July 30, 2023

The Mediocrity

आम आदमी

आम आदमी के बारे में वह भी सोचता था और इसलिए भी उसका अध्यात्म और धर्म के उस प्रकार पर भरोसा नहीं जो कि आम आदमी की मानसिकता के सन्दर्भ में सामाजिक स्तर पर दिखाई देता है। उसके इस चिन्तन में उसे किसी ईश्वर की मान्यता भी अनावश्यक प्रतीत होती थी। 'नोट्स' में उसने आगे लिखा था :

सांख्य-दर्शन की दृष्टि से भी किसी ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं हो सकता है। इसी तरह चूँकि ईश्वर के 'न होने' को भी प्रमाणित नहीं किया जा सकता, इसलिए और जैसा कि योग-दर्शन समाधिपाद में औपचारिक रूप से 'ईश्वर' को परिभाषित करते हुए कहा गया है :

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।।२३।।

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।। 

-- ।।२४।।

उसका संशय निराधार है, यह भी नहीं कह सकते।

उसने आगे लिखा था, फिर :

ईश्वर-अंश जीव अविनाशी।।

इस उद्धरण के अर्थ की व्याख्या भी भिन्न भिन्न प्रकार से की जा सकती है और किसी पुरुष-विशेष के 'ईश्वर' होने के मत को अकाट्य सत्य की तरह कैसे स्वीकार किया जा सकता है? और 

"जीव ईश्वर का ही अंश है, क्या यह भी वैसे ही सत्य नहीं है, जैसे कि :

"ईश्वर जीव का ही अंश है?" 

याद आया महर्षि रमण कृत 'उपदेश-सारः' :

ईशजीवयोर्वेषधीभिदा।।

सत्सवरूपतः वस्तुकेवलम्।।

इसका तात्पर्य यह कि मनुष्यों की अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ईश्वर और जीव के बीच भेद या अभेद होने की, जैसी भी कल्पना हो, दोनों ही मूलतः एकमेव सत् के ही दो रूप हैं। इसमें रंचमात्र भी सन्देह नहीं हो सकता है कि वैसे उसका झुकाव 'सांख्यनिष्ठा' की ही ओर अधिक था, किन्तु जब तक वह न पूछता, इस बारे में मैं उससे कैसे कुछ कह सकता था? ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं यह इस पर निर्भर करता है कि जिसे ईश्वर कहा जा सकता है वह एक मान्यता है या अनुभव, भावना है या अनुभूति, इन्द्रियगम्य-मनोगम्य, या बुद्धिगम्य कोई विषय है, अपने से भिन्न या अभिन्न दूसरी कोई सत्ता। ईश्वर के विषय में स्वयं मुझे भी यह दुविधा है क्योंकि वह जीव की ही तरह "प्रभु" और "विभु" दोनों ही है, जैसा कि गीता में अध्याय 5 के निम्नलिखित श्लोकों में वर्णन किया गया है :

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः।।

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः।।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

अर्थात् अपने हृदय में उत्पन्न इस अज्ञान को जिसने ज्ञान से नष्ट कर दिया है, उसके लिए वह परम-तत्व परमात्मा या परमेश्वर, आदित्य अर्थात् सूर्य जैसा प्रत्यक्ष हो जाता है।

"इसलिए भी ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं इसे मान्यता या तर्क-वितर्क से नहीं जाना जा सकता है।"

यह उसका निष्कर्ष था। 

उसके 'नोट्स'  में यह सब पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ।

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July 28, 2023

Question 32 / प्रश्न 32

गुरु कौन?

Guru!! Who is Guru?? 

'Notes' Continued... 

"आप किस गुरु को मानते हैं?"

आज जब मैं उस पत्थर फेंकनेवाले से मिला तब मन में यही प्रश्न कुलबुला रहा था। और बिना किसी लाग-लपेट, यही प्रश्न मैंने उसके सामने रख दिया। उसने शान्तिपूर्वक मेरे प्रश्न को सुना, थोड़ी देर बाद मुस्कुराते हुए बोला :

"आपको अगर ऐतराज न हो तो पहले कुछ और कहना चाहूँगा।"

"जी!"

"मन में किसी भी प्रकार की कोई भी जिज्ञासा होना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन जिज्ञासा के समाधान के लिए यह भी इतना ही आवश्यक है कि प्रश्न को भी स्पष्ट, और सही तरीके से रखा जाए।

उदाहरण के लिए, आपने :

"आप किस गुरु को मानते हैं?" -यह प्रश्न किया।

आपके प्रश्न से यह झलकता है कि 'गुरु' शब्द का प्रयोग आप किसी विख्यात, जाने-माने विद्वान, ज्ञानी, योगी या पण्डित के अर्थ में मान्य किसी व्यक्ति विशेष के लिए कर रहे हैं। मैं इस प्रश्न को इस रूप में रखना चाहूँगा :

"आप गुरु किसे मानते हैं?"

मैं थोड़ी देर तक चुपचाप उसके अगले वाक्य को सुनने के लिए प्रतीक्षा करता रहा। वह बोला :

"गुरु का अर्थ मार्गदर्शक या शिक्षक हो सकता है, और इसका दूसरा एक और अर्थ, 'बड़ा' या 'महान' भी होता है, जो किसी दृष्टि से हमसे बड़ा हो, कभी कभी 'गुरुजन' शब्द से भी उसका उल्लेख किया जाता है।"

दोनों ही दृष्टियों से, यह आवश्यक नहीं है कि किसी भी व्यक्ति-विशेष को ही एकमात्र गुरु मान लिया जाए।

और फिर ऐसे किसी भी मनुष्य को, जिसमें लेशमात्र का भी अहंकार शेष हो, उसे भी गुरु नहीं कहा जा सकता। न, कोई अपने आपके गुरु होने का दावा ही कर सकता है। क्या इसमें कोई सन्देह है?"

"अन्यथा न समझें, यदि मुझे पात्र समझते हैं, तो निवेदन करना चाहूँगा कि आप मुझे अपना शिष्य ही समझें, मुझ पर यह आपका आशीर्वाद, कृपा और मेरा परम सौभाग्य ही होगा।"

मैंने उससे विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की।

वह अविचलित भाव से बैठा रहा। क्षण भर बाद बोला : "जब अपने आपकी परीक्षा करता हूँ तो लगता है अभी तक तो मैं स्वयं ही अपने भीतर विद्यमान आसक्ति, मोह, और उससे पैदा होनेवाले काम, क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि से नहीं छूट सका हूँ, तो किसी दूसरे को भला क्या शिक्षा दे सकता हूँ!"

उसने उसी अविचलित सरलता से कहा।

"तो मैं आपसे कोई आशा न रखूँ?"

"जैसा आप ठीक समझें।"

चूँकि मैं उससे कुछ न कुछ सीखना अवश्य चाहता था, इसलिए इस विषय पर वहीं विराम लगा दिया। वैसे मन में एक विचार यह भी था कि उसे गुरु की तरह स्वीकार करने के बाद मैं स्वयं को भी गौरवान्वित कर सकता था। अपने ही मन की इस कुटिलता पर मुझे बरबस हँसी आ गई, तो वह भी मुस्कुरा पड़ा।

***



July 27, 2023

जादू की छड़ी!

The Magic Scale! 

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यहाँ तक तो सब ठीक ही था। उसके 'नोट्स' पढ़ते पढ़ते मेरा ध्यान इस सच्चाई की ओर गया, कि वह जिस ओर अग्रसर था, वह उस संसार से तालमेल करने की उसकी कोशिश थी, जिसका अस्तित्व उसके ही मन की कल्पना था। वैसे इस तथ्य पर उसका ध्यान नहीं जा सका था कि मन नामक तत्व ही असंख्य रूपों और आकृतियों में उस तरह से अभिव्यक्त होता है, जैसे आकाश असंख्य और भिन्न भिन्न जलाशयों में यद्यपि पृथक् और अलग अलग प्रतीत होता है, फिर भी सबकी एकमात्र आधारभूत और अखण्डित वास्तविकता होता है। उसे एक अथवा अनेक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसके परिप्रेक्ष्य में 'दूसरा' भी कहाँ हो सकता है? इसी प्रकार प्रत्येक जैव-प्रणाली (organism) में यह मन पृथक् पृथक् प्रतीत होता है, वस्तुतः एकमेवोऽद्वितीय होता है। आकाश और असंख्य जलाशयों में प्रतिबिम्बित उसकी भिन्न भिन्न छवियाँ उस आकाश को छूती तक नहीं, और ऐसे प्रत्येक जलाशय में जो आकाश दिखाई देता है वह जल की उपस्थिति से ही होता है। जल के सूखते ही न तो छवि और न वहाँ प्रतीत होनेवाला कोई आकाश दिखाई दे सकता है। किसी भी आधारभूत मन से संबद्ध जैव-प्रणाली में वैसे ही किसी सापेक्ष संसार के होने की मान्यता जागृत होती है, मन के उस अंश में 'स्व' के रूप में मन के उस संसार से जुड़े किसी अस्तित्व का आभास भी, -अर्थात् उस आकाश का प्रतिबिम्ब भी उत्पन्न हो उठता है। यद्यपि संसार क्षण क्षण ही बदलते हुए और सतत ही नए नए रूप में जाना जाता है, 'स्व' का आभास समय से अछूता रहता है और समय  भी मान्यता है इस तथ्य पर किसी का ध्यान नहीं जा पाता है। संसार समय के और समय संसार के सन्दर्भ में तो परस्पर और सापेक्षतः परिवर्तनशील हैं, किन्तु 'स्व' का यह आभास उन दोनों ही की पृष्ठभूमि की तरह साथ रहकर भी अदृश्य, अपरिवर्तनशील वास्तविकता है। 'स्व' का यह आभास भी पुनः संसार के ही साथ साथ प्रकट और विलुप्त होता रहता है और संसार की प्रतीति और 'स्व' के आभास में से किसी एक के न होने की स्थिति में दूसरा भी अस्तित्वमान नहीं हो सकता। इस प्रकार एक साथ, अपरिहार्यतः सह-अस्तित्वमान होना उनके वस्तुतः एक ही सत्य होने की ओर संकेत करता है। उनके उस समान और अन्तर्निहित, अपरिवर्तनशील सत्य को कोई 'स्व' कभी जान ही कैसे सकता है?

इतना लिख लेने के बाद अब लिखने या कहने के लिए और क्या है?

किन्तु फिर भी जब तक उसके 'नोट्स' उपलब्ध हैं, कुछ न कुछ लिखने का बहाना तो होगा ही! 

