February 28, 2021

Why do diamonds shine?

During 1988-90, I was in Diamind-city Surat.

I always wanted to know if a diamond emits its own light or only reflects it. 

I already knew that a diamond shines in the presence of external light-source and the refractive index of diamond helps a cut diamond to reflect the light to the maximum.

Diamond is transparent and this helps for the refraction of the light incident upon it.

In comparison, gold is opaque and reflects the maximum part of the light that falls upon it. 

I often wonder what we call 'mind' is opaque or transparent? 

If it is opaque it reflects only. 

If it is transparent, it has a refractive index as well. 

But a diamond or gold are material objects, and none of them emits own light.

Still there are materials that are radio-active and emit electro-magnetic radiation. In this process they gradually decay and ultimately turn into elements that are stable and no more decay or emit radiation.

The material-world is made of elements that are again live and eventually die. The only light that permeats and pervades the live-forms is 'sentience', which gives rise to the sense of individuality. This stage appears when the material becomes well-organized so as to be able to produce its own exact replicas. This is the only way we could distinguish between the 'alive' and those other objects that are not so alive. So neither we could say if they ever 'die'. Thus the material so organized that it takes the form of a physical body and is capable of producing it's own copies, is the fundamental cell which is the basis of all life-forms, how-so-ever big or small. Everyone without exception is a sentient living being who thus has the natural tendency of feeling the life / world external to it. This is so from the very birth. This feeling is invariably and enevitably associated with the sense of 'being' as well. Though the feelings keep changing all the time, the sense of being / existing is the steady light that illuminates all feeling. A feeling could be pleasant or unpleasant, and is stored in brain in the form of memory,  how-so-ever clear or obscure. This is then named 'experience' . This experiencing then projects upon the sense of existence / being, the idea of being the one who has the feeling /  experience. This way, the division takes roots in the pure, pristine sense of existence / being. 

This is again accepted and expressed in the form of individuality and this supposedly individual existence assumes that like one, there are a myriad such individuals who have separate and distinct existence of their own.

Accordingly such an individual believes and claims, he has a 'mind'. The funny thing is : this very mind utters the word 'I' and yet takes the 'mind' as the one that it (kind of) possesses!

That is everyone often confounds between 'I' and 'mind'. Everyone without exception sometimes says :

'I feel, think, know... ', 

while on other times also says :

'I can't feel,  think, know...'

One also says :

I'm happy, sad,  worried, angry, confused, undecided,

And also says :

My mind is not happy,  not sad,  not worried,  not angry, clear, firm,  resolved... 

This way how the sense of existence is further fragmented without having noticed this subtle process that takes place within the mind / the consciousness. The only reason behind it is the inherent inattention towards this whole thing. 

That is but the very way of life itself!

Exactly "WHO" is there to know and understand this mystery / secret of life?

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While 'mind' has its own light and shines by itself, it can never know the light that enable it a live instrument of perception.

This light is non-material and never, not all, -immaterial.

It is the very AWARENESS that is THE UNIVERSAL MIND ...

Known as :

प्रज्ञानं ब्रह्म

The material world, that is 'known' in consciousness only, is not capable of attaining this truth by what so ever means.

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This post in English has been posted here,  through oversight,  but I would let it be here only.

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February 26, 2021

जयदेव

गीतगोविन्द

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रात्रि में १०:१५ बजे सो गया था।

उसके पहले श्री नारायण अथर्वशीर्ष का पाठ किया था।

अभी घंटे भर पहले नींद से जागा और नींद नहीं आ रही थी, तो कमरे में चहलकदमी करता रहा। दस मिनट तक चहलकदमी करने के बाद बिस्तर पर लेटे लेटे मोबाइल पर कुछ समाचार आदि देखता रहा। एक शॉकिङ्ग समाचार यह पढ़ा कि केरल की एक स्त्री ने आत्महत्या के विचार से आइसक्रीम में रैट पॉइज़न मिलाकर खाना चाहा, और फिर उसका विचार बदल गया तो उसने आइसक्रीम को वैसे ही बिना खाए, छोड़ दिया ।

वह सो गई । उसके पाँच साल की आयु के बेटे और उस स्त्री  की बहन ने बाद में उसी आइसक्रीम को खाया और दोनों की बाद में मृत्यु हो गई।

इसे पढ़ने के बाद मन उचट गया और अपने "मनोयान" ब्लॉग की पुरानी पोस्ट्स देखने लगा। 

जयदेव की एक अष्टपदी :

