March 21, 2014

न्यग्रोध-दर्शन -२

न्यग्रोध-दर्शन -२
शाम को या सुबह या दोनों वक़्त, कुछ समय मिल जाता है कि अपने घर के आसपास के तीन चार किलोमीटर के दायरे में वॉकिंग के लिए जा सकता हूँ । अगर मौसम साफ़ हुआ और हल्की ठंड हो तो रात नौ दस या ग्यारह बजे तक भी बाहर घूमना बहुत अच्छा लगता है ।
कल (२० मार्च) सुबह कुछ ऐसी ही स्थिति थी, लेकिन मैं बाहर नहीं जा पाया । सुबह की चाय के लिए बस दूध लेने के लिए भर अपनी कॉलोनी के भीतर ही थोड़ी दूर तक गया और लौट आया । फ़िर भी जब छत पर खड़ा चाय पी रहा था तो दूर खड़ा अश्वत्थ हमेशा सा नितांत अलिप्त, मुझसे असंबद्ध और बहुत दूर जान पड़ा । पिछले साल तो कितने संवाद हुए थे उससे ! छत पर पड़ी कुर्सी पर अखबार पड़ा था जिसमें ह्युन्डाई की कार का विज्ञापन दिखाई दे रहा था । और जैसा कि चलन है, विज्ञापन की कला भी आजकल मनुष्य के अवचेतन को प्रभावित करने की हद तक जा पहुँची है, चटख़ लाल रंग की एक कार उस विज्ञापन में अपने गर्वोन्नत चेहरे से बाहर झाँकती नज़र आ रही थी । 'VERNA' जिसे देखना जरूरी था वर्ना ....! बहरहाल इस 'VERNA' से मुझे याद आया, कल वासंतिक विषुव (spring-equinox) है ।
इस बार यह ठीक २१ मार्च को है । उज्जैन वराहमिहिर की नगरी होने से, यहाँ यन्त्रमहल होने से अनायास ही बहुत सी अद्भुत् जानकारियाँ प्राप्त होती रहती हैं । २०-३० साल पहले कभी कभी यन्त्र-महल जाता रहता था, जिसे राजा जयसिंह ने बनवाया था । वहाँ ’शंकु-यन्त्र’, ’दोलन-यन्त्र’, ’घटी-यन्त्र’ आदि देखकर यह तो समझ में आ गया कि ज्योतिष का गणितीय आधार क्या है, और गणित का वैदिक आधार मुझे गणक ऋषि से ज्ञात हुआ । जी, वही गणक ऋषि जो श्री गणपत्यथर्वशीर्ष के माध्यम हैं । किन्तु उस बारे में विस्तार से फ़िर कभी । 
अभी तो  'VERNA' के बारे में -
॥ श्रीरामचरितमानस ॥
    ॥मङ्गलाचरणम् ॥

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ ॥१
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यह ’वर्ण’, वही है, जिसका उस परब्रह्म ने  वरण किया है, जो महर्षि पाणिनी के जन्मस्थल के उस पार उत्तर-पश्चिम में स्थित ’पर्शिया’ से (महाभारत ११/६५) प्रारम्भ होकर सुदूर पूर्व में इन्दोनेशिया तक बिखरा हुआ है । मनुस्मृति अध्याय २ में इसे ही ’आर्यावर्त’ कहा गया है । अर्थात मनुस्मृति के लिखे जाने के समय से ही ’आर्यावर्त’ विस्तार से सुपरिभाषित है, किन्तु हमारे प्रमाद और विदेशियों के द्वारा इन ग्रन्थों के विकृत प्रस्तुतीकरण और जानबूझकर पैदा किए गए भ्रमों से भ्रमित हुए हम अपनी ही विरासत से अनभिज्ञ हैं । हम इस बहस में पड़कर कि ’आर्य’ कहाँ के थे, कहाँ से कहाँ गए / आये, अपने बुद्धिजीवी होने के दम्भ में डूबे रहते हैं ।  वेदनिन्दा विदेशियों के लिए भले ही उनका अपना परम कर्तव्य हो, किन्तु हमारा अपना अज्ञान और अपने धरोहर के प्रति सम्मान की भावना का अभाव भी हमारे पतन और आत्महीनता की हमारी भावना का बहुत बड़ा कारण है । इस बारे में भी विस्तार से फ़िर कभी ।
