December 29, 2021

"डि-कपल्ड"

De-Coupled.

एक विवेचना 

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अभी कुछ दिनों पहले ही इस बारे में पढ़ा था कि कैसे किसी 'प्रेयर-रूम' (प्रेरय-रूम) में वह व्यक्ति अपनी पीठ के दर्द की चिन्ता में स्ट्रेचिंग की कोशिश करता है और जब उसे बताया जाता है कि यहाँ वह 'प्रेयर' तो कर सकता है, किन्तु शारीरिक व्यायाम नहीं कर सकता है, तो वह अपनी प्रेयर को गायत्री-मन्त्र से सिंक्रोनाइज़ कर लेता है और आराम से परिस्थितियों को अपने पक्ष में कर लेता है।

इस बारे में इतना ही पढ़ा था । यह भी पता चला कि उस कथा से प्रसिद्ध लेखक चेतन भगत का भी कोई संबंध है।

जो भी हो, यह समझना आवश्यक है कि समय रहते ही देश की संस्कृति, राजनीति और रीति-रिवाजों को विदेशी प्रभावों से पूरी तरह 'डि-कपल' कर लिया जाना ही एकमात्र उपाय है जिससे कि समूचा विश्व और सभी सुखी हो सकते हैं।

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December 27, 2021

आर्य-अनार्य

IIT Kharagpur द्वारा प्रस्तुत 2022 के कैलेन्डर में आर्य अनार्य के सन्दर्भ में  :

Arya Invasion Theory

की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाया गया है ।

आश्चर्य इस बात का है कि आर्य शब्द को जाति का अर्थ देकर जिस प्रकार से विद्वेषपूर्वक इस सिद्धान्त को गढ़ा गया है वह स्वयं ही मूलतः त्रुटिपूर्ण है।

संस्कृत भाषा में आर्य शब्द का तात्पर्य होता है : 

Noble, चरित्रवान् , परिष्कृत, सुसंस्कृत,

और अनार्य का अर्थ होता है :

Savage, बर्बर, अपरिष्कृत, असंस्कृत,

उदाहरण के लिए गीता के अध्याय २ के इस श्लोक को देखें :

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।।

अनार्यजुष्टमस्वर्गयमकीर्तिकरमर्जुन ।।२।।

इसी प्रकार बौद्ध ग्रन्थों में भी आर्य का तात्पर्य श्रेष्ठ चरित्र और गुणवाला है। 

मेरे किसी अन्य पोस्ट में इसका भी उदाहरण दिया गया है।

तात्पर्य यह, कि आर्य कोई जाति (Race) नहीं बल्कि चरित्रगत श्रेष्ठता का पर्याय है। 

स्पष्ट है कि,

आर्य इनवेज़न थ्योरी

(Arya Invasion Theory)

विदेशी इतिहासकारों द्वारा जानबूझ कर, विद्वेषपूर्वक, इरादतन रचा गया सिद्धान्त / षड्यन्त्र, है जो मूलतः भ्रामक है।

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December 26, 2021

यह क्रिसमस ट्री!

कविता : 26-12-2021

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यह क्रिसमस, यह क्रिसमस ट्री 🎄 

यह सान्ता क्लॉस, यह हिस्ट्री,

बचपन से सुनता आया हूँ,

पर पता न थी इसकी मिस्ट्री!

यह स्लेज ये उसके रैनडीयर,

मोजों में सुबह जो मिलते थे,

स्वीट्स, गिफ्ट्स, खिलौने वे,

मन सपनों में डूबा रहता था,

सपनों में ही सो जाता था, 

फिर जैसे-जैसे बड़ा हुआ, 

सोचा, कौन है सान्ता क्लॉस,

इस सोच में ना सपने आते,

और न नींद आ पाती थी।

कुछ ऐसी ही उधेड़बुन में, 

रात मेरी कट जाती थी! 

इस क्रिसमस हुआ ऐसा, 

डैडी जब सपने में आए,

अधनींदी आँखों से देखे,

जैसे सान्ता के हों साए,

तकिए के नीचे मोजों में,

गिफ्ट रखे, फिर चले गए,

फिर नींद आई, मैं भूल गया, 

जागा, तो सपने याद आए!

सोचा यह भी था सपना ही,

कहाँ रहे, उनके साए! 

वे तो बरसों पहले ही, 

हमें छोड़कर चले गए,

पैराडाइज में होंगे अब,

वहीं से शायद थे आए!

पर जब तक थे साथ मेरे, 

कभी न यूँ नजर आए!

हाँ, सान्ता क्लॉस वही तो थे, 

आज अचानक याद आया!

लेकिन थे तब, न जान सका,

ऐसे भी सान्ता होते हैं,

दे जाते हैं तब गिफ्ट हमें, 

जब हम सोए होते हैं!

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December 25, 2021

बुलबुला!

कविता / 25-12-2021

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सन्दर्भ :

श्रीमद्भगवद्गीता,

अध्याय १५,

ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।।

छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ।।१।।

अधोश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।।

अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ।।२।।

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श्री नारायण अथर्वशीर्षम् :

ॐ अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति। 

नारायणात्प्राणो जायते मनः सर्वेन्द्रियाणि च । 

खं वायुर्ज्योतिरापः.... पृथिवी विश्वस्य धारिणी ।

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श्री सूर्य अथर्वशीर्षम् :

सूर्याद्भवन्ति भूतानि सूर्येण पालितानि तु ।

सूर्ये लयं प्राप्नुवन्ति यः सूर्यो सोऽहमेव च ।।

चक्षुर्नो देवः सविता । 

चक्षुर्नो उत पर्वतः ।

चक्षुर्धाता दधातु नः ।।

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उसी ऊर्ध्वमूल से,

उसी पर्वत-शिखर से,

निःसृतः होता है झरना, 

नीचे ही नीचे उतरता हुआ, 

न जाने किन अतल, तलातल,

वितल, सुतल, प्रतल, अवतल,

उत्तल पातालों से गुजरकर,

उतरता ही उतरता हुआ,

चला ही चला जाता है! 

वह जल का अथाह सागर,

व्यापक सर्वव्यापी नारायण ही,

पुनः खं ज्योति आपः अग्नि भू, 

उगता-उदित होता है पूर्व में, 

अभिव्यक्त होता है सूर्य में! 

और पुनः, उठता है, 

उभरता है सागर से,

एक शून्य, बुलबुला वायु का! 

नहीं जानता, कहाँ से आया वह, 

जल में उठता ही उठता, 

चला जाता है वह, 

ऊपर ही ऊपर, 

न जाने किस दिशा में,

किस लक्ष्य की तरफ!

बड़े से बड़ा होता हुआ, 

अन्ततः किसी अकल्पित, 

अकल्पनीय क्षण में, 

सतह पर आकर,

फूटकर, हो जाता है विलीन, 

उसी शून्य में, 

जहाँ से उठा था वह! 

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मिल जाएगा!

 कविता : 25-12-2021

सब-कुछ

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सब कुछ मिल जाएगा तुमको, 

पर तुम कुछ ना पाओगे, 

जब तक कौन है, -पानेवाला,

इसको तुम समझ न पाओगे!

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मन और आत्म-विचार

विचार और आत्म-विचार

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विचार ही ध्यान में बाधा है, और यह भी सत्य है कि इस बाधा का निवारण भी ध्यान से ही होता है। 

क्या ध्यान किसी प्रकार का मानसिक अभ्यास है?

या ध्यान इस बारे में किया जानेवाला यह अनुसंधान है कि क्या  विचार और विचारकर्ता एक दूसरे से भिन्न अलग अलग वस्तुएँ हैं, और 'मैं' नामक तथ्य उनसे भिन्न तीसरी कोई वस्तु है?

स्पष्ट है कि विचार और विचारक का विचार ही मन है, क्योंकि किसी भी प्रकार का विचार एक मानसिक गतिविधि ही तो होता है! इस प्रकार 'विचार' वही वस्तु है जिसे 'मन' भी कहा जाता है। 

फिर 'मन' नामक वस्तु क्या है?

क्या 'मन' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मैं' भी कहा जाता है, और इसी तरह क्या 'मैं' नामक वस्तु वही तथ्य है, जिसे 'मन' भी कहा जाता है?

क्या इस प्रकार यद्यपि विचार और मन एक ही तथ्य के दो नाम अवश्य हैं, किन्तु क्या मन और 'मैं' एक ही तथ्य, या / और एक ही तथ्य के दो नाम हैं?

स्पष्ट है कि यदि मन और 'मैं' एक ही तथ्य के दो नाम होते तो मनुष्य द्वारा 'मेरा मन' कहा जाना तर्क की दृष्टि से विसंगतिपूर्ण होता। चूँकि 'विचार' काल के अन्तर्गत होनेवाली गतिविधि ही है, और चूँकि काल का अनुमान भी केवल विचार के ही माध्यम से और विचार के ही अंतर्गत होता है, इसलिए काल का विचार और काल, - ये दोनों ही दो बिलकुल अलग अलग तथ्य हैं यह समझना मुश्किल नहीं है।

फिर 'मैं' नामक वस्तु क्या है? 

क्या 'मैं' कोई तात्कालिक गतिविधि है, या ऐसा कोई तथ्य है, जो कि काल और काल के अनुमान / विचार से भी नितान्त स्वतन्त्र कोई सत्य है? 

'मैंं' शब्द का प्रयोग वैसे तो अपने स्वयं का उल्लेख करने के लिए ही किया जाता है किन्तु / और इसलिए सदैव किसी दूसरे के सन्दर्भ में ही इसका उपयोग किया जाता है, न कि स्वयं अपने आपके लिए!

किन्तु अनवधानता / लापरवाही के कारण ही, मनुष्य विचार के माध्यम से इस 'मैं' नामक तथ्य / वास्तविकता को खण्डित कर लेता है, और उसे दो हिस्सों में बाँटकर 'मैं' और 'मेरा' नामक दो टुकड़ों में बाँट लेता है और इस प्रकार से एक आभासी "मैं' का उद्भव होता है, जो कि पुनः विचार और विचार की ही गतिविधि भर है। इस प्रकार से 'मेरा विचार' नामक वस्तु अस्तित्व में आती है, या उसका 'मैं' से भिन्न, अपना अलग कोई स्वतन्त्र अस्तित्व है ऐसा मान लिया जाता है। 

इस प्रकार, यह 'मैं' नामक तथ्य यद्यपि नित्य अस्तित्वमान एक वास्तविकता है, किन्तु उसे विचार के रूप में, और विचार से ही किसी ऐसी गतिविधि की तरह ग्रहण कर लिया जाता है, जो कि मन नामक वस्तु में सतत रूपान्तरित होती रहती है।

इस प्रकार के अन्वेषण को ही आत्म-विचार, आत्म-जिज्ञासा, या आत्म-अनुसंधान भी कहा जाता है।

इसलिए आत्म-विचार किसी प्रकार की वैचारिक गतिविधि नहीं, बल्कि यह जानने का एक प्रयास होता है कि 'मैं' शब्द से जिस वस्तु का उल्लेख किया जाता है, स्वतन्त्र रूप से उसका स्वरूप क्या है!

वस्तुतः मन ही आत्म-विचार में बाधा है, परन्तु इस बाधा का निवारण भी आत्म-विचार से ही होता है। 

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December 21, 2021

Philosophy

एक पंक्ति में :

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संस्कृत भाषा नहीं, भाषाशास्त्र (Philology!?) है !

Philosophy दर्शन नहीं, दर्शनशास्त्र है !

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स्व तथा चेतना

अहं-पदार्थ और स्व / अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय 

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अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः ।।

अवस्थात्रय साक्षी सन् पञ्चकोष-विलक्षणः ।।१२५।।

(विवेकचूडामणि)

पिछले पोस्ट :

"संवेदनशीलता और मनोरंजन"

में कुछ तकनीकी त्रुटि देखी जा सकती है।

यहाँ स्व का अभिप्राय है  'self'.

जो व्यवहार में 

Me, my, myself, yourself, ourselves, your-selves, him-self, her-self, them-self.

की तरह अपने लिए या दूसरों के लिए प्रयुक्त किया जाता है।

आधुनिक मनोविज्ञान में इसे consciousness कहा जाता है, जो किसी हद तक अधूरा और भ्रामक है। 

वेद (जिसका व्यापक तात्पर्य है 'समष्टि ज्ञान') के सन्दर्भ में कहें, तो वेद अर्थात् इस समष्टि ज्ञान का उद्भव दर्शन से होता है। 

आस्तिक-दर्शन के निम्नलिखित छः प्रधान प्रकार  हैं :

साङ्ख्य, कर्म (पूर्व-मीमांसा), न्याय, योग, वैशेषिक और वेदान्त (उत्तर-मीमांसा) ।

प्राचीन वेद-विद्याओं में जिसे 'आन्वीक्षिकी' कहा जाता था, उसे ही बाद में 'न्याय-शास्त्र' का नाम प्राप्त हुआ। 

न्याय-शास्त्र में पुनः दो दर्शन सम्मिलित हैं न्याय और वैशेषिक। न्याय के प्रवर्तक गौतम मुनि थे, जबकि वैशेषिक के प्रवर्तक थे,  -आचार्य कणाद। आचार्य कणाद का ही नाम कौशिक, अर्थात् उलूक था, इसलिए उनके दर्शन को औलूक्य दर्शन भी कहते हैं। अणु-सिद्धान्त का प्रतिपादन दर्शन के इसी प्रकार के अन्तर्गत है। रोचक तथ्य है कि औलूक्य की व्युत्पत्ति "उलूक" से भी की जा सकती है और "अवलोक्य" से भी। बाद में इसका ही प्रचार प्रसार ग्रीस में अरस्तु (अरः तु) अरिः तु तल  Aristotle और प्लुतो / प्लेटो / अफ़लातून / Plato के समय में तर्क-विद्या / logic  के रूप में हुआ और प्लेटो ने इसे ही आधार के रूप में ग्रहण करते हुए सामाजिक / प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के लिए प्रयुक्त करते हुए :

The Republic 

ग्रन्थ की रचना की।

इसकी ही परिणति चीन में कन्फ्यूशियस नामक विद्वान के द्वारा प्रतिपादित और स्थापित कन्फ्यूशियस परंपरा के सामाजिक-नैतिक मार्गदर्शक सिद्धान्तों के रूप में भी हुई।

संभवतः वर्तमान में चीन के शासकों का वही राजनीतिक दर्शन भी है, ऐसा कहा जा सकता है। 

इस प्रकार न्याय दर्शन (जो नि आयः √इ से बना न्याय), नियम,  सिद्धान्त, प्रकार, औचित्य, युक्ति तथा निर्णय का समानार्थी है।

न्याय-दर्शन के प्रतिपादक आचार्य गौतम मुनि (जिन्हें अक्षपाद  भी कहा जाता था) के दर्शन और वैशेषिक दर्शन के प्रतिपादक आचार्य कणाद के दर्शन को मिलाकर तर्क-विद्या भी कहा जाता है। दोनों का ध्येय यही है कि विमर्श के माध्यम से सत्य तक कैसे पहुँचा जा सकता है। किन्तु विचार-विमर्श में भी किसी मर्यादा / criteria का आधार तो होना ही चाहिए, अन्यथा विचार-विमर्श की प्रक्रिया में त्रुटि हो सकती है। अतः न्याय-दर्शन के अन्तर्गत 16 प्रमेयों अर्थात् ज्ञातव्य पदार्थों को आधारभूत विवेच्य पदार्थ की तरह स्वीकार किया जाता है। इन्हीं में से एक का नाम है : चेतना अर्थात् चैतन्य (consciousness) जो आत्मा का तथा अहंकार, दोनों का ही पर्याय है।

आत्मा का अर्थ / स्वरूप वैसे तो ब्रह्म ही है, किन्तु व्यक्ति-विशेष के सन्दर्भ में इसे ही अहंकार या स्व कहा जाता है। 

इस प्रकार से आत्मा और अहंकार को एक साथ 'अहं-पदार्थ' की संज्ञा दी जाती है।

अगले पोस्ट में इसकी और विवेचना होगी।

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December 19, 2021

संवेदनशीलता और मनोरंजन

अभ्यस्तता और व्यसन

Addiction and Habit.

