December 26, 2009

उन दिनों -39.

~~~~~~~~~~~~~~ उन दिनों -39. ~~~~~~~~~
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एक आह्लाद में बीत रहे थे दिन ! नलिनी को देखकर अपर्णा की याद आती थी । वह षोडशी बाला, जिसे पहली बार 'सर' के घर देखा था । वह नलिनी जैसी तो नहीं थी, लेकिन उसमें कुछ ऐसा ज़रूर था कि नलिनी को देखते ही बरबस उसका स्मरण उठता ही था ।
आज 'सर' के साथ भोजन पर जाना था ।
नलिनी के घर पर । साफ़-सुथरा छोटा सा घर, घर पर छोटा भाई , माता-पिता, और एक बहन । वैसे एक बड़ा भाई और था, जो कहीं दूसरे शहर में नौकरी कर रहा था ।
दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे । जैसे ही हम पहुँचे, नलिनी हाथ जोड़कर स्वागत में दरवाजे पर खड़ी मिली । उसके पीछे उसके माता-पिता, और भाई-बहन । यह मकान पास की ही किसी दूसरी कालोनी में था । कितनी ही बार वहाँ से जाना हुआ था, लेकिन कभी कोई काम नहीं पड़ा था वहाँ जाने का । और तब नलिनी को जानता भी कहाँ था ? हाँ, शायद रवि के अखबार में शायद उसकी रचनाएँ पढ़ते समय नज़रों से गुज़रा होगा, पर याद नहीं आता ।
बाहर लंबा-चौड़ा बगीचा, एक ओर गैराज में खड़ी पुरानी मालूम होती कार, बरामदे में खडा स्कूटर, दो-तीन छोटी बड़ी सायकिलें, एक मोपेड ।
ड्राइंग-रूम भी फैला-फैला सा, अगले आधे हिस्से में 'ड्राइंग-रूम', और पिछले आधे में 'डाइनिंग-रूम' जैसा जान पड़ता था ।
भोजन के समय उसके माता-पिता भी साथ भोजन कर रहे थे, भाई भी । बस बहन और वह खाना परोस रहे थे ।
पूरे समय उसके माता-पिता चुप ही रहे थे । हाँ बाद में ज़रूर हमारी बातें हुईं, -जिस समय नलिनी और उसकी बहन खाना खा रहे थे, और उनकी माँ उन्हें परोस रही थी । वे 'डाइनिंग-रूम' में थे । हम सब अब 'ड्राइंग-रूम' में थे ।
यहाँ अगरबत्तियों की भीनी-भीनी खुशबू अब भी गमक रही थी ।
पिता सरकारी रिटायर्ड अफसर थे । शायद किसी अच्छे पद पर रहे होंगे । लेकिन मैं उनके घर में एक पुराना स्कूटर, और गैराज में खड़ी पुरानी फिएट देखकर उनके अतीत का अनुमान लगा रहा था ।
और जब हम चलने लगे, तो नलिनी हमें उसका कमरा दिखाने लगी । छोटा सा रूम, एक पलंग, दो-तीन कुर्सियाँ, स्लाइडिंग-ग्लास-शटर से बंद किताबों के शेल्फ, एक लम्बी मेज, सामने दीवार पर 'अरुणाचल' का भव्य चित्र । 'अरुणाचल' के चित्र के ठीक दायीं तरफ भगवान् श्री रमण महर्षि का उसी ऊंचाईवाला एक चित्र ।
पीछे की दीवार पर जे. कृष्णमूर्ति भी मौजूद थे । शेल्फ पर सरस्वती की प्रतिमा, कोने में गणेशजी भी दर्शन दे रहे थे । एक शान्ति और उल्लास, जैसा नलिनी में दिखलाई देता था, वही उस छोटे से कमरे में भी ओत-प्रोत जान पड़ता था ।
जल्दी ही हम वापस हुए ।

>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -40. >>>>>>>>>

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December 24, 2009

शिल्पी

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....................... शिल्पी ......................
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~(प्रस्तुत कविता यूँ तो अचानक ही भीतर से उमग उठी,
~लेकिन पढ़ने पर मुझे लगा कि यह,
~श्री जे.कृष्णमूर्ति
~पर काफी हद तक सही रूप से लागू होती है ।)

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अपने हाथों में लिए हथौड़ी-छैनी,
सुबह-सुबह,
निकला था किसी पत्थर की तलाश में ।
जा पहुँचा था पहाड़ के नज़दीक ।
देख रहा था, पत्थरों में छिपी उन अनगिनत सुन्दरताओं को,
जो अनावृत्त होने के लिए बेकल थीं ।
हाँ मानता हूँ,
उनके आवरण किसी और की दृष्टि से उन्हें ओझल रखते थे,
और यह ज़रूरी भी था,
अपावन नज़रों से उन्हें बचाने के लिए,
लेकिन मेरे लिए,
मानों वे मूक निमंत्रण थीं,
क्योंकि मैं उन्हें विस्मित होकर देखता था ।
और यह भी,
कि मैं उनमें से कुछ के ही सौन्दर्य को,
दुनिया की नज़रों के सामने ला सकता था,
क्योंकि छैनी पर एक भी गलत वार,
कर सकता था उन्हें भग्न बाहर तक,
-और मुझे भीतर तक ।
यह किसी चट्टान से अपने आप को उकेरने जैसा था ।
और जब तक इतनी सावधानी से काम न कर सकूँ,
तब तक मैं उन्हें बस देखता ही रहता हूँ ,
-अलग-अलग कोणों से,
-हर ओर से ।
अभी, अभिभूत सा होकर देख ही रहा था,
कि वे लोग आये ।
वे राजा के आदमी थे,
'-शुरू करो काम !'
वे बोले ।
हमें पहाड़ों से राह निकालनी है ।
साथ के मजदूरों ने पहाड़ को तोड़ना शुरू किया,
मैं देखता रह गया,
मेरी असंख्य प्रतिमाएँ,
मेरे सामने टूट रहीं थी,
और वे तोड़ रहे थे पत्थर,
-नए रास्ते खोलने के लिए ।
और शाम होते-होते,
वे चले गए थे ।
फिर कुछ दूसरे लोग आये,
वे जानते थे कि मैं शिल्पी हूँ,
और वे मेरी प्रशंसा करने लगे ।
पर मैं जानता था उनका कपट,
वे चाहते थे कि मैं उनकी चाही गईं प्रतिमाएँ ही उकेरूँ,
और मैं मजबूर था,
क्योंकि मैं जिन प्रच्छन्न प्रतिमाओं को देख रहा था,
उन चट्टानों में,
वे चाहते थे उससे बहुत अलग,
बिलकुल ही अलग,
कुछ और ।
फिर मैं लौट आया,
बिना कोई प्रतिमा उकेरे ।
मैं उन्हें क्या कह सकता था ?

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December 21, 2009

मृत्यु पर ध्यान


~~~~~~~~मृत्यु पर ध्यान~~~~~~~~~~
~~~~~~~~.(मृत्यु-अवधान).~~~~~~~~~
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अंग्रेज़ी कविता :

A Meditation on Death.

का हिन्दी अनुवाद
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हवा के झोंके से बुझ जानेवाली दीपक की लौ की भाँति,
हमारा यह जीवन भी विनाश की ओर अग्रसर है ।
सभी चीज़ों में जीवन और मृत्यु के चक्र को देखते हुए,
ज़रूरत है,
मृत्यु के प्रति सजग होने में पारंगत होने की ।
जैसे बहुत धन, यश प्राप्त कर लेनेवाले भी,
अवश्य ही एक दिन मर जाते हैं,
वैसे ही जिसे मृत्यु कहते हैं,
मुझे भी कदापि नहीं छोड़ेगी ।
वह सदा बुला रही है,
आओ ! -मेरे पीछे आओ !!
मृत्यु जन्म का सच्चा साथी है,
और कभी पीछे नहीं रहती ,
(साथ रहती है उसके, हर क्षण )
एक अवसर की तलाश में,
-किसी युद्धरत 'सामुराई' की तरह ।
जिसे हम अपना जीवन कहते हैं,
उसकी गति को रोका नहीं जा सकता,
और नहीं बदल सकते,
उसकी दिशा को हम ।
यह अपने अंत की ओर दौड़ रहा है ।
-जैसे सूरज दौड़ता है,
-पश्चिम की ओर ।
जो हमारी दृष्टि में शक्ति और बुद्धि में हमसे बहुत बड़े हैं,
मृत्यु उन्हें भी खींच ले जाती है कभी-न-कभी ।
फिर मेरे जैसे अदना से आदमी की हैसियत ही क्या है ?
क्योंकि यह मेरा जीवन कितनी ही दृष्टियों से अपूर्ण है ।
हर क्षण ही मरता हूँ मैं,
किसी नए सार्थक पुनर्जन्म की उम्मीद के बिना ही ।

हमारा जीवन इतनी अधिक अनिश्चितताओं से भरा है,
और फिर, इसकी लम्बाई को जान पाना भी तो है नामुमकिन,
हृदय में भावी मृत्यु के भय और उद्वेग के रहते हुए,
दिन-प्रतिदिन जीते रह पाना ही बहुत मुश्किल है ।
और ऐसी कोई संभावना ही नहीं कि जीवन का अंत मृत्यु में नहीं होगा ।
भले ही वह बूढ़े हो जाने पर भी क्यों न हो ।
मृत्यु हमारे स्वभाव का ही एक हिस्सा है ।
जैसे पकने पर फल टपक जाता है,
जैसे कुम्हार का घड़ा किसी दिन अवश्य ही फूटकर मिट्टी हो जाता है ।
वैसे ही हमारी ये अस्थियाँ भी,
(जिन्हें हम हड्डी कहते हैं,)
एक दिन टूटकर बिखरकर समाप्त हो जायेंगी ।
युवा, बूढ़े, मतिमंद और विद्वान् भी,
सभी हैं, मृत्यु के हाथों की पहुँच में ।
और हम भली-भाँति जानते ही हैं,
कि अंत भी सुनिश्चित ही है ।
सभी बनी हुई चीज़ें अनित्य हैं,
सभी बनती हैं, और फिर मिट जाती हैं ।
परिस्थितियाँ हमें जन्म देती हैं,
और फिर परिस्थितियाँ ही हमें मृत्यु भी देती हैं ।
हमारा यह शरीर, और मन भी,
जल्दी ही धरती पर पड़ा होगा,
-'धराशायी' !
जैसे नदी के प्रवाह में बहती लकड़ी के व्यर्थ टुकड़े को,
नदी तट पर फेंक देती है,
हमारी चेतना विलीन हो जायेगी, और मन भी हो रहेगा नि:शेष,
पानी में फूटते किसी बुलबुले जैसा ।
-हवा होकर ।
इस संसार में हम अनामंत्रित ही चले आये हैं,
और यहाँ से हमें कब विदा होना है,
इसे पूछने की अनुमति लेना भी ज़रूरी नहीं ।
हम जन्म में आते हैं, जो सदा समाप्त होता है,
-मृत्यु में ।
जैसे हम आते हैं, वैसे ही चले भी जाते हैं ।
लौ के बुझ जाने पर,
क्या दीपक आँसू बहाता है ?
शोकग्रस्त नहीं,
सजग होओ !

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मूल कविता
A Meditation on Death - http://mindfulpath.blogspot.com/
(published on Tuesday, September 1,2009)
के लिए,
मेरी fav sites में

Buddha-'s Messages

पर जाएँ
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December 19, 2009

उन दिनों -38.

~~~~~उन दिनों -38.~~~~~~
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>>>>(उन दिनों -37 से आगे)>>>>>
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~~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~~~~~
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"कितनी संभावनाएँ है ! "
मैं मन-ही-मन सोच रहा था ।
" क्या उस शख्स का नाम भी मुझे पता चल पाएगा, या मैं किसी मुसीबत का इंतज़ार कर रहा हूँ ? हो सकता है किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका के लिए या प्रेमिका ने प्रेमी के लिए यह सन्देश दिया हो ! या कूट-भाषा में किसी क्रिमिनल ने अपने साथी को कुछ संकेत भेजा हो ! पता नहीं क्या है ! मैं फालतू ही बखेड़े में पड़ रहा हूँ । "
मैंने सोचा, अभी भी वक्त है, संभल जाओ, इस मामले से अपना हाथ खींच लो ।
बाहर आते-आते देखा एक ऑटो वाला ऑटो खड़ी सिगरेट के कश खींच रहा था ।
"ऑटो !"
-मेरे मुँह से अनायास निकला ।
दूसरे ही मिनट मैं ऑटो में बैठा उस '...' कालोनी', '...' रोड, '...' के पते की ओर गतिमान हो चुका था ।
जब उस पते पर पहुँचा, तो काफी दूर किसी मंदिर का कलश चमकता दिखलाई दे रहा था । यह मकान भी अपने आसपास के ही मकानों के साँचे में ढला एक मकान जान पड़ रहा था । हर मकान किसी एक ही निश्चित नक़्शे और डिजाइन से बना होगा शुरू में, लेकिन शौक या ज़रूरत से उनमें रहनेवालों ने बाद में फेरबदल कर लिए थे । यानी इस ओर सीधी, उस ओर किचन के सामनेवाली जगह पर लोहे की जाली वाला गेट, पीछे कुछ घरों में आँगन था, तो कुछ ने वहाँ भी एक या दो कमरे खड़े कर लिए थे ।
इस घर के गेट की दीवाल पर एक नाम पेंट किया हुआ था ।

REWASHANKAR GARG
A/242,... .... Colony,...Road, ... .

