May 31, 2022

विवेक और अविवेक

तितीर्षु / तितीर्षा / तृषा

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यमराज मंगल कामना को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं :

यः सेतुरीजानानामक्षरं ब्रह्म यत्परम्।।

अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेत्ँशकेमहि।।२।।

यः सेतुः ईजानानां अक्षरं ब्रह्म यत् परम्। अभयं तितीर्षतां पारं नाचिकेतं शकेमहि।। 

जो नाचिकेत / त्रिणाचिकेत / पञ्चाग्नि नामक अग्नि / विद्या है, जो कि अक्षर परम ब्रह्म है, उस विद्या रूपी सेतु से संसार से पार जाने के अभिलाषी हम उपासक, उस सेतु के माध्यम से अभय पद रूपी ब्रह्म को प्राप्त कर सकें।

इस अभिलाषा को पूर्ण करने के लिए, 

आत्मान्ँ रथिनं विद्धि शरीर्ँ रथमेव तु।। 

बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च।।३।।

आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथं एव तु। बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहं एव च।।

आत्मा अर्थात् स्वयं अपने-आप को रथ पर आरूढ के रूप में जानो, शरीर को उस रथ की तरह, जिस पर तुम आत्मा के रूप में आरूढ हो। बुद्धि को उस रथ को चलानेवाला सारथी समझो, और मन को उन अश्वों की वल्गा (लगाम / bridle) जो कि इस शरीर रूपी रथ में जुते हुए हैं।

कौन से अश्व? 

इन्द्रियाणि हयानाहुर्विषयान्ँस्तेषु गोचरान्।।

आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तूत्याहुर्मनीषिणः।।४।।

इन्द्रियाणि हयान् आहुः विषयान् तेषु गोचरान्। आत्मा-इन्द्रिय-मनः-युक्तं भोक्ता-इति-आहुः-मनीषिणः।।

इस शरीर रूपी रथ में इन्द्रियों को हय, अर्थात् अश्व कहा जाता है, विषयों को वह भूमि जिस पर वे अश्व चलते हैं, क्योंकि विषय ही वह क्षेत्र है, जिसमें मनुष्य की इन्द्रियाँ गतिशील होती हैं।  इन्द्रियों और मन से युक्त होने पर आत्मा ही विविध भोगों का भोक्ता है, ऐसा मनीषी कहते हैं।।

अविवेकी पुरुष की गति

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यस्त्वविज्ञानवान्भवत्ययुक्तेन मनसा सदा।।

तस्येन्द्रियाण्यवश्यानि दुष्टाश्वा इव सारथेः।।५।।

यः तु अविज्ञानवान् भवति अयुक्तेन मनसा सदा।  तस्य इन्द्रियाणि अवश्यानि दुष्ट-अश्वाः इव सारथेः।।

जिस मनुष्य (अर्थात् आत्मा) का सारथी (बुद्धि) विवेक-हीन होता है, और इसी तरह जिसका मन भी अयुक्त, असामञ्जस्य अर्थात् विसंगति से युक्त होता है, उसकी इन्द्रियाँ भी उन अश्वों की ही तरह उसके वश से बाहर होती हैं, जैसे किसी रथ में जोते हुए वे अश्व जिन पर सारथी का नियंत्रण नहीं होता।

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विवेकशील पुरुष की गति

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यस्तु विज्ञानवान्भवति युक्तेन मनसा सदा।। 

तस्येन्द्रियाणि वश्यानि सदश्वा इव सारथेः।।६।।

यः तु विज्ञानवान् भवति युक्तेन मनसा सदा। तस्य इन्द्रियाणि वश्यानि सद् अश्वा इव सारथेः।। 

अविवेकी पुरुष की तुलना में, जिस पुरुष (आत्मा) की बुद्धि / सारथी, विवेक से युक्त, और जिसका मन सामञ्जस्यपूर्ण होता है, उसकी इन्द्रियाँ भी उस रथ में जुते अश्वों की ही तरह उसके अनुशासन और नियंत्रण में होती हैं जिसका सारथी अपने रथ का संचालन कुशलता से करता हो। 

अविवेकी और विवेकी पुरुष की गति क्रमशः कैसी होती है, अब इसका वर्णन किया जाता है :

यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाशुचिः।।

न स तत्पदमाप्नोति स्ँसारं चाधिगच्छति।।७।।

यः तु अविज्ञानवान् भवति अमनस्कः सदा अशुचि। न सः तत् पदं आप्नोति संसारं च अधिगच्छति।। 

जो मनुष्य अविवेकसे युक्त बुद्धि का आश्रय लेता है, जिसका मन विशृङ्खल और अस्त-व्यस्त होता है, जो सदा अशुद्ध होता है, वह उस परमात्मा, परम पद को तो प्राप्त नहीं करता, किन्तु संसार में ही रहता है (और इस दुःखालय रूपी) संसार में सदैव शोक से ग्रस्त होता है। 

इसकी तुलना में :

यस्तु विज्ञानवान्भवति समनस्कः सदा शुचिः।।

स तु तत्पदमाप्नोति यस्माद्भूयो न जायते।।८।।

यः तु विज्ञानवान् भवति स-मनस्कः सदा शुचिः। सः तु तत् पदं आप्नोति यस्मात् भूयः न जायते।।

किन्तु जो विवेकशील बुद्धि और श्रेष्ठ मनवाला, सदैव शुद्ध होता है, वह उस परमात्मा को, उस परम पद को प्राप्त कर लेता है, जिसे प्राप्त करने के बाद पुनः जन्म नहीं होता।

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May 30, 2022

द्रोण!

DRONE!! 

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द्रोण का आगमन हो चुका है,

दे रहे हैं राजपुत्रों को धनुर्विद्या! 

हो रहे हैं उद्यत, राजपुत्र वीर! 

फिर कोई महाभारत होगा क्या! 

यदि हुआ भी तो फिर से,

क्या अर्जुन को होगा विषाद?

फिर  से उसे क्या करेंगे दूर,

देकर कृष्ण, उपदेश-प्रसाद?

क्या महाभारत कभी भी, 

होता है सदा, द्वापर में ही?

या सतत होता है रहता,

मनुष्य के मन में ही?

है, यही यदि काल-क्रम,

तो क्या है अपना कर्तव्य?

क्या पलायन करें इससे, 

या होकर देखें तटस्थ!

संसार में तो युद्ध है, 

तटस्थ तो बस बुद्ध है,

चित्त-मन यदि शुद्ध है, 

नहीं मार्ग, अवरुद्ध है!

प्रकृतिः त्वां नियोक्ष्यति,

प्रकृति ही करेगी नियुक्त,

कर्तव्य का पालन करो,

भय-संशय से होकर मुक्त!!

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May 29, 2022

उम्र का बोझ!

कविता : 29-05-2022

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देह पर उम्र का जब बोझ बहुत होता है, 

छोटा सा काम भी, जैसे, बड़ा सा होता है!

हरेक रास्ता हो जाता है, लंबा दुश्वार, 

बमुश्किल जिन्दगी का सफ़र होता है!

हो जाती है याददाश्त, नज़र भी धुँधली,

रिश्तों पर, अहसास पर भी असर होता है!

गलतफहमियाँ बदल जाती हैं गलतियों में,

आदमी इस सबसे मगर, बेखबर होता है!

एक सपने में या नींद में चलता हुआ सा,

अजनबी बोझिल, हालाते-मंज़र होता है!

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May 25, 2022

छायातपौ

ये त्रिणाचिकेताः ...

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कठोपनिषद्, अध्याय १, तृतीया वल्ली

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ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके

गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे।।

छायातपौ ब्रह्मविदो वदन्ति

पञ्चाग्नयो ये त्रिणाचिकेताः।।१।।

पिछले पोस्ट में इसका उल्लेख किया गया। 

अब विस्तार से :

ऋतं पिबन्तौ सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे परार्धे। 

छाया-आतपौ ब्रह्मविदो वदन्ति पञ्चाग्नयः ये त्रिणाचिकेताः।।

"छायातपौ" और "पञ्चाग्नयो / पञ्चाग्नयः" को ही स्पष्ट करना यहाँ आवश्यक है। शेष यथावत् हैं।

ऋतं -- अस्तित्व के द्वारा प्रदत्त उपहार,

पिबन्तौ -- का सेवन करनेवाले दोनों (द्विवचन पुंल्लिंग),

सुकृतस्य लोके -- यज्ञ इत्यादि शुभ और पुण्यकर्म करनेवालों के लोक में,

(ये दोनों, -मन और आत्मा, जो मानों)

गुहां प्रविष्टौ -- जो अप्रकट रूप से स्थित हैं, उनमें से भी एक (मन) सतत सक्रिय है, जबकि मन स्वयं वृत्तियों का प्रवाह भर होने से यह मन, वह अचल, अटल कूटस्थ 'मैं' (आत्मा) कदापि नहीं हो सकता, जिसके द्वारा प्रकाशित (illuminated) होने पर ही यह प्रवाह अस्तित्व ग्रहण करता है। फिर भी मन सतत ही अपने आपको 'मैं' मानकर कभी कर्ता, कभी भोक्ता, कभी ज्ञाता तो कभी स्वामी होने के भ्रम से मोहित हो जाता है। इस प्रकार एक कृत्रिम सत्ता के रूप में यह आभासी व्यक्तित्व प्रकट और अप्रकट होता रहता है।

आत्मा न तो कर्ता है, न भोक्ता, न ज्ञाता, न स्वामी और न ही यह व्यक्ति भी। फिर भी मन उस अधिष्ठान आत्मा के आश्रय से अपना स्वतंत्र अस्तित्व सिद्ध कर लेता है। इसलिए भूल से या भाषागत रीति से भोक्ता (पिबन्तौ) कह दिया गया है। वे दोनों ही दिखलाई न देते हुए भी उनका अस्तित्व स्वप्रमाणित है ही।

परमे परार्धे -- वे जहाँ हैं वह स्थान हमें दिखाई नहीं देता इसलिए उस स्थान को परम परार्ध कहा गया।

छायातपौ -- छाया-आतपौ जैसे छाया और धूप एक ही स्थान पर एक दूसरे से संलग्न होते हैं, यह मन तथा आत्मा उसी तरह परस्पर अत्यन्त घनिष्ठता से संश्लिष्ट हैं। अर्थात् इन्हें एक दूसरे से पृथक कर पाना बहुत कठिन है।

ब्रह्मविदः वदन्ति -- ब्रह्म को जाननेवाले कहते हैं :

पञ्चाग्नयः -- प्राण रूपी पाँच अग्नियाँ, 

ये - जो ये, 

त्रिणाचिकेताः -- तीन प्रकार की अग्नियों - लोकाग्नि, स्वर्ग्य और ज्ञान अग्नि का साधन करने वाले, पाँच प्रकार की प्राणोपासना करनेवाले ये उपासक। 

इसे पाँच महाभूत और तीन गुणों के आधार पर भी स्पष्ट किया जा सकता है। 

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यह मेरे लिए कुछ कठिन अवश्य है, किन्तु मैं इसे यथासंभव पूरी तरह से समझने का प्रयास कर रहा हूँ।

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वज़ू और ग़ुस्ल

कौतूहलवश

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उपरोक्त दोनों शब्दों की व्युत्पत्ति खोजते हुए इस तथ्य पर ध्यान गया। इसे 'कू' कर दिया। स्क्रीन-शॉट संलग्न है :



May 24, 2022

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं

आत्मा के स्वरूप का निरूपण

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नचिकेता को यमराज द्वारा इस प्रकार से ॐ के आलम्बन का तरीका और महत्व बतलाए जाने के पश्चात् वे उससे आत्मा के तत्त्व का वर्णन करते हैं :

न जायते म्रियते वा विपश्चि-

न्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।। 

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो

न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।१८।।

न जायते म्रियते वा विपश्चित् न अयं कुतश्चित् न बभूव कश्चित्। अजः नित्यः शाश्वतः अयं पुराणः न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।

यह आत्मा न तो उत्पन्न होताहै, न ही इसकी मृत्यु होती है। न ही किसी अन्य स्रोत से इसका आगमन होता है, और न यह कुछ से अन्य कुछ होता है। जन्म से रहित, नित्य, सनातन, शाश्वत यह पुरातन से भी पुरातन है, और शरीर के मारे अर्थात् नष्ट हो जाने  पर भी इसका नाश अर्थात् मृत्यु नहीं होती।

गीता अध्याय २ के निम्न श्लोक में इसी तात्पर्य को इंगित किया गया है :

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः।।

अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।२०।।

"भूत्वा भविता" का तात्पर्य है : होकर फिर न-हो जानेवाला, जैसे कि रात्रि या दिवस, मनुष्य आदि चराचर वस्तुएँ 'होने' के बाद 'नहीं' हो जाती हैं, क्योंकि समस्त व्यक्त अस्तित्व ही आवा-गमन के इस चक्र में विवशतापूर्वक परिभ्रमण करता रहता है।

आत्मा इस चक्र से मुक्त है।

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हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।।

उभौ तौ न विजानीतो नाय्ँहन्ति न हन्यते।।१९।।

हन्ता चेत् मन्यते हन्तुम् हतः चेत् मन्यते कथम्। उभौ तौ न विजानीतः न अयं हन्ति न हन्यते।।

हत्या करनेवाला यदि सोचता है कि वह आत्मा का वध करेगा, और जिसकी हत्या की जाती है, यदि वह सोचता है कि आत्मा की मृत्यु हो जाएगी, तो दोनों ही इस सत्य को नहीं जानते कि आत्मा न तो मिलता है, न आत्मा को मारा जा सकता है। 

गीता अध्याय २ में ही पुनः इसी भाव को निम्न श्लोक से व्यक्त किया गया है :

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।

उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

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अणोरणीयान्महतोमहीया-

नात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।।

तमक्रतुः पश्यति वीतशोको

धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः।।२०।।

अणोः अणीयान् महतः महीयान् आत्मा अस्य जन्तोः निहितः गुहायाम्। तं अक्रतुः पश्यति वीतशोकः धातु-प्रसादात् महिमानं आत्मनः।।

अणु जैसी सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और विशाल से भी विशाल, यह आत्मा इस जन्म-मृत्यु से बद्ध शरीर से अत्यन्त गहराई से संबद्ध है। उस आत्मा को कोई निष्काम, वीतशोक पुरुष ही आत्मा के तेज के प्रसाद से देख पाता है।

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आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वतः।।

कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमर्हति।।२१।।

आसीनः दूरं व्रजति शयानः याति सर्वतः। कः तं मद-अमदं देवं मत्-अन्यः ज्ञातुम् अर्हति।।

यह आत्मा अचल अटल होते हुए भी दूर से दूर तक भी है। उस मुझ आत्म-स्वरूप अभिमानशून्य आत्मा को जाननेवाला मुझसे अन्य और कौन है?

