December 31, 2022

उसके बारे में!

कविता : 31-12-2022

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उसके बारे में, 

मैं किसी से बात भी नहीं करना चाहता, 

न किसी और से, न उससे, और न खुद से भी!

कि उसका नाम क्या है, कहाँ उसका घर है,

कौन सा स्थान, देश, जगह या शहर है!

कि उसे कौन सा रंग पसन्द है,

कि उसने पहली बार मिलते ही, 

मुझे मैसेज किया था :

"रोज़ेस आर पिंक, 

वॉयोलेट्स आर ब्ल्यू, ..."

कि उसे कौन सा मौसम पसन्द है,

कि उसने दूसरी बार,

मुझे मैसेज किया था :

"कोंपलें फिर फूट आईं शाख पर, 

उससे कहना, वो न समझेगा,

मगर कहना उसे!" 

कि उसने तीसरी बार,

मुझे यह मैसेज किया था :

"तुम मुझे भूल भी जाओ, 

कोई हक़ है तुमको!"

और इसे हरी झंडी समझकर,

किनारा कर लिया था उससे मैंने!

हाँ, उसके बारे में,

मैं किसी से बात भी नहीं करना चाहता, 

न किसी और से, न उससे, और न खुद से भी!

***






गेरुआ बसंती केसरिया!

कविता / 31-12-2022

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December 25, 2022

पुनर्वाचन / पुनर्पठन

अष्टावक्र कथा / अष्टावक्र गीता

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राजा जनक के दरबार में वरुण के पुत्र को अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया, और वरुण / सागर-सम्राट* ने अष्टावक्र के पिता को मुक्त कर दिया तो राजा ने अष्टावक्र से अपनी उस जिज्ञासा प्रश्न का समाधान किए जाने की प्रार्थना की जिसका समाधान राजा जनक के दरबार के बड़े बड़े पंडित और स्वयं अष्टावक्र के पिता भी नहीं कर सके थे, जिसके लिए उन्हें वरुण ने बन्दी बना लिया था।

तब अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा :

राजन्! क्या तुम अपनी इस जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए इस पूरे राजपाट, महल और उस संपूर्ण सुरक्षा को दाँव पर लगाने के लिए अभी ही उद्यत हो?

राजा जनक ने कहा : अवश्य ही! आप बस आज्ञा करें!

तब अष्टावक्र ने कहा तुम मेरे साथ वन को चलो, क्योंकि इसका उपदेश यहाँ नहीं दिया जा सकता। 

तब राजा ने एक उत्तम रथ मँगवाया जिसमें अष्टावक्र आरूढ हुए, और राजा स्वयं अश्व पर आरूढ हो उस रथ के पीछे पीछे चला। कुछ थोड़े से और सैनिक राजा की आज्ञा से उनके साथ पीछे पीछे अश्वों पर आरूढ होकर चल रहे थे। 

जब वे नगर से बहुत दूर वन में पहुँच चुके तो अष्टावक्र ने राजा से कहा : 

"हाँ अब कहो तुम्हारा क्या प्रश्न है!"

"भगवन्! मेरा प्रश्न वही है जिसे वरुण के पुत्र ने मेरे दरबार के पंडितों से पूछा था और उन वेदों में पारंगत पंडितों में से कोई भी जिसका संतोषप्रद उत्तर नहीं दे सका था इसलिए उसे वरुण का बन्दी होना पड़ा था। 

"शास्त्र के अनुसार ज्ञान, -जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह आत्मज्ञान निमिषमात्र में हो सकता है। क्या यह सत्य है?"

अष्टावक्र बोले :

"राजन्! संसार की समस्त अनित्य वस्तुओं और पदार्थों आदि से तीव्र वैराग्य और सत्य, एकमात्र शाश्वत सद्वस्तु अपनी नित्य और शुद्ध बुद्ध आत्मा अर्थात् अपने ऐसे उस सच्चे स्वरूप को जानने की प्रबल उत्कंठा होने पर क्षणमात्र का समय भी इसके लिए पर्याप्त होता है। राजन्! क्या तुममें विषय-मात्र के प्रति इतना प्रबल वैराग्य है?"

"यह कैसे सिद्ध होगा?"

"राजन्! यह तो इसकी परीक्षा करने से ही स्पष्ट हो सकता है।"

"भगवन्! मैं इस परीक्षा के लिए प्रस्तुत हूँ!"

तब अष्टावक्र बोले :

"मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्यज... 

चित्त से समस्त विषयों का आमूल त्याग हो जाते ही तत्क्षण ही तुम्हें यह प्राप्त है। क्या तुमने अपने चित्त से विषयमात्र को ही विसर्जित कर दिया है और क्या तुम्हें आचार्य के वचनों के प्रति पूर्ण और सन्देहरहित निष्ठा है?"

"भगवन्! आदेश करें, मैं प्रस्तुत हूँ।"

"राजन्! यदि तुमने अपने चित्त से सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य विषयों का त्याग कर दिया है तो क्या तुम्हारे मन में कल्पना, स्मृति, लोभ, भय, आशा, चिन्ता और भय आदि के लिए स्थान रहा। वह क्या शेष रहा जिसे तुम तुम्हारा कहकर उसकी चिन्ता कर सको!"

उस समय राजा अश्व की पीठ से उतर ही रहा था।

अष्टावक्र के वचन सुनते ही उसका वह चित्त ही विसर्जित हो गया जिसमें मेरा नामक वृत्ति सतत सक्रिय थी, उस चित्त का लय हो गया था। तब वह स्तब्ध और अवाक् होकर वह शुद्ध बोधमात्र था जिसमें अपने या दूसरे की कल्पना तक नहीं थी। 

न जाने कितने काल तक वह उस अवस्था में स्थिर रहा, क्योंकि वहाँ काल का भी अतिक्रमण हो चुका था। काल भी कल्पना ही तो है! 

तब अष्टावक्र ने राजा और सैनिकों से वापस महल और दरबार चलने के लिए कहा।

जब वे लौट चुके तो अष्टावक्र ने राजा से प्रश्न किया :

राजन्! क्या तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हुई? 

राजा जनक ने आचार्य को साष्टाङ्ग प्रणाम कर अपने अहोभाव की भावना अभिव्यक्त की। 

***

अभी अष्टावक्र गीता के अध्याय 3 के श्लोक 2 को अपने पोस्ट में उद्धृत करते हुए यह प्रश्न मेरे मन में उठा :

क्या अज्ञान ignorance का नाश किया जाना संभव भी है?

क्या इससे अधिक सरल यही नहीं है कि मोह से उत्पन्न हुए भ्रम का ही निवारण कर लिया जाए? 

उपरोक्त श्लोक इस प्रकार से है :

आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।। 

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे।।

इस प्रकार लोभ और भय की उत्पत्ति भ्रमवश है यह भ्रम संसार के और आत्मा (अपने आप) के स्वरूप दोनों ही के संबंध में है। संसार का भ्रम फिर भी प्रत्यक्ष है जिस पर चिन्तन कर उस भ्रम को मिटाना जा सकता है - जैसे कि यह प्रश्न करना कि संसार नित्य है या अनित्य है? फिर नित्य क्या है? क्या प्रश्नकर्ता चेतना ही संसार की अपेक्षा नित्य नहीं है? प्रश्नकर्ता (मैं) भी जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति में बनता मिटता, बदलता रहता है। क्या यह अपने आपको जान सकता है?

इसलिए साँख्य प्रधान उपाय है, कर्म-योग गौण उपाय है। दोनों ही मनुष्य की उत्कंठा और वैराग्य की प्रबलता होने पर ही फल प्रदान करते हैं।

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यह कथा जो इतिहास के अनेक जाने-अनजाने पहलुओं / पक्षों को इंगित और सूत्रबद्ध करती है, विगत सात आठ वर्षों से मेरे मन-मस्तिष्क में उस रूप में खेलती घूमती रही है और उसे ही मैंने अपने 

swaadhyaaya.blogspot.com

तथा

vinaysv. blogspot.com 

ब्लॉग्स में अनेक पोस्ट्स में व्यक्त किया है। वाल्मीकि रामायण, स्कन्द पुराण, कठोपनिषद् तथा श्रीमद्भगवद्गीता आदि मेरे लिए इसका आधार और प्रमाण भी हैं।

वरुण, जो जल और समुद्र का, वैदिक देवता और पश्चिम दिशा का भी देवता है, इसी प्रकार यम, जो मृत्यु का देवता है, ये सभी आधिदैविक सत्ताएँ, वैदिक देवता हैं। 

मृ मृत्यु से व्युत्पन्न मेरु, और मरुत् समुद्र और वरुण, आप् और अग्नि अम्बर (umbra penumbra umbrella) अभ्रम् वेदवाणी में सभी का वर्णन है। मेरु, आमेर आदि क्षेत्र मरु के ही पर्याय हैं।  जर्मन भाषा में समुद्र को मीर (Meer) कहा जाता है। इसी प्रकार अष्टावक्र की कथा अनेक दृष्टियोंं और अर्थों में पूर्व पश्चिम को संबंधित करती है। श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद् में कवि उशना के उल्लेख से भी इसी प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कपिल मुनि का उल्लेख सिद्ध की तरह है। और कपिल मुनि उसी साङ्ख्य के आचार्य हैं जिसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ में, - दूसरे ही अध्याय में अर्जुन को दिया। फिर इसी ज्ञान का उल्लेख इस रूप में भी है कि कैसे परमात्मा ने यह ज्ञान विवस्वान् को प्रदान किया, विवस्वान् ने मनु को मनु ने इक्ष्वाकु को, और फिर महान काल के प्रभाव से इस ज्ञान का लोप हो जाने के बाद परमात्मा ने ही भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होने पर अर्जुन को भी दिया। इक्ष्वाकु से जहाँ भगवान् श्रीराम के कुल का उद्भव हुआ, वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि साँख्य जो कि पथविहीन भूमि (Truth is pathless land) है, और योग  अर्थात् (निष्काम) कर्मयोग का फल एक ही है किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह अपने स्वभाव के अनुसार अपनी निष्ठा को भली प्रकार से जानकर किसी एक ही उपाय का आलंबन ग्रहण करे।

प्रकारान्तर से, भारत और पश्चिम, अष्टावक्र-गीता या अष्टावक्र की कथा के क्रमशः नायक और प्रतिनायक हैं। 

वैश्विक सन्दर्भ में आज का जो विश्व, जिसे विकास और उन्नति कहता और मान बैठा है, वह भय और लोभ, सुरक्षा और सुरक्षा की चिन्ता से ग्रस्त है। धन-लोलुपता, काम-लोलुपता और यश, स्वामित्व और ऐश्वर्य की लोलुपता उसके प्रेरक निर्देशक तत्व हैं। 

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December 22, 2022

Talent and Genius.

Motives, Objectives and Communication.

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जब उस सोशल नेटवरकिंग साइट को जॉइन किया था तो उसने 5 फ्रैंड्स सजेस्ट किए थे जिनमें से एक की प्रोफ़ाइल देखते हुए लगा, कि उससे मित्रता की जा सकती है।

हाँ, उस मित्र के पास क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी अवश्य ही था, किन्तु जैसा कि बड़े से बड़े टेलेन्टेड भी नहीं समझ पाते हैं, उसे भी यह समझ में नहीं आया था कि आखिर उसे किस चीज़ की तलाश थी। हममें से अधिकांश लोग सिर्फ़ संपत्ति, समृद्धि, प्रसिद्धि और पहचान के पीछे भागते हैं। और सामाजिक संबंधों के फैलाव में यह सब मिलता हुआ भी दिखाई देता है, किन्तु इस सब का वास्तविक मूल्य है भी या नहीं, शायद ही इस पर किसी का ध्यान जा पाता है। तात्कालिक सफलताओं / विफलताओं का क्रम भी मनुष्य में उत्साह या निराशा पैदा करता है और जो संबंध कभी बहुत मूल्यवान प्रतीत होते थे, वे ही इतने अर्थहीन और अप्रासंगिक से हो जाते हैं कि मनुष्य उन्हें यन्त्रवत निभाने लगता है। किसी से जुड़ने के लिए कोई बहाना चाहिए होता है, और राजनीति, तथाकथित धर्म, परंपरा, संस्कृति या साहित्य, फ़िल्में, संगीत, सामाजिक समूह, खेल, पर्यटन, कोई भी विशिष्ट आदर्श या ध्येय, मिशन, के माध्यम से किसी से उसका जुड़ाव (related) है, ऐसा उसे महसूस होने लगता है। तात्कालिक जरूरतें, आग्रह, बाध्यताएँ भी इस ताने बाने को तय करती हैं और मनुष्य के मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न उठता ही नहीं है। आप सतत ही एक से दूसरे अनुभव से गुजरते रहते हैं, और गुजरते ही रहना चाहते रहते हैं! कोई आश्चर्यजनक, विचित्र या भयानक, वीभत्स, दुस्साहसपूर्ण घटना, या समाचार आपको निरन्तर बाँधे रखता है और बस यूँ ही आप जीवन बिताते रहते हैं। हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, युद्ध, महामारी जैसी घटनाओं पर रोमांचित, चिन्तित, उद्विग्न, उत्तेजित दुखी या प्रसन्न होते हैं, और कोई नई सूचना तुरन्त ही आपको और भी अधिक व्याकुल कर देती है। तब आप व्याकुल होकर उस व्याकुलता से राहत पाने का प्रयास करने लगते हैं, किन्तु आपके मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न ही नहीं पैदा नहीं होता। 

उससे दोस्ती करते समय मैंने यह सब नहीं सोचा था, बस इतना ही सोचा था, कि संवाद किया जाना शायद संभव है।

जैसा कि मेरा अनुमान था, और जैसा कि हम सब के साथ होता है, उसमें भी क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी पर्याप्त था, किन्तु किसी दुर्निवार और दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविक कारण या कल्पना से उसमें भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। इस  असुरक्षा की भावना से उत्पन्न भय से उसमें लगातार व्याकुलता रहने लगी। (और यूँ न समझें कि यह मेरे उस फ्रैंड के ही बारे में सत्य है, यह हम सभी की सामूहिक चेतना का सार्वत्रिक ओर सार्वकालिक सत्य है!)