"धीर समीरे... "

पर दृष्टि गई। 

संस्कृत साहित्य में श्रङ्गार रस की शैली में भक्ति रस, और भक्ति रस की शैली में श्रङ्गार रस का मेल एक अद्भुत् भाव उत्पन्न करता है, जिसे ग्रहण करने के लिए मनुष्य का शुद्ध हृदय होना आवश्यक है। श्रङ्गार रस भी भक्ति से हृदय को शुद्ध कर सकता है, और केवल शुद्ध हृदय ही भक्ति के अनुग्रह का पात्र होता है। 

फिर गूगल के सर्च में इस अष्टपदी के टेक्स्ट को ढूँढा तो एक कथा पढ़ने को मिली, जिसमें उस स्त्री का वर्णन है, जो इस पद को गाते हुए अपने खेत में बैंगन तोड़ती हुई गुनगना रही थी ।

उसकी भावविभोर वाणी से वातावरण में एक अलौकिकता व्याप्त हो रही थी। कथा कहती है कि तभी उसे पीले वस्त्र पहने हुए एक बालक के दर्शन हुए जो वंशी बजा रहा था।  उसके चमकीले नेत्रों को देखकर और वंशी के स्वरों से मोहित वह स्त्री भावसमाधि में डूब गई। 

दूसरे दिन जब भगवान कुञ्जबिहारी के मंदिर के पुजारी ने मंदिर के पट खोले तो वह यह नहीं समझ सका, कि भगवान का पीत-उत्तरीय द्वार के पास तक कैसे पहुँच गया!  उसने जब उसे उठाया तो उसे यह देखकर तब और भी अधिक आश्चर्य हुआ जब उसने देखा कि उस पर बैंगन के पत्ते और कुछ काँटे भी लिपट, फँसे हुए थे। 

संशयवादी इस कथा पर संदेह करेंगे, और जिन्होंने जीवन में ऐसा कोई अनुभव पाया है, वे इसे परमात्मा की लीला कहेंगे। 

मुझे ऐसा ही एक अनुभव उस भावदशा का बचपन में तब हुआ था, जब मैं ६-७ साल की उम्र का था। 

मेरे पिताजी जिस स्कूल में शिक्षक थे, उसके प्रधानाचार्य के घर पर एक दिन सूर्योदय से पहले कोई पूजा की जा रही थी। उनकी पत्नी को मैं मौसी कहता था। उनकी दो बेटियाँ और एक बेटा था। 

पूजा की सामग्री चाँदी की थाली में रखी थी, और प्रसाद के रूप में आटे की गुड़ में बनी पँजीरी थी। वह सारा आयोजन बहुत घरेलू सा था, लेकिन सुबह सुबह, सूरज उगने से बहुत पहले उठकर नहाकर वहाँ पहुँचने, और उसमें शामिल होने का अनुभव इतना रोमाञ्चक और अविस्मरणीय था, कि मैं उसे अलौकिक ही कह सकता हूँ। 

सुबह होने से पहले ही हम घर लौट गए थे, और मैं फिर सो गया था। 

उस उम्र में न तो मुझे भक्ति और न श्रङ्गार के बारे में कोई ज्ञान या अनुभव था, न अध्यात्म या धर्म आदि का। 

अब सोचता हूँ कि श्रङ्गार और भक्ति की पवित्रता हमारे जीवन से क्यों, कब और कैसे विलुप्त हो गई? 

केरल की उस स्त्री के दुर्भाग्य पर ध्यान जाता है तो यह प्रश्न और अधिक कचोटता है। 

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February 24, 2021

वह थोड़ा सा समय!

 कविता / 24 02 2021

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जो बचा रखा है ज़िन्दगी ने मेरे लिए, 

चाहता हूँ जीना उसे सिर्फ़ अपने लिए! 

वह अनिश्चित भविष्य जो मिला है जिसको, 

नहीं मैं जानता, पर चाहता हूँ जानना उसको!

उस कसौटी पर नहीं, जो थी वर्तमान या अतीत,

बिलकुल नया ही समय, जिसे करूँगा मैं व्यतीत!

सोचते होंगे आप यह कैसे हो सकेगा मुमक़िन,

मुझको है यक़ीन पूरा, कर सकूँगा मैं लेकिन!

