December 23, 2018

वहम और यक़ीन

धरती गोल है चपटी ?
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उसे भरोसा नहीं था कि मैं उसे सही साबित कर सकूँगा ।
फिर भी वह अपने इस आग्रह पर डटा था कि विज्ञान या N.A.S.A. भले ही लाख सिद्ध करें, धरती / दुनिया चपटी है न कि गोल (क्योंकि उसका धर्मग्रंथ गलत नहीं हो सकता था)!
पहले तो मैंने उसे भारतीय ज्योतिष-विज्ञानी (Astronomer) भास्कराचार्य का लिखा एक श्लोक प्रमाणस्वरूप दिखलाया जिसका भावार्थ था :
"जैसे किसी बहुत बड़े गोले (वृत्त) की परिधि का सौंवां हिस्सा सीधा जान पड़ता है, उसी तरह धरती भी क्षितिज तक सीधी दिखलाई पड़ती है किंतु दूर क्षितिज पर दिखलाई पड़नेवाला पेड़ पास जाने पर अधिक ऊँचा जान पड़ता है क्योंकि उसके पास जाने पर वहाँ धरती की ऊँचाई कुछ कम हो जाती है, मतलब धरती सीधी न रहकर कुछ झुक जाती है।  इसी तरह समुद्र पर दूर दिखलाई पड़ता जहाज शुरू में काम ऊँचाई का दिखाई देता है लेकिन पास आते-आते अधिक ऊँचा दिखने लगता है क्योंकि समुद्र की सतह भले ही समतल दिखाई देती हो, धरती की सतह के साथ साथ बड़े वृत्त के हिस्से की तरह वक्र होती है।"
"मैं नहीं मान सकता।"
"अच्छा, अगर मैं मेरी किताब से यह साबित करूँ कि धरती चपटी भी है और गोल भी तो?"
वह हैरत से मुझे देखने लगा।
"देखो, वाल्मीकि रामायण में 'विवस्वान्-पथ' का वर्णन है।  जिसके अनुसार ऋषि विश्वामित्र त्रिशंकु को सदेह (बिना मृत्यु हुए) स्वर्ग भेजने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन देवता उसे स्वर्ग में सदेह आने देना नहीं चाहते थे।  तब देवताओं और ऋषि विश्वामित्र के बीच यह समझौता हुआ कि त्रिशंकु को 'विवस्वान्-पथ' से बाहर अंतरिक्ष में स्थायी जगह दिला दी जाए जिससे वह आकाश के किसी तारे की तरह अपने इर्द-गिर्द के बहुत से तारों के बीच तय स्थान पर दिखाई देता रहे, न कि चन्द्रमा, सूर्य या मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि जैसा भिन्न भिन्न राशियों में घूमते रहनेवाला।"
मेरी बात उसे समझ में तो नहीं आई और वह और भी ज़्यादा हैरत से मुझे देखने लगा।
अपने swaadhyaaya blog ... में लिखी पोस्ट्स में मैंने 'विवस्वान्-पथ' नामक पोस्ट में लिखा था कि वाल्मीकि-रामायण में किए गए उल्लेख सत्य के तीन तलों (dimensions) को एक साथ सन्दर्भ देकर लिखे गए हैं।  यदि सत्य का वर्णन केवल आध्यात्मिक या केवल आधिदैविक या केवल आधिभौतिक सन्दर्भ में, या इनमें से किन्हीं दो ही तलों को ध्यान में रखकर किंतु तीसरे की अवहेलना करते हुए किया जाए तो वह भ्रमकारक होता है। इसी ब्लॉग में मैंने यह उल्लेख भी किया है कि सूर्य और सौरमंडल के सभी ग्रह जो सूर्य के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं एक ही तल में भिन्न-भिन्न समानांतर वृत्ताकार / अंडाकार कक्षाओं में निरंतर गतिशील हैं।  