अभी तो वर्ण के विस्तार के बारे में । यह ’वर्ण’ जो इन्दोनेशिया की भाषा (बहासा) में वेर्न हो जाता है, जो ग्रीक में ’वेर्नल’ अर्थात ’वासंतिक’ हो जाता है, ’अश्विनौ’ वेदिक देवता है, जो सदा युगल रूप में होते हैं, जो अव-वत्-मान (autumn > autumnal) और ’स्फुरितम्’ (spring) या वासंतिक के रूप में धरती पर उतरते हैं, जिन्हें हम अंग्रेज़ी में क्रमशः (autumnal equinox  तथा spring equinox)  के रूप में जानते हैं उन्हीं दो अश्वों के आच्छादन (shades) हैं । वे ही वर्ण जो सूरज के सात रंगों के दो विशिष्ट वर्ण हैं । वैसे ही दो अश्व सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन होने पर, दक्षिण-अयनांत (winter-solstice) तथा उत्तर अयनांत (summer solstice) हैं । 
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यह सब मुझे कौंध उठा एकाएक, अनायास, न जाने कहाँ से, जब उस दूरस्थ अश्वत्थ पर  नज़रें पड़ीं ।
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वर्णानामर्थसंघानां ...,

March 19, 2014

न्यग्रोध-दर्शन -१

न्यग्रोध-दर्शन -१
(२०१३-१४ / १७ जनवरी २०१४) 
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© vinayvaidya111@gmail.com

वर्ष २०१३ की समाप्ति की प्रतीक्षा थी । एक अनुमान था कि हर नए साल के आने और चले जाने के बीच अश्वत्थ पर एक छाल चढ़ती है, लेकिन उससे पहले एक छाल उतरती भी है । इस दौरान अश्वत्थ कुछ समृद्ध ही होता है ।
इस बीच ’अतीत’ जिसका स्मृति के अतिरिक्त कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं होता, नए रूपों में प्रकट हो उठता है ।
’अतीत’ जो व्युत्पत्ति के अनुसार अति+ इति है, हर क्षण विदा होता रहता है, लेकिन स्मृति पर एक रेखा अंकित कर जाता है ।
रेत पर लिखी इबारत सा ! आजकल हम सिलिकॉन-चिप्स पर उसे अंकित-टंकित करते हैं । सिलिकॉन् जो रेत का ही शुद्ध रूप है, जब साँस लेता है तो जलकर ऑक्साइड बन जाता है ।
अश्वत्थ को देखते हुए ख़याल आया कि यह भी साँस लेता है तो सिर्फ़ ऑक्साइड नहीं बनता, बल्कि पूरे अस्तित्व को समृद्ध ही करता है ।
सिलिकॉन-ऑक्साइड अर्थात् रेत से सिलिकॉन निकालना और उसकी चिप्स बनाना निश्चित ही पोटैटो-चिप्स बनाने की तुलना में बहुत अधिक कठिन और क्लिष्ट कार्य है । फ़िर इन सिलिकॉन-चिप्स में ’स्मृति’ को ’शून्य’ और ’एक’ के कूट में संजो रखना, और भी अधिक जटिल है । किन्तु मस्तिष्क में स्थित प्रज्ञा मनुष्य को इस योग्य बनाती है, प्रेरित करती है कि वह इस पूरे आश्चर्यजनक कार्य को वह अत्यन्त कुशलता से कर पाता है । देवी अथर्वणम् में देवी कहती हैं -
"अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।"
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अश्वत्थ इस बीच और बड़ा हो रहा है । वह भी और उसका पालित-पुत्र न्यग्रोध भी ।
अश्वत्थ पर से पुरानी छाल निकलकर तना और भी अधिक गौरवर्ण हो गया है । लगता है जैसे हर नए वर्ष वह एक उबटन लगाता हो, जिसके बाद अभिषिक्त होकर और अधिक प्राणवान्, और अधिक तेजस्वी हो उठता हो ! 
