August 26, 2015

आज की कविता

आज की कविता
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मुझमें रहते हैं बहुत से लोग, मैं कोई नहीं,
उनमें से ही कहता कोई एक, मैं कोई नहीं ।
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August 22, 2015

आज की कविता / सहारा

आज की कविता / सहारा
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ठिठका रहा मैं द्वीप सा पानी के बीच,
इर्द-गिर्द यातनाओं का प्रवाह,
डूबते थे तुम, सहारा दे सका,
धन्य था गद्-गद् हृदय, मैं अश्रु-सिक्त ।
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August 13, 2015

आज की कविता / वज़ह

आज की कविता
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आदमी ज़िन्दा ही मरा करता है,
बहाने मरने के यूँ तो हज़ार होते हैं 
बहाना हो कोई लेकिन फ़िर भी,
वज़ह ज़िन्दगी ही हुआ करती है,
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August 12, 2015

हे भारत! (राष्ट्र-वंदना) - स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’

हे भारत!
(राष्ट्र-वंदना)
स्व. रामाधारीसिंह ’दिनकर’
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तुझको या तेरे नदीश,
गिरि-वन को करूँ नमन मैं?
किसको नमन करूँ मैं भारत,
किसको नमन करूँ मैं?
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भू के मानचित्र पर अंकित,
त्रिभुज यही क्या तू है?
नर के नभश्चरण की दृढ़
कल्पना नहीं क्या तू है?
वेदों का ज्ञाता,
निगूढ़ताओं का चिरज्ञानी है,
मेरे प्यारे देश,
नहीं तू पत्थर है, पानी है ।
जडताओं में छिपे किसी चेतन को करूँ नमन मैं,
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भारत नहीं स्थान का वाचक,
गुण-विशेष नर का है,
एक देश का नहीं,
शील यह भूमण्डल भर का है ।
देश-देश में वहाँ खड़ा
भारत जीवित भास्कर है..
निखिल विश्व की जन्मभूमि के
वंदन को करूँ नमन मैं
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खंडित है यह मही,
शैल से सरिता से सागर से,
पर जब भी दो हाथ निकल,
मिलते आ द्वीपान्तर से,
तब खाईं को पाट,
शून्य में महामोद मचता है,
दो द्वीपों के बीच सेतु यह,
भारत ही रचता है !
मंगलमय यह महासेतु-,
बंधन को करूँ नमन मैं !
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दो हृदयों के तार जहाँ भी जो जन जोड़ रहे हैं,
मित्र-भाव की ओर,
विश्व की गति को मोड़ रहे हैं,
घोल रहे हैं जो, जीवन-
सरिता में प्रेम-रसायन,
खोल रहे हैं देश-देश के बीच मुँदे वातायन,
आत्मबंधु कहकर ऐसे जन-जन को करूँ नमन मैं...
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उठे जहाँ भी घोष शांति का,
भारत स्वर तेरा है,
धर्मदीप हो जिसके भी,
कर में वह नर तेरा है,
तेरा है वह वीर,
सत्य पर जो अड़ने आता है,
किसी न्याय के लिए,
प्राण अर्पित करने आता है,
मानवता के इस ललाट,
वंदन को करूँ नमन मैं !
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August 11, 2015

आज की कविता / स्वतन्त्रता

आज की कविता / स्वतन्त्रता
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तुम प्यास हो तो मिट जाओ,
तुम प्यार हो तो बह जाओ,
जहाँ में रहना अगर मुश्किल हो,
साँस सी मुझमें तुम ठहर जाओ ।
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जिस प्रकार मनुष्य को जीने के अधिकार से वंचित नहीं किया जाना चाहिए, वैसे ही उसे स्वेच्छया अपने मर जाने के अधिकार से भी वंचित नहीं किया जाना चाहिए ।
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August 07, 2015

आज की कविता - दुविधा / अनामिका

आज  की कविता
दुविधा / अनामिका
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एक खो-खो का खेल शुरु किया,
वृन्दा ने,
और हम रूमाल लिए हुए हैं ।
इस कली की पहचान,
-कठिन है ।
खिले फूल पेड़ पर नहीं दिखे,
और जो थे भूमि पर,
लगते थे गंधराज जैसे,
किन्तु थे कुछ और ही,
क्योंकि पेड़ बड़ा था !
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(यह सिर्फ़ कविता के रूप में लिखा है, उसी रूप में देखें, इसका किसी और से कोई संबंध नहीं है।)

August 05, 2015

आज की कविता - इत्ती सी हँसी ...

आज की कविता
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इत्ती सी हँसी ...
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इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
जीने के लिए, मरने के लिए,
जब शिशु थे, तो पाई थी,
लोगों को हँसाया करते थे,
जब बड़े हुए तो खोने लगी,
सबको भरमाते रहते थे,
जब पैसा पद सम्मान मिला,
इत्ती सी हँसी भी बची नहीं,
जीवन की आपाधापी में
जाने गिरकर खो गयी कहीं,
इत्ती सी हँसी को तरस गये,
तो त्यागी सारी मोह ममता,
इत्ती सी हँसी फ़िर लौट आई,
जब सबमें नज़र आई समता,
दुःख में सुख में, हानि-लाभ में,
रोग-शोक में, यश-अपयश में,
पशु-पक्षी चींटी हाथी में,
दुश्मन में या फ़िर साथी में,
इत्ती सी हँसी बस शेष रही,
इत्ती सी हँसी भी काफ़ी है,
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August 04, 2015

फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता - हिंदी अनुवाद

I do not know how many souls I have  
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फ़र्नांडो पेसोवा की पोर्चुगीज़ कविता 

हिंदी अनुवाद
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मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
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मुझे नहीं पता, कितनी हैं मेरी अस्मिताएँ, ..
हर पल बदलता गया हूँ मैं,
अपने आपको हमेशा अजनबी महसूस करते हुए,
कभी नहीं देखा, या पाया अपने आपको मैंने,
इतना सब होते हुए भी, एक ही तो है अस्मिता मेरी,
जिनकी होती हैं अनेक अस्मिताएँ, उन्हें शांति नहीं मिलती,
वह, जो कि देखता है, वही होता है, जिसे कि वह देखता है,
वह, जो कि वह महसूस करता है,
-वह नहीं होता, जिसे कि वह महसूस करता है,

मैं जो हूँ और जिसे मैं कि देखता हूँ,
उस ओर मेरा ध्यान दिया जाना ही,
मुझे उनमें बदल देता है,
मेरा हर स्वप्न और मेरी हर इच्छा,
उसकी है, जो कि उन पर आधिपत्य रखता है,
-न कि मेरी!
अपना धरातल, मैं तो स्वयं ही हूँ, 
मैं बस साक्षी हूँ,
-अपनी स्वयं की यात्रा का ।
विविध दिशाओं की ओर गतिशील,
और अकेला,
मैं नहीं महसूस कर सकता,
-अपने-आपको,
कि कहाँ हूँ मैं!

और यही कारण है,
कि पढ़ता हूँ,
एक अजनबी की तरह,
अपने अस्तित्व के पृष्ठों को मैं,
वह जो होनेवाला है,
मैं उसे होने से नहीं रोक सकता,
जो गुज़र चुका, उसे मैं भूल जाता हूँ,
जो कुछ भी मैं पढ़ता हूँ,
उसे हाशिए पर नोट कर देता हूँ,
जो भी सोचा, जो भी महसूस किया,
दोबारा उसे पढ़ते हुए कहता हूँ,
"क्या यह मैं था?"
भगवान जाने!
क्योंकि उसने ही इसे लिखा है ।
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