May 23, 2019

तदपि न मुञ्चति आशावायुः !

Alzheimer's disease
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पिछली सदी के अंतिम वर्षों में कंप्यूटर की ज़रूरत शिद्दत से महसूस हो रही थी। उस दशक (1990-1999) के समय मैंने बस अपने जीवन का वह महानतम कार्य किया था जिससे (दुनिया में) मेरी पहचान मेरे जीवन के बाद भी किन्हीं अवशेष-चिन्हों की तरह कुछ वर्षों तक रह जाना मुमकिन है। लेकिन कंप्यूटर की उपयोगिता और महत्त्व भी इसीलिए थे । यूँ तो इससे पहले 1988 में ही बैंक में कार्य करते हुए कंप्यूटर पर काम करने का अनुभव मिल चुका था, लेकिन तब win 1.98 o.s. पर दो-रंगी मॉनिटर पर बस डाटा-एंट्री और फ्लॉपी-डिस्क स्क्रैचिंग, फॉर्मैटिंग और बैक-अप से अधिक कुछ सीखने-करने के लिए नहीं था। यहाँ तक कि सिस्टम में एच.डी. तक नहीं थी।
बहरहाल कुछ गेम्स ज़रूर खेल सकते थे। और हर संडे दोपहर को, या बाकी दिनों में भी मौक़ा मिलते ही करीब एकाध घंटे रोज़ ही खेल सकते थे। और तब भी उत्सुकता तो थी ही कि क्या किसी दिन कंप्यूटर पर; - और वह भी हिंदी में कभी कुछ लिख सकूँगा?
जब आप भविष्य की कल्पना और अनुमान तक नहीं कर पाते, जब वह आशंका और अनिश्चय से घिरा जान पड़ता है, तब भी वह अपनी सुनिश्चित गति से आपकी ओर आ रहा होता है। वास्तव में न तो ऐसा कोई भविष्य कहीं है, होता है, या होगा, लेकिन उस का विचार और कल्पना, आशंका और अनिश्चय, - सोचो तो अवश्य एक ठोस तथ्य सा लगता है।
बहुत बाद में जब हम पीछे पलटकर देखते हैं तो पता चलता है कि हमारी उम्मीदें, डर, उत्सुकताएँ कितनी अर्थहीन और रिक्तप्राय थीं ! क्योंकि अपने साथ हमारा भविष्य हमारे लिए जो कुछ भी लेकर आता है वह सर्वथा भिन्न होता है। फिर हम कहते हैं कि 'भविष्य अपने साथ यह ले आया।'
यह सब बस याददाश्त में होता है, जो विचार से पैदा होती है और विचार ही याददाश्त को भी पैदा कर, बनाए रखता है। फिर याददाश्त बहुत गड़बड़ होने लगती है, - कभी-कभी तो इतनी कमज़ोर हो जाती है कि डॉक्टर आज की भाषा में उसे Alzheimer's disease कहते हैं।
इस स्थिति के आने पर हमारा तमाम 'सोच' अपनी पहचान तक खो देता है जबकि दूसरे लोग या तो हम पर दया करते हैं, हमारी उपेक्षा करने लगते हैं, हमारा मज़ाक उड़ाने लगते हैं या बस हमारे बारे में सोचने के लिए उनके पास समय ही नहीं होता। वैसे यह भी सच है कि इसके बाद हमारा जीवन just vegetating में तब्दील हो जाता होगा, जो वैसे भी शायद इतना बुरा भी नहीं होता होगा।
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इस सदी के प्रथम वर्ष में मैं अक्षरशः सड़क पर था, जो वैसे तो कहीं भी ले जा सकती थी लेकिन यह अनिश्चय भी था कि कहाँ जाना है ! और बाद के लगभग बीस वर्ष ऐसे गुज़र गए कि अब लगता है कि आनेवाले और भी ऐसे ही गुज़र जाएँगे।
सत् श्री अकाल पुरुख !
अलख निरंजन !
काल से अछूता भविष्य अकाल-पुरुष, वस्तुतः अलख (अनदेखा, अज्ञात) और निरञ्जन, निष्कलंक (बेदाग़) होता है।
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इस दशक (2009-2019) में पुनः कंप्यूटर पुनः मेरे जीवन में प्रविष्ट हुआ और इंटरनेट के माध्यम से बहुत कुछ करना संभव हुआ। लेकिन फिर भी हालत युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के बाद ब्राह्मणों की जूठी पत्तल चाटनेवाले उस नेवले जैसी ही रही, जिसकी पूँछ हफ़्तों तक रोज़ भूखे रहने के बाद एकादशी के व्रत के दिन अतिथि के एकाएक आगमन पर, निर्धन ब्राह्मण द्वारा स्वयं के भोजन को उसे भोजन करा कर, स्वयं जल पीकर व्रत का उद्यापन कर लेने के बाद उस अतिथि की झूठी पत्तल से लिपटकर आधी सोने की हो गयी थी, और जिसे आशा थी कि युधिष्ठिर के द्वारा किए गए यज्ञ के पुण्य से उसकी बाकी आधी भी यज्ञशिष्टामृत भोजन के छूने-मात्र से अवश्य ही सोने की हो जाएगी !
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मुझे लगता है कि इसीलिए समस्त आशाओं के समाप्त हो जाने पर मन स्वयं ही अपने लिए Alzheimer's disease पैदा कर लेता होगा।
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एक दिन की मोहलत तमाम राजनीतिक दलों को मिली है, और आज (23 मई 2019) की शाम ऊँट किस करवट बैठेगा यह तय नहीं फिर भी उनकी आशा जीवित है, इसे देखकर बस थोड़ा सा चकित अवश्य हूँ !
सच ही तो है :
आशा पर आकाश थमा है,
श्वास-तंतु कब टूटे !
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