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अशरीर्ँ शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।।

महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।।२२।।

अशरीरं शरीरेषु अनवस्थेषु अवस्थितम्। महान्तं विभुं आत्मानं मत्वा धीरः न शोचति।। 

समस्त शरीरों में अशरीरी, समस्त अवस्था-भेदों में अवस्थाओं (जागृत-स्वप्न-सुषुप्ति) आदि के भेदों से रहित, उस महान् विभु आत्मा को विद्यमान जानकर धीर पुरुष शोक से रहित हो जाता है।

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नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो

न मेधया न बहुना श्रुतेन।। 

यमेवैष वृणुते तेन लभ्य-

स्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्।।२३।।

न अयं आत्मा प्रवचनेन लभ्यः न मेधया न बहुना श्रुतेन। यं एव एषः वृणुते तेन लभ्यः तस्य एषः आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।।

इस आत्मा को व्याख्या आदि सुनकर नहीं पाया जा सकता है, न अत्यन्त मेधावी होने से, और न उसके संबंध में अनेक प्रकार की जानकारियों को सुनकर ही। मनुष्य आत्मा का जिस किसी भी प्रकार से वरण करता है, उसका वह आत्मा उसके लिए उसी रूप में अपने स्वरूप को प्रकट करता है।

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नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।। 

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।।२४।।

न अविरतः दुश्चरितात् न अशान्तः न असमाहितः।  न अशान्तमनसः वा अपि प्रज्ञानेन एनम् आप्नुयात्।। 

जो कुटिल आचरण से विरत नहीं है, जिसका चित्त अशान्त है, जिसका मन अशान्त है और जिसे समाधान / सन्तोष नहीं है उसे इस आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। केवल वही इसकी प्राप्ति  करता है जो इसे प्रज्ञान अर्थात् -प्रज्ञानं ब्रह्म- के माध्यम से इसे जानने का यत्न करता है।

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यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।। 

मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र यः।।२५।।

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवतः ओदनः।  मृत्युः यस्य उपसेचनं कः इत्था वेद यत्र यः।। 

जिस आत्मा के लिए ब्राह्मण और क्षत्रिय मुख्य अन्न हैं, जिन्हें वह आत्मा अपना आहार बनाता है और जैसे कि अन्न को शाक आदि के साथ खाया जाता है, उसी प्रकार से स्वयं मृत्यु अर्थात् यमराज जिसके लिए शाक की तरह हैं, उस आत्मा को कौन उस प्रकार से जान सकता है जैसा कि आत्मा स्वरूपतः है? 

आत्मा से ही जगत् की सृष्टि, स्थिति और संहार आदि होते हैं, और इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि द्विज तथा यम जैसे देवता भी इसी आत्मा की अभिव्यक्ति है, जिन्हें वह आत्मा पुनः अपने में आत्मसात कर लेता है। 

"रुद्रः संहार्यते प्रजाः"

(शिव-अथर्वशीर्ष)

इसी सत्य का द्योतक है।

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विकल्प मार्ग

परोक्ष और अपरोक्ष

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अत्यन्त मेधावी के लिए भी आत्म-साक्षात्कार कर पाना कठिन होता है, और साधारण जिज्ञासु के लिए तो और भी दुर्लभ !  और जैसा कि इस उपनिषद् के दूसरे अध्याय की प्रथमा वल्ली में कहा भी गया है :

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभू-

स्तस्मात्पराङ्पश्यति नान्तरात्मन्।।

कश्चिद्धीरः प्रत्यगात्मानमैक्ष-

दावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन्।।

'स्वयंभू' - इस शब्द के अनेक अर्थ ग्रहण किए जा सकते हैं : इसे प्रसंग-विशेष के अनुसार बुद्धि, मन, प्रकृति, पुरुष, महत्, अहम्, काल, चेतना, काल, अहंवृत्ति आदि के रूप में देखा जा सकता है, क्योंकि ये सभी तत्त्व अनादि होने से और इनके उद्गम / स्रोत का अनुमान कर पाना कठिन होने से इन्हें स्वयं-भू कहा जाता है। यहाँ स्वयं-भू का तात्पर्य इनमें से कुछ भी हो सकता है और उस स्वयंभू से ही भूः, भुवः तथा स्वः आदि तीनों लोकों का उद्भव होने से यह कहना उचित होगा, कि जिस किसी भी स्रोत से मनुष्य का उद्भव हुआ हो, भू - पृथ्वी, भुवः - जीवन, और स्वः - अपने होने का सहज भान, होने के बाद ही उस स्वयं-भू सत्ता ने इन्द्रियों को बाह्य जगत् की दिशा में प्रवृत्त कर दिया, और इसी के फल-स्वरूप मनुष्य केवल बाहर के जगत् के ही विषय में जान पाता है। किन्तु किसी किसी जिज्ञासु धीर पुरुष में आत्मा के तत्त्व को जानने की इच्छा जागृत होने पर वह उस प्रत्यगात्मा को जानने की इस प्रबल उत्कंठा से प्रेरित हो जाता है और उसका ध्यान उस पर दृढ हो जाता है।

चूँकि माण्डूक्य उपनिषद् के अनुसार वह गूढ आत्मा --

न अन्तःप्रज्ञ, न बहिष्प्रज्ञ, न उभयतःप्रज्ञ, न प्रज्ञानघन, न प्रज्ञ, न अप्रज्ञ। अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य और अव्यपदेश्य, एक-आत्मप्रत्ययसार और प्रपञ्च का उप-शमन हो जाने पर जिसे जाना जाता है, - जिसे शान्त, शिव, अद्वैत, चतुर्थ माना जाता है, वही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है, 

और उसे ही जान लिया जाना चाहिए।

अव्यपदेश्यम्  ---- That could not be pointed out (as an object).

इसीलिए साधारण जिज्ञासु के लिए यह निर्देश दिया जाता है कि वह उस आत्मा को जानने के लिए प्रारंभ में प्रणव अर्थात् ॐ - इस पद का आलम्बन लेकर अभ्यास करे। 

पातञ्जल योगसूत्र, समाधिपाद के अनुसार :

तस्य वाचकः प्रणवः।।२७।।

तज्जपस्तदर्थभावनम्।।२८।।

इस प्रकार  ॐ पद श्रेष्ठ आलम्बन है, यही परम ब्रह्म है, और इस एक अक्षर को जानकर मनुष्य जो कुछ भी प्राप्त करना चाहता है, वह वही हो जाता है। उसे ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।

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आत्मानं रथिनं विद्धि...

 कठोपनिषद् 

अध्याय १,

(३, ४)




May 23, 2022

मानस-पुत्र

अविनाशी और अव्यय

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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिनः।।१६।।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।। 

विनाशं अव्ययस्यास्य न किञ्चित्कर्मतुर्हति।।१७।।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।। 

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।

उभे तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

देहीऽस्मिन्यथादेहे कौमारं यौवनं जरा।। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यते।।१३।।

(गीता अध्याय २)

उस एकमेव सत् स्वरूप मूल तत्त्व से, जिसका अभाव अर्थात् अनस्तित्व संभव नहीं है, (और यदि है भी, तो इस कल्पना का अस्तित्व तो स्वयं-सिद्ध ही है), उस अविनाशी अव्यय अर्थात् अक्षर परमात्मा से ही, जो कि सर्वत्र है, जो सब कुछ है, और जिसमें ही सब कुछ है, समस्त दृश्य-अस्तित्व अव्यक्त से व्यक्त होकर पुनः पुनः अव्यक्त में भी लौट जाता है, काल अर्थात् मन का उद्भव होता है। यही काल अर्थात् मन आत्मा का मानस-पुत्र है। 

अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो, यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजा:।।

(शिव-अथर्वशीर्ष)

मन अर्थात् काल परमात्मा का मानस-पुत्र है। कठोपनिषद् के सन्दर्भ में यही उशना का पुत्र नचिकेता है,जिसे उसके पिता द्वारा विश्वजित यज्ञ में उसके द्वारा प्रश्न किए जाने पर मृत्यु को दान में दे दिया गया।

रुद्र इसी रूप में एकादश अर्थात् ग्यारह कहे जाते हैं। 

शरीरी या 'देही' वह है, जो कि शरीर से संबद्ध जीवन / चेतना है। मन और शरीर, एक दूसरे पर आश्रित हैं और अहंकार, चित्त तथा बुद्धि इसी के अन्य नाम, रूप और प्रकार हैं। बुद्धि जागते ही बुद्धि में ही अहं (मैं) और इदं (यह / वह) की वृत्ति सक्रिय हो जाती है। काल भी बुद्धि का ही अनुमान है, क्योंकि 'पहले' और 'बाद में' का आगमन बुद्धि के प्रस्फुटन से ही होता है किन्तु इसी अनुमान से फिर काल नमक किसी स्वतंत्र सत्ता की सत्यता को स्वीकार कर उस धारणा के आधार पर समस्त ज्ञात को अतीत और आगामी की तरह विभाजित कर लिया जाता है। पुनः इसी तरह अनुमान से ही, प्रकृति और पुरुष का प्राकट्य भी बुद्धि के जागने के बाद ही संभव होता है, इसी दृष्टि से बुद्धि को प्रकृति और पुरुष से भी विलक्षण कहा जाता है :

प्रकृतेः पुरुषात् परम्।।

(गणपति अथर्वशीर्ष)

उस एकमेव सत् स्वरूप अविनाशी, अव्यय परमात्मा से ही, जो कि जीवन / चेतना से अभिन्न है, जो शिव और भवानी के रूप में अर्धनारीश्वर है, बुद्धि का प्राकट्य होता है और असंख्य देहों में वह पृथक् अहंकार के रूप में देह से अपने आपके अभिन्न होने के आभास को ही सत्य मान लेता है। किन्तु जब विवेक अर्थात् नित्य-अनित्य के चिन्तन से यही अहंकार विलीन होकर शुद्ध बोध-मात्र की तरह जाना जाता है तो उसी अक्षर, अव्यय और अविनाशी तत्त्व का अपरोक्ष भान होता है जिसे वेदों में ॐ पद से वर्णित किया जाता है। इस रूप में वह तत्त्व 'अक्षर', वर्ण, ध्वनि भी है। और इसी अक्षर का उपदेश यमराज नचिकेता को इस प्रकार से दे रहे हैं :

एतद् ह्येवाक्षरं ब्रह्म एतद् ह्येवाक्षरं परम्।। 

एतद् ह्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।१६।।

एतद् आलम्बनं श्रेष्ठं एतद् आलम्बनं परम्।।

एतद् आलम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।१७।।

किन्तु चूँकि मृत्युलोक से लेकर ब्रह्मलोक तक अनित्य अर्थात् नश्वर स्थितियाँ है, वहाँ नित्य शान्ति होना कैसे संभव है?

इसलिए यमराज अपने इस सर्वाधिक प्रिय (प्रेष्ठ) शिष्य के लिए इस आत्मा (परमात्मा के परम धाम) के सत्य को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं। 

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May 22, 2022

बिखरे सूत्र

आत्म-ज्ञान और आत्म-निष्ठा

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भगवान् श्री रमण महर्षि के एक भक्त ने कागज के एक टुकड़े पर लिखा :

"अय्ये अति सुलभम्... "

इसके पश्चात् उससे कुछ न लिखा जा सका। अंततः जब उसकी बेचैनी महर्षि की दृष्टि से न छिप सकी, तो उसने कागज का वह टुकड़ा संकोच-पूर्वक उनके सामने रख दिया। तब महर्षि ने उस टुकड़े को "आत्म-विद्या" का शीर्षक दिया, और इस शीर्षक के साथ पाँच पदों की एक कविता की रचना की, जिसे उनके भक्तों ने बाद में अपनी अपनी भाषाओं में अनुवादित किया। कविता के अंग्रेजी अनुवाद को 

"Truth -Revealed"

शीर्षक से प्रकाशित किया गया। 

संस्कृत भाषा में "आत्मा" पद (या शब्द) का वही तात्पर्य होता है जो हिन्दी में "मैं", अंग्रेजी में "I" मराठी में "मी", गुजराती में "હુઁ" और தமிழ் में "நான்" का होता है। 

संस्कृत भाषा में इसी आत्मा (अपने आप) को उत्तम पुरुष एक-वचन में "अहं" शब्द से व्यक्त किया जाता है। इसे यद्यपि मनुष्य और प्राणी-मात्र भी जानता तो एक ही तरह से है, किन्तु व्यक्त करते समय व्यावहारिक कठिनाई के ही कारण किसी वस्तु के नाम-रूप में ऐसा करता है। इस प्रकार अपने आपको जैसा भी  जाना जाता है, उस पर उससे भिन्न कोई आवरण आरोपित कर दिया जाता है। यद्यपि यह प्रमाद (in-attention) की भूल के ही कारण होता है, किन्तु इसके कारण आत्मा के संबंध में जो अज्ञान और भ्रम उत्पन्न होता है, वही सारे दुःखों का मूल कारण होता है। 

कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली १ में इसी तथ्य का वर्णन है :

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यसीति। 

द्वितीयं तृतीयं त्ँ होवाच मृत्युवे त्वा ददामीति।।४।।

पिता के इस वचन से नचिकेता एकान्त में अनुताप करने लगा। जैसा कि पहले इंगित किया जा चुका है, पुत्र का एक अर्थ है -- आत्मज, और चूँकि 'मन' का उद्भव आत्मा ही से होता है, इस-लिए यह समझना अनुचित न होगा, कि इस विश्वजित् यज्ञ में, जिसमें कि सर्वस्व ही त्याग दिया जाता है, उशना ने अपने मन-रूपी पुत्र का दान मृत्यु को दे दिया। अवश्य ही, यह मन ही तो है, जो कि आत्मा के वास्तविक स्वरूप पर आवरण डाल देता है और यह मन ही तो है, जो पुनः उसे विक्षेप से मोहित कर इधर उधर भटकाता है।

तब उसका ध्यान  इस सच्चाई पर गया  :

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।।

किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति।।५।।

"मैं" अनेकों में प्रथम होता हूँ / है, "मैं" अनेकों में मध्यम होता हूँ / है -- अर्थात्, चूँकि "मैं" उत्तम पुरुष एक-वचन या फिर मध्यम पुरुष एक-वचन ही हो सकता हूँ / है। फिर "मैं" मृत्यु को कैसे प्राप्त हो सकता हूँ! क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि "मैं" से यमराज का क्या संबंध हो सकता है! यमराज के लिए मेरा क्या उपयोग है!