धड़कते दिल से मैं गेट पर खड़ा हो गया । दरवाजा, जो गेट से करीब पाँच-छ: फीट की दूरी पर था, खुला ही था । अन्दर ट्यूब-लाईट की रौशनी थी । पर्दा हवा से एक लय के साथ बाहर आता और फिर भीतर लौट जाता था ।
मैंने गेट पर खड़े होकर धीमी आहट की ।
"-क्या कहूँगा ?" मैं सोच रहा था ।
कोई बाहर नहीं आया, शायद मेरी खडखडाहट बहुत धीमी रही होगी । इस बार ज़रा जोर से आहट की । एक बच्चा दौड़ता हुआ बाहर आया, उसके पीछे-पीछे एक भद्र पुरुष ('सर') भी बाहर आये ।
"कहिये !"
-उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डालते हुए पूछा ।
"ज़रा रेवाशंकर गर्गजी से मिलना था । "
"किसलिए "?
उनके इस अकस्मात् किये गए प्रश्न से मैं हड़बड़ा गया । उम्मीद नहीं थी कि ऐसा सवाल अचानक मुझसे पूछा जा सकता है । इस अप्रत्याशित सवाल के उत्तर में मैंने मुस्कुराते हुए पूछा,
"आप ही रेवाशंकरजी हैं न ?"
"जी हाँ । "
-वे सहजतापूर्वक बोले ।
फिर कुछ सोचकर बोले,
"आप अन्दर तो आइये !"
शायद वे मेरी हडबडाहट और असहजता भाँप चुके थे ।
"बेटे, ... "
उन्होंने आवाज़ लगाई ।
दो मिनट तक कोई प्रतिक्रया नहीं हुई । फिर एक षोडशी बाला पानी का गिलास लेकर आई । बिना कुछ बोले उसे टी-टेबल पर रखा और भीतर लौट गयी ।
छोटे से कमरे में सब-कुछ व्यवस्थित रीति से जमा हुआ था । लकड़ी का दो चेयर्स और एक लम्बी चेयर का सोफा-सेट, जो बेंत से बुना था, और उस पर पतले से स्पंज के गद्दे, जिन पर कॉटन के हैण्ड-लूम के कवर चढ़े थे । एक ओर एक दीवान या तखत भी था, जिस पर बस एक मोटी सी दरी बिछी थी । दीवार की साथ-साथ शेल्व्स की कतार, जिस पर परदे थे । उनमें बस किताबें ही किताबें थीं । बीच की शेल्फ पर एक फोटो था । और उसके पास पूजा की थाली जैसा कुछ था । एक अगरबत्ती स्टैंड, एक दीपक, और उसके पीछे दीवार पर प्लास्टिक की झालरों वाले सफ़ेद हार । तब मैंने यह सब नोट नहीं किया था, लेकिन समय लेने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक देखता रहा था । सकुचाते हुए मैं उनके सामने बैठ गया ।
" जी मेरा नाम कौस्तुभ वाजपेयी है, शासकीय सेवा में हूँ, थोड़ा लिखने-पढ़ने का शौक रखता हूँ ।"
-मैंने कहा ।
"कौस्तुभ वाजपेयी !?"
-कहते हुए वे अपनी कुर्सी से उठे, टी-टेबल के नीचे से कुछ पत्रिकाएँ निकालीं, और फिर तीन माह पुरानी एक साहित्यिक पत्रिका का अंक उठाकर उसे खोलते हुए किसी पृष्ठ को ध्यान से देखा, फिर मेर चेहरे को भी, और उसे मेरे हाथों में थमाकर मुस्कुराते हुए बोले,
"शायद आप ही हैं यहाँ !"
मैंने मन-ही-मन भगवान को धन्यवाद कहा ।
उस पृष्ठ पर मेरी कहानी के साथ-साथ मेरा फोटो भी था, जो आमतौर पर कभी छपता है ऐसा मुझे नहीं लगता ।
"जी हाँ । "
-मैंने राहत भरे स्वरों में कहा ।
मुझे इसकी भी खुशी हुई कि मेरे पिछले जन्मों के किन्हीं सद्कर्मों से या किसी अनजाने कारण से शुरुआत गलत नहीं हुई ।
"बड़ी खुशी हुई कि किसी बहाने आप मेरे घर आये !"
वे प्रसन्नतापूर्वक बोले ।
"वैसे मैं नहीं जानता कि कौन सी शक्ति मुझे यहाँ ले आई, लेकिन आज अखबार में एक छोटा सा विज्ञापन देखा, तो अपनी उत्सुकता रोक न सका, सोचा, ज़रूर किसी कहानी का मसाला मिल सकेगा, और इसलिए चला आया । "
मैंने उन्हें पूरा वाकया सुना दिया । वे शांत भाव से कौतूहल के साथ सुनते रहे ।
उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, हम कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे, फिर मैंने उनसे क्षमा माँगी कि नाहक आपको तकलीफ दी । उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए बिना कुछ कहे विदा दी। लेकिन उनकी आँखों का स्नेह और प्रसन्नता कह रहे थे कि उन्हें ज़रा भी बुरा नहीं लगा होगा ।

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>>>>>>>>>> उन दिनों -39. >>>>>>>>>>>>>

December 17, 2009

निर्वाण-षटकं.

~~~~~~~~~~ आदि शंकराचार्य विरचितं ~~~~~~~~~
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~~~~~~~~~~~ निर्वाण-षटकं ~~~~~~~~~~
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मनो-बुद्धि-अहंकार चित्तादि नाहं ,
न च श्रोत्र-जिह्वे न च घ्राण-नेत्रे ।
न च व्योम-भूमी न तेजो न वायु ,
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ १॥
न च प्राण-संज्ञो न वै पञ्च-वायु:,
न वा सप्त-धातुर्न वा पञ्च-कोष: ।
न वाक्-पाणी-पादौ न चोपस्थ पायु:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ २ ॥
न मे द्वेष-रागौ न मे लोभ-मोहौ,
मदे नैव मे नैव मात्सर्य-भाव: .
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्ष:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं .. ॥ ३ ॥
न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दु:खं ,
न मंत्रो न तीर्थं न वेदा न यज्ञा: ।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता,
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ४ ॥
न मे मृत्यु न मे जातिभेद:,
पिता नैव मे नैव माता न जन्मो ।
न बन्धुर्न मित्र: गुरुर्नैव शिष्य:
चिदानंद-रूपं शिवो-हं शिवो-हं ॥ ५॥
अहं निर्विकल्पो निराकार रूपो,
विभुत्त्वाच्च सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणां ।
सदा मे समत्त्वं न मुक्तिर्न बंध:
चिदानंद रूपं शिवो-हं शिवो-हं ..६॥

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आत्मानुसंधान के लिए, परिपक्व साधकों के लिए भी यह एक श्रेष्ठ साधन-स्तोत्र है । इसमें आत्मा को निरुपाधिक ब्रह्म के रूप में और उस निरुपाधिक ब्रह्म से , जो शुद्ध 'शिव-तत्त्व ही है, अपनी अनन्यता का स्मरण कराया गया है । सामान्यत: एक अपरिपक्व साधक एक ओर जहां 'अपने' को व्यक्ति-विशेष समझता है, वहीं एक परिपक्व साधक अहंकार और अहं के भेद को भली भांति समझने के बाद ही अहंकार को 'मन',बुद्धि, तथा 'चित्त' का ही चौथा रूप समझकर 'अहं' को अपना अर्थात् 'आत्मा' का अविकारी चैतन्य स्वरूप 'जानकर' देह, मन, प्राण, बुद्धि, अहंकार, सप्त-धातुओं आदि सबसे अपने को अलग देख पाता है । लेकिन तब वह 'आत्मा' में निमग्न हो जाता है । आत्मा का यह बोध व्यवहार-काल में भी यदि स्थिर रहे, तो ही वह स्वयं समझ सकेगा कि उसने इस स्तोत्र का यथार्थ आशय कहाँ तक ग्रहण कर लिया है ।
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~~~~~~~~~~~~~॥ शिवार्पणमस्तु ॥ ~~~~~~~~~~~

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December 12, 2009

प्रतीक्षा .

~~~~~~~~~~~~~~~~~ प्रतीक्षा ~~~~~~~~~~~~~~~~~~
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~~मैं अगर ख़ुद हूँ एक बेचैनी,
~~क्या ये बेचैनी मिट सकेगी कभी !
~~हाँ, ऐसा भी हुआ है अक्सर,
~~वो लम्हे जो तेरे साथ कभी गुज़रे हैं,
~~किसी बेखयाली में, और किसी बेखुदी में,
~~जहाँ ख़बर भी नहीं आती है मेरे वजूद की कोई,
~~जो मुझे अपने-आपसे बहुत दूर लिये जाते हैं,
~~और उस वक्त यही लगता है,
~~कि वक्त का वह लम्हा कितना छोटा है !
~~कि पलक झपकते बीत जाता है,
~~और छोड़ जाता है मुझको सहरा में,
~~मेरी बेचैनी की गर्म रेत और लू के गर्म थपेड़ों में,
~~और वक्त फ़ैल जाता है,
~~-बेहिसाब, दरिया सा,
~~एक अंतहीन सहरा सा ।
~~और बेचैनी भटकती रहती है,
~~क़दम-दर-क़दम,
~~क्या ये बेचैनी मिट सकेगी कभी ?
~~क्या मैं मिट सकूँगा अभी ?
~~मुझे मालूम है, तेरी 'याद' तू नहीं,
~~और न तेरे साथ गुज़रे वक्त की बेखुदी की याद ही है तू,
~~मुझे मालूम है,
~~बेखुदी की, बेखयाली की वह याद बस एक तसव्वुर भर है,
~~फ़िर भी वह तस्वीर कुछ तो सुकून देती है,
~~जैसे तीखी धूप में अपना ही साया,
~~एक झूठा सुकून देता है ।
~~फ़िर भी न जाने क्यूँ लगा करता है,
~~मैं पा सकूँगा,
~~किसी दिन उसको ।
~~इंतज़ार है तब तक ,
~~प्रतीक्षा करूँगा मैं तब तक,
~~इस अंतहीन सहरा में,
~~जिसे 'हयात' कहा जाता है ।

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December 09, 2009

उन दिनों -37.

~~~~~~~~~~~उन दिनों -37.~~~~~~~~~
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'सर' के बारे में अनंत जिज्ञासा थी, मुझे, अविज्नान को, और रवि को, और अब इस समूह में नलिनी, नीलम और शुक्लाजी भी शामिल थे ।
"हाँ, हम भूल जाते हैं विस्मय को, हम हर बारे में जानने लग जाते हैं । और उस बोझ के नीचे पड़ा-पड़ा विस्मय कराहता रहता है, हम बार बार किसी उत्तेजना में, किसी 'नए' अनुभव में जाने-अनजाने उसी विस्मय की मन:स्थिति को अनावृत्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं, जहाँ हमारी अपनी पहचान भी विलुप्त हो जाती है, और धीरे-धीरे वह विस्मित होना, लगभग ख़त्म हो जाता है । "
-वे कह रहे थे ।
बातें 'मुक्ति' और अद्वैत, ज्ञान और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म के दायरे को छूती हुई भी प्रत्यक्षत:उस बारे में नहीं हो रही थी । लोगों को 'सर' के बारे में जिज्ञासा थी और उसे एक सीमा तक जो शांत कर सकता था वह था यह खाकसार, आपका कौस्तुभ वाजपेयी, उर्फ़ 'मैं'। यादों की डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूँ ।
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~~~ मेरी डायरी से ~~~
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ट्रेन बहुत रुक-रूककर चल रही थी । लोग ऊँघ रहे थे । बहुत सी सीटें खाली पड़ी थीं ।
उस अखबार को मैं तीन बार पढ़ चुका था । ऐसा नहीं कि बोर हो रहा था । कारण बस इतना सा था कि नींद नहीं आ रही थी । शायद सफर में ज़्यादा चाय पी लेने की वज़ह से । बेचैनी भी अनुभव हो रही थी और यूँ ही अखबार के पन्ने पलट रहा था । आसपास के लोग इतने अलग तरह के थे कि किसी से बातचीत करना भी मुमकिन नहीं जान पड़ता था । शायद मुनासिब भी न होता । इसलिए उचटे हुए चित्त से अखबार के पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक जगह नज़रें टिक गईं । अनेक विज्ञापनों के बीच वह विज्ञापन ऐसा दबा-दबा सा था कि कि पूरे अखबार को दो-तीन बार छान लेने के बावजूद, नज़रों से ओझल ही रहा था । खिड़की से बाहर देखा तो धरती का रूखा सौन्दर्य भी एक अद्भुत विशेषता लिए दिखलाई दिया । लंबा-चौड़ा मैदानी इलाका, कहीं दूर इक्का-दुक्का कोई आदमी, या जानवर दिखलाई दे रहा था । आकाश में कभी कोई पक्षी और धरती पर बहुत बड़े क्षेत्र में बहुत कम छोटे-छोटे खजूर के पेड़ या झाड़ियाँ । बीच में खाली जगह जहाँ मौसम के अनुकूल होने पर खेती होती होगी । या बंजर जमीन । लेकिन कितनी सुंदर !बंजर भूमि का अपना एक सौन्दर्य होता है, लेकिन हम शायद उसे देख नहीं पाते । हमारा मन सौन्दर्य के तथाकथित आरोपित प्रतिमानों से इस कदर ठँसा रहता है कि ऐसा कुँवारा सौन्दर्य हमारी दृष्टि की पकड़ से बाहर ही रह जाता है । लेकिन अभी उचटे हुए चित्त में शायद कोई ऐसी खिड़की खुल आई थी कि मैं उस सौन्दर्य से अभिभूत था ।
वैसा ही यह इकलौता विज्ञापन था, जो मेरी नज़रों से अब तक बचता रहा था और अचानक किसी पल उनकी गिरफ्त में फँस गया था । आसपास के दूसरे विज्ञापनों के बीच दबा-सहमा शायद मुक्ति की प्रार्थना कर रहा हो मानों । कूट-भाषा में लिखे हुए एक संकेत-वाक्य की तरह छपा हुआ । इसे पढ़ते ही मुझे वह विज्ञापन याद हो आया जो दिल्ली के आसपास की सभी दिशाओं में रेलयात्रा करते समय बरबस आंखों पर आक्रमण करता रहता था / है ।
"-रिश्ते-ही-रिश्ते, इंग्लैण्ड,अमेरिका, यूरोप, ... मिलें, प्रोफ़ेसर अरोड़ा से, 54, रैगरपुरा, ... ... "
शायद आपने भी पढ़ा हो ! यहाँ स्थिति उल्टी थी । इस छोटे से विज्ञापन में सिर्फ़ एक पंक्ति थी, जो उस रैगरपुरा वाले विज्ञापन से मिलती-जुलती थी ।
"-एक बार मिल तो लें :
-राजेश ...!"
इससे मुझे अंग्रेज़ी अखबारों के वे विज्ञापन याद आए, जो 'personal' कॉलम में देखने को मिलते हैं । थैंक्स गिविंग के, ओबिट्युअरी के, श्रद्धांजलि के, या ऐसी ही कुछ अन्य, जिनमें विज्ञापनदाता के पूरे नाम-पते नहीं देखे जा सकते हैं लेकिन उनमें किसी को संबोधित तो किया हुआ होता है । यहाँ उसका कोई नाम नहीं दिखलाई दे रहा था । बस, कोई 'राजेश' था जो किसी से मिलना चाहता था । पर यह राजेश कौन है ? और इसने किसे यह निमंत्रण भेजा था ? और क्या वह उसे पत्र, फोन, या किसी अन्य माध्यम से उस तक संदेश नहीं भेज सकता था ? (उन दिनों मोबाइल कहाँ था, लैंड-लाइन के ही फोन होते थे, वे भी गिने-चुने, सरकारी या बहुत अधिक वी आई पी लोगों के पास ही होते थे ।) हालांकि यह तो साफ़ था कि यह नितांत व्यक्तिगत संदेश था ।
वैसे तो मैं अपनी बिटिया के लिए लड़का देख रहा था, और उसी सिलसिले में इस शहर में आया था, लेकिन उस विज्ञापन में ऐसा अटका, कि उत्सुकतावश सूट-केस क्लोक-रूम में रखवाया, और सीधे उस अखबार के कार्यालय जा पहुंचा जहाँ से प्रकाशित होकर यह अखबार मेरे शहर में भी आता था । क्योंकि मुझे लगा कि फ़िर न जाने कब यह मौक़ा हाथ आयेगा । उस विज्ञापन का रहस्य या सूत्र जानने का एकमात्र जरिया शायद यही था मेरे पास ।
पुराने जमाने के टेलीप्रिंटर पर ढेरों सामग्री आ रही थी । उसकी आवाज़ के अलावा कार्यालय एन लगभग शान्ति सी छाई थी । एक ओर के दरवाजे पर अंग्रेज़ी में 'ऑफिस' लिखा था, दूसरी ओर दूसरे दरवाजे पर हिन्दी में 'कार्यालय' भी लिखा था । ज़ाहिर है, दोनों तख्तियाँ एक ही बड़े हाल के दो दरवाजों पर लगीं थीं। और भी दरवाजे थी, उस हाल के, और मैं उन दोनों को पीछे छोड़कर तीसरे दरवाजे तक पहुँच गया।
जब इधर-उधर नज़रें डालीं, तो स्टूल पर बैठे एक अधेड़ से आदमी ने पूछा ; 'किससे काम है ?'
'भाई, आज के आपके अखबार में एक विज्ञापन छपा है, जो मुझे लगता है कि मेरे लिए है शायद । "
-मैंने साफ़ झूठ बोला, "उसे किसने प्रकाशित करवाया है, पता लगाना चाहता था । "
"इसके लिए आप सुबह आइये, कल ।''
''क्यों?"
"क्योंकि विज्ञापनों की सारी सामग्री राधेश्यामजी के पास रहती है, और वे ही उसका रिकार्ड रखते हैं । वे बाहर गए हैं, कल लौटेंगे । "
"और यदि मुझे कोई विज्ञापन देना हो तो ?"
"तो उनसे मिलिए,"
-उँगली से एक सज्जन की ओर इशारा कर उसने बतलाया ।
वे श्रीवास्तवजी थे । उनके पास पहुंचा और सीधे उस कटिंग को उनके सामने रखकर पूछा, :
"ज़रा जानकारी चाहिए थी । आज के आपके अखबार में मेरे मित्र का यह संदेश मुझे मिला है ज़रा जानकारी चाहिए थी । "
-मैंने आत्मविश्वासपूर्वक कहा ।
"बैठिये ।"
-वे बोले ।
"हाँ, आज के अखबार में ये विज्ञापन ज़रूर था, किन्हीं रेवाशंकर गर्ग ने दिया था,..."
- उन्होंने सामने रखी हुई ट्रे में से पिन किए हुए कागजों का पुलिंदा निकाला, और एक बिल पर निगाह दौडाते हुए पूछा,
"क्या जानकारी चाहिए आपको ?"
"उन्होंने कहा था की प्रेस से ही पता मालूम करना है । "
हाँ, तो नोट कीजिए, वे बोले,
" A-242, मधुवन, ... कॉलोनी, ... रोड,... । "
मुझे ख़याल नहीं था कि मेरा काम इतनी आसानी से हो जाएगा


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उन दिनों -38 >>>>>>>>>>>>

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December 08, 2009

नाद-ब्रह्म