कर्तव्य या आदर्श नहीं, ध्येय या संघर्ष नहीं, 

करना है अब मुझे केवल, है जो भूमिका वही! 

और इस करने में, न अधिकार है, न है अपेक्षा,

न ही पलायन करना है, मुझे न करना है उपेक्षा!

क्योंकि क्षण भर भी किसी का, कर्म से विरहित नहीं, 

हर कोई है वही करता, प्रकृति से है जो तय वही !

इसलिए निश्चिन्त हूँ मैं, फिर भी न छोडू़ँगा विवेक,

भय नहीं, आशा नहीं, संशय नहीं बस निश्चय एक! 

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February 22, 2021

अमृतानुभव / अनुभवामृत

संत ज्ञानेश्वर 

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सन् १९७० में कॉलेज की शिक्षा के प्रथम वर्ष में मेरी दोस्ती शिव गोयल तथा उसके मित्र ओमप्रकाश जाधव से हुई। 

ओमप्रकाश के घर पर गुजराती पत्रिका अखंड आनन्द पढ़ते पढ़ते मैंने गुजराती भाषा को सीख लिया। आगे चलकर इसका लाभ मुझे यह हुआ कि वर्ष १९८६ में जब नौकरी के दौरान मेरा स्थानांतर राजकोट हुआ तो मुझे संत ज्ञानेश्वर द्वारा मूलतः  मराठी में रचित ग्रन्थ "अमृतानुभव / अनुभवामृत" का श्री  जे.कृष्णमूर्ति की एक प्रशंसक सुश्री विमला ठकार द्वारा लिखित गुजराती अनुवाद पढ़ने को मिला, तो बहुत खुशी हुई। 

इस ग्रन्थ के इस गुजराती अनुवाद से मेरे गुजराती भाषा के ज्ञान में बहुत सुधार हुआ । पुस्तक को मूल भाषा मराठी में तो मैं वर्ष १९९३ के बाद ही पढ़ पाया। बाद में कभी वर्ष २००४ के बाद इसका श्री रमेश बालसेकर द्वारा लिखा गया अंग्रेजी अनुवाद भी पढ़ने को मिला, जो अत्यन्त विद्वत्तापूर्ण है। किन्तु जो भाव मैं मूल मराठी ग्रन्थ से ग्रहण कर सका उसे अंग्रेजी से ग्रहण कर पाना मेरे लिए अनावश्यक और कठिन ही था। 

फिर कभी इस ग्रन्थ का कौतूहलवश ही संस्कृत और हिन्दी में अनुवाद करना चाहा, तो उसे "आकाशगंगा" नामक मेरे ब्लॉग में क्रमबद्घ पोस्ट किया। 

कुछ अध्याय करने के बाद किसी कारण से वह कार्य अब तक अधूरा ही है। 

वास्तव में मुझे लगता है कि किसी कार्य को सुनियोजित तरीके से कर पाना मेरे लिए कभी संभव ही नहीं है। 

फिर भी किन्हीं कारणों से प्रयास चलता रहता है। 

यदि किसी को मेरे ब्लॉग में रुचि हो तो मुझे यह जानकर थोड़ी खुशी तो होगी ही। यद्यपि मैं अब भी नहीं कह सकता कि  संस्कृत भाषा का मेरा ज्ञान कितना प्रामाणिक और ठीक है। यही बात मेरे हिन्दी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के ज्ञान के बारे में भी सत्य है। 

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February 21, 2021

Amnesia and Utopia

एक पोस्ट मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में अधूरी लिखी है, शायद पब्लिश कर दी है, या ड्राफ्ट में होगी। 

इन दिनों मैं किसी के साथ श्री देवी अथर्वशीर्ष का पाठ कर रहा हूँ। वैसे तो मैं किसी भी वैदिक / पौराणिक / सनातन धर्म से संबंधित किसी आध्यात्मिक ग्रन्थ का अर्थ करने को मूलतः अनुचित कार्य और अनधिकृत चेष्टा ही मानता हूँ, किन्तु ग्रन्थ की भाषा के ज्ञान में सहायक होने के कारण और मूल भाषा के अध्ययन और सीखने की दृष्टि से अनुवाद की उपयोगिता भी है यह भी लगता है। इसलिए जब किसी ने मेरे साथ इस ग्रन्थ को पढ़ने का प्रस्ताव किया तो मैं इसके लिए सहमत हो गया। 

