December 31, 2022

उसके बारे में!

कविता : 31-12-2022

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उसके बारे में, 

मैं किसी से बात भी नहीं करना चाहता, 

न किसी और से, न उससे, और न खुद से भी!

कि उसका नाम क्या है, कहाँ उसका घर है,

कौन सा स्थान, देश, जगह या शहर है!

कि उसे कौन सा रंग पसन्द है,

कि उसने पहली बार मिलते ही, 

मुझे मैसेज किया था :

"रोज़ेस आर पिंक, 

वॉयोलेट्स आर ब्ल्यू, ..."

कि उसे कौन सा मौसम पसन्द है,

कि उसने दूसरी बार,

मुझे मैसेज किया था :

"कोंपलें फिर फूट आईं शाख पर, 

उससे कहना, वो न समझेगा,

मगर कहना उसे!" 

कि उसने तीसरी बार,

मुझे यह मैसेज किया था :

"तुम मुझे भूल भी जाओ, 

कोई हक़ है तुमको!"

और इसे हरी झंडी समझकर,

किनारा कर लिया था उससे मैंने!

हाँ, उसके बारे में,

मैं किसी से बात भी नहीं करना चाहता, 

न किसी और से, न उससे, और न खुद से भी!

***






गेरुआ बसंती केसरिया!

कविता / 31-12-2022

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December 25, 2022

पुनर्वाचन / पुनर्पठन

अष्टावक्र कथा / अष्टावक्र गीता

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राजा जनक के दरबार में वरुण के पुत्र को अष्टावक्र ने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया, और वरुण / सागर-सम्राट* ने अष्टावक्र के पिता को मुक्त कर दिया तो राजा ने अष्टावक्र से अपनी उस जिज्ञासा प्रश्न का समाधान किए जाने की प्रार्थना की जिसका समाधान राजा जनक के दरबार के बड़े बड़े पंडित और स्वयं अष्टावक्र के पिता भी नहीं कर सके थे, जिसके लिए उन्हें वरुण ने बन्दी बना लिया था।

तब अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा :

राजन्! क्या तुम अपनी इस जिज्ञासा का समाधान प्राप्त करने के लिए इस पूरे राजपाट, महल और उस संपूर्ण सुरक्षा को दाँव पर लगाने के लिए अभी ही उद्यत हो?

राजा जनक ने कहा : अवश्य ही! आप बस आज्ञा करें!

तब अष्टावक्र ने कहा तुम मेरे साथ वन को चलो, क्योंकि इसका उपदेश यहाँ नहीं दिया जा सकता। 

तब राजा ने एक उत्तम रथ मँगवाया जिसमें अष्टावक्र आरूढ हुए, और राजा स्वयं अश्व पर आरूढ हो उस रथ के पीछे पीछे चला। कुछ थोड़े से और सैनिक राजा की आज्ञा से उनके साथ पीछे पीछे अश्वों पर आरूढ होकर चल रहे थे। 

जब वे नगर से बहुत दूर वन में पहुँच चुके तो अष्टावक्र ने राजा से कहा : 

"हाँ अब कहो तुम्हारा क्या प्रश्न है!"

"भगवन्! मेरा प्रश्न वही है जिसे वरुण के पुत्र ने मेरे दरबार के पंडितों से पूछा था और उन वेदों में पारंगत पंडितों में से कोई भी जिसका संतोषप्रद उत्तर नहीं दे सका था इसलिए उसे वरुण का बन्दी होना पड़ा था। 

"शास्त्र के अनुसार ज्ञान, -जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है, वह आत्मज्ञान निमिषमात्र में हो सकता है। क्या यह सत्य है?"

अष्टावक्र बोले :

"राजन्! संसार की समस्त अनित्य वस्तुओं और पदार्थों आदि से तीव्र वैराग्य और सत्य, एकमात्र शाश्वत सद्वस्तु अपनी नित्य और शुद्ध बुद्ध आत्मा अर्थात् अपने ऐसे उस सच्चे स्वरूप को जानने की प्रबल उत्कंठा होने पर क्षणमात्र का समय भी इसके लिए पर्याप्त होता है। राजन्! क्या तुममें विषय-मात्र के प्रति इतना प्रबल वैराग्य है?"