***


July 24, 2023

All Hype, No hope!

अगला अंश

उसके 'नोट्स' के उपरोक्त अगले अंश का शीर्षक मुझे चौंकाने के लिए काफी था। उसने लिखा था :

"मैं जानता हूँ कि लगभग पचास वर्ष की आयु होते होते मनुष्य के प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य पूर्ण / संपन्न हो जाते हैं और तब प्रकृति स्वयं ही उसे जीवन के अपेक्षतया गहरे और अधिक महत्वपूर्ण प्रयोजनों के आविष्कार करने की दिशा में प्रेरित करने लगती है, विशेष रूप से उन मनुष्यों को, जिन्होंने अपने जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष प्रकृति द्वारा तय किए गए जीवन-क्रम के अनुसार बिताए हों। क्या है वह जीवन-क्रम? सनातन धर्म की शास्त्रीय भाषा में उसे "ब्रह्मचर्य आश्रम" कहा जाता है। इसका सरल अर्थ है - जिसका आचरण ब्रह्म जैसा हो। ब्रह्म स्वयं लिङ्ग-निरपेक्ष (gender irrespective) संज्ञा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ, -अपने जन्म से पच्चीस वर्ष तक की मनुष्य की आयु। शारीरिक दृष्टि से फिर भी स्त्री और पुरुष की स्थित में कुछ अन्तर है। स्त्री चूँकि वंशवृद्धि का माध्यम होती है न कि प्रेरक, इसलिए उसमें आक्रामकता का अभाव होता है, जबकि पुरुष में आक्रामकता प्रकृति से ही उसे प्राप्त होती है। यह आक्रामकता इसलिए भी आवश्यक है ताकि पुरुष अपने वंश और जाति की तथा स्त्री की भी रक्षा कर सके। पशु जीवन में इसलिए प्रकृति से ही प्रतिद्वन्द्विता प्रमुख तत्व होती है और जीवों आदि में यही सक्षम और बलवान के संरक्षण (survival of the fittest) के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष, व्यावहारिक रूप होता है। स्त्री इसलिए स्वभाव से ही विनम्र और उदार होती है ताकि गर्भ धारण कर सके और शिशु को जन्म दे सके, और उसका लालन पालन और संवर्धन कर सके।  प्रकृति से स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना इसलिए स्वाभाविक और सरल होता है। जबकि पुरुष के लिए यह आवश्यक है, कि उसका ध्यान शिक्षा के माध्यम से इस दिशा में प्रेरित किया जाए। इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री हो या पुरुष, किसी को यौन-शिक्षा प्रदान की जाए। इसका सीधा अर्थ यह है कि बालिकाओं को उनकी माता उनके शारीरिक परिवर्तनों के बारे में शिक्षित करे, जबकि पुरुषों को स्वयं उनके पिता ही इन्द्रियों के दमन की और चित्तवृत्तियों के शमन की शिक्षा प्रदान करे। पिता का पुत्र के प्रति मोह होना भी स्वाभावतः सत्य ही है, इसलिए भी बालकों को उनका गुरु आचार्य ही अनुशासन, तप तथा स्वाध्याय की शिक्षा प्रदान करे। आठ से बारह वर्ष तक की आयु के बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है और वह भी केवल त्रिवर्ण में उत्पन्न बालकों का ही। प्रकृति-प्रदत्त वर्ण भी तीन ही हैं और प्रथमतः जाति (वंश या जन्म) के ही आधार पर ही क्रमशः आठ, दस और बारह वर्ष तक के बालकों का यह संस्कार किया जाता है। किन्तु जैसे किसी नियम या सिद्धान्त की वैधता को प्रमाणित किए जाने के लिए अनेक प्रकार से उसकी सत्यता सिद्ध और स्थापित की जानी होती है, जबकि असत्यता सिद्ध करने के लिए केवल एक ही उदाहरण पर्याप्त होता है, उसी तरह वैदिक परंपरा में एक अद्भुत उदाहरण हम सत्यकाम जाबाल की कथा के रूप में उपनिषदों में देख सकते हैं। सत्यकाम जब गुरु के पास ब्रह्मचर्य-दीक्षा के लिए पहुँचा, तो गुरु ने उससे उसके पिता के विषय में उससे प्रश्न किया कि उसके पिता का क्या नाम और गोत्र है? तब सत्यकाम ने उत्तर दिया : मुझे अपने पिता के बारे में कुछ नहीं पता है, मैं अपने बचपन से ही अपनी माता को ही जानता हूँ। तब ऋषि जाबाल ने उससे कहा कि वह माता से पूछे और इस बारे में बतलाए कि उसके पिता का क्या नाम और गोत्र आदि है। जब उस बालक सत्यकाम ने माता से इस विषय में पूछा, तो वह बोली : "तुम्हारे पिता अर्थात् मेरे पति की मृत्यु जब हुई थी, उस समय तक तो तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था, तब तुम गर्भ में थे और मैंने बहुत से घरों में कार्य करते हुए तुम्हारा लालन पालन और पोषण किया। इसलिए मुझे भी नहीं पता कि तुम्हारे और तुम्हारे पिता का गोत्र और वर्ण क्या है।"

बालक सत्यकाम ने लौटकर गुरु जाबाल से यह कहा। जाबाल ऋषि ने तब उससे कहा : तुम और तुम्हारी माता सत्यवादी हैं, और तुम सत्य की प्राप्ति की कामना से ही  प्रेरित होकर इसीलिए मेरे पास आए हो, सत्य और ब्रह्म एक ही वस्तु के पर्याय हैं इसलिए तुम अवश्य ब्राह्मण ही हो। जो भी सत्यवादी होता है और जिसमें भी सत्य की प्राप्ति की कामना होती है, वह किसी भी वर्ण या वंश में उत्पन्न हुआ हो, ब्राह्मण ही होता है।

मुझे यह कहने में संकोच या लज्जा नहीं है कि यद्यपि मेरा जन्म ब्राह्मण कुल, गोत्र और वंश में हुआ था, और मेरा यज्ञोपवीत संस्कार भी विधिपूर्वक संपन्न हुआ था, फिर भी प्रमादवश ही मैं कुसंगति में पड़ गया और उससे पड़े प्रभाव में वर्तमान शिक्षा प्रणाली में व्याप्त बौद्धिकता से मोहित होकर इस सच्चाई से आँखें मूँदे रहा। अवश्य ही इसके लिए दोषी भी मैं स्वयं ही हूँ।

उस पत्थर फेंकनेवाले ने ही मुझे मेरी इस प्रमाद-निद्रा को दूर किया तब तक मैं उम्र के पचपन पड़ाव पार कर चुका था। अगर वह मुझे सचेत न करता तो मेरा सर्वनाश तय था। अपने दुर्भाग्य के लिए मुझे पश्चात्ताप तो हुआ किन्तु इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि अब मुझे आगे क्या करना होगा। जानता हूँ कि संन्यास का मार्ग भी दो निष्ठाओं के अनुसार प्रधानतः हर किसी के लिए उनमें से कोई एक ही होता है, इसलिए संकल्प और संशय में झूलता मेरा मन स्थिर हो गया और तब यह निश्चय हुआ कि चूँकि संकल्प भी वृत्ति ही है इसलिए मैं निपट असहाय ही हूँ।संकल्प और संशय से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मेरे लिए यह मेरा सौभाग्य ही था कि वह व्यक्ति मेरे प्रमाद और मोहनिद्रा से जिसने मुझे अनायास ही जगाया था, उससे ही मैं आगे मार्गदर्शन प्राप्त करूँ।"

वह आगे लिखता है :

"मेरी स्थिति --

All Hype No Hope

'A H N H Disorder'

का ज्वलन्त उदाहरण था!  

***

July 23, 2023

उसके 'नोट्स'

श्रद्धा त्रिविधा भवति 

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उसके 'नोट्स' पढ़ते हुए याद आया, वह कितना निश्छल था। वह महत्वाकाँक्षी भी अवश्य ही था, महत्त्वाकाँक्षा का जन्म उसमें स्वार्थबुद्धि के कारण नहीं बल्कि सिर्फ इसलिए हुआ था, क्योंकि वह आदर्शवादी भी था, और उसकी यह महत्त्वाकाँक्षा मूलतः उसके आदर्शों से उत्पन्न हुई सिद्धान्तवादिता का ही परिणाम थी।

वह पूछ रहा था : "क्या आदर्शवादी होना गलत है?"

क्या आदर्शवादी होने का अर्थ यही नहीं है कि मन "जो है", उसे जाने और समझे बिना ही उसका मूल्याँकन कर रहा है, उसके औचित्य और अनौचित्य को तय कर रहा है, और स्मृति के आधार पर, -जो होना चाहिए, उसका आग्रह कर रहा है?

वह बहुत देर तक चुप रहा। वह मेरी बातें सुन तो रहा था किन्तु बहुत सावधान भी था कि मेरी बातों का प्रत्युत्तर कहीं वह स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया से न देने लगे। वह बहुत शान्तचित्त था। खिड़की से बाहर, शाम की धूप वृक्षों की फ़ुनगियों पर सोना उँडेल रही थी। पर "सोना उँडेल रही थी" ऐसा कहना भी तो "जो है" उस पर एक टिप्पणी ही तो है! लगता है शायद इसीलिए कहा जाता है :

"All art is imitation."

ऐसा करना, "जो है" उसका वर्णन करते हुए एक सीमा तक तो उसे व्यक्त और प्रतिबिम्बित भी कर सकता है, किन्तु इस तरह "जो है" उससे अलंघ्य दूरी भी बना लेता है, क्योंकि "जो है" अकथ्य, अनिर्वचनीय है, और भाषा की परिसीमा में नहीं बँध सकता।

"क्या आदर्शवाद श्रद्धा ही नहीं होता?"

"क्या सत्य की प्राप्ति के लिए श्रद्धा का होना आवश्यक नहीं है?"

"सत्य क्या कोई नवीन वस्तु है, जिसकी प्राप्ति की जाना है? क्या असत्य का निवारण और निराकरण ही, सत्य के उद्घाटन के लिए पर्याप्त नहीं होता?"