इसी सुरक्षा (या सुरक्षा के ऐसे आश्वासन) की तलाश उसे थी, और वह सामाजिक मीडिया / सोशल नेट्वर्किंग से मिलने की आशा उसे थी।

पहले मुझे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि उसका संबंध किसी धार्मिक आध्यात्मिक संगठन से हो सकता है, और उसने भी इस सच्चाई को मुझ पर प्रकट नहीं होने दिया। आध्यात्मिक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन ही उसे करना था और उसे लगा कि मैं इसमें उसकी सहायता कर सकता हूँ। फिर मुझे समझ में आया कि असुरक्षा की यह चिन्ता और भविष्य के भय की यह आशंका ही उसके व्याकुल होने का एकमात्र कारण था। हम सभी ऐसे ही हैं! क्योंकि हम सभी वेल-क्वालिफाइड और टेलेन्टेड भले ही हों, हम जीनियस नहीं हैं। जीनियस होना प्रकृति-प्रदत्त उपहार है, जो प्रत्येक शिशु को अनायास ही मिला होता है। वह बुद्धि से किसी परिस्थिति, वस्तु आदि को नहीं, बल्कि अस्तित्व के क्षण प्रशिक्षण अवलोकन से समझने का यत्न करता है।

आज के मनुष्य की विडम्बना यही है कि जो समझ अवलोकन से उसमें पैदा होती है, उस समझ को बुद्धि (intellect) और स्मृति (memory) के प्रशिक्षण से कुंठित कर दिया जाता है,  और वह बुद्धि और स्मृति के दुष्चक्र में फँसा रह जाता है।

मैंने उससे बस यही पूछा :

Do you really need all this knowledge of scriptures and religion?

तो जवाब मिला --

क्या यही हमारी एकमात्र आवश्यकता नहीं है?

अब मुझे यह लगने लगा है, कि मनुष्य कितना भी टेलेन्टेड (प्रतिभाशाली), क्वालिफाइड / लर्नेड / सुशिक्षित क्यों न हो, अगर उसके जीनियस - प्रकृति-प्रदत्त, अवलोकन से पैदा होने वाले सहजस्फूर्त विवेक को जागृत होने से ही रोक दिया गया हो, तो उससे संवाद की न तो संभावना है, और न ही कोई आवश्यकता है।

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December 20, 2022

मन की दुविधा

क्या मनुष्य अपना भाग्य स्वयं ही तय कर सकता है?

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येन नीयत: तथा नियतिः

सभ्यता का उपसंहार

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आज के विज्ञान की प्रगति समूची मनुष्य जाति के विनाश की सूचक, पूर्वभूमिका है, --विशेष रूप से A. I. / ए. आई. और मशीन लर्निङ्ग! सभी वैज्ञानिक और भाषाशास्त्री अत्यन्त मोहित और भ्रमित हैं। ऋषि राजपोपट जैसे लोग इसका एक अच्छा उदाहरण है। बिना उसकी पुस्तक को पढ़े उसके बारे में कुछ भी कहना अनुचित ही होगा, किन्तु संस्कृत और वैदिक व्याकरण के विद्वानों को इसमें सन्देह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में लिखी गई उसकी पुस्तक येन केन  प्रकारेण इसका ही एक प्रयास है कि कैसे वैदिक और सनातन-धर्म को नीचा दिखाया जाए।

पाणिनी रचित अष्टाध्यायी वेद के उपाङ्ग व्याकरण का एक ग्रन्थ है जिसका आधार शिवजालसूत्र अर्थात् अक्षरसमाम्नाय है। जैसा कि वर्णन है अक्षरसमाम्नाय की उत्पत्ति भगवान् शिव के ढक्का से हुई है --

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।।

उद्धर्तुकामः सनकादि सिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।। 

इन चौदह वर्णो से, जो भगवान् शिव के ढक्का से सनक आदि ऋषियों को प्राप्त हुए, अ इ उ ण् ऋ लृ ङ् आदि चौदह सूत्रों का ज्ञान उन ऋषियों को मिला। इस आधार पर व्याकरण की रचना ऋषियों ने की।

तात्पर्य यह कि वेद का ज्ञान मूलतः उस नित्य वाणी में सनातन काल से अविनाशी स्वरूप में विद्यमान है जो वर्णात्मक अर्थात् मन्त्रात्मक है। 

याद आता है आज के युग के एक विश्वप्रसिद्ध साङ्ख्यविद श्री जे. कृष्णमूर्ति और वेद के एक विद्वान पण्डित जगन्नाथ शास्त्री के बीच हुआ वार्तालाप, जिसमें पण्डित जगन्नाथ शास्त्री उनसे कहते हैं कि शब्द नित्य है और उससे ग्रहण किया जानेवाला अर्थ अनित्य, औपचारिक और क्षणिक है। संक्षेप में शब्द नित्य सिद्ध वाणी है वही वेद है इसलिए वेद का पाठ किया जाता है, न कि अर्थ। वेदवाणी का प्रयोजन होता है, मनुष्य की भाषा में उसका अर्थ करना नितान्त मूढता* है। इसलिए वेदों का भाष्य किया जाता है न कि अर्थ। वैसे यह भी अवश्य सत्य है कि बहुत से संस्कृतज्ञों ने वेदों का अर्थ किए जाने का प्रयास भी किया है।इनमें सर्वाधिक अनधिकारी वे विदेशी विद्वान रहे हैं, जिन्होंने इस प्रयास से वेदों की ऐतिहासिकता को जानने या प्रमाणित करने का यत्न किया और इस क्रम में वे भी हैं ही, जो वेदों को अनपढ़ गड़रियों द्वारा लिखा गया मानते और सिद्ध करना चाहते थे। इसका मूल प्रयोजन था वेदों को आज के ज्ञान-विज्ञान की तुलना में अत्यंत निकृष्ट सिद्ध करना। वेदों का अध्ययन करने के बहाने उन्होंने वेदों के ज्ञान को बुरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट और तहस-नहस किया। अब और एक नए विद्वान श्री ऋषि राजपोपट आए हैं, जिन्होंने उनके शिक्षक की कुत्सित प्रेरणा से तोड़-मरोड़कर पाणिनी के सूत्र का अर्थ प्रस्तुत किया है और अपनी चतुराई पर फूल कर कुप्पा हो गए हैं।

यद्यपि उन्होंने भी सिद्ध परंपरा का उल्लेख तो किया है, इसलिए जल्दबाजी में उनकी पुस्तक का ठीक से अवलोकन किए बिना तुरत-फुरत कोई नतीजा निकालना उनके साथ किया जानेवाला अन्याय ही होगा।

यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु जिस पर कि मैं ध्यान आकर्षित किया जाना चाहूँगा वह यह है कि श्री जे. कृष्णमूर्ति भी महर्षि कपिल, अष्टावक्र, श्रीरमण महर्षि और श्री निसर्गदत्त महाराज आदि की तरह मूलतः साङ्ख्य परंपरा के ही एक आचार्य हैं, जैसा कि उनकी शिक्षा दिए जाने की शैली से भी स्पष्ट है। इन सभी आचार्यों ने पारंपरिक वैदिक ज्ञान नहीं प्राप्त किया था, इसलिए वे यद्यपि वेद से स्वतंत्र हैं किन्तु वेद की निन्दा करना उनके लिए भी अशोभनीय है। स्पष्ट है कि वेद के पठन पाठन का अधिकारी ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति ही होता है। यद्यपि आत्मा के अनुसंधान करने और मुक्ति प्राप्त करने के लिए जाति, वर्ण, लिंग आदि भी बाधा नहीं है, और इसलिए आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए वेदों में दिया गया ज्ञान सहायक भले ही हो, आवश्यक कदापि नहीं है। वस्तुतः तो समस्त वैदिक ज्ञान को मुण्डकपनिषद् में अपराविद्या ही कहा गया है, तथा आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान को परा विद्या।

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*यह शब्द भूल से 'ममता' टाइप-सेट हो गया था जिस पर अभी ध्यान गया अतः सुधार दिया है। भूल के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। 

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December 18, 2022

प्रो. कृष्णनाथ

नये सन्दर्भ 

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1975-76 के वर्षों में किसी समय मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित हिंदी "धर्मयुग" पत्रिका में प्रो. कृष्णनाथ का एक लेख पढ़ा था। यद्यपि उस समय तो मुझे उसका महत्व ठीक से समझ में नहीं आया, किन्तु वर्ष 2002 में कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन वाराणसी में उनसे मिलना हुआ तो पुनः वह लेख स्मृतिपटल पर उमर आया। जैसा कि मैंने उसे पुनः समझा, तो मुझे यह "स्पष्ट" हुआ कि वह लेख "दुविधा" अर्थात् conflict के बारे में था। यह "स्पष्ट" होना कोई विचार thought या वैचारिक निर्णय intellectual conclusion नहीं, बल्कि, im-mediate direct revelation / प्रत्यक्ष / अपरोक्ष समझ है, जो काल से स्वतंत्र Timeless, निरवधिक, बुद्धि से परे की वह समझ  Understanding Transcending Intellect है। चूँकि बुद्धि और स्मृति वृत्तियाँ हैं, वृत्ति की गतिविधि ज्ञात से ज्ञात तक सीमित है। इसे पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 1/6 के सन्दर्भ में देखें तो दुविधा अर्थात्  conflict स्वयं अपना प्रमाण है। हमें कभी किसी विषय में दुविधा होती है, किन्तु दुविधा है, इस बारे में हमें कदापि कोई संशय नहीं होता। 

समाधिपाद के उपरोक्त सूत्र के अनुसार :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

इस प्रकार दुविधा, वृत्ति ही है। वृत्तिमात्र का निरोध ही योग है। जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से अभिभूत कुछ लोगों का आग्रह है कि जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को सीधे ही, किसी दूसरे सन्दर्भ से संबंधित किए बिना ही सीधे ही पढ़ा सुना और समझा जाना चाहिए। पर सवाल यह भी है कि क्या हमारा "मन" स्वयं ही उन शिक्षाओं को सीधे ग्रहण करने के लिए बाधक नहीं होता! क्या हमारा "मन", जो कि अतीत है, उन शिक्षाओं की व्याख्या नहीं करने लगता है? अतीत है स्मृति, स्मृति है पहचान, -पहचान है अतीत! इस दृष्टि से बुद्धि या स्मृति रूपी वृत्ति ही हम पर हावी रहती है और हम दुविधा से मुक्ति क्या है, इसे समझने से वंचित ही रह जाते हैं!

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December 17, 2022

सुबह हुई, या रात हुई!

बाल-कविता : हर रोज!! 

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जब सूरज की नींद खुली,

जब धरती की नींद खुली, 

सूरज ने समझा, सुबह हुई!

धरती ने समझा, सुबह हुई! 

जब सूरज की आँखें झपकीं,

सूरज ने समझा, रात हुई!

जब धरती की आँखें झपकी, 

धरती ने समझा, रात हुई!

चन्दा-तारों ने भी समझा,

सुबह हुई, या रात हुई!

पर फिर उनकी नींद खुली,

सोचा सबने, क्या बात हुई!

तब से रोज यही होता है, 

रोज ही रात हुआ करती है,

हर रोज सवेरा होता है!

कितना अच्छा लगता है,

जब रोज रोज यह होता है, 

हर रात नई होती है, 

हर रोज नया दिन होता है!!

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Nurseryrhymesforthegrownup... 

December 09, 2022

धूप-छाँव

 कविता / 09-12-2022

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धूप बहुत तीखी है, 

छाँव बहुत ठंडी है,

धूप, छाँव छोड़कर हम,

धूप-छाँव में आ बैठे!

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December 07, 2022

जटायु, संपाति और वैनतेय

रामायण-प्रसंग

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दो तीन दिनों में ही जिन्दगी, सिरे से बदल गई है। 

'इंटरनेट' पर कुछ करने की इच्छा और जरूरत ही नहीं रही।

इस पोस्ट को लिखना शुरु किया था, इसलिए अगर संभव हुआ तो, इसे पूरा करने का विचार अवश्य है।

रामायण की कथा चेतना के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पक्षों और कार्य को एक साथ लेकर चलती है। प्राण और चेतना वैसे ही परस्पर अनन्य हैं जैसे सत् और चित्, शिव और शक्ति, अव्यक्त और व्यक्त। 

इसी आधार पर प्राण और चेतना के व्यक्त प्रकारों में पक्षियों के स्वरूप में व्यक्त हुई चेतना गिद्ध और गरुड़ के दो विशेष कार्यं और प्रयोजन को पूर्ण करती है।

जटायु का अर्थ हुआ अत्यन्त दीर्घ आयु तक जीवित रहनेवाला, तथा संपाती का अर्थ हुआ मर जानेवाला। ये वस्तुतः मनुष्य की उसी चेतना के उदाहरण हैं जो मनुष्य के भीतर पूरे संसार को जानने और समझने की प्रेरणा पैदा करती है।  गिद्ध का आहार  मृत जानवर होते हैं।

जटायु और संपाती दोनों गृद्ध भाई थे। इन्होंने सूर्य तक जाने की इच्छा से उड़ान भरी थी। जटायु कुछ ऊँचाई तक जाने के बाद सूर्य के ताप से व्याकुल होने लगा तो उसके बड़े भाई संपाती ने उस पर अपने पंखों की छाया की, किन्तु जटायु पृथ्वी पर उतर गया। कुछ समय पश्चात संपाती के पंख भी सूर्य की गर्मी सह न सकने से जल गये और वह भी धरती पर गिर पड़ा। ज्योतिषीय दृष्टि से ये दोनों पक्षी पृथ्वी की दो गतियों के प्रतीक हैं - एक है अपने झुके हुए अक्ष पर पृथ्वी का घूर्णन, दूसरा है, -वलयाकार कक्षा में उसका सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करना।

रामायण की कथा में सीता की रक्षा के लिए पहले जटायु रावण से युद्ध करता है किन्तु रावण उसे पराजित करता है और इसके बाद जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते हुए जटायु के पास पहुँचते हैं तो उन्हें पता चलता है कि रावणने सीता का अपहरण किया है।

कथा के दूसरे हिस्से में जब वानर सीता की खोज में असफल हो जाते हैं और प्रायोपवेशन अर्थात आमरण अनशन के द्वारा शरीर त्याग करने के लिए समुद्र तट पर बैठ जाते हैं तब उन्हें एक गिद्ध संपाती दिखाई देता है और उन्हें लगता है कि वे उस गिद्ध का आहार बन जाएँगे। तब संपाती से उनकी बातचीत के बाद संपाती उन्हें आश्वासन और सान्त्वना देते हुए स्पष्ट करता है कि वह उसी जटायु का बड़ा भाई है, जिसका समाचार उसे वानरः से मिला है और उसे भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि वह भी भगवान् श्रीराम के कार्य में सहयोग दे।

तब संपाती उन्हें जटायु के साथ हुई सूर्य की ओर की गई उड़ान की कथा सुनाता है कि किस प्रकार से अपने पंख जल जाने पर वह धरती पर गिर रहा था तो मुनि निशाकर ने उसे अपने हाथों में उठाकर मरने से बचा लिया था। तब मुनि ने उसे यह भी कहा था कि तुम इस पर्वत की तलहटी में रहो, जब भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे तब तक तुम्हें तुम्हारा आहार अनायास ही नित्य ही प्राप्त होगा और फिर जब तुम्हारी भेंट वानरों से होगी तो तुम्हारे नए पंख आ जाएँगे। और फिर तुम्हारा जीवन उत्तम गति को प्राप्त होगा। 

मुनि निशाकर कौन हैं? पृथ्वी की वह गति जिससे किसी स्थान पर रात्रि होती है।

किन्तु अब बात करें वैनतेय की, जो भगवान् विष्णु का वाहन है और जिसकी गति काल से भी बढ़कर है। श्रीविष्णु का स्मरण करनेवाले मनुष्य को उनका वाहन तार्क्ष्य, पक्षीराज गरुड, मृत्यु या काल के पंजे से भी बचा लेता है। तारयति इति तार्क्ष्य: ...!