"यह कैसे सिद्ध होगा?"

"राजन्! यह तो इसकी परीक्षा करने से ही स्पष्ट हो सकता है।"

"भगवन्! मैं इस परीक्षा के लिए प्रस्तुत हूँ!"

तब अष्टावक्र बोले :

"मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्यज... 

चित्त से समस्त विषयों का आमूल त्याग हो जाते ही तत्क्षण ही तुम्हें यह प्राप्त है। क्या तुमने अपने चित्त से विषयमात्र को ही विसर्जित कर दिया है और क्या तुम्हें आचार्य के वचनों के प्रति पूर्ण और सन्देहरहित निष्ठा है?"

"भगवन्! आदेश करें, मैं प्रस्तुत हूँ।"

"राजन्! यदि तुमने अपने चित्त से सम्पूर्ण अन्तर्बाह्य विषयों का त्याग कर दिया है तो क्या तुम्हारे मन में कल्पना, स्मृति, लोभ, भय, आशा, चिन्ता और भय आदि के लिए स्थान रहा। वह क्या शेष रहा जिसे तुम तुम्हारा कहकर उसकी चिन्ता कर सको!"

उस समय राजा अश्व की पीठ से उतर ही रहा था।

अष्टावक्र के वचन सुनते ही उसका वह चित्त ही विसर्जित हो गया जिसमें मेरा नामक वृत्ति सतत सक्रिय थी, उस चित्त का लय हो गया था। तब वह स्तब्ध और अवाक् होकर वह शुद्ध बोधमात्र था जिसमें अपने या दूसरे की कल्पना तक नहीं थी। 

न जाने कितने काल तक वह उस अवस्था में स्थिर रहा, क्योंकि वहाँ काल का भी अतिक्रमण हो चुका था। काल भी कल्पना ही तो है! 

तब अष्टावक्र ने राजा और सैनिकों से वापस महल और दरबार चलने के लिए कहा।

जब वे लौट चुके तो अष्टावक्र ने राजा से प्रश्न किया :

राजन्! क्या तुम्हारी जिज्ञासा शान्त हुई? 

राजा जनक ने आचार्य को साष्टाङ्ग प्रणाम कर अपने अहोभाव की भावना अभिव्यक्त की। 

***

अभी अष्टावक्र गीता के अध्याय 3 के श्लोक 2 को अपने पोस्ट में उद्धृत करते हुए यह प्रश्न मेरे मन में उठा :

क्या अज्ञान ignorance का नाश किया जाना संभव भी है?

क्या इससे अधिक सरल यही नहीं है कि मोह से उत्पन्न हुए भ्रम का ही निवारण कर लिया जाए? 

उपरोक्त श्लोक इस प्रकार से है :

आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।। 

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे।।

इस प्रकार लोभ और भय की उत्पत्ति भ्रमवश है यह भ्रम संसार के और आत्मा (अपने आप) के स्वरूप दोनों ही के संबंध में है। संसार का भ्रम फिर भी प्रत्यक्ष है जिस पर चिन्तन कर उस भ्रम को मिटाना जा सकता है - जैसे कि यह प्रश्न करना कि संसार नित्य है या अनित्य है? फिर नित्य क्या है? क्या प्रश्नकर्ता चेतना ही संसार की अपेक्षा नित्य नहीं है? प्रश्नकर्ता (मैं) भी जाग्रत, स्वप्न तथा सुषुप्ति में बनता मिटता, बदलता रहता है। क्या यह अपने आपको जान सकता है?

