिनों में भी मौक़ा मिलते ही करीब एकाध घंटे रोज़ ही खेल सकते थे। और तब भी उत्सुकता तो थी ही कि क्या किसी दिन कंप्यूटर पर; - और वह भी हिंदी में कभी कुछ लिख सकूँगा?
जब आप भविष्य की कल्पना और अनुमान तक नहीं कर पाते, जब वह आशंका और अनिश्चय से घिरा जान पड़ता है, तब भी वह अपनी सुनिश्चित गति से आपकी ओर आ रहा होता है। वास्तव में न तो ऐसा कोई भविष्य कहीं है, होता है, या होगा, लेकिन उस का विचार और कल्पना, आशंका और अनिश्चय, - सोचो तो अवश्य एक ठोस तथ्य सा लगता है।
बहुत बाद में जब हम पीछे पलटकर देखते हैं तो पता चलता है कि हमारी उम्मीदें, डर, उत्सुकताएँ कितनी अर्थहीन और रिक्तप्राय थीं ! क्योंकि अपने साथ हमारा भविष्य हमारे लिए जो कुछ भी लेकर आता है वह सर्वथा भिन्न होता है। फिर हम कहते हैं कि 'भविष्य अपने साथ यह ले आया।'
यह सब बस याददाश्त में होता है, जो विचार से पैदा होती है और विचार ही याददाश्त को भी पैदा कर, बनाए रखता है। फिर याददाश्त बहुत गड़बड़ होने लगती है, - कभी-कभी तो इतनी कमज़ोर हो जाती है कि डॉक्टर आज की भाषा में उसे Alzheimer's disease कहते हैं।
इस स्थिति के आने पर हमारा तमाम 'सोच' अपनी पहचान तक खो देता है जबकि दूसरे लोग या तो हम पर दया करते हैं, हमारी उपेक्षा करने लगते हैं, हमारा मज़ाक उड़ाने लगते हैं या बस हमारे बारे में सोचने के लिए उनके पास समय ही नहीं होता। वैसे यह भी सच है कि इसके बाद हमारा जीवन just vegetating में तब्दील हो जाता होगा, जो वैसे भी शायद इतना बुरा भी नहीं होता होगा।
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इस सदी के प्रथम वर्ष में मैं अक्षरशः सड़क पर था, जो वैसे तो कहीं भी ले जा सकती थी लेकिन यह अनिश्चय भी था कि कहाँ जाना है ! और बाद के लगभग बीस वर्ष ऐसे गुज़र गए कि अब लगता है कि आनेवाले और भी ऐसे ही गुज़र जाएँगे।
सत् श्री अकाल पुरुख !
अलख निरंजन !
काल से अछूता भविष्य अकाल-पुरुष, वस्तुतः अलख (अनदेखा, अज्ञात) और निरञ्जन, निष्कलंक (बेदाग़) होता है।
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इस दशक (2009-2019) में पुनः कंप्यूटर पुनः मेरे जीवन में प्रविष्ट हुआ और इंटरनेट के माध्यम से बहुत कुछ करना संभव हुआ। लेकिन फिर भी हालत युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के बाद ब्राह्मणों की जूठी पत्तल चाटनेवाले उस नेवले जैसी ही रही, जिसकी पूँछ हफ़्तों तक रोज़ भूखे रहने के बाद एकादशी के व्रत के दिन अतिथि के एकाएक आगमन पर, निर्धन ब्राह्मण द्वारा स्वयं के भोजन को उसे भोजन करा कर, स्वयं जल पीकर व्रत का उद्यापन कर लेने के बाद उस अतिथि की झूठी पत्तल से लिपटकर आधी सोने की हो गयी थी, और जिसे आशा थी कि युधिष्ठिर के द्वारा किए गए यज्ञ के पुण्य से उसकी बाकी आधी भी यज्ञशिष्टामृत भोजन के छूने-मात्र से अवश्य ही सोने की हो जाएगी !