वह फिर लंबे समय तक चुप रहा।

"लगता है कि "विचार", कितना भी श्रेष्ठ क्यों न हो, सत्य को तत्क्षण ही आवरित कर लेता है, उसके सहज दर्शन में अवरोध बन जाता है, जबकि स्मृति से उत्पन्न किसी भी विचार-मात्र से नितान्त रहित, ध्यानपूर्ण अवधान /  (attention), - "जो है" का मूल्याँकन न करते हुए ही अनायास उसे जान लेता है। जाहिर है कि यह "जानना" कोई बौद्धिक जानकारी नहीं, बल्कि सत्य का, अर्थात्  - "जो है" का नित नवीन आविष्कार है।

श्रद्धा भी विचार की ही उत्पत्ति है। विचार ही आदर्शों को परिभाषित, स्थापित करता है और मनुष्य अपने आपको (या अपनी कल्पित स्व-प्रतिमा) को आदर्शों के अनुरूप किसी मानसिक छवि में ढालने का यत्न करने में संलग्न हो जाता है।"

मुझे याद आया :

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो योत्रयच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

(अध्याय १७)

श्रद्धा इसलिए तीन प्रकार की - सात्विक, राजसिक और तामसिक होती है :

त्रैगुण्यविषयावेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन।।

निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।४५।।

(अध्याय २)

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July 21, 2023

विचार, एक भूल

कविता / 21-07-2023

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July 20, 2023

सृष्टिकर्ता ब्रह्मा

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।

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'नोट्स' 5, 6 क्रमशः 

'निर्वेद' दशा में यह स्पष्ट होता है कि निर्विषय चेतना में दृक्-दृश्य भेद विलीन हो जाता है। इसी 'निर्वेद' दशा में अहं-स्फुरणा के रूप में कोई वृत्ति स्फुरित होती है और वह तत्क्षण ही अस्तित्व के भान से रूपान्तरित हो जाती  है। तब यही स्फुरणा 'अहं-वृत्ति' का रूप लेकर कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व के अभिमान से सृष्टि का कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होती है। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, भोक्ता रुद्र और स्वामी विष्णु यही सृष्टा के ये तीनों रूप हैं। जबकि परमात्मा और उसका परम धाम इस सबसे ऊपर है जिसे प्राप्त कर लेने के बाद पुनः सृष्टि में लौटना नहीं होता।

जब तक मनुष्य / पुरुष में दूसरों से भिन्न अपना स्वतंत्र और पृथक् अस्तित्व होने की कल्पना होती है, तब तक वह पुराने शरीरों को त्याग कर पुनः पुनः नए नए शरीरों में जन्म लेता रहता है और अपने कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने के आभास को ही सत्य की तरह मान लिया करता है। जब उसे 'निर्वेद' दशा का साक्षात्कार हो जाता है तो पुरुष, ब्रह्मा रुद्र और विष्णु इन उपाधियों को त्याग देता है, अर्थात् उसकी कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व, और स्वामित्व बुद्धि विलीन हो जाती है। और इसी पुरुष का उल्लेख वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग ८७ में 'इल' नामक महापराक्रमी धर्मपरायण चक्रवर्ती राजा के रूप में किया गया है जो राक्षसों, दैत्यों, असुरों, गन्धर्वों, यक्षों, किन्नरों, नाग आदि जातियों का एकमात्र 'परमेश्वर' था, जिससे वे सभी अत्यन्त भयभीत थे, इसलिए उसकी पूजा करते थे।

आब्रह्म से अब्राहम / इब्राहिम की समानता स्पष्ट है। इसी प्रकार अस्मि इल से इस्माइल की समानता भी दृष्टव्य है। इसलिए अब्राहम (वेदवर्णित पुरुष) प्रथम पैगम्बर था यह भी स्पष्ट है। पुरुषो एव इदं सर्वं यत्किञ्चित् अभूत् इति।

'आदम' भी 'आत्म' शब्द का अपभ्रंश / सजात / सज्ञात / cognate है, यह भी स्पष्ट है। 

फिर भी एक महत्वपूर्ण उद्धरण यह भी उल्लेखनीय है :

"I am before Abraham"

बाइबिल-प्रेमी संभवतः सहमत होंगे।

अब्राहम ही यहूदी परंपरा का संस्थापक पैगम्बर है, और अब्राहम का बेटा है, -इस्माइल। इसे वेद और उपनिषद् की शिक्षाओं के आधार पर भी समझा जा सकता है।  यह इस्माइल ही वह 'अहं-वृत्ति' है इल / पुरुष / अब्राहम जिसे परमेश्वर के प्रति समर्पित कर देता है और इस तरह से परमेश्वर से अपनी अनन्यता का साक्षात्कार कर लेता है। पुनः इल ही इला के रूप में पुरुष होते हुए भी स्त्री भी हो जाता है। इलावर्त की कथा में इसका भी उल्लेख है। यही इल इला होकर बुध के संपर्क में आता है जिससे द्विलिंगीय सृष्टि होती है। जैन धर्म के आचार्य ऐलाचार्य इसीलिए कहलाता हैं क्योंकि जैन और बुद्ध नास्तिक हैं और इस दृष्टि से उनमें बहुत सी समानताएँ भी हैं।

कठोपनिषद् में वर्णित नचिकेता वाजश्रवा उशना का पुत्र है, जिसे यम / मृत्यु के प्रति दान में दे दिया जाता है। ये सभी तथ्य इस बारे में युक्तिसंगत हैं कि उशना शुक्राचार्य का ही नाम है, जिनके अन्य नाम उशना और भार्गव तथा कौशिक भी हैं। सभी पाश्चात्य और विशेष रूप से ग्रीक संस्कृति, भाषा और इतिहास में प्रासंगिक हैं। शुक्राचार्य दैत्यों (Dutch / Deutsche) के आचार्य हैं। क्या ये समानताएँ संयोग-मात्र हैं?

जब मैंने यह सब जाना तो मुझे इस बारे में संशय नहीं रहा कि तीनों अब्राहमिक परंपराओं का मूल वह वैदिक धर्म / ही है जिसे कि सनातन धर्म भी कहा जाता है।

"हातिमताई" के बहाने उसने कुछ रोचक सत्य ही प्रस्तुत किया है!  

उस पत्थर फेंकनेवाले के स्वाध्याय ब्लॉग्स में भी मैंने यह सब पढ़ा था और मैं उसकी विलक्षण प्रतिभा का कायल हो गया। उसने तो अरबी भाषा की संरचना के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है लेकिन वह मुझे अनावश्यक प्रतीत हुआ क्योंकि मैं उस सब विवाद में पड़ना नहीं चाहता। इसका कारण स्पष्ट ही है कि यह एक बहुत संवेदनशील विषय है। विशेष रूप से उसने Angel का उद्भव अंगिरा / अंगिरस् से होने और इसी तरह Anglo-Saxon का अंगिरा शैक्षं से होने के बारे में भी बहुत कुछ लिखा है। संस्कृत 'पार्षद' से फारसी 'फ़रिश्तः' की समानता और इस अर्थ में Angel 'ऋषि' के तुल्य होने पर भी ध्यान  आकर्षित किया है। जाबाल / जाबालि ऋषि  Gabriel   Angel की समानता भी रोचक है। यही वे एन्जिल हैं, जिनका संपर्क तीनों अब्राहमिक परंपराओं के संस्थापकों से था। इन सब सूत्रों का उल्लेख शायद हमारे समय की तमाम विडम्बनाओं को समझने और सुलझाने में मदद दे सकता है, लेकिन वह सब मेरे सोचने का विषय नहीं है। 

मैं तो सिर्फ इस बिन्दु पर हूँ जहाँ किंकर्तव्यविमूढ नहीं हो सकता, क्योंकि 'किंकर्तव्यविमूढ' होना, यह भी स्वयं के स्वतंत्र कर्ता होने की मान्यता का ही परिणाम है। कर्तृत्व की इस कल्पना के विलीन होते ही 'मैं क्या करूँ?' और 'मैं यह करूँ या वह करूँ' यह प्रश्न ही व्यर्थ हो जाता है। फिर इसका उत्तर भी श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय में और अंतिम अठारहवें अध्याय में भी  :

"न योत्स्य"...

के प्रयोग से दिया गया है :

अध्याय 2 

सञ्जय उवाच :

एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।। 

न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह।।९।।

तथा,

अध्याय 18 

यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।।

मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति।।५९।। 

से प्राप्त हो जाता है।

और अध्याय 3 

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।

अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।

से भी इसे ही स्पष्ट किया गया है।

इन 'नोट्स' में यहीं तक। 

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पढ़ते पढ़ते मैं सन्न रह गया। यह भी नहीं सोच सका कि उस पत्रकार से क्या कह सकूँगा।

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July 19, 2023

नियति और प्रारब्ध

'नोट्स'  3 और 4

जिसे मैं 'निर्वेद' समझ रहा हूँ, उस दशा का साक्षात्कार हो जाने के बाद भी संसार के सन्दर्भ में 'मन' / व्यक्ति के रूप में होने के अपने सीमित अस्तित्व का आभास बुद्धि का आश्रय लेकर नई नई कल्पनाएँ सृजित करते रहने से पीछे नहीं हटा और पुनः पुनः अपने स्वयं के, संसार और संसार से अपने संबंध के बारे में बहुत सी, स्मृतियों और धारणाओं की सत्यता पर प्रश्न तक उठाने से बचता रहा।

जैसे प्रारब्ध और नियति की कल्पना या अवधारणा, जो मूलतः इस दृष्टि से भ्रामक है कि इनमें से प्रथम (प्रारब्ध) को 'कर्म' की तरह परिभाषित और स्वीकार किया जाता है, जबकि नियति को घटना-विशेष। और 'कर्म' भी पुनः 'कर्ता' की ही तरह क्या केवल एक वैचारिक / बौद्धिक कल्पना ही नहीं है? किसी व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में उसके कर्म को उसका 'संचित कर्म' कहा जाता है, 'प्रारब्ध' या क्रियमाण वह कर्म है जो 'संचित कर्म' के फल के रूप में वर्तमान में व्यक्ति को प्राप्त हो रहा है, और कर्तृत्व-बुद्धि होने पर वह इस समय किए जानेवाले किसी भी कर्म की प्रेरणा भी बन जाता है, कर्तृत्व बुद्धि को ही व्यक्ति-विशेष का 'संस्कार' भी कह सकते हैं।