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आज के इस डी. जे. के युग में मनोरंजन ही एकमात्र ध्येय प्रतीत होता है, और किसी भी प्रकार का मनोरंजन संवेदनशीलता को कुंठित ही करता है। क्योंकि मनोरंजन में मन बहुत सक्रिय और व्यस्त हो जाता है। इस तरह सक्रियता और व्यस्तता में यद्यपि स्व लुप्त-प्राय और विस्मृत भी हो जाता है, किन्तु फिर भी स्व का अस्तित्व मिट नहीं जाता । मनोरंजन का विषय बदलते ही स्व पुनः पहले की ही तरह सक्रिय हो उठता है। तात्पर्य यह कि स्व और मन दो भिन्न गतिविधियाँ हैं। स्व में वह सब कुछ होता है जिसे कि अनुभव किया जाता है। मन जब इस अनुभव से कभी पूरी तरह से एकात्म हो जाता है, तो मन की संवेदनशीलता उस समय समाप्त जैसी हो जाती है, और मन की ऐसी दशा में न तो सुख का संवेदन रह पाता है, और न दुःख का। क्योंकि किसी भी प्रकार के संवेदन में, अनुभव किए जानेवाले विषय और विषय का अनुभव करनेवाले मन के बीच थोड़ा सा कोई अन्तराल तो होता ही है। किन्तु विषय के साथ एकात्मता के चरम होने की स्थिति में यह अन्तराल मिट जाता है। इसलिए मन उस पूरे समय के लिए अनायास ही स्व को विस्मृत कर बैठता है। और इसलिए मनोरंजन में स्व मिटता तो नहीं, बस केवल उतने समय के लिए विलुप्तप्राय जैसा हो जाता है । उस विषय से संलग्नता टूटते ही स्व पुनः और भी अधिक शक्ति से अभिव्यक्त होकर उभर उठता है, और तब मन पुनः ऐसा कोई दूसरा अन्य प्रयास करने लगता है, जिसमें स्व किसी तरह से पहले जैसा विलुप्तप्राय हो जाए। किसी भी मनोरंजन के दोहराने के क्रम में यही तो होता है। इस प्रकार मनोरंजन तात्कालिक रूप से यद्यपि मन को स्व से राहत तो देता है, किन्तु वह राहत अल्पकालिक ही सिद्ध होती है। यह दुष्चक्र मन से उसकी सारी ताज़गी और शक्ति को भी खींच ले जाता है। हाँ, इस सबसे मन अन्ततः थक भी सकता है, और तब नींद आ सकती है। नींद प्रकृति-प्रदत्त वह स्वाभाविक व्यवस्था होती है, जिसमें कि मन कुछ समय के लिए शान्तिपूर्वक विश्राम (का उपभोग) कर पाता है । 

क्या नींद में स्व मिट जाता है? या कि वह केवल निष्क्रिय भर हो रहता है? यह स्पष्ट ही है, और हर कोई इसे जानता है, कि नींद गहरी होने पर मनुष्य कितना सुख पाता है। यद्यपि वह इस सुख का वर्णन नहीं कर सकता कि यह किस प्रकार का है, किन्तु यह तो स्पष्ट ही है, कि उस सुख की प्राप्ति  हर किसी को अपने ही अन्तर्हृदय में हुआ करती है।

संसार के किसी भी बड़े से बड़े मनोरंजन (के अनुभव) को प्राप्त करने के लिए, बदले में कोई क्या कभी नींद के इस स्वाभाविक सुख का त्याग करना चाहेगा?

किन्तु नींद के बारे में एक समस्या यह है, कि इसे न तो निमंत्रित किया जा सकता है, और न ही नियंत्रित किया जा सकता है। मनोरंजन के आकर्षण में फँसा मन नींद आने पर भी मनोरंजन में ही डूबा रहना चाहता है और इस प्रकार से नींद का प्राकृतिक क्रम गड़बड़ा जाता है । क्या मन इस सच्चाई को जान-समझ कर मनोरंजन की मर्यादा खुद ही तय कर सकता है? 

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तरोड़ मरोड़

अतीत के स्मृतिचिह्न

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सन्दर्भ :

E T Commentary

Dec. 18, 2021, 11:00 P M. I S T

Parul Pandya Dhar,

When Hindus Converted Without Much Fuss, Cuss or Trouble.

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"उन दिनों" शीर्षक से लिखे पोस्ट्स का क्रम तो समाप्त हो गया, किन्तु जो बीत गये, उन दिनों की प्रासंगिकता तो बनी ही रहती है। 

कॉलेज की शिक्षा पूरी होने पर संतोषप्रद नौकरी प्राप्त हुई । स्वाभाविक ही था कि अरमान पंख खोलकर उड़ने लगे। चूँकि विवाह से मुझे बचपन से ही घृणा की हद तक अरुचि थी, और जानकारी के अभाव में प्रायः हर युवा ही जैसे इस बारे में ठीक से कुछ तय कर पाने में असमंजस में रहता है, मैं भी इसी तरह  असमंजस और मानसिक अपरिपक्वता के कारण नहीं, बल्कि अपने आध्यात्मिक रुझान के चलते विवाह को इस मार्ग पर एक रोड़ा अनुभव करता था। मेरे माता-पिता भी मेरी गतिविधियों के मूक दर्शक तो थे, इसीलिए मौका मिलते ही मैंने उनसे स्पष्ट कर दिया था कि वे मेरे विवाह के बारे में चिन्ता न करें। मुझे विवाह नहीं करना है। 

अपने कार्यस्थल पर मैं प्रायः बस से आता-जाता था। उन दिनों उस मार्ग पर म. प्र. राज्य पथ परिवहन निगम (MPSRTC) के द्वारा संचालित बसें आसानी से मिल जाया करती थीं। वैसे तो निजि तौर पर चलाई जानेवाली बसों की तुलना में वे सुस्त गति से  चलती थीं, किन्तु भीड़-भाड़ से दूर रहने के लिए मैं उनमें ही यात्रा किया करता  था ।

ऐसी ही एक बस पर पहली बार जब मैंने "त.रोड़ से म.रोड़" या "म. रोड़ से त. रोड़" पढ़ा तो कुछ आश्चर्य हुआ। फिर पता चला वे बसें तराना रोड़ से महिदपुर-रोड के मार्ग पर चलती थीं और बीच में घोंसला नामक स्थान पर मैं उनसे चढ़ या उतर सकता था। 

यह एक सांस्कृतिक सामाजिक क्रान्ति जैसा प्रतीत हुआ। 

संक्षेप में, --तथ्यों की तरोड़-मरोड़ करना, जिनके पीछे अपना कोई राजनीतिक स्वार्थ होता है ।

आज जब इकॉनामिक टाइम्स में पारुल पण्डया धर का लेख पढ़ा, तो अनायास याद आया। लेखिका ने बड़ी चतुराई से इस तथ्य का वर्णन किया है कि इतिहास के तथ्यों को कलाकृतियों में भी देखा जा सकता है। उन्होंने 'विनय-पिटक' का सन्दर्भ देते हुए उस घटना का वर्णन किया है जब तीन ब्राह्मणों ने भगवान् बुद्ध के चमत्कारों से प्रभावित होकर अपने ब्राह्मण / हिन्दू धर्म का त्याग किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित हुए! 

यहाँ बड़ी ही कुशलता से लेखिका इस तथ्य से हमारा ध्यान हटा देती हैं कि उस काल में जब 'हिन्दू' शब्द का अस्तित्व तक नहीं था, बौद्ध धर्म उसी सनातन धर्म की एक शाखा था जिसे वैदिक या आस्तिक धर्म भी कहा जाता है।

"एस धम्म सनंतनो"

या, 

"एषः धर्मः सनातनो"

उसी सनातन-धर्म की पहचान है। 

इन्हीं जैसे बुद्धिजीवियों ने इस प्रकार से सनातन-धर्म की अनेक शाखाओं को भिन्न भिन्न धर्म की तरह इंगित कर इस तथ्य की ओर से हमारी आँखों पर पर्दा डाल दिया है कि 'हिन्दू' धर्म, जैन, बौद्ध, सिख धर्म जैसा ही और वैदिक आर्य धर्म का ही एक प्रकार मात्र है, और अलग से कोई स्वतंत्र धर्म नहीं है!

इसी प्रकार और इसी के साथ, इस्लाम, ईसाई, पारसी और यहूदी आदि परंपराओं को 'धर्म' कहकर भी हमें भ्रमित किया जाता है।

फलश्रुति :

यात्री कृपया ध्यान दें!

तराना-रोड से महिदपुर-रोड के मार्ग पर चलनेवाले सभी बसें 'घोंसला' से होकर गुजरती हैं!

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December 18, 2021

नया वर्ष!

कविता : 18-12-2021

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नववर्ष 

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फिर से आकर खड़ा हुआ है द्वार पर मेरे,

नववर्ष, या कि, मैं ही यहाँ तक आ गया हूँ!

हाँ समय फिर से है, अतीत के अवलोकन का,

वैसे गन्तव्य तो अपना भी अब मैं पा चुका हूँ!

पर समय की भूमि पर, गन्तव्य भी प्रारम्भ है,

और चलना नियति ही है, कर्म ही प्रारब्ध है!

कर्म का आधार, लेकिन दृष्टि-दर्शन ही तो है,

धर्म तो है चलते रहना, लक्ष्य ही अनुबन्ध है!

लक्ष्य ही तो प्रेरणा है, लक्ष्य ही संकल्प भी, 

और दर्शन दृष्टि है, विकल्प ही प्रतिबन्ध है!

दृष्टि ही जब तक नहीं, विकल्प का ही व्यूह है,

अभिमन्यु हो या हो अर्जुन, यही तो चक्रव्यूह है!

अभिमन्यु संकल्प है, पर दिशाहीन, दृष्टिहीन,

पार्थ ही ऋजु-दृष्टि है, दर्शन भी संशयविहीन!

मार्ग दो ही समक्ष हैं, विश्वास का या ज्ञान का,

वही आधार धर्म-दर्शन, कर्म के अनुष्ठान का!

धर्म की यह परंपरा विश्वास, नीति, संधान है,

कर्म की जो प्रेरणा, या आत्म-अनुसंधान है!

दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ, जो स्तुत्य भी हैं श्रेष्ठ भी,

एक तो है कर्म की, अन्य है अनुसन्धान की!

कर्म है विश्वास-निष्ठा, पर कर्म ही कर्तव्य है,

जो नहीं कर्तव्य है वह, भ्रान्ति अकर्तव्य है!

जो नहीं है किन्तु सक्षम, और किंकर्तव्यमूढ,

वह भी है सौभाग्यशाली, यदि नहीं अत्यन्त मूढ!

जीव का, जगत का भी, कोई विधाता है अवश्य, 

निष्काम होकर कर्म करो, कर समर्पित उसे कर्म!

कर्म यदि निष्काम होगा, फल की आशा या कामना, 

कैसे उठेगी हृदय में जब, इस लक्ष्य से हो सामना!

किन्तु "यह कर्ता है कौन?" मन में उठे यदि प्रश्न यह, 

तो करो अनुसंधान, जिज्ञासा, खोज लो फिर मार्ग वह!

दो ही निष्ठाएँ हैं यहाँ पर, कर्म की भी, ज्ञान की, 

एक निष्ठा खोज लो, त्यागकर अभिमान की!

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December 16, 2021

राष्ट्रभाषा और राजभाषा

भाषा-चिन्तन

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भारतवर्ष के स्वतन्त्र होने के समय यद्यपि हिन्दी, जन-गण-मन में सबकी और देश की भी जन-सामान्य की भाषा हो चुकी थी, किन्तु कुछ विघ्नसंतोषी प्रवृत्ति के लोग इस तथ्य को झुठलाने और इस तथ्य को आँखों से ओझल कर देने के लिए उर्दू तथा अंग्रेजी के साथ साथ तमिऴ को भी हिन्दी से पृथक् सिद्ध करते हुए लोगों के मन में हिन्दी के प्रति द्वेष की भावना पैदा कर रहे थे।

अपने जीवन के पिछले 50 वर्षों में मैंने इन भाषाओं के बारे में जितना कुछ भी समझा उससे मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि इन तीनों भाषाओं का व्याकरण और संरचना भले ही हिन्दी के व्याकरण और संरचना से भिन्न हो, इनके अधिकांश शब्दों की व्युत्पत्ति को सँस्कृत के मूल पदों (शब्दों)  की सहायता और तुलना से बखूबी समझा और समझाया जा सकता है। हिन्दी और शेष दूसरी सभी भारतीय भाषाओं के संबंध में तो यह प्रश्न किसी के मन में कभी शायद ही आता होगा। सच तो यह है कि उपरोक्त तीनों भाषाओं के बारे में भी यही सत्य है कि किन्हीं भी दो या अधिक भाषाओं को सीखते हुए हम उन सभी भाषाओं को अनायास ही और भी अधिक संपन्न और समृद्ध करते हैं।

यह भी मानना होगा कि हिन्दी या किसी भी एक विशेष भाषा को संपूर्ण देश की राष्ट्रभाषा बनाने में अवश्य ही कुछ बड़ी और व्यावहारिक कठिनाइयाँ तो हैं ही। इसे समझने से पहले तो यही उचित होगा कि राष्ट्रभाषा के और राजभाषा के प्रयोजन पर हम ध्यान दें। इस बारे में दो मत नहीं हो सकते कि किसी भी स्थान,  प्रान्त, प्रदेश या राज्य का अधिक से अधिक सरकारी कार्य वहाँ की स्थानीय भाषा में ही होना और किया जाना चाहिए। किन्तु  केन्द्रीय स्तर पर क्या इसकी व्यवहार्यता / उपयोगिता संदिग्ध ही नहीं है? क्या कुछ विघ्न-सन्तोषियों के हिन्दी-विरोध के चलते, हिन्दी को बलपूर्वक केन्द्रीय स्तर पर देश की सरकारी भाषा के रूप में थोपा जा सकता है? 

भले ही वे लोग शेष भारत से असहमत हों, फिर भी उनके मत की उपेक्षा भी नहीं की जा सकती ।

फिर क्या हम अंग्रेजी को केन्द्रीय स्तर पर देश के सरकारी काम की भाषा की तरह स्वीकार नहीं कर सकते? 

इस प्रकार एक ओर स्थानीय स्तर पर देश के विभिन्न हिस्सों में सरकारी कामकाज वहाँ की स्थानीय भाषा में किया जा सकता है, जबकि इसके ही साथ साथ, पूरे देश के सरकारी कामकाज के लिए अंग्रेजी का प्रयोग भी स्वीकार्य हो सकता है। 

अंग्रेजी क्यों? 

किन्हीं भी कारणों से विगत दो-तीन सौ वर्षों के समय में अंग्रेजी ने भारत के सरकारी कामकाज के रूप में (घुस)पैठ कर ही ली है, तो देशहित के लिए क्यों न उस पूरी पद्धति / व्यवस्था और प्रणाली / system का पूरा पूरा लाभ उठाया जाए? केवल हठ, पूर्वाग्रह या जिद के चलते, क्यों नए सिरे से हिन्दी को बलपूर्वक लागू करते हुए, श्रम करते हुए, कठिनाइयों का सामना करते हुए अनावश्यक गतिरोध और विवाद पैदा किया जाए?

अंग्रेजी भाषा के पक्ष में सर्वाधिक शक्तिशाली और विचारणीय तथ्य यह है कि इसका उद्गम जिस परंपरा / शिक्षा से हुआ है वह आंग्ल परंपरा स्वयं भी ऋषि अंगिरा / अंगिरस् प्रणीत है और यह मूलतः अंगिरा / अंगिरस् शैक्षम् के रूप में  सुदूर अतीत से प्रचलित है । इसी अंगिरा का सज्ञात / सजात / अपभ्रंश हुआ  :

Angel,

क्योंकि तात्पर्य और प्रयोजन के रूप में यही  Angel  का मूल भी है। क्या  Angel  शब्द की कोई और संतोषजनक व्युत्पत्ति हमारे पास है? 

मान लें  Angel फ़ारसी के फ़रिश्तः का समानार्थी है तो भी यह फ़ारसी शब्द अवश्य ही मूलतः संस्कृत शब्द 'पार्षदः' से व्युत्पन्न है, इसे समझना कठिन नहीं है, क्योंकि 'पार्षदः' का तात्पर्य है वे लोग जो किसी देवता की परिषद् (सभा) के सदस्य होते हैं -- विशेषतः भगवान् विष्णु के ।

इस प्रकार  Angel शब्द अवश्य ही अंगिरा का ही सज्ञात है। 

अब यदि हम पुनः अंग्रेजी भाषा को अपने सरकारी कामकाज की भाषा बना लें तो हमारे बहुत से अनावश्यक उन व्ययों पर रोक लग जाएगी, जो वर्तमान में हिन्दी के प्रयोग में खर्च किए जा रहे हैं। यह पुनरावृत्ति (unnecessary repetition) अवश्य ही रोकी जानी चाहिए और इस धन का उपयोग अन्यत्र वहाँ किया जाना चाहिए जहाँ हमारे पास पैसे की कमी से बहुत से अधिक जरूरी कार्य अधूरे पड़े हैं। 

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December 15, 2021

मैं, मेरा संसार...

और मेरा जीवन! 

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तीन ये ध्रुव, हैं मुझमें, 

और मैं हूँ बँटा हुआ, 

तीन ध्रुवों में!

तीनों अलग अलग हैं,

फिर भी अलग अलग नहीं!

मैं, संसार में हूँ, 

और संसार मुझमें!

मैं जीवन में हूँ,

और जीवन मुझमें!

संसार जीवन में है,

और जीवन संसार में!

हर ध्रुव के सन्दर्भ में,

शेष दोनों, हैं गौण!

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December 04, 2021

बहुत दूर है दिल्ली!

कविता / 04/12/2021

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बहुत दूर है दिल्ली, बहुत दूर अभी!  

अभी तो घर से निकलना भी है, बहुत मुश्किल!

रास्ते हैं, सभी खतरनाक बहुत! 

फिर भी हिम्मत है, बहुत से लोगों में!

वो क्या चीज़ है, जो पैदा करती है, 

दिल में इरादा, हिम्मत, और जज्बा भी! 

अभी तो वो भी पा सकना भी है मुश्किल!

अभी तो दूर है दिल्ली, बहुत दूर अभी! 

दिल से दिल्ली का, दिल्लगी का भी कोई, 

क्या है सरोकार, क्या है रिश्ता?

फिर भी दिल के बहलाने को, 

ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है कि! 

किसी दिन फ़तह करना, है दिल्ली!

वैसे भी, घर पे बैठे बैठे क्या करें!

चलो वर्चुअल मोड में ही खेलें, - दिल्ली-दिल्ली!

फिर कभी मिला मौक़ा, तो काम आएगा,

ये तज़ुर्बा अपना, खेलने का अभी! 

अभी तो दूर है, बहुत दूर है, अभी दिल्ली!

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December 03, 2021

वह उदास लड़की

कविता  / 03/12/2021

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नज़रें

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बेलती है, -रोटी,

काटती है, -आलू,

धोती है, -कपड़े,

ताड़ती है, -नज़रें,

बोलती, -कुछ नहीं,

हाँ,  -उसके कान,

सुनते हैं, -सब कुछ! 

हाँ, -उसकी आँखें, 

बोलती हैं, -बहुत कुछ! 

कहती हैं, -सब कुछ!

