अनेकान्त
--
जैन और वैदिक ग्रंथों में वर्णन है कि किस प्रकार सनातन काल से ऋषि-मुनियों और तपस्वियों को संसार की अनित्यता से वैराग्य होता रहा है और उस नित्य ध्रुव तत्व की जिज्ञासा से मुमुक्षा उत्पन्न होने पर वे उस चिरंतन के स्वरूप का चिंतन करते हुए अंततः उसे उपलब्ध कर लेते थे।
यहाँ एक दुरूह प्रश्न उठ खड़ा होता है।
वह चिरंतन तत्व किसी प्रयास से प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि समस्त प्राप्ति और भोग जिस अहंकार के लिए, उसके होने के सन्दर्भ में ही अर्थ रखते हैं, वह अहंकार ही उस तत्व को जानने में एकमात्र अवरोध है। उस तत्व को 'परमात्मा' कहना भी एक युक्तिवाद है क्योंकि वह सब का एकमात्र व्यक्त और अव्यक्त कारण और अधिष्ठान है। उसे 'ईश्वर' कहने पर भी वह अज्ञात और अज्ञेय ही होता है। क्योंकि वह बुद्धिगम्य और इन्द्रियगम्य, भावगम्य और अनुभवगम्य नहीं है।
किंतु फिर भी उन ऋषि-मुनियों और तपस्वियों ने जिस प्रक्रिया से उस तत्व का साक्षात्कार किया उस प्रक्रिया को दूसरों के समक्ष रखने का प्रयास किया।
इस प्रयास को वेद, पुराण और इतिहास इन तीन शैलियों (genre) में व्यक्त रूप दिया गया।
ये तीनों शैलियाँ मनुष्य विशेष की मानसिकता और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार उसे स्वयं ही उस तत्व को समझने और ग्रहण करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से मार्गदर्शन देती हैं।
कर्म से या अकर्म से, विकर्म या धर्म से, जिस किसी भी प्रकार से उस तत्व की आकांक्षा और प्राप्ति मनुष्य को हो सके, इसके लिए ये ग्रन्थ अवश्य ही अतीव महत्वपूर्ण हैं। हाँ यदि हम बहस पर अटक जाएँ तो वे जाने-अनजाने अहंकार को ही बढ़ाते हैं यह कहना अनुचित न होगा। और अहंकार ही तो मूल समस्या और अवरोध है !
जैसा कि गीता के अध्याय 4 के श्लोक 17 में उल्लेख है :
मनुष्य मात्र क्षण भर के लिए भी कर्म से रहित नहीं होता।
गीता के अध्याय 3 के श्लोक 8 के अनुसार :
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
अर्थात् तुम्हें चाहिए कि तुम्हारे लिए जो उचित कर्म नियत किया गया है उसे करने के लिए तत्पर रहो। क्योंकि कर्म करना, कर्म न करने से अर्थात् आलस्य और प्रमाद की अपेक्षा श्रेष्ठ है। और फिर, जीवन चलाते रहने के लिए, आजीविका के लिए भी तो मनुष्य को कर्म करना ही होता है।
चूँकि मनुष्य मात्र अपने गुण और कर्मों (संस्कारों) से ही विशेष प्रकार के कार्य में प्रवृत्त होता है इसलिए वर्ण और अवर्ण के आधार पर न भी देखें तो भी मनुष्य अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के अनुसार ही उनके फलों का भागी होता है और फिर भी किस कर्म का फल कब प्राप्त होगा इस बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, इसलिए भी मनुष्य को आकांक्षा-रहित होकर निष्काम भाव से कर्म करते रहना चाहिए।
गीता के ही अध्याय 5 के श्लोक 5 में कहा गया है :
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।
अर्थात् वह परम तत्व जिसे उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने पाया, उसे कर्म (अर्थात् व्यावहारिक रूप) से भी पाया जाता है और बुद्धि के परिपक्व, ऋजु और सूक्ष्म होने पर विवेक-वैराग्य के जाग्रत होने पर भी वह साक्षात् जाना जाता है। इस प्रकार संक्षेप में उसे सांख्य और कर्म दोनों युक्तियों से पाया जा सकता है।
