July 24, 2023

All Hype, No hope!

अगला अंश

उसके 'नोट्स' के उपरोक्त अगले अंश का शीर्षक मुझे चौंकाने के लिए काफी था। उसने लिखा था :

"मैं जानता हूँ कि लगभग पचास वर्ष की आयु होते होते मनुष्य के प्रकृति-प्रदत्त कर्तव्य पूर्ण / संपन्न हो जाते हैं और तब प्रकृति स्वयं ही उसे जीवन के अपेक्षतया गहरे और अधिक महत्वपूर्ण प्रयोजनों के आविष्कार करने की दिशा में प्रेरित करने लगती है, विशेष रूप से उन मनुष्यों को, जिन्होंने अपने जीवन के प्रथम पच्चीस वर्ष प्रकृति द्वारा तय किए गए जीवन-क्रम के अनुसार बिताए हों। क्या है वह जीवन-क्रम? सनातन धर्म की शास्त्रीय भाषा में उसे "ब्रह्मचर्य आश्रम" कहा जाता है। इसका सरल अर्थ है - जिसका आचरण ब्रह्म जैसा हो। ब्रह्म स्वयं लिङ्ग-निरपेक्ष (gender irrespective) संज्ञा है। ब्रह्मचर्य का अर्थ हुआ, -अपने जन्म से पच्चीस वर्ष तक की मनुष्य की आयु। शारीरिक दृष्टि से फिर भी स्त्री और पुरुष की स्थित में कुछ अन्तर है। स्त्री चूँकि वंशवृद्धि का माध्यम होती है न कि प्रेरक, इसलिए उसमें आक्रामकता का अभाव होता है, जबकि पुरुष में आक्रामकता प्रकृति से ही उसे प्राप्त होती है। यह आक्रामकता इसलिए भी आवश्यक है ताकि पुरुष अपने वंश और जाति की तथा स्त्री की भी रक्षा कर सके। पशु जीवन में इसलिए प्रकृति से ही प्रतिद्वन्द्विता प्रमुख तत्व होती है और जीवों आदि में यही सक्षम और बलवान के संरक्षण (survival of the fittest) के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष, व्यावहारिक रूप होता है। स्त्री इसलिए स्वभाव से ही विनम्र और उदार होती है ताकि गर्भ धारण कर सके और शिशु को जन्म दे सके, और उसका लालन पालन और संवर्धन कर सके।  प्रकृति से स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करना इसलिए स्वाभाविक और सरल होता है। जबकि पुरुष के लिए यह आवश्यक है, कि उसका ध्यान शिक्षा के माध्यम से इस दिशा में प्रेरित किया जाए। इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री हो या पुरुष, किसी को यौन-शिक्षा प्रदान की जाए। इसका सीधा अर्थ यह है कि बालिकाओं को उनकी माता उनके शारीरिक परिवर्तनों के बारे में शिक्षित करे, जबकि पुरुषों को स्वयं उनके पिता ही इन्द्रियों के दमन की और चित्तवृत्तियों के शमन की शिक्षा प्रदान करे। पिता का पुत्र के प्रति मोह होना भी स्वाभावतः सत्य ही है, इसलिए भी बालकों को उनका गुरु आचार्य ही अनुशासन, तप तथा स्वाध्याय की शिक्षा प्रदान करे। आठ से बारह वर्ष तक की आयु के बालकों का यज्ञोपवीत संस्कार किया जाता है और वह भी केवल त्रिवर्ण में उत्पन्न बालकों का ही। प्रकृति-प्रदत्त वर्ण भी तीन ही हैं और प्रथमतः जाति (वंश या जन्म) के ही आधार पर ही क्रमशः आठ, दस और बारह वर्ष तक के बालकों का यह संस्कार किया जाता है। किन्तु जैसे किसी नियम या सिद्धान्त की वैधता को प्रमाणित किए जाने के लिए अनेक प्रकार से उसकी सत्यता सिद्ध और स्थापित की जानी होती है, जबकि असत्यता सिद्ध करने के लिए केवल एक ही उदाहरण पर्याप्त होता है, उसी तरह वैदिक परंपरा में एक अद्भुत उदाहरण हम सत्यकाम जाबाल की कथा के रूप में उपनिषदों में देख सकते हैं। सत्यकाम जब गुरु के पास ब्रह्मचर्य-दीक्षा के लिए पहुँचा, तो गुरु ने उससे उसके पिता के विषय में उससे प्रश्न किया कि उसके पिता का क्या नाम और गोत्र है? तब सत्यकाम ने उत्तर दिया : मुझे अपने पिता के बारे में कुछ नहीं पता है, मैं अपने बचपन से ही अपनी माता को ही जानता हूँ। तब ऋषि जाबाल ने उससे कहा कि वह माता से पूछे और इस बारे में बतलाए कि उसके पिता का क्या नाम और गोत्र आदि है। जब उस बालक सत्यकाम ने माता से इस विषय में पूछा, तो वह बोली : "तुम्हारे पिता अर्थात् मेरे पति की मृत्यु जब हुई थी, उस समय तक तो तुम्हारा जन्म भी नहीं हुआ था, तब तुम गर्भ में थे और मैंने बहुत से घरों में कार्य करते हुए तुम्हारा लालन पालन और पोषण किया। इसलिए मुझे भी नहीं पता कि तुम्हारे और तुम्हारे पिता का गोत्र और वर्ण क्या है।"