बुद्धि से मोहित (one who is identified with intellect) मनुष्य में अपने आप के स्वतंत्र कर्ता होने की कल्पना उठती है, जिससे नियंत्रित और परिचालित होकर वह उस कर्म के कल्पित परिणाम को सुखप्रद या दुःखप्रद भी मान लेता है, फिर भी अनुभव से भी स्पष्ट है कि कर्म और उससे प्राप्त होनेवाले उसके फल के बीच  कार्य-कारण का सिद्धान्त कभी लागू होता है, पर सदा ही ऐसा नहीं होता। जब किसी कर्म को किया जाता है, उस समय उसके जिस परिणाम की प्राप्ति की आशा की जाती है, उससे भिन्न और विपरीत, बिलकुल अनपेक्षित भी कोई परिणाम कभी कभी मिल जाता है। इस विषय में कुछ सुनिश्चित नहीं हो सकता। आगामी या भावी कर्म संचित और क्रियमाण के संयुक्त फल का रूप होता है।

नियति वह है जो किसी अंतिम परिणाम की द्योतक होती है। प्रारब्ध व्यक्ति-विशेष की स्मृति में स्थित उसका भाग्य होता है, जबकि नियति समष्टि घटनाक्रम।

नीयते या यत्र च नियतीति।।

यद्यपि समष्टि घटना का कोई साक्षी भी नहीं है और कोई मनुष्य ही इसकी कल्पना करता है, व्यक्ति की स्मृति के सन्दर्भ में स्मृति के साक्षी का अस्तित्व तो स्वतःप्रमाणित वास्तविकता ही है।

स्मृति और इसकी तरह की सभी अन्य वृत्तियों के किसी साक्षी का अस्तित्व भी इसी प्रकार स्वतःसिद्ध ही है, यही 'अहंकार' अर्थात् 'अहं-वृत्ति' का भी साक्षी है। 'अहं वृत्ति' भी जो समस्त अन्य वृत्तियों में विद्यमान वृत्ति है फिर भी यह एक आभास है।

उपदेश सार के अनुसार :

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।।

वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः।।

और विवेक चूडामणि के अनुसार :

अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः।।

अवस्था-त्रय साक्षी सन् पञ्च-कोषविलक्षणः।।१२५।।

साक्षी के सन्दर्भ में न तो कर्म, न कर्ता, और न कर्मफल जैसी कोई वस्तु हो सकती है।

अहं-स्फूर्ति (चित् / चैतन्य) के ही चित्त / अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प के रूप में बदलते ही मनुष्य में स्वयं अपने आपके दूसरों से भिन्न होने की, एक विशिष्ट और स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना जन्म लेती है, श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के अनुसार :

नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैवं दहति पावकः।।

न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।२३।।

अच्छेद्योऽयमदाह्ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।।

नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।२४।।

अव्यक्तोऽयमचिन्त्योयमविकार्योऽयमुच्यते।।

तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२५।।

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे ध्रुवम्।।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मत्स्य च।।

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।

इन 'नोट्स' को लिखने का प्रयोजन यही कि इस प्रकार मेरा आध्यात्मिक अनुसंधान अनवरत चलता रहे।

***



July 18, 2023

सम्यक् निष्ठा

निष्ठाएँ और विवेक 

सफलता के मद (नशे) में चूर मैं तब तक आगे बढ़ता रहा जब तक कि रास्ते के पत्थरों से ठोकरें खाकर और काँटों से मेरे दोनों पैर छिलकर लहूलुहान नहीं हो गए। 

उसी रास्ते पर उस पत्थर ने भी मेरा स्वागत किया जिसने मेरे काँच के महल पर आघात किया था। मेरा वह काँच का महल जब ध्वस्त हो चुका तो मेरा ध्यान पत्थर फेंकने वाले पर गया और मन में प्रतिशोध की ज्वाला भड़कने लगी। युगों जैसी लंबी एक पूरी रात भर मैं व्याकुल रहा। सुबह होने से जरा पहले नींद आ गई और मन से सारा मैल आँखों की राह बहकर निकल गया। दूसरे ही दिन मैं उससे मिलने गया। वह एक भला और सज्जन मनुष्य या कहें तो सन्त-पुरुष था। किन्तु जीवन भर जिन बहुत से सन्तों और धार्मिक व्यक्तियों से मैं अब तक मिला था उन सबसे इस अर्थ में बहुत अलग था कि अध्यात्म, ईश्वर या गुरु जैसे शब्दों का प्रयोग शायद ही कभी उसके मुँह से मैंने सुना हो।

पहली मुलाकात के लिए, बहाने से मैंने उसे अपने शिक्षा संस्थान में नौकरी देने का प्रलोभन दिया था। मुझे उसकी शैक्षिक योग्यता का अनुमान भी लगाना था। क्योंकि उस पर मैं एकाएक भरोसा भी नहीं कर सकता था। यह भी हो सकता था कि अनेक तथाकथित महान ज्ञानियों और विद्वानों की तरह वह भी कोरा बौद्धिक पण्डित भर हो। किन्तु पहले उसने मेरे उस संस्थान और वहाँ की शिक्षा प्रणाली का अवलोकन करना चाहा, जिसे मैंने भी खुशी खुशी स्वीकार कर लिया।

उसकी प्रतिक्रिया जानकर मैं सन्न रह गया। मेरे पैरों तले की धरती खिसक गई। फिर मुझे यह स्पष्ट हो गया, इसी बहाने से मेरा भाग्य मुझ पर मुस्कुराने जा रहा था। फिर मैंने तय किया, इससे मुझे बहुत कुछ सीखना है। तो मैंने उससे मिलना ठान लिया। उसने मुझे नहीं छोड़ा तो मैं भी अब उसे नहीं छोड़ूँगा। मन ही मन यह निश्चय कर लिया।

"मेरा मार्ग क्या है?"

उससे मिलते ही मैंने सवाल दागा।

"कहाँ जाना है आपको?"

"गीता में परम श्रेयस् की प्राप्ति के लिए दो ही प्रकार की निष्ठाओं का उल्लेख किया गया है। एक तो सांख्यनिष्ठा, दूसरा निष्काम कर्म करते हुए अपना सब कुछ ईश्वरार्पित कर देना। मेरे लिए कौन सा ठीक है?"

"दोनों ही मार्गों पर चलकर एक ही फल प्राप्त होता है, किन्तु दोनों ही मार्गों पर चलने का सामर्थ्य बुद्धि से नहीं, विवेक के जागृत होने पर ही होता है। और विवेक के भी क्रमशः दो रूप होते हैं :

बुद्धि के प्रयोग से नित्य और अनित्य के भेद को जानना, और इस प्रकार से जानने के बाद 'सत्' और 'असत्' के भेद पर ध्यान देना।

सत् "जो है।" -- "What Is",

असत् "जो प्रतीत होता है।" -- "What appears and subsequently disappears".

नित्य और अनित्य के भेद को तो रुचि होने पर बच्चा भी समझ सकता है किन्तु 'सत्' और 'असत्' के भेद को तो  सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर ही समझा जा सकता है। जो कि संसार के प्रति अत्यंत और दृढ वैराग्य हो जाने के बाद ही संभव है।"

"संसार के प्रति ऐसा वैराग्य किस प्रकार से जागृत किया जा सकता है?"

"चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से।"

"विस्तार से बताइये!"

"जैसा पहले कहा, नित्य और अनित्य के भेद को तो एक बच्चा भी जानता है, किन्तु वह 'जानना' बौद्धिक समझ है। इस भेद पर निरंतर चिन्तन करना और यह जान लेना कि समस्त दृश्य पदार्थ जड और अनित्य हैं, जबकि उन्हें जाननेवाला दृष्टा 'चेतन' अर्थात् चित् / चित्त स्वप्रमाणित है और जो कि अपना प्रमाण भी स्वयं है, यही नित्य है। यही सूक्ष्म बुद्धि है। किन्तु इसी सूक्ष्म बुद्धि के शुद्ध और एकाग्र होने पर जो प्रकाश बुद्धि में फैलता है वह विवेक है।"

मुझे पातञ्जल योगसूत्र साधनपाद याद आया :

योगाङ्गानुष्ठादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः।।२८।।

और मैंने तुरन्त ही उत्साहपूर्वक इस योगसूत्र का उल्लेख उसके समक्ष कर दिया।

उसने मेरा उत्साहवर्धन करते हुए कहा :

"हाँ, पातञ्जल योगदर्शन के संदर्भ में ऐसा कह सकते हैं कि धारणा, ध्यान और समाधि के माध्यम से किसी वृत्ति के निरोध परिणाम, एकाग्रता परिणाम, समाधि परिणाम के सिद्ध होने पर,

"त्रयमेकत्र संयमः।।४।।"

(विभूतिपाद) 

के अनुसार चिन्तन, मनन और निदिध्यासन के संयुक्त हो जाने पर यही दोषरहित बुद्धि, विवेक-ख्याति के रूप में प्रकट हो उठती है।"

यह सुनते ही मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। मुझे स्वयं की अपनी निष्ठा की परीक्षा करने का अवसर अनायास ही मिल गया।

क्योंकि जिसे मैं "निर्वेद" की तरह समझ रहा था, उसकी वास्तविकता मुझ पर प्रकट हो चुकी थी। बुद्धि में स्थित  "ईश्वर", "मैं" / "आत्मा" और "गुरु" के कल्पित भेद का पूर्णतः निवारण हो चुका था।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २)

***  

   



July 17, 2023

जीवन का उत्स

'नोट्स'  : क्रमशः 3,

"सफलता" का मद क्या है?"

इसे कोई कैसे जान सकता है?

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।२७।।

(अध्याय ७)

श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार प्राणिमात्र जन्म से ही इच्छा और द्वेषरूपी द्वन्द्व और मोहित बुद्धि से युक्त होता है। फिर "मैं" उसका अपवाद कैसे होता?

हाँ कूर्म, कच्छ, वराह, नृसिंह, वामन, भार्गव, राम, कृष्ण-बलराम और कल्कि अवश्य ही अवतार होते हैं इसलिए उनका "अवतरण" होता है न कि "जन्म"। यहाँ "बुद्ध" की गणना नहीं की गई है क्योंकि "बुद्ध" यद्यपि अवतार हो सकते हैं, किन्तु उनके अनुयायी ही इसे स्वीकार नहीं करते। "ब्राह्मण" यद्यपि उन्हें "अवतार" मानते हैं, बौद्ध परंपरा वेद-विरोधी होने से अवतारवाद के "सिद्धान्त" से सहमत नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से "कृष्ण" के ही साथ  "बलराम" को भी "विष्णु" का अवतार माना जाता है। यही दोनों और उनकी बहन सुभद्रा को वैसे ही अवतरित माना जाता है, जैसे राम के साथ लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न  और सीता को भी क्रमशः "विष्णु" और "लक्ष्मी" के ही रूप में "अवतार" माना जाता है। इस दृष्टि से "बलराम" और "बुद्ध" एक दूसरे के विकल्प, और "विष्णु" के नवें "अवतार" हो सकते हैं।

"सफलता" का मद उसी सम्मोह का परिणाम है जो कि मनुष्य में इच्छा तथा द्वेष का कारण होता है। "अवतार" तो विधि के विधान के अनुसार किसी विशेष प्रयोजन के लिए मनुष्य या अन्य आकृति में प्रकट और विलुप्त होते हैं। मैंने भी एक सामान्य मनुष्य की तरह जन्म लिया, तो मैं भला "सम्मोह" से कैसे बच सकता था?

