December 19, 2009

उन दिनों -38.

~~~~~उन दिनों -38.~~~~~~
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>>>>(उन दिनों -37 से आगे)>>>>>
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~~~~~मेरी डायरी से ~~~~~~~~~~
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"कितनी संभावनाएँ है ! "
मैं मन-ही-मन सोच रहा था ।
" क्या उस शख्स का नाम भी मुझे पता चल पाएगा, या मैं किसी मुसीबत का इंतज़ार कर रहा हूँ ? हो सकता है किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका के लिए या प्रेमिका ने प्रेमी के लिए यह सन्देश दिया हो ! या कूट-भाषा में किसी क्रिमिनल ने अपने साथी को कुछ संकेत भेजा हो ! पता नहीं क्या है ! मैं फालतू ही बखेड़े में पड़ रहा हूँ । "
मैंने सोचा, अभी भी वक्त है, संभल जाओ, इस मामले से अपना हाथ खींच लो ।
बाहर आते-आते देखा एक ऑटो वाला ऑटो खड़ी सिगरेट के कश खींच रहा था ।
"ऑटो !"
-मेरे मुँह से अनायास निकला ।
दूसरे ही मिनट मैं ऑटो में बैठा उस '...' कालोनी', '...' रोड, '...' के पते की ओर गतिमान हो चुका था ।
जब उस पते पर पहुँचा, तो काफी दूर किसी मंदिर का कलश चमकता दिखलाई दे रहा था । यह मकान भी अपने आसपास के ही मकानों के साँचे में ढला एक मकान जान पड़ रहा था । हर मकान किसी एक ही निश्चित नक़्शे और डिजाइन से बना होगा शुरू में, लेकिन शौक या ज़रूरत से उनमें रहनेवालों ने बाद में फेरबदल कर लिए थे । यानी इस ओर सीधी, उस ओर किचन के सामनेवाली जगह पर लोहे की जाली वाला गेट, पीछे कुछ घरों में आँगन था, तो कुछ ने वहाँ भी एक या दो कमरे खड़े कर लिए थे ।
इस घर के गेट की दीवाल पर एक नाम पेंट किया हुआ था ।

REWASHANKAR GARG
A/242,... .... Colony,...Road, ... .

धड़कते दिल से मैं गेट पर खड़ा हो गया । दरवाजा, जो गेट से करीब पाँच-छ: फीट की दूरी पर था, खुला ही था । अन्दर ट्यूब-लाईट की रौशनी थी । पर्दा हवा से एक लय के साथ बाहर आता और फिर भीतर लौट जाता था ।
मैंने गेट पर खड़े होकर धीमी आहट की ।
"-क्या कहूँगा ?" मैं सोच रहा था ।
कोई बाहर नहीं आया, शायद मेरी खडखडाहट बहुत धीमी रही होगी । इस बार ज़रा जोर से आहट की । एक बच्चा दौड़ता हुआ बाहर आया, उसके पीछे-पीछे एक भद्र पुरुष ('सर') भी बाहर आये ।
"कहिये !"
-उन्होंने प्रश्नवाचक दृष्टि मुझ पर डालते हुए पूछा ।
"ज़रा रेवाशंकर गर्गजी से मिलना था । "
"किसलिए "?
उनके इस अकस्मात् किये गए प्रश्न से मैं हड़बड़ा गया । उम्मीद नहीं थी कि ऐसा सवाल अचानक मुझसे पूछा जा सकता है । इस अप्रत्याशित सवाल के उत्तर में मैंने मुस्कुराते हुए पूछा,
"आप ही रेवाशंकरजी हैं न ?"
"जी हाँ । "
-वे सहजतापूर्वक बोले ।
फिर कुछ सोचकर बोले,
"आप अन्दर तो आइये !"
शायद वे मेरी हडबडाहट और असहजता भाँप चुके थे ।
"बेटे, ... "
उन्होंने आवाज़ लगाई ।
दो मिनट तक कोई प्रतिक्रया नहीं हुई । फिर एक षोडशी बाला पानी का गिलास लेकर आई । बिना कुछ बोले उसे टी-टेबल पर रखा और भीतर लौट गयी ।
छोटे से कमरे में सब-कुछ व्यवस्थित रीति से जमा हुआ था । लकड़ी का दो चेयर्स और एक लम्बी चेयर का सोफा-सेट, जो बेंत से बुना था, और उस पर पतले से स्पंज के गद्दे, जिन पर कॉटन के हैण्ड-लूम के कवर चढ़े थे । एक ओर एक दीवान या तखत भी था, जिस पर बस एक मोटी सी दरी बिछी थी । दीवार की साथ-साथ शेल्व्स की कतार, जिस पर परदे थे । उनमें बस किताबें ही किताबें थीं । बीच की शेल्फ पर एक फोटो था । और उसके पास पूजा की थाली जैसा कुछ था । एक अगरबत्ती स्टैंड, एक दीपक, और उसके पीछे दीवार पर प्लास्टिक की झालरों वाले सफ़ेद हार । तब मैंने यह सब नोट नहीं किया था, लेकिन समय लेने के लिए उन्हें ध्यानपूर्वक देखता रहा था । सकुचाते हुए मैं उनके सामने बैठ गया ।
" जी मेरा नाम कौस्तुभ वाजपेयी है, शासकीय सेवा में हूँ, थोड़ा लिखने-पढ़ने का शौक रखता हूँ ।"
-मैंने कहा ।
"कौस्तुभ वाजपेयी !?"
-कहते हुए वे अपनी कुर्सी से उठे, टी-टेबल के नीचे से कुछ पत्रिकाएँ निकालीं, और फिर तीन माह पुरानी एक साहित्यिक पत्रिका का अंक उठाकर उसे खोलते हुए किसी पृष्ठ को ध्यान से देखा, फिर मेर चेहरे को भी, और उसे मेरे हाथों में थमाकर मुस्कुराते हुए बोले,
"शायद आप ही हैं यहाँ !"
मैंने मन-ही-मन भगवान को धन्यवाद कहा ।
उस पृष्ठ पर मेरी कहानी के साथ-साथ मेरा फोटो भी था, जो आमतौर पर कभी छपता है ऐसा मुझे नहीं लगता ।
"जी हाँ । "
-मैंने राहत भरे स्वरों में कहा ।
मुझे इसकी भी खुशी हुई कि मेरे पिछले जन्मों के किन्हीं सद्कर्मों से या किसी अनजाने कारण से शुरुआत गलत नहीं हुई ।
"बड़ी खुशी हुई कि किसी बहाने आप मेरे घर आये !"
वे प्रसन्नतापूर्वक बोले ।
"वैसे मैं नहीं जानता कि कौन सी शक्ति मुझे यहाँ ले आई, लेकिन आज अखबार में एक छोटा सा विज्ञापन देखा, तो अपनी उत्सुकता रोक न सका, सोचा, ज़रूर किसी कहानी का मसाला मिल सकेगा, और इसलिए चला आया । "
मैंने उन्हें पूरा वाकया सुना दिया । वे शांत भाव से कौतूहल के साथ सुनते रहे ।
उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, हम कुछ देर इधर-उधर की बातें करते रहे, फिर मैंने उनसे क्षमा माँगी कि नाहक आपको तकलीफ दी । उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर मुस्कुराते हुए बिना कुछ कहे विदा दी। लेकिन उनकी आँखों का स्नेह और प्रसन्नता कह रहे थे कि उन्हें ज़रा भी बुरा नहीं लगा होगा ।

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