~~~~~~~~~~~~नाद-ब्रह्म~~~~~~~~~~~~~~

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सृष्टि के 'प्रारंभ' से,
जिसे वे बिग-बैंग कहते हैं,
और उससे भी पहले से,
-उसके साथ-साथ, और उसके अनंत आवर्त्तनों के अंतराल में,
'सम्यकत्त्वेन आयाति / अयति वा,
'कल्यते कलयति वा,' - से परिभाषित किए जानेवाले -'समय' अथवा 'काल' से अस्पर्शित,
परमाणु के अन्तरिक्ष में भी व्याप्त विराट आकाश और तरंग-रश्मि !
अणु-अणु में,
कण-कण में,
चर-अचर में,
'प्रकारेण आनयति यत्तत्प्राण: ,
चेतयति चयति वा तच्चेतस '
से विभूषित,
चेतना और प्राणों के पारस्परिक नृत्य के स्पंदन में,
दिग-दिगंत की दूरियों और अपने ही उरांतर की अंतरंगता में,
-मुझमें और तुममें,
सबमें ओत-प्रोत,
सब तुममें ही तो ओत-प्रोत है !!
संगीत के सुरों में,
पायल की खनक में,
वेणु की कसक में,
तबले की गमक में,
झूलों की रमक में,
तारों की चमक में,
अश्रु-कणों और स्मित की ऊर्मियों में,
सागर में सरिता में,
दृश्य में, दृष्टा में,
और उनके दर्शन की लीला में,
हे नाद-ब्रह्म !
कहाँ नहीं हो तुम ?

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December 06, 2009

वक्त.

वक्त.
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कभी दोस्त, कभी दुश्मन, कभी दुनिया,
इश्क की राहों में रोड़े भी कई हैं ।

कभी अपने, तो कभी परायों के,
-और कभी किराए के,
सियासत की जंग में घोड़े भी कई हैं ।

कसमें, - कसमें थीं, वादे, -वादे थे,
निभाये हैं कुछ मगर तोड़े भी कई हैं ।

कतरा-कतरा करके ही सही,
दर्द दरिया ने भी जोड़े भी कई हैं ।

वक्त के कितने चेहरे ज़ाहिर हैं,
सच्चे -झूठे हैं, उसने ओढ़े भी कई हैं ।

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December 01, 2009

कविता - लौटते हुए !

लौटते हुए
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कितनी बार सोचा है,
कि अब तुम्हारे बारे में नहीं सोचूँगा,
लेकिन हवा का हर झोंका,
पेड़ों की लचकती शाखें,
फूलों के चटखते रंग,
बरबस खींच ले जाते हैं,
-तुम्हारी यादों में !
और मैं न जाने किस पल अचानक पाता हूँ,
कि मैं भटक गया हूँ,
-उन बीहड़ों में,
जो एक अजीब 'सुख' भी देते हैं !
लेकिन अब आदत हो रही है,
अब ख़याल रहता है,
कि कब कोई याद,
मन के किसी कोने में,
अचानक उभर आती है ।
जैसे उस फूल पर वह छोटी सी चंचल चिड़िया,
अचानक आती है,
अपनी लम्बी नुकीली चोंच से रस चूसकर 'फुर्र' हो जाती है,
(और शायद नहीं जानती कि फूल को कहीं कोई चोट तो नहीं पहुँची ।)
मैं भी गुज़र जाने देता हूँ,
-तुम्हारी यादों को,
अब, मैं नहीं जोड़ता, उन्हें किसी ख़याल से,
जैसे ड्राइंग-रूम में रखे,
मनी-प्लांट और केक्टस,
तुम्हारे जाने के बाद से,
धूल और उपेक्षा को झेल रहे हैं,
मकड़ियों के जालों से आच्छन्न हो रहे हैं,
पर सुखी हैं, क्योंकि अब भी शायद किसी कोने में आस लगाए हैं,
कि तुम आओगी किसी दिन ।
मैं जानता हूँ, कि अब तुम सिर्फ़ यादों में ही आओगी ।
लेकिन अब मैं नहीं जोड़ता,
तुम्हारी याद को,
किसी ख़याल से ।
अब नहीं भटकूँगा मैं उन बीहड़ों में,
बार-बार,
-अपने-आपको लहू-लुहान करता हुआ ।
लौट आता हूँ मैं बार-बार,
अपने अनकहे अकेलेपन में,
अपने खा-----ली----पन में ,
-क्योंकि अब रास आ रहा है वह मुझे !
हाँ, अपने-आपसे बदला लेने का 'सुख'
शायद ज़्यादा तल्ख़ है,
तुम्हारी यादों के झूठे 'सुखाभास' से !

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November 17, 2009

उन दिनों -36.

उन दिनों -36.
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मेरी डायरी से -
सचमुच, क्या मनुष्य को धर्म की ज़रूरत है ? ईश्वर की ज़रूरत है ? मनुष्य कौन ?
मेरे मन में प्रश्न उठा । मेरे सामने कई उदाहरण हैं । अविज्नान, नलिनी, नीलम, रवि, और 'सर' । इनमें से कोई भी ऐसा नहीं है, जो वास्तव में धर्म या ईश्वर या अध्यात्म के बारे में कोई चर्चा करता हो । क्या ये सब 'अधार्मिक' या 'नास्तिक' हैं ? क्या वे शास्त्रों और कर्म-काण्ड के विरोध में हैं ? नहीं, उनकी तो वे चर्चा या उल्लेख ही नहीं करते । हाँ, ठीक है, उन्होंने शास्त्रों और धर्म तथा उसकी परंपराओं आदि का काफी अध्ययन किया है, लेकिन वे उसकी बात क्यों नहीं करते ? नलिनी ने अवश्य ही एक नए सिरे से बात शुरू की है । उसने कहा है कि 'ज्ञान' तो काल से अछूता तत्त्व है, लेकिन इन्द्रिय-ज्ञान, अनुभूतिपरक-ज्ञान, 'जानकारी'-परक सारा 'ज्ञान' 'शब्द-गत' होता है, ... और वस्तुत: वह 'अज्ञान-' का ही एक ऐसा रूप है, जिसे हम पहचान ही नहीं पाते । 'कौतूहल' हमें 'जानकारी' के विस्तार में ले जाता है, और भले ही वह अनंत हो, वैसा 'ज्ञान' क्या सीमित ही नहीं होता ? जबकि 'विस्मय' की भूमिका में जिस 'ज्ञान' का उदघाटन होता है, वह असीमित, अज्ञात से अज्ञात में गतिशील चेतन-तत्त्व मात्र है , ... .... ।
हाँ, इसे मैं समझ सकता हूँ, लेकिन क्या धर्म-शास्त्र उसी की चर्चा नहीं करते ? फ़िर .........?!
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'लर्निंग'/'अनलर्निंग'
"क्या है यह, जिसके बारे में नलिनी कह रही है ?"
-नीलम ने पूछा ।
'सर' निर्विकार भाव से उनकी ओर देख रहे थे ।
नलिनी भी उत्सुकता से 'सर' के प्रत्युत्तर की प्रतीक्षा कर रही थी ।
"जब हम कुछ जानते हैं, तो जानने की इस गतिविधि में वस्तुत: क्या होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
अनंत धीरज हम सबका अभिन्न साथी था । कोई जल्दी नहीं, मन की आधी से अधिक चंचलता और वाचालता तो यह धीरज ही मिटा देता था । यह हमें किसी ने सिखाया हो, ऐसा नहीं था, यह हमारे बीच एक ऐसे मौन साथी के रूप में आकर कब शामिल हो गया था इस ओर कभी हमारा ध्यान तक नहीं गया था । शायद यह 'सर' की उपस्थिति का असर था, लेकिन मेरा संशयग्रस्त मन कहाँ ऐसी बातों पर विश्वास करता ?
"हमारा समस्त 'जानना' तीन में बँटा होता है, जैसे मैं इस शहर के बारे में 'जानता' हूँ, या लोगों के बारे में, साइंस या आर्ट के बारे में, भाषाओं आदि को, 'तकनीक' को, 'जानता' हूँ । यह 'जानना' इस प्रकार का 'ज्ञान' है, जो लगातार कम या अधिक होता रहता है, 'अभ्यास-गत' 'ज्ञान' को भी इसमें शामिल किया जा सकता है । जैसे - जैसे मेरी उम्र बढ़ती जा रही है, मैं कुछ बातें भूलने लगा हूँ । अब इस 'भूलने' में सभी तरह की बातें हैं । भौतिक-जानकारियाँ, लोगों, वस्तुओं, विभिन्न विषयों के प्रति मेरी मान्यताएँ , .... ... तात्पर्य यह कि सारा ज्ञान, जो 'स्मृति' से बँधा होता है, धीरे-धीरे खोता चला जा रहा है । और मुझे इसमें न तो कुछ अस्वाभाविक लगता है, न इससे कोई डर या अफ़सोस होता है । एक वक्त था, जब मुझे अपनी याददाश्त पर गर्व महसूस होता था । लेकिन फ़िर ऐसा भी एक दौर आया कि मैं अपनी याददाश्त को मिटा डालने के बारे में सोचने लगा था । उस दौरान मैं सचमुच बहुत पीड़ा और क्लेश से गुज़र रहा था । और फ़िर सचमुच मेरी याददाश्त चली गयी थी । कई दिनों तक मैं ऐसी मानसिक स्थिति में पड़ा रहा कि कह नहीं सकता । बहुत दिनों बाद मेरी याददाश्त लौट आई थी । उस बीच मैं सबकी नज़रों में 'पागल' कहलाता, लेकिन रौशनी की एक किरण के सूत्र ने मुझे इस तरह बाँधकर बचा लिया कि मैं धीर-धीरे लौट आया । हाँ, लेकिन मेरी याददाश्त का बहुत सा हिस्सा हमेशा के लिए मिट गया । "
-'सर' कह रहे थे ।
"आज सोचता हूँ, कि बहुत खुशकिस्मत था मैं, क्योंकि जीवन में सिर्फ़ 'लर्निंग' ही नहीं, 'अनलर्निंग' भी बहुत ज़रूरी है । हम सोचते हैं कि 'ज्ञान' को इकट्ठा करते चले जाना ही सर्वोपरि महत्त्व की चीज़ है, लेकिन जिन दिनों मैं अपनी याददाश्त खोने/मिटने के उस दौर से गुज़र रहा था, एक दूसरी भी महत्त्वपूर्ण बात जो घट रही थी, वह यह थी कि अनावश्यक चीज़ें खोतीं जा रहीं थीं । उदाहरण के लिए, यदि कभी रास्ते में चलते-चलते, स्कूल से आती अपनी बिटिया पर मेरी नज़र जाती, तो मुझे पहले पल यही लगता कि इस लड़की को कहीं देखा है मैंने, शायद जानता हूँ इसे मैं ! जब तक वह बहुत समीप नहीं आ जाती, तब तक यही अनुमान मेरे मन में मँडराता रहता । फ़िर अचानक याद आता, -अरे ! यह तो अपनी अपर्णा है !"
-वे कुछ खो से गए कहीं ।
"लेकिन मुझे हैरत यह देखकर होती थी कि मस्तिष्क के दूसरे कामों में मुझसे कभी कोई गलती नहीं होती थी, या उतनी ही गलतियाँ होतीं थीं, जो पहले भी सामान्य रूप से हुआ करती थीं । लोग मुझसे डरते थे । मेरी गंभीरता के आवरण के नीचे छिपी मेरी असहायता पर शायद ही किसी की नजर जाती होगी । और ऐसा अक्सर होता था, मैं न सिर्फ़ लोगों को भूलने लगा था, बल्कि कभी-कभी मैं जिस काम को करने के लिए निकलता, उसे ही भूल जाया करता था । मैं तमाम 'ज्ञान' को भूलने लगा था । "ईश्वर ?" -पहले यदि कोई कहता तो मैं घंटों उसके अस्तित्त्व के पक्ष और विपक्ष में ढेर सारी दलीलें दे सकता था, लेकिन इस स्थिति में आने के बाद तो मुझे पहला ख्याल यही आता था कि इस 'शब्द' को पहले भी शायद सुना है । वहाँ मैं सचमुच असहाय था । मेरा सारा 'ज्ञान' हवा हो चुका था । लेकिन, जैसा मैंने कहा, मैं खुशकिस्मत था कि कभी मेरी इस असहायता की पोल नहीं खुली । भीतर एक सुनसान था, बीहड़ था, जहाँ कोई पहचान बाकी नहीं रहती थी, शायद एक 'ब्लैक-होल' था, जहाँ जो दूसरी 'पहचानें' भूले-भटके कभी पहुँच भी जाती थीं, तो विलुप्त हो जाती थीं । "
उनके चेहरे पर एक स्थिरता , शान्ति थी ।
"फ़िर पता चला कि सचमुच यह 'अनलर्निंग' ही तो था, जो अनायास मुझ पर कृपालु हो उठा था । हाँ कुछ चीज़ें अवश्य ही ऐसी गिनाईं जा सकतीं हैं, जिनके बाद यह सब होने लगा था । लेकिन वे पूर्व-स्थितियाँ इस सब का 'कारण' रही होंगी, ऐसा मुझे नहीं लगता । "
-वे चुप हो गए ।
मैंने मन ही मन नलिनी को धन्यवाद दिया कि उसके बहाने 'सर' ने आज कुछ और रहस्य हमारे सामने खोले ।
एक अद्भुत यात्रा चल रही थी, जिसमें हम सब सहभागी थी, हमसफ़र थे, लेकिन हर कोई अपनी अलग ही एक यात्रा पर था। हाँ हम संवाद कर रहे थे, और हममें यही एक चीज़ थी जहाँ हमें लगता था कि जीवन कितना विस्मयप्रद है, -उस अनुभूति में भी हम सहभागी थे, साथ-साथ, पर अलग-अलग भी।
"Jointly, and severally !"
-मैंने डायरी में 'नोट' किया ।
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>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -37. >>>>>>>>>>>>>