वैसे तो न उसे और न मुझे ही संस्कृत का बहुत अधिक ज्ञान है,  किन्तु अपनी 'पाठ-परंपरा' के अनुसार मैंने संस्कृत (भाषा) वैसे ही सीखी जैसे हम सभी अपनी अपनी मातृभाषा सीख लेते हैं। जैसे हम मातृभाषा सीखकर आगे चलकर उसे ही व्याकरण की सहायता से परिष्कृत और परिमार्जित कर लेते हैं, उसी तरह मैंने भी संस्कृत के विषय में किया। इसलिए ग्रन्थपाठ से सीखने की प्रक्रिया में पहले तो मैंने सही उच्चारण पर ध्यान दिया और बाद में उसका जो भाव मेरे भीतर प्रकाशित हुआ उसे अपनी भाषा में रूपांतरित किया।  यह 'अनुवाद' से कुछ भिन्न है। 

'अनुवाद' के विषय में मेरे अनुभव से मैंने सीखा कि किसी तकनीकी विषय की सामग्री को एक से दूसरी भाषा में अनुवादित करने और साहित्यिक विषय की सामग्री को एक से दूसरी भाषा में अनुवादित करने में बहुत अंतर है। 

अभ्यास की दृष्टि से मैंने कुछ अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और संस्कृत रचनाओं को हिन्दी में अनुवादित किया किन्तु वे सभी साहित्यिक भावभूमि पर लिखी हुई थीं। 

इनमें कुछ विशुद्धतः साहित्यिक थीं जिनका धर्म या दर्शन से सीधे कोई संबंध नहीं था। 

कुछ विशुद्धतः धर्म और सनातन मत से संबंधित मूलतः संस्कृत रचनाएं थीं, जैसे उपनिषद्, विवेक चूडामणि, पञ्चदशी आदि, तो दूसरी कुछ अन्य भाषाओं की थीं। 

जैसे श्री निसर्ग दत्त महाराज के विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ  

I AM THAT 

का अनुवाद यद्यपि मैंने मूल अंग्रेजी से हिन्दी में किया था किन्तु प्रामाणिकता की परीक्षा के लिए मैंने साथ साथ मूल मराठी ग्रन्थ (सुखसंवाद) का भी अध्ययन किया था। 

इसी प्रकार से श्री जे. कृष्णमूर्ति के 'नोटबुक' का अनुवाद करते समय इसके मराठी संस्करण 'दैनंदिनी' का अध्ययन किया था। 

श्री जे. कृष्णमूर्ति की अन्य रचनाओं जैसे 

"TALKS WITH STUDENTS : VARANASI 1954"

का अनुवाद अपेक्षाकृत तकनीकी प्रकार का था जहाँ 

Amnesia  या Utopia की कोई भूमिका (रोल) नहीं था। 

अब जब श्री देवी अथर्वशीर्ष को किसी के साथ पढ़ने का सौभाग्य मिला तो अचानक वे दिन याद हो आए जब मैंने इसका 'पाठ' कौतूहलवश प्रारंभ किया था। 

वे शारदीय नवरात्र और उससे पहले के दिन थे जब कुछ अत्यंत अद्भुत अनुभूतियाँ अनायास हुईं थीं जिनसे पाठ के प्रति मेरी निष्ठा और भी अधिक दृढ हो गई । 

इन अनुभूतियों की स्मृति और विस्मृति के बारे में यही कहा जा सकता है कि उस समय जहाँ एक ओर संसार की विस्मृति (Amnesia) तो दूसरी ओर किसी दूसरे लोक का दर्शन भी घटित होता था, जिसे कल्पना-लोक (Utopia) कहना गलत होगा। 

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राम तेरे कितने नाम?

वन में स्थित उस पर्णकुटी में भगवान् श्रीराम स्फटिक-शिला पर विराजमान थे और माता सीता उनकी दृष्टि से परे कहीं बाहर पुष्प-पत्र चुनने के लिए गई हुईं थीं। वे पुष्प-पत्र लेकर लौटीं तो उन्होंने भगवान् श्रीराम के चरणों पर अँजुलि-भर पुष्प अर्पित कर दिए। 

भगवान् के अनुज श्री लक्ष्मण, शिला से कुछ दूर भगवान् की आज्ञा की प्रतीक्षा में तत्पर, स्तंभवत् खड़े थे। माता सीता के वहाँ से चले जाने पर उन्होंने भगवान् से निवेदन किया :

