धरती गोल है चपटी ?
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उसे भरोसा नहीं था कि मैं उसे सही साबित कर सकूँगा ।
फिर भी वह अपने इस आग्रह पर डटा था कि विज्ञान या N.A.S.A. भले ही लाख सिद्ध करें, धरती / दुनिया चपटी है न कि गोल (क्योंकि उसका धर्मग्रंथ गलत नहीं हो सकता था)!
पहले तो मैंने उसे भारतीय ज्योतिष-विज्ञानी (Astronomer) भास्कराचार्य का लिखा एक श्लोक प्रमाणस्वरूप दिखलाया जिसका भावार्थ था :
"जैसे किसी बहुत बड़े गोले (वृत्त) की परिधि का सौंवां हिस्सा सीधा जान पड़ता है, उसी तरह धरती भी क्षितिज तक सीधी दिखलाई पड़ती है किंतु दूर क्षितिज पर दिखलाई पड़नेवाला पेड़ पास जाने पर अधिक ऊँचा जान पड़ता है क्योंकि उसके पास जाने पर वहाँ धरती की ऊँचाई कुछ कम हो जाती है, मतलब धरती सीधी न रहकर कुछ झुक जाती है। इसी तरह समुद्र पर दूर दिखलाई पड़ता जहाज शुरू में काम ऊँचाई का दिखाई देता है लेकिन पास आते-आते अधिक ऊँचा दिखने लगता है क्योंकि समुद्र की सतह भले ही समतल दिखाई देती हो, धरती की सतह के साथ साथ बड़े वृत्त के हिस्से की तरह वक्र होती है।"
"मैं नहीं मान सकता।"
"अच्छा, अगर मैं मेरी किताब से यह साबित करूँ कि धरती चपटी भी है और गोल भी तो?"
वह हैरत से मुझे देखने लगा।
"देखो, वाल्मीकि रामायण में 'विवस्वान्-पथ' का वर्णन है। जिसके अनुसार ऋषि विश्वामित्र त्रिशंकु को सदेह (बिना मृत्यु हुए) स्वर्ग भेजने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन देवता उसे स्वर्ग में सदेह आने देना नहीं चाहते थे। तब देवताओं और ऋषि विश्वामित्र के बीच यह समझौता हुआ कि त्रिशंकु को 'विवस्वान्-पथ' से बाहर अंतरिक्ष में स्थायी जगह दिला दी जाए जिससे वह आकाश के किसी तारे की तरह अपने इर्द-गिर्द के बहुत से तारों के बीच तय स्थान पर दिखाई देता रहे, न कि चन्द्रमा, सूर्य या मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि जैसा भिन्न भिन्न राशियों में घूमते रहनेवाला।"
मेरी बात उसे समझ में तो नहीं आई और वह और भी ज़्यादा हैरत से मुझे देखने लगा।
अपने swaadhyaaya blog ... में लिखी पोस्ट्स में मैंने 'विवस्वान्-पथ' नामक पोस्ट में लिखा था कि वाल्मीकि-रामायण में किए गए उल्लेख सत्य के तीन तलों (dimensions) को एक साथ सन्दर्भ देकर लिखे गए हैं। यदि सत्य का वर्णन केवल आध्यात्मिक या केवल आधिदैविक या केवल आधिभौतिक सन्दर्भ में, या इनमें से किन्हीं दो ही तलों को ध्यान में रखकर किंतु तीसरे की अवहेलना करते हुए किया जाए तो वह भ्रमकारक होता है। इसी ब्लॉग में मैंने यह उल्लेख भी किया है कि सूर्य और सौरमंडल के सभी ग्रह जो सूर्य के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं एक ही तल में भिन्न-भिन्न समानांतर वृत्ताकार / अंडाकार कक्षाओं में निरंतर गतिशील हैं। यह वैसा ही है जैसे एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरियों में कुछ पत्थर बाँध कर डोरी को तेजी से गोल घुमाया जाए। तब परस्पर बंधे होने से सभी पत्थर एक ही तल (plane) में स्थित होकर भिन्न-भिन्न वृत्तों में घूमेंगे।