इसी आत्मा के ज्ञान और प्रासंगिकता को दर्शाते हुए, और इसे ही ब्रह्म (तत्) के नाम से व्यक्त कर केनोपनिषद् में इस प्रकार से इसका संकेत किया गया है :

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।४।।

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।५।।

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति।।

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।६।।

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिद्ँ श्रुतम्।। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।७।।

यत् प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्रणीयते।। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते।।८।।

इस प्रकार जिस आत्मा को "अहं" पद से उत्तम पुरुष एक-वचन से जाना और व्यक्त किया जाता है और जिसे पुनः "त्वं" पद से भी मध्यम पुरुष एक-वचन से जाना और व्यक्त किया जाता है, उसे "तत्" या "ब्रह्म" पद से अन्य पुरुष एक-वचन के द्वारा भी जाना और व्यक्त किया जाता है। 

एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति। 

***

अंग्रेजी भाषा के व्याकरण के अनुसार :

उत्तम पुरुष एक-वचन -- First Person, 

मध्यम पुरुष एक-वचन -- Second Person, 

अन्य पुरुष एक-वचन -- Third Person,

के सन्दर्भ में इस प्रकार समझ सकते हैं।

***








ॐ अक्षरब्रह्म की साधना

कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली २,

--

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रादस्मात्कृताकृतात्।।

अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्त्पश्यसि तद्वद।।१४।। 

नचिकेता ने यमराज से प्रश्न किया कि आप धर्म और अधर्म से, इस संपूर्ण कर्म और अकर्म से, अतीत और भावी से विलक्षण जिस तत्व को देखते हैं उस तत्व के बारे में मुझसे कहिए!

गीता के अध्याय ४ के संदर्भ में इसे समझना उपयोगी होगा :

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्षयसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।। 

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

अध्याय ३ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं :

लोकेऽस्मिन् द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।। 

ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।।

न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।४।।

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।।

तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।९।।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।।

असक्तो ह्यचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।१९।।

इस प्रकार नचिकेता की निष्ठा साङ्ख्य अर्थात् ज्ञान-निष्ठा है। इसलिए वह कर्म और अकर्म (तथा विकर्म) से भी विलक्षण ऐसी वस्तु की, उस तत्व की जिज्ञासा करता है जिसे यमराज देखते हैं।

तब आचार्य यमराज उस ॐ --ॐकार पद का उपदेश उसे देते हैं, जिसकी महिमा वेदों में समस्त तपों के रूप में वर्णित की गई है। तपों के माध्यम से तपस्वी जिसकी उपासना करते हैं, और जिसे जानने की उत्कंठा से प्रेरित होकर ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं ...

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपान्सि सर्वाणि च यद्वदन्ति।। 

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पद्ँ सङ्ग्रहेण ब्रवीमोमित्येतत्।।१५।।

एतद् ह्येवाक्षरं ब्रह्म एतद् ह्येवाक्षरं परम्।।

एतद् ह्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।१६।।

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।। 

एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।१७।।

उपरोक्त मंत्रों का सन्दर्भ भी गीता के अध्याय ८ के उन श्लोकों ११,१२,१३ से है, जिन्हें कि इससे पहले के पोस्ट में उद्धृत किया जा चुका है। 

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May 20, 2022

May 19, 2022

दिल, दौलत और दुनिया!

~~आज की बात~~

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दुनिया में तीन ही क़िस्म के लोग पाए जाते हैं, मिलते है, या फिर किसी वजह से या बेवजह भी टकराते रहते हैं। उनकी बात बाद में!

पहले अपनी बात! 

आदमी समझदार होता है, नासमझ या फिर बस कन्फ्यूज्ड। लेकिन कोई हर वक्त ही एक जैसा होता हो, यह ज़रूरी नहीं! और कोई कभी कभी समझदार, कभी कभी नासमझ या फिर कभी कभी बस कन्फ्यूज्ड हो सकता है। यह आम आदमी के बारे में। कोई कोई जाने-अनजाने भी किसी उसूल, खयाल का,  आदत, मजहब, मजबूरी का, इस क़दर पाबंद होता है कि सपने में भी उसके ख़िलाफ जाने का सोच तक नहीं सकता। और न सिर्फ़ पाबंद, बल्कि कट्टर हिमायती भी। यह भी उसी तरह का समझदार, नासमझ या कन्फ्यूज्ड हो सकता है, जैसा कि दूसरा कोई भी आम आदमी हुआ करता है।

ऐसे कितने ही लोगों से दुनिया भरी हुई है। कोई किसी को यह नहीं समझा सकता कि क्या गलत है क्या सही, और क्या इस दुनिया को बनाने वाला, बचाने वाला या मिटाने वाला, कोई है या नहीं, अगर है भी, तो उसकी क्या शक्लो-सूरत है, वह कहाँ रहता है, आदमी है या औरत है या किसी और ही तरह की कोई शै है! वह दुनिया से अलग है या दुनिया में ही छिपा हुआ या कि फिर जाहिर है! 

लेकिन एक बात मुकम्मल और बेशक तय है, कि वह इंसान के दिल में रहता है, न कि दिमाग में। शायद उसे ही रूह कहा जा सकता है। वह एक है या एक नहीं है, वह अनगिनत है, सबमें है, या सब उसमें है, इस बारे में हर किसी का अपना अपना एक सोच है। और किसी किसी को तो इस बारे में सोचने की जरूरत ही नहीं महसूस होती। उनमें से भी कुछ तो समझदार, कुछ तो नासमझ और कुछ कन्फ्यूज्ड होते होंगे! 

लेकिन जो इस बारे में सोचते भी हैं उनमें से भी कुछ समझदार, कुछ नासमझ और कुछ कन्फ्यूज्ड होते होंगे। कोई किसी को यह नहीं समझा सकता, कि क्या गलत है, क्या सही, और क्या इस दुनिया को बनाने वाला, बचाने वाला या मिटाने वाला, कोई है या नहीं, अगर है भी, तो उसकी क्या शक्लो-सूरत है, वह कहाँ रहता है, आदमी है या औरत है या किसी और ही तरह की कोई शै है। वह दुनिया से अलग है या दुनिया में ही छिपा या कि फिर जाहिर है!

वजह जो भी हो, दुनिया जैसी है, वैसी है! वह जैसा है, वैसा है, दिल जैसा है वैसा है और दौलत भी जैसी है वैसी है।

जिन्दगी जीने और जिन्दा रहने के लिए तीनों ही चीजें : दिल, दौलत और दुनिया जरूरी हैं। मरने के बाद क्या होता होगा इसे शायद ही कोई भी समझदार, नासमझ या कन्फ्यूज्ड कभी जान पाता होगा! 

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May 17, 2022

संगीत की दुनिया

कविता / 17-05-2022

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इतना सन्नाटा क्यों है? 

मौन गाता क्यों है? 

शब्द नीरव हैं क्यों?

स्वर सजाता क्यों है? 

कभी उदासी, कभी खुशी,

कभी रोना, कभी हँसी, 

कभी उल्लास या आक्रोश,

भाव ऐसे, जगाता क्यों है?

कभी हँसता, या कचोटता, 

कभी चुभता, या सहलाता,

कभी बहकाता, भरमाता,

उभरकर, खो जाता क्यों है?

मौन खिलखिलाता क्यों है? 

इतना सन्नाटा क्यों है?

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विवृतं और अपावृतम्

कठोपनिषद् --

एतच्छ्रुत्वा संपरिगृह्य मर्त्यः

प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।।

स मोदते मोदनीय्ँ हि लब्ध्वा

विवृत्ँ सद्म नचिकेतसं मन्यते।।१३।।

(अध्याय १, वल्ली २)

के माध्यम से महाराज यमराज नचिकेता से कहते हैं कि मैंने तो नाचिकेत-अग्नि रूपी स्वर्ग्य-विद्या के अनुष्ठान के द्वारा यमलोक के अधिष्ठाता होने के गौरव की प्राप्ति कर ली, किन्तु नचिकेता, तुम तो किसी भी प्राप्ति के लोभ से मोहित नहीं हुए और तुमने सीधे ही उस तत्त्व उस परम धाम को जानने की जिज्ञासा की जो सभी अनित्य लोकों से उच्चतर है। 

इसकी तुलना गीता के निम्न श्लोक :

यदृच्छया चोपपन्नं स्वर्गद्वारमपावृतम्।।

सुखिनः क्षत्रियाः  पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्।।३२।।

(अध्याय २)

से करने पर यह कहा जा सकता है, कि भगवान् श्रीकृष्ण ने भी इसी प्रकार अर्जुन को, उसकी पात्रता देखते हुए, युद्ध उसका अभीष्ट कर्तव्य है, ऐसी शिक्षा दी थी। 

अर्जुन और यूद्ध के संदर्भ में परिस्थिति भिन्न थी, और अर्जुन के लिए उस समय यही उचित था, कि वह संशयरहित होकर युद्ध करने में संलग्न हो जाए।

अर्जुन के लिए दो ही विकल्प थे -- स्वर्ग या भूमि का राज्य।

नचिकेता के लिए ऐसा कोई प्रश्न था ही नहीं ।

अतः नचिकेता की पात्रता के अनुसार यमराज उसकी प्रार्थना के उत्तर में कहते हैं --

सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति

तपान्सि सर्वाणि च यद्वदन्ति।।

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति

तत्ते पद्ँ सङ्ग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।।१५।।

(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली २)

सर्वे वेदाः यत् पदं आमनन्ति तपान्सि सर्वाणि च यत् वदन्ति। यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत् ते पदं सङ्ग्रहेण ब्रवीमि ... ... ॐ इति एतत्।।

इसके ही तुल्य हैं, - गीता के अध्याय ८ के निम्न तीन श्लोक :

यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः।। 

यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये।।११।।

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।। 

मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणम्।।१२।।

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।।

यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्।।१३।।

कठोपनिषद् में आगे चलकर बाद में यह भी बताया गया है कि इस प्रकार की मृत्यु होने पर यद्यपि परम गति अवश्य प्राप्त हो जाती है, किन्तु ब्रह्मज्ञान और आत्म-ज्ञान में क्या समानता और / या भिन्नता हो सकती है? इस बारे में अध्याय २, वल्ली ३ के अन्तिम तीन मंत्रों में स्पष्टता से वर्णित किया गया है। 

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May 16, 2022

धर्म्यमणुमेतमाप्य

आत्मतत्व की विलक्षणता

(पात्रता और अधिकारी)

--

यमराज नचिकेता की परीक्षा करने के बाद उसे सुयोग्य पात्र / अधिकारी शिष्य की तरह जानकर गूढ आत्म-तत्त्व के रहस्य का उपदेश देते हुए आगे कहते हैं --

एतच्छ्रुत्वा संपरिगृह्य मर्त्यः

प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।।

स मोदते मोदनीय्ँ हि लब्ध्वा

विवृत्ँ सद्य नचिकेतसं मन्ये।।१३।।

एतत् श्रुत्वा संपरिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यं-अणुं-एतं-आप्य। सः मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये।। 

नचिकेता! इस आत्म-तत्त्व के रहस्य को योग्य आचार्य से ध्यान से सुनकर, और इसके सूक्ष्मतम धर्म्य -- आचरण में जिसका अनुष्ठान किया जाता है उस अणुमात्र धर्म को - शरीर मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार अर्थात् अन्तःकरण-चतुष्टय से भी नितान्त पृथक् समझ लेने पर, मर्त्य (मनुष्य) आत्मा के स्वाभाविक आनन्द को प्राप्त कर उस परम आनन्द में डूब जाता है। 

हे नचिकेता! मैं मानता हूँ कि इस प्रकार के तुम्हारे जैसे पात्र अधिकारी के लिए मानों मोक्ष के द्वार खुले हुए हैं।

तब नचिकेता प्रसन्न होकर यमराज से प्रार्थना करता है :

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।।

अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद।।१४।।

अन्यत्र धर्मात् अन्यत्र अधर्मात् अन्यत्र अस्मात् कृत-अकृतात्। अन्यत्र भूतात् च भव्यात् च यत् तत् पश्यसि तत् वद।।