"तेजस्विनावधीतमस्तु ...,"
एक आवाज सुनाई देती है, तो मेरा ध्यान न्यग्रोध पर जाता है ।
मैंने कल्पना भी नहीं की थी, कि उपनिषद् के शान्तिपाठ के मन्त्र में ’मैं’ का ’द्विवचन-रूप’ है ।
"हाँ !"
 मैं उसकी प्रत्युत्पन्न-मति पर मुग्ध हो उठता हूँ ।
"अधीतमस्तु....." 
"?"
"अधि-इतं-अस्तु !"
वह स्पष्ट करता है ।
तो ’अतीत’ और ’अधीत’ मूलतः एक ही तत्व हैं ! मुझे खयाल आता है ।
और जिसे हम ’अतीत’ कहते-समझते हैं वह सिर्फ़ स्मृति-रूप में रेत पर लिखे कुछ वक्तव्य भर होते हैं जिनकी सत्यता सदैव संदिग्ध होती है ।
कागज़ पर अमिट स्याही से लिखे या सीडी / डीवीडी पर डिजिटल रूप में लिखे, या भोजपत्र पर लिखे हों कोई फ़र्क़ कहाँ है?
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’समय’ के यह दो आयाम इस लिपि को जन्म तो देते हैं किन्तु ’समय’ का जन्म कहाँ कब होता है? एक ’समय’ वह है जो ’स्मृति’ के अन्तर्गत होता है, जो ’स्मृति’ से प्रक्षिप्त, उत्पन्न होता है और हमारे मस्तिष्क में कीडा करता रहता है, ’स्मृति’ में ही विलीन भी होता रहता है । दूसरा ’समय’ वह है जिसमें ’स्मृति’ जन्म लेती है, क्रीडारत रहती है, और फ़िर तिरोहित हो जाती है ।
एक अतीत, जो अश्वत्थ है, दूसरा जो न्यग्रोध है । न्यग्रोध अश्वत्थ को देखता है और जानता है कि अश्वत्थ और वह एक ही सत्ता के दो आयाम हैं और दो अभिव्यक्तियाँ भी ! उसे इसमें कोई संशय नहीं । लेकिन मुझे तो इस सब की कोई समझ तक नहीं है ।
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एक ’समय’ वह है जिसमें  मनुष्य जन्म लेता है, दूसरा ’समय’ वह है जिसका जन्म ’व्यक्ति’ में होता है, उसकी स्मृति के क्रियाशील होने के बाद । फ़िर एक ’समय’ वह भी है जब इस स्मृति के अन्तर्गत मनुष्य / व्यक्ति अपने जगत् के नित्य होने का विचार करता है । इस प्रकार ’समय’ की एक स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है, जिसमें मनुष्य जगत् और अपने आप को एक क्षणिक या अल्पकालिक सत्ता रखनेवाली वस्तु की भाँति मान्य कर लेता है । किन्तु यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस सब भ्रम या जानकारी का आधार ’स्मृति’ ही है । और चेतनता जो न तो स्मृति है, न स्मृति के अन्तर्गत ग्रहण करने योग्य कोई वस्तु, यद्यपि किसी देह-विशेष से घनिष्ठतः जुड़ा आधारभूत तत्त्व होता है, स्वयं देह नहीं है । हम यह भी नहीं कह सकते कि वह देह का परिणाम है, क्योंकि मनुष्यमात्र स्वाभाविक रूप से ही देह को ’मेरा’ कहता है । यह ठीक है कि आगे चलकर वह इस बारे में व्यवहारगत सुविधा / आवश्यकता और अभ्यासवश ’मैं’ कहने लगता है । किन्तु फ़िर भी उसे अनायास ही स्पष्टतः समझ में आता है कि वह स्वयं ’चेतनता’ मात्र है जिसके भीतर ही देह का और फ़िर देहगत इन्द्रियों के माध्यम से उस जगत् का संवेदन किया जाता है, जिसे मनुष्य ’देह’ से एक भिन्न सत्ता मान लेता है । जबकि इसमें सन्देह नहीं कि जिन मूल उपादानों (द्रव्य और ऊर्जा) से देह बनी है, जगत् भी उन्हीं से बना है । 