समझती हैं, -सब कुछ!

रहती है, -वह ख़ामोश,

बिना बोले, -चुप-चुप!

वह उदास लड़की!

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मुझे ऐसा याद आता है कि ऐसी किसी लड़की के बारे में इससे मिलती-जुलती कुछ कविताएँ मैं पहले भी लिख और पोस्ट कर  चुका हूँ।)

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December 02, 2021

The Wolf of Wall Street.

Jordan Belfort

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एक-दो दिन पहले मैंने मुद्रा-चिन्तन / अर्थ-चिन्तन शीर्षक से क्रिप्टोकरेंसी के बारे में एक पोस्ट इस ब्लॉग में लिखा था।

आज इंडिया टुडे में मानस तिवारी की इस रिपोर्ट पढ़ने पर मेरे इस अनुमान की पुष्टि हो गई, कि क्रिप्टोकरेंसी के बारे में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं है।

यह भी संभव है कि क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से इसे लॉन्च करने वाले पूरी अर्थ-व्यवस्था को पटरी से उतार सकते हैं।

इसलिए भी किसी भी प्रकार की क्रिप्टोकरेंसी के प्रचलन पर सरकार का वैधानिक नियंत्रण होना बहुत जरूरी है।

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December 01, 2021

सैरन्ध्री





भूमिरश्मा 

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घर के सामने पार्क बन रहा है। पिछले दो वर्षों में नया कुछ नहीं बना। वही दो चैत्य हैं चौकोर, आसपास चंपा के वृक्ष, एकमात्र सुपारी का ऊँचा वृक्ष। 

इस बारिश में उस पार्क में बीचोंबीच नीम-वट-पीपल को एक साथ रोपकर उसे जालीदार ट्री-गार्ड से ढँक दिया गया है।

पार्क के जिस चौकोर लॉन के बीचोंबीच ये तीन वृक्ष रोपे गए हैं, उसके चारों कोनों पर सीमेन्ट की बड़ी-बड़ी सरन्ध्र ईंटों से बने चार बड़े टैंक / हौज तैयार किए गए हैं। 

ये टैंक किसलिए बने हैं, यह अभी स्पष्ट नहीं है। अब लगता है शायद उनमें कोई वृक्ष लगाए जाएँगे। चौकोर हिस्से के एक सिरे पर कुएँ जैसी, तीन फुट व्यास की, एक फुट ऊँची रचना है, जिसमें अभी कचरा जमा होता है, लेकिन लगता है कि उसमें बाद में कुमुदिनी रोपी जाएगी ।

उन ईंटों के छोटे-बड़े अनावश्यक बचे हुए टुकड़े पार्क में बिखरे पड़े हैं । एक टुकड़ा मैं भी उठा लाया।

सोचा उस पर कुछ उत्कीर्ण कर उसमें छिपी किसी प्रतिमा को उभारकर साकार करूँ। फिर यह भी लगा कि उस पर कलर-पेंसिलों से कोई प्राकृतिक दृश्य निर्मित करूँ।

गूगल-सर्च में प्यूमिस स्टोन जैसी उस रचना के संबंध में पढ़ा कि ज्वालामुखी के लावा से भी ऐसा प्यूमिस पत्थर बनता है। फिर उसे ध्यान से देखा तो लगा कि उस मानव-निर्मित पत्थर / ईंट को बनाने के लिए सीमेन्ट में पानी मिलाकर एक गाढ़ा मिश्रण बनाया गया होगा, और उसमें ब्लो-पाइप से हवा प्रवाहित कर उसे सरन्ध्र रूप दिया गया होगा। 

मेज पर वह टुकड़ा अब भी रखा हुआ है। 

रात्रि में सोने से पहले उस पर दृष्टि पड़ी तो लगा वह पत्थर / ईंट मुझसे कुछ कह रही है। लेकिन मैंने इस पर ध्यान नहीं दिया।

रात्रि में स्वप्न में वह मुझे घूँघट में छिपी किसी राजपरिवार की एक स्त्री जैसी दिखलाई पड़ी। उसकी हँसी की आवाज सुनते ही मेरा ध्यान उस पर गया। 

"मैं सैरन्ध्री हूँ!"

उसने कहा।

मैं नहीं जानता था कि सैरन्ध्री का क्या अर्थ है। 

"अच्छा!"

मैंने इतना ही कहा। 

"द्रौपदी"

उसने तुरंत अपना परिचय स्पष्ट किया। 

"फिर तुमने अपना नाम सैरन्ध्री क्यों बताया?"

"वह इसलिए, क्योंकि तुम मुझे तराशकर मुझ पर कोई आकृति उकेरने या रंग आदि के लेप से मुझ पर कोई आवरण चढ़ाने के बारे में सोच रहे हो।  है न? !"

"पर मैं तो तुम्हें गणेश या बुद्ध, राम या शालभंजिका का रूप देना चाह रहा था।"

"नहीं!  मैं जैसी हूँ वैसी ही रहना और दिखलाई देना चाहती हूँ!"

इतना सुनते हुए मेरी आँख खुल गई। 

मेज पर वह शिला, भूमिरश्मा अब भी वैसी ही अमूर्त प्रतिमा की तरह मौन थी ।

मैं फिर सो गया।

सुबह उठा, तो लगा अब उसे किसी प्रतिमा का रूप देकर और अधिक विरूपित करना उसका अपमान होगा।

अब यह वहीं रहेगी।

शायद कोई उसके बारे में कोई जिज्ञासा या अनुमान करेगा या प्रश्न भी पूछेगा ।

पर मैं भी उसकी तरह मौन ही रहूँगा।

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कितनी जल्दी!

कविता / 01-12-2021

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पहले कभी लिखा था, '₹' पर, 

फिर लिखा था, रूपामुद्रा पर, 

कल लिखा था, कृप्तामुद्रा पर!

याद आए मुद्राराक्षस और लोपामुद्रा! 

मुद्रण की त्रुटि, 

त्रुटि का मुद्रण, 

टंकित से मुद्रित होना, 

मुद्रित से टंकित होना,

टंकण से तंका (अरबी मुद्रा), 

तंका से टका, 

टका से टिक,

टिकिया और टीका! 

टिक से टिकट,

टिक से टिप,

टिप से टाइप,

कितनी मुद्राएँँ हैं,

मुद्रा की!

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November 30, 2021

मुद्रा-चिन्तन

अर्थ-चिन्तन

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अर्थ-शास्त्र मुझे कभी समझ में नहीं आया, क्योंकि उसे समझने की आवश्यकता कभी अनुभव ही नहीं हुई। जब जेब में पैसे हों तो पैसे के बारे में सोचना ही क्यों!  और, जब जेब खाली हो तो पैसे के बारे में सोचना ही क्यों! वैसे सच यह भी है कि लगभग हर किसी की जेब अकसर आधी भरी और आधी खाली भी होती है! इसे गिलास के आधे भरे होने जैसी सच्चाई जैसी दृष्टि से भी देखा जा सकता है! फिर संसार में ऐसे लोग बहुत कम होते होंगे जिन्हें संसार का सबसे बड़ा धनवान कहा जा सके। उनका भी स्थान हर रोज ऊपर नीचे होता रहता है। 

किन्तु जब से क्रिप्टोकरेंसी प्रचलन में आई है, मुझमें इस बारे में  थोड़ी उत्सुकता अवश्य उत्पन्न हुई है। पिछले किसी पोस्ट में मैंने क्रिप्टोकरेंसी की तुलना 'रिलीजन' से की थी। मुझे लगता है कि जैसे 'रिलीजन' के किसी न किसी प्रकार पर यद्यपि हर किसी की आस्था होती है, किन्तु इस बारे में कोई सर्वमान्य राय नहीं बन पाती, कि कौन सा 'रिलीजन' धर्म है या धर्म नहीं है, ठीक वैसे ही, कौन सी क्रिप्टोकरेंसी का आगमन कहाँ से हुआ, और कौन सी कितनी विश्वसनीय या अविश्वसनीय है, इस बारे में भी शायद ही कोई सर्वमान्य सहमति होगी। 

वर्तमान में जो मुद्रा अलग अलग देशों में वहाँ के संविधान के द्वारा तय और प्रचलित होती है वह भी अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के अनुसार कम या अधिक शक्तिशाली होती रहती है और इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि दुनिया भर की आर्थिक शक्तियाँ उसे लगातार प्रभावित करने की कोशिश करती रहती हैं। 

(जैसा कि आजकल पाकिस्तान या तुर्की की राष्ट्रीय मुद्रा का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य है।) 

विभिन्न देश अपनी राष्ट्रीय मुद्रा को यू. एस. डॉलर से संबद्ध करते हैं, और इस बारे में भी हर राष्ट्र को सचेत होना चाहिए, क्योंकि इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

क्रिप्टोकरेंसी के आगमन / आविष्कार के बाद स्थिति और भी अनिश्चित व भयावह हो गई है। 

फिर भी राष्ट्र अवश्य ही अपनी एक डिजिटल करेंसी परिभाषित और प्रचलित कर सकता है।  

कैसे?

देश का केन्द्रीय बैंक (Central Bank), उसके पास विद्यमान वास्तविक स्वर्ण की जितनी संरक्षित मात्रा (Gold-Reserve) है, उसके आधार पर रुपये या राष्ट्रीय मुद्रा में उसका मूल्य तय कर तदनुसार डिजिटल करेंसी जारी कर सकता है। 

डिजिटल करेंसी जारी करनेवाली विभिन्न एजेंसियों के लिए यह आवश्यक होना चाहिए कि वे केन्द्रीय बैंक की सुरक्षा (कस्टडी) में रखी हुई उनकी स्वर्ण-प्रतिभूति (Gold-Reserve) के मूल्य के पैमाने पर ही उनकी क्रिप्टोकरेंसी बाजार में प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रकार इस क्रिप्टोकरेंसी को शेयर-मार्केट में अधिसूचित भी किया जा सकता है। उनमें परस्पर स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना भी संभव है।

इस प्रकार बहुत से प्लेयर्स अर्थ-व्यवस्था के अन्तर्गत अपनी एक क्रिप्टोकरेंसी चुनकर पारदर्शी तरीके से अपनी बाजार-पूँजी को विकसित कर सकते हैं।

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कल, आज और कल

अतीत, वर्तमान और भविष्य :

जीवन-धर्म

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पिछले पोस्ट के संदर्भ में देखें तो स्पष्ट है कि अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में जब भी सोचा जाता है या हम सोचने के लिए बाध्य होते हैं तो किसी न किसी संदर्भ में ही ऐसा होता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस स्थिति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक संदर्भ पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता या अपने किसी भय या आग्रह के कारण जानते हुए भी हम उस संदर्भ पर ध्यान ही नहीं देते ।

मोबाइल या टीवी पर कोई भी न्यूज़ आइटम या कोई ऐड हमारी तात्कालिक आवश्यकता की ओर से सिर्फ हमारा ध्यान ही नहीं हटाते, बल्कि उसे किसी ऐसी दिशा में खींच लेते हैं, जो न सिर्फ तात्कालिक उत्तेजना अथवा आकर्षण होती है बल्कि हमें अपनी वास्तविक आवश्यकता के बारे में सोचने / सोच पाने से भी रोक देती है। हाँ यह प्रायः होता है, कि तब आप कल, आज या कल, अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में भी सोच रहे होते हैं, वह भी किसी न किसी दृष्टिकोण से!

फिर भी अपने मूल चरित्र के अनुसार आप अपना मूल्यांकन भी अवश्य कर सकते हैं। 

प्रत्येक मनुष्य मूलतः जिन प्रेरणाओं से संचालित होता है, वैसे तो वे उसके परिवार, परिवेश तथा परिस्थितियों का मिला जुला प्रभाव होती हैं, किन्तु सफलता, आदर्श, कर्तव्य, व्यक्तिगत स्वार्थ आदि को सर्वोपरि स्थान देकर हर मनुष्य किन्हीं आवश्यकतओं को सबसे अधिक महत्व देने लगता है। 

'लोग क्या कहेंगे!' 

इस एक प्रश्न का सामना भी प्रत्येक मनुष्य अपनी मूल प्रेरणा के ही अनुसार करता है।

सफलता को अधिक महत्व देनेवाला कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, सरल या उलझा हुआ, संतुष्ट या असंतुष्ट, साहसी या भीरु, स्पष्ट या भ्रमित हो सकता है। 

इसी प्रकार महत्वाकांक्षा से ग्रस्त कोई मनुष्य भी इसी प्रकार से हो सकता है। 

किसी वास्तविक, काल्पनिक ध्येय या आदर्श से प्रेरित व्यक्ति भी इसी तरह अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, अपने कार्य को कैसे किया जाना है, इस बारे में ठीक से जानता या इस बारे में भ्रमित भी हो सकता है। 

"क्या नियति या भाग्य ही मनुष्य को जीवन में सफलता अथवा असफलता, सुख या दुःख आदि प्रदान करते हैं, या कि वह स्वयं ही अपने भाग्य का स्वामी / निर्माता है?"

यह प्रश्न भी मनुष्य अकसर तब पूछता है जब जीवन में उसका सामना सतत आशा-निराशा से होने लगता है। 

जब तक सब कुछ ठीक चल रहा होता है तब तक मनुष्य जीवन के छोटे-बड़े प्रश्नों से सरलता से निपट लेता है, लेकिन बहुत सी समस्याएँ सामने आने पर प्रायः हर कोई व्याकुल और भ्रमित हो जाया करता है, दुविधा और असमंजस में ऐसे निर्णय कर लेता है जिससे  समस्याएँ और भी उलझ जाती हैं।

क्या यह भी नियति अथवा भाग्य से होता है? 

इस तरह से सोचने से क्या हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, या कोई समस्या हल हो जाती है?

इसलिए यह तो इस पर ही निर्भर करता है कि हम प्रश्न पर किस संदर्भ में देखते हैं। और संदर्भ भी क्या सिर्फ़ एक ही होता है? संदर्भ बहुत से हो सकते हैं, किन्तु फिर किसी एक के आधार पर भी विकल्प भी अनेक हो सकते हैं। यह कठिनाई है या अवसर, यह भी अपने अपने दृष्टिकोण से तय हो सकता है!

दृष्टिकोण जितना अधिक उदार, व्यापक और सर्वाङ्गीण होगा, समस्याओं और प्रश्नों को चुनौतियों, अवसरों, और संभावनाओं की तरह ग्रहण किया जाएगा, हमारा जीवन भी उतने ही अधिक उत्साह और उल्लास से समृद्ध हो सकता है। 

यही संक्षेप में धर्म नामक प्रथम पुरुषार्थ है। 

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November 27, 2021

सवाल यह है!

सवाल यह नहीं है,

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कि हम किसी चीज़ के बारे में क्या सोचते हैं, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उस पर हम किस सन्दर्भ से सोचते हैं। यह संदर्भ कोई परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना भी हो सकता है।

किसी परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना से उस चीज़ के बारे में सोचते हुए हम प्रायः दुविधा या कट्टरता से ग्रस्त भी हो सकते हैं, और किसी प्रकार के भय, आकर्षण, सामाजिक दबाव आदि के प्रभाव में आकर अपनी स्वतंत्र विवेक-बुद्धि को दरकिनार भी कर सकते हैं। 

विकास के बारे में हमारा चिन्तन इसी आधार से प्रेरित होता है। विकास क्या है? सामान्यतः विकास से हमारा यही आशय होता है, कि राष्ट्र शक्तिशाली बने, दूसरे राष्ट्रों की तुलना में प्रभावशाली बने। शक्तिशाली होने का मतलब हुआ, -भौतिक रूप से समृद्ध और साधनसंपन्न हो। और यह भौतिक समृद्धि किस प्रकार और किस कीमत पर पाई जा रही है, इस ओर न तो किसी का ध्यान होता है, न कोई ध्यान देना चाहता है। कोई राजनीतिक विचार, कोई राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति ही इस विकास का प्रतिनिधि-उदाहरण ideal icon बन जाता है। इसकी तुलना में तमाम नीति (ethics and morality) शील (humility) और आचार (behavior and code of conduct) गौण हो जाते हैं। किसी भी उचित अनुचित-रीति से सफल हो जाना ही ध्येय होकर रह जाता है। किन्तु इस सफलता के शिखर पर पहुँचकर भी क्या किसी के भी जीवन में कहीं कोई वास्तविक प्रफुल्लता दिखाई पड़ती है! यह न केवल किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य है, बल्कि पूरे समाज के बारे में भी इससे भी अधिक सत्य है। क्या ऐसा कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की आन्तरिक रिक्तता को दूसरों की नजरों से छिपा पाता है? क्या यह आत्म-गौरव उसे उसके मन की शान्ति और समाधान प्रदान कर पाता है! 

अपने भीतर क्या वह उतना ही, या उससे भी अधिक खाली नहीं होता, जितना कि कोई भी दूसरा सामान्य मनुष्य हुआ करता है?

इससे जुड़ा एक इतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि प्रत्येक  व्यक्ति मनोरंजन (entertainment / enjoyment) के पीछे क्यों भागता है! मनोरंजन (entertainment / enjoyment) में मनुष्य को ऐसा क्या प्राप्त हो जाता है जिससे कि उसका जीवन सार्थक और पूर्ण हो जाता हो! इसके बाद क्या  "what next?" पुनः आकर सामने नहीं खड़ा होता? क्या भविष्य की आशंकाएँ, अनिश्चितताएँ समाप्त हो जाती हैं?