बालक सत्यकाम ने लौटकर गुरु जाबाल से यह कहा। जाबाल ऋषि ने तब उससे कहा : तुम और तुम्हारी माता सत्यवादी हैं, और तुम सत्य की प्राप्ति की कामना से ही  प्रेरित होकर इसीलिए मेरे पास आए हो, सत्य और ब्रह्म एक ही वस्तु के पर्याय हैं इसलिए तुम अवश्य ब्राह्मण ही हो। जो भी सत्यवादी होता है और जिसमें भी सत्य की प्राप्ति की कामना होती है, वह किसी भी वर्ण या वंश में उत्पन्न हुआ हो, ब्राह्मण ही होता है।

मुझे यह कहने में संकोच या लज्जा नहीं है कि यद्यपि मेरा जन्म ब्राह्मण कुल, गोत्र और वंश में हुआ था, और मेरा यज्ञोपवीत संस्कार भी विधिपूर्वक संपन्न हुआ था, फिर भी प्रमादवश ही मैं कुसंगति में पड़ गया और उससे पड़े प्रभाव में वर्तमान शिक्षा प्रणाली में व्याप्त बौद्धिकता से मोहित होकर इस सच्चाई से आँखें मूँदे रहा। अवश्य ही इसके लिए दोषी भी मैं स्वयं ही हूँ।

उस पत्थर फेंकनेवाले ने ही मुझे मेरी इस प्रमाद-निद्रा को दूर किया तब तक मैं उम्र के पचपन पड़ाव पार कर चुका था। अगर वह मुझे सचेत न करता तो मेरा सर्वनाश तय था। अपने दुर्भाग्य के लिए मुझे पश्चात्ताप तो हुआ किन्तु इससे यह भी स्पष्ट हो गया कि अब मुझे आगे क्या करना होगा। जानता हूँ कि संन्यास का मार्ग भी दो निष्ठाओं के अनुसार प्रधानतः हर किसी के लिए उनमें से कोई एक ही होता है, इसलिए संकल्प और संशय में झूलता मेरा मन स्थिर हो गया और तब यह निश्चय हुआ कि चूँकि संकल्प भी वृत्ति ही है इसलिए मैं निपट असहाय ही हूँ।संकल्प और संशय से मुक्ति प्राप्त करने के लिए मेरे लिए यह मेरा सौभाग्य ही था कि वह व्यक्ति मेरे प्रमाद और मोहनिद्रा से जिसने मुझे अनायास ही जगाया था, उससे ही मैं आगे मार्गदर्शन प्राप्त करूँ।"

वह आगे लिखता है :

"मेरी स्थिति --

All Hype No Hope

'A H N H Disorder'

का ज्वलन्त उदाहरण था!  

***

No comments:

Post a Comment