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अश्वत्थ और न्यग्रोध और उनके समीप लगाया गया नीम का वृक्ष । उस पार्क के नज़दीक से जाते हुए अक्सर मैंने देखा है कि नीम एक अपना ही अलग एक स्वतन्त्र अस्तित्व है । निरपेक्ष सा । जैसे अश्वत्थ और न्यग्रोध संसार से अछूते और निर्लिप्त जान पड़ते हैं, नीम वैसा अछूता तो नहीं किन्तु निर्लिप्त अवश्य दिखलाई देता है ।
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१९ मार्च, २०१४,
इस साल मौसम कुछ अजीब सा चल रहा है ।
लेकिन १७ मार्च को होली हो जाने के बाद (आज १९ मार्च है ! जिनका भी जन्मदिन हो उन्हें हार्दिक शुभ कामनाएँ! फ़ेसबुक से फ़िलहाल दूर हूँ और मोबाइल में हफ़्ते भर पहले ही ’रेस्टोर फ़ैक्ट्री सेटिंग’ कर देने से बहुत से कॉन्टैक्ट्स ग़ायब हो गए हैं !)
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"आजकल ब्लॉग्स नहीं लिखते ?"
"लिखता हूँ न! बहुत लिखे हैं ! गीता से संबंधित हैं ।"
"और मेरे बारे में?"
न्यग्रोध पूछ बैठता है !
"तुम्हारे बारे में बेटू अंग्रेज़ी में लिखे हैं न!"
"तो अब हिन्दी में क्यों नहीं?"
" ऊं,...!"
"?"
"दर-असल मैंने उन ब्लॉग्स को अनुवादित करना चाहा था, लेकिन बीच में व्यवधान आ गए ।"
"कैसे व्यवधान?"
"कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का ग़िला, .."
"करना है / करना चाहिए, का द्वन्द्व?"
"मतलब?"
"दुनिया में हर आदमी का यही द्वन्द्व होता है ।"
"?"
"मतलब यह कि उसे कभी ख़याल तक नहीं आता कि वह इस द्वन्द्व में फँसा रहता है ।"
"मुझे भी?"
"हाँ, मैं तुम्हारे ही बारे में सोच रहा हूँ ।"
"हाँ, मैं तो हमेशा से इस कन्फ़ूज़न का शिकार रहा हूँ, लेकिन मुझे तो पता है !"
न्यग्रोध दो पल आकाश की ओर देखता रहा, जैसे मैं वहाँ हूँ ही नहीं ।
फ़िर पलटकर बोला,
"यह तुम्हारा वहम है ।"
"कैसे?"
"दोनों के बीच बहुत फ़र्क है । इंसान जब अपने ही सुख के संबंध में सोचता है, तो ’क्या करना है’ सोचता है । जब वह किसी दूसरे के, या सब के सुख के बारे में सोचता है तो वह ’क्या करना चाहिए’ सोचता है ।"
"हूँ, ..."
मैं सोच में पड़ गया । मैं चाहता था कि वह अपनी बात और स्पष्टता से समझाए । इसलिए मैंने पूछा -
"मतलब ?"
"अब जैसे तुम ब्लॉग्स लिखते हो तो तुम्हारा ध्यान अपने सुख पर ही तो होता है न?"
"हाँ, ...लेकिन मैं कहाँ कहता हूँ कि कोई इसे पढ़े, या तारीफ़ करे मेरे ब्लॉग्स की?"
"लेकिन तुम कभी यह सोचते हो कि कुछ ऐसे भी काम हैं जो तुम्हें करना चाहिए लेकिन तुम उन्हें नहीं करते, जो सबके सुख के लिए होते हों?"