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मुझे लगता है कि इसीलिए समस्त आशाओं के समाप्त हो जाने पर मन स्वयं ही अपने लिए Alzheimer's disease पैदा कर लेता होगा।
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एक दिन की मोहलत तमाम राजनीतिक दलों को मिली है, और आज (23 मई 2019) की शाम ऊँट किस करवट बैठेगा यह तय नहीं फिर भी उनकी आशा जीवित है, इसे देखकर बस थोड़ा सा चकित अवश्य हूँ !
सच ही तो है :
आशा पर आकाश थमा है,
श्वास-तंतु कब टूटे !
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May 17, 2019

दोपहर - 17-05-2019

परसों 19 -05 -2019 की शाम,
लोकसभा में सांसद बनने की उम्मीदें रखनेवाले उम्मीदवारों का भाग्य,
मतपेटियों में बंद हो जाएगा।
लेकिन जिस गहमा-गहमी में लोकतंत्र का यह महापर्व मनाया जा रहा है,
उसे देखते हुए इंतज़ार बहुत लंबा महसूस हो रहा है।
पहले कभी,
"बादल कब आएँगे ?"
शीर्षक से एक कविता लिखी थी।
आज भी कुछ वैसा ही महसूस हो रहा है। 
इसलिए इस कविता को यही शीर्षक दे रहा हूँ :
बादल कब आएँगे ?
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यह चकाचौंध,
हाँ, दो दिन और रहेगी,
यह धमक-धौंस,
हाँ, दो दिन और रहेगी,
तीसरे दिन से मिलेगी राहत,
ये तपन और उमस
हाँ, दो दिन और रहेगी,
हाँ कि उम्दा है उम्मीदें रखना,
हाँ कि अच्छा है तपन-उमस सहना,
बारिशों का इन्तज़ार, -प्रतीक्षा,
हाँ, दो दिन और रहेगी !
हो मुबारक सैय्याद को उसका भरम,
पर न छोड़ो तुम अपना धरम,
इल्तिजा करो, इबादत होती रहे,
हाँ दो दिन और रहेगी !
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छूकर मेरे मन को ......

कुछ राजनीति हो जाए !
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पहले तो यह कहना चाहूँगा कि यहाँ 'राजनीति' से मेरा मतलब अवसरवादिता नहीं, बल्कि वह नीति है जो राजनेताओं के भाग्य को निर्देशित करती है। यह नीति व्यक्ति-व्यक्ति की स्थिति में सतत बदलती रहती है और शायद ही कोई राजनीतिज्ञ सावधानी से कभी इस पर ध्यान देता हो।
ज़ी-टीवी पर श्री राहुल गाँधी जी का छोटा सा इंटरव्यू देखा तो ख़याल आया कि ऋणात्मक ऊर्जा (negative energy) या विधेयात्मक ऊर्जा (positive energy) कैसे हर व्यक्ति पर जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे प्रभाव डालती है।
इस इंटरव्यू में इस बात पर मेरा ध्यान गया कि श्री राहुल गाँधी जी कैसे मोदी जी से बुरी तरह बाध्यता-ग्रस्त (obsessed) हैं, कैसे वे श्री मोदी से अपने दृष्टि हटा नहीं पाते, कैसे उनकी नज़र श्री मोदी जी पर 'फ़ोकस्ड' है ।  यदि ऐसा न होता, तो श्री मोदी जी का उल्लेख करने का विचार ही उनके मन में न आता।  अपने बारे में यह कहते हुए कि मैं अभी बहुत कम जानता हूँ, श्री नरेंद्र मोदी से अनायास स्वयं की तुलना करते हुए कह गए :