November 15, 2009

उन दिनों -35.

उन दिनों -35.
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मेरी डायरी से :
नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत सुनते समय प्रकाश की जो कौंध मेरे मन-मस्तिष्क में स्फुरित हो उठी थी, उस कौंध में यद्यपि 'समय' नहीं था, लेकिन भूलवश हम उसे 'क्षण'-मात्र कह बैठते हैं। यही अज्ञान- का प्रारंभ है । उस प्रकाश में चूँकि 'समय' नहीं होता, इसलिए उसे हम शाश्वत, या काल से अविच्छिन्न अस्तित्त्व कहें तो ज़्यादा बेहतर होगा । और काल है, 'विचार' की गतिविधि । गतिविधि है 'समय' के अन्तर्गत । लेकिन जहाँ काल ठिठक गया है, वहाँ 'विचार' कैसा ? और 'स्मृति' कैसी ? कितनी हैरानी होती है यह सोचकर कि 'उस' काल से परे की स्थिति , और इस 'सोच' करनेवाले 'मन' के बीच कोई पुल नहीं है । वे दोनों एक दूसरे से नितांत अपरिचित हैं , जब एक होता है तो दूसरा नहीं होता । क्या इसका यही अर्थ नहीं हुआ कि वे दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ? प्रकाश सचमुच मुझे अपने में समा रहा था । नलिनी की कविता का एक-एक शब्द अर्थ की तरह मेरे भीतर गूँज रहा था । 'वृक्ष,पत्ता, चाँद, सूरज, धरती, आकाश, सब मैं ही तो हूँ । मैं कहाँ टूटता हूँ ? क्या सौन्दर्य, रूप, कभी टूटते हैं ? जो अपने-आप से टूटा है, वह कब किसी से जुड़ सका है ? '
यह अपने-आपसे टूटना कब होता है ?
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आज शुक्लाजी भी आए थे । चर्चा की शुरुआत करते हुए बोले,
"हम नलिनी की बातों के क्रम में ही आगे चर्चा करना चाहते हैं । नलिनी के प्रिय विषय हैं, 'विस्मय' और 'कौतूहल',
उसका कहना है कि उन पलों में जब हमें विस्मय और कौतूहल का फर्क पता नहीं होता, यदि हम कौतूहल की दिशा में आगे बढ़ जाते हैं, तो तमाम जानकारियाँ हासिल करने लग जाते हैं, तब हमारा 'ज्ञान' का घड़ा भरना शुरू ही होता है । हालाँकि उसमें भी बहुत रोमाँच और रस है, इससे इनकार नहीं, लेकिन तब हम उस दिशा में चले जाते हैं, जो कि विस्मय के विपरीत होती है ।"
"हाँ, रोचक है यह तथ्य !"
-'सर' बोले ।
और मुझे लग रहा था कि यह मेरी अपनी डायरी में लिखे शब्दों की ही अनुगूँज तो है, क्या उसी बिन्दु पर कोई अपने-आपसे 'टूटता' है ? क्या नलिनी का संकेत उसी ओर था ?
"क्या हमें पुन: उस बिन्दु तक लौटना ज़रूरी नहीं है, जहाँ से हम राह भटक गए थे ?"
-शुक्लाजी ने पूछा ।
"हाँ, ... ... क्यों कौस्तुभ ?"
'सर' ने अकस्मात् ही मुझे पकड़ लिया था । यही तो मेरी समस्या की जड़ था, जिसकी ओर मेरा ध्यान 'सर' ने पहले भी कई बार खींचा था । यदि मैं 'गुरु' कई भाषा में सोचता तो ज़रूर इस पर रहस्य का रंग चढाकर अपने-आपको और 'सर' को भी गौरवान्वित करने में लग जाता । लेकिन यहाँ ऐसा कुछ नहीं था । वे बैठे हुए थे मेरे पास ही, सोफे पर, और मैं उसी सोफे के दूसरे सिरे पर था । उस छोटे से सोफे पर हमारे बीच इतनी दूरी भी तो नहीं थी कि कोई तीसरा वहाँ बैठ सके ।
"हाँ, शायद !"
-मैंने कुछ हिचकते हुए जवाब दिया ।
"लेकिन कैसे ?"
-शुक्लाजी ने बहुत देर बाद पूछा था ।
'सर' इस बीच खिड़की से बाहर देखते रहे थे । मैं भी देख रहा था, डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद बने उस बँगले में अभी रौशनी नहीं थी । शाम का आलोक बाहर फ़ैल रहा था । एक अकेला सा बादल सूरज के प्रकाश में चमक रहा था । धीरे-धीरे आकार बदलता हुआ । पहले वह ऊँचाई में किसी पहाड़ी के सामने खड़े ताड़ के एक ऊँचे वृक्ष जैसा दिखाई दे रहा था, जिसकी ऊँचाई घटती , और चौड़ाई बढ़ती चली जा रही थी, और अब वह पहाड़ी से एकाकार हो चला था । पहाड़ी, जो सोने के बड़े ढेर सी चमक रही थी, धीरे-धीरे चपटी होने लगी थी, और अब तो वह समुद्र में उठती ऊँची लहर बन गयी थी । पहाड़ी के स्थान पर सागर लहरा रहा था, पिघले स्वर्ण जैसी जल-राशि के रूप में ।

>>>>>>>> "लर्निंग/अनलर्निंग >>>>>>>>>>
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November 14, 2009

शिव-मानस-पूजा-स्तोत्रं





शिवमानस पूजा स्तोत्रं


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रत्नै: कल्पितमासनं हिम-जलै: स्नानं च दिव्याम्बरं
नाना-रत्न-विभूषितं मृगमदामोदांकितं चन्दनं ।
जाती-चम्पक-बिल्व-पत्र-रचितं पुष्पं च धूपं तथा,

दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत-कल्पितं गृह्यताम् ..१..
सौवर्णे नव-रत्न-खंड-रचिते पात्रे घृतं पायसं,

भक्ष्यं पञ्च-विधं पयो-दधि-युतं रम्भाफलं पानकं ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूर- खंडोज्ज्वलं ,
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु !..२..
छत्रं चामरयो:युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं ,
वीणा-भेरि-मृदंग-काहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।
साष्ट-अंगं प्रणति: स्तुति: बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया,
संकल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ! ..३..
आत्मा त्वं गिरिजा मति: सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं ,
पूजा ते विषयोपभोग-रचना निद्रा समाधि-स्थिति: ।
संचार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्रानि सर्वागिरो ,
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनं ..४..
कर-चरण-कृतं वाक्कायजं कर्मजं वा,
श्रवण-नयनजं वा मानसं वापराधं ।
विहितमविहितं वा सर्वमेतत्-क्षमस्व ,
जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेव शम्भो ! ..५..

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II इति श्रीमत् शंकराचार्य-विरचिता शिव-मानस-पूजा समाप्ता II

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November 10, 2009

उन दिनों -34.

उन दिनों -34.

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मेरी डायरी से -

अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तव:... ... ...

और बाबा की याद आते ही गीता का यह श्लोक भी अचानक याद आया ।
"अच्छा, तो 'सर' और नलिनी 'इसी' 'ज्ञान' की बातें कर रहे थे,"
-मैं सोच रहा हूँ ।
और फ़िर जे कृष्णमूर्ति की बहुत प्रसिद्ध पुस्तक "ज्ञात से मुक्ति" के बारे में ख़याल आता है ।
यथार्थ-ज्ञान क्या है, इस विषय में नलिनी की बातें सुनकर कल जो प्रकाश मन-मस्तिष्क में कौंधा था, वह अब स्पष्ट हो रहा है ।
'ज्ञान' को 'पाने' की बात ही व्यर्थ है ।
'ज्ञान' तो पहले ही से है, उस पर अज्ञान-आवरण चढ़ जाता है , अत: 'अज्ञान'-निवारण होना आवश्यक है, ज्ञान का आविष्कार ही होता है,... ... ... !
एक और सन्दर्भ याद आता है, ईशावास्य उपनिषद से, :
"... ... ततो भूय इव ते तमो विद्यायां रता: ॥ "

***
सचमुच क्या 'ज्ञान' को पाने की दौड़ में हम यथार्थ-ज्ञान से दूर ही नहीं हो रहे हैं ? 'ज्ञान' हमें सुरक्षा देता है, -या सुरक्षा का आश्वासन, आशा । -लेकिन किससे ? 'किसे' ?

***
नलिनी ने जे कृष्णमूर्ति को भी पढ़ा था, श्री रमण महर्षि को भी, पातंजलि के योग-शास्त्र को भी, और श्री निसर्गदत्त महाराज को भी । लेकिन वह बिल्कुल 'एबीसी' से प्रारंभ करना चाहती थी । कोरी स्लेट लेकर आई थी । कविताएँ लिखती थी, और नीलम उसकी 'फैन' थी । शुक्लाजी तो उसके मुरीद थे । रवि चाहता था कि उसके अखबार में नलिनी की कुछ कविताएँ छपें, लेकिन वे कविताएँ नलिनी की 'व्यक्तिगत' वस्तुएँ थीं । -ऐसा नलिनी का कहना था ।
थीं तो वे 'प्रेम-कविताएँ' ही, लेकिन नलिनी का कहना था कि वे सिर्फ़ 'कविताएँ' हैं । 'काव्य' का उसका अपना कोई पैमाना था । और हो भी क्यों न ? क्या कोरी स्लेट पर लिखी कविताएँ अद्भुत नहीं होती होंगीं ? जैसा कि वह कहती भी थी, ये कविताएँ विस्मय से ही उपजी हैं, इनका भावुकता से कोई रिश्ता नहीं है, ये किसी को सुनाने के लिए हैं भी नहीं , जैसे जंगल में किसी पत्थर पर पास के वृक्ष से झरते फूल, आकाश से गिरती ओस की बूंदों से किया जानेवाला अभिषेक, और पक्षियों की चहचहाहट में गाया जानेवाला कोई मन्त्र, या स्तोत्र होता है । इसे हम समझ भी तो नहीं सकते ! मुझे पहले लगता था कि वे 'रहस्यवादी' होंगी, और कोई विद्वान् उनका तात्पर्य समझा सकेगा, लेकिन फ़िर समझ में आया कि वे वास्तव में उसकी निजी चीज़ें थीं ।
आज जब 'सर' ने उससे इस बारे में पूछा, तो उसने बताया ।
"एक सुना रही हूँ,"
-वह बोली ।
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'विस्मय' मेरा 'गुरु' था,
उसने मुझे 'मौन-दीक्षा' दी ।
उसने ही सिखाया कि मैं कुछ नहीं जानती ।
और यह कुछ न जानना ही,
'जानने' को 'जानना' है ,
-'जानने' का 'जानना' है,
-'जानना' ही अपने-आपको जानता है,
-लेकिन नि:शब्द ही !
'जानना' ही 'जानने' को 'जानता' है,
-लेकिन उसकी कोई 'स्मृति' नहीं बनती ।
तब 'मन' खंडित नहीं होता ।
-लेकिन 'अब' वह खंडित है ।
अपने-आप से टूटकर,
कब कोई जुड़ सका है,
-किसी से ?
जब देखती हूँ ,
पेड़ से गिरा कोई पत्ता,
अपना वज़ूद याद आता है ।
मैं टूटकर भी कहाँ टूटी ?
पूरा पेड़ है, मेरे जैसा,
पत्ता टूटने से पेड़ कहाँ टूटा ?
और पत्ता भी कहाँ टूटा ?
मेरा वज़ूद तो है अब भी साबुत ।
देखते नहीं तुम,
रात के अंधेरे में, ज्योत्स्ना की गोद में खिलता हुआ मुझको ?
सुबह के सूरज को,
मुझ पर धूप लुटाते ?
और धरती को उस पत्ते को ,
अपने आँचल में समेटते ?
-जो अभी-अभी पेड़ से झर कर गिरा है,
पीला, पूरा,
-अक्षुण्ण,
सौन्दर्य में, ताजगी में, रंग में ?
क्या वे सब कहीं टूटते हैं !
यदि तुम सोचते हो कि मैं पत्ता हूँ,
तो मैं ज़रूर एक पत्ता ही तो हूँ,
पर वृक्ष भी तो हूँ मैं,
-हवाएँ और रौशनी भी तो हूँ मैं, सूरज, धरती, चन्दा, और आकाश भी तो हूँ मैं !
-मैं नहीं टूटती !
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'सर' विस्मय से उसकी कविता को सुनते रहे । और हम भी । सचमुच इसमें समझने-समझाने के लिए न तो कुछ था, न ज़रूरत ही थी ।
"इसे शीर्षक नहीं दिया ?"
-रवि ने पूछ ही तो लिया ।
उत्तर में बस उसने हौले से सर हिलाकर 'नहीं' का संकेत दिया ।
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November 09, 2009

