November 30, 2021

कल, आज और कल

अतीत, वर्तमान और भविष्य :

जीवन-धर्म

-------------------©-----------------

पिछले पोस्ट के संदर्भ में देखें तो स्पष्ट है कि अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में जब भी सोचा जाता है या हम सोचने के लिए बाध्य होते हैं तो किसी न किसी संदर्भ में ही ऐसा होता है। दिलचस्प तथ्य यह है कि इस स्थिति में सर्वाधिक महत्वपूर्ण और आवश्यक संदर्भ पर हमारा ध्यान ही नहीं जाता या अपने किसी भय या आग्रह के कारण जानते हुए भी हम उस संदर्भ पर ध्यान ही नहीं देते ।

मोबाइल या टीवी पर कोई भी न्यूज़ आइटम या कोई ऐड हमारी तात्कालिक आवश्यकता की ओर से सिर्फ हमारा ध्यान ही नहीं हटाते, बल्कि उसे किसी ऐसी दिशा में खींच लेते हैं, जो न सिर्फ तात्कालिक उत्तेजना अथवा आकर्षण होती है बल्कि हमें अपनी वास्तविक आवश्यकता के बारे में सोचने / सोच पाने से भी रोक देती है। हाँ यह प्रायः होता है, कि तब आप कल, आज या कल, अतीत, वर्तमान या भविष्य के बारे में भी सोच रहे होते हैं, वह भी किसी न किसी दृष्टिकोण से!

फिर भी अपने मूल चरित्र के अनुसार आप अपना मूल्यांकन भी अवश्य कर सकते हैं। 

प्रत्येक मनुष्य मूलतः जिन प्रेरणाओं से संचालित होता है, वैसे तो वे उसके परिवार, परिवेश तथा परिस्थितियों का मिला जुला प्रभाव होती हैं, किन्तु सफलता, आदर्श, कर्तव्य, व्यक्तिगत स्वार्थ आदि को सर्वोपरि स्थान देकर हर मनुष्य किन्हीं आवश्यकतओं को सबसे अधिक महत्व देने लगता है। 

'लोग क्या कहेंगे!' 

इस एक प्रश्न का सामना भी प्रत्येक मनुष्य अपनी मूल प्रेरणा के ही अनुसार करता है।

सफलता को अधिक महत्व देनेवाला कोई व्यक्ति अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, सरल या उलझा हुआ, संतुष्ट या असंतुष्ट, साहसी या भीरु, स्पष्ट या भ्रमित हो सकता है। 

इसी प्रकार महत्वाकांक्षा से ग्रस्त कोई मनुष्य भी इसी प्रकार से हो सकता है। 

किसी वास्तविक, काल्पनिक ध्येय या आदर्श से प्रेरित व्यक्ति भी इसी तरह अच्छा या बुरा, व्यावहारिक या अव्यावहारिक, अपने कार्य को कैसे किया जाना है, इस बारे में ठीक से जानता या इस बारे में भ्रमित भी हो सकता है। 

"क्या नियति या भाग्य ही मनुष्य को जीवन में सफलता अथवा असफलता, सुख या दुःख आदि प्रदान करते हैं, या कि वह स्वयं ही अपने भाग्य का स्वामी / निर्माता है?"

यह प्रश्न भी मनुष्य अकसर तब पूछता है जब जीवन में उसका सामना सतत आशा-निराशा से होने लगता है। 

जब तक सब कुछ ठीक चल रहा होता है तब तक मनुष्य जीवन के छोटे-बड़े प्रश्नों से सरलता से निपट लेता है, लेकिन बहुत सी समस्याएँ सामने आने पर प्रायः हर कोई व्याकुल और भ्रमित हो जाया करता है, दुविधा और असमंजस में ऐसे निर्णय कर लेता है जिससे  समस्याएँ और भी उलझ जाती हैं।

क्या यह भी नियति अथवा भाग्य से होता है? 

इस तरह से सोचने से क्या हम किसी निष्कर्ष पर पहुँच सकते हैं, या कोई समस्या हल हो जाती है?

इसलिए यह तो इस पर ही निर्भर करता है कि हम प्रश्न पर किस संदर्भ में देखते हैं। और संदर्भ भी क्या सिर्फ़ एक ही होता है? संदर्भ बहुत से हो सकते हैं, किन्तु फिर किसी एक के आधार पर भी विकल्प भी अनेक हो सकते हैं। यह कठिनाई है या अवसर, यह भी अपने अपने दृष्टिकोण से तय हो सकता है!

दृष्टिकोण जितना अधिक उदार, व्यापक और सर्वाङ्गीण होगा, समस्याओं और प्रश्नों को चुनौतियों, अवसरों, और संभावनाओं की तरह ग्रहण किया जाएगा, हमारा जीवन भी उतने ही अधिक उत्साह और उल्लास से समृद्ध हो सकता है। 

यही संक्षेप में धर्म नामक प्रथम पुरुषार्थ है। 

***


No comments:

Post a Comment