December 02, 2018

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...

यहाँ दरख्तों के साये में धूप लगती है ...
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25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के लगभग 21 माह के समय में एक और जहाँ तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने देश पर इमरजेंसी लगा दी थी, वहीँ मेरे अपने जीवन और भाई-बहनों तथा माता-पिता के लिए भी यह ऐसा ही एक दौर था। जैसा कि कहा जाता है :
आदमी तो नहीं पर वक्त बुरा होता है।
(जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा होता है।)
इसलिए न किसी से कोई शिकायत रही और न शायद किसी को किसी से होनी चाहिए।
मेरे अपने लिए जहाँ यह दौर बहुत नाउम्मीदी और संघर्ष का था वहीँ इसी दौर ने उठ खड़े होने का जज़्बा मुझमें पैदा किया। चढ़ाई मुश्किल थी लेकिन मुझे जो मंज़िल चाहिए थी वह देर-अबेर मिल ही गई।  बाकी चीज़ों का  मिलना-बिछुड़ना तो दुनिया का उसूल है।
उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी पढ़ने का मौक़ा मिला था।
मेरे अपने जीवन में इमर्जेन्सी वैसे तो 21 मार्च 1977 को ही हट चुकी थी किंतु इसका जो पूरा असर मेरे अपने परिवार पर पड़ा उसने मेरे पारिवारिक संबंधों को लगभग समाप्त कर दिया।  हाँ पहचान बाकी है और जब तक जीवन है स्मृति से भी समय समय पर वह पहचान पुनः सामने आती रहेगी।
बहरहाल, उन्हीं दिनों स्व. दुष्यंत कुमार जी की शायरी 'साये में धूप' की पहली ग़ज़ल का पहला शे'र :
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगाती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
पढ़ा था : 
तब से बहुत बाद तक जिंदगी बीत जाने के बाद लगा कि शायर का संकेत जो भी रहा हो,  यह आज की राजनीति और तथाकथित 'धर्म' और 'धर्म' के स्वघोषित ठेकेदारों पर पूरी तरह लागू होता है।
यह विडंबना ही तो है कि दरख़्त जिसके नीचे साये की उम्मीद होती है, वहाँ धूप लगने लगे।
किंतु इस विडंबना के मूल राजनीति में हैं और राजनीति ने संस्कृति, साहित्य, कला (संगीत) और अध्यात्म को, विशेष रूप से सनातन धर्म को इस बुरी तरह नष्ट किया कि इसके शिकार वे तमाम लोग रहे जिन्हें बुद्धिजीवी होने का आकर्षण लुभाता रहा।
इमरजेंसी वैसे तो ख़त्म हो गई किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार और अभिव्यक्ति का दमन राजनीति की सनक से परिभाषित और तय होने लगा।
मेरे अपने लिए तो मार्गदर्शक सिद्धांत यही रहा :
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यं अप्रियं ,
प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।
इसलिए राजनीति, लोकधर्म और दुनिया की दूसरी बातों पर कुछ कहने-लिखने का मेरा अधिकार, न कर्तव्य और न दायित्व ही मुझ पर शेष रहा।  और हाँ 'अधिकार' का एक अर्थ है योग्यता।  और न तो ज़रुरत या कोई अवसर है इसे भी मैं अपना सौभाग्य ही समझता हूँ।
और वैसे भी कौन मुझे पूछता है?  
और इसलिए भी किसी से कोई शिकायत नहीं । 
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