स्पष्ट है कि मर्यादारहित सुख का भोग अन्ततः मनुष्य को उतना ही असंवेदनशील बना देता है, और ऐसे नीरस जीवन में सुख या उत्तेजना की तलाश में वह और भी नये-नये तरीकों की तलाश में संलग्न हो जाता है। वे सुख या उत्तेजनाएँ किसी नशे के माध्यम से या किसी आदर्श के प्रति गहरे समर्पण से भी सतत पैदा की जा सकती हैं, और उनमें सतत गौरव भी अनुभव किया जाता रह सकता है। लेकिन सवाल अब भी वही है कि क्या इस प्रकार जीवन में रिक्तता-बोध मिट पाता है?

फिर विकास क्या है? 

विज्ञान और संस्कृति, खेल, संगीत या कला, इन क्षेत्रों में विकास की सीमा / चरम क्या हो सकता है, जिससे जीवन की रिक्तता दूर हो सकती हो!

क्या अमर हो जाने पर भी रिक्तता से कभी किसी का छुटकारा हो पाना संभव है? और, क्या शायद इसीलिए तो कुछ लोग इस रिक्तता से उबकर आत्महत्या नहीं कर लेते?

क्या आत्महत्या कोई समाधान है, या वह केवल इस सवाल से पलायन करने का ही एक और यत्न है!

या, क्या यह सवाल ही कहीं औचित्यहीन तो नहीं है?

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कुछ समय से

नये नोट्स, नये पोस्ट्स

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इस ब्लॉग में, स्वाध्याय ब्लॉग में, और vinaykvaidya blog में कुछ समय से ऐसा कुछ लिख रहा हूँ जिस पर शायद मतभेद हो सकते हैं। 

जैसे क्रिप्टोकरेंसी पर, या अब्राहम एकॉर्ड्स पर। 

आश्चर्य की बात है कि यद्यपि इन दोनों पोस्ट्स को मैंने जल्दी से जल्दी डिस्कार्ड कर दिया था किन्तु इनका इम्पैक्ट इसके बाद भी दिखलाई पड़ा। 

किसी बड़े अर्थशास्त्री के अनुसार अधिकांश भारतीय क्रिप्टो-करेंसियाँ जल्दी ही समाप्त (perish) हो जाएँगी। 

मुझे न तो अर्थशास्त्र का ज्ञान है, और न ही क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कुछ जानता हूँ, फिर भी जब मेरे इस अनुमान की पुष्टि किसी बड़े अर्थशास्त्री ने की है, तो मुझे अनुभव हुआ कि मैं इस विषय का सही आकलन कर सकता हूँ। दावा तो क़तई नहीं है।

दूसरा विषय था अब्राहम एकॉर्ड्स का, तो इस बारे में जो पोस्ट मैंने लिखा था, वह 'ईश्वर' के होने के, या न होने के, प्रमाण के बारे में नहीं, बल्कि इस संबंध में था, कि यद्यपि ईश्वर कभी भी ज्ञान का विषय नहीं हो सकता, किन्तु 'ईश्वर' के ऐसे कुछ लक्षण (चिन्ह, marks, और signs) अवश्य हैं, जिन्हें अपने भीतर ही खोजकर मनुष्य ऐसे किसी 'ईश्वर' के अस्तित्वमान होने के बारे में सच्चाई का पता जरूर लगा सकता है ।

किसी पाठक ने मेरे इस पोस्ट की प्रतिक्रिया में UGoD का एक वीडियो मेरे मेल आई-डी पर भेज दिया। मैंने पढ़े या देखे बिना ही इसे डिलीट कर दिया। क्योंकि मुझे इस विषय में किसी से कोई भी चर्चा या वाद-विवाद नहीं करना है।

ईश्वर संबंधी अपने पोस्ट में मैंने केवल यही कहा था कि सनातन धर्म के अथर्वशीर्ष नामक परंपरा के ग्रन्थों में, जिसे 'ईश्वर' कहा जाता है, उस परम दिव्य सत्ता को, उसके पाँच प्रमुख लक्षणों के माध्यम से अवश्य ही अपने ही भीतर नित्य विद्यमान सत्य के रूप में जाना जा सकता है।

यहाँ पुनः यही कहना चाहूँगा कि शिव-अथर्वशीर्ष में, और इसी प्रकार से देवी-अथर्वशीर्ष इन दोनों ही ग्रन्थों में, उस दिव्य सत्ता ने देवताओं द्वारा पूछे जाने पर स्वयं का परिचय देते हुए :

"मैं ब्रह्म हूँ और मैं ही अब्रह्म भी हूँ।"

यही कहा था।

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November 21, 2021

नियति और निजता

आत्मनिर्भरता 

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कहा जाता है :

"पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं... !"

सवाल यह है, कि स्वाधीन होना क्या है और आत्मनिर्भर होना क्या है? शरीर और मन परस्पर स्वतंत्र हैं, या परतंत्र हैं? लगता तो यही है कि दोनों ही एक-दूसरे को प्रभावित भी करते हैं और एक-दूसरे से प्रभावित भी होते हैं। फिर वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, इनमें से क्या है? वह, जो शरीर और मन को 'मेरा' कहता है, क्या शरीर और मन दोनों को, या उनमें से किसी एक को भी प्रभावित करता है, -या उन दोनों, या उनमें से किसी भी एक से भी प्रभावित होता है?

स्पष्ट है कि जिसे 'मैं' कहा जाता है वह न तो शरीर या मन को प्रभावित करता है, और न ही उनसे प्रभावित होता है। यह 'मैं' अवश्य ही उनसे स्वतंत्र कोई वस्तु है। 

क्या यह 'मैंं' उनमें से किसी एक का, या फिर दोनों का ही एक सम्मिलित परिणाम है? क्या, वे दोनों 'मैं' के ही एक अथवा दो भिन्न भिन्न परिणाम हैं? सत्य अर्थात् वास्तविकता, कुछ भी क्यों न हो, इन तीनों में से वह कौन / क्या है, जो कि आत्मनिर्भर हो सकता या होता है?

क्या इन तीनों की समग्र गतिविधि ही नियति है?

फिर 'निजता' क्या है?

क्या यह 'निजता', -नित्य, सनातन, स्व-अनुभूत, स्वतःप्रमाणित एक वास्तविकता नहीं है?

जैसे 'निजता' जीवन से अभिन्न है, वैसे ही क्या वह मृत्यु से भी अभिन्न है? क्या 'निजता' की मृत्यु हो सकती है? स्पष्ट है कि मृत्यु या मृत्यु की कल्पना भी जीते-जी ही हो सकती है। फिर वह अपनी हो या कि किसी और की। दूसरे की मृत्यु तो सभी के लिए एक प्रत्यक्ष तथ्य है, किन्तु अपनी मृत्यु को क्या कभी इस तरह से प्रत्यक्षतः घटित होते हुए जान या देख पाना व्यावहारिक और तर्कसंगत दृष्टि से भी संभव, ग्राह्य है? 

और अनुभव की दृष्टि से भी ऐसा होने का प्रश्न, क्या एक अबूझ पहेली ही नहीं है?

दूसरे की मृत्यु यद्यपि इन्द्रियगम्य, मनोगम्य, कल्पनागम्य और बुद्धिगम्य हो सकती हैऔर इस दृष्टि से शायद अनुभवगम्य भी, किन्तु अपनी मृत्यु तो कभी अनुभवगम्य भी नहीं हो सकती। 

फिर आत्मनिर्भरता क्या है?

***


 



November 20, 2021

यह सब क्या है?

पुनश्च 

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कविता / 20-11-2021

य एषः सुप्तेषु जागर्ति 

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यह सब क्या है, 

जो मन में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह मन क्या है,

जो चेतना में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह चेतना क्या है, 

जो मुझमें उमड़ती-घुमड़ती है! 

यह मैं क्या है,

जो चेतना में उमड़ता-घुमड़ता है! 

यह सब क्या है!

जो जागृति में उमड़ता-घुमड़ता है, 

यह जागृति क्या है, 

जो स्वप्न में उमड़ती-घुमड़ती है! 

यह स्वप्न क्या है, 

जो सुषुप्ति में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह सुषुप्ति क्या है,

जो प्रमाद में उमड़ती-घुमड़ती है!

यह प्रमाद क्या है,

जो काल में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह काल क्या है,

जो अज्ञान में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह अज्ञान क्या है, 

जो निजता में उमड़ता-घुमड़ता है!

यह निजता क्या है!

यह सब क्या है!

***

सुबह जब मैंने पोस्ट लिखा था, भूल से, 'निजता' के स्थान पर 'नियति' शब्द छप गया था। यह कविता किसी को सुनाई, तो इस भूल पर ध्यान गया। और, अर्थ का अनर्थ हो गया! प्रमाद मृत्यु ही तो है!

***

November 18, 2021

सुबह से शाम तक

सुबह नींद खुली तो 5:10 बजे थे। 

गूगल में वेदर देखा तो पता चला यहाँ बादल रहेंगे, तापमान अनुकूल रहेगा। हवा में नमी भी कम रहेगी। शाम 5:00 बजे बारिश होगी। 

दोपहर 2:30 से 4:10 तक बहुत अच्छी नींद आई। उठा तो शरीर में ताज़गी और हल्कापन था। शाम के लिए खाना बना कर रख दिया। अब फ्री हूँ। बाहर बादल हैं रास्ते साफ-सुथरे। बच्चे खेल रहे हैं। कुछ वाहन कभी कभी आ जा रहे हैं। कुल मिलाकर बस शान्ति है। वाह!  सूखा मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है।

पानी बहुत बरसे, ठंड या गर्मी बहुत हो तो भी कोई बात नहीं। आज ऐसा ही एक दिन था। शाम को ठीक 4ः00 बजे बारिश होने लगी। बारिश की आवाज से ही तो नींद खुली थी।

मोबाइल पर कुछ समाचार देखता रहा। लैपटॉप कई दिनों से निष्क्रिय है। न कुछ करने की जरूरत है, न मन, न बाध्यता ।

शरीर और शरीर का स्वामी अपने अपने क्षेत्र में जीते हैं। इसे ही शायद गीता के अध्याय १३ में क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ कहा गया है। 

शरीर को जाननेवाले को मन कहा जाता है। लेकिन मन शरीर को कितना और कहाँ (तक) जानता है। शरीर मन को जानता है या नहीं, इस बारे में भी निश्चयपूर्वक क्या कहा जा सकता है! 

मन को कौन जानता है? कितना और कहाँ (तक)! 

क्या मन को जाननेवाला वाकई कोई दूसरा मन होता है?

यदि मन को क्षेत्र समझा / माना जाए, तो मन को इस प्रकार से जानने वाले को इस क्षेत्र का क्षेत्रज्ञ कहा जाए! 

क्या यह सारी उधेड़बुन मन ही नहीं है?

फिर वह क्या / कौन है जो कभी तो मन को 'अपना' कहता है, और कभी अपने को मन!

क्या इसे चेतना कह सकते हैं?

गीता अध्याय १० में संकेत है :

"... ... भूतानामस्मि चेतना  ।।२२।।"

क्या मन ही यह चेतना है! 

क्या यह चेतना ही मन है?

क्या मन चेतना का ही एक अंश है?

मन चेतना को जानता है या चेतना ही मन को जानती है! 

स्पष्ट है कि यहाँ हमें "जानने" का क्या तात्पर्य है इस पर ध्यान देना होगा । अब यहाँ एक और नया तत्व ध्यान भी आ गया है!

यह 'ध्यान' क्या है? 

यह मन की गतिविधि है या चेतना की अभिव्यक्ति और लक्षण है? क्या मन स्वयं ही चेतना की गतिविधि और लक्षण भी नहीं है?

जैसे मन को 'अपना' या 'मेरा' कहा जाता है, क्या उसी तरह से ध्यान को भी 'मेरा' नहीं कहा / माना जाता? 

फिर वह क्या / कौन है जो ध्यान को 'मेरा' कहता है! 

और इससे भी अधिक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि क्या ध्यान को 'किया जाता है'!  या ध्यान 'दिया जाता है'!

फिर यह प्रश्न भी उठता है कि ध्यान कौन करता / देता है! 

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November 15, 2021

सप्त लोक

वैदिक ज्ञान के अनुसार जीवन के सात रूप क्रमशः सात लोकों की तरह कहे जा सकते हैं। ये ही भू, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्य हैं। 

भू अर्थात् जड पदार्थ जिसमें अभी जीवन प्रकट (manifest) नहीं हुआ है। भुवः का अर्थ है इसी भू तत्व में कोई जैव इकाई का उद्भव होना, अर्थात् वनस्पति और जीवों का लोक । इसी क्रम में ऐसी जीव इकाई में चेतना (sentience) का प्रकट हो जाना, जो अपने 'स्व' की पहचान और उसे एक स्वतंत्र सत्ता की तरह स्वीकार करती है। इसलिए भूः, भुवः तथा स्वः ये तीनों दशाएँ क्रमशः जड जगत,  वनस्पति जगत तथा मनुष्य और दूसरे प्राणियों आदि का जगत है जिनमें अपनी अपनी विशिष्ट पहचान स्व या मैं की तरह होती है।

इसका ही अधिक विकसित रूप है जब कुछ ऐसी जैव इकाइयांँ अस्तित्व ग्रहण करती हैं जिनके पास कुछ विशिष्ट क्षमताएँ होती हैं -- जैसे यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, विद्याधर, नाग, देवता, दैत्य, वानर, सिद्ध, पिशाच आदि। रामायण के अन्तर्गत इन्हें ही 'जनस्थान' में आते जाते रहने वाली सजीव सत्ताएँ कहा गया है। राक्षस और वानर क्रमशः निशाचर / रात्रिचर और इच्छाधारी भी कहे गए हैं ।

इस प्रकार जनस्थान वह रहस्यमय संसार है जहाँ विभिन्न प्रकार की आत्माएँ आती जाती हैं और हमें देख सकती हैं, जबकि हम उन्हें नहीं देख सकते। 

इस 'जनस्थान' से ऊपर देवताओं का लोक है। देवताओं के पास अपने विमान होते हैं। देवताओं में से ही एक हैं विश्वकर्मा / त्वष्टा जो देवताओं के यंत्रों / भवनों, महलोक के निर्माता कहे जाते हैं। विश्वकर्मा ने ऐसा ही पुष्पक नामक एक विमान कुबेर के पिता के लिए बनाया था । कुबेर यक्ष था और रावण का भाई भी था, किन्तु दोनों की माताएँ अलग अलग थी। यहाँ आलस्यवश मैं यह जानकारी खोजने में असमर्थ हूँ। तात्पर्य यह कि रावण स्वयं इतना सक्षम नहीं था कि विमान निर्मित कर सके, इसलिए उसने कुबेर से वह विमान बलपूर्वक छीन लिया। 

देवताओं के लोक से ऊपर है महः लोक जिसमें महर्षि और बड़े सिद्ध, तपस्वी आदि रहते हैं भगवान् शिव इसी लोक में रहते हैं इसलिए उन्हें महेश कहा जाता है महत् तत्व बुद्धि को भी कहा जाता है। इसी प्रकार पार्वती, देवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवता भी इसी लोक में वास करते हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा और विष्णु, यम और वरुण आदि भी।

इससे भी ऊपर तपःलोक है और वहाँ सभी तपस्वी नित्यप्रति ही तपस्या करते हैं,  जैसे सूर्य, पृथ्वी आदि। 

रामायण की कथा में सभी लोकों और वहाँ के रखनेवालों के पारस्परिक व्यवहार का उल्लेख है।

तपःलोक से ऊपर सत्यलोक है जिसके लिए गीता में कहा गया है : "ऊर्ध्वमूलः अधोशाखः अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्..."

शिव अथर्वशीर्ष में  भगवान् रुद्र कहते हैं :

"धर्मेण धर्मं सत्येन सत्यं तर्पयामि स्वतेजसा ।"

समस्त लोक यद्यपि धर्म में ही स्थित हैं, किन्तु धर्म सत्य में ही प्रतिष्ठित है।

इसलिए जब रामायण की कथा को भौतिक विज्ञान की कसौटी पर कसा जाता है तो उसकी प्रामाणिकता पर संशय होने लगता है। किन्तु यदि इस पूरी कथा और इसमें वर्णित घटनाओं के बारे में ठीक से समझा जाए, तो इसमें कुछ भी अप्रामाणिक नहीं है। 

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जुग सहस्र योजन पर भानू

लील्यो ताहि मधुर फल जानू। 

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श्री हनुमान चालीसा में उपरोक्त वर्णन पाया जाता है ।

श्री हनुमान का जन्म रामायण में वर्णित किष्किंधा में हुआ, ऐसा मानकर चलें तो उदित होता हुआ सूर्य वहाँ से इस प्रकार दो सहस्र योजन की दूरी पर रहा होगा। यह दूरी भूमध्यरेखीय और मकररेखीय दूरियों के बीच की औसत दूरी कही जा सकती है।

रामायण के ही एक अन्य प्रसंग में यह वर्णन है कि जब भगवान राम ने राक्षस मारीची पर बाण चलाया तो उस बाण ने उसे वहाँ से एक सहस्र योजन की दूरी तक भारत के दक्षिण पूर्व की दिशा की ओर समुद्र पार तक फेंक दिया। संभवतः वही स्थान आज के समय का मॉरिशस हो सकता है। भारत से मॉरिशस के बीच की हवाई दूरी को यदि एक सहस्र योजन माना जाए, तो भारत से पूर्व में सूर्योदय की दिशा में अर्थात् भूमध्य रेखा तथा मकर रेखा के बीच कहीं वह स्थान भारत (किष्किन्धा) से दो सहस्र योजन हो सकता है।

इस प्रकार संभवतः हनुमान जी ने जब सूर्य की ओर उड़ान भरी होगी तो वे धरती की सतह के समानान्तर तल पर उड़ते हुए गतिशील रहे होंगे।

मकर रेखा पर यह दूरी सूर्य के उदय होने के और अस्त होने के बीच की दूरी है। और भारत से मॉरिशस के बीच की दूरी से यह दूरी दो गुना है। 

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November 13, 2021

A & X, Y, Z.