"प्रभु! एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ,  कृपया अनुमति प्रदान करें।"

भगवान् ने कृपापूर्वक मन्दस्मित से संकेत से ही अनुमति प्रदान की,  फिर प्रकटतः कहा  :

" अवश्य! "

तब श्री लक्ष्मण ने प्रश्न पूछा :

"लोक में आपकी ख्याति 'राम' के नाम से है, किन्तु ऋषि-मुनि,  वेद-पुराण आदि आपके असंख्य नामों का उल्लेख करते हैं। कृपया बतलाएँ कि आपका एक ही नाम है या कि अनेक नाम हैं? और यदि आपके एक से अधिक नाम हैं तो उनमें से सबसे बड़ा नाम कौन सा है?"

"प्रिय लक्ष्मण ! मेरे समस्त नाम मेरे लक्षण मात्र हैं,  और इसलिए तुम्हारा लौकिक 'लक्ष्मण' नाम भी  वस्तुतः मेरा ही एक नाम है। किसी नाम का प्रयोग अर्थ और प्रयोजन की तरह व्यावहारिक रूप से भिन्न भिन्न स्थितियों में आवश्यकता के अनुसार अलग अलग प्रकार से किया जाता है। किसी वस्तु से अनभिज्ञ मनुष्य भी केवल कल्पना या भावना मात्र से भी उसे संबोधित या व्यक्त करता है अर्थात् दूसरों के समक्ष उस नाम से प्रकट करता है। इसलिए वही नहीं, मेरे स्वरूप को जाननेवाले ज्ञानीजन भी इस विषय में प्रायः दुविधा अनुभव करते हैं, किन्तु मेरी शक्ति ही जो प्राणिमात्र में आवरण, विक्षेप तथा अनुग्रह की तरह कार्य करते हुए सभी को जगद्वयापार में संलग्न करती है, और जो मुझसे लोक अर्थात् जगत् की ही तरह अभिन्न है, अपनी अहैतुक कृपा से उन्हें निरन्तर मेरी ओर आकर्षित करती है। जैसे मेरे असंख्य नाम और लक्षण हैं, उसी प्रकार वह शक्ति भी मेरा ही स्वरूप और लक्षण भी है। जैसे जगत् मेरा कोई विशिष्ट नाम न होते हुए भी मेरा ही लक्षण मात्र है, जिसके आधारभूत सत्य को जानकर, उसकी जिज्ञासा के लिए उत्कंठित मनुष्य उसके नित्यतारूपी प्रकट लक्षण को स्मरण रखते हुए मुझे प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार किसी भी नाम से मुझे स्मरण करनेवाला और मुझे इंगित कर मेरी आराधना करनेवाला अपनी बुद्धि के अनुसार मुझे स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से यत्किञ्चित जान सकता है, क्योंकि मेरे यथार्थ स्वरूप को जान पाना और उसका वर्णन कर पाने में तो वेद तथा शास्त्र आदि भी असमर्थ हैं।

इसलिए विभिन्न मेरे नाम भी अर्थ और प्रयोजन के अनुसार अलग अलग हैं। 

जैसे किसी व्यक्ति को प्रत्यक्षतः संबोधित करने के लिए उसे 'तुम' कहा जाता है वैसे ही उसके बारे में किसी से कुछ कहने के लिए अप्रत्यक्षतः 'वह' नाम दिया जाता है - ये दोनों 'मैं' की तरह ही सर्वनाम कहे जाते हैं। किन्तु वस्तुतः वे सभी 'मैं' के ही प्रकाश में प्रकट और विलीन होते हैं,  जबकि 'मैं' न तो प्रकट होता है और न विलीन, उसी प्रकार 'मैं' अर्थात् 'अहं', या आत्मा ही मेरा प्रथम नाम है। अन्य सभी सर्वनाम मेरे इंगित मात्र हैं। 

तुमने मुझे 'प्रभु' कहकर संबोधित किया जिसका अपना अर्थ और प्रयोजन है किन्तु वह नाम भी उसी प्रकार सीमित और अपूर्ण है, जैसे अन्य सभी नाम (संज्ञाएँ) और सर्वनाम। 