इसलिए साँख्य प्रधान उपाय है, कर्म-योग गौण उपाय है। दोनों ही मनुष्य की उत्कंठा और वैराग्य की प्रबलता होने पर ही फल प्रदान करते हैं।

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यह कथा जो इतिहास के अनेक जाने-अनजाने पहलुओं / पक्षों को इंगित और सूत्रबद्ध करती है, विगत सात आठ वर्षों से मेरे मन-मस्तिष्क में उस रूप में खेलती घूमती रही है और उसे ही मैंने अपने 

swaadhyaaya.blogspot.com

तथा

vinaysv. blogspot.com 

ब्लॉग्स में अनेक पोस्ट्स में व्यक्त किया है। वाल्मीकि रामायण, स्कन्द पुराण, कठोपनिषद् तथा श्रीमद्भगवद्गीता आदि मेरे लिए इसका आधार और प्रमाण भी हैं।

वरुण, जो जल और समुद्र का, वैदिक देवता और पश्चिम दिशा का भी देवता है, इसी प्रकार यम, जो मृत्यु का देवता है, ये सभी आधिदैविक सत्ताएँ, वैदिक देवता हैं। 

मृ मृत्यु से व्युत्पन्न मेरु, और मरुत् समुद्र और वरुण, आप् और अग्नि अम्बर (umbra penumbra umbrella) अभ्रम् वेदवाणी में सभी का वर्णन है। मेरु, आमेर आदि क्षेत्र मरु के ही पर्याय हैं।  जर्मन भाषा में समुद्र को मीर (Meer) कहा जाता है। इसी प्रकार अष्टावक्र की कथा अनेक दृष्टियोंं और अर्थों में पूर्व पश्चिम को संबंधित करती है। श्रीमद्भगवद्गीता, कठोपनिषद् में कवि उशना के उल्लेख से भी इसी प्रकार अनुमान लगाया जा सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कपिल मुनि का उल्लेख सिद्ध की तरह है। और कपिल मुनि उसी साङ्ख्य के आचार्य हैं जिसका उपदेश भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ में, - दूसरे ही अध्याय में अर्जुन को दिया। फिर इसी ज्ञान का उल्लेख इस रूप में भी है कि कैसे परमात्मा ने यह ज्ञान विवस्वान् को प्रदान किया, विवस्वान् ने मनु को मनु ने इक्ष्वाकु को, और फिर महान काल के प्रभाव से इस ज्ञान का लोप हो जाने के बाद परमात्मा ने ही भगवान् श्रीकृष्ण के रूप में अवतरित होने पर अर्जुन को भी दिया। इक्ष्वाकु से जहाँ भगवान् श्रीराम के कुल का उद्भव हुआ, वहीं यह भी स्पष्ट किया गया है कि यद्यपि साँख्य जो कि पथविहीन भूमि (Truth is pathless land) है, और योग  अर्थात् (निष्काम) कर्मयोग का फल एक ही है किन्तु मनुष्य को चाहिए कि वह अपने स्वभाव के अनुसार अपनी निष्ठा को भली प्रकार से जानकर किसी एक ही उपाय का आलंबन ग्रहण करे।

प्रकारान्तर से, भारत और पश्चिम, अष्टावक्र-गीता या अष्टावक्र की कथा के क्रमशः नायक और प्रतिनायक हैं। 

वैश्विक सन्दर्भ में आज का जो विश्व, जिसे विकास और उन्नति कहता और मान बैठा है, वह भय और लोभ, सुरक्षा और सुरक्षा की चिन्ता से ग्रस्त है। धन-लोलुपता, काम-लोलुपता और यश, स्वामित्व और ऐश्वर्य की लोलुपता उसके प्रेरक निर्देशक तत्व हैं। 

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December 22, 2022

Talent and Genius.

Motives, Objectives and Communication.

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जब उस सोशल नेटवरकिंग साइट को जॉइन किया था तो उसने 5 फ्रैंड्स सजेस्ट किए थे जिनमें से एक की प्रोफ़ाइल देखते हुए लगा, कि उससे मित्रता की जा सकती है।