यह हुई जटायु, संपाती और वैनतेय की कथा। 

अंत में एक वैदिक शान्तिपाठ --

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवान्सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नो पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

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December 05, 2022

लोकतंत्र का उत्सव : नया नारा

लोकतंत्र की कसौटी

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वादे नहीं, इरादे!

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चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है, और हर चुनाव में राजनीतिक दल वादों और प्रलोभनों या भयों से जनता को तात्कालिक रूप और अस्थायी तौर से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।

प्रजातंत्र, लोगों और राजनीतिक दलों के परिपक्व होने का पता इससे चलता है कि वे सभी प्रत्याशियों की परख उनके सिद्धान्तों या वादों से नहीं, बल्कि इरादों को भांपकर करते हैं या नहीं।

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November 29, 2022

मुझमें राम, तुझमें राम,

सबमें राम समाया! 

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क्या राम के या किसी के भी मन्दिर को तोड़कर उस स्थान पर किसी और का मन्दिर या पूजागृह खड़ा किया जा सकता है? चूँकि सभी कुछ राम ही है इसलिए किसी मन्दिर को तोड़ने से राम को कोई अन्तर नहीं पड़ता। किन्तु जो इस मानसिकता से ग्रस्त है कि किसी मन्दिर को तोड़ने से उसका ईश्वर, अल्लाह या God उस पर प्रसन्न होगा वह राम, ईश्वर, अल्लाह और God को एक दूसरे से अलग मानता है। इससे भी राम, ईश्वर, अल्लाह या God को कोई अन्तर पड़ता होगा ऐसा नहीं लगता।

फिर दूसरे कुछ लोग भी हैं, जो कि एक मन्दिर को ढहाकर उस जगह पर बने किसी दूसरे धर्मस्थल को ढहाने को पवित्र पुण्य-कार्य समझते हैं।

क्या राम को जाने-समझे बिना ऐसे विचित्र कार्य से किसी का कुछ भला हो सकता है?

***





November 25, 2022

खुशबू की तरह,

 ~~दृश्य-अदृश्य~~

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वैसे भी कहाँ जा सकता हूँ, 

वैसे भी कहाँ मैं जाऊँगा!

ये बात और है, तुमको मैं,

नजर आऊँ, या न आऊँगा!!

फ़लक सा निखर जाऊँगा, 

रौशनी और महक की तरह,

ताज़गी और रौनक की तरह,

खुशबू सा बिखर जाऊँगा!!

***


सारगर्भित

कविता / 25-11-2022

1 / दो टूक!! 

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तुम्हें इस सबसे क्या मिलना, 

तुम्हें इस सबसे क्या मतलब!