हे आचार्य! जिस ऐसे तत्त्व को आप देखते हैं, जो धर्म से और अधर्म से भी विलक्षण है, जो कृत (कर्म) और अकृत (अकर्म) से भी विलक्षण है, जो कि कर्म से और अकर्म से भी विलक्षण है, और इसी प्रकार जो अतीत और भावी से भी विलक्षण है, कृपया उस तत्त्व के संबंध में मुझसे कहें।

नचिकेता की प्रार्थना का प्रत्युत्तर देते हुए आचार्य यमराज तब उसे उस विलक्षण अविकारी, अविनाशी, और नित्य, सनातन और अव्यय आत्म-तत्व का उपदेश देते हैं जिसका उल्लेख वेद, ॐकार पद से करते हैं।

***

 




May 15, 2022

गीता और कठोपनिषद्

हर्षशोकौ जहाति। 

--

यमराज ने कहा :

यम उवाच --

जानाम्यह्ँ शेवधिरित्यनित्यं

न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।। 

ततो मया नाचिकेतश्चितोऽग्नि-

रनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्।।१०।।

जानामि अहं शेवधिः इति अनित्यं न हि अध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। ततः मया नाचिकेतः चितः अग्निः अनित्यैः द्रव्यैः प्राप्तवान् अस्मि नित्यम्।।

मैं जानता हूँ कि कर्मफलों का सातत्य और अनित्यता रूपी पूँजी से ध्रुव तत्त्व की प्राप्ति कभी नहीं नहीं होती। इसलिए, हे नचिकेता! मेरे द्वारा चित्-अग्नि का चयन किया गया, और इन्हीं अनित्य द्रव्यों की उस अग्नि में आहुति देकर मैंने यह अपेक्षाकृत नित्य 'यम' देवता होने का गौरवपूर्ण स्थान अर्जित किया । यही विद्या स्वर्ग्य-अग्नि है। 

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां

क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।।

स्तोममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा

धृत्या धीरो नचिकेतोऽत्यस्राक्षीः।।११।।

कामस्य आप्तिं जगतः प्रतिष्ठां  क्रतोः अनन्त्यं अभयस्य पारम्। स्तोम-महत् उरुगायं प्रतिष्ठां दृष्ट्वा धृत्या धीरः नचिकेतः अति-अस्राक्षीः।।

नचिकेता! स्वर्ग आदि प्राप्त करने की कामनाओं की पूर्ति, जगत का नियमन, पालन, संरक्षण करने की इच्छा, और महान स्तोम, इत्यादि यज्ञ आदि कर्मों के अनुष्ठान से उस अभयरूपी अनन्तता को प्राप्त करना ही मेरा ध्येय था। किन्तु नचिकेता, तुमने तो इन कामनाओं को व्यर्थ अनुभव कर उन्हें प्रसन्नता से त्याग दिया! 

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं

गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्।। 

अध्यात्मयोगाधिगम्येन देवं

मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।।१२।।

तं दुर्दर्शं गूढं अनुप्रविष्टं गुहाहितं गह्वरेष्ठं पुराणम्। अध्यात्म-योग-अधिगम्येन देवं मत्वा धीरः हर्षशोकौ जहाति।।

और अब तुम उस गूढ रहस्यमय तत्त्व को, जो कि पुरातन से भी पुरातन है, जो हृदयरूपी गुहा में ही छिपा हुआ है, किन्तु फिर भी जिसका दर्शन कर पाना अत्यन्त कठिन है, जानने के लिए उत्कंठित हो, जिससे अध्यात्म-योग से ही अवगत हुआ जाता है, और जिस उस चैतन्य देवता के साक्षात्कार से धीर हर्ष एवं शोक दोनों ही से ऊपर उठ जाता है!

"बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।। 

तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मी कौशलम्।।५०।।

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः।। 

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छत्यनामयम्।।५१।।

प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थान्मनोगतान्।।"

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।५५।।

--

नचिकेता!  तुम धन्य हो!!

इस उपनिषद् में यद्यपि यमराज आचार्य की भूमिका का निर्वाह तो कर ही रहे हैं, किन्तु लौकिक आधिदैविक स्तर पर वे देवता की भूमिका में भी हैं, और इसलिए नचिकेता को आत्म-ज्ञान का उपदेश भी दे रहे हैं। 

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार उत्तम पुरुष एकवचन 'अहं' पद का व्यक्ति और ईश्वर दोनों रूपों में प्रयोग किया, ठीक वैसे ही इस उपनिषद् में यमराज ने भी किया। 

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May 14, 2022

श्रेय और प्रेय

अधिकारी और पात्र

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द्वितीया वल्ली के प्रारंभिक ६ मंत्रों में स्पष्ट किया गया कि संसार में लगभग प्रत्येक ही मनुष्य प्रायः प्रेय से ही परिचालित होता है, और बिरला कोई ही प्रेय (प्रिय प्रतीत होनेवाली किसी वस्तु) की अनित्यता और नश्वरता को जानकर, अपेक्षाकृत नित्य किसी ऐसी वस्तु को जानने और पाने का इच्छुक होता है, जो शायद उसे स्थायी सुख प्रदान कर सके। फिर ऐसे ही इने-गिने मनुष्यों में से कोई यह भी अनुभव करने लगता है कि यहाँ तो सभी कुछ क्षणिक है, सारे संबंध, स्मृतियाँ, बुद्धि, धन-संपत्ति, यश आदि सभी तात्कालिक होते हैं। तो क्या जीवन केवल मृगतृष्णा और मृग-मरीचिका ही है? उसे यह तो दिखाई देता है कि संसार में नित्य जैसी कोई वस्तु है ही नहीं, न हो भी सकती है। फिर भी आश्चर्य यह कि ऐसा कोई नित्य संसार तो दिखाई ही देता है! तब उसे (अ)नित्य संसार और संसार की हर वस्तु से वैराग्य हो जाता है, किन्तु फिर भी उसकी बुद्धि में यह नहीं कौंधता कि संसार नित्य क्यों प्रतीत होता है। बहुत चिन्तन करने के बाद उसका ध्यान इस तथ्य पर जाता है, कि उसकी स्वयं की अपनी निजता के नित्य होने का सहज-स्वाभाविक उसका भान ही आभासी संसार के नित्य होने की भावना का रूप ले लेता है, और इसीलिए उसे संसार नित्य प्रतीत होता है। तब उसका ध्यान स्वयं पर जाता है और इस 'स्वयं' में वह क्या है, जो कि नित्य है, इसे जानने के प्रयास में वह संलग्न हो जाता है। वह जानता ही है कि, बुद्धि, विचार, भावनाएँ, धारणाएँ, मान्यताएँ, स्मृति, और शरीर आदि सभी क्षणिक रूप से प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं, मन की तीनों अवस्थाएँ -- जागृत, स्वप्न तथा गहरी स्वप्नरहित निद्रा भी सदा नहीं रहती। फिर भी सबमें समान रूप से यह जो विद्यमान 'मैं' भावना है, वही अवश्य अपेक्षाकृत नित्य है। किन्तु यह 'मैं' रूपी भावना भी कभी प्रकट, तो कभी नेपथ्य में होती है और केवल तभी, जब वह किसी वृत्ति के साथ मिश्रित हो जाती है, -तभी उसे अपने आपकी तरह मान लिया जाता है। यह भी विचारणीय है, कि जैसे और दूसरी असंख्य भावनाओं आदि को स्वतंत्र रूप में देखा या अनुभव किया जाता है, यह 'मैं' नामक भावना स्वतंत्र रूप से नहीं पाई जाती। इसका केवल अनुमान ही किया जाता है, और फिर इसे किसी अन्य भावना / अनुभूति से जोड़कर ही मनुष्य स्वयं अपने आपको पुनः पुनः भिन्न भिन्न प्रकार से व्यक्त करता है। 

जैसे कि जब मनुष्य का मन दुःखी, चिन्तित, प्रसन्न, व्याकुल  आदि होता है, तो वह कभी तो कहता है कि "मेरा मन दुःखी, चिन्तित, प्रसन्न, व्याकुल आदि है, और कभी तो यह भी कहा करता है कि "मैं दुःखी, चिन्तित, प्रसन्न, व्याकुल आदि हूँ।"

इस प्रकार प्रमादवश (negligence / ignorance) के ही कारण, केवल 'मैं' और 'मन' के पारस्परिक संबंध पर ध्यान न देने से ही, वह इस प्रकार से दो प्रकार के भिन्न भिन्न वक्तव्य देता है। 

जब वह 'मैं' नामक वस्तु और 'मन' नामक वस्तु को एक दूसरे से नितान्त भिन्न और स्वतंत्र, दो पृथक् पृथक् वस्तुओं की तरह से जान लेता है, तो समस्त द्वन्दों से रहित अपनी सहज अवस्था में स्थिर हो जाता है।

किन्तु ऐसी अवस्था की उपलब्धि करना अत्यन्त ही दुर्लभ है, और केवल किसी योग्य, अधिकारी पुरुष के द्वारा इंगित किए जाने पर ही, कोई योग्य और पात्र व्यक्ति तत्काल ऐसी अवस्था में अविचल रूप से सुस्थिर हो जाता है।

इस कथा में यमराज और नचिकेता क्रमशः ऐसे ही दो महान तत्वदर्शी और जिज्ञासु, -- अधिकारी और पात्र हैं।

इस मंत्र ६,

न साम्परायः प्रतिभाति बालं

प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।। 

अयं लोको नास्ति पर इति मानी

पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।।६।।

में आत्म-ज्ञान के अनधिकारी पुरुषों का वर्णन करने के बाद, यमराज नचिकेता से आत्मतत्त्व की दुर्लभता और दुर्दर्शता का वर्णन इस प्रकार से करते हैं :

श्रवणायापि बहुभिर्यो न लभ्यः 

शृण्वन्तोऽपि बहवो यं न विद्युः।। 

आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धा-

श्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।।७।।

न नरेणावरेण प्रोक्त एष

सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।।

अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र नास्ति

अणीयान्ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्।।८।।

नैषा तर्केण मतिरापनेया

प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।।

यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि

त्वादृङ्नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा।।९।।

यमराज नचिकेता से कहते हैं :

यह आत्म-तत्व जिसके बारे में सुनना तक अधिकांश लोगों के भाग्य में नहीं होता, और यदि ऐसे बहुत से भाग्यशाली लोगों में किसी का ऐसा भाग्य होता भी है, कि वह इस विषय में सुन भी लेता है, तो भी सुनने के बाद भी इसे जान-समझ नहीं पाता। इसे कुशलतापूर्वक कह सके, ऐसा वक्ता जो इसे जानता भी हो, मिल पाना और भी अद्भुत् और आश्चर्य की ही बात है, और वह जिसे इसका उपदेश देता है, ऐसा कुशल शिष्य मिल पाना भी इतना ही दुर्लभ एक आश्चर्य ही है।...७,

किसी अन्य के द्वारा अपने से कहा गया आत्म-तत्व का रहस्य आसानी से समझ में भी नहीं आता, किन्तु ध्यान देकर इस पर चिन्तन किए जाने से यह अवश्य ही सुविज्ञेय है। चूँकि यह तत्त्व मानों सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर, और अणु से भी सूक्ष्म है, और चूँकि तर्क का विषय नहीं है, अर्थात् तर्क से इसे ग्रहण किया जाना या किसी को समझाया जाना संभव नहीं है, इसलिए किसी और के द्वारा इसकी शिक्षा दिए जाने पर भी, किसी की इसमें गति नहीं होती, अर्थात् कोई इसे नहीं ग्रहण कर पाता।...८,

और इसे केवल तर्कबुद्धि की सहायता से भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। प्रिय नचिकेता! अन्य किसी के द्वारा अच्छी तरह से बतलाए जाने पर भी यह भलीभाँति बुद्धि में नहीं पैठता। किन्तु वह बुद्धि जो तुम्हें प्राप्त है, ऐसी प्रखर, सूक्ष्म बुद्धि जिसे प्राप्त है, ऐसा कोई धीर अवश्य ही इसे ग्रहण कर लेता है। नचिकेता! तुम्हारे जैसा सत्य पर धैर्यपूर्वक अविचल तथा अटल रहनेवाला प्रश्नकर्ता ही हमें सदैव मिलता रहे!...९।।

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May 12, 2022

द्वितीया वल्ली

चौथा वर

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नचिकेता की प्रशंसा -- यमराज के उद्गार :

नचिकेता के विवेक, वैराग्य और परिपक्वता की परीक्षा करने के बाद उसके लिए चौथा वर प्रदान करने से पहले आत्म-ज्ञान की दुर्लभता और योग्य सुपात्र तथा अधिकारी मुमुक्षु का वर्णन इस प्रकार से किया :

नचिकेता! सुनो!!