"जैसा वे (श्री मोदी जी) सोचते हैं कि वे सब-कुछ सीख चुके, अब उन्हें कुछ और सीखना बाकी नहीं है, -मैं वैसा नहीं सोचता, .... मैं धीरे-धीरे सीख रहा हूँ ।"
श्री राहुल गाँधी जी की विनम्रता प्रशंसनीय ज़रूर है लेकिन उनके इस वक्तव्य से यह भी ध्वनित होता है कि वे अपने राजनीतिक क्रियाकलाप मोदी जी से जोड़कर देखे बिना अपनी स्वतंत्रता से संचालित नहीं कर पाते।
कमोबेश यही स्थिति बहुत से दूसरे नेताओं की भी है। चाहे ममता बनर्जी हों, सीताराम येचुरी, अखिलेश या मुलायम सिंह यादव, मायावती आदि हों। लगता है मोदीजी ने उन सबको डरा रखा है, या वे सब उनसे डरे हुए हैं। 'डर' और 'आकर्षण' की स्थिति में यह कभी स्पष्ट नहीं हो पाता, कि आप स्वयं ही डरे हुए हैं या आपको किसी के द्वारा डराया गया है, -आप स्वयं ही आकर्षित हुए हैं या आपको किसी के द्वारा आकर्षित किया गया है । शायद इसे ही 'लव एंड हेट'-कॉम्प्लेक्स कहा जाता है। 'दरबारी' नेताओं को इस बारे में इतनी दुविधाओं का सामना नहीं करना पड़ता।  वे चाहे सत्तारूढ़ दल के हों, या विरोधी किसी दल के। वे तो अवसर देखकर पाला भी बदल लेते हैं। इस प्रकार लगभग हर नेता ऋणात्मक ऊर्जा (negative energy) से घिरा हुआ, आकर्षित और बाध्यता-ग्रस्त (obsessed) है, जबकि श्री मोदी जी किसी दूसरे नेता को अनावश्यक महत्त्व न देते हुए ही अपना एजेंडा स्वतंत्र रूप से तय करते हैं और इस प्रकार निरंतर विधेयात्मक ऊर्जा (positive energy) को आकर्षित करते हुए स्फूर्ति और उत्साहपूर्वक अपना कार्य करते रहते हैं। और इसका ही परिणाम है कि उनकी शक्ति लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि उनके विरोधी अपनी ही ऋणात्मक ऊर्जा (negative energy) से घिरे हुए निरंतर कमज़ोर होते जा रहे हैं।  इसलिए महत्त्व राजनीतिक सफलता या विफलता का नहीं बल्कि इसका है कि आप  ऋणात्मक ऊर्जा (negative energy) से घिरे हुए हैं या विधेयात्मक ऊर्जा (positive energy) से। यह तो इतिहास ही तय करता है कि आपकी सफलता या विफलता कितनी क्षणभंगुर या स्थायी सिद्ध हुई !
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May 11, 2019

ईश्वर, अल्लाह, ख़ुदा, God !

प्रियं च नानृतं ब्रूयात् ।
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एक दिन बापू की प्रार्थना-सभा के बाद दूर से आये एक पंडित ने बापू से निवेदन किया :
"बापू ! व्यक्तिगत रूप से आपकी प्रार्थना पर मुझे कोई आपत्ति नहीं है, किंतु जब आप सभा में भजन के रूप में इसे गाते हैं तो मेरे मन में एक प्रश्न उठता है । अनुमति हो तो पूछूँ?"
बापू ने सरल भाव से उसे इसकी अनुमति दी।
"कोई व्यक्तिगत-रूप से सोच सकता है कि ईश्वर और (अल्ला) अल्लाह, एक ही परमेश्वर के अलग-अलग दो नाम हैं किंतु क्या यह आवश्यक है कि दूसरे भी सभी ऐसा ही मानते हों?"