अ और क्ष, त्र, ज्ञ

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कभी कभी उसे लगता था कि क्या अ को क्ष, त्र, ज्ञ से घृणा है?

या, क्या क्ष, त्र, ज्ञ को अ से? 

क्या घृणा संबंध का ही एक रूप नहीं होता? 

यदि अ, किसी क्ष, त्र और ज्ञ से नितान्त अनभिज्ञ, अपरिचित हो तो क्या उसे उनसे घृणा या वैर हो सकता है? 

अब, यदि क्ष, त्र तथा ज्ञ तीनों ही, एक ही उद्गम से उत्पन्न तीन प्रकार की स्थितियाँ हों, और इसलिए उन तीनों स्थितियों  के बीच कुछ आभासी भिन्नताएँ तो दिखलाई देती हों, किन्तु कोई स्वरूपगत भिन्नता न हो, और इसलिए क्ष, त्र और ज्ञ के बीच टकराहटें हों, परस्पर वैमनस्य हों, तथा वे स्थितियाँ तो परस्पर एक से दूसरी में परिवर्तनीय हो, और अ उनमें से किसी में भी न परिवर्तनीय, स्वतंत्र और पूर्ण, सर्वथा अपरिवर्तनीय स्थिति हो,  तो क्या अ की तुलना क्ष, त्र तथा ज्ञ से किया जाना न्यायोचित होगा?

क्या अ को धर्म तथा क्ष, त्र और ज्ञ को परंपरा नहीं कहा जा सकता? क्या धर्म और परंपरा परस्पर परिवर्तनीय हैं?  

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November 12, 2021

क्या कभी कुछ,

कविता / 12-11-2021

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ख़त्म तो क्या कभी कुछ होना है, 

यही तो ज़िन्दगी का रोना है! 

सुबह उठना है, उम्मीदें लेकर, 

रात नाउम्मीद, रोज सोना है!

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The Penultimate.

अनन्तिम / कविता 12-11-2021

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हर बार यही लगता है अन्त,

फिर, वह भी तो है बीत जाता,

यदि वह अन्त ही होता तो,

बना रहता ही! न बीतता!

समय का ही यदि अन्त न हो,

तो सब कुछ ही तो बीतता है,

लेकिन यह बीतना भी क्या,  

सचमुच ही कभी बीतता है! 

क्या वह स्वयं समय है, या,

समय है स्वयं, बीतना ही,

फिर कैसे अन्त होगा उसका,

जो न कभी भी रीतता है! 

क्या प्रारंभ भी है उसका, 

यदि है तो, किसने देखा?

जिसने भी वह देखा होगा,

क्या उसने खुद को देखा?

देखा होगा तो जाना होगा, 

ऐसा कोई भी समय नहीं,

जो होता हो प्रारंभ कभी, 

होता हो जिसका अन्त कभी! 

इसका कोई नहीं जवाब,

यह सवाल ही है बेहूदा, 

इसका जवाब ढूँढना भी,

है काम उतना ही, बेहूदा!

फिर क्या करे, कोई इसका, 

समय, जो आता जाता है,

जो चलता ही रहता है,

कभी कहाँ वह रुकता है!

समय का यह ख़याल भी क्या, 

स्वयं समय की उपज नहीं!

क्या ख़याल ही नहीं, समय,

स्वयं समय की उपज नहीं!

फिर क्या कोई और भी है, 

जो बँधा हुआ समय से है,

जिससे समय बँधा नहीं,

जो फँसा हुआ समय में है!

क्या वह सचमुच है कोई, 

या वह भी है सिर्फ ख़याल, 

तो फिर वह क्या है जिसमें, 

उठते हैं सारे सवाल! 

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संदर्भ :

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अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते। 

व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो।

यदा शेते रुद्रो संहरति प्रजाः।।

यो वै रुद्रः स भगवान् ।

यश्च कालः तस्मै रुद्राय वै नमः।। 

(शिव-अथर्वशीर्ष)







November 08, 2021

Man findet immer einen weg.

रास्ता निकलता ही है! 

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वर्ष 1985-86 में मैंने जर्मन भाषा का एक कोर्स जॉइन किया था, जिसमें एक लेसन का टाइटल यही था, जो कि इस पोस्ट का है। 

अभी आधे घंटे पहले एक आश्चर्यजनक समाचार ज्ञात हुआ। श्रीलंका की सेन्ट्रल बैंक ने श्रीलंका के तमाम एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट को भारतीय मुद्रा रुपये में करने का आदेश जारी किया है। 

तत्काल ही मेरे मन में विचार आया, मुझे लगा कि इससे तो वहाँ के बड़े बड़े एक्सपोर्ट-इम्पोर्ट का बिज़नेस करनेवालों में हडकम्प मच गया होगा, संवाददाता ने भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा :

"This decision / order has shocked all the big businessmen."

निश्चित ही इसके दूरगामी परिणाम होंगे, और संभव है कि आगे चलकर, बाद में उचित समय आने पर श्रीलंका में भारतीय मुद्रा  रुपया ही वहाँ उसी तरह से प्रचलित हो जाए, जैसा कि बहुत से छोटे छोटे देश किसी विदेशी मुद्रा जैसे कि डॉलर या पड़ोसी देश की करेंसी का प्रयोग अपने देश में करते हैं, और जिसके अनेक अनुषंगी लाभ भी अवश्य होते हैं।

किन्तु निश्चित ही, यह भी सच है कि इस सबके पीछे किसका शातिर(!) दिमाग़ काम कर रहा होगा, इस बारे में अनुमान लगा पाना कोई इतना मुश्किल सवाल भी नहीं है!

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स्वामी सदानन्द

 वेदान्त सार 

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एक प्राचीन संस्कृत ग्रन्थ है। 

यहाँ बस उसका स्मरण हुआ अतः कृतज्ञता-ज्ञापन करने की दृष्टि से इसका उल्लेख करना उचित लगा।

उपरोक्त ग्रन्थ अवश्य ही पठनीय है और वेदान्त-निर्देशित सत्य की ओर हमारा(!) ध्यान आकर्षित भी करता है। 

किन्तु वेदान्त-निर्देशित उस सत्य का साक्षात्कार करने का एक और भी विकल्प हो सकता है। 

वेदान्त-शास्त्र में जिसे 'अहं-पदार्थ' कहा जाता है, वह 'अहंकार' चार स्तम्भों पर खड़ा एक ऐसा भवन है जिसके आधार रूपी ये चारों स्तंभ कल्पना की ही उत्पत्ति होते हैं । संक्षेप में :

कर्तृत्व-बुद्धि, भोक्तृत्व-बुद्धि, स्वामित्व-बुद्धि और ज्ञातृत्व-बुद्धि ।

चूँकि जिसे 'मन' कहा जाता है वह अहं-पदार्थ के ही उन चार रूपों की समष्टि भी है जिसे अन्तःकरण भी कहा जाता है, अतः यह या कोई भी दूसरी कल्पना इस समष्टि मन में ही उत्पन्न होती है न कि मेरे, आपके अथवा किसी और के मन में, जैसा कि इन चार प्रकार की बुद्धियों से प्रेरित और भ्रमित हुआ अज्ञानी मान बैठता है। 

कर्तृत्व-बुद्धि के होने का तात्पर्य गीता के अध्याय १८ के निम्नलिखित श्लोकों के माध्यम से भी समझा जा सकता है :

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम् ।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा देवं चैवात्र पञ्चमम् ।।१४।।

तात्पर्य यह कि किसी भी कर्म के संदर्भ में कर्ता की मान्यता और स्वयं को उस मान्यता में बाँध कर स्वतंत्र रूप से एकमात्र कर्ता मानने की बुद्धि ही वह कर्तृत्व-बुद्धि है जो अहंकार का प्रथम (काल्पनिक) स्तंभ है। 

भोक्तृत्व-बुद्धि होने का तात्पर्य / परिणाम है इस कल्पना से मोहित-बुद्धि हो जाना, कि उपरोक्त वर्णित स्वतंत्र-कर्ता अर्थात् 'मैं', सुखी-दुःखी, भयभीत, चिंतित, भ्रमित, व्याकुल, श्रेष्ठ, या निकृष्ट, सफल या असफल आदि है । अर्थात् 'मैं' को कर्म और उसके फल का भोक्ता मान लेना ।

स्वामित्व-बुद्धि होने का तात्पर्य / परिणाम है इस कल्पना से बुद्धि का मोहित हो जाना, कि उपरोक्त वर्णित स्वतंत्र-कर्ता जो कि भोक्ता है, किसी भौतिक या काल्पनिक वस्तु का स्वामी है ।

और इन तीनों बुद्धियों में व्याप्त और प्रच्छन्न चौथी बुद्धि यह है कि यह कर्ता-भोक्ता-स्वामी, 'मैं' कुछ न कुछ जानता है । जबकि सत्य वस्तुतः इन चारों से विलक्षण है।

'अहं-पदार्थ' जो अहं-पद आत्मा की ही क्षणिक अभिव्यक्ति है, ही कर्ता, भोक्ता, स्वामी तथा ज्ञाता के रूप में बुद्धि का आश्रय लेकर अपनी कल्पित सत्यता बनाए रखता है। 

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November 06, 2021

भाव्यता और मर्यादा

Sensibility and Modesty.

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Literature, as such is not only an intellectual pursuit, but has also a deep influence upon the people who go through this purposefully or just for entertainment only.

Since long, Sense (meaning) and sensibility has been a point of discussion between the writers, poets and the others, who are fond of literature.

Could we say that the literature has onus to adhere to a criteria which restricts it within the limits of sensibility and modesty?

We can see that the sensibility varies from person to person, and people to people, and a discussion in good taste may soon turn into bad taste, hence it is very important that whosoever write / create literature should take due care while doing this, so that no harm is done to the common reader.

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साहित्य की रचना करनेवालों, तथा साहित्य का पठन-पाठन करनेवालों के लिए दीर्घकाल से यह विचारणीय विषय होना चाहिए कि साहित्य के संदर्भ में भाव्यता और मर्यादा कितने महत्वपूर्ण हैं।

क्या साहित्यकार का यह नैतिक दायित्व नहीं है कि वह अपनी रचनाशीलता को भावग्राह्यता अर्थात् भाव्यता (sensibility) और मर्यादा (modesty) की परिसीमाओं के भीतर रहने दे!

जैसा कि देखा जा सकता है, कि भावग्राह्यता व्यक्ति-व्यक्ति में भिन्न-भिन्न होती है, और कोई भी गंभीर और उत्कृष्ट स्तर की चर्चा पलक झपकते ही सतही और फूहड़ हो जाया करती है, इसलिए साहित्यकार से यह अपेक्षा करना अनुचित नहीं होगा कि अपने साहित्य की रचना करते समय इस ओर गंभीरता से पाठकों की संवेदनशीलता का पर्याप्त ध्यान रखे और अपेक्षित मर्यादाओं के भीतर अपनी रचना रहे ताकि पाठक को इससे किसी प्रकार की हानि या क्षति न हो। 

बहुत से पाठक तो इससे भी अनभिज्ञ होते हैं कि कौन सा साहित्य मनोरंजन और ज्ञान के नाम पर व्यर्थ की उत्सुकता, उत्तेजना और कौतूहल, अनावश्यक भय, आशा, संदेह, यहाँ तक कि विकृति और कुत्सा (perversion), आदि भी उत्पन्न कर, उन्हें मोहित और भ्रमित भी कर सकता है, और इस प्रकार अनजाने ही वे प्रवंचना का शिकार हो जाया करते हैं।

इसलिए भी साहित्यकार का यह दायित्व है कि वह लोगों और आम पाठक की संवेदनशीलता तथा मानसिक परिपक्वता का ध्यान रखते हुए स्वयं ही अपनी मर्यादा को सुनिश्चित करे, और  स्मरण रखे।

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November 05, 2021

उत्सव धर्म

नित नूतन, चिर सनातन 

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भारतीय, वैदिक परंपरा में (मनुष्य के) जीवन के चार पुरुषार्थों को सबसे अधिक महत्व दिया गया है :

धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ।

पुरुषार्थ का तात्पर्य है  : Endeavor, Enterprise.

ये दोनों शब्द भी पुनः उत्साह (enthusiasm) और उत्सव (festival) के समानार्थी हैं। 

इन चार पुरुषार्थों में से धर्म को वरीयता दी गई है क्योंकि शेष तीनों उसकी ही लीक पर चलते हैं।

क्या धर्म को परिभाषित किया जा सकता है! 

सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टि से कोई परिभाषा की जा सकती है, किन्तु परिभाषा भी पुनः धर्म की हमारी दृष्टि से ही पैदा होगी। परंपरा भी एक दृष्टि से धर्म ही है, किन्तु वह धर्म के वास्तविक,मूल स्वरूप, उद्देश्य और कारण को इंगित करे, यह आवश्यक नहीं।

पुनः, धर्म के एक सरल तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए किसी ऐसे आधार / मापदंड / criteria को तय करना होगा और चिर सनातन काल से इस आधार / मापदंड / criteria को श्रेय (common good) के आधार / मापदंड / criteria के अनुसार तय किया जाता रहा है। इस प्रकार धर्म केवल अपने और अपने समस्त परिवार ही नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र, समाज, तथा संपूर्ण चर-अचर जीवन की विविध अभिव्यक्तियों के लिए जो कुछ भी आवश्यक, हितप्रद और श्रेयस्कर है उसे जानने, खोजने और उस पर आचरण करने का साधन है।

इस दृष्टि से धर्म जीवन के प्रति हमारी भावना की ही परिचायक गतिविधि है । समस्त अस्तित्व के और सबके लिए जो सदा शुभ है, वैसी भावना ही धर्म का मूलतः वास्तविक तत्व spirit और प्रेरणा है । क्या सभी के हृदय में मूलतः यही भावना अनायास ही विद्यमान नहीं होती? व्यक्ति, परिवार, समाज या मनुष्यता को उसकी समग्रता में देखा जाए, तो भावना ही व्यापक और  उदात्त अर्थ में धर्म का प्राण है।

भावना के जागृत होने के बाद ही बुद्धि और अपने अस्तित्व पर ध्यान जाता है, बुद्धि के अनुसार भावना ही भाव अथवा प्रवृत्ति का रूप लेकर संपूर्ण और समस्त जीवन को निर्देशित करती है। बुद्धि अपने-पराये का कृत्रिम, बहु-आयामी और बहुस्तरीय भेद / विभाजन करती है । अतएव भावना मूलतः और व्यावहारिक रूप से भी, संपूर्ण अस्तित्व का संचालन करनेवाली वह शक्ति है, जिसे बुद्धि की सहायता से यद्यपि समझा और जाना तो जा सकता है, किन्तु भावना के मूल तत्व और चरित्र का आकलन नहीं किया जा सकता, क्योंकि आकलन करना भी बुद्धि का ही विषय / कार्य है।

अब, यदि बुद्धि के स्वरूप और चरित्र को ही समझ पाना मनुष्य के लिए बहुत दुष्कर और कठिन है, तो भावना का स्वरूप और चरित्र क्या और कैसा है, इसका ठीक ठीक अनुमान लगाना तो इससे भी एक अधिक दुरूह कार्य है।

फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता, कि भावना जिसे कि अंग्रेजी में sentiment / spirit कह सकते हैं, अस्तित्व की मूल संचालनकर्त्री शक्ति है। 

इसे ही 'ईशिता' (governance) कहा जाता है, जो संपूर्ण जड-चेतन, चराचर भूत-प्राणियों को किसी न किसी कार्य में प्रेरित, संलग्न तथा प्रवृत्त करती है। 

'ईशिता', 'ईश्वर' की भाववाचक संज्ञा (abstract noun) है, और इस तरह से देखें तो 'ईश्वर' कोई व्यक्ति विशेष हो या न भी हो, तो भी 'ईशिता' अस्तित्व का शासन करनेवाली प्रत्यक्ष शक्ति है।

'ईशिता' के रूप में 'ईश्वर तत्व' का वर्णन ईशावास्योपनिषद् की भूमिका में इस प्रकार से किया गया है :

ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयश्च यः ।

ईशावास्येन संबोध्यमीश्वरं तं नमाम्यहम् ।।

वही सर्वत्र (omnipresent), सर्वज्ञ (omniscient) और सर्वशक्तिशाली (omnipotent) और प्रत्यक्ष वास्तविकता (Reality) भी है।

उसे एक अथवा अनेक की तरह सीमित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार जब भावना (spirit) की एकता (uniqueness), व्यापकता, असीम सामर्थ्य और विविधता पर ध्यान जाता है, तो हमें अनायास ही उसकी उस महिमा का भान होता है, जिसका हम यद्यपि वर्णन तो नहीं कर सकते, किन्तु उससे प्रभावित व अभिभूत (overwhelmed)  हुए बिना भी नहीं रह सकते। 

किन्तु परंपरा और समुदाय (religion and tradition) उसे यत्किञ्चित जानकर ही किसी न किसी प्रकार से अनुमान की प्रणाली में संकुचित तथा संकीर्ण कर देते हैं और उनके बीच की एक दूसरे के प्रति नासमझी से अनावश्यक संघर्ष और वैर उत्पन्न हो जाता है। 

दीपावलि की यह  ज्योति मनुष्यमात्र के हृदय में उस उत्सव धर्म की भावना का उन्मेष, संचार और विस्तार करे, इस कामना के साथ दीपावलि पर्व की असंख्य हार्दिक शुभकामनाएँ!

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November 03, 2021

गुरु कौन?