यह वैसा ही है जैसे एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरियों में कुछ पत्थर बाँध कर डोरी को तेजी से गोल घुमाया जाए।  तब परस्पर बंधे होने से सभी पत्थर एक ही तल (plane) में स्थित होकर भिन्न-भिन्न वृत्तों में घूमेंगे।
ठीक इसी भाँति सौरमंडल के ग्रह भी  गुरुत्वाकर्षण-बल की डोरी में बँधे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाकर एक ही तल (plane) में स्थित रहते हैं। इसी तल को विवस्वान्-पथ कहा गया है और ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु को इसी तल (plane) पर स्थापित करने का प्रयास किया था जो देवताओं (सूर्य आदित्य होने से उस आधिदैविक देवलोक का अधिष्ठाता है जिसमें सभी ग्रह जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं, आधिदैविक देवता हैं और यद्यपि पृथ्वी स्वयं भी इसी तल से साढ़े 23 अंश पर झुकी सूर्य की परिक्रमा करती है, अन्य ग्रह इस तल से कितने अंश झुके हैं या नहीं यह हमें नहीं पता)।
त्रिशंकु निश्चित ही कृत्रिम उपग्रह (satellite) रहा होगा जिसके तीन शंकु (cones) रहे होंगे जैसा कि इस युग के बहुत से मनुष्य-निर्मित कृत्रिम उपग्रह (satellite) हुआ करते हैं। किंतु देवताओं और इंद्र तथा विश्वामित्र के मध्य अंततः यह स्वीकार किया गया कि उस त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (satellite) को इस 'विवस्वान्-पथ'से बाहर अंतरिक्ष में स्थान दिया जाए।  तब से खगोलविदों (astronomers) को वह 'तारा' आकाश में स्थिर तारे की तरह किसी राशि-विशेष के तारे जैसा दिखाई देता है। 
इस  यदि दुनिया / सौरमंडल को इस 'विवस्वान्-पथ' के रूप में देखें तो दुनिया अवश्य ही चपटी है।
इस प्रकार दुनिया एक दृष्टि से यद्यपि समतल अर्थात् चपटी कही जा सकती है, वहीँ जब इसे पृथ्वी तक सीमित समझा जा सकता है तो वह एक गोल पिंड है जो अन्य ग्रहों की तरह ही सूर्य का एक उपग्रह है।
ज्योतिष-शास्त्र (Astrology) की दृष्टि से देखें तो ये सभी ग्रह 'देवता' अर्थात् आधिदैविक / अधिमानसिक (supra-mental) अस्तित्व रखते हैं किंतु खगोल-शास्त्र की दृष्टि से इनका अस्तित्व आधिभौतिक अर्थात स्थूल इन्द्रिय-बुद्धिगम्य तथाकथित 'वैज्ञानिक' आधार पर भी है।
यदि वाल्मीकि-रामायण का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करें तो यह समझा जा सकता है कि :
दुनिया 'गोल' है या चपटी !