अन्यच्छ्रेयोऽन्यदुतैव प्रेय-

स्ते उभे नानार्थे पुरुष्ँसिनीतः।। 

तयोः श्रेय आददानस्य साधु 

भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेय वृणीते।।१।।

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेत-

स्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।। 

श्रेयो हि धीरोऽभि प्रेयसो वृणीते

प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद्वृणीते।।२।।

स त्वं प्रियान्प्रियरूपान्श्च कामा-

नभिध्यायन्नचिकेतोऽत्स्राक्षीः।।

नैतां सृङ्कां वित्तमयीमवाप्तो

यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः।।३।।

दूरमेते विपरीते विषूची 

अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।। 

विद्याभीप्सिनं नचिकेतसं मन्ये

न त्वं कामा बहवोऽलोलुपन्त।।४।।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानाः

स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।। 

दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा

अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।।५।।

न साम्परायः प्रतिभाति बालं

प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।। 

अयं लोको नास्ति पर इति मानी

पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।।६।।

यमराज के द्वारा कहे जानेवाले उपरोक्त छः मंत्रों में, संक्षेप में तीन प्रकार के मनुष्यों की ओर संकेत किया जा रहा है :

पहले प्रकार के मनुष्य वे हैं, जो अपनी इच्छाओं के वश में होते हैं -- अर्थात् उनका मन अनेक इच्छाओं से परिचालित होकर विभिन्न प्रिय (प्रेय) विषयों की प्राप्ति और उनके उपभोग करते रहने में संलग्न रहता है।

दूसरे प्रकार के मनुष्य वे हैं, जिनकी इच्छाएँ उनके वश में होती हैं -- अर्थात् उनकी इच्छाओं पर उनके विवेक का नियंत्रण होता है, वे प्रेय को नहीं, श्रेय को चुनते हैं और श्रेय की प्राप्ति के लिए ही प्रयत्न करते हैं। इस प्रकार उनका मन विवेक से परिचालित होता है। वास्तव में ऐसे ही मनुष्यों को धीर कहा जाता है। किन्तु तीसरे प्रकार के मनुष्य वे होते हैं जो अपने आपके धीर-गम्भीर पण्डित होने के अभिमान में डूबे होते हैं क्योंकि उन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया होता है। उनका सारा ज्ञान बौद्धिक ही होता है और उनका मन साँसारिक विषयों और उन विषयों में प्रतीत होने वाले आभासी और अनित्य सुखों को प्राप्त करने के लिए ही लालायित रहता है। ईशावास्योपनिषद् में उपरोक्त दो प्रकार के मनुष्यों के लिए क्रमशः यह कहा गया है :

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।।

ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रताः।।९।।

प्रेय को सभी जानते ही है, प्रेय की प्राप्ति के लिए ही हर मनुष्य प्रयास करता रहता है। किन्तु श्रेय की ओर ध्यान तो नित्य और अनित्य के सतत चिन्तन के फलस्वरूप उत्पन्न होनेवाले विवेक, और संसार के प्रति वैराग्य के पैदा होने का ही परिणाम होता है। इस प्रकार नचिकेता विवेक और वैराग्य की परिपक्वता होने के ही कारण वह उस नित्य तत्त्व के विषय में जानना चाहता है, जो कि मृत्यु से परे है। मनुष्य के लिए यही श्रेयस्कर है।

यमराज कहते हैं कि प्रेय और श्रेय जीवन के ये दोनों लक्ष्य एक दूसरे से अत्यन्त विपरीत हैं और श्रेय को जीवन लक्ष्य की तरह ग्रहण करने से पहले आवश्यक है कि विवेक और वैराग्य प्राप्त कर लिए जाएँ।

नचिकेता! यह विवेक और वैराग्य रूपी जो दैवी संपत्ति है, तुम्हें पहले से ही प्राप्त है (जैसा कि गीता में अध्याय १६ में भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था : 

दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मति।। 

मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।।५।।

जैसा कि इस उपनिषद् पर पोस्ट के प्रारंभ में ही उल्लेख किया जा चुका है, कि यह कथा प्रतीकात्मक रूप से आत्मानुसन्धान में संलग्न उस व्यक्ति की कथा भी हो सकती है जिसे कि उशना नाम दिया गया है, और नचिकेता जिसका आत्मज अर्थात् पुत्र है। चूँकि मन की उत्पत्ति आत्मा से होती है और आत्मानुसंधान किए जाने पर अहंकार- रूपी 'मन' को मृत्यु प्राप्त हो जाती है :

मृत्युञ्जयं मृत्युभियाश्रिताना-

महंमतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्।।

अथ स्वभावादमृतेषु तेषु

कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः।।२।।

(सद्दर्शनम्)

अन्य दृष्टि से देखें तो इस कथा को एक वास्तविक घटना के रूप में भी यद्यपि सत्य माना जा सकता है, किन्तु ऊपर उल्लिखित मंत्र ६ में जैसा कहा गया है, और वे लोग जो केवल इस लोक (और जन्म) को ही सत्य मानते हैं और मृत्यु के बाद की किसी संभावना पर सन्देह  करते हैं, उन्हें इस पर आपत्ति हो सकती है। इस दृष्टि से भी नचिकेता मनुष्य का अहंकार अथवा 'मन' है, ऐसा समझा जा सकता है।

इस प्रकार द्वितीया वल्ली के ६ मंत्रों की विवेचना की गई। 

***



 






 


May 10, 2022

रोज नया कुछ होता है!

कविता / 10-05-2022

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यह अच्छा ही है कि, हर रोज, नया कुछ होता है, 

पल भर पहले तक, जिसका पता नहीं होता है!

सुख हो या हो दुःख, ग़म या कि फिर हो खुशी,

एकाएक, अकस्मात् जो होता है, बस होता है!

चिन्ता, फिक्र, उदासी सारी ही मिट जाती है,

जीवन में कौतूहल, रोमाञ्च, यही तो होता है,

हाँ यह ज़रूर है, कुछ चीज़ें अपनी खो जाती हैं,

लेकिन और नयी भी तो कुछ मिल ही जाती हैं,

जिसका नहीं ख़याल था कभी, वह हो जाता है,

नहीं ख्वाब में भी देखा जो, वह भी हो जाता है!

लोग नये आते हैं कुछ, और चले भी जाते हैं,

दुश्मन दोस्त हो जाते हैं, और कुछ खो जाते हैं!

इस सबमें वह है कौन, कि जो अपना होता है!

यह सब होना, क्या बस कोरा सपना होता है?

फिर क्यों तलाश होती है, सबको अपनों की,

फिर क्या सचमुच, है जरूरत भी, इन सपनों की?

सिलसिला कहाँ से शुरू हुआ, पता नहीं होता है, 

यह अच्छा ही है कि हर रोज, नया कुछ होता है!

*** 


May 09, 2022

आज की दुनिया में,

कविता / 09-05-2022

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सोच पर बंदिश नहीं,

इजहार पर हो सकती है,

ख्वाब पर बंदिश नहीं,

दीदार पर हो सकती है, 

रस्मो रिवाज़ की पाबंद,

इस दुनिया में, 

दोस्ती-दुश्मनी पर हो न हो,

तक़रार पर हो सकती है!

***



दृढ-निश्चय

नचिकेता के वैराग्य, विवेक

और धैर्य की परिपक्वता,

और परीक्षा

--

यमराज द्वारा नचिकेता को इस प्रकार के प्रलोभन दिए जाने पर भी वह जरा भी प्रभावित न हुआ। उसने शान्तिपूर्वक यमराज के सारे वचन सुने, और फिर प्रत्युत्तर में उनसे कहा :

श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत्

सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेजः।। 

अपि सर्वं जीवितमल्पमेव

तवैव वाहा तव नृत्यगीते।।२६।।

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो

लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत् त्वा।।

जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं

वरस्तु मे वरणीयः स एव।।२७।।

अजीर्यतानाममृतानामुपेत्य

जीर्यन् मर्त्यः क्वधःस्थः प्रजानन्।। 

अभिध्यायन् वर्णरतिप्रमोदा-

नतिदीर्घे जीविते को रमेत।।२८।।

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो

यत्साम्पराये महति ब्रूहि नस्तत्।।

योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो

नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते।।२९।।

"हे यमराज! मर्त्य मनुष्य के समस्त विषयभोग इन्द्रियाश्रित होते हैं, आयु के बढ़ने के साथ इन्द्रियों का बल, क्षमता, और सामर्थ्य सतत क्षीण होते चले जाते हैं। जीवन कितना भी दीर्घ भी क्यों न हो, इस दृष्टि से तो अल्प ही होता है, अर्थात् उसका अन्त हो जाना सुनिश्चित ही है। उपभोग की जिन वस्तुओं, जैसे कि भव्य और विशाल रथों, नृत्य-गान आदि विषयों का प्रलोभन आप दे रहे हैं, उन्हें आप ही अपने पास रखिए!

और यह भी तो सच है, कि मनुष्य के पास कितना भी धन क्यों न हो, उससे उसे कभी सन्तोष ही नहीं होता है। चूँकि हमने अब आपके दर्शन कर ही लिए हैं तो हमें सुख से जीवन निर्वाह करने के लिए जितना आवश्यक और पर्याप्त है, उतना धन मिलता ही रहेगा। और जब तक आपका शासन हम पर है, इस मृत्यु-लोक में तब तक हम जीवित भी रहेंगे ही। अतः मैं तो आपसे वही वर पाना, अर्थात् यह जानना चाहता हूँ कि मृत्यु हो जाने के पश्चात् (मनुष्य का) क्या होता है!

हे यमराज! आपके जैसे अजर और अमर देवतुल्य महात्मा के सान्निध्य को प्राप्त कर लेने के बाद ऐसा विवेकशील कौन होगा, जो कि (मृत्यु के रहस्य को जानने के बजाय) क्षणिक साँसारिक भोगों के सुख में लिप्त और मग्न होना और उन्हें प्राप्त करने की कामना से मोहित होगा!

हे यमराज! मृत्यु हो जाने के पश्चात् जीवन का क्या होता है, यह जीवन रहता है या नहीं, इस विषय में जो जिज्ञासा-विवेचना की जाती है, कृपया उस अत्यन्त गूढ, छिपे हुए, महान रहस्य के बारे में हमसे कहिए! नचिकेता इसी वर की प्राप्ति आपसे करने का इच्छुक चाहता है, उसे कोई अन्य वर नहीं चाहिए! 

***






दो मुक्तक

©

1.

रास्ता, भविष्य का, 

कहीं नहीं मुड़ता,

टूट जाएँ पंख तो,

पंछी नहीं उड़ता,

फूल जैसे सूख जाए,

शाख से टूटा हुआ,

लौटकर वह फिर कभी,

शाख से नहीं मिलता! 

--

2.

लक्ष्य यद्यपि शुद्ध है, 

पर रास्ता अवरुद्ध है,

चाहती है यदि नियति ही,

करना निरन्तर युद्ध है!

***






May 08, 2022

प्रयोग के लिए!

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जॉइन किया तो चार पंक्तियाँ लिखीं :

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कोशिशें कर रहा हूँ जुड़ने की,

कोशिशें कर रहा हूँ उड़ने की, 

ये भी मालूम है, बिछुड़ना है, 

कर रहा हूँ तैयारी उजड़ने की! 

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May 07, 2022

तीसरा वर

विचिकित्सा या इयम् 

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The Wonder Endless, Everlasting!

यमराज ने जब नचिकेता से उनके द्वारा उसे दिए जानेवाले उस तीसरे वर के बारे में अपनी इच्छा प्रकट करने के लिए कहा, तो उसने कहा --

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये-

ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।।

एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं

वराणामेष वरस्तृतीयः।।२०।।

"मनुष्यों में मृत्यु-विषयक जो यह शंका है, और जिससे प्रेरित हो वे परस्पर एक दूसरे से इस बारे में सतत यह विवाद करते रहते हैं, कि क्या मृत्यु हो जाने के बाद जीवन किसी रूप में विद्यमान रहता है या नहीं रहता, कुछ मानते हैं कि रहता है जबकि कुछ यह मानते हैं कि ऐसा कोई जीवन शेष नहीं रहता, इस विषय में सत्य क्या है इसे आपसे जानने का इच्छुक हूँ, कृपया यह रहस्य क्या है, इसकी शिक्षा मुझे प्रदान करें। यही मेरे द्वारा चाहा गया तीसरा वर है।"

तब यमराज बोले --

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा

न ही सुविज्ञेयमणुरेष धर्मः।। 

अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व

मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम्।।२१।।

यमराज ने कहा --

"पुरातन काल में देवताओं के मन में भी यह प्रश्न पैदा हुआ था, और वे यद्यपि जानते थे कि यज्ञों आदि कर्मों का विशिष्ट प्रकार से अनुष्ठान किए जाने पर मनुष्य को स्वर्ग आदि लोक प्राप्त हो सकते हैं, जहाँ उसे देवतुल्य, अबाध सुख, भोग और विलास के साधन प्राप्त हो सकते हैं, किन्तु उन्हें यह भी पता था कि उनके पुण्य क्षीण होते ही उन्हें पुनः मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है। परन्तु फिर भी उन्हें इस विषय में अनिश्चय ही था कि मृत्यु हो जाने के बाद क्या कोई जीवन होता है? इस तत्व का कण-मात्र भी समझ पाना बहुत दुष्कर है। इसलिए नचिकेता! तुम इस वर को छोड़ ही दो और इसके बदले कोई अन्य वर मुझसे माँग लो। और तुम मुझ पर इसके लिए दबाव मत डालो!"

किन्तु नचिकेता भला पीछे कैसे हटता! उसने पूछा और आग्रह भी किया :

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल

त्वं च मृत्यो यन्न सुविज्ञेयमात्थ।। 

वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो

नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित्।।२२।।

"हे मृत्यु! मैं मानता हूँ कि पूर्वकाल में देवताओं ने भी इस प्रश्न पर बहुत विचार विमर्श और इसकी विवेचना (विचिकित्सा -- विश्लेषण आदि से समाधान पाने की चेष्टा) अवश्य ही की होगी, और यह भी इतना ही सुनिश्चित और सत्य है कि इस विषय को बहुत अच्छी तरह जाननेवाले एकमात्र आप ही हैं। इस विषय का न तो आपके जैसा कोई अन्य ज्ञाता है, और न ही ऐसा कोई वक्ता कभी प्राप्त हो सकता है। फिर यह भी सत्य है कि, इसके तुल्य, इसके समान कोई दूसरा वर हो भी नहीं सकता!"