मुझे इस सबसे क्या मिलना,

मुझे तुमसे भी क्या मतलब!!

~~~

2 / यथार्थ 

सोचोगे तो चिन्ता होगी, 

चिन्ता होगी तो सोचोगे! 

सोचो मत, चिन्ता न करो!

चिन्ता न करो, तो सोचोगे!?

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November 23, 2022

जीवन का यह पथ दुर्गम!

कविता / 23-11-2022

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फिर भी इस पर चलना होगा!

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बीहड़ वन का जैसे दुर्गम!

जीवन का यह पथ निर्मम!!

क्यों कैसे यह, हुआ है निर्मम,

या है यह मनुष्य का भ्रम!

अवलोकन करना होगा! 

यद्यपि अखंडित है जीवन,

फिर भी खंडित हर तन-मन!

तन की है, अपनी प्रकृति तो,

मन का भी है अपना स्वभाव, 

प्राणों की अपनी ही गति है तो,

मति का भी है, अपना स्वभाव! 

समन्वय सबका ही मनुष्य,

यह वर्तमान, भूत-भविष्य!

तन को पता नहीं है मन का,

प्राणों को पता नहीं है तन का,

मन को पता नहीं है मति का,

जीवन कुछ ऐसा, इस गति का!

जीवन-पथ क्या निर्मम है!?

या यह केवल कोरा भ्रम है!?

जब तक लक्ष्य कहीं है दूर, 

चलते रहना होगा जरूर,

चलने से पथ निर्मित होगा,

स्नेहयुक्त, निर्मम या क्रूर! 

यह पथ तो है ममता-विहीन,

यह इसीलिए तो है निर्मम,

यद्यपि इसमें शून्य ममत्व,

किन्तु भरा, अथाह अपनत्व!

अपनापन ही इसका है स्वरूप,

यद्यपि असंख्य हैं इसके रूप! 

किसी एक में भी यह जब जब,

कुंठित होकर रह जाता रुद्ध,

उसको ही अपनत्व बाँटकर,

उसमें ही रह जाता अवरुद्ध! 

जीवन का स्वतंत्र व्यवहार,

ऐसा ही इसका सर्वत्र संचार,

कुंठित यह अपनापन ही,

रहता अतृप्त, बन अहंकार!

जब तक पथ यह कुंठित है,

यह अहंकार भू-लुंठित है,

तब तक इससे मुक्ति नहीं, 

तब तक इसकी मुक्ति नहीं!

अहंकार हो या निरहंता,

कुंठा, पीड़ा हो, या निर्ममता,

तब तक तो चलते रहना होगा,

फिर भी इस पर चलना होगा! 

***



 





 


November 22, 2022

अन्तर्द्वन्द्व.. !

विरोधाभास!

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©

यह क्या आख़िर तुमने किया?

मिले हुए को गँवा दिया! 

लेकिन यह तुमने ठीक किया, 

मिटे हुए को मिटा दिया!

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सुबह सुबह क्यों!

कविता 22-11-2022

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November 20, 2022

जीवन का यह प्रवाह!

जीवन : एक खेल 

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हर दम सुख ही क्यों चाहो! 

थोड़ा सा दुःख भी झेलो! 

सुख-दुःख का है जीवन खेल,

जीवन के संग संग खेलो!

क्यों ऐसे उदास रहते हो,

गुमसुम से क्यों रहते हो,

रोओ, चिल्लाओ, या गाओ!

खुलकर, हँसकर कुछ बोलो!

लगता है जीवन छोटा है, 

फिर लगता है इतना लंबा भी,

युग युग भी छोटा लगता है, 

लेकिन पल पल भी लंबा भी!

पल पल में भी युग जी लो,

युग युग में भी पल पल! 

बीते कल में, भावी कल में भी,  

जीवन-प्रवाह, बहता कल कल!

जीवन-प्रवाह की धारा में, 

डूबो, उतराओ, बह जाओ, 

या तैरो भी, जितना जी चाहे,

या फिर पार उतर जाओ!

हर दम ही जीना क्यों चाहो, 

थोड़ा सा मिटना भी झेलो!

मरना-मिटना भी जीवन है, 

जीवन के संग संग खेलो!

***



 

भव और अनुभव

यह जो है मन!

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कविता / 20-11-2023

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लगता तो है, यह चंचल है,

कितना अस्थिर प्रतिफल है!

यह है सबसे पहला विभ्रम, 

जो चंचल है, वह अनुभव है!

अनुभव नित्य बदलता है, 

आता है, फिर जाता है, 

स्मृति बनकर रह जाता है, 

क्या मन कोई अनुभव है! 

स्मृति भी तो नित्य बदलती है,

बनती-मिटती है, चलती है! 

फिर क्या मन कोई स्मृति है?

स्मृति ही तो है जो चंचल है!

स्मृति है अतीत, अतीत अनुभव,

अनुभव स्मृति, अनियत अनुभव,

क्या मन कोई अनुभव है?

अनुभव है विचार प्रत्यय, 

प्रत्यय है, प्रतीति, विचार,

प्रतीति, विचार अस्थिर, अनित्य, 

क्या मन कोई प्रत्यय है!

सुख-दुःख, शान्ति-अशान्ति पुनः, 

तृप्ति-अतृप्ति, परितृप्ति पुनः, 

असंतोष संतोष सभी,

आते हैं, फिर जाते हैं,

बेचैनी आती जाती है, 

व्याकुलता आती जाती है,

चैन भी आता जाता है, 

नींद भी आती जाती है, 

भय भी आता जाता है, 

लोभ भी आता जाता है, 

ज्ञान भी आता जाता है, 

विस्मृति भी आती जाती है,

तो स्मृति भी आती जाती है, 

इच्छा, द्वेष के साथ साथ, 

तृष्णा भी आती जाती है!

सब आता जाता है किन्तु,

क्या मन आता जाता है?

यदि मन भी आता जाता है,

तो मन भी बस है प्रतीति, 

होती है आने जानेवाली,

नित्य बदलती अनुभूति!

क्या मन कोई अनुभूति है,

यदि है तो, किसको होती है?

वह कोई, जो कहता है "मैं",

क्या यह उसको होती है? 

जो कहता है, मुझको होती है,

जो कहता है, यह मैं, या मेरा,

क्या वह भी आता जाता है, 

क्या मन, यह 'मैं', या 'मेरा' है?

यह 'मैं'-'मेरा' हैं आते जाते, 

मन में ही तो आते जाते, 

जिस मन में वे आते जाते, 

क्या मन वह आता, जाता है! 

मन ही क्या वह नित्य नहीं,

मन ही क्या, नहीं वह भूमि, 

जिस पर दृश्य उभरते हैं, 

जो आते हैं, फिर जाते हैं! 

उन दृश्यों का दृष्टा कोई,

क्या वह भी आता जाता है? 

क्या मन, दृश्य या दृष्टा है? 

क्या मन आता या जाता है? 

आते या जाते हैं ये देवता,

वैसे तो बहुविध होते हैं,

गिनती में बस होते तैंतीस,

इतनी ही कोटि के होते हैं!

नाट्य-शास्त्र में, मुनि भरत,

कहते हैं इन्हें भाव संचारी,

मन-भूमि में रमा करते है,

क्या मन संचारी होता है?

मन तो वह व्यापक आकाश, 

जिसमें व्याप्त ऐसा प्रकाश,

जिसका उद्गम भी मन है, 

क्या उद्गम आता जाता है? 

सबमें है व्याप्त, है यत्र-तत्र, 

यहाँ वहाँ भी सदा सर्वत्र,

कहाँ नहीं इसका अस्तित्व,

समष्टि, समूह, या व्यक्तित्व!

क्या ये सब आते जाते हैं?

तो मन को चंचल क्यों कहते हो? 

क्यों इतना व्याकुल रहते हो? 

मन को सबसे पहले जानो !

फिर चाहो तो, कुछ भी मानो! 

***






 




 




November 18, 2022

राजनैतिक इच्छा-शक्ति

धर्मान्तरण और गीता

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भारतवर्ष पर विदेशी शासन के समय से ही सनातन-धर्म को पूरी तरह से मिटा देने के लिए ईसाई, मुस्लिम, नास्तिक और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष लोग मिलजुलकर कार्यरत हैं। सर्वधर्म-सम-भाव की आड़ में अपने धर्म का प्रचार करने की स्वतंत्रता का अधिकार भारत के संविधान द्वारा दिया गया है। किन्तु यह अधिकार अपने-आप में श्रीमद्भगवद्गीता की शिक्षा में स्थापित सिद्धांत का उल्लंघन है और उससे अत्यन्त विपरीत है, जिसके अनुसार, अपना धर्म दूसरे किसी भी धर्म से निकृष्ट होने पर भी मनुष्य को अपने धर्म को त्यागकर अन्य धर्म को कदापि नहीं  स्वीकार नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने धर्म का आचरण करते हुए हो जानेवाली मृत्यु भी अत्यन्त श्रेष्ठ है, जबकि परधर्म को स्वीकार कर, उस पर आचरण करना अत्यन्त भयावह है।

जब श्रीमद्भगवद्गीता में ही यह मार्गदर्शक सिद्धांत इतनी स्पष्टता से व्यक्त किया गया है तो इसे हमारे संविधान में एक मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में स्वीकार करने में क्या समस्या है।

यदि अपने धर्म का प्रचार करने के अधिकार को संविधान में ही निषिद्ध कर दिया जाए, तब भय या दबाव, लोभ आदि से भी धर्मान्तरण किए जाने प्रश्न ही पैदा नहीं होगा, क्योंकि तब किसी के लिए भी अपने धर्म को त्यागने का अधिकार ही नहीं होगा।

सन्दर्भ के लिए गीता के निम्नलिखित श्लोक द्रष्टव्य हैं :

अध्याय ३

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।३५।।

अध्याय १८

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्।।४७।।

यहाँ यह स्पष्ट किया जाना भी महत्वपूर्ण है कि गीता के अनुसार वर्णाश्रम व्यवस्था प्रकृति-प्रदत्त है और वर्ण का आधार मनुष्य के गुणों और उसके द्वारा किए जानेवाला कर्म से तय होता है, न कि जन्म या जाति, वंश या माता-पिता के आधार पर। इसलिए मनुष्य अपने वर्ण का चुनाव स्वयं ही तय कर सकता है। और उस आधार पर वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र होता है, न कि केवल किसी वर्ण-विशेष में जन्म ले लेने से।

अध्याय ४

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।।

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।

यदि हममें राजनीतिक इच्छा-शक्ति है तो, धर्मान्तरण को पूर्णतः एक अपराध और अवैध भी घोषित किया जा सकता है। और तब किसी को धर्मान्तरित किए जाने के कार्य को भी वैसा ही एक दंडनीय अपराध माना जाएगा। 

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November 17, 2022

To Follow...!

Poetry and Commentary

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The Question Is:

To Follow Or Not? 

Or To Follow A Lot!

To Follow Knot,

Or To Follow Nought!

But Exactly Who Follow?

Do You Really Follow? 

The Fallow Land of Mind, 

Inevitably Follows, 

Where Conflicts Grow, 

Into Confusion, Doubt,

More And  More!

Is There A Way,

So That Someone,

Doesn't Need To Follow, 

But Rather Discovers,

The Path Of Wisdom, 

In The Pathless Land, 

That Is Life Of Its Own!

--

This was meant to be posted in my another blog :

(vinaykvaidya.blogspot.com),

I ultimately did a blunder so it is here!

A silly mistake indeed. 

Sorry!! 

Now The Commentary :








वाल्मीकि रामायण

उत्तरकाण्ड की रचना किसने की?

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यहाँ इसका कोई प्रमाण नहीं दिया जा रहा है, केवल यह दर्शाने के लिए इस पोस्ट को लिखा जा रहा है कि विकास दिव्य कीर्ति जैसे अनेक बुद्धिजीवी हम जैसे लोगों को भ्रमित कर सनातन धर्म का विनाश करने में संलग्न हैं, और हम कैसे उपद्रवकारी तत्वों का शिकार हो रहे हैं। वाल्मीकि रामायण के अनेक तथ्यों को मेंने विस्तार से अपने स्वाध्याय ब्लॉग में लिखा है जिनसे भी आप इसकी पुष्टि कर सकते हैं कि वाल्मीकि रामायण जैसे ग्रन्थ की रचना किसी साधारण मनुष्य के द्वारा किया जानेवाला कार्य नहीं हो सकता।

यहाँ केवल एक स्क्रीनशॉट प्रस्तुत है जिसके संदर्भ में इस पोस्ट का मूल्यांकन कृपया करें!

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November 15, 2022

कहाँ है वक्त मेरे पास!

दासतान-ए-वक्त!!

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कहाँ है वक्त मेरे पास जिसे, 

जिसे बिताऊँ या कि काटूँ मैं?

ये वक्त किसको दूँ या लूँ मैं, 

किसके साथ बोलो, बाँटूँ मैं!!

वो जिनके पास होता होगा वक्त,

उन्हें ही शायद बेहतर पता होगा,

कि कैसा सुलूक बेहतर कोई,

वक्त के साथ किया जाना होगा! 

वक्त को काटना या बिताना भी,

कभी आसान, मुश्किल होता है! !

काटने या बिताने के अलावा,

वक्त लिया-दिया भी तो जाता है,

कभी बचा भी लिया जाता है, 

कभी फिजूल किया जाता है!

खींच-तानकर, कभी चुराकर भी,  

इसको बड़ा-छोटा किया जाता है,

फिर भी कुछ भी तय नहीं है,

कहाँ से आता, और कहाँ जाता है!

हर कोई ही खिलौना है इसका,

इसके हाथों में खेला करता है!

किसी को कुछ भी बना देता है,

बनाकर फिर मिटा भी देता है!

क्या कभी कोई समझ भी पाया है,

ये हकीकत है या कि बस माया है!

इसलिए मैं इसे काटता भी नहीं,

मैं इसे बचाता-बिताता भी नहीं!

जानता हूँ वक्त खयाल ही तो है

खयाल है लेकिन सवाल भी तो है!

जैसे दौलत या शोहरत होती है, 

जैसे इज्जत या ताकत होती है,

जैसे बीता या नया कल होता है,

जो कभी आज नहीं होता है!

फिर भी लगता है था, या होगा, 

ये सपना शायद सच कभी होगा!

बस इसी तरह से वक्त भी चलता है, 

कल आज में, आज, कल में ढलता है!

फिर भी ठहरा रहता है वो हमेशा ही! , 

बीतता या आता-जाता नहीं फिर भी!

ये सपना कभी झूटा या सच होता है,

वक्त हकीकत या ख्वाब होता है! 

कितना भी हकीकत हो लेकिन,

कभी नाकामयाब भी तो होता है!

ये सब खयाल नहीं, तो और फिर क्या है?

खयाल ही न करो, तो फिर क्या है?

हाँ पूछा करता हूँ, सभी से मैं!

कोई बोले तो वक्त फिर क्या है? 

***








November 14, 2022

मैं सोचता हूँ,

कि सोचना क्या है?!

कविता 14-11-2022

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चूँकि मैं हूँ इसीलिए क्या मैं सोचता हूँ?

या कि मैं सोचता हूँ, इसीलिए क्या मैं हूँ?

चूँकि मैं हूँ इसीलिए क्या मैं चाहता हूँ?

या कि मैं चाहता हूँ, इसीलिए क्या मैं हूँ? 

मै सोचता हूँ कि ये, 'सोचना' क्या होता है? 

मैं सोचता हूँ या कि ये 'सोचना' ही होता है?

ये 'सोचना', -जो कि होता है बेखयाली में,

ये 'सोचना', -जो कभी इरादतन भी होता है, 

'सोचना' जिस पर होता हूँ कभी तो मैं ही हावी,

'सोचना' जो कभी तो मुझ पर भी हावी होता है!

कभी तो चाहते हुए भी तो सोच नहीं पाता, 

कभी न चाहते हुए भी तो 'सोचना' होता है,

मैं सोचता हूँ कि यह 'चाहना' क्या होता है?