ठीक इसी भाँति सौरमंडल के ग्रह भी गुरुत्वाकर्षण-बल की डोरी में बँधे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाकर एक ही तल (plane) में स्थित रहते हैं। इसी तल को विवस्वान्-पथ कहा गया है और ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु को इसी तल (plane) पर स्थापित करने का प्रयास किया था जो देवताओं (सूर्य आदित्य होने से उस आधिदैविक देवलोक का अधिष्ठाता है जिसमें सभी ग्रह जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं, आधिदैविक देवता हैं और यद्यपि पृथ्वी स्वयं भी इसी तल से साढ़े 23 अंश पर झुकी सूर्य की परिक्रमा करती है, अन्य ग्रह इस तल से कितने अंश झुके हैं या नहीं यह हमें नहीं पता)।
त्रिशंकु निश्चित ही कृत्रिम उपग्रह (satellite) रहा होगा जिसके तीन शंकु (cones) रहे होंगे जैसा कि इस युग के बहुत से मनुष्य-निर्मित कृत्रिम उपग्रह (satellite) हुआ करते हैं। किंतु देवताओं और इंद्र तथा विश्वामित्र के मध्य अंततः यह स्वीकार किया गया कि उस त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (satellite) को इस 'विवस्वान्-पथ'से बाहर अंतरिक्ष में स्थान दिया जाए। तब से खगोलविदों (astronomers) को वह 'तारा' आकाश में स्थिर तारे की तरह किसी राशि-विशेष के तारे जैसा दिखाई देता है।
इस यदि दुनिया / सौरमंडल को इस 'विवस्वान्-पथ' के रूप में देखें तो दुनिया अवश्य ही चपटी है।
इस प्रकार दुनिया एक दृष्टि से यद्यपि समतल अर्थात् चपटी कही जा सकती है, वहीँ जब इसे पृथ्वी तक सीमित समझा जा सकता है तो वह एक गोल पिंड है जो अन्य ग्रहों की तरह ही सूर्य का एक उपग्रह है।
ज्योतिष-शास्त्र (Astrology) की दृष्टि से देखें तो ये सभी ग्रह 'देवता' अर्थात् आधिदैविक / अधिमानसिक (supra-mental) अस्तित्व रखते हैं किंतु खगोल-शास्त्र की दृष्टि से इनका अस्तित्व आधिभौतिक अर्थात स्थूल इन्द्रिय-बुद्धिगम्य तथाकथित 'वैज्ञानिक' आधार पर भी है।
यदि वाल्मीकि-रामायण का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करें तो यह समझा जा सकता है कि :
दुनिया 'गोल' है या चपटी !
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उसे भरोसा नहीं था कि मैं उसे सही साबित कर सकूँगा ।
फिर भी वह अपने इस आग्रह पर डटा था कि विज्ञान या N.A.S.A. भले ही लाख सिद्ध करें, धरती / दुनिया चपटी है न कि गोल (क्योंकि उसका धर्मग्रंथ गलत नहीं हो सकता था)!
पहले तो मैंने उसे भारतीय ज्योतिष-विज्ञानी (Astronomer) भास्कराचार्य का लिखा एक श्लोक प्रमाणस्वरूप दिखलाया जिसका भावार्थ था :
"जैसे किसी बहुत बड़े गोले (वृत्त) की परिधि का सौंवां हिस्सा सीधा जान पड़ता है, उसी तरह धरती भी क्षितिज तक सीधी दिखलाई पड़ती है किंतु दूर क्षितिज पर दिखलाई पड़नेवाला पेड़ पास जाने पर अधिक ऊँचा जान पड़ता है क्योंकि उसके पास जाने पर वहाँ धरती की ऊँचाई कुछ कम हो जाती है, मतलब धरती सीधी न रहकर कुछ झुक जाती है। इसी तरह समुद्र पर दूर दिखलाई पड़ता जहाज शुरू में काम ऊँचाई का दिखाई देता है लेकिन पास आते-आते अधिक ऊँचा दिखने लगता है क्योंकि समुद्र की सतह भले ही समतल दिखाई देती हो, धरती की सतह के साथ साथ बड़े वृत्त के हिस्से की तरह वक्र होती है।"
"मैं नहीं मान सकता।"
"अच्छा, अगर मैं मेरी किताब से यह साबित करूँ कि धरती चपटी भी है और गोल भी तो?"