उन दिनों - 33.

उन दिनों -33.

आश्चर्य-वत् पश्यति कश्चिदेनं ...


मेरी डायरी से :
सचमुच, 'सर', अविज्नान, नलिनी, नीलम और रवि से भी अभिभूत हूँ । 'सर' कहते हैं कि कार्य-कारण-नियम तो अपने को समझाने का एक तरीका है, लेकिन अगर ऐसा ही है तो सब कुछ संयोग ही है क्या ? क्या किसी भी 'घटना' की व्याख्या संभव नहीं है ? हम अपने 'ज्ञात' कारणों के आधार पर किसी 'घटना' या अभिक्रम (phenomenon) को समझने-समझाने की कोशिश करते हैं, और 'ज्ञात' से ही कुछ सूत्र खोजकर, उन्हें आपस में जोड़कर 'घटना' का कोई मानसिक चित्र बना लेते हैं । वह चित्र 'घटना' का यथार्थ प्रतिबिम्ब तक नहीं होता, लेकिन हम ऐसी ही असंख्य 'घटनाओं' की समग्रता में 'अपना' एक 'व्यक्तित्व' गढ़ लेते हैं, जो 'स्मृति' रूपी संग्रह में सत्य जान पङता है , जबकि स्मृति स्वयं ही एक संग्रह-मात्र होती है।
'जानने' को 'ज्ञान' मान बैठना कितनी असाधारण भूल है, गफलत ही तो है न ! फ़िर 'जानने' का यथार्थ तत्व, क्या है ? नीलम के उदाहरण से एक रौशनी सी कौंधी थी मन-मस्तिष्क में ।
आज की चर्चा सुनते-सुनते वे दिन याद हो आए जब बाबा गीता पढ़ते हुए ,
"आश्चर्य-वत्-पश्यति-कश्चिदेनं..."
इस श्लोक को कहते हुए उत्साहपूर्वक मुझे इसका अर्थ समझाने लगते थे ।
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"मैं यह सोच रही थी कि ज्ञान की तीन भूमिकाएँ होती हैं । "
नलिनी ने चर्चा की शुरुआत की ।
"प्रथम तो वह, जो किसी भी 'जीव' में जन्मजात ही 'होता' है । क्या 'देह' को रचने के लिए आवश्यक 'ज्ञान' देह के ही मूल-कणों ( cells) , जैव-कोशों में ही नहीं छिपा होता ? क्या 'सेल्स' या जैव-कोशों का अपना ही एक 'कोडेड' 'प्रोग्राम' पहले से ही उनमें नहीं छिपा होता ? क्या वह 'ज्ञान' ही नहीं है ?
अभी मैं उस बारे में विस्तार से नहीं कहना चाहती , अभी तो मैं उन दो भूमिकाओं के बारे में चर्चा करना चाहती हूँ, जिसे सामान्यत: हम 'ज्ञान' का नाम देते हैं ।
एक तो होता है 'विस्मय' से जुड़ा ज्ञान । जैसा कि हर बच्चे में जन्मजात होता है । उसे 'मैं' और 'पर' का भी आभास तक नहीं होता, जब वह इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित ही हो रहा होता है । वह नहीं जानता कि उसकी इन्द्रिय-संवेदनाएँ देह के भीतर तक ही सीमित हैं । जब उसे चोट लगतीहै, तो ही उसे 'मैं' और 'पर' की भिन्नता का अहसास होने लगता है , उससे पहले उसकी 'चेतना' इन्द्रिय-ज्ञान की सीमितताओं से अपरिबद्ध और अपरिचित होती है । क्या तब वह 'ज्ञान-शून्य' होता है ? यदि शब्दों और उनकी स्मृति को ही ज्ञान कहें तो वह उस दृष्टि से अवश्य ही ज्ञानशून्य होता है, और हम उसे 'अबोध' भी कहते हैं , लेकिन वह अबोध होना भी कितना अद्भुत और पावन है !
क्या हम इसी लिए कृष्ण और राम के बाल-रूप से अभिभूत नहीं होते ? क्योंकि तब थोड़ी देर के लिए ही सही, हम तथाकथित ज्ञान के कलुष से ऊपर उठ जाते हैं न !
ज़ाहिर है कि वह भी वास्तविक 'ज्ञान' की ही, -सहज 'ज्ञान' की ही एक अवस्था है ।
फ़िर इन्द्रिय-संवेदनाओं से परिचित होने के बाद, 'मैं' के रूप में 'अपने' एक 'देह-विशेष' होने के 'ज्ञान' के संचित और दृढ़ होने के बाद 'मेरी स्मृति' का जन्म और विस्तार होता है । उसका विकास भी होता है कि नहीं, इस पर मुझे थोड़ा शक है ।
उस अवस्था में बाल-मन 'ज्ञान'की जिस भूमिका में होता है, वहाँ विस्मय का तत्त्व प्रधान होता है । 'स्मृति' का उपद्रव शुरू होने के बाद विस्मय 'कौतूहल' में बदल जाता है । तब मन 'जानकारी' एकत्र करने में उत्सुक हो जाता है । हालाँकि उस ज्ञान की उपयोगिता पर संदेह नहीं किया जा सकता, लेकिन विस्मय की भूमिका में हम जिस ज्ञान में 'स्थित' होते हैं, उस ज्ञान की तुलना में 'स्मृति' से जुडा ज्ञान अवश्य ही 'अज्ञान' ही अधिक होता है । तमाम लौकिक ज्ञान वही है । कौतूहल में मनुष्य 'मैं' और 'मेरा संसार' इन दो सन्दर्भों में 'जानकारी' एकत्र करता रहता है, जबकि 'विस्मय' में उसे न तो संसार का और न स्वयं काही बोध रह जाता है । वह 'प्रकृति' है। ऐसा हम अभी कह रहे हैं । लेकिन क्या वहाँ 'भान' समाप्त हो जाता है ? स्पष्ट है कि वहाँ 'ज्ञान' का ऐसा प्रकार अवश्य है,जिसमें 'मैं' और 'पर' का द्वैत, उनकी भिन्नता का विचार नहीं होता, कल्पना तक नहीं होती ।
फ़िर जीवन में हम लगभग प्रतिदिन ही बार-बार ऐसे क्षणों से रूबरू होते रहते हैं, जिसे 'विस्मय' कहा जाता है, लेकिन विस्मय के कौतूहल में बदलते-बदलते हम उलझते चले जाते हैं ।"
नलिनी ने अपनी बात समाप्त की ।
"अच्छा, 'विस्मय' और 'कौतूहल' के अन्तर के बावजूद, 'जानने' का तत्त्व क्या यथावत ही अक्षुण्ण ही नहीं है ?
क्या वह तत्त्व 'किसी' का होता है ?"
-'सर' ने प्रश्न किया ।
"याने आप इस 'हम' के अस्तित्त्व पर कुछ कहना चाहते हैं ?"
-नलिनी ने पूछा ।
"अवश्य, "
-'सर' बोले ।
"क्या है यह 'हम' ?"
"यह कौतूहल है या विस्मय ?"
-रवि ने मुस्कुराते हुए पूछ ही तो लिया ।
"हाँ, इसे भी इस कसौटी पर कस कर देखो ।
-'सर' ने अविचलित भाव से उसका उत्तर दिया ।
"यह जो 'जाननेवाला' है, उसके यथार्थ तत्व के प्रति हमारा ध्यान जब जाता है, तो वह कौतूहल भी हो सकता ही, और विस्मय भी । यदि वह कौतूहल-मात्र है, तो हम शास्त्रों को पढ़कर भी उस कौतूहल का समाधान शायद पा सकते हैं , -या फ़िर सारे जीवन भर तमाम शास्त्रों को खंगालते रहकर भी भटकते रह सकते हैं, -अनिश्चित, असमंजस और अविश्वासयुक्त । और अगर यह वाकई विस्मय है, तो हम चित्त की उस भाव-भूमि पर ठहर सकते हैं , जिसकी बात नलिनी कह रही है । क्यों नलिनी ?"
-'सर' ने नलिनी से पूछा ।
नलिनी गदगद हो उठी । उसने प्रत्युत्तर में एक नज़र 'सर' को देखा और तत्काल ही आँखें बंद कर लीं ।
"क्या यह भावुकता थी ?"
-मैं सोच रहा था ।

>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -34. >>>>>>>>>>>>>>>>

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं ..., जे कृष्णमूर्ति (ज्ञात से मुक्ति)>>>>>>>>>>>>
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November 05, 2009

शाम सजीली (बाल-कविता/गीत) poetry.

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___________शाम सजीली __________________
-------------(बाल-गीत/कविता)--------------------
शाम सजीली,
घिर आई है,
सूरज डूबा,
हुआ अँधेरा,
चिड़ियों को याद,
आया बसेरा,
जा बैठी हैं,
-वे पेड़ों पर,
सुन लो उनकी,
चह-चह,
चह-चह,
चह-चह, चह-चह, चह-चह,
-चह-चह,
चह-चह,
ऊगे तारे,
कितने सारे,
नभ पर छाये,
-झिल-मिल,झिल-मिल,झिल-मिल,झिल-मिल,
झिल-मिल,झिल-मिल ।
आओ लौटें,
अब अपने घर,
दीप जलायें,
टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,
टिम-टिम,टिम-टिम,टिम-टिम,
हुआ उजाला
फैला घर में,
आओ भगाएँ अँधियारे को,
हम सब,
हिल-मिल ।
हिल-मिल,
हिल-मिल,हिल-मिल,... ... ...
नन्हा दीपक जैसे जलता,
दूर भगाता,
-अँधियारे को,
-तिल-तिल.तिल-तिल,तिल-तिल,तिल-तिल,
तिल-तिल... ... ...
बाहर देखो,
तारे खिलते,
चन्दा खिलता,
खिली चाँदनी,
-खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,
खिल-खिल,खिल-खिल ।

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भोर सुहानी (बाल-कविता/गीत)

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___________भोर सुहानी !!___________

_________( बाल - कविता / गीत) _____
भोर सुहानी !!
सू-ऊ-र-ज ऊगा !!
हुआ सवेरा,
चिड़ियों ने ,
छोड़ा बसेरा,
छेड़ा तराना,
चह-चह,चह-चह,चह-चह,चह-चह,
चह-चह,चह-चह,
-चह,चह-चह,
भोर सुहानी,
नई कहानी,
कहें-सुनाएँ,
नाचें गाएँ,
हिल-मिल,हिल-मिल,हिल-मिल-हिल-मिल,
-हिल-मिल,मिल-मिल,
खेलें-कूदें,
धूम मचाएँ,
-खिल-खिल, खिल-खिल,खिल-खिल,खिल-खिल,
किल-किल, किल-किल, किल-किल-किल-किल.
भोर सुहानी !!