'चाहना' जिस पर होता हूँ कभी तो मैं हावी,

'चाहना' जो कभी मुझ पर भी हावी होता है! 

जो होता है बनकर कभी उम्मीद या डर कोई, 

जो कभी अफ़सोस कोई या कि ग़म भी होता है!

मैं चाहता हूँ कि इस सोचने पर और नहीं सोचूँ,

मैं सोचता हूँ इस चाहने पर और नहीं सोचूँ,

पता नहीं है मुझे, मैं कुछ समझ नहीं पाता,

ये 'सोचना', ये 'चाहना', मुझे नहीं आता!

बस कि ठिठक के रह जाता हूँ ये सोचकर,

कि क्या बिना सोचे, या कि बिना चाहकर,

क्या सफ़र ज़िंदगी का चलता ही नहीं, 

क्यों परेशान हुआ जाए, सोचकर या, चाहकर!

नहीं मैं चाहता हूँ, हैरान या परेशान होना,

अच्छा है इस चाहने, सोचने से अनजान होना!

***


ऐसा कुछ वाकया हुआ होगा!

कविता / 14-11-2022

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तुम्हारी ज़िन्दगी में...

अफ़सोस! 

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तुम्हारी ज़िन्दगी में छाया क्यूँ है इतना अन्धेरा!

क्या कभी इस रात का होगा सवेरा!

ग़मों ने क्यूँ बना ली है जगह दिल में,

ख़ुशी ने बसा लिया क्यों कहीं और डेरा!

क्या कभी ख़त्म भी होगा सिलसिला,

आशियाना अपना भी होगा कभी बसेरा!

हर रात के बाद हर रात क्या गुजरेगी यूँ ही,

क्या हर रोज घना ही होता रहेगा अन्धेरा!

तुम्हारी ज़िन्दगी में इतनी उदासी क्यों है, 

कौन से दुश्मनों ने रची है साज़िश इसकी, 

क्या उन दुश्मनों को डर नहीं है खुदा का,

या खुदा को नहीं है पता उनकी साजिश का!

अगर पता है तो कैसे उसको है ये गवारा!

तुम्हारी इस ज़िन्दगी में है क्यूँ इतना अँधेरा?

काश मैं मिटा सकता तुम्हारे इस अँधेरे को, 

कहीं से खींचकर ला सकता नये सवेरे को,

तो जरूर किसी भी क़ीमत पर मैं ला देता, 

पर हूँ मजबूर मैं, इस पर कहाँ है बस मेरा!

तुम्हारी ज़िन्दगी में छाया क्यूँ है इतना अन्धेरा!!

***

कविता / 14/11/2022





November 13, 2022

12 नवंबर 2022,

स्मरणीय और बहुत रोचक भी था। 

सुबह किसी आध्यात्मिक विभूति का वचन पढ़ा :

"प्रत्येक ही मनुष्य की मृत्यु की घड़ी पूरी तरह से सुनिश्चित होती है, यद्यपि यह आवश्यक नहीं कि उस समय के उपस्थित होने से पहले तक भी किसी को शायद ही इसका अनुमान हो सके। वह घड़ी शान्तिपूर्वक स्वीकार हो सके इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि अपने पूरे हृदय से उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों से और सभी प्रकृतियों, जड-चेतन वस्तुओं से जाने-अनजाने भी अपने द्वारा किए गए ऐसे उन समस्त कार्यों के लिए बिना अपेक्षा किए क्षमा माँग ले और यदि उन्होंने भी जाने-अनजाने कोई अपराध उसके प्रति या अन्याय उस पर किया हो, तो उन्हें भी उसके लिए अपने पूरे हृदय से वह उन्हें क्षमा कर दे। और यह कार्य जितने शीघ्र हो सके, उसे कर लेना चाहिए। यह आवश्यक और / या संभव भी नहीं है कि इसकी घोषणा की जा सके। किन्तु अपने मन में ऐसी भावना यदि जागृत हो उठे तो इतना ही पर्याप्त है। अपनी उम्र के अंतिम वर्षों में तो ऐसा कर ही लिया ही जाना चाहिए।"

फिर एक और वचन याद आया :

"भूल सभी से हो सकती है, किन्तु मनुष्य को पहले अपनी भूलों पर ध्यान देना और उन्हें दूर करने का प्रयास करना चाहिए। यदि आवश्यक और संभव हो तो ही इसके बाद, दूसरों की भूलों के बारे में, अधिकार होने पर ही, कोई टिप्पणी करना उचित है।"

इसलिए इस पोस्ट के माध्यम से मैं उन सभी ज्ञात-अज्ञात लोगों से किसी अपेक्षा के बिना ही क्षमा याचना करता हूँ, जिनके प्रति मैंने जाने-अनजाने भी कोई अन्याय किया हो। और यह भी, कि यदि किसी ने मुझ पर जानते-बूझते हुए या अनजाने में भी कोई अन्याय किया हो तो मैं इसके लिए उन्हें क्षमा करता हूँ। अर्थात् मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं है। 

दूसरी रोचक बात यह हुई कि मनोयान ब्लॉग में अष्टावक्र गीता के अध्याय १ से १७ और १८ वाँ श्लोक पोस्ट किया। शाम को यूँ ही फुरसत में बैठे हुए मेरे अंग्रेजी ब्लॉग में एक कविता पोस्ट की, जिसका शीर्षक था :

"It's True!".

इन दोनों पोस्ट्स को अपने Whatsapp  group के

"Truth is Pathless land."

में शेयर किया, जिन पर एक मित्र ने "श्रीदक्षिणामूर्ति-स्तोत्रम्" से एक श्लोक उद्धृत करते हुए टिप्पणी की। अर्थात् उन श्लोकों तथा उस कविता पर भी, दोनों को एक साथ संबद्ध करते हुए।टिप्पणी को पढ़कर मन-हृदय रोमांचित और गद्-गद् हो उठा।

***


 

October 31, 2022

जब तक...!

एक लंबी कविता, 31-10-2022

बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित!

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मन विकल, दृष्टि चंचल, चित्त व्याकुल हो रहा!

बुद्धि विस्मित, मति भ्रमित, विवेक जर्जर हो रहा!

--

यह मन जब तक मोहित है, 

तब तक विचलित तो होगा ही! 

यह मन जब तक विचलित है, 

तब तक यह भ्रमित भी होगा ही! 

कैसे होगा इसका यह मोह भंग?

क्या मोह-भंग होगा मन का? 

कैसे होगा इसका यह भ्रम भंग?

क्या भ्रम-भंग होगा मन का?

वह कौन है जिसका है यह मन?

कौन है, जो है मन का स्वामी?

अपना ही स्वामी है यह मन ?

या मन ही है, उसका स्वामी? 

यदि मैं या मन, यह हैं अभिन्न,

तो कोई 'मेरा' क्यों कहता है?

'मेरा मन मेरे वश में नहीं',

ऐसा उसको क्यों लगता है!

यह दुविधा आखिर किसकी है,

यह अपनी है, या मन की है?

क्या प्रश्न कभी उठा मन में?

क्या कभी उठा है यह सन्देह?

मन और 'मैं' दोनों ही का,

क्या आश्रय कोई और नहीं?

क्या कोई ऐसा और नहीं, 

जिसमें मन है आता जाता?

क्या कोई ऐसा ठौर नहीं,

जिसमें 'मैं' है आता जाता? 

अगर कभी यह प्रश्न उठे तो 

समझो, तुमने कुछ पाया,

वह ठौर तो है नित्य अचल,

'मैं', मन तो चंचल छाया!

जो बनती मिटती रहती है, 

साथ ही साथ उभरती है,

सत्य उभरता ना मिटता,

छाया ही बनती मिटती है!

इसको जाना तो सब जाना, 

यह भूला तो जैसे सब खोया,

क्या यह खोता या मिलता हो,

इसका उत्तर किसने पाया?

यद्यपि बहुत विरल है प्रश्न , 

हल किन्तु सरल ही, है अवश्य!

मन केवल है चित्त की वृत्ति,

मन है, 'मैं' बस यह अहं-वृत्ति!

इन दोनों का ही जो प्रमाण, 

दोनों का ही, जो है साक्षी! 

चित्तवृत्ति का जो निरोध,

यही तो है पातञ्जल-योग!

चित्त प्राण का एक ही मूल,

चित्त प्राण से प्राण चित्त से! 

चित्त-वृत्तियों का यह निरोध,

होता है एकाग्र-चित्त से !

जब हो जाते हैं प्राण निरुद्ध,

चित्त भी हो जाता है निरुद्ध,

जब होता है चित्त निरुद्ध,

होते हैं प्राण भी तब निरुद्ध!

निरोध-सिद्धि, समाधि-सिद्धि है, 

समाधि-सिद्धि, एकाग्र-वृत्ति ही!

वृत्तिमात्र का जो परिष्कार है,

संयम यही तो आविष्कार है! 

वृत्ति शुद्ध हो, परिणत होना,

निरोध, एकाग्रता सिद्ध होना,

और समाधि में होना स्थित,

तीनों यह हैं परिणाम तीन।

पहला है एकाग्रता-परिणाम, 

द्वितीय है निरोध-परिणाम,

अंतिम है समाधि-परिणाम,

तीनों का मिलकर संयम नाम।

देह, श्वास, प्राण और मन, 

चारों चलते हैं साथ साथ, 

तीन रुकें तो भी है जीवन, 

चौथा सबको देता है साथ, 

जब चारों ही रुक जाते हैं, 

तो जो होता है परिणाम, 

उसे भी समाधि कहते हैं, 

मृत्यु भी उसका ही है नाम!

चौथे में ही तीनों का लय, 

चौथे से तीनों का उद्भव,

यह चौथा ही है अहं-वृत्ति, 

प्रति क्षण होता है, लय-उदय!

जब तक चलता है यह क्रम, 

जन्म-मृत्यु का यह बन्धन,

तब तक पीड़ा से नहीं मुक्ति,

तब तक बंधन है अहं-वृत्ति। 

यह पथ तो फिर बन्धन है,

लय-उद्भव अंतहीन क्रम है, 

मन का यह लय तो मुक्ति नहीं, 

यह जन्म जन्म का विभ्रम है!

मन केवल है चित्त की वृत्ति, 

यही 'मैं' तो है अहं-वृत्ति,

लय विनाश दो हैं परिणाम, 

बन्धन मोक्ष उन्हीं का नाम!

लय में होता है पुनः उद्भव,

नाश किन्तु है, मन का अन्त, 

नाश श्रेय भी, ध्येय भी है,

लय केवल बस हेय ही है!

जब हो जाता है मन का अंत, 

होता है प्रकाश ज्वलन्त,

आत्मा का परमात्मा का,

आकार-रूप उज्ज्वल, अनंत!!

जग है, तो उसका दृष्टा भी है,

दृष्टा है, तो जग यह दृश्य भी है,

जब दृष्टा-दृश्य का भेद नहीं,

दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं।

दर्शन-दृष्टा का भेद नहीं,

तो दर्शन-दृश्य का भेद नहीं, 

जब तीनों में ही भेद नहीं, 

स्वरूप ही तब दृश्य-विलय !! 

***

 

 






October 30, 2022

सोचता हूँ, लिख ही दूँ!

कला और आस्था / विश्वास 

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अमृता प्रीतम -- इस सुप्रसिद्ध नाम के आगे-पीछे कुछ लगाना अनावश्यक ही है। वैसे मैंने इनका जितना भी साहित्य पढ़ा है वह सब केवल हिन्दी में ही पढ़ा है! यह अलग बात है कि उनके लेखन में बहुत से उर्दू के शब्द भी अनायास पढ़ने को मिले। उनके बारे में जो कुछ भी पढ़ा वह एक हद तक विवादास्पद भी था। उनकी लिखी हुई जो भी दो तीन किताबें मैंने पढ़ीं, उनमें से "जेबकतरे", "एक खाली जगह" और "अक्षर-कुण्डली" ख़ास तौर पर मुझे याद हैं। जैसा कि मुझे याद है, शायद उनका संबंध "नागमणि" नामक किसी पत्रिका या किताब से भी रहा होगा।

अक्षर-कुण्डली नामक पुस्तक रहस्यपूर्ण / आध्यात्मिक विषयों और इन विषयों के विशेषज्ञों से की हुई उनकी बातचीत का ही एक संकलन है। इस बातचीत में विवादास्पद जैसा कुछ पाया जाना स्वाभाविक भी है, जिससे पुस्तक में उल्लिखित विषयों के वर्णन की प्रामाणिकता पर प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं, किन्तु इस बारे में अंत तक कुछ सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता है कि वह सब कितना और किस हद तक सत्य है! 

देवी-देवताओं के चित्रों के बारे में उस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण बात यह कही गई है कि विज्ञापनों में इन चित्रों का जैसा प्रयोग किया जाता है वह अनुचित है। एक वाक्यांश है :

"समय के साथ ये तस्वीरें रुल जाती हैं।"

यह घटना इसलिए याद आई और जैसा कि दिखाई भी देता है, बहुत समय से, बहुत सी वस्तुओं, खासकर पूजा आदि सामग्री पर प्रायः ही किसी न किसी देवता आदि का नाम और चिह्न भी चित्र के साथ, या वैसे ही प्रदर्शित किया जाता है। 

क्या हमने कभी सोचा है, की उस सामग्री के उपयोग के बाद उस चित्र का क्या होता है?

किसी भी विशिष्ट पर्व पर पत्रिकाओं और अख़बारों में बड़े बड़े ऐसे विज्ञापन देखे जा सकते हैं, जिनमें देवी-देवताओं के बहुत बड़े बड़े चित्र होते हैं। अतः यह तो अवश्य ही विचारणीय है कि इन अख़बारों को रद्दी में खरीदने-बेचने से हमारी भावनाओं को ठेस क्यों नहीं लगती?

अभी एक चित्रकार मित्र ने ऐसा ही एक चित्रांकन किया। मन में प्रश्न उठा कि क्या यह कला है, धर्म, उपासना, साधना आदि है? जैसी कि परंपरा है, खासकर हिन्दू देवी-देवताओं के पर्वों और उत्सवों पर उनकी प्रतिमाएँ बनाई जाती हैं, और बाद में, उत्सव संपन्न हो जाने पर उन प्रतिमाओं को विसर्जित कर दिया जाता है। उन मित्र की उस कलाकृति का मूल्यांकन अवश्य ही अलग अलग दृष्टियों से किया जा सकता है। केवल कला की दृष्टि से, धार्मिक भावना की दृष्टि से और इस भावना से प्रेरित होकर उसे क्रय करने के इच्छुक लोगों की दृष्टि से भी इसका मूल्य लगाया जा सकता है। चित्रकार के मन में क्या है यह तो उसे ही पता हो सकता है। किन्तु क्या उसके मन में असमंजस नहीं होता होगा? शायद यह भी एक प्रश्न है, कि क्या ऐसी प्रतिमा का बाजार की किसी वस्तु की तरह कोई मूल्य तय किया जा सकता है? मन में यह प्रश्न भी आया कि क्या चित्र को कला की दृष्टि से, धार्मिक या आध्यात्मिक भावना की दृष्टि से भी नहीं देखा जाता है?

उस चित्रकार मित्र ने शायद ही इस तरह की कल्पना की हो, यह उसके लिए संभव ही नहीं हुआ होगा कि इस तरह से इस बारे में वह सोच सके। आस्था और कला के बारे में उसने शायद ही इस प्रकार से कभी कल्पना भी की होगी। और मैं इस  विषय में यदि अपने विचार उसके समक्ष स्पष्ट करूँ भी तो यह भी हो सकता है कि उसकी भावनाओं को ठेस लग जाए!

जहाँ तक प्राचीन मन्दिरों का प्रश्न है, बहुत से मन्दिर किस काल में निर्मित हुए कहना कठिन है, जबकि बहुत से अन्य ऐसे भी हैं जिन्हें मूर्तिभंजक आक्रमण-कारियों ने खण्डित कर दिया। यदि मन्दिर बनाए जाते हैं तो उन्हें उन तोड़नेवालों से बचाया जाना और उनकी रक्षा की जाना भी इतना ही आवश्यक है। यह भी सत्य है, कि कला के रूप में भी उनका अपना विशेष महत्व है। केवल कला की ही दृष्टि से वे संस्कृति और इतिहास की अमूल्य धरोहर होती हैं। उन विश्वासों और मान्यताओं को महत्व यदि न भी दें, तो भी कला की दृष्टि से उनका महत्व तो निर्विवाद रूप से स्वीकार करना ही होगा।

यहाँ तक कि जिन मजहबों और परंपराओं में मूर्तिपूजा को पाप कहा जाता है वे भी किन्हीं न किन्हीं आकृतियों, चिह्नों आदि को पवित्र और आराध्य तो मानते ही हैं। शायद इसीलिए रूढ़ि भी स्थापित हुई होगी कि शत्रु समझे जानेवाले धर्मों, रीति-रिवाजों, संस्कृतियों आदि का नमोनिशान तक मिटा दिया जाए। किसी अविकसित बर्बर, मूढ-बुद्धि मनुष्य की दृष्टि में यह भी मजहब हो सकता है! वह अपने इस विश्वास पर इतना दृढ, और कट्टरता से बँधा भी हो सकता है कि दूसरों पर बल-प्रयोग करना भी उसे पुण्य का ही एक कार्य प्रतीत होता हो! इतिहास इस विडम्बना का साक्षी है।

