November 02, 2021

अ - अनार, आ - आम,

अन्तःसलिला सरस्वती

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बचपन से याद है कि स्कूल में प्रवेश प्राप्त करने से पहले मुझे मेरे पूज्य बड़े भाई ने किस प्रकार अक्षर-विद्या की दीक्षा दी थी। 

मेरे सामने स्लेट थी, और मेरी उंगलियों में पेम (स्लेट-चाक) ।

दादा (मेरे बड़े भाई) ने स्लेट पर लिखा "अ" ।

फिर मेरी उंगली पकड़कर पेम को उस वर्ण-अक्षर पर अनेक बार घुमाया / फेरा, और फिर मुझसे कहा :

अब तुम अलग से यहाँ स्लेट पर "अ" लिखो।

मैंने अनायास "अ" लिखा।

फिर दादा के कहने पर मैंने पुनः पुनः "अ" लिखने का अभ्यास किया। फिर क्रमशः "आ", "इ" और शेष वर्णाक्षर लिखना भी इसी प्रकार से मैंने सीखा।

इस प्रकार न तो मैंने "अ" से "अनार", और न ही, "आ" से "आम" आदि कभी सीखा ।

आज इस पोस्ट को लिखते हुए एकाएक इस पर ध्यान आया कि कैसे मुझे अनायास "अ" से "अदिति" और "अदिति" से "अ" का ज्ञान प्राप्त हुआ। 

इसी प्रकार से मुझे फिर "आ" से "आदित्य", और "आदित्य" से "आ" का ज्ञान प्राप्त हुआ ।

बहुत बाद में मेरा ध्यान इस पर गया कि भाषा-ज्ञान प्राप्त करने के लिए यद्यपि "अ" अनार का, और "आ" आम का सीखना सुविधा-जनक और उपयोगी भी है, किन्तु वास्तविक अक्षर-ज्ञान को उस प्रकार से प्राप्त करना कठिन ही नहीं, भ्रामक विकल्प भी है। 

फिर भी भारतीय भाषाओं को सीखने के लिए वह स्वीकार्य और किसी हद तक आश्यक भी हो सकता है, किन्तु 

"a for apple, b for bat , c for cat, d for dog,..."

तो वास्तविक अक्षर-ज्ञान के लिए बाधक ही नहीं उससे विपरीत और उस दृष्टि से विनाशकारी भी है।

यह मैं अपने अंग्रेजी या अन्य भाषाओं से द्वेष के कारण नहीं, बल्कि अपने अनुभव से कह रहा हूँ। यद्यपि आवश्यकताओं और बाध्यताओं से विवश होकर मैंने अंग्रेजी भी सीखा, और यह भी सच है कि अंग्रेजी के प्रति मेरा आकर्षण और मोह भी इसका प्रमुख कारण थे।

जैसे मैंने अनायास हिन्दी भाषा को सीखा, और मातृभाषा होने के कारण मराठी भाषा को, वैसे ही मैंने अंग्रेजी या तमिऴ आदि भाषाओं को "पाठ" से, अर्थात् पठन्त-विद्या से सीखा, - न कि  रटन्त-विद्या से।

और तमिऴ भाषा को सीखने का प्रयोजन अन्तःसलिला देवी भगवती की ही प्रेरणा था, और इस प्रकार से मैंने ईश्वर अर्थात् परब्रह्म भगवान् शिव (अ-कार), भगवान् श्रीगणेश (विनायक) की प्रेरणा से ही अपने समस्त ज्ञान को न केवल प्राप्त किया, बल्कि अपने पूर्वपुरुष भगवान् भरद्वाज ऋषि के आशीर्वाद से अपने हृदय में उसका यत्किञ्चित आविष्कार भी किया। 

पठन्त-विद्या और रटन्त-विद्या का भेद इसीलिए इस प्रकार से मुझे स्पष्ट हुआ।

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