December 09, 2009

उन दिनों -37.

~~~~~~~~~~~उन दिनों -37.~~~~~~~~~
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'सर' के बारे में अनंत जिज्ञासा थी, मुझे, अविज्नान को, और रवि को, और अब इस समूह में नलिनी, नीलम और शुक्लाजी भी शामिल थे ।
"हाँ, हम भूल जाते हैं विस्मय को, हम हर बारे में जानने लग जाते हैं । और उस बोझ के नीचे पड़ा-पड़ा विस्मय कराहता रहता है, हम बार बार किसी उत्तेजना में, किसी 'नए' अनुभव में जाने-अनजाने उसी विस्मय की मन:स्थिति को अनावृत्त करने की चेष्टा में लगे रहते हैं, जहाँ हमारी अपनी पहचान भी विलुप्त हो जाती है, और धीरे-धीरे वह विस्मित होना, लगभग ख़त्म हो जाता है । "
-वे कह रहे थे ।
बातें 'मुक्ति' और अद्वैत, ज्ञान और ईश्वर, धर्म और अध्यात्म के दायरे को छूती हुई भी प्रत्यक्षत:उस बारे में नहीं हो रही थी । लोगों को 'सर' के बारे में जिज्ञासा थी और उसे एक सीमा तक जो शांत कर सकता था वह था यह खाकसार, आपका कौस्तुभ वाजपेयी, उर्फ़ 'मैं'। यादों की डायरी के पुराने पन्ने पलटता हूँ ।
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~~~ मेरी डायरी से ~~~
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ट्रेन बहुत रुक-रूककर चल रही थी । लोग ऊँघ रहे थे । बहुत सी सीटें खाली पड़ी थीं ।
उस अखबार को मैं तीन बार पढ़ चुका था । ऐसा नहीं कि बोर हो रहा था । कारण बस इतना सा था कि नींद नहीं आ रही थी । शायद सफर में ज़्यादा चाय पी लेने की वज़ह से । बेचैनी भी अनुभव हो रही थी और यूँ ही अखबार के पन्ने पलट रहा था । आसपास के लोग इतने अलग तरह के थे कि किसी से बातचीत करना भी मुमकिन नहीं जान पड़ता था । शायद मुनासिब भी न होता । इसलिए उचटे हुए चित्त से अखबार के पन्ने पलटते-पलटते अचानक एक जगह नज़रें टिक गईं । अनेक विज्ञापनों के बीच वह विज्ञापन ऐसा दबा-दबा सा था कि कि पूरे अखबार को दो-तीन बार छान लेने के बावजूद, नज़रों से ओझल ही रहा था । खिड़की से बाहर देखा तो धरती का रूखा सौन्दर्य भी एक अद्भुत विशेषता लिए दिखलाई दिया । लंबा-चौड़ा मैदानी इलाका, कहीं दूर इक्का-दुक्का कोई आदमी, या जानवर दिखलाई दे रहा था । आकाश में कभी कोई पक्षी और धरती पर बहुत बड़े क्षेत्र में बहुत कम छोटे-छोटे खजूर के पेड़ या झाड़ियाँ । बीच में खाली जगह जहाँ मौसम के अनुकूल होने पर खेती होती होगी । या बंजर जमीन । लेकिन कितनी सुंदर !बंजर भूमि का अपना एक सौन्दर्य होता है, लेकिन हम शायद उसे देख नहीं पाते । हमारा मन सौन्दर्य के तथाकथित आरोपित प्रतिमानों से इस कदर ठँसा रहता है कि ऐसा कुँवारा सौन्दर्य हमारी दृष्टि की पकड़ से बाहर ही रह जाता है । लेकिन अभी उचटे हुए चित्त में शायद कोई ऐसी खिड़की खुल आई थी कि मैं उस सौन्दर्य से अभिभूत था ।
वैसा ही यह इकलौता विज्ञापन था, जो मेरी नज़रों से अब तक बचता रहा था और अचानक किसी पल उनकी गिरफ्त में फँस गया था । आसपास के दूसरे विज्ञापनों के बीच दबा-सहमा शायद मुक्ति की प्रार्थना कर रहा हो मानों । कूट-भाषा में लिखे हुए एक संकेत-वाक्य की तरह छपा हुआ । इसे पढ़ते ही मुझे वह विज्ञापन याद हो आया जो दिल्ली के आसपास की सभी दिशाओं में रेलयात्रा करते समय बरबस आंखों पर आक्रमण करता रहता था / है ।
"-रिश्ते-ही-रिश्ते, इंग्लैण्ड,अमेरिका, यूरोप, ... मिलें, प्रोफ़ेसर अरोड़ा से, 54, रैगरपुरा, ... ... "
शायद आपने भी पढ़ा हो ! यहाँ स्थिति उल्टी थी । इस छोटे से विज्ञापन में सिर्फ़ एक पंक्ति थी, जो उस रैगरपुरा वाले विज्ञापन से मिलती-जुलती थी ।
"-एक बार मिल तो लें :
-राजेश ...!"