इसलिए मन में प्रश्न उठा कि क्या कला की दृष्टि से भी चित्र या प्रतिमा का निर्माण करना ही वह मूल कारण नहीं है, जो अंततः उसके ध्वंस का कारण सिद्ध हो जाता है!

शायद यह प्रश्न कुछ लोगों की दृष्टि में व्यर्थ का शब्दाडम्बर मात्र ही हो, किन्तु फिर भी यह प्रासंगिक तो है ही, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। 

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October 19, 2022

मृत्यु और यमधर्म

कला, कल्पना, आकलन, और कल

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जिसे कल कहा जाता है वह विगत दिन हो या भावी, आगामी आनेवाला दिन, कल्पित, स्मृति पर आधारित और भावी के रूप में पुनः होनेवाला उसका संभावित प्रकार जो आज अर्थात् अज, अजन्मा, आदिरहित अनादि और अन्तहीन अनन्त वर्तमान है। यही सर्वत्र और नित्य सदा विद्यमान अस्तित्व है। चारों युगों का  इसी वर्तमान में सह-अस्तित्व है, किन्तु शरीर, मन, बुद्धि और संस्कारों के अनुसार मनुष्य अपने समय को उस युग विशेष के रूप में ग्रहण कर लेता है। मनुष्य की निज आत्मा में चारों युग एक साथ काल और स्थान से परे होते हुए भी इन्हीं के रूप में नित्य प्रकट और अप्रकट (होते रहते) हैं।

कथा सतयुग की :

मनुष्य की यह आत्मा इस आभासी समय में, जब सतयुग होता है, राजा हरिश्चन्द्र होती है। हरि अर्थात् हरण करनेवाला । मनुष्य की चेतना जो मूलतः ईश्वरीय चेतनारूपी प्रकाश की एक किरण है, देहधारी होकर इस संसार में जन्म लेती है। संसार-रूपी इस अंधकारपूर्ण रात्रि में वह वैसे ही सुशोभित होती है, जैसे रात्रि में चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश चुराकर संसार में उसे विकीर्ण करता है। चन्द्रमा के साथ कोई तारा ही उसकी गति का सूचक होता है। मनुष्य ही राजा हरिश्चन्द्र है, जिसकी बुद्धि तारारूपी होकर उस अंधकारपूर्ण रात्रि में उसका मार्गदर्शन करती है। राजा हरिश्चन्द्र की यही बुद्धि अर्थात् मति, रानी तारामति या तारामती है। राजा स्वप्नावस्था में देखते हैं, अर्थात् कल्पना करते हैं कि उनके महल के द्वार पर कोई अतिथि साधु आया हुआ है। वे उसका स्वागत करने के लिए द्वार पर जाते हैं।

"राजा! मैं तुमसे दान ग्रहण करना चाहता हूँ। बोलो, क्या तुम मुझे मेरी इच्छा के अनुसार दान देने में समर्थ हो!"

राजा विनम्रता से निवेदन करते हैं :

"महाराज! यह सब आप ही का है! मैं अपना यह संपूर्ण राज्य आपको दान में देता हूँ!"

साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र हँसकर कहते हैं :

"राजा! अभी तो तुम सोए हुए हो और स्वप्न देख रहे हो! वचन दो कि जब तुम्हारी निद्रा टूट जाएगी, जब तुम जाग उठोगे, और जब तुम राजदरबार में अपने सिंहासन पर विराजमान होगे, तब मेरे द्वारा पुनः तुम्हारे समक्ष उपस्थित होने और तुमसे दान माँगे जाने पर तुम्हें इस वचन का विस्मरण नहीं होगा!"

"मुझे ऐसा विस्मरण कदापि नहीं होगा, मैं वचन देता हूँ!"

"तुम्हारा कल्याण हो!"

कहकर साधुवेश में आए ऋषि विश्वामित्र अन्तर्धान हो गए और राजा की निद्रा भी भंग हो गई।

यह विश्वामित्र कौन हैं? वे समस्त संसार का कल्याण करनेवाले समस्त संसार के मित्र ही हैं, जो पात्र मनुष्य को उसके कल्याण का वास्तविक मार्ग दिखाते हैं।

अभी राजा नित्यकर्म से निवृत्त होकर अपने दरबार में आकर अपने सिंहासन पर विराजमान हुए ही थे जब प्रहरी ने आकर उनसे निवेदन किया :

"महाराज की जय हो! कोई अतिथि साधु द्वार पर उपस्थित हुए हैं! इस विषय में आपका क्या आदेश है?"

राजा को तत्क्षण ही वह स्वप्न याद आ गया, और वे उठ खड़े हुए। द्वार पर आते ही उन्हें स्पष्ट हो गया कि यह वही साधु हैं, जिनका स्वप्न में उन्हें दर्शन हुआ था।

उन्होंने अतिथि साधुवेशधारी ऋषि विश्वामित्र को साष्टांग प्रणाम किया, सम्मानपूर्वक उन्हें भीतर ले जाकर आसन प्रदान किया, विधिपूर्वक उनकी पूजा-सत्कार करने के पश्चात् वे उनकी आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगे। 

"राजा! तुम्हें स्मरण है न कि स्वप्न में तुमने मुझे कौन सा वचन दिया था?"

"जी महाराज! मुझे भली प्रकार से याद है। मेरे लिए क्या आदेश है, कृपया कहिए!"

"राजा! तुम्हारे सत्य पर दृढ रहने के, और अपने द्वारा दिए गए वचन को पूर्ण करने के संकल्प से मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं दान में तुमसे तुम्हारा संपूर्ण राज्य प्राप्त करना चाहता हूँ। बोलो अपना वचन पूरा करोगे?"

राजा ने क्षण भर का भी विलंब न करते हुए कहा :

"महाराज! आपकी कृपा है, यह संपूर्ण राज्य बिना प्रतिदान की अपेक्षा किए, मैं आपको दान में दे रहा हूँ। यह मेरा संकल्प है।"

"तुम धन्य हो राजन्! तुम्हारा कल्याण हो।"

राजा हरिश्चन्द्र ने अपने मंत्रियों और सभासदों आदि को सूचना दी कि अब मैंने यह राज्य ऋषि विश्वामित्र को दान में दे दिया है और अब से वे ही इस राज्य के नृप और आप उनकी प्रजा होंगे। इसके पश्चात राजा अपनी प्रिय पत्नी तारामती और पुत्र रोहित को लेकर राज्य को त्यागकर वन को चले गए।

राजा का नाम हरिश्चन्द्र और उनकी रानी का नाम तारामती तो हमें ज्ञात ही है,उनके पुत्र का नाम था रोहित, जो ऋग्वेद-वर्णित भुवन-भास्कर भगवान् सूर्य हैं। सूर्य, जिन्हें उपनिषद् जगदात्मा कहते हैं। भू से भुवः तक की यात्रा यह है। 

मनुष्य की आत्मा जो पृथ्वी पर देहधारी राजा हरिश्चन्द्र के रूप में अवतरित हुई, तब संसार को त्याग कर वन में विचरण करने लगी। राजा हरिश्चन्द्र, रानी तारामती, और पुत्र रोहित।

वे वन के फल फूलों का सेवन करते हुए, तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे। आत्मा और परमात्मा की जिज्ञासा, चिन्तन, मनन और निदिध्यासन करने लगे।

आत्मा और परमात्मा के विषय में जिज्ञासा जागृत होने से पहले उनके मन में प्रश्न उठा :

'मन क्या है?'

तब उन्होंने इस पर मनन करना प्रारंभ किया। 

"मन का अर्थ है चेतना की गतिविधि।"

उन्हें अपने ही भीतर अनायास यह स्पष्ट हुआ। 

चेतना नित्य अविकारी अनादि और अन्तरहित वास्तविकता है, जबकि मन असंख्य शरीरों में उसका प्राणरूपी प्रकाश है। जैसे सूर्य का प्रकाश पूरे संसार को आलोकित करता है, वैसे ही इस अविकारी, नित्य चेतनारूपी सूर्य का प्राणरूपी प्रकाश शरीर के भीतर आभासी आत्मा (मैं-संकल्प) का रूप ग्रहण कर मनुष्य के अंतर्जगत् और अंतर्बाह्य जीवन को भी आलोकित करता है। "और मनन का अर्थ है धारणा :

-मन में किसी विषय को सम्यक धारण करना।"

तब, "नित्य क्या है, और अनित्य क्या है? इस पर उन्होंने मनन प्रारंभ किया।

नित्य विद्यमान प्रकट-अप्रकट, अविनाशी और अविकारी काल-स्थान निरपेक्ष चेतना पर ध्यान एकाग्र होने पर वे उस नित्य वस्तु में समाधिस्थ होने लगे जो, अत्यन्त निज है और जो कि समस्त भूतों की अपनी स्वाभाविक अन्तर्निष्ठा ही है।

तब उन्हें अपने नाम हरिः का गूढ अर्थ स्पष्ट हुआ।

हरति इति हरिः हरो वा...

जो हरण करता है वही हरि (विष्णु) या हर (शिव) है।

उस नित्य चेतन परमात्मा का ध्यास ही निदिध्यासन है, यह भी उन्हें स्पष्ट हुआ। रानी तारामती पतिव्रता धर्म का आचरण करते हुए पति की सेवा को ही एकमात्र कर्तव्य मानकर उस निष्ठा में दृढ थी। एक दिन बालक रोहित फूल चुनने समीप के उपवन में गया तो वहाँ सर्पदंश से वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। 

मृत्यु को प्राप्त होकर उसने यमराज के दर्शन किए और मृत्यु के विज्ञान का उपदेश उनसे ग्रहण किया ।

इसका ही एक उदाहरण कठोपनिषद् की मूल कथा में वाजश्रवा या उशना / उशन् के पुत्र नचिकेता के यमराज से हुए संवाद में दृष्टव्य है।  

तात्पर्य यह कि मनुष्य की आत्मा यद्यपि अविकारी, अविनाशी नित्य शुद्ध बोधस्वरूप चेतना ही है, किन्तु जड देह में उसका प्रकाश व्यक्ति-भावना रूपी अहंकार के रूप में उसका पुत्र है। जब आत्मानुसंधान या मृत्यु के रहस्यमय विज्ञान के माध्यम से मनुष्य आत्मा के विषय में जानना चाहता है और गंभीरतापूर्वक इस दिशा में प्रवृत्त होता है तो यह अहंकार विलीन हो जाता है और अपनी केवल शुद्ध चिरंतन नित्य निज आत्मा का उद्घाटन होता है।

इस कथा को यहीं समाप्त करना उचित जान पड़ता है। 

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October 16, 2022

ज्ञात और अज्ञात

अज्ञात भय और अज्ञात का भय

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इस दृष्टि से मनुष्य (और सभी जड-चेतन प्राणिमात्र भी) ईश्वर से अधिक शक्तिशाली है कि वह ईश्वर को त्याग सकता है, किन्तु ईश्वर उसे नहीं त्याग सकता। 

किन्तु यह भी इतना ही बड़ा एक और सत्य है कि मनुष्य उसी वस्तु को त्याग सकता है, जिसे कि वह किसी न किसी रूप में जानता भी अवश्य हो। जिसे जानता ही नहीं उसके अस्तित्व को वह अस्वीकार तो कर सकता है, लेकिन इससे यह तो नहीं सिद्ध होता कि उसका अस्तित्व है ही नहीं! फिर यह भी सत्य है, कि कोई वस्तु है या नहीं, इसे तर्क एवं उदाहरण की सहायता से भी सुनिश्चित किया जा सकता है। ईश्वर के बारे में पहली कठिनाई तो यह है कि उसे जानने का आधार भी मान्यता, अनुमान और विचार और ही हो सकता है, न कि प्रयोग, जिससे यह प्रमाणित किया जा सके कि वह है, या नहीं है। अर्थात् अन्य सभी वस्तुओं की तरह ईश्वर प्रयोग का विषय नहीं हो सकता है। प्रयोग केवल इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, भावगम्य और अनुभव, बुद्धि से जानी जा सकनेवाली वस्तुओं के संबंध में किया जा सकता है, और प्रयोग करने के लिए किसी न किसी काल्पनिक विचार को तात्कालिक रूप से पहले औपचारिक (tentative) सत्य की तरह स्वीकार करना होता है। फिर इसके बाद ही प्रयोग द्वारा उस विचार की सत्यता या असत्यता सिद्ध हो सकती है, और उसे ही प्रयोग का निष्कर्ष कहा जाता है।पुनः ईश्वर को किसी प्रयोग के निष्कर्ष के रूप में जानना भी इसलिए भी संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई प्रयोग जिस विचार से प्रेरित हो सकता है, वह विचार भी स्मृति से ही उत्पन्न और स्मृति में सुरक्षित बौद्धिक स्मृति मात्र होता है। पहचान स्मृति है, और स्मृति ही पहचान है, क्योंकि स्मृति और पहचान दोनों ही परस्पर आश्रित एक विचार मात्र होता है। इस दृष्टि से समस्त बौद्धिक ज्ञान केवल सूचना (information / data) के ही रूप में सीमित होता है और उस सूचना से परे के बारे में वस्तुतः कुछ भी कदापि नहीं जाना जा सकता। ईश्वर के बारे में हमारे पास इसीलिए ऐसा कोई प्रमाण नहीं है कि वह है या कि नहीं है। इस दृष्टि से हम इतना ही कह सकते हैं कि ईश्वर को जान पाना मनुष्य की बुद्धि की क्षमता और सामर्थ्य से परे है। इस प्रकार, ईश्वर ज्ञात और अज्ञात भी है। ईश्वर को इस दृष्टि से ज्ञात कहना इसलिए उचित होगा क्योंकि समस्त ज्ञात किन्हीं अत्यन्त सुनिश्चित नियमों से परिचालित है, और इसी मौलिक मान्यता को आधार मानकर विज्ञान उन नियमों को आविष्कृत (discover) करता, और उन नियमों में सुसंगति (pattern) स्थापित कर अकाट्य रूप में उन्हें स्थापित कर सत्य कहता है। तात्पर्य यह, कि ये सभी नियम संगठित (compact) विधान (constitution) के रूप में सदा से अस्तित्व में हैं और उनका विधाता उनसे पूरी तरह से अभिन्न है। वह विधायी चेतना, जो कि विधाता (authority) और विधान (constitution) भी है, एकमेव अनन्य और आधारभूत सत्य है। किन्तु वह इस अर्थ में ज्ञानस्वरूप भी है, कि उसके सन्दर्भ में ज्ञाता (knower) और ज्ञात (known) एक दूसरे से वैसे भिन्न नहीं हैं जैसा कि समस्त सांसारिक तथाकथित ज्ञान और तथाकथित विज्ञान में भी अनिवार्यतः पाया जाता है। यदि इसे ईश्वर कहा जाए, तो भी यह ईश्वर के बारे में एक निष्कर्ष ही होगा, न कि ईश्वर का वैसा प्रत्यक्ष ज्ञान, जैसा कि वह वस्तुतः है। नियन्ता या विधाता कहते ही 'कहनेवाला' उससे पृथक् और भिन्न प्रतीत होता है, जबकि कहनेवाला 'यह' भी उससे ही परिचालित होने से, 'यह' और वह वस्तुतः एक दूसरे से अनन्य और अभिन्न भी हैं।

भय क्या है? भय, हमें अपने से भिन्न प्रतीत होनेवाली ही किसी न किसी वस्तु से हुआ करता है। वह कोई वस्तु ज्ञात या अज्ञात हो सकती है। जैसे पहले के किसी अप्रिय अनुभव की स्मृति से उत्पन्न होनेवाला भय, या भविष्य में किस अप्रिय घटना के होने की संभावना की कल्पना से उत्पन्न होनेवाला भय। अतीत और भविष्य नहीं, बल्कि उनकी कल्पना ही भय के उत्पन्न होने का एकमात्र कारण होता है। कल्पना के ही अनुसार वे अतीत और भविष्य भी हमसे अभिन्न भी और भिन्न प्रतीत होते हैं। इसीलिए इस प्रकार से उन्हें ज्ञात और अज्ञात भी कहा जा सकता है। 

क्या इसी प्रकार से, ईश्वर भी हमारे लिए एक ही साथ ज्ञात और अज्ञात भी नहीं है? क्या ईश्वर भी अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना की ही तरह, एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न भी नहीं है? 