हाँ, उस मित्र के पास क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी अवश्य ही था, किन्तु जैसा कि बड़े से बड़े टेलेन्टेड भी नहीं समझ पाते हैं, उसे भी यह समझ में नहीं आया था कि आखिर उसे किस चीज़ की तलाश थी। हममें से अधिकांश लोग सिर्फ़ संपत्ति, समृद्धि, प्रसिद्धि और पहचान के पीछे भागते हैं। और सामाजिक संबंधों के फैलाव में यह सब मिलता हुआ भी दिखाई देता है, किन्तु इस सब का वास्तविक मूल्य है भी या नहीं, शायद ही इस पर किसी का ध्यान जा पाता है। तात्कालिक सफलताओं / विफलताओं का क्रम भी मनुष्य में उत्साह या निराशा पैदा करता है और जो संबंध कभी बहुत मूल्यवान प्रतीत होते थे, वे ही इतने अर्थहीन और अप्रासंगिक से हो जाते हैं कि मनुष्य उन्हें यन्त्रवत निभाने लगता है। किसी से जुड़ने के लिए कोई बहाना चाहिए होता है, और राजनीति, तथाकथित धर्म, परंपरा, संस्कृति या साहित्य, फ़िल्में, संगीत, सामाजिक समूह, खेल, पर्यटन, कोई भी विशिष्ट आदर्श या ध्येय, मिशन, के माध्यम से किसी से उसका जुड़ाव (related) है, ऐसा उसे महसूस होने लगता है। तात्कालिक जरूरतें, आग्रह, बाध्यताएँ भी इस ताने बाने को तय करती हैं और मनुष्य के मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न उठता ही नहीं है। आप सतत ही एक से दूसरे अनुभव से गुजरते रहते हैं, और गुजरते ही रहना चाहते रहते हैं! कोई आश्चर्यजनक, विचित्र या भयानक, वीभत्स, दुस्साहसपूर्ण घटना, या समाचार आपको निरन्तर बाँधे रखता है और बस यूँ ही आप जीवन बिताते रहते हैं। हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, युद्ध, महामारी जैसी घटनाओं पर रोमांचित, चिन्तित, उद्विग्न, उत्तेजित दुखी या प्रसन्न होते हैं, और कोई नई सूचना तुरन्त ही आपको और भी अधिक व्याकुल कर देती है। तब आप व्याकुल होकर उस व्याकुलता से राहत पाने का प्रयास करने लगते हैं, किन्तु आपके मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न ही नहीं पैदा नहीं होता। 

उससे दोस्ती करते समय मैंने यह सब नहीं सोचा था, बस इतना ही सोचा था, कि संवाद किया जाना शायद संभव है।

जैसा कि मेरा अनुमान था, और जैसा कि हम सब के साथ होता है, उसमें भी क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी पर्याप्त था, किन्तु किसी दुर्निवार और दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविक कारण या कल्पना से उसमें भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। इस  असुरक्षा की भावना से उत्पन्न भय से उसमें लगातार व्याकुलता रहने लगी। (और यूँ न समझें कि यह मेरे उस फ्रैंड के ही बारे में सत्य है, यह हम सभी की सामूहिक चेतना का सार्वत्रिक ओर सार्वकालिक सत्य है!)

इसी सुरक्षा (या सुरक्षा के ऐसे आश्वासन) की तलाश उसे थी, और वह सामाजिक मीडिया / सोशल नेट्वर्किंग से मिलने की आशा उसे थी।

पहले मुझे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि उसका संबंध किसी धार्मिक आध्यात्मिक संगठन से हो सकता है, और उसने भी इस सच्चाई को मुझ पर प्रकट नहीं होने दिया। आध्यात्मिक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन ही उसे करना था और उसे लगा कि मैं इसमें उसकी सहायता कर सकता हूँ। फिर मुझे समझ में आया कि असुरक्षा की यह चिन्ता और भविष्य के भय की यह आशंका ही उसके व्याकुल होने का एकमात्र कारण था। हम सभी ऐसे ही हैं! क्योंकि हम सभी वेल-क्वालिफाइड और टेलेन्टेड भले ही हों, हम जीनियस नहीं हैं। जीनियस होना प्रकृति-प्रदत्त उपहार है, जो प्रत्येक शिशु को अनायास ही मिला होता है। वह बुद्धि से किसी परिस्थिति, वस्तु आदि को नहीं, बल्कि अस्तित्व के क्षण प्रशिक्षण अवलोकन से समझने का यत्न करता है।

आज के मनुष्य की विडम्बना यही है कि जो समझ अवलोकन से उसमें पैदा होती है, उस समझ को बुद्धि (intellect) और स्मृति (memory) के प्रशिक्षण से कुंठित कर दिया जाता है,  और वह बुद्धि और स्मृति के दुष्चक्र में फँसा रह जाता है।

मैंने उससे बस यही पूछा :

Do you really need all this knowledge of scriptures and religion?