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णू गुरुर्देवो महेश्वरः ।

गुरुर्साक्षात्परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ।।

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जैसे हर शब्द के प्रचलित होने पर उसके क्रमशः अनेक शब्दार्थ, भावार्थ, वाच्यार्थ, इंगितार्थ और लक्ष्यार्थ हो जाते हैं और शायद ही कोई अर्थों की इस भूल-भुलैया में भ्रमित होने से बच जाता है, वैसे ही "गुरु" शब्द भी एक अनेकार्थी शब्द हो गया है, और अपने मूल अर्थ का द्योतक न होकर किसी और ही तात्पर्य का सूचक हो गया है। 

शिक्षा-गुरु, धर्म-गुरु, राजनीतिक-गुरु, क्रिकेट-गुरु, जैसे अनेक शब्दों में "गुरु" का मूल अर्थ विलुप्तप्राय हो गया है। 

किन्तु इसके मूल अभिप्राय को समझने के लिए हम कह सकते हैं कि इसे :

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव। 

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव ।।

के सन्दर्भ में देखना उचित हो सकता है ।

इस प्रकार "गुरु" माता के रूप में प्रथम गुरु है ही जो न सिर्फ जन्मदात्री है, बल्कि प्रकृति भी है। प्रकृति को जड समझा जाता है, जबकि प्रकृति को 'जड' कहने / मानने / समझने वाला स्वयं को 'चेतन' कहता / मानता / समझता है, यद्यपि उसे यह तक स्पष्ट नहीं होता कि वह स्वयं प्रकृति से किस प्रकार से भिन्न है! किन्तु उसका ध्यान इस ओर अवश्य आकर्षित किया जा सकता है कि प्रकृति जिन तत्वों की समष्टि है, उसका शरीर भी उन्हीं तत्वों से निर्मित होता है, और शरीर के होने से ही वह चेतन है, न कि शरीर के अभाव में! 

इस प्रकार जैसे काष्ठ में अग्नि अप्रकट होती है, और परिस्थिति के अनुकूल होने पर प्रकट और व्यक्त हो जाती है, उसी प्रकार शरीर भी प्रकृति का उपकरण मात्र है, जिसमें चेतना क्रमशः कभी प्रकट तो कभी अप्रकट होकर भी जीवन का रूप लेकर व्यक्ति के शरीर में मन, बुद्धि, भावना, स्मृति, अहंकार, जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति की अवस्थाओं का एकमात्र कारण होती है ।

इस दृष्टि से मूलतः तो प्रकृति ही प्रथम गुरु है, किन्तु पर्याय से माता को प्रथम गुरु कहा जाना भी सर्वथा उचित ही है। 

श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १४ के निम्न श्लोक यहाँ उद्धृत किए जा सकते हैं :

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।

सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।।३।।

सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः सम्भवन्ति याः ।

तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ।।४।।

इस प्रकार परमात्मा की प्रेरणा से ही प्रकृति असंख्य प्राणियों को जन्म देती है । परमात्मा ही सबका परमपिता और प्रकृति का भी गुरु है ।

हम सब चेतन सत्ताएँ (sentient beings) इस प्रकार ईश्वर तथा प्रकृति की ही संतानें हैं।

इस प्रकार हम सब परस्पर बन्धुत्व की डोर में बँधे हुए हैं। एक दूसरे के बन्धु हैं, और एक दूसरे के लिए एक दूसरे की सहायता से जीवन के सर्वोत्तम ध्येय को प्राप्त कर सकते हैं। अतः बन्धु भी इस दृष्टि से गुरु है। 

अब बारी है सखा की, अर्थात् मित्र या संगति की । संगति शुभ होने पर हमारा कल्याण होगा और कुसंगति होने की स्थिति में हमारा अशुभ ही होना तय है ।

इस प्रकार मित्र भी गुरु हो सकता है ।

विद्या भी इस दृष्टि से गुरु है कि वह हमें जीवन को जीने और धर्म तथा अधर्म को जानकर तदनुसार आजीविका प्रदान करने में सक्षम बनाती है तथा इसी तरह से उत्तम आचरण करने के तरीके का मार्गदर्शन भी देती है ।

द्रविण अर्थात् द्रव्य का महत्व तो व्यवस्था और जीवन में वैसा ही है, जैसा शरीर में रक्त तथा रक्त-संचार का । और इसलिए अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ही मनुष्य को कोई भी कार्य करने की प्रेरणा होती है ।

इस प्रकार गुरु तत्व अनेक स्तरों पर हमें निरंतर सहायता और मार्गदर्शन देता रहता है। 

अब इस गुरु तत्व की स्वतंत्रतः क्या भूमिका है, इस बारे में : शिक्षक, मार्गदर्शक, मित्र, शुभचिन्तक आदि के रूप में गुरु को भिन्न भिन्न रूपों में देखा जा सकता है। 

लौकिक स्तर पर शिक्षक किसी विशेष प्रकार की शिक्षा देता है,  आचार्य आचरण करने की शिक्षा देता है । धर्मगुरु नैतिक और लोक-परलोक के लिए हितकर कार्य की शिक्षा देता है, जबकि आध्यात्मिक गुरु सत्य, आत्म-ज्ञान की शिक्षा देता है। 

किन्तु इनसे भी भिन्न एक कोटि है 'पुरोहित' की, जो कि न केवल एक माध्यम और शिक्षक भी होता है, धर्म अध्यात्म के विषय में सहायक भी सकता है ।

शास्त्र भी इस दृष्टि से गुरु हैं ही, किन्तु शास्त्रों का तात्पर्य ग्रहण करने के लिए पात्रता का महत्व भी उतना ही आवश्यक है ।

इसलिए यह हम पर ही निर्भर करता है कि हमारे लिए गुरु शब्द का क्या आशय हम ग्रहण करते हैं ।

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November 02, 2021

अपनी अपनी दुनिया!

कविता : 02-11-2021

चुपके-चुपके

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हर रोज धीरे धीरे,

मौसम बदल रहा है,

हर रोज धीरे धीरे,

सब कुछ बदल रहा है! 

लगने लगी है धूप, 

सुबह की सुहानी!

सैर हुई लम्बी,

यह शाम की कहानी!

बदलें न हम तो क्या है, 

तुम तो बदल रहे हो, 

या यूँ कहो कि जैसे,

समय ही बदल रहा है! 

कितना सुकून है जब,

पंछी भी चुप हैं जैसे,

तार पर क़तार में,

बैठे हैं शान्त ऐसे!

है ये तिलिस्म ऐसा,

राज़ इस संगत का,

टूटे न कहीं जादू, 

शाम की रंगत का! 

शाम की इस वेला में, 

बच्चे भी खेलते हैं,

रंगों से रच रंगोली,

ज्योति बिखेरते हैं!

कितनी लगन है देखो, 

कितनी उमंग भी है,

वो भूल ही गए हैं, 

वहाँ पतंग भी है! 

अब हो गई रंगोली,

तो पतंग नजर आई,

उड़ रही है, अब वो भी,

लेकर उठी अँगड़ाई!

क्या चीज़ है ये बचपन,

उन आँखों में पल रहा है,

क्या चीज़ है वक्त यह,

हर पल बदल रहा है!

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गोल कविता

02-11-2021

हवा / वायु

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वाह, री हवा! 

यूँ, कि यूँ,

हवा, री वाह!

वाह री हवा! 

वायु, री युवा! 

यूँ कि यूँ,

युवा, री वायु!

वायु, री युवा!

युवा, री वायु!

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अ - अनार, आ - आम,

अन्तःसलिला सरस्वती

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बचपन से याद है कि स्कूल में प्रवेश प्राप्त करने से पहले मुझे मेरे पूज्य बड़े भाई ने किस प्रकार अक्षर-विद्या की दीक्षा दी थी। 

मेरे सामने स्लेट थी, और मेरी उंगलियों में पेम (स्लेट-चाक) ।

दादा (मेरे बड़े भाई) ने स्लेट पर लिखा "अ" ।

फिर मेरी उंगली पकड़कर पेम को उस वर्ण-अक्षर पर अनेक बार घुमाया / फेरा, और फिर मुझसे कहा :

अब तुम अलग से यहाँ स्लेट पर "अ" लिखो।

मैंने अनायास "अ" लिखा।

फिर दादा के कहने पर मैंने पुनः पुनः "अ" लिखने का अभ्यास किया। फिर क्रमशः "आ", "इ" और शेष वर्णाक्षर लिखना भी इसी प्रकार से मैंने सीखा।

इस प्रकार न तो मैंने "अ" से "अनार", और न ही, "आ" से "आम" आदि कभी सीखा ।

आज इस पोस्ट को लिखते हुए एकाएक इस पर ध्यान आया कि कैसे मुझे अनायास "अ" से "अदिति" और "अदिति" से "अ" का ज्ञान प्राप्त हुआ। 

इसी प्रकार से मुझे फिर "आ" से "आदित्य", और "आदित्य" से "आ" का ज्ञान प्राप्त हुआ ।

बहुत बाद में मेरा ध्यान इस पर गया कि भाषा-ज्ञान प्राप्त करने के लिए यद्यपि "अ" अनार का, और "आ" आम का सीखना सुविधा-जनक और उपयोगी भी है, किन्तु वास्तविक अक्षर-ज्ञान को उस प्रकार से प्राप्त करना कठिन ही नहीं, भ्रामक विकल्प भी है। 

फिर भी भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए वह स्वीकार्य और किसी हद तक आश्यक भी हो सकता है, किन्तु 

"a for apple, b for bat , c for cat, d for dog,..."

तो वास्तविक अक्षर-ज्ञान के लिए बाधक ही नहीं उससे विपरीत और उस दृष्टि से विनाशकारी भी है।

यह मैं अपने अंग्रेजी या अन्य भाषाओं से द्वेष के कारण नहीं, बल्कि अपने अनुभव से कह रहा हूँ। यद्यपि आवश्यकताओं और बाध्यताओं से विवश होकर मैंने अंग्रेजी भी सीखा, और यह भी सच है कि अंग्रेजी के प्रति मेरा आकर्षण और मोह भी इसका प्रमुख कारण थे।

जैसे मैंने अनायास हिन्दी भाषा को सीखा, और मातृभाषा होने के कारण मराठी भाषा को, वैसे ही मैंने अंग्रेजी या तमिऴ आदि भाषाओं को "पाठ" से, अर्थात् पठन्त-विद्या से सीखा, - न कि  रटन्त-विद्या से।

और तमिऴ भाषा को सीखने का प्रयोजन अन्तःसलिला देवी भगवती की ही प्रेरणा था, और इस प्रकार से मैंने ईश्वर अर्थात् परब्रह्म भगवान् शिव (अ-कार), भगवान् श्रीगणेश (विनायक) की प्रेरणा से ही अपने समस्त ज्ञान को न केवल प्राप्त किया, बल्कि अपने पूर्वपुरुष भगवान् भरद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से अपने हृदय में उसका यत्किञ्चित आविष्कार भी किया। 

पठन्त-विद्या और रटन्त-विद्या का भेद इसीलिए इस प्रकार से मुझे स्पष्ट हुआ।

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November 01, 2021

वाटिका

कविता : 01-11-2021

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नितव्यर्थ / net-worth.

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इस वन में उपवन नहीं,

और न कोई वाटिका, 

और न है वटवृक्ष ही,

न ताड़, न कोई ताटका!

एक नहीं, वटवृक्ष तो, 

पंचवटी कैसे होगी,

कैसे आएँगे राम यहाँ,

कैसे रामायण होगी!

कैसे होगा सीता-हरण, 

कैसे आएगी शूर्पनखा,

नाक-कान कैसे कटें,

दशमुख कैसे हारेगा! 

इस वन में गुंजित यह नाद, 

क्या कभी बनेगा श्रुतिसंवाद,

या फिर बस रव-कोलाहल,

सिर्फ उन्माद, कोरा अवसाद!

क्या यह होगा व्रजभूमि,

गूँजे जिस पर वंशी का नाद,

या असुरों की युद्धभूमि,

जिस पर इंद्र का वज्रपात!

इस वन में कोई उपवन नहीं,

और न कोई वाटिका!

कैसे होगी रामायण,

या फिर कोई नाटिका!

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October 28, 2021

भवसागर

पूछो मेरे दिल से!

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संसार का सागर हाय, 

चारों तरफ लहराय,

जितना आगे जाऊँ,

गहरा होता जाय!

ग़म के भँवर में,

क्या क्या डूबा,

पूछो मेरे दिल से,

हाय, पूछो मेरे दिल से!

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केवल एक शब्द बदला है। 'प्यार' को 'संसार' से रिप्लेस किया है, इस गीत को अवश्य ही सुना होगा आपने। 

स्वर्गीय मुकेशजी का गाया गीत है :

तुम बिन जीवन, कैसे बीता, 

पूछो मेरे दिल से, 

हाय, पूछो मेरे दिल से! 

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You-tube / Wion पर उस होस्टेस की वाणी झकझोरकर रख देती है। किन्तु यह समझ में नहीं आता कि संसार के कष्टों से संसार की मुक्ति का कोई तरीका उसके पास है भी या नहीं! 

फिर क्यों वह व्यर्थ इतना श्रम कर रही है। 

उदाहरण के लिए आज उसने यू. के. की फौज में rampant व्याप्त rape-culture के बारे में चर्चा की। 

Rape या बलात्कार अपने आपमें एक स्वतंत्र समस्या है, जो कि हिंसा violence की दुष्प्रवृत्ति से उत्पन्न होती है।

क्या किसी नैतिक, आदर्शवादी सोच या शिक्षा से हमारे भीतर स्थित हिंसा के संस्कारों से मुक्त हुआ जा सकता है?

क्या फौज अहिंसा के आदर्श पर चलकर अपना कार्य कर सकती है? क्या किसी सभ्य समाज में फौज अर्थात् सेना की कोई आवश्यकता होगी? 

स्पष्ट है कि हम न तो सभ्य हैं, न अहिंसक। 

साथ ही यह भी सच है कि हिंसक या अहिंसक होना हमारी शिक्षा-दीक्षा, परिस्थितियों, परिवेश और जीवन-मूल्यों पर भी निर्भर होता है। कोई शाकाहारी मनुष्य भी असफलताओं से टूटकर उग्र अथवा हताश हो सकता है। यहाँ तक कि अपनी और अपनों की समस्याओं से भी उदासीनता की हद तक लापरवाह और ग़ैर-जिम्मेदार भी हो सकता है। मनुष्य ही एक ऐसा, इतना विचित्र और जटिल सामाजिक प्राणी है, जो हमेशा द्वन्द्व की मानसिकता में होता है। फिर भी उसमें जहाँ एक ओर आक्रोश, तो दूसरी ओर अपराध-बोध भी होता है। इन सबके कारण वह एक विचित्र भावदशा का शिकार हो जाता है। शायद ही कोई समाज ऐसा होता हो, जिसमें हर मनुष्य इस प्रकार की खंडित मानसिकता से मुक्त होता हो। 

मुझे नहीं लगता, कि संसार की समस्याओं का कभी कोई हल हो सकता है। सभी की अपनी अपनी नितान्त भिन्न, अलग अलग तरह की समस्याएँ होती हैं, जिससे पूरे समाज की एक समस्या की तरह नहीं निपटा जा सकता। कानून, एक हद तक समाज को नियंत्रित और अनुशासित तो कर सकता है, किन्तु चारित्रिक दृढ़ता / कमज़ोरी तो हर व्यक्ति में भिन्न भिन्न होती है।

जब तक भौतिक प्रगति का बुखार नहीं उतरता, तब तक मनुष्य के लिए कोई आशा नहीं की जा सकती। न राष्ट्र के लिए, और न संसार के लिए। 

और यह भी मानना ही होगा कि कोई भी मनुष्य अपने स्वभाव को न तो बदल सकता है, न सुधार ही सकता है। 

जब तक हमारी जीवन-शैली ही पूरी तरह न बदल जाए, तब तक नित नई समस्याएँ पैदा होनी ही हैं।

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पूर्णमिदम्

रिश्ते ही रिश्ते

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अभी दस मिनट पहले सोकर उठा, तो मुझे याद आया कि इस ब्लॉग की शुरुआत 'उन दिनों' शीर्षक से लिखी पोस्ट्स से हुई थी। बहुत दिनों तक यह पता नहीं चल रहा था, कि इसका अंत कैसे होगा। 

कल किसी से बातें करते हुए बॉलीवुड के रिश्तों पर बातें होने लगी। याद आया बॉलीवुड से अपरिचित उस व्यक्ति का कथन :

"Conflict in any relationship degenerates, deteriorates and destroyes the relation."

क्या सचमुच किसी से किसी का कोई रिश्ता होता भी है? 

या, हर किसी का, किसी समय पर किसी जरूरत, भावना, भय, लोभ, आकर्षण या विकर्षण, उत्सुकता, विचार या परिस्थिति से ही कोई तात्कालिक रिश्ता होता और हो सकता है।

इस भावना को किसी आदर्श, सिद्धान्त, महान ध्येय, कर्तव्य, नैतिकता, पाप या पुण्य, यहाँ तक कि धर्म या अधर्म आदि के नाम से जोड़कर कोई काल्पनिक स्थायित्व भी दिया जा सकता है और उसे किसी ऐसे ही महान ईश्वर आदि से भी प्रायः जोड़ा जाता है। क्या किसी रिश्ते का अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता भी है? क्या किसी रिश्ते की कोई स्वतंत्र सत्ता होती है? 

किन्तु इस या किसी भी रिश्ते की डोर का एक सिरा तो 'मैं' और दूसरा कोई या कुछ और होता है। 

यद्यपि दोनों ही सिरे और यह डोर भी क्षणिक ही होती है, स्मृति का सातत्य उसे किसी हमेशा (!) या कुछ समय तक के लिए रहने वाली वस्तु मान लेता है। 

इस प्रकार जीवन में सभी की और हर किसी की कोई न कोई भूमिका तो होती है किन्तु किसी का किसी से सचमुच क्या कोई संबंध या रिश्ता होता या हो भी सकता है?