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October 31, 2009

पार्टी-टाईम (कविता)

पार्टी-टाईम ...
(कविता)
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उस पार्टी में,
बच्चे,
उल्लास ढूँढ रहे थे,
उन्हें मिल गया था,
युवा,
उत्तेजनाएँ ढूँढ रहे थे,
उन्हें मिल रहीं थी,
पिता,
नहीं जानते थे कि वे क्या तलाश रहे थे,
वे,
अन्यमनस्क से,
कोशिश कर रहे थे,
एक 'सोशल फंक्शन' में,
प्रसन्न दिखने की,

और पार्टी की व्यवस्था करने में संलग्न माँ,
तल्लीन थी,
-खुश और मगन,
पुलकित और प्रसन्न,
कर रही थी इंतज़ार अतिथियों का,
बाँट रही थी दुलार सबको,
हलाँकि 'सुख' को वहाँ निमंत्रित नहीं किया गया था,
(उसे कोई कहाँ ढूँढ रहा था !?)
लेकिन वह बिन बुलाए ही वहाँ चला आया था,
अनायास,
सौन्दर्य का हाथ थामकर,
मुस्कुरा रहा था,
माँ की आँखों में,
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त्वरित टिप्पणी -१/ (कविता)

त्वरित टिप्पणी -

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"इस दश्त में इक शहर था,... ... "
आज का अखबार,
रोज़ की तरह ,
'नया' है,
-ताज़ा !
बस 'बासी होने की 'प्रक्रिया' में है,
हो जाएगा थोड़ी देर में,
-'बासी',
आँगन में झर रहे हरसिंगार के फूलों की तरह,
-जैसे कि रोज़ हो जाया करता है ।
कल भी हुआ था,
-जब 'गुलाबी नगरी' में हुए,
'इंडियन ऑइल डिपो' के टैंकों में फूट पड़ी चिंगारी से उठी लपटों ने,
लील ली थीं कई जिंदगियाँ,
और कईको छोड़ दिया था,
अंधेरी ज़िंदगी जीने के लिए ।
याद आती है तीन-चार दिसंबर '८४
(पिछली सदी?)
की वह ठिठुरती सुबह,
जब ऐसी ही एक घटना भोपाल में हुई थी,
और हजारों जिंदगियाँ, ख़त्म हो गईं थीं ।
भोपाल भी एक खूबसूरत शहर है / था ।
क्योंकि हर शहर होता है खूबसूरत,
-
जब तक उसे कोई दूसरा 'दश्त',
चाहे कंक्रीट, गरीबी, या असंवेदनशीलता का ही क्यों न हो,
-ढँक नहीं लेता ।
कभी-कभी तो ज़हर या ज़हरीले धुएँ का !
और ज़हरीला धुआँ राजनीति की तरह,
हावी हो जाता है,
हवा में मौजूद,
'ऑक्सीजन' पर !
मैं नहीं कहता कि यह ग़लत है,
-या सही है,
यह तो बस एक 'त्वरित-टिप्पणी' है,
आज के अखबार पर,
आँगन में झर रहे हरसिंगार के फूलों पर,
एक तुच्छ, महत्वहीन टिप्पणी मात्र है यह !

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October 30, 2009

उन दिनों -32.


उन दिनों -32.
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पड़ौस के घर में एक गीत बज रहा था,
"बात निकलेगी तो फ़िर दूर तलक जायेगी ... ... "
यहाँ भी कुछ ऐसा ही लग रहा था । हमारे सामने कई मुद्दे थे :
'ईश्वर, जानना-इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान, ... ...', अभी एन्लाइटेन्मेंट एक दूर की कल्पना था । एक 'विचार'-मात्र, और अभी तक तो मुझे ख़याल तक नहीं था कि 'ज्ञान' का स्वरूप मूलत: क्या है, इसे ठीक से समझे बिना ही ईश्वर या आत्मा, सत्य या 'ब्रह्म' जैसी चीज़ों के बारे में लंबे-चौड़ी बातें करते रहना अपने-आपको धोखा देना नहीं तो और क्या है !
लेकिन नलिनी और 'सर' के बीच की बातचीत ने मेरी इस लापरवाही की ओर मेरा ध्यान दिलाया कि अभी मुझे यही समझ में नहीं आया था, कि 'जानना' अपने-आपमें क्या होता है ?
सचमुच यह मेरे लिए एक ब्रेक-थ्रू ही था, और मैं अब तक जिसे 'ज्ञान' समझता (मानता) चला आया था, वह वास्तव में मेरा घोर अज्ञान- नहीं तो और क्या था, इस ओर मेरा ध्यान जीवन में पहली बार गया । जानने और समझने के बीच के गहरे भेद पर मेरी नज़र गयी ।
"मैं कुछ कहना चाहूंगी,"
-नीलम ने कुछ कहना चाहा ।
"मुझे यह समझ में आया कि जैसे प्रकाश में सात रंग होते हैं, लेकिन कोई भी रंग प्रकाश की उपस्थिति में ही व्यक्त हो उठता है, और प्रकाश का अपना कोई रंग होता हो, ऐसा कहना भूल है, वैसे ही, 'ज्ञान' या शुद्ध 'जानना', जो इन्द्रिय-ज्ञान,वैचारिक-ज्ञान, शब्दगत-ज्ञान, अभ्यासगत-ज्ञान, अनुभवगत-ज्ञान, और स्मृति-परक तथा बौद्धिक-ज्ञान आदि के रूप में व्यक्त होता है, वस्तुत: वैसा 'ज्ञान' या 'जानना' न होकर उससे बिल्कुल अलग कुछ है । "
'सर' प्रशंसात्मक दृष्टि से कौतूहलपूर्वक नीलम को देखने लगे ।
"तो क्या पहले यह समझना ज़रूरी नहीं है कि शुद्ध 'जानना' अपने-आपमें क्या या किस तरह की चीज़ है?
-शायद यही कहना चाहेंगे आप, है न ?"
-उसने 'सर' से पूछा ।
"हाँ ।"
अविज्नान भी अब नीलम को देख रहा था । शायद तय न कर पा रहा हो कि नलिनी और नीलम में से कौन अधिक प्रतिभाशाली है !
"क्या हम इस चर्चा में 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' के बारे में भी कुछ विचार कर सकते हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"क्या तथाकथित 'अतीन्द्रिय-ज्ञान' भी हमारी स्वप्न, जाग्रति की दशाओं में हमें होनेवाले 'ज्ञान' से किसी तरह से अलग किस्म का ज्ञान होता है ?"
-मैंने पूछा ।
'सर' ने थोड़ा विस्मयपूर्वक मेरी ओर देखा । शायद उन्हें इस चर्चा में शामिल होने-मात्र के लिए पूछ गया यह प्रश्न अनुचित लगा होगा , लेकिन वे बोले कुछ नहीं । अविज्नान भी मुझे देखने लगा था, किंतु उसके चेहरे पर निर्लिप्तता का भाव था ।
''नीलम ने एक उदाहरण दिया, -रंगों और प्रकाश का, बहुर सटीक उदाहरण था, लेकिन यह भी देखना होगा कि हम 'जानने' को 'जानना-समझना' चाहते हैं, या हमारी रूचि 'ज्ञान' के स्वरूप के बारे में कोई बौद्धिक निष्कर्ष या 'सिद्धांत' बनाने तक ही सीमित है ! क्योंकि वैसा सिद्धांत भी पुन: 'जानकारी'-मात्र होगा, जो हमें और अधिक विमूढ़ करेगा, न कि प्रबुद्ध"
-'सर' बोले ।
"सोचनेवाली बात या देखनेवाली बात यह है कि क्या नि:शब्द 'जानना' जैसी कोई चीज़ होती है ?"
'सर' ने इशारा किया ।
"हाँ ।"
-करीब पाँच मिनट तक चुप रहने के बाद नीलम बोली । बाकी सब अब भी चुप ही थे ।
शाम बीत चुकी थी ,'सर' दूर खिड़की से बाहर डी आर पी लाइन के अंग्रेजों के बाद के बने उस बंगले की ओर देख रहे थे, जहाँ छत से लटकते तार पर शायद सौ वाट का एक बल्ब मटमैली रौशनी फेंक रहा था । नीचे की खिड़की में अभी अँधेरा था । यहाँ से यह अनुमान लगाना मुश्किल था कि वह बँगला दो-मंजिला था या एक-मंजिला रहा होगा

यह सचमुच एक रहस्य है, कि हम 'ज्ञान' के स्वरूप पर कभी भूलकर भी नहीं सोचते। यदि कोई उस ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करता भी है, तो हमें या तो वह बात समझ में ही नहीं आती, व्यर्थ की सनक या बौद्धिक शगल लगती है, या फ़िर महत्वहीन लगती है । कभी किसी 'प्रतिष्ठित' व्यक्ति के मुख से सुनने पर ही हमें ख़याल आ सकता है कि इस तरह से तो कभी हम देखते ही कहाँ हैं !
नलिनी ने यही पूछा था :
"मुझे लगता है कि 'ज्ञान' के स्वरूप पर विमर्श करते हुए नीलम की बात को हम 'सन्दर्भ-बिन्दु' के रूप में ले सकते हैं । "
-उसने कहा ।
"हाँ, अवश्य । "
-'सर' बोले ।
"लेकिन इन सारे भिन्न-भिन्न प्रकारों के ज्ञान या 'ज्ञानों' के बीच 'आत्म-ज्ञान' को कहाँ स्थान मिलेगा ?"
-नलिनी ने प्रश्न उठाया ।
"जैसा कि नीलम ने प्रकाश तथा रंगों का उदाहरण दिया, और हम समझ रहे हैं कि प्रकाश तथा रंग दो विजातीय चीज़ें हैं, और रंगों को प्रकट होने के लिए प्रकाश की उपस्थिति अनिवार्य होती है, जबकि प्रकाश रंगों से भिन्न 'स्वतंत्र' तत्त्व होता है -वैसे ही, क्या नि:शब्द-ज्ञान ही वह आधार-भूमि नहीं होता जिसमें अन्य सारे अनेक प्रकार के 'ज्ञान' 'प्रकट' और विलुप्त होते रहते हैं ? "
-'सर' ने प्रश्न किया ।
थोड़ी देर तक हम पुन: शान्ति से अगले वक्तव्य की प्रतीक्षा करते रहे ।
"हमारा समस्त ज्ञान उस प्रकार का होता है, जिसे हम एकत्र कर सकते हैं, खो या भूल सकते है । वह हमारा 'संग्रह' होता है , क्या उसे हम यथार्थ 'ज्ञान' कह सकते हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
पुन: कुछ समय तक सन्नाटा छाया रहा ।
"यदि उसे 'ज्ञान' कहें तो वह समस्त ज्ञान क्या विषयपरक (objective) ही नहीं होता ?"
"हाँ, इस दृष्टि से देखें तो यह भी प्रश्न उठता है कि यथार्थ 'ज्ञान' तो होता ही नहीं, या फ़िर 'स्व-परक', अर्थात् 'subjective' हो सकता है । "
-नलिनी उवाच ।
"फ़िर हम उस 'ज्ञान' के स्वरूप को, यथार्थ को, तत्त्व को, कैसे जान सकेंगे ?"
-'सर' ने पूछा ।
"उसे किसी भी 'विधि', तरीके, 'अभ्यास' या 'प्रयास' से कैसे जाना जा सकेगा ? क्या 'विधि', 'तरीका', 'अभ्यास' या 'प्रयास' ये सभी, 'स्व' तथा 'विषय', ('subject' and 'object') के परस्पर भिन्न होने की ही स्थिति में नहीं हुआ करते ? लेकिन उस यथार्थ ज्ञान का स्वरूप या तत्त्व ही ऐसा है कि उसे न तो 'संगृहीत' किया जा सकता है, न पाया जा सकता है, और न (प्रचलित अर्थ में) किसी को दिया ही जा सकता है । "
-
नलिनी ने आगे कहा ।
"-क्या इसका मतलब यह हुआ कि 'स्व' के स्वरूप को जानना,तथा 'ज्ञान' के स्वरूप को जानना वास्तव में एकमेव हैं ?"
-नीलम ने पूछा ।
"हाँ, मुझे तो ऐसा कहना बिल्कुल ठीक लगता है ।"
-'सर' ने उसकी पुष्टि करते हुए कहा ।
"लेकिन क्या यह सारी चर्चा उस तत्त्व को प्रत्यक्ष करने में सहायक नहीं है ?"
"हाँ ।"
-'सर' बोले ।
हम बहुत दूर निकल आए थे ।
पडौस में डेढ़ घंटे की शान्ति के बाद पुन: वही गीत बज रहा था :
"बात निकलेगी तो, फ़िर दू - - - - - - - - - - - - - - - - र तलक जायेगी । "

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>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -33. >>>> >>>>>>>

October 27, 2009

मृत्यु-कामना . (कविता)

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ मृत्यु-कामना ~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ कविता ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ( Death-Wish) ~~~~~~~~~~~~~~~~

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जैसे,
आदमी,
एक लंबे समय तक जीते रहने की इच्छा रखते हुए ,
-जीते रहने के बाद,
ऊब जाता है,
और चाहने लगता है,
मर जाना,
-किसी दिन,
किसी दिन,
- मर जाने की इच्छा करने लगता है,
दूसरी तमाम इच्छाओं की तरह,
उसकी यह इच्छा भी ,
या तो पूरी हो जाती है,
या बस कमजोरी या ताकत के साथ जीती रहती है ।
लेकिन तब हादसों का एक दौर शुरू होता है,
जब आदमी,
न तो जी रहा होता है,
न मर ही रहा होता है,
एक 'एनिमेटेड-कन्टीन्यूटी' में उम्र गुजारता हुआ ।
और यह दौर तब तक जारी रहता है,
जब तक कि वह 'इस' या 'उस' पार नहीं पहुँच जाता,
'एनिमेटेड-सस्पेंशन' से छूटकर ।
इस बीच उसे भ्रम होता रहता है कि वह ज़िंदा है,
-और कभी-कभी,
यह भी,
कि वह वाकई 'मर' चुका है ।
लेकिन कोई बिरला ऐसा भी तो होता होगा,
कि मृत्यु से पहले ही,
उसकी यह इच्छा दम तोड़ चुकी होती है,
-घूमता रहता है वह,
आकाश में,
किसी बादल सा,
कभी गरज़ता हुआ,
कभी बरसता हुआ,
कभी टूटता हुआ या जुड़ता हुआ,
-दूसरों से,
कभी सूरज को ढँकता हुआ,
कभी चन्दा को चूमता हुआ !
सब तरफ़ होकर भी,
सबसे जुदा !

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October 21, 2009

उन दिनों -31.


उन दिनों -31.

