March 19, 2014

न्यग्रोध-दर्शन -१

न्यग्रोध-दर्शन -१
(२०१३-१४ / १७ जनवरी २०१४) 
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© vinayvaidya111@gmail.com

वर्ष २०१३ की समाप्ति की प्रतीक्षा थी । एक अनुमान था कि हर नए साल के आने और चले जाने के बीच अश्वत्थ पर एक छाल चढ़ती है, लेकिन उससे पहले एक छाल उतरती भी है । इस दौरान अश्वत्थ कुछ समृद्ध ही होता है ।
इस बीच ’अतीत’ जिसका स्मृति के अतिरिक्त कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं होता, नए रूपों में प्रकट हो उठता है ।
’अतीत’ जो व्युत्पत्ति के अनुसार अति+ इति है, हर क्षण विदा होता रहता है, लेकिन स्मृति पर एक रेखा अंकित कर जाता है ।
रेत पर लिखी इबारत सा ! आजकल हम सिलिकॉन-चिप्स पर उसे अंकित-टंकित करते हैं । सिलिकॉन् जो रेत का ही शुद्ध रूप है, जब साँस लेता है तो जलकर ऑक्साइड बन जाता है ।
अश्वत्थ को देखते हुए ख़याल आया कि यह भी साँस लेता है तो सिर्फ़ ऑक्साइड नहीं बनता, बल्कि पूरे अस्तित्व को समृद्ध ही करता है ।
सिलिकॉन-ऑक्साइड अर्थात् रेत से सिलिकॉन निकालना और उसकी चिप्स बनाना निश्चित ही पोटैटो-चिप्स बनाने की तुलना में बहुत अधिक कठिन और क्लिष्ट कार्य है । फ़िर इन सिलिकॉन-चिप्स में ’स्मृति’ को ’शून्य’ और ’एक’ के कूट में संजो रखना, और भी अधिक जटिल है । किन्तु मस्तिष्क में स्थित प्रज्ञा मनुष्य को इस योग्य बनाती है, प्रेरित करती है कि वह इस पूरे आश्चर्यजनक कार्य को वह अत्यन्त कुशलता से कर पाता है । देवी अथर्वणम् में देवी कहती हैं -
"अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ।"
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अश्वत्थ इस बीच और बड़ा हो रहा है । वह भी और उसका पालित-पुत्र न्यग्रोध भी ।
अश्वत्थ पर से पुरानी छाल निकलकर तना और भी अधिक गौरवर्ण हो गया है । लगता है जैसे हर नए वर्ष वह एक उबटन लगाता हो, जिसके बाद अभिषिक्त होकर और अधिक प्राणवान्, और अधिक तेजस्वी हो उठता हो ! 
"तेजस्विनावधीतमस्तु ...,"
एक आवाज सुनाई देती है, तो मेरा ध्यान न्यग्रोध पर जाता है ।
मैंने कल्पना भी नहीं की थी, कि उपनिषद् के शान्तिपाठ के मन्त्र में ’मैं’ का ’द्विवचन-रूप’ है ।
"हाँ !"
 मैं उसकी प्रत्युत्पन्न-मति पर मुग्ध हो उठता हूँ ।
"अधीतमस्तु....." 
"?"
"अधि-इतं-अस्तु !"
वह स्पष्ट करता है ।
तो ’अतीत’ और ’अधीत’ मूलतः एक ही तत्व हैं ! मुझे खयाल आता है ।
और जिसे हम ’अतीत’ कहते-समझते हैं वह सिर्फ़ स्मृति-रूप में रेत पर लिखे कुछ वक्तव्य भर होते हैं जिनकी सत्यता सदैव संदिग्ध होती है ।
कागज़ पर अमिट स्याही से लिखे या सीडी / डीवीडी पर डिजिटल रूप में लिखे, या भोजपत्र पर लिखे हों कोई फ़र्क़ कहाँ है?
