December 18, 2022

प्रो. कृष्णनाथ

नये सन्दर्भ 

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1975-76 के वर्षों में किसी समय मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित हिंदी "धर्मयुग" पत्रिका में प्रो. कृष्णनाथ का एक लेख पढ़ा था। यद्यपि उस समय तो मुझे उसका महत्व ठीक से समझ में नहीं आया, किन्तु वर्ष 2002 में कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन वाराणसी में उनसे मिलना हुआ तो पुनः वह लेख स्मृतिपटल पर उमर आया। जैसा कि मैंने उसे पुनः समझा, तो मुझे यह "स्पष्ट" हुआ कि वह लेख "दुविधा" अर्थात् conflict के बारे में था। यह "स्पष्ट" होना कोई विचार thought या वैचारिक निर्णय intellectual conclusion नहीं, बल्कि, im-mediate direct revelation / प्रत्यक्ष / अपरोक्ष समझ है, जो काल से स्वतंत्र Timeless, निरवधिक, बुद्धि से परे की वह समझ  Understanding Transcending Intellect है। चूँकि बुद्धि और स्मृति वृत्तियाँ हैं, वृत्ति की गतिविधि ज्ञात से ज्ञात तक सीमित है। इसे पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 1/6 के सन्दर्भ में देखें तो दुविधा अर्थात्  conflict स्वयं अपना प्रमाण है। हमें कभी किसी विषय में दुविधा होती है, किन्तु दुविधा है, इस बारे में हमें कदापि कोई संशय नहीं होता। 

समाधिपाद के उपरोक्त सूत्र के अनुसार :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

इस प्रकार दुविधा, वृत्ति ही है। वृत्तिमात्र का निरोध ही योग है। जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से अभिभूत कुछ लोगों का आग्रह है कि जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को सीधे ही, किसी दूसरे सन्दर्भ से संबंधित किए बिना ही सीधे ही पढ़ा सुना और समझा जाना चाहिए। पर सवाल यह भी है कि क्या हमारा "मन" स्वयं ही उन शिक्षाओं को सीधे ग्रहण करने के लिए बाधक नहीं होता! क्या हमारा "मन", जो कि अतीत है, उन शिक्षाओं की व्याख्या नहीं करने लगता है? अतीत है स्मृति, स्मृति है पहचान, -पहचान है अतीत! इस दृष्टि से बुद्धि या स्मृति रूपी वृत्ति ही हम पर हावी रहती है और हम दुविधा से मुक्ति क्या है, इसे समझने से वंचित ही रह जाते हैं!

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