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December 12, 2018

वर्तमान : तीन चित्र

वर्तमान : तीन चित्र
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चित्र -1
हिंदुत्व 
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कुछ वर्षों पहले स्वर्गीय बलराज मधोक के बारे में एक पोस्ट लिखा था।
तत्कालीन जनसंघ में वही एक सबसे अधिक प्रबुद्ध बुद्धिजीवी थे जिन्होंने 'हिंदुत्व' के विचार के ख़तरे को समझा था। बाद में जनसंघ ने उन्हें अलग-थलग कर दिया था क्योंकि सत्ता के लोलुप दूसरे बुद्धिजीवियों को इस 'हिंदुत्व' के विचार (या इसके विरोध के विचार) से बहुत उम्मीदें थीं।
सावरकर ने इसे इस्लाम के विचार के खिलाफ अपरिहार्यतः ज़रूरी समझा और यही हिंदूवादी संगठनों की भयंकर भूल थी, यह आज तक किन्हीं हिंदूवादियों को समझ में नहीं आ रहा। जहाँ एक तरफ देश की जनता में 'हिन्दू गौरव' को इस्लाम के सामने उसके मुक़ाबले में खड़ा कर दिया गया, वहीँ हमारे बहुत से संत महात्मा भी इस धोखे से बचे न रह सके। अंग्रेज़ों ने इस्लाम, ईसाइयत, बौद्ध, जैन, सिख, यहूदी, पारसी, आदि परम्पराओं को धर्म (religion) कहकर 'हिंदुत्व' पर भी 'धर्म' की मुहर लगा दी और हमने उसे आँख मूंदकर स्वीकार कर लिया।
फिर 'सर्वधर्म-समत्व' के राजनैतिक विचार का आविष्कार गाँधीजी ने किया।
आचार, विचार, व्यवहार, संस्कार, और इतिहास के आधार पर उपरोक्त सभी परम्पराएँ जिन्हें 'धर्म' कहकर हमें परोसा गया, न सिर्फ परस्पर अत्यंत भिन्न प्रकृति की हैं, बल्कि उनके बीच सामञ्जस्य कर पाना असंभव की हद तक मुश्किल है। इस प्रकार अंग्रेज़ों ने सामान्य जनमानस में न सिर्फ परस्पर विद्वेष और मतभेद पैदा किए, बल्कि उनके बीच घृणा और वैमनस्य को भी पैदा किया और उसे हवा भी दी।  भारत का विभाजन इसी वैमनस्य का परिणाम था, जिसके लिए तत्कालीन नेतागण सत्ता-लोलुपता के कारण ख़ुशी ख़ुशी तैयार हो गए।
इस बीच उपरोक्त तथाकथित 'धर्मों' के मूल सिद्धांतों में से कुछ न्यूनतम 'समान विचार' चुन लिए गए ताकि उनके द्वारा इस झूठ को सत्य की तरह स्थापित किया जाए कि सभी 'धर्म' समान हैं। ज़ाहिर है कि न्यूनतम समानताओं को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर अधिकतम विरोधाभासों को आँखों से ओझल कर दिया गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि हिंदूवादी धर्म जहाँ 'हिंदुत्व' के छाते के नीचे संगठित हुए वहीँ दूसरे 'धर्म' वाले भी अपने-अपने संगठन बनाने लगे। जिन 'धर्मों' के सिद्धांत मूलतः अन्य 'धर्मों' से भिन्न हैं उनके संगठनों के बीच परस्पर प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, वैमनस्य, अविश्वास, संदेह और भय उत्पन्न हुआ और इसका लाभ उन राजनीतिक शक्तियों ने लिया जिनका उद्देश्य समाज के किसी वर्ग / समुदाय की धार्मिक स्वतन्त्रता के बहाने सत्ता पर कब्ज़ा करना तथा अपनी राजनैतिक शक्ति बढ़ाना था। यह अविश्वास आज भी विद्यमान है और  इसे दूर नहीं किया जाता, इस समस्या का कोई निदान नहीं हो सकता। 
'हिंदुत्व' का विचार इस दृष्टि से दोनों ही रूपों में समाज और राष्ट्र के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ कि कुछ हिन्दू जहाँ कट्टर 'हिंदुत्ववादी' हो गए वहीँ कुछ 'हिन्दू' 'सेकुलर' / धर्मनिरपेक्ष होने के भ्रम में इन कट्टर 'हिंदुत्ववादियों' के घोर विरोधी हो गए। इस प्रकार अपने आपको 'हिन्दू' कहलानेवाले लोग इन दो धड़ों में बँट गए।
कुल परिणाम यही हुआ कि इससे सर्वाधिक लाभ उन्हीं राजनैतिक शक्तियों को मिला जो गैर-हिंदुत्ववादी थे।