"आज तक किसी ने ऐसा प्रश्न मुझसे नहीं किया, इसलिए मैंने इस बारे में कभी विचार ही नहीं किया ।"
"बापू ! कल ही एक अन्य संप्रदाय के मेरे एक मित्र ने मुझसे कहा कि वह इससे राज़ी नहीं है, क्योंकि उसके धर्मग्रन्थ के अनुसार यह सत्य नहीं है । जिसका नाम ईश्वर है वह अल्लाह नहीं, और जिसका नाम अल्लाह है वह ईश्वर नहीं ।
यह सुनकर बापू को उस पंडित की बात पर विश्वास नहीं हुआ । फिर भी उन्होंने पूछा :
"तुम्हें क्या लगता है?"
"बापू! यह सिर्फ़ आपका व्यक्तिगत विचार है कि ईश्वर और अल्लाह एक ही परम-सत्ता के दो भिन्न-भिन्न नाम हैं, और दूसरे कुछ लोग इस पर आपत्ति न उठाते हुए केवल इसलिए चुप रहते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि यदि आप ख़ुद ही इस ख़ुशफ़हमी का शिकार हैं कि दूसरे आपकी बात से राज़ी हैं तो यह आपकी समझ है । वे क्यों प्रश्न उठाएँगे; - क्योंकि उन्हें जो समझना है, उसे गुप्त रखने से ही आपका यह भ्रम और पुख़्ता होता है कि इस विचार से वे प्रसन्न हैं, जबकि वे जानते हैं कि भले ही यह आपकी ग़लतफ़हमी ही क्यों न हो, (उनकी दृष्टि से) आप सरासर झूठ बोल रहे हैं, ....!"
"क्यों ? क्या यह सच नहीं है?"
"यह आपकी दृष्टि में सच है, - ज़रूरी नहीं कि उनकी दृष्टि में भी यह सच हो !"
" ... ... "
"देखिए, यह सच ’वैचारिक सच’ है, जो अपनी अपनी मान्यता के अनुसार तय होता है । वास्तव में क्या यह ज़रूरी है कि उस परम-सत्ता को कोई नाम दिया ही जाए? क्या उसे नाम देते ही हमें यह नहीं कहना पड़ता कि सभी नाम उसके ही अलग अलग नाम हैं? और फिर हम ’ईश्वर-अल्ला' कहने लगते हैं । पहले तो आप उसके एक से अधिक कई नाम लेकर कहते हैं कि वे सब उसके ही नाम हैं और फिर यह ग़लतफ़हमी पैदा कर लेते हैं कि लोग सर्वधर्म-समभाव की आपकी भावना का आदर करते हैं और ऐसे शब्दों से वे ख़ुश होंगे, उनके बीच सौहार्द्र और भाई-चारा पनपेगा । जो है ही नहीं, उसके पनपने की संभावना ही क्या होगी?"
"तो क्या सर्वधर्म-समभाव के आदर्श को दफ़ना दिया जाए?"
-बापू उद्विग्न और व्याकुल होकर किञ्चित् रोषपूर्वक बोले ।
"जी नहीं उसे आप अपने दिल में अवश्य रखिए लेकिन सभा में ’ईश्वर-अल्ला तेरे नाम’ कहना ऐसा अनृत (असत्य)-भाषण करने के समान है, जिसे आप सिर्फ़ इस ग़लतफ़हमी से ग्रस्त होकर, यह मानकर चलते हुए कहते हैं कि इससे हर कोई संतुष्ट ही नहीं बहुत प्रसन्न और राज़ी भी होगा ही । जबकि यह ’प्रियं च नानृतं ब्रूयात्’ के न्याय-वाक्य / नीति-वाक्य के विपरीत भी है । सिर्फ़ इसलिए, कि वह लोगों को प्रिय है ऐसा असत्य भी मत बोलो । इस प्रकार आप न सिर्फ़ ख़ुद को बल्कि उन्हें भी धोखे में रखते हैं जो आपके वचनों को अंतिम सत्य की तरह श्रद्धापूर्वक स्वीकार करते हैं और उनके मन में इसकी कल्पना तक पैदा नहीं होती कि दूसरे कुछ लोग जो आपसे बिल्कुल भी राज़ी नहीं हैं, न सिर्फ़ औपचारिकता और सौजन्यतावश, शिष्टाचारवश और सभ्यता प्रदर्शित करते हुए भीतर ही भीतर निर्लज्जतापूर्वक आप पर हँसते हुए भी, ऊपर से मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए, चुप ही दिखाई देते हैं । क्या यह अधिक अच्छा नहीं होगा कि ऐसे वक्तव्यों का उल्लेख ही न किया जाए? जैसे किसी व्यक्ति / वस्तु के नाम से हम उस वस्तु के बारे में सुनिश्चित रूप से जान जाते हैं कि उसका क्या स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि है; - क्या 'ईश्वर' या 'अल्लाह' जैसे किसी 'नाम' से उस व्यक्ति / वस्तु के स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि के बारे में हमें ऐसा कोई ठोस, सुनिश्चित निष्कर्ष /प्रमाण प्राप्त होता है जिस पर सब सहमत हो सकें?"