"जैसे?"
"जैसे मैं करता हूँ, मेरे दादा (अश्वत्थ) करते हैं !"
पहले तो इन महात्माओं से संवाद असंभव सा लगता था, अब संभव तो लगता है, पर मुश्किल भी बहुत हो गया है !
"देखो, तुम गीता के संबंध में लिख रहे हो, इसलिए सोचा तुमसे इस बारे में बात करूँ ।"
"वाह! नेक़ी और पूछ पूछ!"
मैं प्रसन्नता से बोला ।
"देखो, गीता की क्या प्रॉब्लम है ?"
"वही ’क्लासिक’, ... अर्जुन का विषाद, और भगवान् कृष्ण का उसे उपदेश ,..."
"और अठारह अध्याय के बाद भगवान् उससे पूछते हैं कि तेरा संदेह दूर हुआ या नहीं? क्या तूने एकाग्रचित्त से यह सब सुना जो मैंने तुझसे कहा? क्या अज्ञानजनित तेरा मोह नष्ट हुआ?"
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि न्यग्रोध  से संवाद आसान या मुश्किल, कठिन या असंभव हो, लेकिन इतना अंतरंग हो सकेगा ।
"अच्छा, मैं तुम्हें और समझाऊँ । अर्जुन के बारे में तो मैं क्या कहूँ, वह तो अवश्य ही पात्र था भगवान के उपदेश और सखा होने का, लेकिन उसे भी प्रश्न तब उत्पन्न हुआ जब उसने देखा कि जो अत्यन्त प्रिय गुरुजन सखा, भाई, पिता, पितामह, आचार्य संबंधी उसे प्राणों से भी अधिक प्रिय थे रणक्षेत्र में वे ही उसके समक्ष युद्ध के लिए तत्पर उसके सामने खड़े थे । और अर्जुन कह रहा था कि हे कृष्ण! भले ही ये धृतराष्ट्रपुत्र मुझ निहत्थे पर भी आक्रमण कर मुझे मार डालें तो भी मुझे अफ़्सोस नहीं होगा । मैं इन्हें मारकर इनके रक्त से सने राज्य सुखों और ऐश्वर्य का भोग करूँ, इससे अधिक अच्छा तो क्या यही न होगा कि वे ही मुझे मार डालें ?"
"हाँ, ..."
"लेकिन तुम्हारे बारे में तो सच यह है कि तुम्हें किसी से भी प्रेम नहीं है, जिसे तुम वैराग्य समझते हो !"
"हाँ, सच है, ..."
"लेकिन इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, मनुष्यमात्र का प्रायः यही स्वभाव होता है । और कुछ तो उसे उसका समाज ऐसा बना देता है ।"
"कैसे?"
"अपने और पराये की भावना सिखाकर ।"
"..."
"देखो, अपना पराया कुछ नहीं होता ।"
’अश्वत्थ दर्शन’ में जितना सुना समझा था, उसका एक हिस्सा तो अंग्रेज़ी में लिख चुका हूँ, लगता है कि ’न्यग्रोध दर्शन’ हिन्दी का सौभाग्य होगा !
"जब मनुष्य ’करना है’ सोचता है, तब भी वह अमूमन अपने सुख से लालायित होकर उसके लिए जो किया जाना जरूरी लगता है उसे ही करने की क़ोशिश करता है, और उस बारे में ही सोचता है, और उसे ही ’कर्तव्य’ समझता है वह । जबकि कर्तव्य का मतलब होता है जो सबके सुख के लिए किया जाना जरूरी हो ।"
"लेकिन मनुष्य का सामर्थ्य और शक्ति तो सीमित होते हैं न!"
"हाँ, इसीलिए तो, जितना सामर्थ्य और शक्ति हो वहीं तक उसका कर्तव्य है ।"
"हाँ, और वह करना आसान बल्कि स्वाभाविक ही होता है, उसे न करना ही अस्वाभाविक और कठिन होता है ।"
"तो तुम्हारा मतलब यह हुआ कि जिसे मैं वैराग्य समझता हूँ उसमें कुछ गलत नहीं है, भले ही मुझे किसी से प्रेम न हो?"
