एक पोस्ट मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में अधूरी लिखी है, शायद पब्लिश कर दी है, या ड्राफ्ट में होगी।
इन दिनों मैं किसी के साथ श्री देवी अथर्वशीर्ष का पाठ कर रहा हूँ। वैसे तो मैं किसी भी वैदिक / पौराणिक / सनातन धर्म से संबंधित किसी आध्यात्मिक ग्रन्थ का अर्थ करने को मूलतः अनुचित कार्य और अनधिकृत चेष्टा ही मानता हूँ, किन्तु ग्रन्थ की भाषा के ज्ञान में सहायक होने के कारण और मूल भाषा के अध्ययन और सीखने की दृष्टि से अनुवाद की उपयोगिता भी है यह भी लगता है। इसलिए जब किसी ने मेरे साथ इस ग्रन्थ को पढ़ने का प्रस्ताव किया तो मैं इसके लिए सहमत हो गया।
वैसे तो न उसे और न मुझे ही संस्कृत का बहुत अधिक ज्ञान है, किन्तु अपनी 'पाठ-परंपरा' के अनुसार मैंने संस्कृत (भाषा) वैसे ही सीखी जैसे हम सभी अपनी अपनी मातृभाषा सीख लेते हैं। जैसे हम मातृभाषा सीखकर आगे चलकर उसे ही व्याकरण की सहायता से परिष्कृत और परिमार्जित कर लेते हैं, उसी तरह मैंने भी संस्कृत के विषय में किया। इसलिए ग्रन्थपाठ से सीखने की प्रक्रिया में पहले तो मैंने सही उच्चारण पर ध्यान दिया और बाद में उसका जो भाव मेरे भीतर प्रकाशित हुआ उसे अपनी भाषा में रूपांतरित किया। यह 'अनुवाद' से कुछ भिन्न है।
'अनुवाद' के विषय में मेरे अनुभव से मैंने सीखा कि किसी तकनीकी विषय की सामग्री को एक से दूसरी भाषा में अनुवादित करने और साहित्यिक विषय की सामग्री को एक से दूसरी भाषा में अनुवादित करने में बहुत अंतर है।
अभ्यास की दृष्टि से मैंने कुछ अंग्रेजी, मराठी, गुजराती और संस्कृत रचनाओं को हिन्दी में अनुवादित किया किन्तु वे सभी साहित्यिक भावभूमि पर लिखी हुई थीं।
इनमें कुछ विशुद्धतः साहित्यिक थीं जिनका धर्म या दर्शन से सीधे कोई संबंध नहीं था।
कुछ विशुद्धतः धर्म और सनातन मत से संबंधित मूलतः संस्कृत रचनाएं थीं, जैसे उपनिषद्, विवेक चूडामणि, पञ्चदशी आदि, तो दूसरी कुछ अन्य भाषाओं की थीं।
जैसे श्री निसर्ग दत्त महाराज के विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ
I AM THAT
का अनुवाद यद्यपि मैंने मूल अंग्रेजी से हिन्दी में किया था किन्तु प्रामाणिकता की परीक्षा के लिए मैंने साथ साथ मूल मराठी ग्रन्थ (सुखसंवाद) का भी अध्ययन किया था।
इसी प्रकार से श्री जे. कृष्णमूर्ति के 'नोटबुक' का अनुवाद करते समय इसके मराठी संस्करण 'दैनंदिनी' का अध्ययन किया था।
श्री जे. कृष्णमूर्ति की अन्य रचनाओं जैसे
"TALKS WITH STUDENTS : VARANASI 1954"
का अनुवाद अपेक्षाकृत तकनीकी प्रकार का था जहाँ
Amnesia या Utopia की कोई भूमिका (रोल) नहीं था।
अब जब श्री देवी अथर्वशीर्ष को किसी के साथ पढ़ने का सौभाग्य मिला तो अचानक वे दिन याद हो आए जब मैंने इसका 'पाठ' कौतूहलवश प्रारंभ किया था।
वे शारदीय नवरात्र और उससे पहले के दिन थे जब कुछ अत्यंत अद्भुत अनुभूतियाँ अनायास हुईं थीं जिनसे पाठ के प्रति मेरी निष्ठा और भी अधिक दृढ हो गई ।
इन अनुभूतियों की स्मृति और विस्मृति के बारे में यही कहा जा सकता है कि उस समय जहाँ एक ओर संसार की विस्मृति (Amnesia) तो दूसरी ओर किसी दूसरे लोक का दर्शन भी घटित होता था, जिसे कल्पना-लोक (Utopia) कहना गलत होगा।
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