इसलिए मुझे कार्य-कारण के सिद्धान्त की संकीर्णता या मर्यादा का आभास है।

मेरे शीशमहल पर पत्थर फेंककर किसी ने उसे चूर-चूर कर दिया इससे मुझे दुःख तो हुआ, परन्तु खिन्न कदापि नहीं हुआ। उस दुःख के बाद दुःखों से मुक्ति भी हो गई।

जब तक मनुष्य इच्छा और द्वेष से युक्त होता है तब तक वह भाग्य और भाग्य विधाता के हाथों का खिलौना होता है। और इच्छा तथा द्वेष, मोहित बुद्धि की डोर में बाँधकर उसे नियंत्रित और संचालित करते रहते हैं।

भाग्य और भाग्य विधाता, एकमेव वास्तविकता के ही दो पक्ष हैं। किन्तु मोहित बुद्धि से ग्रस्त होने से उन्हें परस्पर  एक दूसरे से अलग मान लिया जाता है।

हर मनुष्य इसी प्रकार से अपना जीवन जीता रहता है। और इतना ही नहीं, यहाँ तक कि "ईश्वर" / "अवतार" स्वयं भी विधि के विधान से संचालित होता है, किन्तु उसके लिए यह लीला या नाटक होता है, जबकि मनुष्य और दूसरे भी सभी जीव अपनी बुद्धि से मोहित होने के कारण अपने आपको अपने संसार में, संसार से पृथक्  उसका ही एक ऐसा अंश मान लेते हैं जिसकी स्वतंत्रता सीमित है। "ईश्वर" और "अवतार" इस मान्यता से रहित होते हैं।

इसलिए "ईश्वर" का इष्ट-रूप में स्मरण, चिन्तन, मनन और प्रणिधान से मनुष्य अन्ततः उससे अपनी अनन्यता को जान लेता है। पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद-२३ :

ईश्वर प्रणिधानाद्वा ।।

में यही कहा गया है।

जब कोई चेतन अस्तित्व जीव-भाव से तादात्म्य कर लेता है और अपने स्वतंत्र कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी होने की बुद्धि को अपने इष्ट "ईश्वर" के प्रति समर्पित कर देता है, तो अनायास ही जन्म मरण के चक्र से छूट जाता है।

इसलिए अध्यात्म के किसी जिज्ञासु के लिए परम श्रेयस् की प्राप्ति के लिए दो ही प्रकार की निष्ठाएँ हो सकती हैं :

लोकेऽस्मिन्द्विधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

मैं इच्छा और संकल्प के द्वन्द्व में झूलता हुआ इस तथ्य को भूल रहा था। यही "सफलता" का मोह और मद था, जिसका उस पत्थर फेंकनेवाले ने निवारण कर दिया।

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July 16, 2023

आशीर्वाद

सफलता का मद

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'नोट्स' -- 2

अपनी बुद्धि और "सफलता" के मद में डूबा हुआ मैं यह नहीं देख पाया कि सफलता भी सामर्थ्य, साधनों, समय और श्रम का परिणाम होती है। इच्छा तो बस एक प्रेरक तत्व है। और इन सबका सम्मिलित रूप है अनुशासन :

यो शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

याद आया। 

मैं कुछ इसी तरह इच्छा और संकल्प के बीच झूल रहा था। तब जीवन में पहली बार अपनी क्षमता, सामर्थ्य, साधनों की अपर्याप्तता और समय की सुनिश्चितता पर  संशय उठा। ईश्वर के बारे में तो मुझे यही लगता था कि वह अपनी सुविधा के लिए तय की गई एक मान्यता भर है, जो उसके अस्तित्व को मानते हैं उनके लिए भी, और जो उसके अस्तित्व को नहीं मानते, उनके लिए भी, और मजे की बात है कि जिन्हें इस बारे में दुविधा है, और तय नहीं कर पाते कि ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करें या नहीं, उनके लिए भी। 

मैं अपने आपको इसी तीसरी कोटि में रखता था। फिर किसी दिन मन में यह प्रश्न कौंधा कि ईश्वर है या नहीं, या मैं इस बारे में संशयग्रस्त हूँ, ऐसे विचारों में उलझे रहने से क्या मैं किसी ठोस नतीजे पर पहुँच सकूँगा! तात्पर्य यह, कि ये तीनों ही विकल्प मूलतः इस प्रश्न से मेरे ध्यान को पूरी तरह से हटा देते हैं कि "ईश्वर" शब्द किस वस्तु का या उसके अर्थ का द्योतक है? ईश्वर शब्द "समय" जैसा ही एक शब्द है और जैसे हम "समय" शब्द का अर्थ या तात्पर्य न जानते हुए भी इस शब्द का बेहिचक प्रयोग करते हैं, क्या उसी तरह से हम "ईश्वर" का अर्थ, तात्पर्य और यह शब्द किस वस्तु का सूचक है, इसे भी न जानते हुए ही प्रयोग नहीं किया करते हैं! शायद मैं अज्ञेयवाद की दिशा में आगे बढ़ रहा था। फिर मुझे लगा, क्या "मैं नहीं जानता" यह कल्पना भी एक विचार या अवधारणा / मान्यता ही नहीं है! एक नया शब्द सीख लेने से मैं मान लेता हूँ कि ईश्वर "अज्ञेय" है और मैं "अज्ञेयवादी" हो जाता हूँ!

इसलिए पहले यह तय करना होगा कि "ईश्वर" शब्द का मेरे लिए क्या अभिप्राय हो सकता है?

जैसा मैंने पहले कहा, "समय" भी तो ऐसा ही एक शब्द है! क्या कभी कोई, समय का अस्तित्व है या नहीं है, इसे जानता या इस बारे में प्रश्न उठाता है?

श्रीमद्भगवद्गीता खोलता हूँ तो एक संकेत मिलता है :

कालो कलयतामहम्।।

तात्पर्य यह कि काल का अस्तित्व आकलन करनेवालों के लिए है। या काल अनुमानजनित एक निष्कर्ष भर है।

फिर लौट कर :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

और, 

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

पर आ जाता हूँ।

इसलिए काल "विकल्प" नामक वृत्ति हुआ।

काल के स्वरूप / चरित्र को दर्शानेवाला एक अन्य सूत्र :

वर्तते इति वर्तमानम्।।

भी है। 

अंततः यही लगता है कि ईश्वर भी काल की ही तरह से अव्याख्येय, अनिर्वचनीय वास्तविकता है। और इस पर एक या अनेक का विशेषण लागू नहीं हो सकता। जैसे कोई भाववाचक संज्ञा होती है, ईश्वर, काल और "मैं" भी abstract noun  ह8ं।

यह सब तो ठीक, किन्तु प्रश्न उठता है कि काल, ईश्वर और "मैं" क्या तीन पृथक् पृथक् वास्तविकताएँ हैं? यदि ऐसा है तो इन तीनों के बीच क्या संबंध है, या हो सकता है?

यहाँ मेरी बुद्धि स्तब्ध हो जाती है और शायद उस दशा का भागी हो जाता हूँ और जिसका श्रीमद्भगवद्गीता में : 

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

इस प्रकार से वर्णन किया गया है, ऐसा मुझे लगता है।

जैसे ही मुझे इस सत्य / स्थिति का साक्षात्कार होता है, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि "काल", "मैं" या "ईश्वर" यद्यपि उसी दशा के पर्यायवाची हैं, फिर भी उन्हें मैं स्व या पर में विभाजित नहीं कर सकता। स्व / पर अर्थात् subjective or objective.

मेरे द्वारा दिए गए जानेवाले ऐसे ही वक्तव्यों के आधार पर लोग मुझे संत, ज्ञानी, महात्मा या गुरूजी आदि जैसे शब्दों से संबोधित करने लगते हैं। किन्तु जब इन विषयों पर बातचीत होती है कि किसी "निष्कर्ष" पर पहुँचने की उम्मीद करते हैं। क्या यह मुमकिन है? 

इस पर भी ऐतराज नहीं है, लेकिन जब लोग इस बहाने से मुझसे "आशीर्वाद" माँगने लगते हैं तो मैं समझ नहीं पाता कि "आशीर्वाद" का क्या मतलब है! जिन्हें यह सब अच्छा लगता है, वे आशीर्वाद का आदान करने के लिए स्वतंत्र हैं और उनसे मेरा कोई विरोध भी नहीं है, किन्तु मेरे लिए यह संभव ही नहीं कि मैं किसी को "आशीर्वाद" कह भी सकूँ! देना तो बहुत दूर है! औपचारिकतावश भी ऐसा करना मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि तब यह भी भावनात्मक शोषण का ही रूप हुआ। और अधिकांश लोग मुझसे सहमत नहीं हो पाते। क्योंकि वे "सफलता" के अभिलाषी होते हैं। पर पता नहीं कि क्या "सफलता" का "आशीर्वाद" से कोई संबंध है भी या नहीं! और फिर इस सिलसिले का अंत कहाँ है! 

इस पोस्ट में तो यहीं तक! 

