February 17, 2019

सागर / कविता,

आज की कविता,
सागर / दुविधा 
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अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
जैसे सागर,
हर पल भेजता रहता है,
लहरें किनारे पर,
अगर मैं कहना चाहूँ,
तो कह सकता हूँ,
हर पल कोई नई बात,
जो प्रतिक्रिया भर नहीं होती,
बल्कि होती है,
एक नितान्त नई कोशिश,
किनारे से संवाद की !
पर फिर सोचता हूँ,
रहने भी दो !
किसे फुर्सत है,
मेरी बातें सुंनने की !
वे चले आते हैं किनारे पर,
दो पल शाम की तनहाई बिताने,
और इस बीच ढूँढ लेते हैं,
कोई बहाने,
लिखते रहते हैं चिट्ठियाँ,
किनारे की रेत पर,
अनाम लोगों के नाम,
और मैं न चाहते हुए भी,
उनके जाते-जाते,
मिटा देता हूँ,
उन सभी संदेशों को !
अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
कोई नई कविता !
पर मैं नहीं चाहता मिटाना,
उन सभी संदेशों को !
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February 14, 2019

जाति-संप्रदायवाद से परे

No Caste No Religion.
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Just now knew Tamilnadu's Snegha after 8 years of struggle, obtained 'No Caste No Religion' Certificate from the Tahsildar of Vellore.
The link is from a Tamil site, but before that I read this in English on mynation.com .
This sure raises several questions about how she would deal with in her relation to the traditional social aspects in life. But this is no doubt a good way to deal with the Caste-related and Religion-based problems in society.
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जाति-संप्रदायवाद से परे 
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सुश्री स्नेहा ने सतत 8 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद वेल्लोर के तहसीलदार से 'जाति-संप्रदाय' से मुक्त होने का प्रमाण-पत्र पाया।  उपरोक्त समाचार अभी अभी  mynation.com पर पढ़ा।  इस पोस्ट के ऊपर दिए गए अंग्रेज़ी हिस्से में जो लिंक दी गयी है वह किसी तमिळ साइट की है किन्तु ऐसा लगता है कि उसमें दिया गया समाचार इसी बारे में है। (मुझे तमिळ भाषा का ज्ञान नहीं है।)
यह उदाहरण अवश्य ही कई प्रश्न पैदा करता है। 
क्या यह एक अनुकरणीय उदाहरण है? इसके क्या परिणाम हो सकते हैं ?
क्या इससे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नई समस्याएँ उठ खड़ी हो सकती हैं?
क्या इससे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में नए बदलाव आने की आशा की जा सकती है?
आख़िर किसी को ऐसे 'प्रमाण-पत्र' की ज़रूरत क्यों महसूस हो सकती है?
वैसे मुझे लगता है कि ऐसे प्रयासों का खुले दिल से स्वागत होना चाहिए।
'No Caste No Religion' का अनुवाद करते समय मैंने विशेष ध्यान  देते हुए 'Religion' का अनुवाद 'संप्रदायवाद' किया है; न कि 'धर्म' -जैसा कि चला आया है। क्योंकि मुझे लगता है कि 'संप्रदायवाद' (Religion) 'धर्म' या 'अधर्म' से भी जुड़ा हो सकता है जबकि 'संप्रदायवाद' (Religion) से मुक्त रहकर भी किसी के लिए भी 'धर्म' की अपनी मान्यता और समझ के साथ 'धर्म' का पालन करना अवश्य संभव है। क्योंकि मूलतः 'धर्म' एक व्यक्तिगत प्रश्न है, जिसे हमने जाति-संप्रदायवाद से जोड़कर राजनीतिक और सामाजिक प्रश्न बना लिया है। यदि यह स्पष्ट हो तो 'धर्म-परिवर्तन' की समस्या ही कहाँ पैदा होती है?  
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सच और झूठ का फ़र्क़

आज की बात 
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"वो मूर्ख होता है जो सिर्फ़ सच को जानता है पर सच और झूठ के फ़र्क़ को नहीं जानता! ... "
अमिताभ बच्चन की किसी फिल्म का यह डॉयलॉग एक दिन पहले सुना / पढ़ा था।
हम सच को जानते हैं या किसी घटना के बारे में उस घटना की स्मृति / याददाश्त को?
और क्या स्मृति / याददाश्त कभी सच या झूठ हो सकती है?
क्या स्मृति / याददाश्त किसी घटना का केवल एक मानसिक चित्र भर नहीं होती?
या, क्या यह चित्र पत्थर या पत्थर की लक़ीर जैसी कोई ठोस चीज़ होता है?
फिर भी हमें लगता है कि हम पत्थर की लकीरों से बनी सच की कोई ऐसी मुकम्मल और ठोस तस्वीर उकेर सकते हैं जिसे सच कहा जा सके।  
और, क्या इसीलिए हम 'सच क्या है ?' इस सवाल का सामना करने से बचते नहीं रहते?
क्या सच की यह तस्वीर ही सच और झूठ का फ़र्क़ नहीं होती?
लेकिन हम शायद इसलिए ऐसा करते हैं क्योंकि हमें किसी फ़ौरी, तात्कालिक कामचलाऊ ऐसी तस्वीर की ज़रुरत और तलाश होती है जिसे हम सच का नाम दे सकें और इस्तेमाल कर लेने के बाद फेंक सकें !
यूज़ ऐंड थ्रो !
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