तो जवाब मिला --

क्या यही हमारी एकमात्र आवश्यकता नहीं है?

अब मुझे यह लगने लगा है, कि मनुष्य कितना भी टेलेन्टेड (प्रतिभाशाली), क्वालिफाइड / लर्नेड / सुशिक्षित क्यों न हो, अगर उसके जीनियस - प्रकृति-प्रदत्त, अवलोकन से पैदा होने वाले सहजस्फूर्त विवेक को जागृत होने से ही रोक दिया गया हो, तो उससे संवाद की न तो संभावना है, और न ही कोई आवश्यकता है।

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December 20, 2022

मन की दुविधा

क्या मनुष्य अपना भाग्य स्वयं ही तय कर सकता है?

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येन नीयत: तथा नियतिः

सभ्यता का उपसंहार

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आज के विज्ञान की प्रगति समूची मनुष्य जाति के विनाश की सूचक, पूर्वभूमिका है, --विशेष रूप से A. I. / ए. आई. और मशीन लर्निङ्ग! सभी वैज्ञानिक और भाषाशास्त्री अत्यन्त मोहित और भ्रमित हैं। ऋषि राजपोपट जैसे लोग इसका एक अच्छा उदाहरण है। बिना उसकी पुस्तक को पढ़े उसके बारे में कुछ भी कहना अनुचित ही होगा, किन्तु संस्कृत और वैदिक व्याकरण के विद्वानों को इसमें सन्देह नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में लिखी गई उसकी पुस्तक येन केन  प्रकारेण इसका ही एक प्रयास है कि कैसे वैदिक और सनातन-धर्म को नीचा दिखाया जाए।

पाणिनी रचित अष्टाध्यायी वेद के उपाङ्ग व्याकरण का एक ग्रन्थ है जिसका आधार शिवजालसूत्र अर्थात् अक्षरसमाम्नाय है। जैसा कि वर्णन है अक्षरसमाम्नाय की उत्पत्ति भगवान् शिव के ढक्का से हुई है --

नृत्तावसाने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम्।।

उद्धर्तुकामः सनकादि सिद्धान् एतद्विमर्शे शिवसूत्रजालम्।। 

इन चौदह वर्णो से, जो भगवान् शिव के ढक्का से सनक आदि ऋषियों को प्राप्त हुए, अ इ उ ण् ऋ लृ ङ् आदि चौदह सूत्रों का ज्ञान उन ऋषियों को मिला। इस आधार पर व्याकरण की रचना ऋषियों ने की।

तात्पर्य यह कि वेद का ज्ञान मूलतः उस नित्य वाणी में सनातन काल से अविनाशी स्वरूप में विद्यमान है जो वर्णात्मक अर्थात् मन्त्रात्मक है। 

