जब तक तुम,
पहचान नहीं खोते,
तब तक कैसे,
पा सकते हो ख़ुद को?
क्या तुम नहीं देखते,
कि यह जो पहचान है,
बदलती ही रहती है,
हरदम, पल-पल,
जैसे कि बदलती ही रहती है,
तुम्हारी दुनिया!
और, दुनिया की उस पहचान को,
मन मान बैठता है,
-पहचान अपनी!
सच तो यह है कि,
क्या मन की अपनी कोई पहचान,
होती है कहीं?
और तुम, जो न मन,
और न ही हो दुनिया,
न ही कोई पहचान उनकी,
बस हो पर्दा वह जिस पर,
बनती-मिटती, उभरती रहती हैं,
ये बदलती तसवीरें तमाम।
तो कैसे देख पाओगे,
कभी ख़ुद को?
क्या पर्दा भी कोई,
कभी देख सकता है ख़ुद को?
फिर भी पर्दा तो सिर्फ़ पर्दा है,
बेजान बिलकुल ही मुर्दा है,
जबकि तुम हो जीती-जागती,
एक सच्चाई, हक़ीक़त जिन्दा!
इसलिए जितना मुश्किल है,
देख पाना ख़ुद को,
आसान भी उतना ही है,
देख लेना भी ख़ुद को!
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