बापू ने कोई उत्तर नहीं दिया।
उस पंडित के चले जाने के बाद बापू ने इस बारे में फिर शायद ही कभी सोचा हो।
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किसी सत्य (या असत्य) को यद्यपि विचार में ढाला जा सकता है, किंतु वैचारिक सत्य हमेशा अपूर्ण, आधा-अधूरा ही होता है क्योंकि इसकी व्याख्या हर कोई अपने तरीके से करता है । और यह भ्रम पैदा हो जाता है कि सभी उसका एक ही तात्पर्य ग्रहण करते हैं । जबकि असलियत में ऐसा प्रायः कभी नहीं होता ।
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वैसे तो यह कल्पना ही है लेकिन जब मैंने पढ़ा कि जिसे अंग्रेज़ी में ’गॉड’/ 'God' कहा जाता है, इस्लाम के कुछ अनुयायी नहीं मानते कि वह ’अल्लाह’ का ही नाम है, तो मुझे लगा, मैं ख़ुद भी अभी तक इस बारे में कितना भ्रमित था! और मुझे यह भी नहीं पता था कि मैं अब तक इस बारे में बहुत भ्रमित था ।
इसे कहते हैं :
’पता नहीं है’ -यह भी पता न होना !
और इसलिए इस कल्पित संवाद / घटनाक्रम को लिखने का मन हुआ !
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और इसे पोस्ट करने के दो मिनट बाद ही मुझे ख़याल आया कि 'हिन्दू', 'मुसलमान', 'भारतीय', 'चीनी', कांग्रेसी, कम्युनिस्ट आदि भी क्या ऐसे ही 'वैचारिक सच' / abstract notions नहीं हैं, जिनकी हर कोई अपने ढंग से व्याख्या तो कर सकता है लेकिन जिनका कोई ठोस स्वरूप, रंग-रूप, प्रकृति, 'पहचान' आदि क्या है इसे ठीक ठीक कोई नहीं जानता और न ही समझा सकता है !
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May 07, 2019

हर एक हिन्दुस्तानी के लिए !

जानना ज़रूरी है !
पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ 
इस विडिओ को देखकर आपके सामने ऐसे अनेक राज़ खुल जाएँगे जिन्हें हमसे इरादतन छिपाया गया जिनके बारे में हमें जानने से इरादतन रोका भी गया कि कहीं गलती से भी हमें उनका पता न चले।
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May 06, 2019

जाल (संस्कृत)

शाब्दिक / वाचिक / व्यावहारिक -1.
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जाल (संस्कृत)
जल, जाल, जलीय, जालीय, जलसक्त, जलसिक्त, जलासक्त, जाल+इम् - जालिम (दुष्ट),
ज़ाली (नकली, कृत्रिम, झूठा), जालसाज़, जालित (जाल में), ज़िल्द, ज़िल्दसाज़,  जेल (gel, jail, Gael - Celtic).