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’समय’ के यह दो आयाम इस लिपि को जन्म तो देते हैं किन्तु ’समय’ का जन्म कहाँ कब होता है? एक ’समय’ वह है जो ’स्मृति’ के अन्तर्गत होता है, जो ’स्मृति’ से प्रक्षिप्त, उत्पन्न होता है और हमारे मस्तिष्क में कीडा करता रहता है, ’स्मृति’ में ही विलीन भी होता रहता है । दूसरा ’समय’ वह है जिसमें ’स्मृति’ जन्म लेती है, क्रीडारत रहती है, और फ़िर तिरोहित हो जाती है ।
एक अतीत, जो अश्वत्थ है, दूसरा जो न्यग्रोध है । न्यग्रोध अश्वत्थ को देखता है और जानता है कि अश्वत्थ और वह एक ही सत्ता के दो आयाम हैं और दो अभिव्यक्तियाँ भी ! उसे इसमें कोई संशय नहीं । लेकिन मुझे तो इस सब की कोई समझ तक नहीं है ।
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एक ’समय’ वह है जिसमें  मनुष्य जन्म लेता है, दूसरा ’समय’ वह है जिसका जन्म ’व्यक्ति’ में होता है, उसकी स्मृति के क्रियाशील होने के बाद । फ़िर एक ’समय’ वह भी है जब इस स्मृति के अन्तर्गत मनुष्य / व्यक्ति अपने जगत् के नित्य होने का विचार करता है । इस प्रकार ’समय’ की एक स्वतन्त्र सत्ता प्रतीत होने लगती है, जिसमें मनुष्य जगत् और अपने आप को एक क्षणिक या अल्पकालिक सत्ता रखनेवाली वस्तु की भाँति मान्य कर लेता है । किन्तु यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस सब भ्रम या जानकारी का आधार ’स्मृति’ ही है । और चेतनता जो न तो स्मृति है, न स्मृति के अन्तर्गत ग्रहण करने योग्य कोई वस्तु, यद्यपि किसी देह-विशेष से घनिष्ठतः जुड़ा आधारभूत तत्त्व होता है, स्वयं देह नहीं है । हम यह भी नहीं कह सकते कि वह देह का परिणाम है, क्योंकि मनुष्यमात्र स्वाभाविक रूप से ही देह को ’मेरा’ कहता है । यह ठीक है कि आगे चलकर वह इस बारे में व्यवहारगत सुविधा / आवश्यकता और अभ्यासवश ’मैं’ कहने लगता है । किन्तु फ़िर भी उसे अनायास ही स्पष्टतः समझ में आता है कि वह स्वयं ’चेतनता’ मात्र है जिसके भीतर ही देह का और फ़िर देहगत इन्द्रियों के माध्यम से उस जगत् का संवेदन किया जाता है, जिसे मनुष्य ’देह’ से एक भिन्न सत्ता मान लेता है । जबकि इसमें सन्देह नहीं कि जिन मूल उपादानों (द्रव्य और ऊर्जा) से देह बनी है, जगत् भी उन्हीं से बना है । 
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अश्वत्थ और न्यग्रोध और उनके समीप लगाया गया नीम का वृक्ष । उस पार्क के नज़दीक से जाते हुए अक्सर मैंने देखा है कि नीम एक अपना ही अलग एक स्वतन्त्र अस्तित्व है । निरपेक्ष सा । जैसे अश्वत्थ और न्यग्रोध संसार से अछूते और निर्लिप्त जान पड़ते हैं, नीम वैसा अछूता तो नहीं किन्तु निर्लिप्त अवश्य दिखलाई देता है ।
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१९ मार्च, २०१४,
इस साल मौसम कुछ अजीब सा चल रहा है ।
लेकिन १७ मार्च को होली हो जाने के बाद (आज १९ मार्च है ! जिनका भी जन्मदिन हो उन्हें हार्दिक शुभ कामनाएँ! फ़ेसबुक से फ़िलहाल दूर हूँ और मोबाइल में हफ़्ते भर पहले ही ’रेस्टोर फ़ैक्ट्री सेटिंग’ कर देने से बहुत से कॉन्टैक्ट्स ग़ायब हो गए हैं !)
