March 21, 2014

न्यग्रोध-दर्शन -२

न्यग्रोध-दर्शन -२
शाम को या सुबह या दोनों वक़्त, कुछ समय मिल जाता है कि अपने घर के आसपास के तीन चार किलोमीटर के दायरे में वॉकिंग के लिए जा सकता हूँ । अगर मौसम साफ़ हुआ और हल्की ठंड हो तो रात नौ दस या ग्यारह बजे तक भी बाहर घूमना बहुत अच्छा लगता है ।
कल (२० मार्च) सुबह कुछ ऐसी ही स्थिति थी, लेकिन मैं बाहर नहीं जा पाया । सुबह की चाय के लिए बस दूध लेने के लिए भर अपनी कॉलोनी के भीतर ही थोड़ी दूर तक गया और लौट आया । फ़िर भी जब छत पर खड़ा चाय पी रहा था तो दूर खड़ा अश्वत्थ हमेशा सा नितांत अलिप्त, मुझसे असंबद्ध और बहुत दूर जान पड़ा । पिछले साल तो कितने संवाद हुए थे उससे ! छत पर पड़ी कुर्सी पर अखबार पड़ा था जिसमें ह्युन्डाई की कार का विज्ञापन दिखाई दे रहा था । और जैसा कि चलन है, विज्ञापन की कला भी आजकल मनुष्य के अवचेतन को प्रभावित करने की हद तक जा पहुँची है, चटख़ लाल रंग की एक कार उस विज्ञापन में अपने गर्वोन्नत चेहरे से बाहर झाँकती नज़र आ रही थी । 'VERNA' जिसे देखना जरूरी था वर्ना ....! बहरहाल इस 'VERNA' से मुझे याद आया, कल वासंतिक विषुव (spring-equinox) है ।
इस बार यह ठीक २१ मार्च को है । उज्जैन वराहमिहिर की नगरी होने से, यहाँ यन्त्रमहल होने से अनायास ही बहुत सी अद्भुत् जानकारियाँ प्राप्त होती रहती हैं । २०-३० साल पहले कभी कभी यन्त्र-महल जाता रहता था, जिसे राजा जयसिंह ने बनवाया था । वहाँ ’शंकु-यन्त्र’, ’दोलन-यन्त्र’, ’घटी-यन्त्र’ आदि देखकर यह तो समझ में आ गया कि ज्योतिष का गणितीय आधार क्या है, और गणित का वैदिक आधार मुझे गणक ऋषि से ज्ञात हुआ । जी, वही गणक ऋषि जो श्री गणपत्यथर्वशीर्ष के माध्यम हैं । किन्तु उस बारे में विस्तार से फ़िर कभी । 
अभी तो  'VERNA' के बारे में -
॥ श्रीरामचरितमानस ॥
    ॥मङ्गलाचरणम् ॥

वर्णानामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि ।
मंगलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणी विनायकौ ॥१
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यह ’वर्ण’, वही है, जिसका उस परब्रह्म ने  वरण किया है, जो महर्षि पाणिनी के जन्मस्थल के उस पार उत्तर-पश्चिम में स्थित ’पर्शिया’ से (महाभारत ११/६५) प्रारम्भ होकर सुदूर पूर्व में इन्दोनेशिया तक बिखरा हुआ है । मनुस्मृति अध्याय २ में इसे ही ’आर्यावर्त’ कहा गया है । अर्थात मनुस्मृति के लिखे जाने के समय से ही ’आर्यावर्त’ विस्तार से सुपरिभाषित है, किन्तु हमारे प्रमाद और विदेशियों के द्वारा इन ग्रन्थों के विकृत प्रस्तुतीकरण और जानबूझकर पैदा किए गए भ्रमों से भ्रमित हुए हम अपनी ही विरासत से अनभिज्ञ हैं । हम इस बहस में पड़कर कि ’आर्य’ कहाँ के थे, कहाँ से कहाँ गए / आये, अपने बुद्धिजीवी होने के दम्भ में डूबे रहते हैं ।  वेदनिन्दा विदेशियों के लिए भले ही उनका अपना परम कर्तव्य हो, किन्तु हमारा अपना अज्ञान और अपने धरोहर के प्रति सम्मान की भावना का अभाव भी हमारे पतन और आत्महीनता की हमारी भावना का बहुत बड़ा कारण है । इस बारे में भी विस्तार से फ़िर कभी ।
अभी तो वर्ण के विस्तार के बारे में । यह ’वर्ण’ जो इन्दोनेशिया की भाषा (बहासा) में वेर्न हो जाता है, जो ग्रीक में ’वेर्नल’ अर्थात ’वासंतिक’ हो जाता है, ’अश्विनौ’ वेदिक देवता है, जो सदा युगल रूप में होते हैं, जो अव-वत्-मान (autumn > autumnal) और ’स्फुरितम्’ (spring) या वासंतिक के रूप में धरती पर उतरते हैं, जिन्हें हम अंग्रेज़ी में क्रमशः (autumnal equinox  तथा spring equinox)  के रूप में जानते हैं उन्हीं दो अश्वों के आच्छादन (shades) हैं । वे ही वर्ण जो सूरज के सात रंगों के दो विशिष्ट वर्ण हैं । वैसे ही दो अश्व सूर्य के उत्तरायण तथा दक्षिणायन होने पर, दक्षिण-अयनांत (winter-solstice) तथा उत्तर अयनांत (summer solstice) हैं । 
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यह सब मुझे कौंध उठा एकाएक, अनायास, न जाने कहाँ से, जब उस दूरस्थ अश्वत्थ पर  नज़रें पड़ीं ।
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वर्णानामर्थसंघानां ...,

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