वैदिक ज्ञान के अनुसार जीवन के सात रूप क्रमशः सात लोकों की तरह कहे जा सकते हैं। ये ही भू, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्य हैं।
भू अर्थात् जड पदार्थ जिसमें अभी जीवन प्रकट (manifest) नहीं हुआ है। भुवः का अर्थ है इसी भू तत्व में कोई जैव इकाई का उद्भव होना, अर्थात् वनस्पति और जीवों का लोक । इसी क्रम में ऐसी जीव इकाई में चेतना (sentience) का प्रकट हो जाना, जो अपने 'स्व' की पहचान और उसे एक स्वतंत्र सत्ता की तरह स्वीकार करती है। इसलिए भूः, भुवः तथा स्वः ये तीनों दशाएँ क्रमशः जड जगत, वनस्पति जगत तथा मनुष्य और दूसरे प्राणियों आदि का जगत है जिनमें अपनी अपनी विशिष्ट पहचान स्व या मैं की तरह होती है।
इसका ही अधिक विकसित रूप है जब कुछ ऐसी जैव इकाइयांँ अस्तित्व ग्रहण करती हैं जिनके पास कुछ विशिष्ट क्षमताएँ होती हैं -- जैसे यक्ष, गन्धर्व, किन्नर, राक्षस, विद्याधर, नाग, देवता, दैत्य, वानर, सिद्ध, पिशाच आदि। रामायण के अन्तर्गत इन्हें ही 'जनस्थान' में आते जाते रहने वाली सजीव सत्ताएँ कहा गया है। राक्षस और वानर क्रमशः निशाचर / रात्रिचर और इच्छाधारी भी कहे गए हैं ।
इस प्रकार जनस्थान वह रहस्यमय संसार है जहाँ विभिन्न प्रकार की आत्माएँ आती जाती हैं और हमें देख सकती हैं, जबकि हम उन्हें नहीं देख सकते।
इस 'जनस्थान' से ऊपर देवताओं का लोक है। देवताओं के पास अपने विमान होते हैं। देवताओं में से ही एक हैं विश्वकर्मा / त्वष्टा जो देवताओं के यंत्रों / भवनों, महलोक के निर्माता कहे जाते हैं। विश्वकर्मा ने ऐसा ही पुष्पक नामक एक विमान कुबेर के पिता के लिए बनाया था । कुबेर यक्ष था और रावण का भाई भी था, किन्तु दोनों की माताएँ अलग अलग थी। यहाँ आलस्यवश मैं यह जानकारी खोजने में असमर्थ हूँ। तात्पर्य यह कि रावण स्वयं इतना सक्षम नहीं था कि विमान निर्मित कर सके, इसलिए उसने कुबेर से वह विमान बलपूर्वक छीन लिया।
देवताओं के लोक से ऊपर है महः लोक जिसमें महर्षि और बड़े सिद्ध, तपस्वी आदि रहते हैं भगवान् शिव इसी लोक में रहते हैं इसलिए उन्हें महेश कहा जाता है महत् तत्व बुद्धि को भी कहा जाता है। इसी प्रकार पार्वती, देवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि देवता भी इसी लोक में वास करते हैं। यहाँ तक कि ब्रह्मा और विष्णु, यम और वरुण आदि भी।
इससे भी ऊपर तपःलोक है और वहाँ सभी तपस्वी नित्यप्रति ही तपस्या करते हैं, जैसे सूर्य, पृथ्वी आदि।
रामायण की कथा में सभी लोकों और वहाँ के रखनेवालों के पारस्परिक व्यवहार का उल्लेख है।
तपःलोक से ऊपर सत्यलोक है जिसके लिए गीता में कहा गया है : "ऊर्ध्वमूलः अधोशाखः अश्वत्थः प्राहुरव्ययम्..."
शिव अथर्वशीर्ष में भगवान् रुद्र कहते हैं :
"धर्मेण धर्मं सत्येन सत्यं तर्पयामि स्वतेजसा ।"
समस्त लोक यद्यपि धर्म में ही स्थित हैं, किन्तु धर्म सत्य में ही प्रतिष्ठित है।
इसलिए जब रामायण की कथा को भौतिक विज्ञान की कसौटी पर कसा जाता है तो उसकी प्रामाणिकता पर संशय होने लगता है। किन्तु यदि इस पूरी कथा और इसमें वर्णित घटनाओं के बारे में ठीक से समझा जाए, तो इसमें कुछ भी अप्रामाणिक नहीं है।
***
No comments:
Post a Comment