सामान्यतः हर मनुष्य में कर्तृत्वभाव प्रकृतिप्रदत्त ही होता है इसलिए उसे कर्म करते हुए धीरे धीरे निष्काम कर्म कैसे किया जाए इस स्थिति तक जाने के लिए कहा जाता है। किंतु किसी किसी मनुष्य में खोज की प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वह प्रत्येक कर्म के मूल में 'कर्ता' कौन / क्या है इसे समझने के लिए उत्सुक होता है। अपनी खोज में वह पाता है कि :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 27)
अर्थात् सभी कर्म प्रकृति के द्वारा ही गुणों के माध्यम से संचालित होते रहते हैं। किंतु अहंकार से मोहित बुद्धियुक्त मनुष्य अपने-आपको स्वतंत्र कर्ता मान बैठता है।
सांख्य-विवेक प्राप्त होने पर मनुष्य इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हो जाता है कि ऐसा स्वतंत्र कर्ता कहीं नहीं है, और यद्यपि कर्म स्पष्ट दिखाई देता है, उसका कारण (प्रकृति को भी) स्वयं जड होने से कर्ता नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार 'कर्म' केवल विचार है जो होता दिखाई देता है और पुनः विलीन हो जाता है, -और तभी जाना जाता है जब कोई उसका विचार करता है।
इसीलिए सामान्य मनुष्य को भी उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने त्याज्य और निषिद्ध कर्म न करने की शिक्षा दी। जैसे कृषि।
वेन के पुत्र पृथु ने सर्वप्रथम धरती को हल चलाकर खेती का प्रारम्भ किया।
इस प्रकार गाय को, जो पहले केवल दूध के लिए पाली जाती थी और फिर गोवंश की वृद्धि के लिए उपलब्ध उसके बछड़े को बैल बनाकर कृषि कार्य में लगाया गया। यह प्रकृति के प्रति हिंसा थी।
इसलिए कृषि को पाप तक कहा गया।
किंतु जब एक बार मनुष्य ने प्रकृति पर निर्भर रहना त्याग दिया तो प्रकृति भी वर्षा के क्रम में अनिश्चयपूर्ण व्यवहार करने लगी। तब उस सनातन वेद धर्म का उदय हुआ जिसने यज्ञ आदि द्वारा 'इंद्र' को प्रसन्न कर वर्ण-व्यवस्था को स्थापित किया। यह व्यवस्था वैसे तो सनातन है किंतु इसकी अपनी मर्यादा है। उस मर्यादा का निर्वाह जब तक किया जाता है, यह अपेक्षाकृत सुस्थिर मानव-सभ्यता का आधार होती है।
यह तो रहा प्राचीनतम इतिहास।
इस प्रकार भारत में गाँवों और नगरों की सभ्यता और संस्कृति कृषि-आधारित थी।
अंग्रेज़ों का भारत पर शासन शुरू होने के बाद धीरे-धीरे कृषि में 'उन्नत तकनीक' के नाम पर पहले यंत्र आए और इस प्रकार 'बैल' को अनुपयोगी बना दिया गया। गोमांसभोजी विदेशियों के लिए तो यह एक और मौक़ा था जिससे भारत में गोवंश उनके लिए एक सस्ता था।
फिर आए कल-कारखाने जिनमें नदियों का पानी बेतहाशा इस्तेमाल किया गया और इन कल-कारखानों का कचरा उन नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने लगा। फिर बिजली पैदा करने के लिए बड़े बड़े बाँध बनाए गए जिनसे जमीन जलराशि का स्वाभाविक प्रवाह बाधित हुआ। जमीन के नीचे जहाँ भूमिगत अस्थिर परतें (tectonic plates थीं उन पर बड़े बांधों का दबाव पड़ने से lithosphere (यह पूरी सतह) की संरचना इस हद तक प्रभावित हुई कि धरती पर भूकंप-प्रवण क्षेत्रों की संख्या बढ़ गयी। कोयना नदी पर स्थित बाँध या टिहरी परियोजना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । विकास किस कीमत पर ?
