नित नूतन, चिर सनातन
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भारतीय, वैदिक परंपरा में (मनुष्य के) जीवन के चार पुरुषार्थों को सबसे अधिक महत्व दिया गया है :
धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष ।
पुरुषार्थ का तात्पर्य है : Endeavor, Enterprise.
ये दोनों शब्द भी पुनः उत्साह (enthusiasm) और उत्सव (festival) के समानार्थी हैं।
इन चार पुरुषार्थों में से धर्म को वरीयता दी गई है क्योंकि शेष तीनों उसकी ही लीक पर चलते हैं।
क्या धर्म को परिभाषित किया जा सकता है!
सामाजिक और व्यावहारिक दृष्टि से कोई परिभाषा की जा सकती है, किन्तु परिभाषा भी पुनः धर्म की हमारी दृष्टि से ही पैदा होगी। परंपरा भी एक दृष्टि से धर्म ही है, किन्तु वह धर्म के वास्तविक,मूल स्वरूप, उद्देश्य और कारण को इंगित करे, यह आवश्यक नहीं।
पुनः, धर्म के एक सरल तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिए किसी ऐसे आधार / मापदंड / criteria को तय करना होगा और चिर सनातन काल से इस आधार / मापदंड / criteria को श्रेय (common good) के आधार / मापदंड / criteria के अनुसार तय किया जाता रहा है। इस प्रकार धर्म केवल अपने और अपने समस्त परिवार ही नहीं, बल्कि मनुष्यमात्र, समाज, तथा संपूर्ण चर-अचर जीवन की विविध अभिव्यक्तियों के लिए जो कुछ भी आवश्यक, हितप्रद और श्रेयस्कर है उसे जानने, खोजने और उस पर आचरण करने का साधन है।
इस दृष्टि से धर्म जीवन के प्रति हमारी भावना की ही परिचायक गतिविधि है । समस्त अस्तित्व के और सबके लिए जो सदा शुभ है, वैसी भावना ही धर्म का मूलतः वास्तविक तत्व spirit और प्रेरणा है । क्या सभी के हृदय में मूलतः यही भावना अनायास ही विद्यमान नहीं होती? व्यक्ति, परिवार, समाज या मनुष्यता को उसकी समग्रता में देखा जाए, तो भावना ही व्यापक और उदात्त अर्थ में धर्म का प्राण है।
भावना के जागृत होने के बाद ही बुद्धि और अपने अस्तित्व पर ध्यान जाता है, बुद्धि के अनुसार भावना ही भाव अथवा प्रवृत्ति का रूप लेकर संपूर्ण और समस्त जीवन को निर्देशित करती है। बुद्धि अपने-पराये का कृत्रिम, बहु-आयामी और बहुस्तरीय भेद / विभाजन करती है । अतएव भावना मूलतः और व्यावहारिक रूप से भी, संपूर्ण अस्तित्व का संचालन करनेवाली वह शक्ति है, जिसे बुद्धि की सहायता से यद्यपि समझा और जाना तो जा सकता है, किन्तु भावना के मूल तत्व और चरित्र का आकलन नहीं किया जा सकता, क्योंकि आकलन करना भी बुद्धि का ही विषय / कार्य है।
अब, यदि बुद्धि के स्वरूप और चरित्र को ही समझ पाना मनुष्य के लिए बहुत दुष्कर और कठिन है, तो भावना का स्वरूप और चरित्र क्या और कैसा है, इसका ठीक ठीक अनुमान लगाना तो इससे भी एक अधिक दुरूह कार्य है।
फिर भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता, कि भावना जिसे कि अंग्रेजी में sentiment / spirit कह सकते हैं, अस्तित्व की मूल संचालनकर्त्री शक्ति है।
इसे ही 'ईशिता' (governance) कहा जाता है, जो संपूर्ण जड-चेतन, चराचर भूत-प्राणियों को किसी न किसी कार्य में प्रेरित, संलग्न तथा प्रवृत्त करती है।
'ईशिता', 'ईश्वर' की भाववाचक संज्ञा (abstract noun) है, और इस तरह से देखें तो 'ईश्वर' कोई व्यक्ति विशेष हो या न भी हो, तो भी 'ईशिता' अस्तित्व का शासन करनेवाली प्रत्यक्ष शक्ति है।
'ईशिता' के रूप में 'ईश्वर तत्व' का वर्णन ईशावास्योपनिषद् की भूमिका में इस प्रकार से किया गया है :
ईशिता सर्वभूतानां सर्वभूतमयश्च यः ।
ईशावास्येन संबोध्यमीश्वरं तं नमाम्यहम् ।।
वही सर्वत्र (omnipresent), सर्वज्ञ (omniscient) और सर्वशक्तिशाली (omnipotent) और प्रत्यक्ष वास्तविकता (Reality) भी है।
उसे एक अथवा अनेक की तरह सीमित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार जब भावना (spirit) की एकता (uniqueness), व्यापकता, असीम सामर्थ्य और विविधता पर ध्यान जाता है, तो हमें अनायास ही उसकी उस महिमा का भान होता है, जिसका हम यद्यपि वर्णन तो नहीं कर सकते, किन्तु उससे प्रभावित व अभिभूत (overwhelmed) हुए बिना भी नहीं रह सकते।
किन्तु परंपरा और समुदाय (religion and tradition) उसे यत्किञ्चित जानकर ही किसी न किसी प्रकार से अनुमान की प्रणाली में संकुचित तथा संकीर्ण कर देते हैं और उनके बीच की एक दूसरे के प्रति नासमझी से अनावश्यक संघर्ष और वैर उत्पन्न हो जाता है।
दीपावलि की यह ज्योति मनुष्यमात्र के हृदय में उस उत्सव धर्म की भावना का उन्मेष, संचार और विस्तार करे, इस कामना के साथ दीपावलि पर्व की असंख्य हार्दिक शुभकामनाएँ!
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