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"क्या यह निष्कर्ष था ?"
-मैं सोच रहा था ।
"नहीं, तब मन शाँत था, विचारों की गति और फ्रीक्वेंसी (बारम्बारता) लगभग शून्य थी ।"
मैं और मेरा 'स्व' बातें कर रहे थे ।
क्या मेरा 'स्व' मेरे 'मैं' से अलग कुछ है ?
"नहीं, मैं कुछ नहीं सोचूँगा,"
मैंने अपने-आप से कहा ।
लेकिन विचारों के घोड़े सरपट भागते ही जा रहे थे ।
सचमुच, जब विचार-शून्य होता है, तो कितना अच्छा लगता है ! लेकिन ऐसा तो कोई विचारों का दौर शुरू होने से पहले, जब मन विचार-शून्य होता है, तब कहाँ कह पाता है ?
सोचता हूँ कि 'सर' 'एन्लाईटैंड' हैं, इसका क्या मतलब है ?
मैं सचमुच महसूसने लगता हूँ, कि उन्हीं से पूछूँगा । लेकिन वे तो कभी दावा तक नहीं करते हैं । और शायद ही उनके मुँह से कभी इस शब्द का उच्चार सुना हो मैंने ।
फ़िर कौन कहता है ?
हाँ, रवि कहता है, और अविज्नान भी ।
और अविज्नान?
क्या वह भी है 'एन्लाईटैंड' ?
नहीं, मुझे इन बातों में नहीं पड़ना है ।
मैं उठकर किसी काम में मन लगाने की कोशिश करता हूँ ।
दो-तीन दिन इसी ऊहा-पोह में गुजर जाते हैं । तीसरे दिन नलिनी का आगमन होता है, आज वह दोपहर तीन बजे ही आ गयी थी । तब हम सो रहे थे । 'सर' शायद उनके कमरे में ऊपर ही थे अभी । रवि कहीं गया था, अविज्नान भी आराम कर रहा था ।
'अंकल, नमस्कार ! आज मुझे कुछ काम था तो नीलम के साथ बाज़ार गयी थी, वहाँ से तय हुआ कि आपके यहाँ आयेंगे । "
-वह बेतकल्लुफी से बोली ।
नीलम और नलिनी, दोनों का नाम अचानक याद हो आया । नीलम नलिनी से बहुत अलग तरह की लडकी थी । घरेलू किस्म की । नलिनी गंभीर थी, तो नीलम चंचल थी । हम बैठक में बातें कर ही रहे थे कि सीढियों से उतर रहे 'सर' ने हमें देखा ।
वे दोनों उठ खड़ी हुईं । 'सर' के और फ़िर मेरे भी चरण छुए, और दोनों खुसुर-फुसुर करते हुए किचन में चली गईं । 'बाई' का आगमन हुआ और रवि भी आ गया था ।
"हाय,"
नीलम और रवि के बीच औपचारिकता का संवाद हुआ । फ़िर सब बैठ गए।
'बाई' कुछ सामान तश्तरियों में रख गयी थी । चाय बना रही थी । थोड़ी ही देर में अविज्नान भी अपने कमरे से बाहर आया ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी,"
- नलिनी ने शुरुआत की ।
फ़िर वह चुप हो गयी।
सचमुच इस सभा की सूत्रधार वही थी, ऐसा लग रहा था । चाय पान का दौर हुआ । चाय पान का दौर संपन्न भी हुआ ।
"ऑब्जेक्टिव एंड सब्जेक्टिव रियलिटी," -
इस बार नीलम ने दोहराया । शायद उसे डर था कि कहीं चर्चा इधर-उधर न भटक जाए ।
"सर, आप कह रहे थे कि 'ऑब्जेक्टिव' तथा 'सब्जेक्टिव' रियलिटीज़ दो परस्पर स्वतंत्र सत्ताएँ नहीं हैं ।
हम ईश्वर के बारे में खोज करते हुए यहाँ तक पहुंचे थे । क्या 'ऑब्जेक्टिव रियलिटी' और 'सब्जेक्टिव रियलिटी' को थोड़ा विस्तार से समझायेंगे ?
नलिनी ने नीलम के सूत्र को आगे बढाया ।
'सर' हमेशा थोड़ा रुककर फ़िर बोलते थे ।
इस समय भी वे शांतिपूर्वक इधर-उधर देख रहे थे । जैसे कमरे में आती- जाती रहनेवाली गौरय्या इधर-उधर देखती है, फ़िर किसी स्थान पर जाकर ठहर जाती है, यहाँ दो गौरय्याएँ थीं । नहीं, मैं नीलम या नलिनी की बात नहीं कर रहा, मैं कह रहा हूँ 'सर' के उपनेत्र (चश्मे) के पीछे से झाँकती दो काली भूरी, जलीय आँखों की दृष्टि की । दोनों का साथ-साथ कमरे में इधर-उधर उड़ान भरना, और फ़िर कहीं ठहर जाना ।
फ़िर वे पल भर के लिए मेरे चेहरे पर रुकीं, अगले ही पल अविज्नान, रवि और बाई के चेहरों पर से फिसलती-फिसलती नलिनी के चेहरे पर ठहर गईं ।
"हमारे स्कूलों में जिसे 'सब्जेक्ट' कहते हैं, उसे हिन्दी में 'विषय' कहा जाता है । वह वास्तव में 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' है । फ़िर, 'जो' विषय का अध्ययन करता है, उसे 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' कहेंगे । 'ऑब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में विज्ञान में अध्ययन होता है । 'सब्जेक्टिव-रियलिटी' के बारे में मनोविज्ञान में कुछ हद तक प्रयास किया जाता है । 'मन', 'चेतना', 'स्व', 'अंत:करण', ... ... तथा अवचेतन, चेतन, अचेतन, आदि का 'अध्ययन' किया जाता है । 'मानसिक-व्यवहार', आदि का । क्या इनमें से कोई भी वस्तु इन सबका 'अध्ययनकर्त्ता' होती हो, ऐसा हो सकता है ? या क्या कोई इन सबसे पृथक ऐसी वस्तु भी कहीं होती है, जिसे हम 'अध्ययनकर्त्ता ' कह सकें ? इसे हम दूसरे उदाहरण से स्पष्ट करें । यह जिसे हम 'जानना' कहते हैं, वह 'जानना' क्या है, -स्वरूपत: ?
क्या 'जानना' 'जानकारी' के बिना हो सकता है ?"
बहुत देर तक सभी 'सर' की बात पर गौर करते रहे ।
"जाननेवाला तो कोई होता ही है, जानकारी के अभाव में भी !"
नीलम ने साहसपूर्वक कहा ।
"कोई याने ?"
'सर' ने पूछा ।
"कोई व्यक्ति, या जीव, ..."
"हम 'सब्जेक्टिव रियलिटी' के बारे में खोज कर रहे हैं, यदि तुम कहो कि कोई व्यक्ति या जीव जाननेवाला होता है, तो अभी हम अनुमान तथा जानकारी के ही क्षेत्र में विचर रहे हैं । हमारे अपने, स्वयं के बारे में क्या कहोगी ?"
"जानकारी के अभाव में क्या हम समाप्त हो जाते हैं ?"
"नहीं होते । लेकिन जानकारी के अभाव में क्या 'जानना' संभव होता है?"
वे पुन: उसी प्रश्न पर लौट आए थे । 'सर' इस बारे में हमारा ध्यान आकर्षित करना चाहते थे कि ऐसे किसी अपने 'स्वतंत्र' एक अस्तित्त्व होने का विचार भी अन्य विचारों जैसा ही एक 'विचार'-मात्र है । और निश्चित ही यह एक ऐसा दुरूह पड़ाव था जिस तक पहुँचना ही बहुत मुश्किल था । लेकिन उस बारे में फ़िर कभी, अभी तो प्रश्न यह था कि 'जानना' अपने-आपमें एक 'स्वतंत्र-तत्त्व' है, या 'कोई' और ऐसी स्वतंत्र-सत्ता होती है, जो 'जानने की क्षमता से युक्त या रहित हुआ करती हो !
"नीलम, मैं सोचता हूँ कि मैं प्रश्न दोहरा रहा हूँ । "
-'सर' बोले ।
यह दोहराव ज़रूरी था, क्योंकि नीलम शायद ऐसे ही किसी 'स्वतंत्र' 'जाननेवाले' के अस्तित्त्व का आग्रह कर रही थी, जैसा कि हम सभी का अतीव प्रबल आग्रह होता है ।
"क्या 'जानने' हेतु कोई चेतन-सत्ता आवश्यक नहीं होती, जो कि 'जानती' है ? "
-नीलम ने प्रश्न किया । ज़ाहिर है वह नलिनी की पक्की दोस्त थी, और उन दोनों के बीच अवश्य ही इन बातों पर गंभीर चिंतन हुआ ही होगा, इसलिए वह इस चर्चा में सक्रिय भागीदारी कर पा रही थी ।
"मुझे लगता है कि पहले हमें 'जानना' क्या है, इस बारे में पता लगा लेना ज़रूरी है । "
-नलिनी ने कहा ।
अभी ईश्वर नेपथ्य में चला गया था ।
(consigned to back-burner, or put-off in a cold-storage, either enjoying the sizzling heat, or shivering in the ice-age !?)

"हाँ,"
-'सर' बोले ।
सचमुच यह विषय कठिन या दुरूह न भी हो, नया तो अवश्य ही था ।
"जानने की गुणवत्ता, न कि इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक ज्ञान, अभ्यासबद्ध ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान आदि-आदि । लेकिन इसके पहले हमें इन्द्रिय-ज्ञान, वैचारिक-ज्ञान, अभ्यासबद्ध-ज्ञान, बौद्धिक-ज्ञान आदि क्या है, क्या यह समझ लेना भी बहुत ज़रूरी नहीं है ?"
"हाँ, वैसे तो हम इस सब तरह के ज्ञान को समझते हैं, लेकिन क्या इनसे अलग तरह का भी कोई ज्ञान हो भी सकता है ?"
-नीलम ने ही पूछा ।
नलिनी ऐसा प्रश्न नहीं पूछ सकती थी (शायद), क्योंकि उसका 'चित्त' (मन नहीं,) कभी-कभी 'विस्मय' की जिस भूमि पर पहुँच जाता था, वह उसी ज्ञान की पूर्वभूमिका होता होगा, जिसे 'सर' निपट 'जानना' कह रहे हैं(शायद), ऐसा मेरा अनुमान है, क्योंकि अविज्नान और 'सर' से मुलाक़ात होने के बाद मुझे ऐसा समझ में आता है, कि यह 'मैं' जो उस ज्ञान में ही, उस ज्ञान से ही उपजता है, जिसे 'सर' 'जानना'-मात्र कहते हैं, दूसरे सारे विचारों जैसा ही शायद एक विचार-मात्र ही है । लेकिन अपने विचारों की भूल-भुलैया में मैं अभी उस सत्य को ठीक से ग्रहण नहीं कर पा रहा । मैं सोचता हूँ, कि शायद किसी सुबह, मैं समझ पाऊँगा,और इसीलिये अभी मैं 'एन्लाईटेन्मेन्ट' के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता ।
"इन्द्रिय-ज्ञान या इन्द्रिय-संवेदन के बारे में हम समझते ही हैं, यह एक प्रकार का नि:शब्द ज्ञान होता है, जैसे 'सुनना', 'देखना', 'बोलना', शुद्ध शारीरिक अनुभूतियों का 'पता' चलना, जैसे भूख-प्यास, शीत-उष्णता, दर्द आदि शारीरिक क्रियाओं, जैसे मल-मूत्र विसर्जन की आवश्यकता का पता चलना आदि ।
फ़िर स्मृतिगत ज्ञान होता है, जो विभिन्न प्रकार की शारीरिक संवेदनाओं की स्मृतियों के रूप में होता है । यह भी नि:शब्द होता है । फ़िर 'अनुभवगत-ज्ञान' होता है जो भय, आशा, आशंका, आदि के रूप में 'अभ्यासगत-ज्ञान' बन जाता है । हम शायद कह सकते हैं कि ऐसा ज्ञान मनुष्य के अलावा दूसरे जीवों में भी होता है । फ़िर शब्दगत ज्ञान होता है, जब विभिन्न शब्दों को अनुभवों के विकल्प के रूप में प्रयुक्त करते करते हम इस धारणा के शिकार हो बैठते हैं कि 'जानकारी' ही ज्ञान है । फ़िर इस जानकारी के ही विभिन्न संयोजनों से 'वैचारिक-ज्ञान' का जन्म होता है । दूसरी ओर बौद्धिक-ज्ञान नामक एक और चीज़ भी होती है, जो 'अभ्यासगत', 'नि:शब्द' और 'वैचारिक' इन तीन रूपों में व्यक्त हो सकती है । एक जानवर भी बुद्धि का प्रयोग करता ही है । लेकिन पुन: ज्ञान के ये तीनों प्रकार भी मूलत:'अनुभवगत-ज्ञान' पर ही अवलंबित होते हैं, इसलिए ऐसे 'बौद्धिक' ज्ञान की शुद्धता और सुनिश्चितता संदेह से रहित नही हो सकती । "
'सर' बहुत धीरे-धीरे बोल रहे थे, हमें सुनाने के लिए पर्याप्त समय देते हुए ।
(इस बीच "ईश्वर क्या कर / महसूस कर रहा होगा?",- मैं सोच रहा था । )

>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -32.
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न जाने किस पल (कविता)

जाने किस पल
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(
अवचेतन)
मौसम मेरा दोस्त था,
-उन दिनों
उस मौसम में टूरिस्ट वहाँ नहीं आते ।
और मुझे सस्ती दर पर 'एकोमोडेशन' मिल जाता है ।
'ऑफ़-सीज़न' में।
उस शांत नीरव रात्रि में,
होटल के कमरे में,
-जहाँ मैं ठहरा था,
देर रात गए,
वैसे तो बहुत ही अच्छा लग रहा था,
और जब आभास तक नहीं था किसी अनहोनी का,
न जाने किस पल एक खूबसूरत तितली,
किसी रौशनदान से,
भीतर चली आई थी ।
कमरे में नाईट-लैंप की मंद रौशनी में,
इधर-उधर भटकती रही ।
उसे देखता हुआ,
न जाने किस पल, मैं एक कच्ची नींद में चला गया था ।
किसी अर्ध-जाग्रत स्वप्न में ।
टेबल पर रखे गुलदस्ते में,
यूँ तो कई फूल थे,
लेकिन एक सुर्ख गुलाब,
जो कुछ स्याह भी था,
लाजवाब था ।
न जाने किस पल,
मैं सोफे से उठा,
उसे धीरे-धीरे गुलदस्ते से आजाद किया,
हाँ, वह बहुत खूबसूरत था,
-मेरी साँसें तेज़ हो चलीं थीं।
यह इतना खूबसूरत क्यों हैं ?
-मैं सोचने लगा था,
मेरा शरीर ,
उत्तेजना से काँपने लगा था,
उँगली से एक लकीर खून की छलक पड़ी थी ।
मैं उसे चूमता रहा देर तक ।
न जाने कब खो गया था,
-निविड़ अन्धकार में,
सुबह उठते ही ,
वह सपना याद आया था ।
और मैं हड़बड़ाकर,
दौड़ पड़ा था टेबल की ओर,
वहाँ गुलदस्ते को देखकर तसल्ली हुई,
उठते ही जो शर्म, और ग्लानि,
अपराध और अवसाद, और अफ़सोस सा महसूस हुआ था,
वह खो गया था,
उस गुलाब को सही-सलामत देखकर ।
और फ़िर पलटा ही था,
कि नज़र गयी,
खिड़की के कोने के ऊपर,
जहाँ एक मोटी सी, लिजलिजी छिपकिली,
कोशिश कर रही थी,
स्विच-बोर्ड के पीछे छिप जाने की,
और मेरे पैरों के पास, फर्श पर,
दिखलाई दिए थे,
'मोनार्क' के पंख,
चार टुकड़ों में ।


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October 19, 2009

उन दिनों -30.