याद आता है आज के युग के एक विश्वप्रसिद्ध साङ्ख्यविद श्री जे. कृष्णमूर्ति और वेद के एक विद्वान पण्डित जगन्नाथ शास्त्री के बीच हुआ वार्तालाप, जिसमें पण्डित जगन्नाथ शास्त्री उनसे कहते हैं कि शब्द नित्य है और उससे ग्रहण किया जानेवाला अर्थ अनित्य, औपचारिक और क्षणिक है। संक्षेप में शब्द नित्य सिद्ध वाणी है वही वेद है इसलिए वेद का पाठ किया जाता है, न कि अर्थ। वेदवाणी का प्रयोजन होता है, मनुष्य की भाषा में उसका अर्थ करना नितान्त मूढता* है। इसलिए वेदों का भाष्य किया जाता है न कि अर्थ। वैसे यह भी अवश्य सत्य है कि बहुत से संस्कृतज्ञों ने वेदों का अर्थ किए जाने का प्रयास भी किया है।इनमें सर्वाधिक अनधिकारी वे विदेशी विद्वान रहे हैं, जिन्होंने इस प्रयास से वेदों की ऐतिहासिकता को जानने या प्रमाणित करने का यत्न किया और इस क्रम में वे भी हैं ही, जो वेदों को अनपढ़ गड़रियों द्वारा लिखा गया मानते और सिद्ध करना चाहते थे। इसका मूल प्रयोजन था वेदों को आज के ज्ञान-विज्ञान की तुलना में अत्यंत निकृष्ट सिद्ध करना। वेदों का अध्ययन करने के बहाने उन्होंने वेदों के ज्ञान को बुरी तरह से नष्ट-भ्रष्ट और तहस-नहस किया। अब और एक नए विद्वान श्री ऋषि राजपोपट आए हैं, जिन्होंने उनके शिक्षक की कुत्सित प्रेरणा से तोड़-मरोड़कर पाणिनी के सूत्र का अर्थ प्रस्तुत किया है और अपनी चतुराई पर फूल कर कुप्पा हो गए हैं।

यद्यपि उन्होंने भी सिद्ध परंपरा का उल्लेख तो किया है, इसलिए जल्दबाजी में उनकी पुस्तक का ठीक से अवलोकन किए बिना तुरत-फुरत कोई नतीजा निकालना उनके साथ किया जानेवाला अन्याय ही होगा।

यहाँ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बिन्दु जिस पर कि मैं ध्यान आकर्षित किया जाना चाहूँगा वह यह है कि श्री जे. कृष्णमूर्ति भी महर्षि कपिल, अष्टावक्र, श्रीरमण महर्षि और श्री निसर्गदत्त महाराज आदि की तरह मूलतः साङ्ख्य परंपरा के ही एक आचार्य हैं, जैसा कि उनकी शिक्षा दिए जाने की शैली से भी स्पष्ट है। इन सभी आचार्यों ने पारंपरिक वैदिक ज्ञान नहीं प्राप्त किया था, इसलिए वे यद्यपि वेद से स्वतंत्र हैं किन्तु वेद की निन्दा करना उनके लिए भी अशोभनीय है। स्पष्ट है कि वेद के पठन पाठन का अधिकारी ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति ही होता है। यद्यपि आत्मा के अनुसंधान करने और मुक्ति प्राप्त करने के लिए जाति, वर्ण, लिंग आदि भी बाधा नहीं है, और इसलिए आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए वेदों में दिया गया ज्ञान सहायक भले ही हो, आवश्यक कदापि नहीं है। वस्तुतः तो समस्त वैदिक ज्ञान को मुण्डकपनिषद् में अपराविद्या ही कहा गया है, तथा आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान को परा विद्या।

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*यह शब्द भूल से 'ममता' टाइप-सेट हो गया था जिस पर अभी ध्यान गया अतः सुधार दिया है। भूल के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। 

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December 18, 2022

प्रो. कृष्णनाथ

नये सन्दर्भ 

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1975-76 के वर्षों में किसी समय मैंने टाइम्स ऑफ इंडिया के द्वारा प्रकाशित हिंदी "धर्मयुग" पत्रिका में प्रो. कृष्णनाथ का एक लेख पढ़ा था। यद्यपि उस समय तो मुझे उसका महत्व ठीक से समझ में नहीं आया, किन्तु वर्ष 2002 में कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन वाराणसी में उनसे मिलना हुआ तो पुनः वह लेख स्मृतिपटल पर उमर आया। जैसा कि मैंने उसे पुनः समझा, तो मुझे यह "स्पष्ट" हुआ कि वह लेख "दुविधा" अर्थात् conflict के बारे में था। यह "स्पष्ट" होना कोई विचार thought या वैचारिक निर्णय intellectual conclusion नहीं, बल्कि, im-mediate direct revelation / प्रत्यक्ष / अपरोक्ष समझ है, जो काल से स्वतंत्र Timeless, निरवधिक, बुद्धि से परे की वह समझ  Understanding Transcending Intellect है। चूँकि बुद्धि और स्मृति वृत्तियाँ हैं, वृत्ति की गतिविधि ज्ञात से ज्ञात तक सीमित है। इसे पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद 1/6 के सन्दर्भ में देखें तो दुविधा अर्थात्  conflict स्वयं अपना प्रमाण है। हमें कभी किसी विषय में दुविधा होती है, किन्तु दुविधा है, इस बारे में हमें कदापि कोई संशय नहीं होता। 