भौतिक-विज्ञान के तथाकथित विकास के नाम पर चिकित्सा क्षेत्र में अनुसंधान और प्रयोगों से एक ओर मनुष्य की औसत आयु में वृद्धि हुई वहीँ अनेक नए कारणों से प्राकृतिक और मानव के क्रिया-कलापों से दुर्घटनाओं आदि से मनुष्य और दूसरे प्राणियों का जीवन अधिक असुरक्षित हो गया।
किसान जो अन्नदाता है, इस पूरे विकास की मार से सर्वाधिक प्रभावित हुआ क्योंकि उसने प्राकृतिक खेती और पशुधन को साधन न समझकर उपभोग की वस्तु समझ लिया। गाय, भेड़, बकरी आदि की लाभप्रदता आर्थिक दृष्टि से कम महत्त्व की हो गई। खेती और जंगल दोनों भूमि के प्रकृतिप्रदत्त नैसर्गिक संसाधन हैं और खेती और जंगलों के विनाश के साथ शहरी सभ्यता के विस्तार और जनसंख्या-विस्फोट के कारण, विज्ञान और तकनीक की चकाचौंध से अंधी हुई आँखों के कारण मनुष्य अब यह देख भी नहीं पाता कि विकास के नाम पर वह केवल विनाश के ऐसे भंवर में पड़ चुका है जिससे बचने का कोई उपाय और आशा नहीं।
हम सोचते हैं कि चमत्कारिक आविष्कारों के द्वारा हम अधिक संपन्न और सुखी हो सकते हैं जो कोरा भ्रम है, क्योंकि यह स्वाभाविक नहीं है। केवल कृत्रिम उत्तेजनाओं और उत्सुकताओं को इन नित नए आविष्कारों से तात्कालिक प्रसन्नता प्रायः होती है किंतु मन को वह शांति नहीं मिल सकती जो सरल नैसर्गिक जीवन जीने से मिलती है। हाँ वहाँ जन्म भी है, रोग भी है, मृत्यु भी है और सांसारिक रूप में भौतिकता की मर्यादा भी है किंतु जीवन के लिए उतना ही पर्याप्त और आवश्यक है।
किसान जब तक और जहाँ तक जितना अधिक प्रकृति से जुड़ा है, वह और उसका पूरा समाज भी तब तक उतना ही अधिक समृद्ध, संपन्न, सुखी हो सकता है।
लेकिन विकास की दौड़ में लोभ और भय से अभिभूत किसान को और मानव सभ्यता को भी यदि आत्महत्या से बचाना है तो प्रकृति की ओर लौटना, यंत्रों और वैज्ञानिक आविष्कारों का बहिष्कार ही एकमात्र उपाय है। विज्ञान का अध्ययन ज्ञान के संवर्धन के लिए हो इससे क्या ऐतराज हो सकता है लेकिन जब लोभ या भय से उस ज्ञान का दुरुपयोग किया जाता है तो वह अंततः विनाशकारी ही होता है। यह विज्ञान की मर्यादा है।
मुझे नहीं पता यह लेख कितने लोगों के गले उतरेगा ! वास्तव में इस संसार को बदलने या सुधारने का दायित्व और क्षमता अकेले मुझमें ही कैसे हो सकती है? पर, इसके लिए दुःखी होने से बचना भी तो मेरे बस में नहीं है !