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भाषा और बोली  

May 04, 2019

घूँघट / बुरक़ा,

घूँघट के पट खोल !
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बुद्धिजीवी और धर्म के नाम पर राजनीति करनेवाले किसी हठधर्मी के चलते किसी प्रश्न को समस्या और मुद्दा बना सकते हैं !
इसका उदाहरण तब देखने को मिला जब श्रीलंका में पिछले माह में ईस्टर पर हुए आत्मघाती हमलों में इस्लामी आतंकवादी संगठनों के द्वारा स्वीकार किया गया कि ये हमले उन्होंने करवाए थे। और, निकट भविष्य में ऐसे और भी हमले होने की आशंका सुरक्षा एजेंसियों द्वारा वहाँ की सरकार को मिली थी। जैसे भारत में पुलवामा-हमले की ज़िम्मेवारी 'जैश' ने  खुले तौर पर ली थी और अपनी 'ताक़त' का प्रदर्शन किया था, वैसे ही श्रीलंका में ईस्टर पर हुए हमलों की ज़िम्मेवारी 'ISIS' ने ली थी। जब ऐसे हमले हो चुके होते हैं, तब तो ये संगठन शान से और निर्लज्जतापूर्वक अपने कृत्य पर गर्व करते हैं, लेकिन जब सरकारेँ सुरक्षा-कारणों से बुरक़े पर रोक लगाने का निर्णय लेती हैं तो 'मानवाधिकार' और 'धार्मिक स्वतन्त्रता' के हनन का हवाला दिया जाता है !      
भारत में भी इस घटना / विषय पर, लेकिन ज़रा भिन्न परिप्रेक्ष्य में बुरक़े पर प्रतिबंध लगाए जाने की ज़रुरत अनुभव की गयी। यह इसलिए हुआ कि संभवतः कुछ मतदाता महिलाओं ने इस बहाने 'चेहरा' ढाँककर दो-तीन बार दूसरी मतदाताओं के नाम पर फ़र्ज़ी वोटिंग की। यह शंका भी उठी कि क्या 18 वर्ष से कम आयु की किसी स्त्री ने किसी दूसरी वयस्क स्त्री के नाम पर कहीं फ़र्ज़ी वोटिंग तो नहीं की ?
तब बुरके पर पाबंदी लगाने के प्रश्न पर बुरक़े की तुलना घूँघट से की गई और सवाल उठाया गया कि यदि बुरक़े पर पाबंदी लग सकती है तो घूँघट पर भी क्यों नहीं लगाई जाए !
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि घूँघट किसी के प्रति आदर और सम्मान प्रकट करने के लिए सिर पर ओढ़ा जाता है और ऐसा प्रायः परिचितों, बड़ों और निकट-संबंधियों से पर्दा करने के लिए ही किया जाता है।  पति भी स्त्री के लिए बड़ा और सम्माननीय हो सकता है, फिर भी ज़ाहिर है कि घूँघट स्त्री-प्रकृति की स्वाभाविक लज्जा की प्रवृत्ति का भी द्योतक है। और पति से घूँघट करना केवल इस लज्जा के ही कारण हो सकता है। वास्तव में घूँघट तो पति-पत्नी के प्रेम को रहस्य के आवरण में छिपाकर और गहन तथा गूढ स्वरुप देता है। यहाँ तक कि भक्ति-परंपरा में जहाँ स्त्री पति को परमेश्वर तक मान कर सतीत्व की श्रेष्ठतम आध्यात्मिक स्थिति तक पहुँच सकती है, वहीं भक्त-कवियों ने परमेश्वर को पति मानकर भी घूँघट को अपनी भक्ति की प्रेरणा का स्रोत बनाकर उच्च स्थान दिया है।