समाधिपाद के उपरोक्त सूत्र के अनुसार :

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।

इस प्रकार दुविधा, वृत्ति ही है। वृत्तिमात्र का निरोध ही योग है। जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं से अभिभूत कुछ लोगों का आग्रह है कि जे. कृष्णमूर्ति की शिक्षाओं को सीधे ही, किसी दूसरे सन्दर्भ से संबंधित किए बिना ही सीधे ही पढ़ा सुना और समझा जाना चाहिए। पर सवाल यह भी है कि क्या हमारा "मन" स्वयं ही उन शिक्षाओं को सीधे ग्रहण करने के लिए बाधक नहीं होता! क्या हमारा "मन", जो कि अतीत है, उन शिक्षाओं की व्याख्या नहीं करने लगता है? अतीत है स्मृति, स्मृति है पहचान, -पहचान है अतीत! इस दृष्टि से बुद्धि या स्मृति रूपी वृत्ति ही हम पर हावी रहती है और हम दुविधा से मुक्ति क्या है, इसे समझने से वंचित ही रह जाते हैं!

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December 17, 2022

सुबह हुई, या रात हुई!

बाल-कविता : हर रोज!! 

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जब सूरज की नींद खुली,

जब धरती की नींद खुली, 

सूरज ने समझा, सुबह हुई!

धरती ने समझा, सुबह हुई! 

जब सूरज की आँखें झपकीं,

सूरज ने समझा, रात हुई!

जब धरती की आँखें झपकी, 

धरती ने समझा, रात हुई!

चन्दा-तारों ने भी समझा,

सुबह हुई, या रात हुई!

पर फिर उनकी नींद खुली,

सोचा सबने, क्या बात हुई!

तब से रोज यही होता है, 

रोज ही रात हुआ करती है,

हर रोज सवेरा होता है!

कितना अच्छा लगता है,

जब रोज रोज यह होता है, 

हर रात नई होती है, 

हर रोज नया दिन होता है!!

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Nurseryrhymesforthegrownup... 

December 09, 2022

धूप-छाँव

 कविता / 09-12-2022

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धूप बहुत तीखी है, 

छाँव बहुत ठंडी है,

धूप, छाँव छोड़कर हम,

धूप-छाँव में आ बैठे!

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December 07, 2022

जटायु, संपाति और वैनतेय

रामायण-प्रसंग

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दो तीन दिनों में ही जिन्दगी, सिरे से बदल गई है। 

'इंटरनेट' पर कुछ करने की इच्छा और जरूरत ही नहीं रही।

इस पोस्ट को लिखना शुरु किया था, इसलिए अगर संभव हुआ तो, इसे पूरा करने का विचार अवश्य है।

रामायण की कथा चेतना के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक पक्षों और कार्य को एक साथ लेकर चलती है। प्राण और चेतना वैसे ही परस्पर अनन्य हैं जैसे सत् और चित्, शिव और शक्ति, अव्यक्त और व्यक्त। 

इसी आधार पर प्राण और चेतना के व्यक्त प्रकारों में पक्षियों के स्वरूप में व्यक्त हुई चेतना गिद्ध और गरुड़ के दो विशेष कार्यं और प्रयोजन को पूर्ण करती है।

जटायु का अर्थ हुआ अत्यन्त दीर्घ आयु तक जीवित रहनेवाला, तथा संपाती का अर्थ हुआ मर जानेवाला। ये वस्तुतः मनुष्य की उसी चेतना के उदाहरण हैं जो मनुष्य के भीतर पूरे संसार को जानने और समझने की प्रेरणा पैदा करती है।  गिद्ध का आहार  मृत जानवर होते हैं।