पिछले पोस्ट्स स्क्रोल करते हुए 'उन दिनों' को जब टटोल रहा था, तो एक कविता पर नजर पड़ी।  शीर्षक है :

हिरण्यगर्भ / cosmic mind. 

और अचानक महसूस हुआ कि 'उन दिनों' के क्रम पर अब पूर्ण विराम लगाया जा सकता है।

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October 25, 2021

कर्तृवाच्य / Active Voice.

अस्ति इव वाच्यः 

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बचपन में अंग्रेजी भाषा से आतंकित था। कक्षा ९ में मैंने विज्ञान और गणित मुख्य विषय के रूप में चुने थे। हिन्दी और अंग्रेजी मुख्य भाषाएँ और संस्कृत वैकल्पिक द्वितीय भाषा के रूप में ।  पहले दिन हिन्दी की परीक्षा थी, उसके दूसरे दिन अंग्रेजी भाषा की । कक्षा में हम कुल आठ-नौ छात्र थे । पिताजी गाँव के उसी सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे, जहाँ मैं अध्ययन कर रहा था। चूँकि मेरे अलावा मेरी कक्षा के शेष छात्र आसपास के गाँवों से पढ़ने के लिए कुछ किलोमीटर चलकर आया करते थे, जिनके माता-पिता ग्रामीण किसान आदि थे, इसलिए कक्षा में मुझे अनायास प्रमुख स्थान प्राप्त हो गया था। परीक्षा पूरी होने के बाद भी छात्र एक-दूसरे के बारे में जानने के लिए परीक्षा-हॉल से बाहर प्रतीक्षा करते थे । मैं चूँकि अन्त में बाहर आया तो देखा शेष सभी छात्र आपस में चर्चा कर रहे थे। फिर मैंने सबसे कहा :

"कल अंग्रेजी का पेपर है और परीक्षा देना या न देना स्वैच्छिक है, इसके मार्क्स भी परीक्षा-परिणाम में नहीं जोड़े जाएँगे। मैं तो पेपर भी नहीं दूँगा।"

सबसे मेरे विचार का समर्थन किया ।

दूसरे दिन पिताजी सुबह 6:00 बजे 'बोर्ड' के पेपर लेने के लिए  पुलिस थाने चले गए, क्योंकि वे वहाँ रखे जाते थे। मैं आराम से 6:45 पर परीक्षा देने के लिए स्कूल जाने का नाटक करता हुआ घूमने निकल गया। डर तो लग रहा था कि मेरे ऐसा करने का पता तो उन्हें चलेगा ही, और पिताजी बहुत नाराज होंगे । शायद मेरी अच्छी खासी पिटाई भी होगी । पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। 

इसका एक परिणाम यह हुआ, कि कक्षा में मेरा स्थान (रैंकिंग) चौथा हो गया। मुझे आश्चर्य हुआ और जब मैं इस बारे में जानने के लिए कक्षाध्यापक (श्री सच्चिदानन्द दुबे) के पास पहुँचा, तो मुझे पता चला, मेरी अंक-सूची में उन्होंने अंग्रेजी में मुझे प्राप्त हुए अंकों को जोड़कर नतीजा ही बदल दिया था। यहाँ तक कि मेरी श्रेणी (डिवीज़न) को भी इसलिए 'प्रथम' (I) से बदलकर 'द्वितीय' (II) कर दिया था। इस अंक-सूची में देखा जा सकता है कि कैसे मेरे द्वारा इस भूल को इंगित किए जाने पर उसे 'द्वितीय' (II)  से सुधारकर 'प्रथम' (II) किया गया है! 

और नीचे दिनांक 01-05-1968 के साथ, विद्यालय के प्राचार्य :

-मेरे स्वर्गीय पिताजी, श्री एस. एम. वैद्य

के हस्ताक्षर भी हैं, 

आज उस मार्क-शीट को देखा तो याद आया! 



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October 21, 2021

क्या यह सच है?

कविता : 21-10-2021

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धीरे धीरे बदल जाया करता है, सब कुछ,

समय सभी का बदल जाया करता है, कुछ,

क्या कुछ बदल जाने से, समय बदलता है, 

या समय बदलने से ही सब बदल जाता है,

क्या हम किसी एक को भी बदल सकते हैं, 

या, क्या हम खुद भी कभी बदल सकते हैं,

समय बदल जाए तो हमको पता चलेगा, 

यदि कुछ और बदल भी जाए, पता चलेगा, 

लेकिन जो हम खुद ही अगर बदल जाएँ तो,

कैसे हमको तब फिर इसका पता चलेगा!

शायद यह बातें बिलकुल ही बेमानी हैं, 

किसी समय सब ही चीजें बदल जानी हैं,

लेकिन क्या हम बदल जाते हैं, उनके साथ,

क्या फिर समय बदल जाता है, उनके साथ,

फिर वह क्या है, जो नहीं कभी, बदलता है, 

उसका क्या, कभी पता, किसी को चलता है?

लेकिन क्या वह ऐसा कुछ, नहीं हुआ करता है? 

फिर क्यों कभी किसी को पता नहीं चलता है!

सोचते हुए, सोच भी तो, बदल जाता है, 

क्या वह भी, जो यह सब सोचा करता है?

अगर वह खुद ही बदल जाए, तो क्या होगा?

क्या अपने बदल जाने का, उसे पता होगा?

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October 19, 2021

हाँ, बातें तो होंगीं ही!

कविता : 19-10-2021

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जब तुममें कुछ ऐसा होगा,

मुलाक़ातें तो होंगी ही! 

बातें तो लोग करेंंगे ही, 

हाँ बातें तो होंगी ही!

तुम कैसे रोक सकोगे,

लोगों को बातें करने से,

कैसे रोक सकोगे उनको,

घातें-प्रतिघातें करने से,

तुम भी तो यही चाहते हो,

फिर टकराहटें भी होंगी ही!

बातें तो लोग करेंगे ही,

हाँ, बातें तो होंगी ही!

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October 18, 2021

तीसरा और चौथा वहम

(पिछले पोस्ट से आगे) 

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आत्म-सम्मोहन 

उसे प्रत्यक्ष ही पता था कि वह है ।

फिर उसे यह वहम हुआ कि वह 'कोई' है और अपने इस 'कोई' होने की मान्यता उसमें गहरे पैठ गई। अपने आपके, फिर औरों की तरह, फिर भी उनसे कुछ अलग भी होने की दोहरी मान्यता ने उसे ग्रस लिया । उसे पता ही नहीं चला कि इस मान्यता ने उसे किन क्षणों में मोहित कर लिया। 

इसी तरह उसे यह वहम हुआ कि वह अपने आपको जानता भी है। फिर उसे यह भरोसा हुआ कि वह सुखी-दुःखी, चिन्तित होता है। उसे नींद आती है, या नहीं आती, या कि बहुत नींद आती है, या कि ठीक से सो भी नहीं पाता। उसे यह या वह कार्य करना है, या नहीं करना है, वह करना चाहता है, या नहीं करना चाहता, या कि करने के लिए बाध्य, सक्षम या अक्षम है। 

इस प्रकार से उसमें ज्ञान का भ्रम पैदा हुआ, और बहुत सी बातें  जानने का भ्रम भी। इस प्रकार, जानने का यह क्रमशः भ्रम दृढ होता चला गया, लेकिन इस तथ्य पर उसका ध्यान नहीं जा पाया कि मूलतः उसे ज्ञान नहीं, ज्ञान का भ्रम है। पर फिर जब उसका ध्यान इस पर गया तो उसे लगा कि दूसरों की ही तरह वह स्वयं भी तो अज्ञानी ही है! तब फिर ज्ञान अर्जित करने के लिए वह जी-जान से प्रयास करना प्रारम्भ हुआ। किन्तु जब उसे लगा कि ज्ञान तो अनन्त है, और इसे प्राप्त करने के लिए उसे पता नहीं कितना समय लगेगा, और कितने जन्म लेने पडे़ंगे, तो हताशा ने उसे जकड़ लिया। 

किन्तु जैसा कि कहते हैं :

"Every dark cloud had a silver ring around it... "

उसे यह भी समझ में आया और इस भ्रम पर उसका ध्यान गया कि ज्ञान, और ज्ञान का भ्रम दोनों ही अज्ञान के ही दो प्रकार हैं, तो उसमें ऐसा उल्लास उठा, जिसने इस तथाकथित ज्ञान और अज्ञान का, तथा उस भ्रम का भी ध्वंस कर दिया। यह ध्वंस का उल्लास था।

तब उस ध्यान में उसे अनायास ही यह भी स्पष्ट हुआ कि उसकी तमाम परिचय, मान्यताएँ, विश्वास और सन्देह, जन्म और मृत्यु, ईश्वर, मोक्ष, आयु, संबंध भी केवल कोरी कल्पनाएँ ही हैं, और यह कल्पनाएँ भी जिसमें उठती और मिटती रहती हैं, वैसा कुछ, या वह, 'कोई' नहीं है।

अर्थात् उसका ऐसा कोई और कुछ, कहीं नहीं है, जिससे उसका कोई संबंध हो, या हो सकता है। हाँ, पर अनेक वस्तुओं, चीजो़ं, लोगों और घटनाओं से उसका सामना अवश्य, और सतत होता रहता है, किन्तु वह स्मृति जिसमें उनका बनना-मिटना होता है, वह स्मृति तक भी, उसकी अपनी कहाँ है?

तब उसने अपनी उस आत्मा को पुनः एक बार जान लिया, जो  कि इस आत्म-सम्मोहन से मोहित और दुविधाग्रस्त हुई थी।

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October 17, 2021

वह और वहम

मैं और अहम् / Ego and I. 

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उसे एक नहीं, दो वहम हैं,

पहला : "कोई रिअलाइज्ड है!"

दूसरा : "मैं रिअलाइज्ड नहीं हूँ!"

लेकिन उसे इस बारे में कोई वहम / शक / गलतफहमी नहीं है, कि वह है, उसका अस्तित्व है। उसे इस बारे में भी कोई वहम / शक / गलतफहमी नहीं है कि उसे अपने होने का, अस्तित्व का, भान है। 

पर उसका ध्यान कभी इस ओर नहीं गया, और न ही किसी ने उसका ध्यान इस ओर ध्यान आकर्षित किया कि अपने होने का और अपने होने के इस भान का क्या तात्पर्य है / हो सकता है !

उसने हमेशा कुछ करना चाहा, पर वास्तव में उसे क्या करना है, क्या करना चाहिए, और क्यों करना चाहिए, क्या नहीं करना है, क्या नहीं करना चाहिए, और क्यों नहीं करना चाहिए, इस पर उसका ध्यान हमेशा ही हुआ करता था। 

अपने होने के, और अपने होने के भान का तात्पर्य क्या है, इस पर उसका ध्यान न जाने से उसे यह गलतफहमी हो गई थी कि वह कुछ करता है, नहीं करता, कर सकता है, या कि वह कुछ नहीं कर सकता।

उसने हमेशा कुछ पाना चाहा, पर वास्तव में उसे क्या पाना है,  क्या पाना चाहिए, और क्यों पाना चाहिए, उसे क्या नहीं पाना है, क्या नहीं पाना चाहिए, और क्यों नहीं पाना चाहिए, इस पर भी उसका ध्यान हमेशा ही हुआ करता था। 

अपने होने के, और अपने होने के भान का तात्पर्य क्या है, इस पर उसका ध्यान न जाने से उसे यह गलतफहमी हो गई थी, कि वह कुछ चाहता है, नहीं चाहता, चाह सकता है, या कि वह कुछ नहीं चाह सकता। 

उसने हमेशा कुछ बातों / वस्तुओं / चीज़ों को 'अपना' मान लिया, या अपना बनाने का प्रयास किया, लेकिन इन बातों / वस्तुओं / चीज़ों / से उसका क्या संबंध हो सकता है, हो भी सकता है या नहीं, इस ओर कभी उसका ध्यान गया ही नहीं, न किसी ने इस ओर उसका ध्यान आकर्षित किया । इन बहुत सी बातों / वस्तुओं / चीज़ों में से कुछ तो एकदम ऐसी ठोस और  उपयोग में भी आनेवाली वास्तविकताएँ थीं, जिनकी सत्यता व्यावहारिक, इन्द्रिय-ग्राह्य और स्वतः-सिद्ध थी, जबकि कुछ दूसरी ऐसी भी थीं जिनका पता उसे बुद्धि, कल्पना और स्मृति के माध्यम से हुआ करता था। अर्थात् वे केवल बुद्धिग्राह्य थीं, वैचारिक, और शाब्दिक प्रकार की मनो-संरचनाएँ थीं, जिनकी प्रामाणिकता की परीक्षा करने की कल्पना तक उसे नहीं हो पाई थी।

लेकिन इनसे भी भिन्न कुछ ऐसी वस्तुएँ भी थीं, जो अनुभव-परक भावनाओं और भावनात्मक अनुभवों की तरह से उसे 'अपनी' प्रतीत होती थीं।

अनुभवपरक भावनाएँ तो वे थीं, जिन्हें कि फ़ीलिंग्स कह सकते हैं, जबकि भावनात्मक अनुभव वे थे, जिन्हें इमोशन कह सकते हैं। इमोशन भीतर से उठते थे, जबकि फ़ीलिंग्स बाहर के प्रभावों की प्रतिक्रियाएँ, अनुभवों के प्रत्युत्तर। 

इन्हें सम्मिलित रूप में संवेदनाएँ या सेन्टीमेन्ट्स कह सकते हैं। इस प्रकार से सेन्टीमेन्ट्स की जटिलताओं का जोड़ ही उसका कृत्रिम / आभासी व्यक्तित्व था, जो कि उसे 'अपना' प्रतीत हुआ करता था। किन्तु उसका ध्यान इस ओर कभी न जा पाया कि यदि व्यक्तित्व 'उसका' है, तो वह कौन है, जिसे अपने व्यक्तित्त्व का पता है! क्या वह व्यक्तित्व है, या कि व्यक्तित्व का स्वामी!

और शायद ही कोई दूसरा इस ओर उसका ध्यान आकर्षित कर सकता था। 

इसीलिए उसे ये दो गलतफहमियाँ थीं, दो वहम थे :

पहली यह कि दूसरा कोई और रिअलाइज्ड है, 

दूसरी यह कि वह रिअलाइज्ड नहीं है। 

इसीलिए उसने हमेशा किताबों में खोजा,  तमाम गुरुओं से पूछा कि मुझे रिअलाज़ेशन कब और कैसे होगा।

उसे यह वहम भी था कि रिअलाज़ेशन कोई नई जानकारी है,  जिसे प्राप्त किया जा सकता है, किन्तु उसे यह जानकारी नहीं थी, कि जिसे प्राप्त किया जाता है वह अवश्य ही खो भी जाता है।

क्या कोई कभी अपने-आपको खोज सकता है?

क्या कोई कभी अपने-आपको प्राप्त कर सकता है? 

क्या कोई कभी अपने-आपको खो सकता है?

क्या कोई कभी अपने-आपको जान सकता है? 

क्या कोई कभी अपने-आपको भूल सकता है?

उसके पास बहुत सी जानकारियाँ थीं, जो उसे ज्ञान प्रतीत होती थी। और उसे लगता था कि आत्म-ज्ञान भी कोई विशेष प्रकार की जानकारी है, जिसे प्राप्त कर लेने पर मनुष्य रिअलाइज्ड हो जाता है।

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October 16, 2021

तन-मन-चेतन

कविता : 16-10-2021

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तन व्याकुल, या मन व्याकुल,

या पूरा ही यह जीवन व्याकुल!

क्या वह चेतन, जिसमें हैं होते,

तन, मन, जीवन, वह व्याकुल, 

हर कोई कहता है 'मैं' व्याकुल, 

मेरा तन, मन, जीवन व्याकुल! 

कैसी है यह दुविधा जिसमें,

हर कोई होता है व्याकुल!

यह तन, मन जड है, या चेतन,

यह 'मैं', 'मेरा', जड या चेतन,

'मैं', 'मेरा' फिर जो कहता है,

वह भी क्या जड है, या चेतन!

मन जिस जिस को भी माने,

मन जिस जिस को भी जाने,

जिससे मन जाना जाता है, 

क्या वह जड है, या चेतन!

क्या वह चेतन तन या मन है,

क्या वह चेतन है, आता जाता?

तन या मन आते जाते हैं, 

उनसे चेतन का क्या है नाता!

तन, मन से बँधा हुआ यह, 'मैं',

तन, मन में बिंधा हुआ यह, 'मैं',

जिसको 'मैं' हर कोई कहता,

उससे किसका है, क्या नाता?

यह 'मैं' पल-प्रतिपल बनता है,

यह 'मैं' पल-प्रतिपल मिटता है, 

लेकिन यह पल-प्रतिपल भी तो,

'मैं' से ही बनता मिटता है! 

इसी तरह से 'मेरा' भी,

यह विचार, यह भावना,

भूत-भविष्य या वर्तमान,

सत्य, या कि है कल्पना!

क्या कोई 'मन', 'मैं' होता है, 

क्या कोई तन 'मैं' होता है?

क्या यह 'मन', 'मेरा' होता है, 

क्या यह 'तन', 'मेरा' होता है?

क्यों ऐसी व्यर्थ कल्पना में,

आखिर 'मेरा' मन खोता है?

क्या वह चेतन, जिसमें तन, मन,

'मैं', 'मेरा' बनते-मिटते हैं,

क्या वह बनता या मिटता है,

क्या वह मिलता या खोता है?

क्या वह कह सकता है 'मैं', 

फिर भी सदैव ही होता है,

क्या वह कह सकता है 'मेरा', 

फिर भी वह निजता होता है!

यह निज चेतन, जो है सबका, 

यह निज चेतन, जिसमें सब हैं, 

यह निज चेतन जो निजता है,

है एक, अनेक, जैसा कुछ क्या!