--
--
जैन और वैदिक ग्रंथों में वर्णन है कि किस प्रकार सनातन काल से ऋषि-मुनियों और तपस्वियों को संसार की अनित्यता से वैराग्य होता रहा है और उस नित्य ध्रुव तत्व की जिज्ञासा से मुमुक्षा उत्पन्न होने पर वे उस चिरंतन के स्वरूप का चिंतन करते हुए अंततः उसे उपलब्ध कर लेते थे।
यहाँ एक दुरूह प्रश्न उठ खड़ा होता है।
वह चिरंतन तत्व किसी प्रयास से प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि समस्त प्राप्ति और भोग जिस अहंकार के लिए, उसके होने के सन्दर्भ में ही अर्थ रखते हैं, वह अहंकार ही उस तत्व को जानने में एकमात्र अवरोध है। उस तत्व को 'परमात्मा' कहना भी एक युक्तिवाद है क्योंकि वह सब का एकमात्र व्यक्त और अव्यक्त कारण और अधिष्ठान है। उसे 'ईश्वर' कहने पर भी वह अज्ञात और अज्ञेय ही होता है। क्योंकि वह बुद्धिगम्य और इन्द्रियगम्य, भावगम्य और अनुभवगम्य नहीं है।
किंतु फिर भी उन ऋषि-मुनियों और तपस्वियों ने जिस प्रक्रिया से उस तत्व का साक्षात्कार किया उस प्रक्रिया को दूसरों के समक्ष रखने का प्रयास किया।
इस प्रयास को वेद, पुराण और इतिहास इन तीन शैलियों (genre) में व्यक्त रूप दिया गया।
ये तीनों शैलियाँ मनुष्य विशेष की मानसिकता और बौद्धिक तथा आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार उसे स्वयं ही उस तत्व को समझने और ग्रहण करने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से मार्गदर्शन देती हैं।
कर्म से या अकर्म से, विकर्म या धर्म से, जिस किसी भी प्रकार से उस तत्व की आकांक्षा और प्राप्ति मनुष्य को हो सके, इसके लिए ये ग्रन्थ अवश्य ही अतीव महत्वपूर्ण हैं। हाँ यदि हम बहस पर अटक जाएँ तो वे जाने-अनजाने अहंकार को ही बढ़ाते हैं यह कहना अनुचित न होगा। और अहंकार ही तो मूल समस्या और अवरोध है !
जैसा कि गीता के अध्याय 4 के श्लोक 17 में उल्लेख है :
मनुष्य मात्र क्षण भर के लिए भी कर्म से रहित नहीं होता।
गीता के अध्याय 3 के श्लोक 8 के अनुसार :
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।
अर्थात् तुम्हें चाहिए कि तुम्हारे लिए जो उचित कर्म नियत किया गया है उसे करने के लिए तत्पर रहो। क्योंकि कर्म करना, कर्म न करने से अर्थात् आलस्य और प्रमाद की अपेक्षा श्रेष्ठ है। और फिर, जीवन चलाते रहने के लिए, आजीविका के लिए भी तो मनुष्य को कर्म करना ही होता है।
चूँकि मनुष्य मात्र अपने गुण और कर्मों (संस्कारों) से ही विशेष प्रकार के कार्य में प्रवृत्त होता है इसलिए वर्ण और अवर्ण के आधार पर न भी देखें तो भी मनुष्य अपने शुभ अथवा अशुभ कर्मों के अनुसार ही उनके फलों का भागी होता है और फिर भी किस कर्म का फल कब प्राप्त होगा इस बारे में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, इसलिए भी मनुष्य को आकांक्षा-रहित होकर निष्काम भाव से कर्म करते रहना चाहिए।
गीता के ही अध्याय 5 के श्लोक 5 में कहा गया है :
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।
अर्थात् वह परम तत्व जिसे उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने पाया, उसे कर्म (अर्थात् व्यावहारिक रूप) से भी पाया जाता है और बुद्धि के परिपक्व, ऋजु और सूक्ष्म होने पर विवेक-वैराग्य के जाग्रत होने पर भी वह साक्षात् जाना जाता है। इस प्रकार संक्षेप में उसे सांख्य और कर्म दोनों युक्तियों से पाया जा सकता है।