वह हैरत से मुझे देखने लगा।
"देखो, वाल्मीकि रामायण में 'विवस्वान्-पथ' का वर्णन है। जिसके अनुसार ऋषि विश्वामित्र त्रिशंकु को सदेह (बिना मृत्यु हुए) स्वर्ग भेजने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन देवता उसे स्वर्ग में सदेह आने देना नहीं चाहते थे। तब देवताओं और ऋषि विश्वामित्र के बीच यह समझौता हुआ कि त्रिशंकु को 'विवस्वान्-पथ' से बाहर अंतरिक्ष में स्थायी जगह दिला दी जाए जिससे वह आकाश के किसी तारे की तरह अपने इर्द-गिर्द के बहुत से तारों के बीच तय स्थान पर दिखाई देता रहे, न कि चन्द्रमा, सूर्य या मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि जैसा भिन्न भिन्न राशियों में घूमते रहनेवाला।"
मेरी बात उसे समझ में तो नहीं आई और वह और भी ज़्यादा हैरत से मुझे देखने लगा।
अपने swaadhyaaya blog ... में लिखी पोस्ट्स में मैंने 'विवस्वान्-पथ' नामक पोस्ट में लिखा था कि वाल्मीकि-रामायण में किए गए उल्लेख सत्य के तीन तलों (dimensions) को एक साथ सन्दर्भ देकर लिखे गए हैं। यदि सत्य का वर्णन केवल आध्यात्मिक या केवल आधिदैविक या केवल आधिभौतिक सन्दर्भ में, या इनमें से किन्हीं दो ही तलों को ध्यान में रखकर किंतु तीसरे की अवहेलना करते हुए किया जाए तो वह भ्रमकारक होता है। इसी ब्लॉग में मैंने यह उल्लेख भी किया है कि सूर्य और सौरमंडल के सभी ग्रह जो सूर्य के इर्द-गिर्द परिभ्रमण करते हैं एक ही तल में भिन्न-भिन्न समानांतर वृत्ताकार / अंडाकार कक्षाओं में निरंतर गतिशील हैं। यह वैसा ही है जैसे एक ही डोरी में भिन्न-भिन्न दूरियों में कुछ पत्थर बाँध कर डोरी को तेजी से गोल घुमाया जाए। तब परस्पर बंधे होने से सभी पत्थर एक ही तल (plane) में स्थित होकर भिन्न-भिन्न वृत्तों में घूमेंगे।
ठीक इसी भाँति सौरमंडल के ग्रह भी गुरुत्वाकर्षण-बल की डोरी में बँधे सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाकर एक ही तल (plane) में स्थित रहते हैं। इसी तल को विवस्वान्-पथ कहा गया है और ऋषि विश्वामित्र ने त्रिशंकु को इसी तल (plane) पर स्थापित करने का प्रयास किया था जो देवताओं (सूर्य आदित्य होने से उस आधिदैविक देवलोक का अधिष्ठाता है जिसमें सभी ग्रह जो सूर्य की परिक्रमा करते हैं, आधिदैविक देवता हैं और यद्यपि पृथ्वी स्वयं भी इसी तल से साढ़े 23 अंश पर झुकी सूर्य की परिक्रमा करती है, अन्य ग्रह इस तल से कितने अंश झुके हैं या नहीं यह हमें नहीं पता)।
त्रिशंकु निश्चित ही कृत्रिम उपग्रह (satellite) रहा होगा जिसके तीन शंकु (cones) रहे होंगे जैसा कि इस युग के बहुत से मनुष्य-निर्मित कृत्रिम उपग्रह (satellite) हुआ करते हैं। किंतु देवताओं और इंद्र तथा विश्वामित्र के मध्य अंततः यह स्वीकार किया गया कि उस त्रिशंकु नामक कृत्रिम उपग्रह (satellite) को इस 'विवस्वान्-पथ'से बाहर अंतरिक्ष में स्थान दिया जाए। तब से खगोलविदों (astronomers) को वह 'तारा' आकाश में स्थिर तारे की तरह किसी राशि-विशेष के तारे जैसा दिखाई देता है।
इस यदि दुनिया / सौरमंडल को इस 'विवस्वान्-पथ' के रूप में देखें तो दुनिया अवश्य ही चपटी है।
इस प्रकार दुनिया एक दृष्टि से यद्यपि समतल अर्थात् चपटी कही जा सकती है, वहीँ जब इसे पृथ्वी तक सीमित समझा जा सकता है तो वह एक गोल पिंड है जो अन्य ग्रहों की तरह ही सूर्य का एक उपग्रह है।
ज्योतिष-शास्त्र (Astrology) की दृष्टि से देखें तो ये सभी ग्रह 'देवता' अर्थात् आधिदैविक / अधिमानसिक (supra-mental) अस्तित्व रखते हैं किंतु खगोल-शास्त्र की दृष्टि से इनका अस्तित्व आधिभौतिक अर्थात स्थूल इन्द्रिय-बुद्धिगम्य तथाकथित 'वैज्ञानिक' आधार पर भी है।
यदि वाल्मीकि-रामायण का अध्ययन इस दृष्टिकोण से करें तो यह समझा जा सकता है कि :
दुनिया 'गोल' है या चपटी !
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