श्री बलराज मधोक ने इस यथार्थ को समझा और जनसंघ से उनकी दूरी इसीलिए हो गयी क्योंकि दूसरे नेता यह सरल सत्य या तो समझ ही नहीं पाए, या उन्होंने जान-बूझकर इस सत्य से आँखें फेर लीं।
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चित्र -2 
राजनीति 
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पिछले चार वर्षों में भाजपा और मोदी जी की सफलता का राज़ यह नहीं था कि उन्होंने 'हिन्दू-समाज' को संगठित किया, बल्कि इसका एकमात्र कारण था कांग्रेस सरकार की सत्ता-लोलुपता, भ्रष्टाचार और देश के हित की उपेक्षा की कीमत पर भी जनता की भयंकर उपेक्षा करना । दूसरे भी दल कमोबेश ऐसे ही थे / हैं और भाजपा या शिवसेना, पीडीपी इत्यादि इसका अपवाद थे ऐसा नहीं कह सकते। राम-मंदिर, समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) आदि ऐसे ही बिंदु थे जिन पर 'वोट-बैंक' का सहारा लेनेवाले कभी किसी दृढ निश्चय पर नहीं पहुँच सके। अब जनता ने कांग्रेस को भाजपा के मुकाबले शक्तिशाली बनाया है तो इसका भी कारण यह नहीं है कि कांग्रेस एकाएक दूध की धुली हो गयी है, बल्कि एकमात्र कारण है भाजपा से जनता की नाराज़ी। इसे कांग्रेस अपनी लोकप्रियता में वृद्धि समझ बैठे तो यह उसका भ्रम होगा।
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चित्र - 3 
ज्योतिष 
पिछले तीन चार माह के दौरान बस मनोरंजन के लिए you tube पर संतबेतरा अशोक के 'अखंड मंथन' को कभी कभी देखता था। उत्सुकता बस यह थी कि क्या सचमुच कोई ज्योतिषी या 'सिद्ध' किसी व्यक्ति, राष्ट्र, पार्टी, संस्था आदि का भविष्य देख / बता सकता है? उपरोक्त चैनल में मेरी उत्सुकता का एक कारण यह भी था कि मुझे हमेशा लगता रहा है कि कोई किसी का भविष्य 'देख' ही नहीं सकता क्योंकि जिसे 'भविष्य' कहा जाता है वह केवल किसी घटना का एक मानसिक चित्र होता है जो स्वयं ही जब निरंतर बदलता रहता है तो उस घटना की सत्यता कितनी सुनिश्चित हो सकती है? फिर भी, यदि मोटे तौर पर मान भी लिया जाए कि सांख्यिकीय परिभाषा के अनुसार कुछ घटनाओं के सत्य सिद्ध होने की संभावना हो सकती है जैसे पानी बरसना या आंधी आना, भूकंप या पुलों भवनों का टूटना-गिरना और कोई सटीकता से उनकी 'भविष्यवाणी' भी कर सकता है, किसी की मृत्यु या शादी कब होगी, तो भी क्या कोई इसे 'बदल' सकने का दावा भी कर सकता है? अर्थात् क्या किसी 'अनुष्ठान' मन्त्र-तंत्र, या दूसरे ज्योतिषीय उपाय से कोई इस 'भविष्य' को बदल सकता है? स्पष्ट है कि यदि कोई ऐसा दावा करता है तो वह झूठ बोल रहा है।  क्योंकि यदि वह भविष्य को 'बदल' सकता है तो इसका मतलब हुआ कि  उसने 'जो' भविष्य 'देखा' था वह 'वैसा' यथावत सत्य नहीं था । इसका मतलब यह हुआ कि न तो वह भविष्य को देख सकता है और न बदल सकता है।
इसी उत्सुकतावश मैं उपरोक्त चैनल देखा करता था।
मैं नहीं कह सकता कि इन तथा इनके जैसे अनेक ज्योतिषियों में इतना अधिक आत्मविश्वास कहाँ से आ जाता है कि वे बेधड़क ताल ठोंक कर भविष्यवाणियाँ करते हैं। और उन्होंने इसकी भी कल्पना तक शायद ही की होगी कि उनकी भविष्यवाणियाँ गलत सिद्ध होने पर कितने लोगों की आस्था को ठेस पहुँचती होगी और उन्हें स्वय कितना शर्मिन्दा होना पड़ सकता है।
बहरहाल मनुष्य मानसिक कल्पना से इतना अभिभूत हो जाता है कि वह असंभव तक को संभव मान बैठता है और ज्योतिष के जानकार तथा उनकी शरण में जानेवाले भी इसका अपवाद नहीं होते। अतिरंजित आत्मविश्वास और आत्म-मुग्धता का मेल होने पर यही होता है।
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December 02, 2018

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...
