December 20, 2022

येन नीयत: तथा नियतिः

सभ्यता का उपसंहार

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आज के विज्ञान की प्रगति समूची मनुष्य जाति के विनाश की सूचक, पूर्वभूमिका है, --विशेष रूप से A. I. / ए. आई. और मशीन लर्निङ्ग! सभी वैज्ञानिक और भाषाशास्त्री अत्यन्त मोहित और भ्रमित हैं। ऋषि राजपोपट जैसे लोग इसका एक अच्छा उदाहरण है। बिना उसकी पुस्तक को पढ़े उसके बारे में कुछ भी कहना अनुचित ही होगा, किन्तु संस्कृत और वैदिक व्याकरण के विद्वानों को इसमें सन्देह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में लिखी गई उसकी पुस्तक येन केन  प्रकारेण इसका ही एक प्रयास है कि कैसे वैदिक और सनातन-धर्म को नीचा दिखाया जाए।

पाणिनी रचित अष्टाध्यायी वेद के उपाङ्ग व्याकरण का एक ग्रन्थ है जिसका आधार शिवजालसूत्र अर्थात् अक्षरसमाम्नाय है। जैसा कि वर्णन है अक्षरसमाम्नाय की उत्पत्ति भगवान् शिव के ढक्का से हुई है --

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।।

उद्धर्तुकामः सनकादि सिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।। 

इन चौदह वर्णो से, जो भगवान् शिव के ढक्का से सनक आदि ऋषियों को प्राप्त हुए, अ इ उ ण् ऋ लृ ङ् आदि चौदह सूत्रों का ज्ञान उन ऋषियों को मिला। इस आधार पर व्याकरण की रचना ऋषियों ने की।

तात्पर्य यह कि वेद का ज्ञान मूलतः उस नित्य वाणी में सनातन काल से अविनाशी स्वरूप में विद्यमान है जो वर्णात्मक अर्थात् मन्त्रात्मक है। 

याद आता है आज के युग के एक विश्वप्रसिद्ध साङ्ख्यविद श्री जे. कृष्णमूर्ति और वेद के एक विद्वान पण्डित जगन्नाथ शास्त्री के बीच हुआ वार्तालाप, जिसमें पण्डित जगन्नाथ शास्त्री उनसे कहते हैं कि शब्द नित्य है और उससे ग्रहण किया जानेवाला अर्थ अनित्य, औपचारिक और क्षणिक है। संक्षेप में शब्द नित्य सिद्ध वाणी है वही वेद है इसलिए वेद का पाठ किया जाता है, न कि अर्थ। वेदवाणी का प्रयोजन होता है, मनुष्य की भाषा में उसका अर्थ करना नितान्त मूढता* है। इसलिए वेदों का भाष्य किया जाता है न कि अर्थ। वैसे यह भी अवश्य सत्य है कि बहुत से संस्कृतज्ञों ने वेदों का अर्थ किए जाने का प्रयास भी किया है।इनमें सर्वाधिक अनधिकारी वे विदेशी विद्वान रहे हैं, जिन्होंने इस प्रयास से वेदों की ऐतिहासिकता को जानने या प्रमाणित करने का यत्न किया और इस क्रम में वे भी हैं ही, जो वेदों को अनपढ़ गड़रियों द्वारा लिखा गया मानते और सिद्ध करना चाहते थे। इसका मूल प्रयोजन था वेदों को आज के ज्ञान-विज्ञान की तुलना में अत्यंत निकृष्ट सिद्ध करना। वेदों का अध्ययन करने के बहाने उन्होंने वेदों के ज्ञान को बुरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट और तहस-नहस किया। अब और एक नए विद्वान श्री ऋषि राजपोपट आए हैं, जिन्होंने उनके शिक्षक की कुत्सित प्रेरणा से तोड़-मरोड़कर पाणिनी के सूत्र का अर्थ प्रस्तुत किया है और अपनी चतुराई पर फूल कर कुप्पा हो गए हैं।

यद्यपि उन्होंने भी सिद्ध परंपरा का उल्लेख तो किया है, इसलिए जल्दबाजी में उनकी पुस्तक का ठीक से अवलोकन किए बिना तुरत-फुरत कोई नतीजा निकालना उनके साथ किया जानेवाला अन्याय ही होगा।

यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु जिस पर कि मैं ध्यान आकर्षित किया जाना चाहूँगा वह यह है कि श्री जे. कृष्णमूर्ति भी महर्षि कपिल, अष्टावक्र, श्रीरमण महर्षि और श्री निसर्गदत्त महाराज आदि की तरह मूलतः साङ्ख्य परंपरा के ही एक आचार्य हैं, जैसा कि उनकी शिक्षा दिए जाने की शैली से भी स्पष्ट है। इन सभी आचार्यों ने पारंपरिक वैदिक ज्ञान नहीं प्राप्त किया था, इसलिए वे यद्यपि वेद से स्वतंत्र हैं किन्तु वेद की निन्दा करना उनके लिए भी अशोभनीय है। स्पष्ट है कि वेद के पठन पाठन का अधिकारी ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति ही होता है। यद्यपि आत्मा के अनुसंधान करने और मुक्ति प्राप्त करने के लिए जाति, वर्ण, लिंग आदि भी बाधा नहीं है, और इसलिए आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए वेदों में दिया गया ज्ञान सहायक भले ही हो, आवश्यक कदापि नहीं है। वस्तुतः तो समस्त वैदिक ज्ञान को मुण्डकपनिषद् में अपराविद्या ही कहा गया है, तथा आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान को परा विद्या।

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*यह शब्द भूल से 'ममता' टाइप-सेट हो गया था जिस पर अभी ध्यान गया अतः सुधार दिया है। भूल के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। 

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