उससे ही सब, सब-कुछ जानें, 

उसे न लेकिन कोई जाने,

या फिर यूँ भी कह सकते हैं, 

केवल वह ही निजता को जाने! 

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संदर्भ :

केनोपनिषद्, खण्ड १,

न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।

इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे ।।३।।

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।४।।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।५।।

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।६।।

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिद्ँ श्रुतम् ।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।७।।

।। प्रथम खण्ड समाप्त ।।

यही ब्रह्म, जिसे आत्मा, ईश्वर, गुरु और परमात्मा भी कहा जाता है वह चैतन्य (Awareness / Consciousness), चेतना (consciousness / sentience) या 'चेतन' है, जिसका उल्लेख गीता, अध्याय १० में इस तरह से है :

वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।

इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।२२।।

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October 14, 2021

गुनाह

कविता : 14-10-2021

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गवाह

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बेपरवाह तो नहीं, हाँ, लापरवाह हूँ मैं, 

प्रकृति का स्वाभाविक, सहज-प्रवाह हूँ मैं! 

मुझमें हैं खामियाँ कुछ, तो ख़ासियतें भी हैं,

इन ख़ामियों, ख़ासियतों का, हाँ गवाह हूँ मैं! 

न आता हूँ कहीं से, न जाता हूँ मैं कहीं भी,

मजबूत इरादों की, पर ठोस राह हूँ मैं!

यूँ चला था बनाने को, मैं एक नई दुनिया,

ऐसी ही क़ोशिशों से, हुआ तबाह हूँ मैं!

फैला तो ऐसे फैलता, ही चला गया मैं,

ईमानदार जैसे मासूम आह हूँ मैं!

मालिक ने जब से दी है, दिल में पनाह मुझको,

शहंशाह ही नहीं, जहाँपनाह हूँ मैं! 

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October 13, 2021

शाङ्करीय लास्य

हिमालय / तिब्बत / मानस-सरोवर 
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59 वर्ष पहले 21 अक्तूबर के दिन अचानक चीन ने भारत पर आक्रमण किया । किन्तु इसे अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि चीन के उस समय के तत्कालीन शासक माओ-त्से-दोङ् को लगता था कि भारत के उस भौगोलिक उत्तर पूर्व में वह क्षेत्र है जहाँ पहुँच जाने पर मनुष्य अमर हो सकता है। यद्यपि वह अमर होना तो चाहता था, किन्तु उसे उस क्षेत्र का ठीक ठीक स्थान कहाँ है इस बारे में संशय था। 
इसके लिए पहले तो उसने तिब्बत पर आक्रमण कर, बलपूर्वक उस पर अधिकार किया और अपने देश की सीमाओं के भीतर राज्य के रूप में मिला लिया ।
भारत का दुर्भाग्य कि हमारे तत्कालीन शासक चीन की नीयत न भाँप सके, और कौन जानता है कि क्या बौद्ध धर्म के पंचशील के सिद्धान्त की आड़ में चीन ने भारत को धोखे से मित्रता का नाटक किया!
जो भी हो, अभी भी चीन-भारत के बीच सीमा-विवाद का कोई समाधान नहीं हो पाया है। 
यह सत्य है कि हिमालय भारत का प्रहरी है और नेपाल भारत का नेत्र जिसमें धूल झोंककर चीन अपने कुत्सित इरादों को पूर्ण करने की चेष्टा में संलग्न है। 
इसे ऐतिहासिक फ्लैशबैक / रिट्रोस्पेक्ट में देखें तो ज्ञात होगा कि इसके मूल में अंग्रेजों की कुण्ठा थी, क्योंकि उन्हें भारत छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा था, और वे चाहते थे कि यह सोने की चिड़िया भारत (जो कि ईश्वर और प्रकृति के आशीर्वाद से एक राष्ट्र है), टूटता चला जाए, और उसका नामो-निशान तक बाकी न रह पाए।
हिमालय, कैलास-मानसरोवर, और नेपाल के आसपास एक शिव-क्षेत्र है, जहाँ भगवान् शिव माता पार्वती की प्रसन्नता के लिए स्त्री का रूप धारण कर निवास करते हैं। और केवल वे ही नहीं, उस स्थान के दूसरे भी सभी प्राणी भी सदैव शारीरिक दृष्टि से स्त्री के ही रूप में होते हैं, अर्थात् वहाँ कोई प्राणी पुरुष-रूप में, पुंल्लिंग के रूप में नहीं है । केवल मनुष्य और पशु-पक्षी ही नहीं, बल्कि वृक्ष-वनस्पतियाँ भी इसी प्रकार से स्त्री-लिंगीय हैं। 
(सन्दर्भ उत्तरकाण्ड, सर्ग ८७)
महर्षि वाल्मीकि को आदिकाव्य रामायण लिखने की प्रेरणा व्याध द्वारा जिस क्रौञ्च पक्षी के वध की पीड़ा से हुई, उसका वर्णन वाल्मीकि रामायण ग्रन्थ के बालकाण्ड में द्वितीय सर्ग में इस प्रकार से है :
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ।।१५।।
इसी क्रौञ्च पक्षी के कैलास पर्वत से मानसरोवर तक आने जाने के लिए पर्वत में एक रन्ध्र का उल्लेख महाकवि कालिदास कृत मेघदूतम् ग्रन्थ के 'पूर्वमेघ' में इस प्रकार से पाया जाता है :
प्रालेयाद्रेरुपतटमतिक्रम्य तान्स्तान्विशेषान् 
हंसद्वारं भृगुपतियशोवर्त्म यत्क्रौञ्चरन्ध्रम् ।
तेनोदीचिं दिशमनुसरेस्तिर्यगायामशोभी 
श्यामः पादो बलिनियमनेऽभ्युद्यतस्येव विष्णोः ।।५९।।
यद्यपि इसे महाकवि कालिदास ने यहाँ क्रौञ्चरन्ध्र भी कहा है, किन्तु इसी पंक्ति में उसे हंसद्वार भी कहा है। 
चन्द्रभागा, शतद्रु (सतलज) और सरस्वती नदियों के समीपवर्ती इस क्षेत्र में कनाल और हरिद्वार स्थित हैं।यह क्षेत्र कैकेय व हैहय क्षेत्रों के बीच है। इसके उत्तर में क्रौञ्चरन्ध्र है और उसके तथा हरिद्वार के मध्य से ब्रह्मपुत्र नद, कामरूप की दिशा में प्रवाहित होता है। 
भगवान् शङ्कर के इसी स्थान पर और कैलास मानस-सरोवर क्षेत्र के समीप स्थित वह शिवलोक है, जहाँ पृथ्वी का सर्वाधिक शक्तिशाली राजा 'इल' एक बार आखेट करते हुए भूल से आ गया था, और वह, उसकी पूरी सेना व सेवकों सहित स्त्री-रूप में परिणत हो गया था। फिर उसने भगवान् शिव से प्रार्थना की कि इस संकट से उसका उद्धार करें। तब उन्होंने 'इल' से कहा कि वह इसके लिए माता पार्वती से निवेदन करे। संक्षेप में तब उसे यह वर प्राप्त हुआ कि वह क्रमशः एक मास तक पुरुष और फिर एक मास तक स्त्री-रूप में रहेगा। 
तत्पश्चात, 'इल' जब इस प्रकार से एक समय जब स्त्री-रूप में था उसका संपर्क महात्मा बुध (आकाशीय ग्रह) से हुआ जो उस शिव-क्षेत्र से बाहर तपस्यारत थे। 
यहाँ कथा में ज्योतिष के गूढ तत्वों के बारे में कहा गया है, और हम पुनः उस शिव-क्षेत्र पर आ जाते हैं जहाँ पर भगवान् शिव लास्य-नृत्य किया करते हैं। 
इस प्रकार उस स्थान का नाम शाङ्करीय लास्य के रूप में लोक में विख्यात हुआ। 
दीर्घ काल के बीतने पर उसे ही अपभ्रंश के रूप में शांग्री-ला के रूप में जाना जाने लगा।
चीन इसी स्थान की खोज में है ताकि उसके शासक 'अमर' हो सकें ।
किन्तु लगता नहीं कि कभी वे इसे खोज पाने में सफल हो सकेंगे । पर यदि वे भगवान् शिव को खोज लें तो हो सकता है कि शायद उन्हें उनके आशीर्वाद से इसमें सफलता मिल जाए! 
आश्चर्य नहीं कि बौद्ध लामाओं को इसके रहस्य का पता हो! 

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October 07, 2021

नवरात्र का प्रथम दिन

पिछला एक दशक 
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याद नहीं किस समय अथर्वशीर्ष का पाठ करना प्रारम्भ किया था, लेकिन अब दस से भी अधिक वर्ष हो चुके हैं। दो वर्ष पहले जब इस स्थान पर रहने आया था, तब लग रहा था शायद यहाँ मैं एक-दो साल तक रह सकूँगा। दो साल पूरे होनेवाले हैं।
दो साल पहले, अर्थात् 2019 के नवरात्र के समय, और वैसे भी आसपास घूमते रहना बहुत अच्छा लगता था। फिर 2019 के अन्त में कोरोना की बीमारी के समय भी यहाँ इतना एकान्त था कि घूमते रहने में कोई बाधा कभी नहीं हुई। बल्कि समय बहुत अच्छा बीतता था।
2019 के नवरात्र में यूँ ही सुबह-शाम घूमते हुए पार्क में लगे हुए पेड़ों का निरीक्षण करता था। यहाँ चम्पा, कनेर, कदम्ब, बबूल, नीम और दूसरे भी ऐसे अनेक वृक्ष लगे हुए हैं जिनके नाम तक मुझे नहीं मालूम। उसी दौरान चम्पा के पेड़ों पर छोटे छोटे शंख दिखलाई पड़े तो आश्चर्य हुआ था। यह तो मालूम था कि इस प्राणी को घोंघा या  snail 🐌  भी कहते हैं, किन्तु वे इन पेड़ों पर कैसे पहुँच गए इस बात से थोड़ा अचरज होता था। 
अभी दो हफ्ते पहले निचले तल पर लगे हुए उस बड़े से आईने के किनारे पर एक घोंघा दिखा, तो सोचा शायद मृत होगा। आज ही अपने स्वाध्याय ब्लॉग में 'प्रथमा शैलपुत्री' शीर्षक से एक पोस्ट लिखा ही था, कि दोपहर में एक और भी, बहुत छोटा घोंघा खिड़की पर दिखाई दिया और तय किया कि यह जीवित है या नहीं, इसका पता लगाऊँगा। उन दोनों को उस स्थान से थोड़ा बलपूर्वक खींच कर निकाला, और एक तश्तरी में रखकर उसमें थोड़ा पानी भर दिया । केवल इतना कि वे पूरी तरह डूब
 गए। पाँच मिनट के बाद एक में हलचल होती दिखलाई पड़ी।
 और दो-तीन मिनट के बाद, दूसरे में भी। फिर वे दोनों अपनी -
 अपनी खोल से बाहर निकल आए। और दो मिनट बाद तो उन  दोनों के दो सींग, शृंग (एन्टीना) भी उभर आए। 
तब मुझे पता चला कि वे इतने दिनों से hibernation अर्थात् कल्पवास में थे। शायद वे शीत-ऋतु से ग्रीष्म-ऋतु तक ऐसे ही किसी हरे पेड़ पर चिपटे रहकर, उसके रस को पीकर वह समय बिताते होंगे।
थोड़ी देर तक उन्हें कौतूहल से देखता रहा, फिर तश्तरी से पानी बाहर फेंक दिया, तो वे उसकी दीवार पर चढ़ने लगे। तब उन्हें तश्तरी के साथ उठाया और बाहर जाकर नये नये उसे हुए एक छोटे से चम्पा की शाखा पर डाल दिया। अब शायद उनका यह समय ठीक से बीत जाएगा। आईने या खिड़की पर तो क्या पता वे कब तक जिन्दा रहते! रह पाते भी या नहीं! 
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एक टिप्पणी :
10-10-2021
कल एक मित्र ने और गूगल ने भी बतलाया कि घोंघे के भीतर कुछ ऐसे सूक्ष्म जैविक प्राणी प्रोटोज़ोआ होते हैं, जो त्वचा से हमारे शरीर में प्रविष्ट होकर गंभीर बीमारी का कारण बन सकते हैं। यहाँ इस जानकारी को इसलिए शेयर कर रहा हूँ कि भूलकर भी आप कहीं अनजाने में, उत्सुकता और लापरवाही से उसे न छू लें।
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एक बंजर गर्म रेगिस्तान में

कविता : 07-10-2021

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हाँ इस एक बंजर गर्म रेगिस्तान में, 

मैं तो उगाने जा रहा हूँ कमल! 

हाँ ये सच है, वक्त लगना है ज़रूर,

फिर भी करने जा रहा हूँ मैं अमल! 

पहले बदलूँगा मैं मौसम यहाँ का, 

एक टुकड़े पर उगाऊँगा मैं घास, 

और वह टुकडा़ बडा़ करते हुए,

एक जंगल बनाने का है प्रयास!

और उस जंगल को भी बड़ा करके,

बंजर जमीन यह उपजाऊ बनाऊँगा,

इस भूमि की मिट्टी को भी दूँगा बदल! 

जब ये जंगल फैल जाएगा क्षितिज तक,

मौसम, हवा भी बदल जाएँगे, दूर तक! 

आने लगेंगे जब यहाँ पंछी भी हर ओर से,

उड़कर के चहचहा के, कलरव करेंगे जोर से, 

गूँजने लगेंगे यह धरती, गगन उस शोर से

देख लूँगा धरती अपने सजल नेत्र-छोर से!

वही नेत्र जो आज तक थे तप्त रेगिस्तान में,

शुष्कप्राय, अश्रुसिक्त, हो उठेंगे फिर सजल!

और फिर है क्या अचंभा, सरोवर भी यहाँ होगा,

और उस पर पल्लवित पुष्पित भी होंगे कमल! 


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October 02, 2021

मैं अवाक्!

स्मृति ही वाणी...!

कविता : 02-10-2021

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खुद ही खुद से बातें करती है, 

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन, 

घातें-प्रतिघातें करती है!

'मैं' तो हर पल ही रहता मौन!

स्मृति ही कहती है, दुनिया है, 

स्मृति ही तो 'मैं' कहती है!

'मैं' ही, मेरी दुनिया भी, 

स्मृति ही तो यह कहती है!

खुद ही बाँटती है खुद को, 

'मैं'-'मेरे' में, बँट जाती है,

अपने ही इस ताने-बाने के,

जाल में खुद फँस जाती है!

'मैं' अवाक् बस देखा करता, 

पल-प्रतिपल स्मृति का खेल,

फिर भी कभी नहीं कहता कुछ,

कैसे यह, कह सकता, मैं! 

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संदर्भ : गीता, 

अध्याय ४ --

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन ।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ।।५।।

अध्याय ७ --

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

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उपरोक्त दोनों श्लोकों का अर्थ :

'अहं' को उत्तम पुरुष एकवचन, अन्य पुरुष एकवचन या आत्मा / परमात्मा / ईश्वर, किसी भी अर्थ में ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि यहाँ 'वेद' -- वर्तमान काल,  लिट्-लकार में उत्तम पुरुष और अन्य पुरुष दोनों ही से सुसंगत है।

'मां' या 'माम्' को भी, इसी प्रकार से, मेरे' या 'आत्मा के' / 'ईश्वर के', इन सभी अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है। 

ईश्वर यद्यपि सबको जानता है, ईश्वर को कोई नहीं जानता। अपनी आत्मा को, -अपने आपको भी उस प्रकार से नहीं जाना जा सकता, जिस प्रकार से अपने से भिन्न किसी अन्य वस्तु को जाना जाता है। आत्मा में निमग्न होकर ही आत्मा को उस ज्ञान से जाना जाता है जिसमें ज्ञाता और ज्ञेय का भेद मिट जाता है और सब कुछ आत्मा ही है, इस सत्य का साक्षात्कार होता है। 

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फ़िलहाल और हमेशा

कविता : 02-10-2021

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वक्त आईना है, इसमें अपनी शक्ल देख लीजिए, 

वक्त आईना है, इसमें अपनी अक्ल देख लीजिए! 

हमेशा जिसको कहें, ऐसा कुछ, कहीं भी नहीं होता, 

सभी कुछ अभी, या बस, फ़िलहाल ही है, जो होता! 

जो गुजर गया, कभी हुआ था भी, कि नहीं, क्या पता, 

जो होगा, हो सकता है, उम्मीद जिसकी, शायद हो पता। 

वक्त चलता ही रहता है हमेशा, हमवार, लगातार, मगर,

फिर भी ठहरा भी रहता है, वो फ़िलहाल की तरह अभी!

ये अजीब लगता है कि ऐसी भी क्या शै है यह वक्त,

जो कभी चलता है, चलता भी नहीं, बदलता है कभी!

वक्त बदले या न बदले, आप बदल सकते हैं या नहीं,

ये अगर मालूम हो जाए, कि आप क्या हैं, क्या नहीं!

तो खुल जाएगा यह राज भी कि क्या शै है यह वक्त,

आपके ठहरने, बदलने, से ही तो ठहरता, बदलता है वक्त!

वक्त आईना है बस, दिखलाता है, दर-असल क्या हैं आप,

पहले क्या थे, क्या नहीं, फ़िलहाल मगर क्या हैं आप!

आप क्या होंगे, ये भी बस तसव्वुर, है आपका ख़याल,

आप हमेशा ही रहते हैं फ़िलहाल, फिर भी बेमिसाल!

वक्त आईना है, इसमें अपनी शक्ल देख लीजिए,

वक्त आईना है, इसमें अपनी अक्ल देख लीजिए!

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