इससे मुझे अंग्रेज़ी अखबारों के वे विज्ञापन याद आए, जो 'personal' कॉलम में देखने को मिलते हैं । थैंक्स गिविंग के, ओबिट्युअरी के, श्रद्धांजलि के, या ऐसी ही कुछ अन्य, जिनमें विज्ञापनदाता के पूरे नाम-पते नहीं देखे जा सकते हैं लेकिन उनमें किसी को संबोधित तो किया हुआ होता है । यहाँ उसका कोई नाम नहीं दिखलाई दे रहा था । बस, कोई 'राजेश' था जो किसी से मिलना चाहता था । पर यह राजेश कौन है ? और इसने किसे यह निमंत्रण भेजा था ? और क्या वह उसे पत्र, फोन, या किसी अन्य माध्यम से उस तक संदेश नहीं भेज सकता था ? (उन दिनों मोबाइल कहाँ था, लैंड-लाइन के ही फोन होते थे, वे भी गिने-चुने, सरकारी या बहुत अधिक वी आई पी लोगों के पास ही होते थे ।) हालांकि यह तो साफ़ था कि यह नितांत व्यक्तिगत संदेश था ।
वैसे तो मैं अपनी बिटिया के लिए लड़का देख रहा था, और उसी सिलसिले में इस शहर में आया था, लेकिन उस विज्ञापन में ऐसा अटका, कि उत्सुकतावश सूट-केस क्लोक-रूम में रखवाया, और सीधे उस अखबार के कार्यालय जा पहुंचा जहाँ से प्रकाशित होकर यह अखबार मेरे शहर में भी आता था । क्योंकि मुझे लगा कि फ़िर न जाने कब यह मौक़ा हाथ आयेगा । उस विज्ञापन का रहस्य या सूत्र जानने का एकमात्र जरिया शायद यही था मेरे पास ।
पुराने जमाने के टेलीप्रिंटर पर ढेरों सामग्री आ रही थी । उसकी आवाज़ के अलावा कार्यालय एन लगभग शान्ति सी छाई थी । एक ओर के दरवाजे पर अंग्रेज़ी में 'ऑफिस' लिखा था, दूसरी ओर दूसरे दरवाजे पर हिन्दी में 'कार्यालय' भी लिखा था । ज़ाहिर है, दोनों तख्तियाँ एक ही बड़े हाल के दो दरवाजों पर लगीं थीं। और भी दरवाजे थी, उस हाल के, और मैं उन दोनों को पीछे छोड़कर तीसरे दरवाजे तक पहुँच गया।
जब इधर-उधर नज़रें डालीं, तो स्टूल पर बैठे एक अधेड़ से आदमी ने पूछा ; 'किससे काम है ?'
'भाई, आज के आपके अखबार में एक विज्ञापन छपा है, जो मुझे लगता है कि मेरे लिए है शायद । "
-मैंने साफ़ झूठ बोला, "उसे किसने प्रकाशित करवाया है, पता लगाना चाहता था । "
"इसके लिए आप सुबह आइये, कल ।''
''क्यों?"
"क्योंकि विज्ञापनों की सारी सामग्री राधेश्यामजी के पास रहती है, और वे ही उसका रिकार्ड रखते हैं । वे बाहर गए हैं, कल लौटेंगे । "
"और यदि मुझे कोई विज्ञापन देना हो तो ?"
"तो उनसे मिलिए,"
-उँगली से एक सज्जन की ओर इशारा कर उसने बतलाया ।
वे श्रीवास्तवजी थे । उनके पास पहुंचा और सीधे उस कटिंग को उनके सामने रखकर पूछा, :
"ज़रा जानकारी चाहिए थी । आज के आपके अखबार में मेरे मित्र का यह संदेश मुझे मिला है ज़रा जानकारी चाहिए थी । "
-मैंने आत्मविश्वासपूर्वक कहा ।
"बैठिये ।"
-वे बोले ।
"हाँ, आज के अखबार में ये विज्ञापन ज़रूर था, किन्हीं रेवाशंकर गर्ग ने दिया था,..."
- उन्होंने सामने रखी हुई ट्रे में से पिन किए हुए कागजों का पुलिंदा निकाला, और एक बिल पर निगाह दौडाते हुए पूछा,
"क्या जानकारी चाहिए आपको ?"
"उन्होंने कहा था की प्रेस से ही पता मालूम करना है । "
हाँ, तो नोट कीजिए, वे बोले,
" A-242, मधुवन, ... कॉलोनी, ... रोड,... । "
मुझे ख़याल नहीं था कि मेरा काम इतनी आसानी से हो जाएगा


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उन दिनों -38 >>>>>>>>>>>>

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