सामान्यतः हर मनुष्य में कर्तृत्वभाव प्रकृतिप्रदत्त ही होता है इसलिए उसे कर्म करते हुए धीरे धीरे निष्काम कर्म कैसे किया जाए इस स्थिति तक जाने के लिए कहा जाता है। किंतु किसी किसी मनुष्य में खोज की प्रवृत्ति इतनी प्रबल होती है कि वह प्रत्येक कर्म के मूल में 'कर्ता' कौन / क्या है इसे समझने के लिए उत्सुक होता है। अपनी खोज में वह पाता है कि :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकार-विमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।
(गीता अध्याय 3, श्लोक 27)
अर्थात् सभी कर्म प्रकृति के द्वारा ही गुणों के माध्यम से संचालित होते रहते हैं। किंतु अहंकार से मोहित बुद्धियुक्त मनुष्य अपने-आपको स्वतंत्र कर्ता मान बैठता है।
सांख्य-विवेक प्राप्त होने पर मनुष्य इस तथ्य से भली-भाँति अवगत हो जाता है कि ऐसा स्वतंत्र कर्ता कहीं नहीं है, और यद्यपि कर्म स्पष्ट दिखाई देता है, उसका कारण (प्रकृति को भी) स्वयं जड होने से कर्ता नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार 'कर्म' केवल विचार है जो होता दिखाई देता है और पुनः विलीन हो जाता है, -और तभी जाना जाता है जब कोई उसका विचार करता है।
इसीलिए सामान्य मनुष्य को भी उन ऋषियों मुनियों और तपस्वियों ने त्याज्य और निषिद्ध कर्म न करने की शिक्षा दी। जैसे कृषि।
वेन के पुत्र पृथु ने सर्वप्रथम धरती को हल चलाकर खेती का प्रारम्भ किया।
इस प्रकार गाय को, जो पहले केवल दूध के लिए पाली जाती थी और फिर गोवंश की वृद्धि के लिए उपलब्ध उसके बछड़े को बैल बनाकर कृषि कार्य में लगाया गया। यह प्रकृति के प्रति हिंसा थी।
इसलिए कृषि को पाप तक कहा गया।
किंतु जब एक बार मनुष्य ने प्रकृति पर निर्भर रहना त्याग दिया तो प्रकृति भी वर्षा के क्रम में अनिश्चयपूर्ण व्यवहार करने लगी। तब उस सनातन वेद धर्म का उदय हुआ जिसने यज्ञ आदि द्वारा 'इंद्र' को प्रसन्न कर वर्ण-व्यवस्था को स्थापित किया। यह व्यवस्था वैसे तो सनातन है किंतु इसकी अपनी मर्यादा है। उस मर्यादा का निर्वाह जब तक किया जाता है, यह अपेक्षाकृत सुस्थिर मानव-सभ्यता का आधार होती है।
यह तो रहा प्राचीनतम इतिहास।
इस प्रकार भारत में गाँवों और नगरों की सभ्यता और संस्कृति कृषि-आधारित थी।
अंग्रेज़ों का भारत पर शासन शुरू होने के बाद धीरे-धीरे कृषि में 'उन्नत तकनीक' के नाम पर पहले यंत्र आए और इस प्रकार 'बैल' को अनुपयोगी बना दिया गया। गोमांसभोजी विदेशियों के लिए तो यह एक और मौक़ा था जिससे भारत में गोवंश उनके लिए एक सस्ता था।
फिर आए कल-कारखाने जिनमें नदियों का पानी बेतहाशा इस्तेमाल किया गया और इन कल-कारखानों का कचरा उन नदियों के प्रदूषण को बढ़ाने लगा। फिर बिजली पैदा करने के लिए बड़े बड़े बाँध बनाए गए जिनसे जमीन जलराशि का स्वाभाविक प्रवाह बाधित हुआ। जमीन के नीचे जहाँ भूमिगत अस्थिर परतें (tectonic plates थीं उन पर बड़े बांधों का दबाव पड़ने से lithosphere (यह पूरी सतह) की संरचना इस हद तक प्रभावित हुई कि धरती पर भूकंप-प्रवण क्षेत्रों की संख्या बढ़ गयी। कोयना नदी पर स्थित बाँध या टिहरी परियोजना इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं । विकास किस कीमत पर ?