तब यमराज नचिकेता को बहुत से प्रलोभन देने लगते हैं --

शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व

बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।। 

भूमेर्महदायतनं वृणीष्व

स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।।२३।।

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं

वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।। 

महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि

कामानां त्वा कामभाजं करोमि।।२४।।

ये ये कामा दुर्लभा मृत्युलोके

सर्वान् कामाँश्छन्दतः प्रार्थयस्व।। 

इमा रामाः सरथाः सतूर्या

न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यैः।।

आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व

नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षीः।।२५।।

यमराज ने नचिकेता से कहा --

"नचिकेता! तुम मुझसे सौ वर्षों की आयुवाले बहुत से पुत्रपौत्र आदि माँग लो, अनेक पशु, हाथी, स्वर्ण और अश्व इत्यादि माँग लो, बहुत बड़ी भूमियाँ भी माँग लो, और यदि चाहो तो अपने लिए मनचाही आयु तक जीवन जीने का वर भी प्राप्त कर लो। और यदि तुम इस वर को इसके समान समझते हो तो बहुत सा धन, चिरंजीवी होने का वर भी माँग लो, तुम पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट हो जाओ, और जो जो कामनाएँ तुम पूर्ण करना चाहो उन सबका भोग करने में समर्थ होने के लिए मैं तुम्हें सामर्थ्य भी दे सकता हूँ। मनुष्यलोक में जो कामनाएँ दुर्लभ समझी जाती हैं, उनके पूर्ण होने का वर अपनी इच्छा के अनुसार माँग लो। सुन्दर स्त्रियाँ, बड़े विशाल रथ, गीत-संगीत के वाद्य और साधन, इस प्रकार की वस्तुएँ मनुष्यों को कभी प्राप्त नहीं होती हैं। मेरे द्वारा प्रदत्त इन विविध वस्तुओं का स्वेच्छानुसार उपभोग करो, किन्तु मुझसे यह न पूछो कि मृत्यु के बाद (मनुष्य का) क्या होता है, (या कि उसकी क्या गति होती है!)

***


 







दिल से!

कविता / 08-05-2022

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मैं और जीवन

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यह जीवन चिन्ताओं से भरा,

भय, व्याकुलताओं से भरा,

शंका, आशंकाओं से भरा,

इस जीवन में सुख कैसे हो! 

हाँ, बहला लेता हूँ मन को,

मन, मुझको बहला लेता है,

मैं बदला लेता हूँ मन से,

मन मुझसे बदला लेता है! 

मैं स्मृतियों को छलता हूँ,

स्मृतियाँ मुझको छलती हैं,

स्मृतियों-संग उठते विचार,

प्रतीति, अतीत की होती है।

यह अतीत, अतीत का विचार,

स्मृति, अतीत की यह प्रतीति,

क्षण भर में हो उठती सजीव,

क्षण भर में हो जाती विलीन!

यह स्वप्न था, या कि हुआ ऐसा?

मन में सन्देह उभरता है, 

यह अतीत है, या है सपना!

क्षण क्षण सजीव जो होता है! 

ऐसे कितने, हैं अतीत मेरे? 

ऐसी कितनी ही अनुभूतियाँ,

ऐसे कितने, हैं अनुभव मेरे, 

ऐसी कितनी ही प्रतीतियाँ! 

क्या वे आती-जाती रहती हैं, 

या वे रहती हैं, वे मुझमें ही!

क्या खुद ही उनसे जुड़कर,

मैं नहीं उलझता, उनमें ही? 

क्या मैं स्मृति हूँ या अतीत?

क्या विचार हूँ, या प्रतीति? 

अनुभव हूँ, या हूँ अनुभूति,

फिर क्यों उनसे है, मुझे प्रीति!

क्यों होता हूँ मैं आसक्त, 

क्यों मैं हो जाता हूँ उद्विग्न,

यह 'मैं' विचार है, या कोई, 

उनसे जो अन्य, नितान्त भिन्न!

संवेदन जिसका होता है, 

'मैं' और 'मैं' का यह विचार,

अभिव्यक्ति, व्यक्ति, दोनों का ही, 

क्या चेतनता ही, नहीं आधार! 

चेतनता यह, जो है जीवन भी,

टुकड़े टुकड़े है, या है अखण्ड,

जिसमें है ओतप्रोत सब कुछ,

जो अखिल विश्व, सारा ब्रह्मांड!

समय, अतीत, स्मृति या विचार,

जिसमें अनंत जग होते स्फुरित!

क्या मैं हूँ, या है यह 'मैं-विचार',

देख अचंभित, है / हूँ विस्मित!

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May 06, 2022

पहेली जिन्दगी की

कविता / 06-05-2022

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जिन्दगी की पहेली को बूझती है,

जब कविता, अचानक सूझती है,

ज़रूरी नहीं है, कि जीत ही जाए,

हार भी जाती है, लेकिन जूझती है।

कोई पत्थर हो, या पत्थर-दिल,

जिसे भी माने, दिल से पूजती है। 

भोर हो जाने से जरा पहले जैसे,

कोई चिड़िया अचानक कूजती है।

***



***


या


यथास्थितिवाद

Ad-hoc-ism.

कविता / 06-05-2022

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हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं, 

जीते जी लोग मरे बैठे हैं! 

जाने किस बात का है ग़रूर,

जाने किस बात पर यूँ ऐंठे हैं!

सतह पर तैरना मुश्किल नहीं, 

उनसे पूछो, जो गहरे पैठे हैं!

उनकी नस नस में है आक्रोश भरा, 

जाने किस बात पर, वो भरे बैठे हैं!

जिनसे उम्मीद थी, बचाएँगे हमें, 

वे ही लोग खुद भी डरे बैठे हैं।

लगा के आग, तमाशा देखनेवाले,

दूर से देखते हैं, जाकर वो परे बैठे हैं!

***

'कुछ भी'


 


भविष्य का रहस्य

कविता / 06-05-2022

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रहस्य, अभी बरकरार है भविष्य का, 

भविष्य, अभी बरकरार है रहस्य का!

भविष्य, वर्तमान है, अभी अतीत का, 

रहस्य, वर्तमान है, अभी अतीत का।

रहस्य, जो है समय, जो है बस विचार,

भविष्य, जो है कल्पना, वह भी विचार, 

अतीत, जो था स्मृति कभी, वही तो है वर्तमान में, 

स्मृति जो थी अतीत कभी, वही पुनः वर्तमान में।

स्मृति की, भविष्य की, अतीत की भी सत्यता, 

कल्पना की, वर्तमान, कालगत असत्यता,

विचार पर, यद्यपि क्षणिक, ही तो हैं आश्रित सभी,

क्षण यह क्षणिक भी, पुनः विचार पर आश्रित सभी।

यह जो है चक्रव्यूह, और यह जो है प्रपञ्च, 

यही तो है महाभारत, समय ही तो है रंगमञ्च।

बिरला ही कोई, अर्जुन ही इसे सकता है भेद, 

दूसरा कोई भी और, कभी न यह, समझेगा भेद।

हाँ हैं रण में यूँ तो, अभिमन्यु जैसे बहुत सारे,

किन्तु अब तक समय से अन्ततः वे सभी हारे। 

है कुटिल यह समय, अतीत का, भविष्य का, 

कौन है, जो कि भेद पाया, भेद इस रहस्य का।

शकुन-अपशकुन को तो, शकुनि जैसे ही जानते,

युधिष्ठिर भी हैं कहाँ समझे, वे भी कहाँ पहचानते!

कृष्ण भी कुछ करते नहीं, हैं देखते बस मुस्कुराकर,

अन्ततः हैं लौट जाते युद्ध से, हारकर सारे धनुर्धर!

फिर वही अर्जुन है, फिर से उसके वही तो बाण हैं, 

शत्रु है, अतीत, भविष्य, वही तो वर्तमान है! 

***




तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व

त्रिणाचिकेतः (स्वर्ग्य अग्नि विद्या)

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वैसे तो नचिकेता के लिए कुल तीन ही वर उसे देने की कल्पना  यमराज के मन में थी, किन्तु नचिकेता की प्रतिभा और बौद्धिक परिपक्वता से प्रसन्न होकर उन्होंने उसे एक वर और दे दिया इस प्रकार यूँ तो तीन वर यद्यपि उसे प्राप्त हो गए थे, किन्तु उनमें से एक अतिरिक्त वर यमराज ने उस पर प्रसन्न होकर उसे दिया। उस त्रिणाचिकेत अग्नि विद्या के रहस्य को उसके लिए उद्घाटित करने के बाद वे बोले :

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं

त्रिकर्मकृत् तरति जन्ममृत्यू।। 

ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा

निचाय्येमां शान्तिमत्यन्तमेति।।१७।।

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा

य एवं विद्वान्ँश्चिनुते नाचिकेतम्।।

स मृत्युपाशान् पुरतः प्रणोद्य

शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके*।।१८।।

एष तेऽग्निर्नचिकेतः स्वर्ग्यो

यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण।।

एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनास-

स्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व।।१९।।

(यमवृणीथा -- यं अवृणीथाः)

"नचिकेता! इस अग्नि विद्या को जानकर जो विद्वान तदनुसार इस नाचिकेत-अग्नि का आवाहन करता है, वह समक्ष आई हुई मृत्यु के पाश से छूट जाता है, शोक का अतिक्रमण कर, स्वर्ग-लोक को प्राप्त कर लेता है और प्रसन्नतापूर्वक वहाँ के सुखों को भोगता है।

तुमने जो द्वितीय वर चुना था, उसे देने के लिए मैंने इस स्वर्ग्य अग्नि की विद्या का उपदेश तुम्हें दिया। लोक में इसे तुम्हारे ही नाम से जाना जाएगा। नचिकेता! अब तुम तुम्हारा मनो-वाँछित तृतीय वर माँगो।"

(यहाँ स्पष्ट है कि त्रिणाचिकेत अग्नि की उपासना करने वाला यद्यपि स्वर्ग आदि उच्चतर लोकों को प्राप्त कर लेता है, किन्तु इससे वह जन्म-मृत्यु के चक्र से छूट नहीं जाता। यद्यपि ऐसा भी कहा जाता है, कि जो ॐकार की तीन और चौथी अर्धमात्रा का साधन करते हैं वे क्रमशः ब्रह्मलोक, विष्णुलोक और शिवलोक (ईशान) को प्राप्त करते हैं किन्तु जो ॐकार की सार्ध चतुर्थ मात्रा का साधन करते हैं, वे उस अनामय पद को प्राप्त करते हैं, जिसका वर्णन शिव-अथर्वशीर्ष में इस रूप में पाया जाता है :

या सा प्रथमा मात्रा ब्रह्म-देवत्या रक्ता वर्णन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्ब्रह्मपदम्। 

या सा द्वितीया मात्रा विष्णु-देवत्या कृष्णा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेद्वैष्णवं पदम्। 

या सा तृतीया मात्रा ईशान-देवत्या कपिला वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेदैशानं पदम्।

या सार्ध-चतुर्थी मात्रा सर्वदेवत्याऽव्यक्तीभूता खं विचरति शुद्ध-स्फटिकसन्निभा वर्णेन यस्तां ध्यायते नित्यं स गच्छेत् पदमनामयम्।।)

***



May 05, 2022

शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके*

त्रिणाचिकेता / त्रिणाचिकेतः 

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नचिकेता ने प्रथम वर के माध्यम से यमराज से पिता के शोक और उद्वेग का निवारण तो पा ही लिया, और परोक्षतः यह भी सुनिश्चित कर लिया कि वह पिता से उनके और उसके अपने इसी जीवन में इस इहलोक में पुनः मिलेगा।

नचिकेता को यह भी जानना है, कि स्वर्गलोक की प्राप्ति करने की विद्या (का तत्त्व) क्या है, और चूँकि यम ही स्थूल - भौतिक आधिभौतिक, सूक्ष्म - आधिदैविक, तथा कारण - आत्मा की / आध्यात्मिक अग्नि भी हैं, इसलिए वह उनसे इस अग्निविद्या अर्थात् वैदिक कर्मकाण्ड के रहस्य को भी सुनना चाहता है। इसी ध्येय से प्रेरित होकर वह उनसे द्वितीय वर के लिए निवेदन करता है --

स्वर्गे लोके...  ... द्वितीयेन वरेण।।

(मंत्र १२ तथा १३, जिसे इससे पहले लिखे हुए पोस्ट में देखा जा सकता है।) 

इस पर यमराज उसके लिए स्वर्ग्य-अग्नि की विद्या का उपदेश उसे देते हैं --

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध

स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन्।। 

अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां

विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।।१४।।

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै

या इष्टिका यावतीर्वा यथा वा।।

स चापि तत्प्रत्यवदतद्यथोक्त-

मथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः।।१५।।

तमब्रवीत् प्रीयमाणो महात्मा

वरं तवेहाद्य ददामि भूयः।।

तवैव नाम्ना भवितायमग्निः

सृङ्कां चैमामनेकरूपां गृहा।।१६।।

यमराज ने नचिकेता से कहा :

"इस स्वर्ग्य-विद्या (स्वर्गलोक प्राप्त करने की विद्या) को तुम्हारे जानने के लिए तुमसे कहता हूँ, ध्यान से सुनकर इसे समझ लो। यह ज्ञान-रूपा अग्नि, बुद्धि है जिसका स्थान गुह्य है। मनुष्य का ध्यान इस पर तभी जाता है जब यह व्यक्त रूप में होती है। बुद्धि का आगमन जहाँ से होता है, उस स्थान को मनुष्य नहीं जानता, इसलिए उसे गुहा कहा जाता है। 

[मनुष्यों में अलग अलग समय पर अलग अलग बुद्धि व्यक्त होती है। मनुष्य की बुद्धि कभी तो स्पष्ट, कभी अस्पष्ट, कभी मलिन, तो कभी शुद्ध, कभी चञ्चल या अस्थिर, तो कभी पैनी होती है। इसी प्रकार बुद्धि स्थिर भी हो सकती है, किन्तु मनुष्य के लिए वह हितकारी ही हो, आवश्यक नहीं। गीता में इस बारे में बुद्धि के ये दो प्रकार बतलाए गए हैं :

एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।। 

बुद्ध्या युक्तो मया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।३९।।

नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।। 

स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।४०।।

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।

बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।

यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।।

वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।

कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।।

क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।

भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।। 

व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।

(अध्याय २)]

स्वर्ग्यविद्या कर्मकाण्ड है, जिस पर विश्वास करनेवाले यह मानते होते हैं कि यज्ञ आदि कर्मों के सतत अनुष्ठान से अनंतकाल तक स्वर्ग के सुखों का भोग किया जा सकता है। और अगले श्लोकों में हम पढ़ेंगे, -नचिकेता को यह स्पष्ट है, कि समस्त भोग और लोक अनित्य होने से काल से बाधित हैं, और उनके माध्यम से नित्य सुख प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु क्या इससे भिन्न कोई उपाय है, जिससे नित्य वस्तु की प्राप्ति हो?