"नहीं, कुछ भी गलत नहीं है, बिल्कुल स्वाभाविक है वह । लेकिन बात उससे भी आगे जाती है ।"
"वह कैसे?"
"देखो, अगर किसी से प्रेम नहीं है और अपने सुख से ही प्रेम है तो इसमें क्या गलत है? लेकिन जब तुम्हारे सुख में कोई बाधक बनता है, या तुम्हारे सुखों को तुमसे छीनना चाहता है क्या तब तुम्हारे भीतर उसके प्रति शत्रुता नहीं पैदा होती?"
"वह तो होगा ही ! वह भी बिल्कुल स्वाभाविक है ।"
दृढतापूर्वक, पूरे आत्मविश्वास के साथ मैंने उत्तर दिया ।
"यही तो तुम्हारा वहम है, जो अब तक भी दूर नहीं हुआ है ! अगर तुम किसी से द्वेष नहीं करते तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हें किसी से प्रेम है या नहीं ।"
फ़िर वह आसमान की ओर देखने लगा । यह संकेत था शायद कि अब मुझे वहाँ से विदा होना चाहिए ।
इसलिए मैंने उसे प्रणाम किया और अपने रास्ते पर आगे चल पड़ा । लेकिन यह जरूर समझ में आया कि द्वेष भी राग का ही एक रूप है ।
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March 06, 2014

आजकल / 06 मार्च, 2014

सरोकार 
  'उन दिनों' से शुरू हुआ सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है ।
साहित्य मेरे जीवन की मुख्य धारा नहीं है । और जहाँ तक 'ब्लॉग' लिखने का सवाल है, मुझे तो यहाँ तक ख़याल नहीं था कि ब्लॉग-लेखन एक प्रोफेशनल गतिविधि होती है । न तो मुझे किसी विचार, सिद्धांत, आदर्श, सभ्यता, संस्कृति, धर्म या वस्तु का प्रचार करना था, न 'ब्लॉग-लेखन' द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से किसी किस्म की 'अर्निंग्स' करनी थी । 'संसार' या दुनिया, 'समाज' या 'लोगों' का 'सुधार' करने का विचार भी दूर दूर तक कहीं मेरे मन में नहीं था । हाँ,  इस बारे में यह जरूर लगता था कि यदि किसी को मेरे ब्लॉग्स पढ़ने में किसी वज़ह से कोई दिलचस्पी हो तो मुझे भला क्या ऐतराज़ होना चाहिए । एक दूसरा ख्याल यह भी था कि मैं जो कुछ भी सही-गलत, अच्छा-ख़राब, श्रेष्ठ-निकृष्ट लिखता हूँ, उसका सुख-दुःख अकेले ही क्यों उठाऊँ । और फिर सबसे बड़ी सुविधा यहाँ यह थी कि जब चाहे 'ब्लॉग' को 'डिलीट' भी तो किया जा सकता है । लेकिन जब यह महसूस किया कि वाकई मेरे ब्लॉग्स को बहुत कम लोग पढ़ते हैं, तो मुझे यह सोचकर ख़ुशी ही हुई कि इस बहाने मुझे अपने 'लेखन' को अलग से 'सुरक्षित' रखने की फ़िक्र से भी मुक्ति मिल गई ।
तीन-चार वर्षों से फ़ेसबुक पर एन्जॉय करता रहा । वहाँ भी मैंने कोई डुप्लीकेट आइडेंटिटी नहीं बनाई । सब-कुछ 'ट्रांसपेरेंट' था । और मेरी ख़ुशकिस्मती ही थी कि मुझे वहाँ जितने मित्र मिले उनमें से अधिकाँश मेरे जैसे ही थे । हालाँकि पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं, फिर भी क़मोबेश सभी सचमुच निश्छल निष्कपट तो थे ही । एक इटैलियन मित्र थी । चूँकि मैं किसी के चरित्र, आचरण, संस्कारों, संस्कृति, आग्रहों, पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों, धर्म, भाषा, उद्देश्यों आदि पर तब तक ध्यान नहीं देता जब तक कि उससे बातचीत में बाधा न उत्पन्न हो, इसलिए उससे भी अन्य मित्रों की तरह अनौपचारिक बातें होतीं रहती थीं । ऐसी ही एक 'चैट' के दौरान मैं उससे उसके नाम के बारे में बाते कर रहा था । जब मैंने उससे पूछा कि क्या मैं अपने किसी ब्लॉग में उसके नाम का उल्लेख कर सकता हूँ? तो उसने तुरंत उत्तर दिया :
 " वह (फ़ेसबुक वाला नाम) मेरा असली नाम थोड़ी है !"