भौतिक-विज्ञान के तथाकथित विकास के नाम पर चिकित्सा क्षेत्र में अनुसंधान और प्रयोगों से एक ओर मनुष्य की औसत आयु में वृद्धि हुई वहीँ अनेक नए कारणों से प्राकृतिक और मानव के क्रिया-कलापों से दुर्घटनाओं आदि से मनुष्य और दूसरे प्राणियों का जीवन अधिक असुरक्षित हो गया।
किसान जो अन्नदाता है, इस पूरे विकास की मार से सर्वाधिक प्रभावित हुआ क्योंकि उसने प्राकृतिक खेती और पशुधन को साधन न समझकर उपभोग की वस्तु समझ लिया। गाय, भेड़, बकरी आदि की लाभप्रदता आर्थिक दृष्टि से कम महत्त्व की हो गई। खेती और जंगल दोनों भूमि के प्रकृतिप्रदत्त नैसर्गिक संसाधन हैं और खेती और जंगलों के विनाश के साथ शहरी सभ्यता के विस्तार और जनसंख्या-विस्फोट के कारण, विज्ञान और तकनीक की चकाचौंध से अंधी हुई आँखों के कारण मनुष्य अब यह देख भी नहीं पाता कि विकास के नाम पर वह केवल विनाश के ऐसे भंवर में पड़ चुका है जिससे बचने का कोई उपाय और आशा नहीं।
हम सोचते हैं कि चमत्कारिक आविष्कारों के द्वारा हम अधिक संपन्न और सुखी हो सकते हैं जो कोरा भ्रम है, क्योंकि यह स्वाभाविक नहीं है। केवल कृत्रिम उत्तेजनाओं और उत्सुकताओं को इन नित नए आविष्कारों से तात्कालिक प्रसन्नता प्रायः होती है किंतु मन को वह शांति नहीं मिल सकती जो सरल नैसर्गिक जीवन जीने से मिलती है। हाँ वहाँ जन्म भी है, रोग भी है, मृत्यु भी है और सांसारिक रूप में भौतिकता की मर्यादा भी है किंतु जीवन के लिए उतना ही पर्याप्त और आवश्यक है।
किसान जब तक और जहाँ तक जितना अधिक प्रकृति से जुड़ा है, वह और उसका पूरा समाज भी तब तक उतना ही अधिक समृद्ध, संपन्न, सुखी हो सकता है।
लेकिन विकास की दौड़ में लोभ और भय से अभिभूत किसान को और मानव सभ्यता को भी यदि आत्महत्या से बचाना है तो प्रकृति की ओर लौटना, यंत्रों और वैज्ञानिक आविष्कारों का बहिष्कार ही एकमात्र उपाय है। विज्ञान का अध्ययन ज्ञान के संवर्धन के लिए हो इससे क्या ऐतराज हो सकता है लेकिन जब लोभ या भय से उस ज्ञान का दुरुपयोग किया जाता है तो वह अंततः विनाशकारी ही होता है। यह विज्ञान की मर्यादा है।
मुझे नहीं पता यह लेख कितने लोगों के गले उतरेगा ! वास्तव में इस संसार को बदलने या सुधारने का दायित्व और क्षमता अकेले मुझमें ही कैसे हो सकती है? पर, इसके लिए दुःखी होने से बचना भी तो मेरे बस में नहीं है !
--
No comments:
Post a Comment