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July 15, 2023

'नोट्स'

प्रणश्यति  / विनश्यति 

पत्रकार महोदय से परिचय होने के दूसरे ही दिन उन्होंने अपना उद्देश्य प्रकट कर दिया। वे बोले 'सर' वैसे तो आपका नाम लिए बिना ही आपके विचारों की चर्चा हम सबसे किया करते थे और इन विचारों को ही 'नोट्स' में लिख लिया करते थे, जिसे डायरी भी कह सकते हैं। वहाँ भी उन्होंने आपका नाम कहीं नहीं लिखा लेकिन जैसा कि लोगों को और खासकर मुझे पता चला, इसमें संदेह नहीं कि उन विचारों का स्रोत आपकी ही प्रेरणा से उत्पन्न उनका निजि चिन्तन था। चूँकि इसका कोई ठोस प्रमाण भी मेरे पास नहीं है, इसलिए जब आपके बारे में पता चला तो उनके उन 'नोट्स' को संपादित और संशोधित करने का दायित्व मैंने स्वेच्छया स्वीकार कर लिया। और इसलिए इस कार्य में आपसे मदद लेने मैं आपके पास आया हूँ।

पत्रकार महोदय ने उनके 'नोट्स' की फ़ोटोकॉपी की स्पायरल बाइन्डिंग की हुई एक प्रति मुझे देते हुए कहा।

"आप आराम से अपनी सुविधा के अनुसार इसका अवलोकन कीजिए और जरूरत महसूस हो तो अपनी टिप्पणी इस पर ही या अलग से भी दे सकते हैं।"

बस कुल सौ सवा सौ पृष्ठ रहे होंगे, जिन पर तारीख़ भी अंकित नहीं की गई थी।

मैंने एक सरसरी नजर उस पर डाली।  

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'नोट्स' - १

इस नोटबुक के पृष्ठों पर तारीख़ लिखना जरूरी नहीं है, क्योंकि इन 'नोट्स' का कोई विशेष सामयिक सन्दर्भ नहीं हो सकता है। बस एक क्रम अवश्य है पर वह भी एक संयोग ही है। 'नोट्स' को क्रमबद्ध करना भी आवश्यक नहीं है क्योंकि सभी 'नोट्स' की पृष्ठभूमि एक ही होते हुए भी उन्हें परस्पर स्वतंत्र रूप में भी देखा जा सकता है। इन्हें मैं अपनी डायरी की तरह लिख रहा हूँ और इसलिए इन्हें मेरे ही व्यक्तिगत विचार और निष्कर्ष माना जा सकता है। 

मोहभंग :

शिक्षा संस्थान की स्थापना करते समय मैं जिस स्वप्न से मोहित हुआ था, वह शीशे के सुन्दर लेकिन नाज़ुक महल की तरह टूट कर चूर चूर हो चुका है। यद्यपि उसके टुकड़ों से हृदय लहूलुहान भी हुआ पर अच्छा ही लगा कि समय रहते मैं चेत गया। और अपने उद्देश्य के बारे में अब बहुत अलग ढंग से देख पा रहा हूँ। श्रीमद्भगवद्गीता पर मैंने बहुत से विद्वतापूर्ण लेख लिखे हैं किन्तु उस सबकी प्रेरणा सिर्फ स्मृति, स्मृति तथा बुद्धि का प्रशिक्षण ही था और मूल तात्पर्य से मैं अब तक अनभिज्ञ ही था।

यह श्लोक मुझ पर पूरी तरह सही उतरता है :

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति।। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।

मेरे प्रसंग में इस "विनश्यति" के "प्रणश्यति" अर्थ की पुष्टि इस श्लोक से भी होती है :

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।। 

सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।

क्रोधात्भवतिसम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।।

स्मृतिभ्रंशात्बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

मेरे विषय में तो यह पूरा क्रम कुछ ऐसा ही था / है।

मैंने बहुत अच्छी शिक्षा प्राप्त की, मैं मेधावी और प्रतिभाशाली भी था। और शरीर से स्वस्थ, परिवार से समृद्ध और प्रतिष्ठित भी था / हूँ। संसार की सफलताएँ भी मानों मेरे पीछे पीछे ही चलती थीं, और मैं सदैव जीवन में किसी आदर्शपूर्ण उद्देश्य से प्रेरित होकर उसकी प्राप्ति के लिए अपनी संपूर्ण क्षमता, शक्ति और सामर्थ्य झोंक देता था।

राजनीति से मुझे कोई मतलब नहीं था। किसी विचारधारा आदि में मुझे कोई सार्थकता नजर नहीं आती थी। सभी कुछ जैसे एक उपद्रव ही लगा करता था। धार्मिक आयोजनों को तो मैं मुखौटा मानता था और उनके पीछे छिपे वीभत्स चेहरों की सच्चाई से भी भली-भाँति अवगत था। और हमेशा से यही लगता रहा कि धर्म और अध्यात्म खोज की वस्तु है, न कि आँखें मूँदकर नकल करने या कि अनुकरण किए जाने की वस्तु । दिखावा करने की तो कदापि नहीं। 

दर्शनशास्त्र और दर्शन का भेद भी मुझे स्पष्ट था। बुद्धिवाद की मर्यादा और सीमा तो मुझे पातञ्जल योगदर्शन पढ़ते ही समझ में आ गई थी, जहाँ :

"प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।"

और, 

"प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।"

के माध्यम से ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञात के आभासी भेद का पूर्णतः  निवारण / निराकरण कर दिया गया है।

किन्तु मैं स्वयं बुद्धि से मोहित होकर किसी कल्पित "भविष्य" को आदर्श और उद्देश्य के सुन्दर स्वप्न की तरह गले लगा हुए था। मुझे यह स्वप्न इतना मनोहर और आकर्षक लगता था कि इसकी काल्पनिकता पर मुझे संदेह तक नहीं उठता था। ऐसे ही हर मनुष्य ही किसी न किसी स्वप्न में डूबा रहता होगा।

इसका मूल क्या है?  क्या विषयमात्र पर ध्यान दिये जाने से ही यह प्रारंभ नहीं होता? किसी भी विषय पर ध्यान दिए जाते ही वह सुखद या दुःखद प्रतीत होता है। अर्थात् विषय से चित्त के जुड़ते ही उससे संग घटित हो जाता है जिसके बाद संग होने से उसमें प्रतीत होनेवाले सुख की कामना उत्पन्न होती है। कामना के पूर्ण होते ही दूसरा विषय उस विषय का स्थान ले लेता है, या कामना के पूर्ण न हो पाने पर क्रोध उत्पन्न हो जाता है। दोनों ही स्थितियों में बुद्धि सम्मोहित हो जाती है जिससे भले-बुरे, सही और गलत की स्मृति और विवेक-बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। मैं ठीक इसी बिन्दु पर था जहाँ अपने कल्पित आदर्श-रूपी स्वप्न की निरर्थकता और रिक्तता को देख तक नहीं पा रहा था, और तब कहीं से किसी प्रेरणा ने मेरे उस स्वप्न के काँच के महल पर एक पत्थर फेंक दिया।

तब मैं क्रोध से पागल हो उठा और उस पत्थर फेंकनेवाले के लिए मन में भयानक दुर्भावनाएँ उठने लगी। यद्यपि उसके मन में ऐसा कुछ नहीं था। वह तो मुझे जानता तक नहीं था।

उस एक दिन और रात्रि में मैंने युगों युगों की यात्रा कर ली। फिर थक गया और सो गया। सोकर उठा तो लगा मानों मेरा नया ही जन्म हुआ है।

इस 'नोट्स' में यहीं तक। 

***




July 14, 2023

मुझे नहीं पता था!

एक अंत : एक प्रारंभ 

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कि यह अंत एक नया प्रारंभ होगा।

अब वे मुझसे मिलने प्रतिदिन आने लगे। फोन उनके पास भी था और मेरे पास भी था, लेकिन मुझसे फोन पर बात करना वे नहीं चाहते थे। शायद वे यह भी चाहते थे कि उनके मित्रों और 'टीम' के लोगों से मैं भी बातें न करूँ। वैसे भी मैं बहुत ही कम लोगों से फोन पर बातचीत करता था। वह भी आवश्यक होने पर ही। इसलिए हम दोनों के बीच फोन पर कभी बातचीत ही नहीं हुई।

वे अकसर शाम को मेरे घर आया करते थे। और चूँकि उनके घर पर उनसे और उनके परिवार से मिलने के लिए आनेवाले लोग कम न थे, और मैं नितान्त अकेला था, इसलिए भी वे ही मुझसे मिलने आया करते थे। यह थोड़ा विचित्र लगता था कि उन्होंने कभी उनके मित्रों, परिवार या परिचितों के बारे में मुझसे कोई बात कभी नहीं की, लेकिन मेरे बारे में, मेरा नाम लिए बिना ही वे बहुत सी बातें उनके मिलनेवालों से करते रहते थे। उन्होंने ही इसका भी अपना ही एक तरीका खोज लिया था। मुझसे बातें करने के बाद वे उन बातों के 'नोट्स' बनाने लगे थे, और उन पूरे दो तीन वर्षों के 'नोट्स' को उन्होंने बहुत सुरक्षित रखा, जिसकी जानकारी किसी और को नहीं थी। मुझसे मुलाकात होने के दो तीन साल बाद दुर्भाग्यवश उनकी एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई। बहुत दिनों तक वे मुझसे मिलने नहीं आए, तो मुझे फिक्र होने लगी। और चूँकि उन्होंने मेरा किसी से परिचय नहीं कराया था, इसलिए भी मुझे बहुत दिनों बाद ही इस बारे में पता चला।

हुआ यह, कि जिस शिक्षा संस्थान की स्थापना उन्होंने की थी, वहाँ उन्होंने उनके मित्रों और लोगों से शिक्षा प्रणाली से संबंधित मेरी उन बातों की चर्चा मेरा नाम लिए बिना ही की थी, उनमें से ही पत्रकार किस्म के एक आदमी को यह मालूम था कि मुझसे मिलने के लिए वे प्रायः शाम को आया करते थे।

चूँकि वह पत्रकार था, इसलिए मेरे यहाँ अखबार देनेवाले से भी उसकी पहचान थी। और उसी माध्यम से मुझे इस बारे में पता चला।

उनके परिवार के लोग और दूसरे लोग भी उनके उन 'नोट्स' को प्रकाशित करने के बारे में सोच रहे थे और इसलिए भी अचानक मैं उनके लिए महत्वपूर्ण बढ़ गया।

वैसे भी शिक्षा के व्यवसाय और व्यवसाय (प्रबंधन) की शिक्षा के क्षेत्र में वे एक जाना माना नाम थे, और उनकी लिखी कुछ किताबें पहले भी प्रकाशित हुईं थी, इसलिए भी उनके 'नोट्स' का प्रकाशन एकाएक ही एक महत्वपूर्ण, विचाराधीन विषय हो गया।

उनके द्वारा स्थापित उस शिक्षा संस्थान में उस किताब का एक विशेष स्थान हो सकता था। इसलिए भी कुछ लोग इस दिशा में सक्रिय हुए होंगे।

अब वे तो नहीं रहे थे, किन्तु ये पत्रकार महोदय मुझसे मिलने के लिए आने लगे, क्योंकि उन्हें अनुमान हो गया था, या उन्होंने ही उसे मेरे बारे में कोई संकेत या जानकारी दी होगी।

एक छोटी सी बात भी कितनी दूर तक जा सकती है!