किसी भी नाम का प्रयोग स्मरण या उल्लेख तथा संबोधन और संकेत के लिए किया जाता है। 

वेद इसी ज्ञान का विस्तार है। 

स्मरण,  उल्लेख तथा संबोधन भी  किसी कल्पना, भावना या भौतिक वस्तु के ही संबंध में किया जाता है । कल्पना (भावना),  या भौतिक वस्तु क्रमशः आधिदैविक और अधिभौतिक  तत्व अर्थात् मायारूपी शक्ति के कार्य हैं जबकि आध्यात्मिक तत्व अर्थात् 'अहं' या 'मैं' जिससे उत्पन्न स्फुरण ही व्यक्तिमात्र में पाया जानेवाला अहंकार होता है, जो अन्तःकरण की तरह एक ही 'अहं' के असंख्य रूपों में जगत् तथा व्यक्ति का अपना कल्पित वह संसार होता है जिसे वह अपने से भिन्न मान लेता है।

'अहं' अर्थात् 'मैं' स्वरूपतः मेरा ही नाम है। 

मायाशक्ति के कार्य जगत् और जगदानुभव के रूप में व्यक्त होने से परिणाम की तरह निरन्तर ही अव्यक्त से प्रकट होकर पुनः अव्यक्त में समाहित हो जाते हैं। उनकी नित्यता या अनित्यता का विचार भी नहीं किया जा सकता क्योंकि नित्यता और अनित्यता जिस 'काल' के अन्तर्गत होते हैं वह काल भी व्यवहारतः तो विचारमात्र और अचल अटल अनादि अनंत आधार के रूप में मैं ही हूँ। विचार तो मायाशक्ति का विलास है,  जबकि मैं ही उस शक्ति का स्वामी हूँ।

जगत् रूपी कार्य मायाशक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है, किन्तु जगत् का उद्भव, स्थिति तथा लय जिन कारणों से होता है वे कारण मायाशक्ति का ही अव्यक्त गुणमय प्रकार है। 

इस प्रकार 'मैं' अर्थात् 'अहं' नाम भी यद्यपि मुझ परमात्मा का ही है किन्तु उस नाम का प्रयोग केवल स्मरण के लिए ही किया जाता है। व्यवहार में उससे जिसका संकेत किया जाता है वह व्यक्ति विशेष द्वारा अपने आप के संदर्भ में होता है इसलिए वह मेरा (मुझ परमात्मा का) नाम नहीं हो सकता। 

किन्तु फिर भी,  यह भी सत्य है कि ज्ञानी या अज्ञानी या संशयात्मा पुरुषों में भी मैं नित्य इसी अहं-स्फुरण की तरह प्रत्यक्ष होता हूँ, और इसीलिए कोई अपने आपके अस्तित्व से न तो अनभिज्ञ होता है, न किसी को अपने होने पर संशय होता / हो सकता है। 

इसलिए 'अहं' नाम सच्चिदानन्द एकमेवऽद्वितीय परमात्मा का ही प्रथम लौकिक नाम भी है। 

(बृहदारण्यक उपनिषद् में इसे ही :

'अहं नामाभवत्' 

के माध्यम से कहा है।)

'अध्यात्म रामायण' में मेरा, तुम्हारा और हम चारों भाइयों का उल्लेख इस प्रकार से है :

'यस्मिन् रमन्ते मुनयो विद्ययाऽज्ञानविप्लवे ।

तं गुरु प्राह रामेति रमणाद्राम इत्यादि।। ४०

भरणाद्भरतो नाम लक्ष्मणं लक्षणान्वितम्। 

शत्रुघ्नं शत्रुहन्तारमेव गुरुरभाषत।। ४१

लक्ष्मणो रामचन्द्रेण शत्रुघ्नो भरतेन च। 

द्वंद्वीभूय चरन्तौ तौ पायसांशानुसारतः।। ४२

इस प्रकार मेरा 'अहं' नाम सर्वत्र प्रचलित और प्रकाशित है, जिससे कोई भी अनभिज्ञ नहीं है, किन्तु संसार के उद्धार तथा धर्म की संस्थापना के कार्य हेतु लीलामात्र से मैं जिस रूप में धरा पर अवतरित होता हूँ उस सर्वनियन्ता के रूप में मुझ परमात्मा का नाम 'राम' ही है जिसे स्मरण करते ही कोई भी मनुष्य तत्काल ही मेरी कृपा का भागी हो जाता है। 

मेरा तीसरा नाम जिसे इंगित और उल्लेख की दृष्टि से प्रयोग किया जाता है वह है 'ॐ' अर्थात् प्रणव। 