जीव ही परमात्मा के प्रेम का भूखा नहीं है, परमात्मा भी जीव के प्रति उत्सुक और प्रेम में इतना ही विकल है कि दोनों के बीच घूँघट, प्रेम के इस गूढ मर्म को खोलता हुआ भी रहस्य ही बने रहने का बहाना होता है। और इस घूँघट के बहाने जहाँ भक्त इस पराये 'संसार' को आँखों से ओझल कर प्रियतम परमेश्वर के रूप-सौंदर्य का पान करता है, वहीं 'संसार' को इसकी भनक तक नहीं हो पाती।
बुरक़ा एक सामाजिक व्यवस्था है जिसका धार्मिक महत्त्व हो सकता है लेकिन बस वहीं तक उसकी हद है। घूँघट में रहते हुए स्त्री और उसके पति के बीच शृंगार-रस का जो रोमांच होता है वह उन्हें भावनात्मक रूप से भी अधिक दृढ़ता से परस्पर जोड़ता है। तब वे एक दूसरे को केवल वासनापूर्ति के साधन की बजाय शुद्ध प्रेम और आत्मीयता की भावना से देखना भी सीख सकते हैं, -जो अंततः भक्ति-रस में भी परिणत हो सकता है और स्त्री-पुरुष के बीच का लौकिक प्रेम तब जीव और उसके परम प्रभु के बीच के दिव्य और अलौकिक प्रेम की ऊँचाई तक भी पहुँच सकता है । फिर भी घूँघट रखना / करना या न करना स्त्री की मर्ज़ी पर ही तय होता है और वैसे भी इसकी बाध्यता तो है ही नहीं जिस पर वैधानिक रूप से रोक लगाए जाने का प्रश्न उठे !
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May 03, 2019

उधार, उद्धार नहीं !

उत्तम खेती, मध्यम वाण,
अधम चाकरी भीख निहान
(वाण - वणिक् - व्यापार-व्यवसाय, चाकरी -नौकर होना, नौकरी, निहान - विनाश)
नक्सलवाद क्यों ? 
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 'यूटोपिया' / Utopia या 'मी-टू-पिया' / 'Me-too-pia' ?
श्री राजीव दीक्षित जी का यह वीडिओ देखते हुए ख़याल आया कि उर्दू 'क़र्ज़' की व्युत्पत्ति अरबी 'क़र्ज़' से तथा संस्कृत 'कृष्' -- 'कर्ष' में भी देखी जा सकती है।  
कर्ष का अर्थ है 'खींचना' ।  
'अपकर्ष' (ह्रास, पतन), 'उत्कर्ष' (ऊपर उठना), 'निष्कर्ष' आदि इसी 'कर्ष' के भिन्न-भिन्न प्रयोग हैं।
भीख फिर भी क़र्ज़ से बेहतर है यदि वह केवल अन्न-जल के लिए माँगी जाए। 
मनुष्य-मात्र का यह अधिकार है और 'राज्य' का यह दायित्व भी है कि प्रजा का कोई मनुष्य भूखा-प्यासा न रहे।रोज़गार देना राज्य / सरकार का दायित्व तब तक नहीं हो सकता जब तक कि लोग संतान पैदा करना अपना अधिकार समझते हों। व्यावहारिक सत्य भी यह है कि भूमि पर मनुष्यों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है और इसके साथ-साथ मनुष्य का नैतिक पतन भी उतनी ही या और भी अधिक तेजी से हो रहा है। भूख-प्यास सहने की एक सीमा होती है और प्रकृति ने किसी भी प्राणी को इससे सुरक्षित नहीं रखा है। 
केवल मनुष्य ही अपनी बुद्धि का समुचित प्रयोग कर प्रकृति से अधिकतम सामंजस्य रखते हुए यथासंभव अधिकतम सुरक्षित और सुखी रह सकता है।
कृषि और गाय-बैलों की रक्षा (गोपालन) प्रकृति से अभिन्नतः जुड़ा व्यवसाय है। 