***



आमफ़हम

आम के आम, गुठली के दाम!

कविता / १४-०७-२०२३

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आम आदमी तो आम / आप हैं,

आम का मौसम आते ही टिकोरे,

झुकने, झूलने और झूमने लगते हैं,

उत्साह से भरे, बच्चे गिराते हैं उन्हें 

पेड़ पर चढ़ या मारकर पत्थर, 

बड़े तो भून या उबालकर उसको, 

बना लेते हैं "पना", या फिर उसका, 

चटनी, अचार, मुरब्बा या अमचुर,

आम आदमी ही तो आम होता है! 

ख़ास तो वह है, जो कि आम नहीं! 

फिर भी आम को है गलतफहमी,

कि वो ही तो बस खास है कोई,

उसके जैसा न दूर पास कोई!

आप ही अब तय कर लें यह,

आप आम हैं या कि ख़ास हैं,

आपका क्या भरोसा, विश्वास है!

सच ही है कि आम है जब तक,

कोई उम्मीद है,  कोई आस है! 

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July 13, 2023

और, अगले ही दिन

भविष्य या भविष्य की कल्पना! 

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वे अप्रत्याशित रूप से मुझसे मिलने चले आए। 

"क्षमा चाहता हूँ, कल आपसे हुई बातों पर देर तक सोचता रहा। मैं मानता हूँ कि इस शिक्षा संस्थान की स्थापना मैंने सिर्फ इस उद्देश्य से की थी ताकि बच्चों का भविष्य बनाया और सँवारा जा सके, और इसलिए मैंने अपने जैसे विचारोंवालों दोस्तों और दूसरे लोगों को मिलाकर एक टीम बनाई। वास्तव में मुझे इसकी कल्पना तक नहीं थी, कि मुझसे जुड़नेवाले दोस्तों और लोगों की रुचि उस लक्ष्य में कदापि नहीं थी जो कि मेरा सपना था। मैं यह भी मानता हूँ कि मैं स्वयं किसी आदर्शवाद से प्रेरित था। पर कल हुई आपके साथ की बातचीत से यह भी समझ में आ गया कि कोरा आदर्शवाद कितनी बुरी तरह भ्रमित कर देता है। आदर्शवाद के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम भविष्य को तो नहीं, उसके काल्पनिक चित्र को सत्य मान बैठते हैं और उससे बुरी तरह मोहित होकर संसार को सुधारने और बदलने जैसे व्यर्थ कार्य में अपने प्रत्यक्ष वर्तमान (के) सत्य को न सिर्फ तोड़ मरोड़ देते है, बल्कि उस चित्र के आकर्षण में इसलिए भी बँध जाते हैं क्योंकि इस प्रकार से हम अपनी अस्मिता को और  गौरवान्वित कर सकें। यह अस्मिता, जो भीतर के खालीपन की, रिक्तता की भी प्रत्यक्ष वास्तविकता होती है, निरंतर सहारा दिए जाने से ही इतनी ठोस और सत्य जान पड़ती है।

कल की आपकी बातों से पहले तो मुझे बहुत गहरी ठेस लगी, और मन में आपके प्रति दुर्भावनाएँ पैदा होने लगी। रात भर मैं सो भी न सका। लेकिन भोर होने से कुछ पहले आँख लग गई।  भोर में जब उठा तो मन अत्यन्त शान्त था। वैसा ही, जैसा मेरे बचपन में अकसर ही होता था। फिर कल की आपसे हुई बातें याद आईं तो मन में शर्म, ग्लानि और अपराध बोध पैदा हुआ।  फिर भी साहस कर आपसे क्षमा माँगने चला आया ।"

उनका गला रुँध आया था और वे बोल तक नहीं पा रहे थे।

मैंने उनसे क्षमा माँगी तो बोल पड़े :

"अरे अरे! क्या करते हैं! मैं तो आपको धन्यवाद देने आया हूँ। आजकल आपके जैसे लोग कहाँ मिलते हैं। लेकिन मुझे किसी दूसरे से भी कोई शिकायत नहीं है, आखिर कल तक तो मैं भी उनके ही जैसा था न!"

वे दोनों हाथ जोड़कर खड़े हो गए। यह तो अच्छा था कि उनके संस्कार ने ही उन्हें मेरे पैर छूने से रोक रखा था, इस तरह उन्होंने मुझे शर्मिन्दा होने से भी बचा लिया था। 

मैंने भी प्रत्यत्तर में हाथ जोड़ दिए और उन्हें छोडने के लिए गेट तक चला आया।

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फिलहाल यहाँ हूँ!

सड़क पर! 

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यहाँ से पहले उज्जैन में नवंबर 2019 से 2023 के जून माह  तक रहा। इससे भी पहले क़रीब सवा तीन साल तक जहाँ रहा, वहाँ किसी विद्यालय में शिक्षक के पद पर कार्य करने के लिए एक प्रस्ताव मिला था। जिसने प्रस्ताव दिया था विद्यालय उसका ही था, हालाँकि कहने के लिए एक समिति भी थी जिसमें बहुत से अन्य लोग भी थे, जो सभी मिलकर विद्यालय की व्यवस्था की देखरेख करते थे। 

उत्सुकतावश मैंने कहा कि मुझे विद्यालय में पढ़ाने का पहले से कोई अनुभव नहीं है। उन्होंने कहा : कुछ दिन पढ़कर देखिए। अगर आपको ठीक लगे तो ज्वॉइन कर लीजिए।

मैंने कहा : मैं पहले यह देखना चाहूँगा कि अन्य शिक्षक क्या और कैसे पढ़ाते हैं।

पहले दिन मैं उस कक्षा में गया जहाँ शिक्षक अंग्रेजी पढ़ा रहे थे। वह भी हिन्दी माध्यम में। बी ए टी बैट, बैट याने बल्ला, सी ए टी कैट, कैट याने बिल्ली।

फिर मैं दूसरे दिन भी उसी कक्षा में गया जहाँ बच्चों को अंग्रेजी भाषा में गिनती, जोड़ बाकी और टेबल (पहाड़े) की शिक्षा दी जा रही थी।

सभी शिक्षाएँ बच्चों में नैसर्गिक और बालसुलभ उत्सुकता और जिज्ञासा को जागृत करना तो दूर, बल्कि केवल कुंठित कर रही थीं। दूसरे दिन उस व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि वहाँ ज्वॉइन करने के बारे में मेरा क्या विचार है?

मैंने उनसे कहा कि मैं नहीं पढ़ा सकूँगा। वे इसका कारण जानने पर अड़े रहे। अंततः मैंने उससे कहा : मुझे लगता है कि इस पूरी शिक्षा प्रणाली में मौलिक बदलाव किया जाना चाहिए।

"किस प्रकार का बदलाव?"

वे उद्विग्न होकर कुछ अधीरता से बोले। 

"देखिए किसी भी भाषा की शिक्षा उसी भाषा के माध्यम से दी जाना चाहिए। जैसे हिन्दी की शिक्षा हिन्दी भाषा के माध्यम से,  अंग्रेजी भाषा की शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम से और इसी तरह अन्य सभी भाषाओं की शिक्षा भी उस उस भाषा के ही माध्यम से। जब आप कोई भाषा किसी दूसरी भाषा के माध्यम से देते हैं तो बच्चे के मन में "ऐसा क्यों है?" इस प्रश्न को उठने से पहले ही दबा दिया जाता है और यह भी इतना या और भी विचित्र ही है, कि न तो शिक्षक और न ही शिक्षा प्रणाली थोपने वालों को ही इसकी कल्पना तक होती है कि इस प्रकार से बच्चे के मन में अनावश्यक तनाव और असमंजस भी पैदा हो जाता  है, जिस पर न तो उसका और न किसी का और का ध्यान होता है। उसका मन बँट जाता है और वह केवल बाध्यता और दबाव में शिक्षा को दोहराता रहता है। यदि किसी भाषा को सीधे उसी भाषा के माध्यम से सिखाया जाए तो बच्चे का मन अनायास ही इस सच्चाई को स्वीकार कर लेता है कि भिन्न भिन्न भाषाओं की संरचना अलग अलग और एक दूसरे से स्वतन्त्र होती है, जिससे वह दो या दो से अधिक भाषाएँ भी आसानी से सीख सकता है।

यह तो हुई भाषा शिक्षा की बात।

अब गणित की शिक्षा के विषय में :

गणित (जोड़ बाकी) और संख्या की शिक्षा दिए जाने से पहले बच्चे को यह बतलाया जाना चाहिए कि संख्याएँ और संख्याओं का एक दूसरे से संयोजन केवल मान्यता ही है जिसकी सत्यता सुनिश्चित नहीं है इसके लिए यह एक उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा :

मान लीजिए एक टोकरी में तीन आम और दूसरी टोकरी में चार आम हैं। यदि सभी आमों को एक ही टोकरी में रख दिया जाए, तो कुल सात आम होंगे। इस प्रकार एक दृष्टि से जिनकी संख्या सात है, वे ही फल की दृष्टि से "एक" ही हैं।

इसी प्रकार से मान लीजिए एक टोकरी में तीन आम और दूसरी टोकरी में चार सेब हैं, और यदि उन्हें एक ही टोकरी में रख दिया जाए तो संख्या की दृष्टि से तो वे "सात" होंगे, "फल" की दृष्टि से "दो" ही होंगे।

आम और सेब के उपरोक्त उदाहरण से :

एक = दो = तीन = सात 

यह रोचक निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है!

इस प्रकार संख्या की अवधारणा भी उतनी ही भ्रामक हो सकती है, जितनी कि किसी भाषा में किसी शब्द का कोई विशेष अर्थ होने की अवधारणा।"

वे भौंचक होकर मेरा मुँह देखने लगे।

फिर ठहाका लगाकर बोले : "हाँ आप ठीक कहते हैं, इसलिए  आपका और हमारे विद्यालय का, यही सभी के हित इसी में है  कि आप हमारे विद्यालय में न ही पढ़ाएँ! अच्छा हुआ जो पहले से ही आपने यह स्पष्ट कर दिया!

धन्यवाद!"

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July 11, 2023

भूत, भविष्य और स्मृति

वर्तमान का यह क्षण

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मेरा आज का वर्डप्रेस ब्लॉगपोस्ट 

Is There A Future?

