आज की कविता,
सागर / दुविधा
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अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
जैसे सागर,
हर पल भेजता रहता है,
लहरें किनारे पर,
अगर मैं कहना चाहूँ,
तो कह सकता हूँ,
हर पल कोई नई बात,
जो प्रतिक्रिया भर नहीं होती,
बल्कि होती है,
एक नितान्त नई कोशिश,
किनारे से संवाद की !
पर फिर सोचता हूँ,
रहने भी दो !
किसे फुर्सत है,
मेरी बातें सुंनने की !
वे चले आते हैं किनारे पर,
दो पल शाम की तनहाई बिताने,
और इस बीच ढूँढ लेते हैं,
कोई बहाने,
लिखते रहते हैं चिट्ठियाँ,
किनारे की रेत पर,
अनाम लोगों के नाम,
और मैं न चाहते हुए भी,
उनके जाते-जाते,
मिटा देता हूँ,
उन सभी संदेशों को !
अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
कोई नई कविता !
पर मैं नहीं चाहता मिटाना,
उन सभी संदेशों को !
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सागर / दुविधा
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अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
जैसे सागर,
हर पल भेजता रहता है,
लहरें किनारे पर,
अगर मैं कहना चाहूँ,
तो कह सकता हूँ,
हर पल कोई नई बात,
जो प्रतिक्रिया भर नहीं होती,
बल्कि होती है,
एक नितान्त नई कोशिश,
किनारे से संवाद की !
पर फिर सोचता हूँ,
रहने भी दो !
किसे फुर्सत है,
मेरी बातें सुंनने की !
वे चले आते हैं किनारे पर,
दो पल शाम की तनहाई बिताने,
और इस बीच ढूँढ लेते हैं,
कोई बहाने,
लिखते रहते हैं चिट्ठियाँ,
किनारे की रेत पर,
अनाम लोगों के नाम,
और मैं न चाहते हुए भी,
उनके जाते-जाते,
मिटा देता हूँ,
उन सभी संदेशों को !
अगर मैं लिखना चाहूँ! ...
तो हर पल लिख सकता हूँ,
कोई नई कविता !
पर मैं नहीं चाहता मिटाना,
उन सभी संदेशों को !
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