हमारी सबसे बड़ी और भयावह, आत्म-विनाशकारी भूल यह है कि हमने गाय-बैलों को सड़क पर या कसाईबाड़े में छोड़ दिया। और यह भी बिलकुल व्यावहारिक और लाभकारी सत्य है कि यदि हम कृषि को गोवंश और गो-पालन से जोड़ लें तो एक संपन्न, सुखी और समृद्ध भविष्य हम सबकी सामान विरासत हो सकता है।    
मशीनीकरण और रासायनिक कृत्रिम खाद, कीटनाशक, खर-पतवार-नाशक आदि के प्रयोग से जहाँ भूमि धीरे-धीरे बंजर होती जा रही है वहीं ये तमाम विष हमारे कृषि-उत्पादों के माध्यम से हमारे अन्न-जल-वायु को भी खतरनाक हद तक प्रदूषित कर रहे हैं।  'बिज़ली' का उत्पादन करने के लिए हाइड्रो-इलेक्ट्रिक तरीके से बड़े बाँध आदि बनाए गए हैं जिनसे भूमि का जल-स्तर / वॉटर-लेवल अस्थिर हो रहा है, जंगल नष्ट हो रहे हैं और भूकंप-प्रवणता भी बढ़ रही है। 
किसान जब क़र्ज़ लेता है तो यह 'अंत का प्रारंभ' (Beginning of the End) है। 
धरती से भू-संपदा का दोहन, चाहे वह धातुओं, रत्नों आदि का हो, कोयले या पेट्रोलियम-पदार्थों का, धीरे-धीरे, पर तेज़ी से भी भूमि को खोखला करता जा रहा है। 
सबसे बड़ा दुःस्वप्न है 'मुद्राराक्षस' अर्थात् रुपए-पैसे के रूप में 'धन' को विनिमय के लिए प्रयोग किया जाना।  समाज, राष्ट्र या राज्य जब तक ऐसी कोई कागज़ी या इलेक्ट्रॉनिक मुद्रा का इस्तेमाल करता है तब तक लोभ और भय, भविष्य की आशंका और लालसा, चिंता और परस्पर स्पर्धा -प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वेष, और हिंसा, संघर्ष, युद्ध तथा आक्रामकता, शोषण, शोषक और शोषित भी होंगे ही। किसान, श्रमिक और मज़दूर के लिए सर्वाधिक आसान यह है कि वह 'विद्रोह' की किसी भी विचारधारा से प्रेरित और प्रभावित होकर हाथ में बन्दूक थाम ले। या तो वह मशीनी खेती से पैसा कमाकर अपनी आर्थिक-स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने में लगा रहता है या फिर जैसे-तैसे सीमान्त या भूमिहीन कृषक की तरह जीवन-यापन करता है और फिर शराब या राजनीति जैसे दूसरे किसी नशे का शिकार होकर स्वेच्छा से या मज़बूर होकर ज़हर खा लेता है। 
ब्यूरोक्रेसी की निंदा करने से हम व्यवस्था को न तो सुधार सकते हैं न अपने अनुकूल बना सकते हैं।   
बहुत बुद्धिमान भी यह नहीं देख पाते कि भौतिक विकास और समृद्धि से सुख कम, उलझाव और भ्रम अधिक पैदा होते हैं। प्रगति और उन्नति की चकाचौंध उन्हें मोहित कर उनका ध्यान इस सरल तथ्य से हटा देती है कि किसी 'यूटोपिया' / Utopia या 'मी-टू-पिया' / Me-too-pia में जीते रहना आत्म-प्रवंचना और विलम्बित आत्महत्या से ज़रा भी अलग नहीं है।    
कुछ चतुर और धूर्त लोग धर्म के बहाने भोले-भाले, नासमझ, गरीब लोगों को छल-कपट से, लोभ या भय दिखाकर अपनी राजनीतिक आकांक्षाएँ पूरी करने के लिए अपना शिकार बना लेते हैं।  यह भी प्रच्छन्न आतंकवाद ही तो है !
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