संक्षेप में, पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

यही पाँच वृत्तियाँ हैं जिनके निरुद्ध किए जाने के बाद ही योग का अभ्यास प्रारंभ होता है। 

अतः प्रमाण पुनः "वृत्ति" है। वृत्ति ही "मन" है। और जैसा कि श्री रमण महर्षि कृत "उपदेशसारः" में कहा गया है :

वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।। 

वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः।। 

अतीत, "भविष्य" और कल्पित वर्तमान "अनुमान" है।

अतीत, वर्तमान और भविष्य के रूप में जिसे अनुभव किया / या जाना जाता है, वह "काल" जड है, जबकि उसे जाननेवाला चेतन है। काल और स्थान परस्पर अभिन्न हैं, जिनका उद्भव  एक ही स्रोत अविनाशी अक्षर ब्रह्म से होता है:

शिव अथर्वशीर्ष में इसे ही रुद्र कहा जाता है :

अक्षरात्सञ्जायते कालः कालाद्व्यापकः उच्यते भोगायमानो।। व्यापको हि भगवान् रुद्रो यदा शेते रुद्रः संहार्यते प्रजाः।।

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July 09, 2023

Question / प्रश्न 31

प्रश्न  / Question  31

What is Dharma and What is Sanatan Dharma?

धर्म क्या है, और सनातन धर्म क्या है? 

उत्तर  / Answer :

धर्म / Dharma is The Law Universal that maintains, holds to and strictly governs this whole existence everywhere at all times and places for all sentient beings  and insentient things irrespective of the individuals.

धर्म / Dharma is therefore the सत्य / Truth and not subject to speech, because and obviously, the speech / language distorts the essense of Truth to a great extent. Then Truth is lost irretrievably, greatly  and धर्म / Dharma too remains unseen.

Then further determination and decay of धर्म / Dharma takes place, custom and  traditions turn धर्म / Dharma into अधर्म / Adharma and Vidharm / विधर्म and many different and contradicting beliefs and faiths cause chaos and straighten in the human mind and society at large.

At the global scale this results in wars and the wars are forced upon, justified as crusade and jihad.

The three western religions are stark  evidence to this fact.

In comparison, the Religions of the East in unison and coherence speak of what is true धर्म / Dharma, worth the name.

The fundamentals of this धर्म / Dharma or सनातन धर्म / The Sanatana Dharma has been stated already in the beginning of this Answer.

These comprise of :

अहिंसा / ahinsA, सत्य /satya, अस्तेय / asteya, ब्रह्मचर्य / Brahmacharya and the last is -- अपरिग्रह /  aparigraha.

The Treatise on the Yoga of Maharshi Patanjali narrates these very same five cardinal principles and refer to them as यम / Yama सार्वभौम पञ्च महाव्रत meaning the Universal Law, everyone should follow without exception and in no condition to be violated. 

The Hindu, The Buddhists, The Jain, and The Sikh traditions / religions agree to this and that is why they are different forms of the same Sanatana Dharma. Manusmriti however speaks directly in the following words :

सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।।

प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म सनातनः।।

The same is found in the Buddhist text hammapada in the following words :

एस धम्म सनंतन।।

In Sikh Tradition :

एक ओंकार सतनाम।।

Expresses the same sense of :

"What is Dharma?"

Jain too insist that the True धर्म / Dharma is Sanatana Dharma only.

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July 04, 2023

Question 30

Question  30.

प्रश्न 30.

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Lasting Relationships :

Why Relationships don't last? 

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रिश्ते वास्ते कब, कैसे और क्यों ख़त्म हो जाते हैं? 

उत्तर / Answer :

पहले कभी मैंने "अर्थ और प्रयोजन" शीर्षक से एक पोस्ट लिखा था। यहाँ उसी विषय को पुनः

" अर्थ या प्रयोजन"

के सन्दर्भ में लिख रहा हूँ।

प्रयोजन और अर्थ का परस्पर संतुलन और सामञ्जस्य हो तो दोनों एक दूसरे के पर्याय हो जाते हैं। और यदि ऐसा न हो तो दोनों एक दूसरे के विपर्याय हो जाते हैं। परिवर्तनशीलता जीवन का नित्य सत्य है। जीवन इस दृष्टि से सतत द्वैत है। फिर यही द्वन्द्व, दुविधा हो जाता है। कुछ पंक्तियों में :

जीवन से लंबे हैं बन्धू!

ये जीवन के रस्ते!

इक पल रोना होगा, बन्धू, 

इक पल चलना हृषीकेशं, 

ये जीवन के रस्ते!  

राहों से राही का रिश्ता,

कितने जनम पुराना!

एक को आगे जाना होगा, 

एक को पीछे आना!

मोड़ पे रुक मत जाना, 

(बन्धूऽऽऽऽ)

दोराहे पे फँस के!

ये जीवन के रस्ते! 

जीवन से लंबे हैं बन्धू,

ये जीवन के रस्ते! 

जैसे ही जीवन में किसी लक्ष्य, आदर्श या गन्तव्य कक विचार या कल्पना कर ली जाती है, मन अतीत की स्मृति के आधार पर ही ऐसा कर पाता है। इस लक्ष्य, आदर्श या गन्तव्य आदि का विचार उस स्मृति के ही परिप्रेक्ष्य में होता है। अर्थात् यह वर्तमान से सर्वथा विच्छिन्न किसी कल्पित भविष्य का सपना होता है, न कि जीवन का नित्य और वर्तमान सत्य। 

फिर ऐसा ही मन संबंधों के अर्थ और प्रयोजन का चिन्तन करने लगता है। पातञ्जल योगदर्शन के अनुसार स्मृति भी (मन की) अन्य वृत्तियों की तरह मन की एक वृत्ति ही है। स्मृति अतीत है, अर्थात् अतीत का विचार, इसी तरह इस स्मृति के ही प्रारूप में किसी भविष्य का विचार या कल्पना उसी अतीत में लौटना है, जिसकी अति इति हो चुकी है। इस इंद्रियगम्य भौतिक जगत में स्मृति के आधार पर कुछ अकाट्य, अचल नियमों की स्थापना और आविष्कार किया जा सकता है और बौद्धिक दृष्टि से वह सब के लिए सत्य और तर्कसंगत भी है ही, इस पर संदेह नहीं, किन्तु मन नामक वस्तु, जो कि वैयक्तिक जीवन है, जो अनेक भावनाओं और भावदशाओं की सम्मिलित अनुभूति है, उसके बारे में भौतिक विज्ञान कोई तय नियम नहीं खोज सका है।

अतीत ही मन के संदर्भ में समस्त ज्ञात (known) है। अतीत ही संस्कारित मन (conditioned mind) है। संस्कारित मन अभ्यास habit या आदत, पुनरावृत्ति है, जो कि किसी यंत्र के लिए तो आवश्यक है, किन्तु जीवन जो सजगता है, इस जीवन और मन की सजगता, अभ्यास की पुनरावृत्ति से कुंठित होने लगती है, इसलिये मनुष्य जितना अधिक अभ्यस्त (संस्कारित / conditioned) होने लगता है, उतना ही अधिक यांत्रिक भी हो जाता है। खेल खेलना, कार, कंप्यूटर या मोबाइल चलाना तो अवश्य ही अभ्यास पर निर्भर है, किन्तु जैसे जैसे आप इसमें कुशल, दक्ष और प्रवीण हो जाते हैं जीवन से उतने ही अधिक दूर होने लगते हैं। "नयापन" का जो आकर्षण प्रारंभ में होता है वह आगे जाकर बोझिल, निरर्थक और ऊबाऊ लगने लगता है। "तो हम क्या करें" का प्रश्न मन में आते ही हम पुनः उसी दिशा में, और भी अधिक प्रगति, "विकास" या "उन्नति" करने के बारे में सोचने लगते हैं। यह सब एक यांत्रिक चक्र में घूमते रहने की तरह है, और भले ही यह चक्र वृत्तीय (circular) से बदलकर कुन्डली (spiral) की तरह ही क्यों न हो जाए, हम इसे देख या समझ पाने में विफल हो जाते हैं और यह तक नहीं जान पाते हैं  कि त्रुटि कहाँ हुई!

पातञ्जल योगदर्शन इस दृष्टि से अनूठा है कि उसमें अभ्यास के महत्व को रेखांकित किया गया है, और श्रीमद्भगवद्गीता की ही तरह "कर्म"और "कर्ता" की अवधारणा को सत्य "मानकर" उस आधार पर वृत्ति के निरोध, एकाग्रता और समाधि के प्रयोग से "संयम" के द्वारा सिद्धियों की प्राप्ति और व्यर्थता की ओर भी संकेत किया गया है। अन्ततः कैवल्यपाद के अंतिम योग-सूत्र में

"पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति।।"

के माध्यम से पुरुषार्थ (कर्म) तथा गुणों के प्रतिप्रसव को ही कैवल्य अर्थात् चितिशक्ति की स्वरूप में प्रतिष्ठा का पर्याय कहा गया है।

श्रीमद्भगवद्गीता में इसे ही अध्याय ५ में :

यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।

स्पष्ट किया गया है।

अब हम इस प्रश्न पर आएँ, कि रिश्ते कब कैसे और क्यों ख़त्म हो जाते हैं?

स्पष्ट है कि सभी रिश्ते या संबंध द्वैत-मूलक होते हैं और केवल "मान्यता" ही होते हैं। उनकी सत्यता संदिग्ध ही होती है। किन्तु  विचार और विचारकर्ता के संबंध पर ध्यान दें तो यह स्पष्ट होगा कि यह संबंध यद्यपि अत्यन्त घनिष्ठ और स्थायी भी जान पड़ता है, मूलतः एक ही सिक्के के दो पहलुओं की तरह एक दूसरे से अभिन्न होता है। विचारकर्ता विचार का छायाचित्र होता है। जैसा कि सूरज की धूप में हवा से इधर उधर दौड़ते मेघों का धरती पर पड़ती उनकी छाया से होता है।

छाया का अस्तित्व मेघों और सूरज दोनों पर ही निर्भर होता है, ठीक उसी तरह "विचारकर्ता" का अस्तित्व विचार-रूपी मेघों और चेतना रूपी सूर्य के प्रकाश पर आश्रित होता है। छाया की तुलना में मेघ स्थायी होते हैं और मेघों की तुलना में सूरज नित्य। इसलिए सूरज, मेघों और छायाओं का परस्पर संबंध अस्थायी और क्षणिक होता है। यह क्षणिकता कितनी ही अल्प या दीर्घ प्रतीत हो, इसका अन्त अवश्यंभावी है।

यह है समस्त संबंधों की अस्थिरता और अनिश्चितता का रहस्य।

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