किन्तु ईश्वर एक ही साथ हमसे भिन्न और अभिन्न होता हो, यह कैसे संभव है? इसके लिए हमें अपने और ईश्वर में उभयनिष्ठ समानताओं और असमानताओं या भिन्नताओं पर ध्यान देना होगा। ईश्वर विधाता और विधायी चेतना है, जब कि हम उसके विधान से परिचालित चेतनामात्र हैं। चेतना हममें और ईश्वर के बीच विद्यमान उभयनिष्ठ समान तत्व (common element) है। किन्तु ईश्वर हमारी कल्पना, स्मृति, भावनाओं, विकार, बुद्धि आदि तत्वों से नितान्त अछूता और अनभिज्ञ भी है। चेतना की ही तरह, निजता और नित्यता भी ईश्वर में और हममें विद्यमान उभयनिष्ठ वास्तविकता है। इसलिए किसी दृष्टि से तो हम ईश्वर से अनन्य और अभिन्न हैं, तथा दूसरी किसी दृष्टि से भिन्न और पृथक भी हैं। इस विरोधाभास को न समझ सकना ही किसी भी प्रकार के भय का एकमात्र कारण होता है।

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October 15, 2022

कला, बुद्धि और धर्म

एक और त्रिवेणी

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कला विद्या (skill) है, बुद्धि तर्क (logic), धर्म (justice) आचरण (behaviour) है, जबकि विवेक (conscience) दर्शन है। इनमें से कोई अकेला एक, कोई दो, या कोई तीनों भी मिलकर जीवन को तब तक सार्थक और सम्पूर्ण नहीं कर सकते जब तक कि चौथा भी उनके साथ न हो। कला, बुद्धि और धर्म प्रत्यक्षतः प्रतीत होनेवाले प्रकट स्थूल, सूक्ष्म और कारण तत्त्व हैं जबकि दर्शन उनकी अप्रकट, प्रच्छन्न पृष्ठभूमि है।  

कला अभ्यास से निखरती है, बुद्धि प्रयोग से कुशाग्र होती है, धर्म उचित-अनुचित न्याय पर ध्यान दिए जाने से फलित होता है, जबकि विवेक नित्यता-अनित्यता की परीक्षा / दर्शन करने से। रोचक बात यह है कि नित्यता-अनित्यता काल के सन्दर्भ में होती है, जबकि काल स्वयं बुद्धि में ही और बुद्धि स्वयं काल में ही पुनः पुनः व्यक्त और अव्यक्त, प्रकट और विलुप्त होते हैं। बुद्धि के सक्रिय होने पर ही काल की कल्पना कर पाना संभव होता है, और बुद्धि भी सीमित काल तक ही सक्रिय रह सकती है।

काल का मूल्याँकन आकाश / स्थान के मूल्याँकन का ही रूप है। कल् कल्यते कलयति कलनं इति कालः ... के अनुसार काल को घटना के आधार पर मापा जाता है। घट् घट्यते घटयति इति घटनं वा घटना ... के अनुसार दो या दो से अधिक घटनाओं के व्यतीत होने के अन्तराल की तुलना करने पर ही काल का मान निर्धारित किया जा सकता है, जो कि मूलतः काल का सापेक्ष मान (relative value) ही होता है।

इस सापेक्ष काल का सबसे अधिक विस्तारयुक्त प्रकार वर्ष होता है। रोचक तथ्य यह भी है कि वर्ष शब्द से स्थान के विस्तार को भी इंगित किया जाता है,  जैसे 'भारतवर्ष' में वर्ष भारत देश के भौगोलिक विस्तार का द्योतक है। इस प्रकार वर्ष एक घटना है। 

काल के अंश के रूप में वर्ष पुनः 12 मास का होता है । मास शब्द मा मीयते, मा धातु से मापने के अर्थ में प्रयुक्त किए जाने से बनता है। मास में दो पक्ष होते हैं और प्रत्येक पन्द्रह दिनरात्रि या अहोरात्र का मान होता है। एक अहोरात्र 60 घटी, घड़ियों या 24 घंटों (होरा / hours) के मान का होता है। प्रत्येक घटी पुनः 60 कलाओं (minutes) की और प्रत्येक कला (minute) 60 विकलाओं (seconds) का होता है। प्रत्येक विकला पुनः 60 पलों के मान की कही जाती है। (यहाँ यह क्रम अंश, कला, विकला और पल है, या अंश, पल, कला, विकला है, इस विषय में मुझे स्पष्ट स्मरण नहीं है।) 

अब कलाकः या कलाक या क्लाकः या clock  इसी 'कला' के रूप हैं जो पुनरावृत्तिपरक होने से निश्चयात्मक कला / विद्या ही है जिसे स्थान या देश के विस्तार में बिन्दु को केन्द्र मानकर रेखा द्वारा उसके चतुर्दिक परिभ्रमण करने से प्राप्त होते हैं। यह हुआ काल का भौगोलिक प्रकार। किसी सरल रेखा के एक सिरे को जब एक स्थिर बिन्दु की तरह केन्द्र मानकर उस केन्द्र के चारों ओर घुमाया जाए तो जो गोलीय विस्तार प्रकट होता है उसे अंश कहा जाता है। इन 360 अंशों के परिभ्रमण से रेखा पुनः अपने उसी स्थान पर आ जाती है, जहाँ से उसने परिभ्रमण प्रारंभ किया था । इसलिए एक वृत्त 360° का होता है। 24 होरा या घंटों में, या 60 घंटियों या घड़ियों में एक अहोरात्र पूर्ण होता है।

इस प्रकार के 15 अहोरात्र का एक पक्ष होता है और ऐसे दो पक्षों का एक मास (month).  ऐसे 12 मास का एक वर्ष या वर्त्त या आवर्त्त होता है। इसलिए देश या वर्ष को वर्त्त भी कहते हैं जो वृत् वर्त् वर्तते धातु से बनता है। आर्यावर्त, और इलावर्त या इलावृत्त ऐसे ही बने हैं।

बारह मास बीतने पर पृथ्वी अपनी कक्षा में उसी स्थान पर लौट आती है जहाँ से उसने सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में घूमना प्रारंभ किया था।

इसे और विस्तार न देकर यहाँ केवल यही कहा जा रहा है कि काल (Time) और देश (Space) दोनों को ही एक ही प्रकार से मापने का यह एक तरीका है और काल, महाकाल के सन्दर्भ में जैसे पुनरावृत्तिपरक होता है, आकाश / स्थान भी उसी प्रकार महाकाश के सन्दर्भ में पुनरावृत्तिपरक होता है।और यह भी कि जैसे समस्त काल वर्तमान के इस क्षण (महाकाल) में समाया है, वैसे ही समस्त आकाश 'यहाँ' के रूप में एक बिन्दु में कीलबद्ध है।

विशेष यह कि ये दोनों माप कोणीय / angular, और वृत्तीय / circular माप, असीमित विस्तारयुक्त काल और स्थान को मापने के लिए एक साधन का कार्य करते हैं।

एक ओर स्थान के संदर्भ में बिन्दु (point) से रेखा (straight line) की उत्पत्ति, और बिन्दु और रेखा से तल (plane) की उत्पत्ति और रेखा तथा तल से त्रिआयामी स्थान (Space) की उत्पत्ति की विवेचना इस प्रकार से की जा सकती है, तो दूसरी ओर, कला, विकला, पल, अंश आदि के द्वारा काल (Time) की उत्पत्ति की विवेचना भी इस तरह से की जा सकती है। 

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October 12, 2022

त्रिवेणी

काव्य-साहित्य-समीक्षा

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इस नदी में जल नहीं है! 

अस्तित्वरूपी नदी की, इसी त्रिवेणी की अभिव्यक्तियाँ क्रमशः आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक रूपों में सरस्वती, गङ्गा और यमुना हैं। सरस्वती का अस्तित्व दृश्य और अदृश्य इन दो स्तरों पर है। दृश्य रूप कला और विद्या है, और अदृश्य रूप में यही चेतना है। चिति या चित् से निःसृत यही सरस्वती, चेतना के रूप में सर्वत्र व्याप्त तथा विद्यमान है, जबकि गङ्गा के रूप में यह चित्त अर्थात् मन, बुद्धि, अहंकार अर्थात् वृत्तिरूपा है। चिति ही चित् है जो कि चैतन्य पुरुष का स्त्री-रूप है। यम और यमुना, परस्पर भाई और बहन हैं। एक ही चैतन्य, चित्, या चिति ही इन तीन सरिताओं का उद्गम होता है। काल और यम दोनों का उद्भव सूर्य से होता है, और काल, मनु, और यम सूर्य की संतानें हैं। सूर्य का अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक, और अधिभौतिक इन तीनों तलों पर भिन्न भिन्न प्रकार से है। 

उपनिषद् में जब कहा जाता है; - सूर्य ही जगतस्थ आत्मा है : "सूर्य आत्मा जगतस्थः"

तो तात्पर्य यह हुआ कि जिस जगत् में यह सूर्य स्थित है, उसका भी अस्तित्व आध्यात्मिक, आधिदैविक और अधिभौतिक है। 

त्रिआयामी यह अस्तित्व ही भू, भुवः और स्वः इन्हीं तीनों लोकों के रूप में जाना जाता है। भूः का तात्पर्य है : स्थूल, जड-जगत् या Material-World, भुवः का तात्पर्य है : सूक्ष्म-मनोजगत् (Mental-World) और स्वः का तात्पर्य है : कारण, अर्थात् स्व, या आत्मिक जगत् (Spiritual-World)। ये सभी जगत् जिस अधिष्ठान में अवस्थित हैं वह है -- अन्तरिक्ष (Cosmos, Cosmic World या Cosmetic World).

यह अन्तरिक्ष (Cosmos) इन तीनों लोकों में भीतर बाहर सर्वत्र है और तीनों लोक भी इसी अन्तरिक्ष से इसी प्रकार से अभिन्न हैं। यही संपूर्ण और समग्र रूप में 'अस्तित्व' है। इसी अस्तित्व में पुनः, भूः - अर्थात् जड-जगत - भूलोक, भुवः अर्थात् मनोलोक एवं 'स्वः' अर्थात् 'अपने होने' का, - अपने अस्तित्व के भान के रूप में विद्यमान अनायास प्राप्त होनेवाला यह स्वाभाविक बोध  है, जो कि नित्य ही स्वयंसिद्ध निजता के रूप में प्रत्येक प्राणी में होता है। यही अपनी निजता अर्थात् निज आत्मा ही है।

अब उस कविता :

"इस नदी में जल नहीं है!"

में अस्तित्व रूपी इसी नदी के, इसी त्रिवेणी-दर्शन के वर्णन का प्रयास किया गया है।

जड, चेतन और चैतन्य यही तीन आयाम (dimensions) ही दृश्य जगत् है।

इस कविता में नदी का लक्ष्यार्थ है प्रवाह, और वाच्यार्थ है जल, अर्थात् -- जीवन, जिसमें जड, चेतन और स्व की अर्थात् 'अपने' अस्तित्व की भावना, ये तीनों ही सम्मिलित और अभिव्यक्त हैं। 

जब अस्तित्व के बारे में विचार किया जाता है, तो उस सन्दर्भ में सम्पूर्ण और समग्र अस्तित्व और उसका विचार करनेवाला 'स्व' भी होता ही है, होना ही चाहिए भी। किन्तु विचार (thought)  का कार्य शुरू होते ही विचार का आभासी विभाजन :

- विचार करनेवाले 'विचारकर्ता' एवं विचार (करने के कार्य) में हो जाता है। इस प्रकार से विचार करने के कार्य में ही, विचारक की कल्पना के उठते ही, 'स्व' की स्वतन्त्र सत्ता अस्तित्वमान है ऐसी प्रतीति होने लगती है। 

स्पष्ट है कि इस पूरे घटनाक्रम को देखनेवाले दृष्टा का अस्तित्व तो असंदिग्धतः और अकाट्यतः स्वयंसिद्ध है ही, और उसे दृश्य रूप में नहीं जाना जा सकता ।

दृष्टा यद्यपि तीनों का आधार और अधिष्ठान भी है, उसे जानने, या देख सकने के लिए प्रत्यय का आश्रय लिया जाना आवश्यक ही है। इसे ही पातञ्जल योगदर्शन के साधनपाद नामक अध्याय के सूत्र : 

"दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

के माध्यम से कहा गया है। 

दृष्टा, जो दृश्य में प्रच्छन्न, जिस पर दृश्य रूपी आवरण है, उसे यद्यपि देखा नहीं जा सकता किन्तु उसके अस्तित्व को प्रत्यय के माध्यम से परोक्षतः अनुभव किया जा सकता है। अपरोक्षतः भी उसका बोध, प्रत्यय के अभाव में दृश्य-विलय होने पर प्राप्त हो सकता है। इसे ही महर्षि पतञ्जलि द्वारा 'प्रतिप्रसव' कहा गया है और कैवल्यपाद के अन्तिम सूत्र में इसका ही वर्णन :

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा या चितिशक्तेरिति।।३३।।

इस सूत्र में किया है। 

यह प्रतिप्रसव ही कैवल्यं है और इस निष्ठा को प्राप्त हुए मनुष्य के लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता और वह पुरुषार्थशून्य जैसा प्रतीत हो सकता है। 

वस्तुतः यही वह साङ्ख्यनिष्ठा है, जिसका गीता, अध्याय ३ में :

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

इस प्रकार से वर्णन किया गया है।

यहाँ एक रोचक तथ्य यह भी है कि जो दृश्यरूप में अभिव्यक्त होता है उसमें दृष्टा विलीन प्रतीत होता है और अपरोक्षानुभूति में, अर्थात् दृश्यविलय होने पर उसे ही उस दृष्टा के रूप में भी जान लिया जाता है, जो दृश्य में अप्रकट और प्रच्छन्न है। 

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October 11, 2022

पार कैसे जा सकोगे?

कविता : 11-10-2022

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अस्तित्व एक नदी! 

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इस नदी में जल नहीं है,

नाव कैसे जा सकेगी!

तैर भी सकते हो कैसे,

पार कैसे जा सकोगे!

रेत ही है, रेत इसमें,

रेत पर पदचिह्न भी,

सतत बनते मिट रहे, 

कैसे उन पर चल सकोगे! 

इस नदी की रेत में,

मृत सीप, घोंघे, शंख भी हैं,

मोती, प्रवाल, पद्मराग,

माणिक अमूल्य रत्न भी हैं,

कहते हैं यह स्वर्णरेखा, 

इसमें स्वर्ण की धूलि भी है! 

खोजनेवालों को इसमें,

अवश्य ही वह मिली भी है!

किन्तु पाकर उन सबको भी,

क्या प्यास तुम बुझा सकोगे! 

दूर तक फैली है सरिता,

शुष्क सूखी रेत की,

कभी तपती, कभी चुभती,

भूमि भूखी, है खेत की, 

इस भूमि में जल कहाँ है, 

फ़सल क्या उगा सकोगे!

बीज भी हों पास लेकिन,

फल कोई क्या पा सकोगे!

रेत के विस्तार में,

क्या चलोगे, कहाँ तक,

रेत ही बस रेत है,

दृष्टि जाती है, जहाँ तक!

दूर देता है दिखाई,

खूब जल बहता हुआ, 

और नभ है प्रतिबिम्बित,

जिसमें चमकता हुआ! 

जितना चलोगे उतना ही, 

वह दूर ही जाता हुआ,

मृग-मरीचिका यह जिसमें,

मृग प्यास से मरता हुआ!

प्यास मन-मृग की अपने,

कैसे तुम बुझा सकोगे!

रेत के सागर से कैसे, 

पार लेकिन जा सकोगे! 

ठहर जाओ रेत की ही,

थाह निचली खोज लो, 

यहीं पर इस भूमि को, 

इतना गहरा खोद लो, 

इसके नीचे ही छिपा है, 

अथाह जल, गूढ गहन,

जो तुम्हारी प्यास का, 

कर सकेगा नित्य शमन! 

धैर्य पर थोड़ा रखो,

और प्रतीक्षा भी थोड़ी, 

यही तो एक है रास्ता,

चिर शान्ति का, विश्रान्ति का!

और इस के सिवा कोई,

हल कोई क्या पा सकोगे!

पार कैसे जा सकोगे!

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October 08, 2022

कौन महसूस कर सकता है!

वक्त और एहसास क्या है! 

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Salvador Dali  की घड़ियाँ! 

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वक्त भी फैलता-सिकुड़ता है जैसे,

उसका एहसास भी उसी तरह से !

जैसे कोई वक्त, किसी भी दूसरे से,

कभी छोटा या बड़ा भी नहीं होता!

और कोई एहसास भी कोई कभी,

नहीं होता छोटा या बड़ा, दूसरे से,

क्योंकि एहसास तो होता है हमेशा,

जागने में, सपने में, या फिर सोने में, 

