December 22, 2022

Talent and Genius.

Motives, Objectives and Communication.

----------------------------©-----------------------------------

जब उस सोशल नेटवरकिंग साइट को जॉइन किया था तो उसने 5 फ्रैंड्स सजेस्ट किए थे जिनमें से एक की प्रोफ़ाइल देखते हुए लगा, कि उससे मित्रता की जा सकती है।

हाँ, उस मित्र के पास क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी अवश्य ही था, किन्तु जैसा कि बड़े से बड़े टेलेन्टेड भी नहीं समझ पाते हैं, उसे भी यह समझ में नहीं आया था कि आखिर उसे किस चीज़ की तलाश थी। हममें से अधिकांश लोग सिर्फ़ संपत्ति, समृद्धि, प्रसिद्धि और पहचान के पीछे भागते हैं। और सामाजिक संबंधों के फैलाव में यह सब मिलता हुआ भी दिखाई देता है, किन्तु इस सब का वास्तविक मूल्य है भी या नहीं, शायद ही इस पर किसी का ध्यान जा पाता है। तात्कालिक सफलताओं / विफलताओं का क्रम भी मनुष्य में उत्साह या निराशा पैदा करता है और जो संबंध कभी बहुत मूल्यवान प्रतीत होते थे, वे ही इतने अर्थहीन और अप्रासंगिक से हो जाते हैं कि मनुष्य उन्हें यन्त्रवत निभाने लगता है। किसी से जुड़ने के लिए कोई बहाना चाहिए होता है, और राजनीति, तथाकथित धर्म, परंपरा, संस्कृति या साहित्य, फ़िल्में, संगीत, सामाजिक समूह, खेल, पर्यटन, कोई भी विशिष्ट आदर्श या ध्येय, मिशन, के माध्यम से किसी से उसका जुड़ाव (related) है, ऐसा उसे महसूस होने लगता है। तात्कालिक जरूरतें, आग्रह, बाध्यताएँ भी इस ताने बाने को तय करती हैं और मनुष्य के मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न उठता ही नहीं है। आप सतत ही एक से दूसरे अनुभव से गुजरते रहते हैं, और गुजरते ही रहना चाहते रहते हैं! कोई आश्चर्यजनक, विचित्र या भयानक, वीभत्स, दुस्साहसपूर्ण घटना, या समाचार आपको निरन्तर बाँधे रखता है और बस यूँ ही आप जीवन बिताते रहते हैं। हत्या, आत्महत्या, बलात्कार, युद्ध, महामारी जैसी घटनाओं पर रोमांचित, चिन्तित, उद्विग्न, उत्तेजित दुखी या प्रसन्न होते हैं, और कोई नई सूचना तुरन्त ही आपको और भी अधिक व्याकुल कर देती है। तब आप व्याकुल होकर उस व्याकुलता से राहत पाने का प्रयास करने लगते हैं, किन्तु आपके मन में कभी "सो व्हॉट्?" यह प्रश्न ही नहीं पैदा नहीं होता। 

उससे दोस्ती करते समय मैंने यह सब नहीं सोचा था, बस इतना ही सोचा था, कि संवाद किया जाना शायद संभव है।

जैसा कि मेरा अनुमान था, और जैसा कि हम सब के साथ होता है, उसमें भी क्वालिफिकेशन और टेलेन्ट भी पर्याप्त था, किन्तु किसी दुर्निवार और दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविक कारण या कल्पना से उसमें भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना घर कर गई थी। इस  असुरक्षा की भावना से उत्पन्न भय से उसमें लगातार व्याकुलता रहने लगी। (और यूँ न समझें कि यह मेरे उस फ्रैंड के ही बारे में सत्य है, यह हम सभी की सामूहिक चेतना का सार्वत्रिक ओर सार्वकालिक सत्य है!)

इसी सुरक्षा (या सुरक्षा के ऐसे आश्वासन) की तलाश उसे थी, और वह सामाजिक मीडिया / सोशल नेट्वर्किंग से मिलने की आशा उसे थी।

पहले मुझे इसकी कल्पना तक नहीं थी कि उसका संबंध किसी धार्मिक आध्यात्मिक संगठन से हो सकता है, और उसने भी इस सच्चाई को मुझ पर प्रकट नहीं होने दिया। आध्यात्मिक संस्कृत ग्रन्थों का अध्ययन ही उसे करना था और उसे लगा कि मैं इसमें उसकी सहायता कर सकता हूँ। फिर मुझे समझ में आया कि असुरक्षा की यह चिन्ता और भविष्य के भय की यह आशंका ही उसके व्याकुल होने का एकमात्र कारण था। हम सभी ऐसे ही हैं! क्योंकि हम सभी वेल-क्वालिफाइड और टेलेन्टेड भले ही हों, हम जीनियस नहीं हैं। जीनियस होना प्रकृति-प्रदत्त उपहार है, जो प्रत्येक शिशु को अनायास ही मिला होता है। वह बुद्धि से किसी परिस्थिति, वस्तु आदि को नहीं, बल्कि अस्तित्व के क्षण प्रशिक्षण अवलोकन से समझने का यत्न करता है।

आज के मनुष्य की विडम्बना यही है कि जो समझ अवलोकन से उसमें पैदा होती है, उस समझ को बुद्धि (intellect) और स्मृति (memory) के प्रशिक्षण से कुंठित कर दिया जाता है,  और वह बुद्धि और स्मृति के दुष्चक्र में फँसा रह जाता है।

मैंने उससे बस यही पूछा :

Do you really need all this knowledge of scriptures and religion?

तो जवाब मिला --

क्या यही हमारी एकमात्र आवश्यकता नहीं है?

अब मुझे यह लगने लगा है, कि मनुष्य कितना भी टेलेन्टेड (प्रतिभाशाली), क्वालिफाइड / लर्नेड / सुशिक्षित क्यों न हो, अगर उसके जीनियस - प्रकृति-प्रदत्त, अवलोकन से पैदा होने वाले सहजस्फूर्त विवेक को जागृत होने से ही रोक दिया गया हो, तो उससे संवाद की न तो संभावना है, और न ही कोई आवश्यकता है।

***


No comments:

Post a Comment