उपरोक्त श्लोकों १४, १५, तथा १६ में यमराज ने नचिकेता की जिज्ञासा को शान्त किया और इस कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करने के लिए यज्ञकुण्ड आदि के निर्माण में कौन सी और कितनी ईटें प्रयुक्त होती हैं, किन मंत्रों को प्रयोग किया जाता है, यह भी उसे समझाया। फिर उससे यह सब सुन कर यह पुष्टि भी कर ली कि उसने यह विद्या अच्छी तरह समझ ली है। फिर पुरस्कार स्वरूप इन मंत्राक्षरों /  वर्णों की दिव्य माला उपहार स्वरूप उसे प्रदान कर दी। यमराज ने यह भी वर उसे दिया, कि इस स्वर्ग्यविद्या के ज्ञान और इसकी अग्नि का उल्लेख त्रिणाचिकेतः नाम से किया जाएगा।

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अम्बर यह अपार!

बाल-कविता / 05-05-2022

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मन पंछी, तन घोंसला, बगिया सब संसार,

अम्बर जैसे पट अपार, जिसका आर न पार! 

मन पंछी उड़ता रहता, पर जब भी थक जाता है,

लौट आता है पुनः नीड़ पर, घड़ी दो घड़ी सो जाता है।

बगिया है लेकिन बहुत बड़ी, उसको ऐसा लगता है,

क्या होगा इसके बाहर, आखिर कौन वहाँ पर बसता है!

हर बार यही कोशिश होती थी, इसका मैं पता लगाऊँ,

लेकिन पंखों में कितनी ताकत, बाहर मैं कैसे जाऊँ! 

हाँ यह शायद हो सकता है, आखिर को उसने सोचा, 

एक बच्चे को तब देखा, जब बगिया में वह था आया। 

पंछी को पहले डर तो लगा, फिर भी उसने हिम्मत की, 

पहले उसके कंधे पर जा बैठा, फिर उससे दोस्ती की। 

कुछ दिन जब उसके साथ रहा, तो उसका घर भी देख लिया, 

एक दिन आखिर साथ उसके, उसके घर भी चला गया! 

बच्चा हुआ बहुत खुश उसने सोने का पिंजरा बनवाया,

पंछी भी हुआ बहुत खुश, पिंजरा वह उसको भाया। 

धीरे धीरे बड़ा हुआ वह, बच्चा भी उसके साथ साथ,

दोस्ती भी यूँ ही बढ़ती गई, बीते बरस कब क्या पता। 

बच्चा भूल गया पंछी को, फिर जाकर बसा विदेश,

पंछी भी उसको भूल गया, लौट आया फिर अपने देश! 

यह बगिया जैसी भी है, ऐसी छोटी भी तो नहीं है, 

इतनी भी तो काफी है, जीवन भी इतना काफी है!

बाहर क्या है जान लिया, तो उससे भी आखिर क्या,

नीड़ अपना, अपनी बगिया, उससे बढ़कर दुनिया क्या! 

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May 03, 2022

नचिकेता के प्रथम दो वर

यम से प्राप्त प्रथम और द्वितीय वर

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शान्तसंकल्पः सुमना यथा स्याद्वीतमन्युर्गौतमो माभि मृत्यो।। 

त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे।।१०।।

नचिकेता यमराज से प्रथम वर यह माँगता है कि वे पुनः उसका पहले की तरह स्वस्थ स्वरूप में सृजन करें, और उसे यमलोक से सकुशल लौटकर आया हुआ देख कर उसके पिता ग्लानि, क्षोभ और उद्वेग से रहित होकर शान्त और प्रसन्न-मन हो जाएँ। 

"हे मृत्यु! जिसे मैं आपसे प्राप्त करूँ, उन तीन वीरों में से मेरा प्रथम वर तो यही है, कि मेरे पिता मुझे पुनः पहले की ही तरह जीवित देखें, और इससे उन्हें प्रसन्नता प्राप्त हो, उनकी चिन्ता और शोक समाप्त हों।"

तब यमराज ने उसे इस प्रकार तथास्तु कहा :

यथा पुरस्ताद् भविता प्रतीत

औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः।। 

सुख्ँ रात्रीः शयिता वीतमन्युः-

स्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम्।।११।।

"नचिकेता! मैं तुम्हें प्रथम वर यह प्रदान करता हूँ कि मुझ मृत्यु के मुख से तुम्हें सकुशल लौटकर आया हुआ देख, उद्दालक के पुत्र, तुम्हारे पिता आरुणि, शोक, दुःख आदि से निवृत्त होकर शेष रात्रियों में सुखपूर्वक सोया करेंगे।"

तब यमराज से नचिकेता द्वितीय वर माँगते हुए कहता है :

स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति

न तत्र त्वं न जरया बिभेति।।

उभे तीर्त्वाशनायापिपासे

शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके।।१२।।

स त्वमग्निं स्वर्गमध्येषि मृत्यो

प्रब्रूहि त्व्ँ श्रद्दधानाय मह्यम्।।

स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त

एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण।।१३।।

नचिकेता यमदेवता से कहता है :

"स्वर्ग लोक में कोई भय नहीं होता। वहाँ न तो मृत्यु का, अर्थात् न तो आपका और न ही बुढ़ापे का भय सताता है। न तो भूख का, और न ही प्यास का कष्ट वहाँ होता है। और इस तरह कष्टों से मुक्त, शोक से रहित होकर केवल आमोद प्रमोद ही होता है।

हे मृत्यो! आप तो स्वर्ग (की प्राप्ति) की विद्या को भली प्रकार से जानते हैं। इसलिए आप मुझ श्रद्धावान् के लिए उसका उपदेश कीजिए, क्योंकि स्वर्ग लोक की प्राप्ति कर लेनेवाला अमर हो जाता है और अमृतत्व का उपभोग करता हुआ सदा सुखी होता है। मैं यही द्वितीय वर आपसे माँग रहा हूँ।"

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अर्थ और / या प्रयोजन

अर्थ और / या प्रयोजन / भविष्य और संभावना,
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किसी भी प्रकार से अपने अस्तित्व के भान के बाद ही बुद्धि का कार्य प्रारंभ होता है। बुद्धि, इसी भान / इस बोध का ही परिणाम होती है, और इस बुद्धि में ही अपने अस्तित्व या होने का सहज और स्वाभाविक भान अन्तर्निहित होता है। अर्थात् बुद्धि का कार्य प्रारंभ होने से पूर्व वह अव्यक्त दशा में संभावना की तरह विद्यमान होती है। बुद्धि का कार्य प्रारंभ होने के बाद ही बुद्धि  अभिव्यक्त होकर जगत् और व्यक्ति, इन दो आयामों में कार्यरत हो जाती है। व्यक्त-जगत् और मनुष्य का शरीर, ये दोनों ही जिन तत्वों से बने होते हैं, वे भिन्न भिन्न नहीं हैं, और उनसे ही व्यक्ति और जगत् का अस्तित्व संभव होता है। किन्तु बुद्धि का कार्य प्रारंभ होते ही शरीर और शरीर में विद्यमान जीवन, मनुष्य की बुद्धि में, अपने अस्तित्व को बुद्धि और इन्द्रियग्राह्य संवेदनों से ग्रहण किए जानेवाले अनुभवों के आधार पर "मैं" और "मेरा संसार" में विभाजित कर लेते हैं। शरीर में विद्यमान जीवन और शरीर के साथ सहवर्ती अस्तित्व या प्रकृति एक ही अविभाज्य सत्यता होते हुए भी व्यक्ति की बुद्धि में भिन्न भिन्न दो इकाइयों में परस्पर अवलंबित सत्य की तरह पृथक् पृथक् प्रतीत होते हैं। 
पृथकता की यह भावना पैदा होने के बाद ही मनुष्य का ध्यान अपने और जीवन के संभावित अर्थ और प्रयोजन पर जाता है और जीवन में सतत सुख की प्राप्ति और दुःख की समाप्ति ही जीवन का एकमात्र अर्थ और / या प्रयोजन होता है। इसके साथ यह अर्थ और / या प्रयोजन भी पुनः अपने समुदाय और समूह के संभावित हितों के संवर्धन और हानियों से रक्षा की दिशा में प्रवृत्त हो जाता है। तब विभिन्न समुदायों के हितों और लक्ष्यों के बीच टकराहटें होती हैं और यही मनुष्य की सामूहिक नियति है।
किन्तु हर मनुष्य की ही बुद्धि समय की कल्पना से मोहित होती है और अपने अपने मस्तिष्क में संचित स्मृति के आधार पर ऐसे अनुमान और कल्पना से संभावित भविष्य के चित्र की रचना भी तत्क्षण ही कर लेती है। भवितव्य (जो अवश्य ही अचल एवं अटल है) और भविष्य के इस अनुमान और कल्पना से निर्मित चित्र में अपवाद-स्वरूप कुछ समानता होती भी है तो बुद्धि उस आधार पर भविष्य को जानने और बदलने के विचार से ग्रस्त हो जाती है। सामान्य तर्क से भी यह सिद्ध किया जा सकता है कि यदि भविष्य को जान भी लिया जाता है तो भी उसे बदलने का विचार हास्यास्पद ही है, क्योंकि उस स्थिति में जिस भविष्य को जानने का दावा किया जा रहा है वह अवश्य ही उस भविष्य का त्रुटिपूर्ण आकलन था, न कि उसकी वास्तविकता का ज्ञान। इस विरोधाभास पर ध्यान न (दिए) जाने से ही भविष्य के आकलन, और भविष्यवाणी करने का तथाकथित शास्त्र अस्तित्व में आता है और निश्चित ही एक लाभदायक धंधे की तरह फलता फूलता भी रहता है। ऐसा जानबूझ कर या प्रायः अज्ञान से होता होगा। भविष्य, समय / काल और विविध घटनाओं का पूर्वानुमान और आकलन शुद्धतः भौतिक विज्ञान से संबंधित विषय है, और उस तरह से उस सीमा के अन्तर्गत सत्य है ही, इसे नकारा नहीं जा सकता, किन्तु जीवन और अस्तित्व में अनेक तलों पर होने जा रही भिन्न भिन्न असंख्य घटनाओं का पूर्वानुमान लगाना असंभव है। कल्पना से सृजित काल / समय, लोभ, भय, आशा, दुःख की आशंका, चिन्ता, उन्माद आदि से मनुष्य ऐसे किसी अनागत भविष्य को जानने और बदलने तक के आग्रह का शिकार होता है। अस्तित्व के अनेक तलों पर होनेवाली ऐसी अनेक चिन्ताएँ मनुष्य के मन को निरन्तर क्षरित (deteriorate) और विनष्ट (degenerate, destroy) करती रहती हैं। यह सब न केवल व्यक्ति के बारे में,  बल्कि समुदाय और समूहों के बारे में भी पूर्ण सत्य है।
यह हमारी सबकी केवल व्यक्तिगत (individual) ही नहीं, बल्कि सामूहिक (collective) नियति भी है। 
 
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May 02, 2022

यमराज द्वारा प्रदत्त तीन वर

अनुपश्य यथा पूर्वे

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(कठोपनिषद् अध्याय १, वल्ली १)

पातञ्जल योगसूत्र, साधनपाद याद आया :

दृष्टृदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः।।१७।।

प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम्... ।।१८।।

विशेषाविशेषलिङ्गमात्रालिङ्गानि गुणपर्वाणि।।१९।।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

तदर्थ एव दृश्यस्य आत्मा।।२१।।

अहंवृत्ति को ही अहं-प्रत्यय भी कहा जाता है। 

प्रत्ययानुपश्य का अर्थ हुआ, दृश्य के परिप्रेक्ष्य में यह प्रत्यय ही दृष्टा-आत्मा है। वस्तुतः तो अहं-वृत्ति अर्थात् अहं-प्रत्यय स्वयं ही (शुद्ध दृष्टा आत्मा के लिए) दृश्य है, किन्तु प्रमाद अर्थात् दृक्-दृश्य में भेद की सत्यता पर सन्देह न होने के कारण अहं-वृत्ति को दृश्य की आत्मा कहा गया है, जो केवल तदर्थ / तात्कालिक रूप से ही है, न कि सदैव। 

इसलिए इसे प्रत्ययानुपश्यः कहा गया है।

उपनिषद् का अगला मंत्र है :

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।। 

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।६।।

उशन् का मन ही अहं-प्रत्यय की तरह (उससे)  कहता है --

यह जो नित्य मरणशील और नित्य पुनः उत्पन्न होनेवाला मन है, वह मानों अनाज की तरह है, जो अनुकूल ऋतु में उग आता है, और फिर सूखकर नष्ट हो जाता है। 

गीता के अनुसार --

अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्।।

तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि।।२६।।

(अध्याय २)

इस दृष्टि से अहं-प्रत्यय की निरन्तरता ही अपना अहंकार-रूपी जीव-भाव है। 

फिर भी पिता के वचन को पूर्ण करने के लिए नचिकेता मृत्यु के बारे में शोध करने लगता है। वह स्वेच्छया ही मृत्यु (यम) के द्वार पर जाकर खड़ा हो जाता है। 

तब मृत्यु का देवता यम से उसका मिलना नहीं हो पाता क्योंंकि यम और उसके मध्य तीन रात्रियों की दूरी है। इसे आगे के मंत्रों में स्पष्ट किया जाएगा।

वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्।। 

तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।।७।।

तब तीन रात्रियों की दूरी मिट जाने पर नचिकेता को यमराज के दर्शन होते हैं। यमदेवता जानते ही हैं और उन्हें स्मरण भी है कि द्वार पर उपस्थित हुआ अतिथि स्वयं अग्नि-देवता हैं अतः उन्हें यथोचित सम्मान पूर्वक पाद्य-अर्घ्य आदि अर्पित करना गृहस्थ का कर्तव्य है। क्योंकि --

आशाप्रतीक्षे संगत्ँ सूनृतां च

इष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान्।।

एतद् वृङ्क्ते पुरुषास्यल्पमेधसो

यस्यानश्नन वसति ब्राह्मणो गृहे।।८।।

तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे

अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य ।।

नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन् स्वस्ति मेऽस्तु

तस्मात् प्रति त्रीन् वरान् वृणीष्व।।९।।

"अर्थात् जिस गृहस्थ के घर पर ब्राह्मण अतिथि भूखा-प्यासा रह जाता है, उसके सभी  यज्ञ याग आदि नित्य, नैमित्तिक आदि कर्म निष्फल हो जाते हैं...।"

वे नचिकेता से कहते हैं :  "हे ब्रह्मन्! आप मेरा कल्याण करें! मेरे अपने प्रमाद से मैं आपका यथोचित सम्मान नहीं कर पाया, जिसके लिए क्षमा करें और तीन रात्रियों तक जो आप मेरे द्वार पर भूखे-प्यासे खड़े रहे, उनसे मुझे जो पाप प्राप्त हुआ, उसके निवारण के लिए मैं आपको तीन वर प्रदान करना चाहता हूँ। कृपया वर गृहण करें!

