November 27, 2021

सवाल यह है!

सवाल यह नहीं है,

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कि हम किसी चीज़ के बारे में क्या सोचते हैं, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि उस पर हम किस सन्दर्भ से सोचते हैं। यह संदर्भ कोई परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना भी हो सकता है।

किसी परंपरा, मान्यता, आग्रह, विश्वास या कोरी कल्पना से उस चीज़ के बारे में सोचते हुए हम प्रायः दुविधा या कट्टरता से ग्रस्त भी हो सकते हैं, और किसी प्रकार के भय, आकर्षण, सामाजिक दबाव आदि के प्रभाव में आकर अपनी स्वतंत्र विवेक-बुद्धि को दरकिनार भी कर सकते हैं। 

विकास के बारे में हमारा चिन्तन इसी आधार से प्रेरित होता है। विकास क्या है? सामान्यतः विकास से हमारा यही आशय होता है, कि राष्ट्र शक्तिशाली बने, दूसरे राष्ट्रों की तुलना में प्रभावशाली बने। शक्तिशाली होने का मतलब हुआ, -भौतिक रूप से समृद्ध और साधनसंपन्न हो। और यह भौतिक समृद्धि किस प्रकार और किस कीमत पर पाई जा रही है, इस ओर न तो किसी का ध्यान होता है, न कोई ध्यान देना चाहता है। कोई राजनीतिक विचार, कोई राजनीतिक रूप से प्रभावशाली व्यक्ति ही इस विकास का प्रतिनिधि-उदाहरण ideal icon बन जाता है। इसकी तुलना में तमाम नीति (ethics and morality) शील (humility) और आचार (behavior and code of conduct) गौण हो जाते हैं। किसी भी उचित अनुचित-रीति से सफल हो जाना ही ध्येय होकर रह जाता है। किन्तु इस सफलता के शिखर पर पहुँचकर भी क्या किसी के भी जीवन में कहीं कोई वास्तविक प्रफुल्लता दिखाई पड़ती है! यह न केवल किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में सत्य है, बल्कि पूरे समाज के बारे में भी इससे भी अधिक सत्य है। क्या ऐसा कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की आन्तरिक रिक्तता को दूसरों की नजरों से छिपा पाता है? क्या यह आत्म-गौरव उसे उसके मन की शान्ति और समाधान प्रदान कर पाता है! 

अपने भीतर क्या वह उतना ही, या उससे भी अधिक खाली नहीं होता, जितना कि कोई भी दूसरा सामान्य मनुष्य हुआ करता है?

इससे जुड़ा एक इतना ही महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि प्रत्येक  व्यक्ति मनोरंजन (entertainment / enjoyment) के पीछे क्यों भागता है! मनोरंजन (entertainment / enjoyment) में मनुष्य को ऐसा क्या प्राप्त हो जाता है जिससे कि उसका जीवन सार्थक और पूर्ण हो जाता हो! इसके बाद क्या  "what next?" पुनः आकर सामने नहीं खड़ा होता? क्या भविष्य की आशंकाएँ, अनिश्चितताएँ समाप्त हो जाती हैं?

स्पष्ट है कि मर्यादारहित सुख का भोग अन्ततः मनुष्य को उतना ही असंवेदनशील बना देता है, और ऐसे नीरस जीवन में सुख या उत्तेजना की तलाश में वह और भी नये-नये तरीकों की तलाश में संलग्न हो जाता है। वे सुख या उत्तेजनाएँ किसी नशे के माध्यम से या किसी आदर्श के प्रति गहरे समर्पण से भी सतत पैदा की जा सकती हैं, और उनमें सतत गौरव भी अनुभव किया जाता रह सकता है। लेकिन सवाल अब भी वही है कि क्या इस प्रकार जीवन में रिक्तता-बोध मिट पाता है?

फिर विकास क्या है? 

विज्ञान और संस्कृति, खेल, संगीत या कला, इन क्षेत्रों में विकास की सीमा / चरम क्या हो सकता है, जिससे जीवन की रिक्तता दूर हो सकती हो!

क्या अमर हो जाने पर भी रिक्तता से कभी किसी का छुटकारा हो पाना संभव है? और, क्या शायद इसीलिए तो कुछ लोग इस रिक्तता से उबकर आत्महत्या नहीं कर लेते?

क्या आत्महत्या कोई समाधान है, या वह केवल इस सवाल से पलायन करने का ही एक और यत्न है!

या, क्या यह सवाल ही कहीं औचित्यहीन तो नहीं है?

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