जटायु और संपाती दोनों गृद्ध भाई थे। इन्होंने सूर्य तक जाने की इच्छा से उड़ान भरी थी। जटायु कुछ ऊँचाई तक जाने के बाद सूर्य के ताप से व्याकुल होने लगा तो उसके बड़े भाई संपाती ने उस पर अपने पंखों की छाया की, किन्तु जटायु पृथ्वी पर उतर गया। कुछ समय पश्चात संपाती के पंख भी सूर्य की गर्मी सह न सकने से जल गये और वह भी धरती पर गिर पड़ा। ज्योतिषीय दृष्टि से ये दोनों पक्षी पृथ्वी की दो गतियों के प्रतीक हैं - एक है अपने झुके हुए अक्ष पर पृथ्वी का घूर्णन, दूसरा है, -वलयाकार कक्षा में उसका सूर्य के चारों तरफ परिभ्रमण करना।

रामायण की कथा में सीता की रक्षा के लिए पहले जटायु रावण से युद्ध करता है किन्तु रावण उसे पराजित करता है और इसके बाद जब राम और लक्ष्मण सीता को खोजते हुए जटायु के पास पहुँचते हैं तो उन्हें पता चलता है कि रावणने सीता का अपहरण किया है।

कथा के दूसरे हिस्से में जब वानर सीता की खोज में असफल हो जाते हैं और प्रायोपवेशन अर्थात आमरण अनशन के द्वारा शरीर त्याग करने के लिए समुद्र तट पर बैठ जाते हैं तब उन्हें एक गिद्ध संपाती दिखाई देता है और उन्हें लगता है कि वे उस गिद्ध का आहार बन जाएँगे। तब संपाती से उनकी बातचीत के बाद संपाती उन्हें आश्वासन और सान्त्वना देते हुए स्पष्ट करता है कि वह उसी जटायु का बड़ा भाई है, जिसका समाचार उसे वानरः से मिला है और उसे भी यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि वह भी भगवान् श्रीराम के कार्य में सहयोग दे।

तब संपाती उन्हें जटायु के साथ हुई सूर्य की ओर की गई उड़ान की कथा सुनाता है कि किस प्रकार से अपने पंख जल जाने पर वह धरती पर गिर रहा था तो मुनि निशाकर ने उसे अपने हाथों में उठाकर मरने से बचा लिया था। तब मुनि ने उसे यह भी कहा था कि तुम इस पर्वत की तलहटी में रहो, जब भगवान् श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे तब तक तुम्हें तुम्हारा आहार अनायास ही नित्य ही प्राप्त होगा और फिर जब तुम्हारी भेंट वानरों से होगी तो तुम्हारे नए पंख आ जाएँगे। और फिर तुम्हारा जीवन उत्तम गति को प्राप्त होगा। 

मुनि निशाकर कौन हैं? पृथ्वी की वह गति जिससे किसी स्थान पर रात्रि होती है।

किन्तु अब बात करें वैनतेय की, जो भगवान् विष्णु का वाहन है और जिसकी गति काल से भी बढ़कर है। श्रीविष्णु का स्मरण करनेवाले मनुष्य को उनका वाहन तार्क्ष्य, पक्षीराज गरुड, मृत्यु या काल के पंजे से भी बचा लेता है। तारयति इति तार्क्ष्य: ...!

यह हुई जटायु, संपाती और वैनतेय की कथा। 

अंत में एक वैदिक शान्तिपाठ --

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः। स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवान्सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः।। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नो पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।

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December 05, 2022

लोकतंत्र का उत्सव : नया नारा

लोकतंत्र की कसौटी

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वादे नहीं, इरादे!

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चुनाव लोकतंत्र का उत्सव है, और हर चुनाव में राजनीतिक दल वादों और प्रलोभनों या भयों से जनता को तात्कालिक रूप और अस्थायी तौर से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं।

प्रजातंत्र, लोगों और राजनीतिक दलों के परिपक्व होने का पता इससे चलता है कि वे सभी प्रत्याशियों की परख उनके सिद्धान्तों या वादों से नहीं, बल्कि इरादों को भांपकर करते हैं या नहीं।

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