ये तीन रात्रियाँ ही हमारा (अहं-वृत्ति का) जीवन है।

जागृत, स्वप्न तथा सुषुप्ति इस क्रम-रूपी तीन आत्मा के अज्ञान-रूपी  रात्रियों में सतत गतिशील जीव, यम के द्वार पर ही खड़ा रहता है, किन्तु उनमें से भी बिरला ही नचिकेता जैसा कोई मृत्यु के रहस्य को जानने के लिए उत्सुक और धैर्यशील होता है।

और चूँकि नचिकेता पिता के वचन की रक्षा करने के लिए यम के द्वार पर आया, इसलिए यमराज उसे प्रसन्नता से तीन वर देना चाहते हैं।

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Shun the violence.

Shun the hatred.

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Is the The prevalent and current Neo-slogan (नव-श्लोकम्).

मेरे पास अंग्रेजी / हिन्दी के तीन शब्दकोष हैं। 

एक है कामिल बुल्के का अंग्रेजी-हिन्दी,

दूसरा है अक्षवर्त -- Oxford का Oxford English Learning Dictionary,

और तीसरा है अक्षवर्त का ही हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोष, जिसे कभी कभी इस्तेमाल करता हूँ। 

अब एक नया सूत्र-वाक्य पढ़ा-सुना और प्रचारित किया जा रहा है : "Shun the hatred."

इस सूत्र-वाक्य में बड़ी चतुराई और सफाई से सनातन धर्म की इस मौलिक शिक्षा :

"मा विद्विषावहै।।" 

से, कि हम किसी से द्वेष न करें, ध्यान हटाया जा रहा है।

द्वेष का अर्थ है हिंसा, जो अधर्म का ही प्रकार है। 

किन्तु सीधे सीधे :

"घृणा से बचो, अर्थात् घृणा से दूर रहो,"

यह कहा जाना सुनने में कुछ सुहावना लगता है! 

उपनिषद् का एक शान्तिपाठ है :

सह नाववतु सह नौ भुनक्तु सह वीर्यं करवावहै।। 

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै।। 

इसका तात्पर्य यही है कि हम किसी से और परस्पर भी, द्वेष न करें। क्या घृणा का जन्म द्वेष से ही नहीं होता?

सनातन-धर्म की एक शिक्षा के अनुसार :

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनी।। 

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः।।१८।।

(गीता अध्याय ५)

उपरोक्त श्लोक के अनुसार :

जो वास्तविक पण्डित है ऐसे समदर्शी पण्डित की दृष्टि में विद्या और विनय से युक्त विद्वान और श्रेष्ठ ब्राह्मण, तथा गाय, हाथी, श्वान (कुत्ता) और श्वपच् -श्वानभोजी, चाण्डाल के बीच कोई भेद नहीं होता, क्योंकि वह उन सभी में एक ही परमात्मा का दर्शन करता है। 

सनातन-धर्म की ही दूसरी शिक्षा में ईश्वर के दस अवतारों में से एक अवतार वराह है। वराह (Boar), शूकर के ही समान एक पशु है, और फिर भी अवतार की तरह पूज्य माना जाता है। शिक्षा स्पष्ट है कि हम शूकर की पूजा न भी करें, तो भी उससे घृणा भी न करें।

किन्तु इसका यह आशय यह तो कदापि नहीं हो सकता कि हम हमारे धर्म में निषिद्ध किसी अशुद्ध और अभोज्य वस्तु का सेवन करने लगें। क्या तब हम उन निषिद्ध वस्तुओं तथा उनका सेवन करनेवालों से घृणा करते हैं?

जैसे गोमांस का सेवन करना सनातन-धर्म को माननेवाले किसी भी व्यक्ति के लिए महापाप है, किन्तु फिर भी हम गाय की पूजा करते हैं और वह इसीलिए भी कि उपरोक्त वर्णित श्लोक में उसे ब्राह्मण (मनुष्य) और हाथी की तरह शाकाहारी, अहिंसक पशु की ही श्रेणी में माना जाता है। किन्तु चूँकि हमारे धर्म की शिक्षा के अनुसार श्वान मांसाहारी होता है (और शायद इसलिए विज्ञान भी उससे सावधान रहने का सुझाव देता है) हम श्वान से यद्यपि  घृणा नहीं करते किन्तु उससे सुरक्षित दूरी अवश्य ही रखते हैं, और उसके मांस का सेवन करने की तो हम कल्पना तक नहीं कर सकते। श्वान के मांस का भी कुछ लोग सेवन करते हैं और उनकी ही तरह कुछ मांसाहारी लोग शूकर के मांस का भी सेवन करते हैं। क्या वे शूकर से घृणा करते हैं?

अतः किसी से भी घृणा (hatred) करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। किन्तु सनातन-धर्म की शिक्षा, जिसके अनुसार अहिंसा ही धर्म का प्रथम आधार है, -- हमें हिंसा (violence) करने से तो अवश्य ही बचना चाहिए। यहाँ हिंसा का तात्पर्य है, -द्वेष या मनोरंजन के उद्देश्य से की जानेवाली अनावश्यक हत्या या मार-काट, या किसी को इस तरह से पीड़ित करना।

इसलिए ,"घृणा से परहेज करें" -- "Shun the hatred" यद्यपि अपनी जगह सराहनीय तो है किन्तु यह पर्याप्त नहीं है, और उसके निहितार्थों की अवहेलना नहीं की जा सकती है।

शाकाहारियों के लिए इसका क्या महत्व है कि मांस किस पशु का है, या किस तरीके से उसका वध किया गया है! 

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May 01, 2022

पुनः उशना

समानांतर कथा

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2015 और उसके बाद के वर्षों में मुझसे किसी ने पूछा कि क्या विभिन्न पश्चिमी परंपराओं में कठोपनिषद् की कथा की अनुगूँज नहीं सुनाई पड़ती? 

मैं इस बारे में क्या कह सकता था! वैसे अपने स्वाध्याय ब्लॉग में इस बारे में बहुत कुछ सन्दर्भ सहित विस्तार से लिखा है । यहाँ केवल जानकारी दे रहा हूँ। 

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कवीनामुशना कविः

कठोपनिषद् की कक्षा

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केनोपनिषद् की कक्षा की शिक्षा परसों पूरी हो गई। 

चौथे खण्ड के अंतिम तीन मंत्रों के समय कुछ ऐसा संयोग बना कि संतोषप्रद तरीके से विवेचना नहीं कर सका।  कारण केवल यह था कि अचानक कम्यूनिकेशन कट गया। 

दोनों छात्रों को अलग अलग इन मंत्रों का तात्पर्य समझाया। 

कल कठोपनिषद् का अवलोकन करते समय ध्यान उशन् अर्थात् उशना कवि के सन्दर्भ पर गया।  याद आया :

वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।।

मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविं।।३७।।

(गीता अध्याय १०)

जैसे राजन् प्रातिपदिक का प्रथम पुरुष एकवचन राजा होता है, उसी प्रकार उशन् प्रातिपदिक का प्रथम पुरुष एकवचन उशना होता होगा। इसकी पुष्टि गीता के शाङ्कर-भाष्य से भी हो जाती है कि 'उशना' यह नाम दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य का ही है।

कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली का प्रारम्भ इस मंत्र से होता है :

ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।१।।

त्ँ ह कुमार्ँ सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत।।२।।

पीतोदका जग्धतृणा  दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।।

अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।३।।

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यतीति।  द्वितीयं तृतीयं त्ँ होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति।।४।।

बहूनामेति प्रथमो बहूनामेति मध्यमः।। 

किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाऽद्य करिष्यति।।५।।

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।। 

सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।६।।

वैश्वानरः प्रविश्यत्यथिर्ब्राह्मणो गृहान्।। 

तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।।७।।

उपरोक्त कथा का प्रतीत होनेवाला तात्पर्य प्रायः इस उपनिषद् के सभी भाष्यों / व्याख्याओं में मिल जाएगा।

उपनिषद् का गूढार्थ यद्यपि इस आधार से भी समझा जा सकता है कि उशन् जो नचिकेता का पिता है, आत्मानुसन्धान करने के लिए उद्यत हुआ, तब उसने "सर्ववेदसं ददौ" अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञात को त्याग दिया। उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था। नचिकेता का व्युत्पत्ति से अर्थ 'संशयरहित ज्ञान' हो सकता है। संशयरहित यह ज्ञान मनुष्य में उठनेवाला अपने अस्तित्व का शुद्ध भान या बोध अर्थात् 'शुद्ध अहमस्मि भान' है। 

जब उशन् अर्थात् वाजश्रवा के पुत्र ने आत्मानुसन्धान का कार्य प्रारंभ किया तो उसने अन्य सभी गौओं को अर्थात् मन की सभी उन वृत्तियों को त्याग दिया जिनका प्रयोजन सांसारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होता है। इन सभी वृत्तियों को यहाँ पीतोदका, दुग्धदोहा, जग्धतृणा और निरिन्द्रिया कहा जा सकता है। केवल वृत्तियों का त्याग कर देने से ही आनन्द की प्राप्ति नहीं होती है, इसके लिए आवश्यक है "येन त्यजसि तत्त्यज" अर्थात् उसे भी त्याग दिया जाए जिससे इन्हें त्याग दिया जाता है। तात्पर्य यह है कि जब तक अहंवृत्ति का निवारण नहीं हो जाता तब तक अन्य सभी वृत्तियों को त्याग भी दिया जाए तो भी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती और मनुष्य 'अनन्द' या आनन्द से रहित अवस्था में ही रहता है।

इस प्रकार उशन् के मन में स्थित अहंवृत्ति में प्रश्न उठा कि पिता ऐसी समस्त वृत्तियों को त्याग रहे हैं, जो मानों उन गायों की ही तरह हैं, जिन्हें पीतोदका, जग्धतृणा, दुग्धदोहा और निरीन्द्रियाः कहा गया है। 

तब उस अहंवृत्ति में जो कि अभी सद्यजात बालबोध ही थी, यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई : पिता जो अनुष्ठान कर रहे हैं सर्वजित् नाम के उस यज्ञ में तो सब कुछ त्याग दिया जाता है! तो वह कौन है जिसे पिता दान में देने के लिए, मुझे दान की वस्तु की तरह दान में अर्पित करेंगे!

जब नचिकेता ने दूसरी और तीसरी बार भी यही प्रश्न पिता से पूछा तो पिता ने कहा : 'मृत्युवे।'

आत्मानुसन्धान में यही तो होता है।

अहंवृत्ति तब मृत्यु को प्राप्त हो जाती है। 

पुनः जब अहंवृत्ति यम के सान्निध्य से शुद्ध हो जाती है तो लौट आती है, क्योंकि न तो आत्मा और न अहंवृत्ति का नाश होता है। आत्मानुसन्धान होने पर अहंवृत्ति ही अहंस्फूर्ति के रूप में प्रखर, और अधिक तेज से युक्त होती है। 

इसीलिए अहंवृत्ति में ही यह प्रश्न उठा :

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।। 

किं स्विद्यमस्य कर्तव्यः यन्मयाऽद्य करिष्यति।।५।।

अर्थात् अहंवृत्ति अनेकों में भी प्रथम होती है और अनेक उसे ही मध्यम के रूप में भी जानते हैं। अहंवृत्ति इस प्रकार उत्तम पुरुष (first person) या मध्यम पुरुष (second person) ही हो सकती है, अन्य पुरुष (third person) कभी नहीं। आप स्वयं को 'मैं', या दूसरा कोई आपको 'तुम' कह सकता है, किन्तु न तो आप स्वयं को, और न ही कोई और आपको 'वह' कह कर संबोधित कर सकता है।

इसके पश्चात् नचिकेता मनुष्य के उस मर्त्य रूप की तुलना सस्य (अनाज) से करता है जो पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होती है, और फिर पुनः उत्पन्न होती है। यह पुनर्जन्म का चक्र ही इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है।   

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