'नोट्स' 3 और 4
जिसे मैं 'निर्वेद' समझ रहा हूँ, उस दशा का साक्षात्कार हो जाने के बाद भी संसार के सन्दर्भ में 'मन' / व्यक्ति के रूप में होने के अपने सीमित अस्तित्व का आभास बुद्धि का आश्रय लेकर नई नई कल्पनाएँ सृजित करते रहने से पीछे नहीं हटा और पुनः पुनः अपने स्वयं के, संसार और संसार से अपने संबंध के बारे में बहुत सी, स्मृतियों और धारणाओं की सत्यता पर प्रश्न तक उठाने से बचता रहा।
जैसे प्रारब्ध और नियति की कल्पना या अवधारणा, जो मूलतः इस दृष्टि से भ्रामक है कि इनमें से प्रथम (प्रारब्ध) को 'कर्म' की तरह परिभाषित और स्वीकार किया जाता है, जबकि नियति को घटना-विशेष। और 'कर्म' भी पुनः 'कर्ता' की ही तरह क्या केवल एक वैचारिक / बौद्धिक कल्पना ही नहीं है? किसी व्यक्ति के परिप्रेक्ष्य में उसके कर्म को उसका 'संचित कर्म' कहा जाता है, 'प्रारब्ध' या क्रियमाण वह कर्म है जो 'संचित कर्म' के फल के रूप में वर्तमान में व्यक्ति को प्राप्त हो रहा है, और कर्तृत्व-बुद्धि होने पर वह इस समय किए जानेवाले किसी भी कर्म की प्रेरणा भी बन जाता है, कर्तृत्व बुद्धि को ही व्यक्ति-विशेष का 'संस्कार' भी कह सकते हैं।
बुद्धि से मोहित (one who is identified with intellect) मनुष्य में अपने आप के स्वतंत्र कर्ता होने की कल्पना उठती है, जिससे नियंत्रित और परिचालित होकर वह उस कर्म के कल्पित परिणाम को सुखप्रद या दुःखप्रद भी मान लेता है, फिर भी अनुभव से भी स्पष्ट है कि कर्म और उससे प्राप्त होनेवाले उसके फल के बीच कार्य-कारण का सिद्धान्त कभी लागू होता है, पर सदा ही ऐसा नहीं होता। जब किसी कर्म को किया जाता है, उस समय उसके जिस परिणाम की प्राप्ति की आशा की जाती है, उससे भिन्न और विपरीत, बिलकुल अनपेक्षित भी कोई परिणाम कभी कभी मिल जाता है। इस विषय में कुछ सुनिश्चित नहीं हो सकता। आगामी या भावी कर्म संचित और क्रियमाण के संयुक्त फल का रूप होता है।
नियति वह है जो किसी अंतिम परिणाम की द्योतक होती है। प्रारब्ध व्यक्ति-विशेष की स्मृति में स्थित उसका भाग्य होता है, जबकि नियति समष्टि घटनाक्रम।
नीयते या यत्र च नियतीति।।
यद्यपि समष्टि घटना का कोई साक्षी भी नहीं है और कोई मनुष्य ही इसकी कल्पना करता है, व्यक्ति की स्मृति के सन्दर्भ में स्मृति के साक्षी का अस्तित्व तो स्वतःप्रमाणित वास्तविकता ही है।
स्मृति और इसकी तरह की सभी अन्य वृत्तियों के किसी साक्षी का अस्तित्व भी इसी प्रकार स्वतःसिद्ध ही है, यही 'अहंकार' अर्थात् 'अहं-वृत्ति' का भी साक्षी है। 'अहं वृत्ति' भी जो समस्त अन्य वृत्तियों में विद्यमान वृत्ति है फिर भी यह एक आभास है।
उपदेश सार के अनुसार :
वृत्तयस्त्वहंवृत्तिमाश्रिताः।।
वृत्तयो मनो विद्ध्यहं मनः।।
और विवेक चूडामणि के अनुसार :
अस्ति कश्चित् स्वयं नित्यं अहं-प्रत्ययलम्बनः।।
अवस्था-त्रय साक्षी सन् पञ्च-कोषविलक्षणः।।१२५।।
साक्षी के सन्दर्भ में न तो कर्म, न कर्ता, और न कर्मफल जैसी कोई वस्तु हो सकती है।
अहं-स्फूर्ति (चित् / चैतन्य) के ही चित्त / अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प के रूप में बदलते ही मनुष्य में स्वयं अपने आपके दूसरों से भिन्न होने की, एक विशिष्ट और स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना जन्म लेती है, श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय २ के अनुसार :
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैवं दहति पावकः।।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।२३।।
अच्छेद्योऽयमदाह्ऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः।।२४।।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योयमविकार्योऽयमुच्यते।।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि।।२५।।
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे ध्रुवम्।।
तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मत्स्य च।।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।।२७।।
इन 'नोट्स' को लिखने का प्रयोजन यही कि इस प्रकार मेरा आध्यात्मिक अनुसंधान अनवरत चलता रहे।
***
No comments:
Post a Comment