उन दिनों -30.

अथातो ईश जिज्ञासा
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शाम की चाय बन रही थी । अब लगने लगा था कि दिन छोटे होते जा रहे हैं ।
जब राजा रवि वर्मा चाय लेकर हाज़िर हुए तभी द्वार पर आहट सी हुई । दरवाजा खुला ही था । शुक्लाजी और उनके साथ कोई लड़की भी थी । उसे देखकर मुझे अपर्णा की याद आई । वे आकर बैठ गए। लड़की ने और शुक्लाजी ने भी आकर 'सर' को और मुझे भी चरण-स्पर्श किया ।
"आप बैठिये !"
-उसने रवि से कहा और 'मग्ज़' में चाय भरने लगी ।
"नलिनी है यह, वैसे तो मेरी दूर के रिश्ते की बहन है, लेकिन बचपन से ही एक ही मोहल्ले में रहने के कारण , यह बहन से कुछ अधिक है मेरे लिए ।"
रवि से उसकी पहचान थी, कभी-कभी वह रवि के अखबार में कुछ लिखती भी थी ।
"आपका प्रश्न !"
-शुक्लाजी ने उसे याद दिलाया ।
"मेरा प्रश्न ?"
-उसने तुरन्त ही प्रश्नवाचक मुद्रा में शुक्लाजी को देखते हुए पूछा ।
"सर, सुबह का प्रश्न दर-असल मेरा नहीं, नलिनी का प्रश्न था, जो उसे पूछना चाहिए था, लेकिन, सुबह उसे कॉलेज जाना था । इसलिए वह नहीं आ सकी थी ।"
""जी मैडम, शुरू कीजिये ।"
-शुक्लाजी ने आजिजी से कहा ।
"मैं बचपन से भगवान् के बारे में उत्सुक रही हूँ । मैं नहीं जानती कि 'भगवान' क्या है, कैसा है, स्त्री है, पुरूष है, साकार है, या निराकार है, 'है' या "हैं", लेकिन मन्दिर जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है, शिव-पार्वती हों, सीता-राम या राधा-कृष्ण हों, दुर्गा माँ हो, या गणेशजी हों, साधारणत: किसी भी मन्दिर में जाना मुझे बहुत अच्छा लगता है ।
संस्कृत के स्तोत्र भी बहुत अच्छे लगते हैं, और हिन्दी के भजन भी, लेकिन मैं नहीं सोचती कि इन सब बातों में मेरे लिए किसी किस्म की भावुकता का कोई स्थान कहीं है । मुझे नहीं पता यह सब खामखयाली है, या सचमुच देवी-देवता कहीं होते हैं । लेकिन मुझे उस सबसे कोई मतलब नहीं है । मैं तो बस 'भगवान्' के बारे में जानना चाहती थी । "
हम सब शांतिपूर्वक सुन रहे थे ।
"क्यों ?'
"लोग सोचते हैं कि भगवान् कहीं है, कुछ लोग कहते हैं कि भगवान् कहीं नहीं है ,"
"लोगों की राय से तुम्हें कैसे पता चलेगा ?"
"मुझे लगता है, कि पहले हमें यह समझना चाहिए कि भगवान् से हमारा क्या तात्पर्य है । इसके बाद ही यह खोजना आसान होगा कि हम भगवान् का जो मतलब समझते हैं, वैसा कुछ है, या नहीं । "
"हाँ । "
कुछ देर तक फ़िर शान्ति रही चाय का दौर समाप्त होते ही वह उठी और सारे 'मग्ज़', केतली तथा ट्रे उठाकर 'किचन' में रख आई ।
अब चर्चा का दौर शुरू हुआ ।
"तो, तुम क्या सोचती हो, भगवान् कैसा है, या कैसे हैं ?"
-'सर' ने ही आरंभ किया ।
"भगवान के बारे में जानकारी तो हमें किताबों से, और लोगों से ही मिलती है, या तो हम उसे जस का तस मान लेते हैं, और वह जानकारी हमारी मानसिक आदत का एक हिस्सा बन जाती है । शायद उसमें भी कोई हर्ज नहीं है, लेकिन उसके बावजूद हमारे मन में निश्चिंतता नहीं आ पाती । फ़िर हम उस जानकारी से ही येन-केन-प्रकारेण एक धारणा बना लेते हैं भगवान् के बारे में । "
"हाँ,"
"फ़िर ?"
"फ़िर क्या, कभी-कभी हमें कुछ ऐसी 'रहस्यमय अनुभूतियाँ' भी हो जाती हैं, जिनसे हमें गहरा भरोसा हो जाता है कि भगवान् शिव, पार्वती, गणेश, षड़ानन, राम, कृष्ण, आदि के रूप में है, और हम उनकी भक्ति करने लगते हैं ।
लेकिन कभी-कभी हमारा विश्वास किसी घटना के कारण कम भी तो हो जाता है ? "
"फ़िर ?"
"इसका मतलब यही हुआ कि हम भगवान् को ठीक से नहीं जान पा रहे हैं । "
"हाँ । "
"इसलिए मैं सोचती हूँ कि भगवान् को ठीक से कैसे जाना जा सकता है ?"
"मैं भी तुम्हारी तरह सोचा करता था । लेकिन कुछ अलग ढंग से । भगवान् के बारे में हमें दो तरह से बताया जाता है । कुछ लोग कहते हैं, -'भगवान् है, वह /वे इस-इस तरह के हैं,' आदि । दूसरी ओर कुछ लोग घोर नास्तिक होते हैं, वे कहते हैं, '-भगवान् जैसा कुछ कहीं नहीं होता । ' पर क्या यह भी सच नहीं है कि 'भगवान्' शब्द का अर्थ ही सबके लिए अलग-अलग होता है ?"
"हाँ, यही तो, ..." उसने अचानक खुश होकर कहा ।
हम सब हँसने लगे .
वह और शुक्लाजी अचकचाकर हमें देखने लगे ।
"अविज्नान से परमिशन ली थी ?"
रवि ने मुस्कुराते हुए, तिरछी नज़रों से अविज्नान को देखते हुए नलिनी से पूछा ।
दर-असल 'यही तो ...' अविज्नान का पेटेंटेड वाक्य था, इसीलिये हम सब को हँसी आ गयी थी ।
"तो,
'सर' ने बात का रुख मोड़ते हुए पूछा,
... हम भगवान् के बारे में नहीं जानते ऐसा लगने के बाद ही हम भगवान् को जानने के लिए उत्सुक होते हैं न ?"
"हाँ, "
"लेकिन क्या कोई और कारण भी हो सकता है, हमारी इस 'भगवान् को जानने' की उत्सुकता के पीछे ? "
"हाँ, शायद हम 'भगवान्' के 'विशेषज्ञ' के रूप में समाज में कोई विशिष्ट महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकते हैं, ऐसा ख़याल भी शायद किसी के मन में उठता होगा, और मैं किसी और के बारे में नहीं कह रही, मेरे ही अपने मन में कभी-कभी ऐसा ख़याल उठता था । "
'नलिनी की साफगोई की दाद देनी होगी । '
-मैं सोच रहा था ।
अविज्नान ने पहली बार उसे गौर से देखा ।
हाँ, वह सुंदर थी, तेज-तर्रार थी, मृदु थी, सौम्य थी, मधुर कंठ था उसका और सुरीली आवाज भी उसकी एक ऐसी विशेषता थी कि वह शायद इस क्षेत्र में अच्छी 'प्रवचनकार' तो बन ही सकती थी । लेकिन वह इस बारे में पर्याप्त सावधान थी । वह शायद ही कभी किसी प्रवचनकार के प्रवचनों में जाती हो । फ़िर 'भगवान्' में उसकी क्या दिलचस्पी थी, मैंने सोचा ।
"तुम 'ईश्वर' शब्द को किस अर्थ में ग्रहण करती हो ? "
-'सर' ने पूछा ।
एक पिन-ड्रॉप सन्नाटा छाया हुआ था ।
'हाँ यह ठीक है ,' -मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर की खोज करने के भी सबके अपने-अपने प्रयोजन होते हैं, और हर कोई 'भगवान्' की उसकी धारणा के ही प्रकाश में किसी ऐसी वस्तु की, या कहें पदार्थ या तत्त्व की खोज करता है, जिसे वह 'ईश्वर' कहता है । "
वह कुछ देर के लिए चुप हो गयी ।
"और यह प्रयोजन एक बाध्यता भी हो सकता है, जैसे कोई भय, कोई लोभ या लालच, कोई असुरक्षा की आशंका, कोई सुरक्षा की उम्मीद,...."
-उसने अपना वाक्य पूरा किया ।
"या कोई और वज़ह भी तो हो सकती है ! "
-'सर' ने पूछा ।
"हाँ, मैं सोचती हूँ, कि मेरी 'भगवान्' के प्रति उत्सुकता की वज़ह इनमें से कोई भी नहीं है । "
पुन: कुछ क्षणों तक सन्नाटा छाया रहा ।
"मेरी उत्सुकता की वज़ह है, -विस्मय, "
उसने शांतिपूर्वक कहा ।
"यह सारा अस्तित्व, हमारा जीवन, जीवन के अनोखे अद्भुत रंग, जीवन में विद्यमान गहरा सौन्दर्य, और सिर्फ़ सौन्दर्य ही नहीं, और भी बहुत-कुछ, जिसे हम हर पल महसूस करते हैं, यह सब कहाँ से उद्गमित होता है ? वह क्या है ? क्या है वह ? "
-कहते-कहते वह आंसू पोंछने लगी, उसका गला भर आया और उसकी आवाज़ बेसुरी हो उठी ।
लेकिन जल्दी ही उसने अपने-आपको संभाल लिया ।
हम सब हलके-हलके मुस्कुरा रहे थे । हम जानते थे कि उसे बुरा नहीं लगेगा ।
"क्या यह भावुकता नहीं है ?"
-मैं सोच रहा था ।
"ईश्वर है, या नहीं, इस प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले हमें यह समझना ज़रूरी है कि 'ईश्वर' से हमारा क्या तात्पर्य है, किस किस्म की वस्तु है वह, किस रूप में हम उसे खोजने जा रहे हैं, संक्षेप में, ईश्वर है या नहीं, इसे जानने से पहले यह समझना ज़रूरी है, कि ईश्वर क्या है । और उसके अन्तर्गत एक चीज़ और भी जानना आवश्यक है, कि 'ईश्वर' क्या 'नहीं' है। इसे और ध्यान से समझें तो हम कहें कि वह जिसकी हम 'ईश्वर' की हमारी कसौटी पर जाँच कर रहे हैं, वह ईश्वर का एक पहलू भर है, या वही पूर्ण ईश्वर है । उदाहरण के लिए ईश्वर मात्र शब्द तो नहीं है, शब्द भी ईश्वर के अन्तर्गत है, यह हम अनायास समझ सकते है, लेकिन सिर्फ़ 'शब्द' शब्द का जो तात्पर्य हम ग्रहण करते हैं, ईश्वर उतना ही तो नहीं है न ?
इसलिए, ईश्वर, या भगवान्, हमारी कल्पना, उसके बारे में हमारे किसी भी अनुमान, आकलन, तर्क, सिद्धांत, ध्येय, आदि से परिबद्ध नहीं है । फ़िर भी उसे हम एक यथार्थ, एक सत्ता, एक परम सत्य के रूप में स्वीकार तो कर ही सकते हैं । वह सिर्फ़ प्रारम्भिक बिन्दु है । हम ईश्वर का ऐसा भौतिक या मानसिक चित्र या प्रतिमा नहीं बना सकते जो संपूर्णत:ईश्वर हो, इसलिए वह 'क्या नहीं है', इसे भी जानना होगा ।
फ़िर भी यदि ईश्वर एक सत्ता है, '-है', तो उसका वह 'होना' 'सत्य' है, तत्त्व है, कल्पना है, या कुछ अलग है ? "
-इतना कहकर 'सर' प्रतिक्रया का इंतज़ार करने लगे ।
"तात्पर्य यह हुआ, कि क्या 'ईश्वर' को समझने के लिए उसे अपनी धारणाओं से अलग किसी और सन्दर्भ में देखना ज़रूरी नहीं है ?"
"तुम्हें क्या लगता है ? "
"हाँ, लगता तो यही है । "
"क्या अब प्रश्न और भी जटिल नहीं हो उठा है ? "
-मैं सोच रहा था ।
"देखिये हम ऐसे तत्त्व को कहाँ खोजेंगे ? क्या वह हमसे बाहर ही कहीं है, कोई ऑब्जेक्टिव रियलिटी मात्र है क्या वह ?"
-वह सचमुच तैयार होकर आई थी । उसने चर्चा को जो मोड़ दिया, सचमुच वह प्रशंसनीय था ।
अविज्नान की आंखों में चमक आयी, नहीं तो ऐसी चर्चाओं में वह सामान्यत: उदासीन ही होता है ।
"क्या ऑब्जेक्टिव और सब्जेक्टिव , 'स्व' और जिसे 'स्व' जानता है वह ऑब्जेक्टिव, एक दूसरे से परस्पर स्वतंत्र दो 'सत्ताएँ' हो सकती हैं ?"
-'सर' ने पूछा ।
बहुत देर तक कहीं से कोई प्रतिक्रिया नहीं उठी ।
सूर्य अस्त हो चुका था । रवि ने उठकर बत्ती जलाई , कमरे में एक आलोक छा गया था । कृत्रिम आलोक था यह बिजली का, लेकिन बाहर के अंधेरे की तुलना में कम तेजस्वी नहीं था । और अभी तो यही पर्याप्त था ।
"न जाने क्यों जब भी वह आता है, हमारी वाणी मौन हो जाती है । "
-मैं 'ईश्वर' के बारे में सोचने लगा था । वे दोनों उठे, जाने से पहले पुन: 'सर' के और मेरे भी चरण छुए, और जब जा रहे थे, तो कुछ-कुछ अविज्नान से लगने लगे थे, जब वह कहीं और होता है !
>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>>> उन दिनों -31.
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