दो मिनट तक हम दोनों शायद इधर उधर बिज़ी रहे होंगे, फिर उसका नेक्स्ट मैसेज आया  :
" वैसे ये नाम भी कहाँ असली है?"
मुझे उसकी परिपक्वता पर ख़ुशी हुई । मैं सचमुच उसकी समझ पर अभिभूत हो उठा ।
वास्तव में नाम का सत्य कितना सत्य है? जो इस छोटे से सत्य को जान लेता है, उसकी अपनी क्या पहचान बाकी रह जाती है? लेकिन वह शायद सबसे सुखी इंसान होता होगा । 
कभी कभी लेकिन बिरले ही, कुछ मित्रों से ऐसी ही अत्यंत आत्मीयता की बातें अनायास हो जाती हैं । यह पोस्ट समर्पित है उसे, और उस जैसे दूसरे भी अनाम मित्रों के नाम  ।
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March 01, 2014

आजकल / 1 मार्च 2014 / मेघवार्ता

आजकल / 1 मार्च 2014 / मेघवार्ता
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ऐसा मौसम देखा पहली बार। … 
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तीन चार महीनों से एक नई चीज़ शुरू की है । 
बचपन की कल्पनाएँ  कभी साकार होंगीं कल्पना भी न थी ।
मोबाईल फ़ोन में कैमेरा मिला तो ख्याल आया कि अब उन सपनों को धरती पर उतारना मुमक़िन है । फिर दिन भर में पचासों पिक्स खींचने लगा । फिर समझ में आया ली एक यू एस बी कॉर्ड से उन पिक्स को कंप्यूटर पर स्टोर किया जा सकता है, तो एक ब्लॉग Love Like The Clouds  शुरू कर दिया  । 
पहले कभी पैंटिंग का शौक था और वह सिर्फ कला के नाते  था । इसलिए कभी किसी स्कूल या कॉलेज में जाकर सीखने का ख्याल नहीं आया । शायद कला को न तो कॉलेज में सीखा जा सकता है, और न सिखाया जा सकता है । मुझे लगता है कि जितने भी महान चित्रकार, कवि, संगीतकार आदि हुए हैं अधिकाँश ने कला को अंतःप्रेरणा से ही सीखा, और इस दृष्टि से मैंने कला को अपने ढंग से सीखना-समझना चाहा । वास्तव में कला स्वान्तःसुखाय या स्वान्तः हिताय से अधिक स्वान्तः समीक्षाय होती है । rediscovering oneself again and again . जब मैं इन पिक्स को देखता हूँ, तो हर बार अपना ही आविष्कार होता है । इसलिए मेरे एक चित्र का शीर्षक है; abstract एंड sublime . मैं सोचता हूँ कि कला सिर्फ आत्म-अन्वेषण है, एक अनवरत अनंत यात्रा । अगर आप की कलाकृति किसी को छूती है तो वह उसे स्वयं का ही स्पर्श प्रदान करती है । इसलिए हर कलाकृति नितांत वैयक्तिक होती है, और कोई कलाकृति अपने-आप में श्रेष्ठ या कमतर नहीं होती । --