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"आजकल ब्लॉग्स नहीं लिखते ?"
"लिखता हूँ न! बहुत लिखे हैं ! गीता से संबंधित हैं ।"
"और मेरे बारे में?"
न्यग्रोध पूछ बैठता है !
"तुम्हारे बारे में बेटू अंग्रेज़ी में लिखे हैं न!"
"तो अब हिन्दी में क्यों नहीं?"
" ऊं,...!"
"?"
"दर-असल मैंने उन ब्लॉग्स को अनुवादित करना चाहा था, लेकिन बीच में व्यवधान आ गए ।"
"कैसे व्यवधान?"
"कभी तक़दीर का मातम कभी दुनिया का ग़िला, .."
"करना है / करना चाहिए, का द्वन्द्व?"
"मतलब?"
"दुनिया में हर आदमी का यही द्वन्द्व होता है ।"
"?"
"मतलब यह कि उसे कभी ख़याल तक नहीं आता कि वह इस द्वन्द्व में फँसा रहता है ।"
"मुझे भी?"
"हाँ, मैं तुम्हारे ही बारे में सोच रहा हूँ ।"
"हाँ, मैं तो हमेशा से इस कन्फ़ूज़न का शिकार रहा हूँ, लेकिन मुझे तो पता है !"
न्यग्रोध दो पल आकाश की ओर देखता रहा, जैसे मैं वहाँ हूँ ही नहीं ।
फ़िर पलटकर बोला,
"यह तुम्हारा वहम है ।"
"कैसे?"
"दोनों के बीच बहुत फ़र्क है । इंसान जब अपने ही सुख के संबंध में सोचता है, तो ’क्या करना है’ सोचता है । जब वह किसी दूसरे के, या सब के सुख के बारे में सोचता है तो वह ’क्या करना चाहिए’ सोचता है ।"
"हूँ, ..."
मैं सोच में पड़ गया । मैं चाहता था कि वह अपनी बात और स्पष्टता से समझाए । इसलिए मैंने पूछा -
"मतलब ?"
"अब जैसे तुम ब्लॉग्स लिखते हो तो तुम्हारा ध्यान अपने सुख पर ही तो होता है न?"
"हाँ, ...लेकिन मैं कहाँ कहता हूँ कि कोई इसे पढ़े, या तारीफ़ करे मेरे ब्लॉग्स की?"
"लेकिन तुम कभी यह सोचते हो कि कुछ ऐसे भी काम हैं जो तुम्हें करना चाहिए लेकिन तुम उन्हें नहीं करते, जो सबके सुख के लिए होते हों?"
"जैसे?"
"जैसे मैं करता हूँ, मेरे दादा (अश्वत्थ) करते हैं !"
पहले तो इन महात्माओं से संवाद असंभव सा लगता था, अब संभव तो लगता है, पर मुश्किल भी बहुत हो गया है !
"देखो, तुम गीता के संबंध में लिख रहे हो, इसलिए सोचा तुमसे इस बारे में बात करूँ ।"
"वाह! नेक़ी और पूछ पूछ!"
मैं प्रसन्नता से बोला ।
"देखो, गीता की क्या प्रॉब्लम है ?"
"वही ’क्लासिक’, ... अर्जुन का विषाद, और भगवान् कृष्ण का उसे उपदेश ,..."
"और अठारह अध्याय के बाद भगवान् उससे पूछते हैं कि तेरा संदेह दूर हुआ या नहीं? क्या तूने एकाग्रचित्त से यह सब सुना जो मैंने तुझसे कहा? क्या अज्ञानजनित तेरा मोह नष्ट हुआ?"
मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि न्यग्रोध  से संवाद आसान या मुश्किल, कठिन या असंभव हो, लेकिन इतना अंतरंग हो सकेगा ।
"अच्छा, मैं तुम्हें और समझाऊँ । अर्जुन के बारे में तो मैं क्या कहूँ, वह तो अवश्य ही पात्र था भगवान के उपदेश और सखा होने का, लेकिन उसे भी प्रश्न तब उत्पन्न हुआ जब उसने देखा कि जो अत्यन्त प्रिय गुरुजन सखा, भाई, पिता, पितामह, आचार्य संबंधी उसे प्राणों से भी अधिक प्रिय थे रणक्षेत्र में वे ही उसके समक्ष युद्ध के लिए तत्पर उसके सामने खड़े थे । और अर्जुन कह रहा था कि हे कृष्ण! भले ही ये धृतराष्ट्रपुत्र मुझ निहत्थे पर भी आक्रमण कर मुझे मार डालें तो भी मुझे अफ़्सोस नहीं होगा । मैं इन्हें मारकर इनके रक्त से सने राज्य सुखों और ऐश्वर्य का भोग करूँ, इससे अधिक अच्छा तो क्या यही न होगा कि वे ही मुझे मार डालें ?"
"हाँ, ..."
"लेकिन तुम्हारे बारे में तो सच यह है कि तुम्हें किसी से भी प्रेम नहीं है, जिसे तुम वैराग्य समझते हो !"
"हाँ, सच है, ..."
"लेकिन इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है, मनुष्यमात्र का प्रायः यही स्वभाव होता है । और कुछ तो उसे उसका समाज ऐसा बना देता है ।"
"कैसे?"
"अपने और पराये की भावना सिखाकर ।"
"..."
"देखो, अपना पराया कुछ नहीं होता ।"
’अश्वत्थ दर्शन’ में जितना सुना समझा था, उसका एक हिस्सा तो अंग्रेज़ी में लिख चुका हूँ, लगता है कि ’न्यग्रोध दर्शन’ हिन्दी का सौभाग्य होगा !
"जब मनुष्य ’करना है’ सोचता है, तब भी वह अमूमन अपने सुख से लालायित होकर उसके लिए जो किया जाना जरूरी लगता है उसे ही करने की क़ोशिश करता है, और उस बारे में ही सोचता है, और उसे ही ’कर्तव्य’ समझता है वह । जबकि कर्तव्य का मतलब होता है जो सबके सुख के लिए किया जाना जरूरी हो ।"
"लेकिन मनुष्य का सामर्थ्य और शक्ति तो सीमित होते हैं न!"
"हाँ, इसीलिए तो, जितना सामर्थ्य और शक्ति हो वहीं तक उसका कर्तव्य है ।"
"हाँ, और वह करना आसान बल्कि स्वाभाविक ही होता है, उसे न करना ही अस्वाभाविक और कठिन होता है ।"
"तो तुम्हारा मतलब यह हुआ कि जिसे मैं वैराग्य समझता हूँ उसमें कुछ गलत नहीं है, भले ही मुझे किसी से प्रेम न हो?"
"नहीं, कुछ भी गलत नहीं है, बिल्कुल स्वाभाविक है वह । लेकिन बात उससे भी आगे जाती है ।"
"वह कैसे?"
"देखो, अगर किसी से प्रेम नहीं है और अपने सुख से ही प्रेम है तो इसमें क्या गलत है? लेकिन जब तुम्हारे सुख में कोई बाधक बनता है, या तुम्हारे सुखों को तुमसे छीनना चाहता है क्या तब तुम्हारे भीतर उसके प्रति शत्रुता नहीं पैदा होती?"
"वह तो होगा ही ! वह भी बिल्कुल स्वाभाविक है ।"
दृढतापूर्वक, पूरे आत्मविश्वास के साथ मैंने उत्तर दिया ।
"यही तो तुम्हारा वहम है, जो अब तक भी दूर नहीं हुआ है ! अगर तुम किसी से द्वेष नहीं करते तो इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि तुम्हें किसी से प्रेम है या नहीं ।"
फ़िर वह आसमान की ओर देखने लगा । यह संकेत था शायद कि अब मुझे वहाँ से विदा होना चाहिए ।
इसलिए मैंने उसे प्रणाम किया और अपने रास्ते पर आगे चल पड़ा । लेकिन यह जरूर समझ में आया कि द्वेष भी राग का ही एक रूप है ।
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