इसलिए जब भी कोई सो जाता है,

वक्त भी उसका, सो जाया करता है,

एहसास भी उस वक्त के ही साथ,

इसलिए वक्त और एहसास उसका, 

दोनों हालाँकि फैलते-सिकुड़ते हैं! 

कोई छोटा या बड़ा नहीं होता है,

जैसा हम कहा-समझा करते हैं!

वक्त का एहसास हुआ करता है, 

एहसास महसूस किया जाता है, 

न वक्त कोई छोटा-बड़ा होता है, 

न उसका एहसास ऐसा होता है!

जब कोई वक्त कहीं नहीं होता,

जब कोई एहसास भी नहीं होता,

हमें कुछ महसूस भी नहीं होता,

तब भी हाँ हम होते हैं, बस होते हैं,

पर नहीं चीज़ वक्त जैसी कोई, 

नहीं होता एहसास जैसा भी कुछ, 

नहीं होता है महसूस जैसा भी कुछ,

न हम जागते होते हैं, न सोए हुए, 

न सपनों में, खयालों में खोए हुए,

नींद में नींद का एहसास नहीं होता, 

नींद में वक्त भी महसूस नहीं होता, 

क्या कहें नींद में हम जब होते हैं,

वक्त तब होता है, या नहीं होता? 

तब जो होता है, वह वही बस होता है, 

जो न बनता है, और न ही मिटता है!

जो नहीं फैलता या सिकुड़ता है,

जो न बनता है, न बिगड़ता है,

तो फिर जो भी है, बस वही भर है, 

जो उसको जानता है, वही भर है।

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October 05, 2022

विजयादशमी / 05102022

नीलकण्ठ!

आज की कविता!

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इस भूमि पर ... !

कविता : 05-10-2022

स्मृतिशेष : सोचो, साथ क्या जाएगा?

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इस भूमि पर चरण किसके टिक सके हैं?

आगत अनागत चरण किसके रुक सके हैं?

संवेग से जो युक्त थे, संकल्प जिनके साथ था,

वे बढ़ गए आगे, यहाँ क्या झुक सके हैं!

लक्ष्य के संधान में, अलक्ष्य के अनुमान में, 

जो मोह-भ्रम से युक्त थे, दंभ के अज्ञान में, 

पंकयुक्त इस भूमि पर, कंटकयुक्त इस पथ पर, 

ठहर गए इस भूमि पर, गर्व, हठ, अभिमान में,

धँसते चले गए गह्वर में, गर्त में, इस भूमि में, 

कर्तव्यपथ से च्युत हुए, निष्कर्ष में, परिणाम में!

यह पथ स्वयं अस्थिर, यह भूमि भी है चञ्चल,

कौन इस पर टिक सका, कौन कभी रुका अचल!

अनगिनत आगत अनागत, चरण इस पर चल चुके,

अट्टालिकाएँ भव्य भवन, इस भूमि पर, बना चुके, 

काल के प्रवाह में कुछ मिट गए, कुछ रह गए,

आगत विगत वे अनगिनत, चरण सब चले गए! 

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October 04, 2022

नया अध्याय

क़िताब दर क़िताब / सोचता हूँ मैं! 

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कविता 04-10-2022

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सफ़े पलटते पलटते रुक गया हूँ,

क्या कोई अध्याय पूरा हो रहा है?

लगता है जैसे कि यह तो अन्त है, 

क्या कोई नया भी खुलने जा रहा है?

एक ही क़िताब तो होती नहीं!

एक ही क़िताब तो काफी नहीं, 

कोई रुक जाता है कैसे एक पर,

जो नहीं रुकता, उसे माफ़ी नहीं! 

दस्तूर क्या यह बदलना चाहिए?

क्या नई क़िताब होनी चाहिए?

क्या नए उनवान, इबारतें नईं,

क्या नए पैग़ाम, या संदेसे नए,

क्या नई कुछ बात होनी चाहिए?

क्या पुरानी को बदलना चाहिए?

वो अड़े हैं अपने इस इसरार पर,

वो डटे हैं करने को, तक़रार पर,

क्या कोई तबदीली होनी चाहिए, 

या इबारत पुरानी ही होनी चाहिए?

सच अगर कभी बदल सकता नहीं, 

लफ्ज़ो लहजा क्या बदलना चाहिए, 

अलग अलग जुबाँ अगर सबकी है, 

सच का मतलब भी बदलना चाहिए?

न्याय तो है यह कि सच की जीत हो, 

क्या कभी अन्याय होना चाहिए? 

क्या कोई क़िताब बदलनी चाहिए, 

क्या नया अध्याय खुलना चाहिए?

क्या है कोई लिख सके ऐसा नया!

क्या है कोई कर सकेगा सच बयाँ,

क्या कोई सच नया होना चाहिए!

क्या नई क़िताब लिखना चाहिए?

सोच का सच, क्या है सच का सोच?

सच का सोच, ही है क्या सोच का सच,

सोचते सोचते अब थक गया हूँ मैं,

क्या नया सोच मिलने जा रहा है?  

क्या नया अध्याय खुलने जा रहा है?

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October 02, 2022

गङ्गा-स्तुति

औषधं जाह्नवीतोयं

वैद्यो नारायणो हरिः।।

यस्तु नित्यं स्मरेज्जीवो,

कुतो तस्य यमभयम्।।

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September 28, 2022

व्यक्तिगत और सामाजिक

संकल्प, धर्म और स्वतंत्रता 

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क्या मनुष्य स्वतंत्र है? क्या मनुष्य और जिस समाज से मनुष्य का संबंध है वह समाज एक दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र दो भिन्न वस्तुएँ हैं? व्यावहारिक सत्य की दृष्टि से कोई मनुष्य समाज के अभाव में भी जीवन बिता सकता है, किन्तु समाज चूँकि ऐसे ही कुछ मनुष्यों का समूह होता है, इसलिए मनुष्य के अभाव में ऐसे किसी समाज के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । समाज और मनुष्यों के बीच की व्यवस्था और उन दोनों के बीच का संबंध ही सामाजिक धर्म है। यह व्यवस्था जितनी सरल और जितनी अधिक सुचारु होगी, व्यक्ति और समाज के बीच उतना ही अधिक सामञ्जस्य होगा। किन्तु फिर भी मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक आवश्यकताओं और हितों के बीच कुछ न कुछ नीतिगत मतभेद तो होंगे ही। राजनीतिक धर्म, -वह व्यवस्था है, जो कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर इन नीतिगत मतभेदों को यथासंभव कम किए जाने का प्रयास करे। जिसमें सभी का और प्रत्येक मनुष्य का ही अधिकतम हित संभव हो। इस राजनीतिक धर्म का आधार पुनः समाज के कुछ शक्तिशाली लोग तय कर सकते हैं और यह पुनः उन लोगों की महत्वाकांक्षा और मनुष्यमात्र के सार्वजनिक हित की कल्पना से प्रेरित उनका दृष्टिकोण हो सकता है। ऐसी शक्ति भी उनके विवेक से प्रेरित नीति, या फिर उनके विश्वासों, मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, और स्वार्थ-बुद्धि आदि से उत्पन्न उनका हठ भी हो सकता है। पूरे मनुष्य के संदर्भ में कहें तो जब तक ऐसा कोई आधार नहीं प्राप्त हो जाता जिसके सहारे सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त का पालन सुनिश्चित किया जा सके तब तक स्वतंत्रता अपूर्ण ही रहेगी और व्यक्ति तथा समाज के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्राकृतिक न्याय वह न्याय है, जो प्राकृतिक रूप से मनुष्य और समाज में विद्यमान होता है, और मनुष्य और उसके समूह के आचरण और तौर तरीकों को तय करता है। इसे प्राकृतिक धर्म या न्याय भी कहा जा सकता है।समूह या सामाजिक रूप से यह धर्म या न्याय भी पुनः शक्ति से परिचालित और नियंत्रित हो सकता है, या / और यह शक्ति भी पुनः किन्हीं उच्चतर आदर्शों और ध्येयों से निर्देशित हो सकती है। संक्षेप में इस आदर्श और ध्येय को :

"सभी सुखी हों और कोई भी दुःख का भागी न हो",

इन शब्दों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है। 

संसार में परंपरागत धर्म मुख्यतः दो प्रकार के हैं, एक है उपरोक्त सूक्ति से प्रेरित सनातन धर्म, दूसरा है राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित सामूहिक आचरण के सूचीबद्ध नियमों पर आधारित वे धर्म जो उनका पालन यंत्रवत किए जाने की अपेक्षा समाज से करते हैं। ऐसे धर्मोंं के बीच परस्पर कलह और विसंगतियाँ और मतभेद न हों तो यह एक आश्चर्य की ही बात होगी। सिद्धान्ततः वे किसी एक ही मत के अनुयायी हों तो भी व्यवहारिक रूप से उनके बीच मतभेद होंगे ही और इतिहास भी इसका प्रमाण है।

इस प्रकार वास्तविक धर्म वही है जिसे कि अर्थ और आशय की दृष्टि से भी चिरन्तन, शाश्वत और सनातन कहा जा सके। इसी का आविष्कार और संग्रह वेद और वैदिक धर्म है। यह धर्म इस अर्थ में प्राकृतिक भी है कि यह मनुष्य को उसके अपने अपने गुणों और कर्मों के आधार पर उनके अनुसार उन्हें चार वर्णों में वर्गीकृत करता है। यहाँ यह कहा जाना भी आवश्यक है कि यह वर्ण व्यवस्था मनुष्यों के वंश या कुल नहीं, बल्कि उन गुणों और कर्मों के आधार पर उन्हें चार प्रधान वर्णों में वर्गीकृत करती है। इसी व्यवस्था का एक उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष और भी है, जो है, -प्रकृतिप्रदत्त आश्रम-व्यवस्था, जो कि न केवल मनुष्यों ही, बल्कि प्रायः सभी प्राणियों के लिए भी प्रकृति से ही निर्धारित उनकी जीवन-शैली ही है।

यदि धर्म को इस आधार पर वर्गीकृत किया जाए तो यह प्रतीत होगा कि अब्राहमिक धर्मों को प्रगतिशील और उन्नतिशील धर्म कहा जा सकता है क्योंकि अभी उसमें टकराहट और अनिश्चय विद्यमान है। अभी उनके परिपक्व और विकसित तथा उन्नत होने की संभावनाएँ हैं, और जब तक उनमें अपरिपक्वता और  अनिश्चय विद्यमान हैं, तब तक समय की माँग है कि वे स्वयं ही अपने आपको विकसित और परिमार्जित कर सुधार लें, और अपने यथार्थ स्वरूप को सुनिश्चित कर लें । जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक मनुष्य और मनुष्यों के समुदायों के बीच सतत संघर्ष होते रहना स्वाभाविक और अवश्यंभावी भी है ही। और इसीलिए तो उनके बीच अपने वर्चस्व को स्थापित करने का सतत अनवरत प्रयास भी लगातार निरंतर ही चल भी रहा है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। 

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September 27, 2022

वात्याचक्र (Vortex)

सोलर फ्लेयर / Solar Flair

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दिनांक 06 सितम्बर 2022 को इसी ब्लॉग में "सोलर फ्लेवर" शीर्षक से एक पोस्ट मेंने लिखा था, जिसमें इस संभावना पर विचार किया था कि क्या 28-29 सितंबर 2022 के आसपास सौर ज्वालाएँ (Solar Flair) धरती तक आ सकती हैं! मुझे नहीं पता कि आनेवाले तीन चार दिनों में क्या हो सकता है, या होने जा रहा है। यद्यपि शायद ही कोई और भी इस पर गंभीरता से मेरी तरह ध्यान दे रहा हो! किन्तु इस सप्ताह वैश्विक स्तर पर हो रही राजनैतिक घटनाओं पर यदि दृष्टिपात करें तो लगता है कि धरती पर इस आकाशीय घटना का परिणाम अन्य रूपों में अवश्य ही हो रहा है। चीन, भारत, अमेरिका, ईरान, रूस, फ्रांस, जर्मनी, और अरब राष्ट्रों में जिस प्रकार की उथल-पुथल हो रही है, उससे तो यही लगता है कि धरती पर सूर्यदेवता के कोप का प्रभाव सर्वत्र ही देखा जा सकता है। 

भारत की बात करें तो पी. एफ. आई. के विभिन्न ठिकानों पर पड़े एन. आई. ए. के छापों में बरामद दस्तावेज, और उससे जुड़े लोगों की गिरफ्तारी अवश्य ही स्थिति की गंभीरता का द्योतक है। अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन यह तय है कि देश में उपद्रव और उत्पात हो सकते हैं, साम्प्रदायिक सौहार्द की स्थिति बिगड़ सकती है, जिसे नियंत्रित कर पाना विभिन्न राज्यों की और देश की सरकार के लिए भी एक बड़ी चुनौती होगा।

ईरान में हिजाब के बहाने स्त्रियों का दमन और स्त्री-स्वातंत्र्य के समर्थकों का आन्दोलन भी वहाँ की सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। रूस, यूरोप और चीन में जनता शासन के दमन-चक्र से त्रस्त है। श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान भी चीन की ऋण-नीति के चंगुल में फँसे हुए हैं। और स्वयं चीन में भी जनता का प्रखर असंतोष चरम पर है।

क्या इसे सौर ज्वालाओं के प्रभाव का ज्योतिषीय आकलन कहा जा सकता है? 

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September 20, 2022

गौसेवा : सबसे बड़ा पुण्य

अष्टावक्र, श्वेतकेतु और कहोळ 

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कहोळ वेदज्ञ और वैदिक विधि-विधान में पारंगत और निष्णात थे। वे राजा जनक के पुरोहितों में से एक प्रमुख पुरोहित थे।

उनकी पत्नी का नाम था सुजाता, और सुजाता से उत्पन्न उनके पुत्र का नाम था अष्टावक्र । यह कथा तो विख्यात ही है कि जब अष्टावक्र अभी माता के गर्भ में ही थे, और उनके पिता कहोळ नित्य-प्रति किया जानेवाला वेदपाठ कर रहे थे तब पाठ करते समय कुछ मन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि कर बैठे।

अष्टावक्र का ध्यान उस समय उन मन्त्रों को सुनते हुए जब उन त्रुटियों पर गया, तो वे वहीं से बोल उठे :

"पिताजी! वेदमन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि अनिष्टसूचक है। आप ऐसी त्रुटि न करें।"

पुत्र के वचन सुनकर कहोळ क्रोधित हो उठे, और उन्होंने माता के गर्भ में स्थित अपने अजन्मे पुत्र को शाप दे दिया, जिसके प्रभाव से जन्म के समय से ही उसके शरीर के आठ अंग टेढ़े हो गए अर्थात् वक्र हो गए। इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र हो गया। अष्टावक्र की माता सुजाता के भाई का नाम श्वेतकेतु था। उनके  पिता विद्या ग्रहण करने के लिए उन्हें लेकर जब गुरुकुल गए तब उनके आचार्य ने उन्हें आश्रम की गौओं की देखभाल और सेवा करने की आज्ञा दी। श्वेतकेतु पूरी निष्ठा से इस कार्य में संलग्न हो गए और  युवा होने तक उनका मन, बुद्धि आदि इतने शुद्ध हो चुके थे कि वे ब्रह्मविद्या के पात्र हो गए। 

यह है गौसेवा का फल।

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September 19, 2022

देवता !

कविता : 19-09-2022

फूल तुम्हारे हाथों में!!

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