July 16, 2023

आशीर्वाद

सफलता का मद

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'नोट्स' -- 2

अपनी बुद्धि और "सफलता" के मद में डूबा हुआ मैं यह नहीं देख पाया कि सफलता भी सामर्थ्य, साधनों, समय और श्रम का परिणाम होती है। इच्छा तो बस एक प्रेरक तत्व है। और इन सबका सम्मिलित रूप है अनुशासन :

यो शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।।

याद आया। 

मैं कुछ इसी तरह इच्छा और संकल्प के बीच झूल रहा था। तब जीवन में पहली बार अपनी क्षमता, सामर्थ्य, साधनों की अपर्याप्तता और समय की सुनिश्चितता पर  संशय उठा। ईश्वर के बारे में तो मुझे यही लगता था कि वह अपनी सुविधा के लिए तय की गई एक मान्यता भर है, जो उसके अस्तित्व को मानते हैं उनके लिए भी, और जो उसके अस्तित्व को नहीं मानते, उनके लिए भी, और मजे की बात है कि जिन्हें इस बारे में दुविधा है, और तय नहीं कर पाते कि ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करें या नहीं, उनके लिए भी। 

मैं अपने आपको इसी तीसरी कोटि में रखता था। फिर किसी दिन मन में यह प्रश्न कौंधा कि ईश्वर है या नहीं, या मैं इस बारे में संशयग्रस्त हूँ, ऐसे विचारों में उलझे रहने से क्या मैं किसी ठोस नतीजे पर पहुँच सकूँगा! तात्पर्य यह, कि ये तीनों ही विकल्प मूलतः इस प्रश्न से मेरे ध्यान को पूरी तरह से हटा देते हैं कि "ईश्वर" शब्द किस वस्तु का या उसके अर्थ का द्योतक है? ईश्वर शब्द "समय" जैसा ही एक शब्द है और जैसे हम "समय" शब्द का अर्थ या तात्पर्य न जानते हुए भी इस शब्द का बेहिचक प्रयोग करते हैं, क्या उसी तरह से हम "ईश्वर" का अर्थ, तात्पर्य और यह शब्द किस वस्तु का सूचक है, इसे भी न जानते हुए ही प्रयोग नहीं किया करते हैं! शायद मैं अज्ञेयवाद की दिशा में आगे बढ़ रहा था। फिर मुझे लगा, क्या "मैं नहीं जानता" यह कल्पना भी एक विचार या अवधारणा / मान्यता ही नहीं है! एक नया शब्द सीख लेने से मैं मान लेता हूँ कि ईश्वर "अज्ञेय" है और मैं "अज्ञेयवादी" हो जाता हूँ!

इसलिए पहले यह तय करना होगा कि "ईश्वर" शब्द का मेरे लिए क्या अभिप्राय हो सकता है?

जैसा मैंने पहले कहा, "समय" भी तो ऐसा ही एक शब्द है! क्या कभी कोई, समय का अस्तित्व है या नहीं है, इसे जानता या इस बारे में प्रश्न उठाता है?

श्रीमद्भगवद्गीता खोलता हूँ तो एक संकेत मिलता है :

कालो कलयतामहम्।।

तात्पर्य यह कि काल का अस्तित्व आकलन करनेवालों के लिए है। या काल अनुमानजनित एक निष्कर्ष भर है।

फिर लौट कर :

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

और, 

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

पर आ जाता हूँ।

इसलिए काल "विकल्प" नामक वृत्ति हुआ।

काल के स्वरूप / चरित्र को दर्शानेवाला एक अन्य सूत्र :

वर्तते इति वर्तमानम्।।

भी है। 

अंततः यही लगता है कि ईश्वर भी काल की ही तरह से अव्याख्येय, अनिर्वचनीय वास्तविकता है। और इस पर एक या अनेक का विशेषण लागू नहीं हो सकता। जैसे कोई भाववाचक संज्ञा होती है, ईश्वर, काल और "मैं" भी abstract noun  ह8ं।

यह सब तो ठीक, किन्तु प्रश्न उठता है कि काल, ईश्वर और "मैं" क्या तीन पृथक् पृथक् वास्तविकताएँ हैं? यदि ऐसा है तो इन तीनों के बीच क्या संबंध है, या हो सकता है?

यहाँ मेरी बुद्धि स्तब्ध हो जाती है और शायद उस दशा का भागी हो जाता हूँ और जिसका श्रीमद्भगवद्गीता में : 

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।

इस प्रकार से वर्णन किया गया है, ऐसा मुझे लगता है।

जैसे ही मुझे इस सत्य / स्थिति का साक्षात्कार होता है, यह भी स्पष्ट हो जाता है कि "काल", "मैं" या "ईश्वर" यद्यपि उसी दशा के पर्यायवाची हैं, फिर भी उन्हें मैं स्व या पर में विभाजित नहीं कर सकता। स्व / पर अर्थात् subjective or objective.

मेरे द्वारा दिए गए जानेवाले ऐसे ही वक्तव्यों के आधार पर लोग मुझे संत, ज्ञानी, महात्मा या गुरूजी आदि जैसे शब्दों से संबोधित करने लगते हैं। किन्तु जब इन विषयों पर बातचीत होती है कि किसी "निष्कर्ष" पर पहुँचने की उम्मीद करते हैं। क्या यह मुमकिन है? 

इस पर भी ऐतराज नहीं है, लेकिन जब लोग इस बहाने से मुझसे "आशीर्वाद" माँगने लगते हैं तो मैं समझ नहीं पाता कि "आशीर्वाद" का क्या मतलब है! जिन्हें यह सब अच्छा लगता है, वे आशीर्वाद का आदान करने के लिए स्वतंत्र हैं और उनसे मेरा कोई विरोध भी नहीं है, किन्तु मेरे लिए यह संभव ही नहीं कि मैं किसी को "आशीर्वाद" कह भी सकूँ! देना तो बहुत दूर है! औपचारिकतावश भी ऐसा करना मुझे अच्छा नहीं लगता। क्योंकि तब यह भी भावनात्मक शोषण का ही रूप हुआ। और अधिकांश लोग मुझसे सहमत नहीं हो पाते। क्योंकि वे "सफलता" के अभिलाषी होते हैं। पर पता नहीं कि क्या "सफलता" का "आशीर्वाद" से कोई संबंध है भी या नहीं! और फिर इस सिलसिले का अंत कहाँ है! 

इस पोस्ट में तो यहीं तक! 

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