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25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के लगभग 21 माह के समय में एक और जहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश पर इमरजेंसी लगा दी थी, वहीँ मेरे अपने जीवन और भाई-बहनों तथा माता-पिता के लिए भी यह ऐसा ही एक दौर था। जैसा कि कहा जाता है :
आदमी तो नहीं पर वक्त बुरा होता है।
(जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा होता है।)
इसलिए न किसी से कोई शिकायत रही और न शायद किसी को किसी से होनी चाहिए।
मेरे अपने लिए जहाँ यह दौर बहुत नाउम्मीदी और संघर्ष का था वहीँ इसी दौर ने उठ खड़े होने का जज़्बा मुझमें पैदा किया। चढ़ाई मुश्किल थी लेकिन मुझे जो मंज़िल चाहिए थी वह देर-अबेर मिल ही गई।  बाकी चीज़ों का  मिलना-बिछुड़ना तो दुनिया का उसूल है।
उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी पढ़ने का मौक़ा मिला था।
मेरे अपने जीवन में इमर्जेन्सी वैसे तो 21 मार्च 1977 को ही हट चुकी थी किंतु इसका जो पूरा असर मेरे अपने परिवार पर पड़ा उसने मेरे पारिवारिक संबंधों को लगभग समाप्त कर दिया।  हाँ पहचान बाकी है और जब तक जीवन है स्मृति से भी समय समय पर वह पहचान पुनः सामने आती रहेगी।
बहरहाल, उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी 'साये में धूप' की पहली ग़ज़ल का पहला शे'र :
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगाती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
पढ़ा था : 
तब से बहुत बाद तक जिंदगी बीत जाने के बाद लगा कि शायर का संकेत जो भी रहा हो,  यह आज की राजनीति और तथाकथित 'धर्म' और 'धर्म' के स्वघोषित ठेकेदारों पर पूरी तरह लागू होता है।
यह विडंबना ही तो है कि दरख़्त जिसके नीचे साये की उम्मीद होती है, वहाँ धूप लगने लगे।
किंतु इस विडंबना के मूल राजनीति में हैं और राजनीति ने संस्कृति, साहित्य, कला (संगीत) और अध्यात्म को, विशेष रूप से सनातन धर्म को इस बुरी तरह नष्ट किया कि इसके शिकार वे तमाम लोग रहे जिन्हें बुद्धिजीवी होने का आकर्षण लुभाता रहा।
इमरजेंसी वैसे तो ख़त्म हो गई किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अभिव्यक्ति का दमन राजनीति की सनक से परिभाषित और तय होने लगा।
मेरे अपने लिए तो मार्गदर्शक सिद्धांत यही रहा :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं ,
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।
इसलिए राजनीति, लोकधर्म और दुनिया की दूसरी बातों पर कुछ कहने-लिखने का मेरा अधिकार, न कर्तव्य और न दायित्व ही मुझ पर शेष रहा।  और हाँ 'अधिकार' का एक अर्थ है योग्यता।  और न तो ज़रुरत या कोई अवसर है इसे भी मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूँ।
और वैसे भी कौन मुझे पूछता है?  
और इसलिए भी किसी से कोई शिकायत नहीं । 
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December 01, 2018

कविता / 01-12-2018

कविता
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सुख कहाँ नहीं है?
शीत में धूप का सुख,
ग्रीष्म में छाया का,
माया में ब्रह्म का सुख,
ब्रह्म में माया का,
देह में प्राणों का सुख,
प्राणों में काया का,
काया में जगत का सुख,
सुख में सब समाया सा।
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