इंगित, उल्लेख तथा वर्णन की दृष्टि से यह उन भक्तों,  ज्ञानियों और योगियों को भी अत्यन्त प्रिय है जो मुझे अपरोक्षतः इस नाम से स्मरण करते हैं क्योंकि वे :

'देवाऽपरोक्षप्रियाः'

के रहस्य से परिचित होते हैं। 

ये सभी जो मुझे 'राम', 'ॐ' या मेरे किसी ऐसे ही नाम से स्मरण करते हैं, मेरी कृपा के पात्र होते हैं। 

नाम ही मुझे स्मरण करने के लिए सर्वसुलभ साधन है, क्योंकि मेरे स्वरूप का वर्णन कर पाने में तो स्वयं ब्रह्मा या सरस्वती भी उनके समर्थ नहीं हैं ।"

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राम 






February 17, 2021

प्रश्नोत्तर

धर्म और कर्म 

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प्रश्न  :

क्या यह सत्य है कि प्रत्येक कर्म में ही उसका नाश बीजरूप में विद्यमान होता है? 

उत्तर  :

अवश्य क्योंकि "कर्म" कल्पना ही है और सभी कल्पनाएँ सतत उत्पन्न और विलीन होती रहती हैं। 

प्रश्न  :

और धर्म? 

उत्तर  :

यदि धर्म, "कर्म" है, तो अवश्य ही उसके संबंध में भी यही सत्य है। 

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February 14, 2021

कब तक आख़िर?

आखिर कब तक चाहा जाए, 

कब तक झूठ सराहा जाए! 

कब तक दर्दों को सहा जाए,

कब तक रिश्ता निबाहा जाए!

कब तक बोझ उठाया जाए,

कब तक यूँ ही कराहा जाए?

कौन रोक सकता है तुमको,

कब तक अश्क बहाया जाए? 

कभी तो होनी ही है इंतिहा,

कब तक लिहाज / लिहाफ ये ओढ़ा जाए! 

अब तो फिर से हँसना सीखो, 

कब तक रोया-धोया जाए! 

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Dedicated to all ex-Valentines ! 

😂




February 10, 2021

कालसर्प योग

ऐसे ही पञ्चाङ्ग देख रहा था जिसमें दिनांक ०९ जनवरी से ११ जनवरी २०२१ तक षड्ग्रही-योग बन रहा है। 

अभी अभी इस ओर ध्यान गया कि सभी ग्रह राहु और केतु के बीच एक ही ओर हैं, न कि दोनों तरफ़। 

इसे कालसर्प योग कह सकते हैं। 

इस प्रकार ये तीन दिन वैश्विक और व्यक्तिगत रूप से भी सभी के लिए अवश्य ही बहुत घटनापूर्ण होंगे, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। 

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February 06, 2021

ग्रेटा और रियाना

किसान-आन्दोलन के सन्दर्भ से याद आते हैं :

निर्मल वर्मा 

की कहानी और उपन्यास के पात्र 

ग्रेटा और रायना रेकज़ेविक !

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February 04, 2021

आसान-मुश्किल !

जब तक तुम, 

पहचान नहीं खोते,

तब तक कैसे, 

पा सकते हो ख़ुद को?

क्या तुम नहीं देखते,

कि यह जो पहचान है, 

बदलती ही रहती है,

हरदम,  पल-पल, 

जैसे कि बदलती ही रहती है, 

तुम्हारी दुनिया! 

और,  दुनिया की उस पहचान को,

मन मान बैठता है,

-पहचान अपनी! 

सच तो यह है कि, 

क्या मन की अपनी कोई पहचान,

होती है कहीं? 

और तुम, जो न मन, 

और न ही हो दुनिया, 

न ही कोई पहचान उनकी, 

बस हो पर्दा वह जिस पर,

बनती-मिटती,  उभरती रहती हैं, 

ये बदलती तसवीरें तमाम। 

तो कैसे देख पाओगे,  

कभी ख़ुद को? 

क्या पर्दा भी कोई, 

कभी देख सकता है ख़ुद को? 

फिर भी पर्दा तो सिर्फ़ पर्दा है, 

बेजान बिलकुल ही मुर्दा है, 

जबकि तुम हो जीती-जागती,

एक सच्चाई, हक़ीक़त जिन्दा! 

इसलिए जितना मुश्किल है, 

देख पाना ख़ुद को, 

आसान भी उतना ही है,

देख लेना भी ख़ुद को! 

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