त्रिणाचिकेता / त्रिणाचिकेतः
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नचिकेता ने प्रथम वर के माध्यम से यमराज से पिता के शोक और उद्वेग का निवारण तो पा ही लिया, और परोक्षतः यह भी सुनिश्चित कर लिया कि वह पिता से उनके और उसके अपने इसी जीवन में इस इहलोक में पुनः मिलेगा।
नचिकेता को यह भी जानना है, कि स्वर्गलोक की प्राप्ति करने की विद्या (का तत्त्व) क्या है, और चूँकि यम ही स्थूल - भौतिक आधिभौतिक, सूक्ष्म - आधिदैविक, तथा कारण - आत्मा की / आध्यात्मिक अग्नि भी हैं, इसलिए वह उनसे इस अग्निविद्या अर्थात् वैदिक कर्मकाण्ड के रहस्य को भी सुनना चाहता है। इसी ध्येय से प्रेरित होकर वह उनसे द्वितीय वर के लिए निवेदन करता है --
स्वर्गे लोके... ... द्वितीयेन वरेण।।
(मंत्र १२ तथा १३, जिसे इससे पहले लिखे हुए पोस्ट में देखा जा सकता है।)
इस पर यमराज उसके लिए स्वर्ग्य-अग्नि की विद्या का उपदेश उसे देते हैं --
प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध
स्वर्ग्यमग्निं नचिकेतः प्रजानन्।।
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां
विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम्।।१४।।
लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै
या इष्टिका यावतीर्वा यथा वा।।
स चापि तत्प्रत्यवदतद्यथोक्त-
मथास्य मृत्युः पुनरेवाह तुष्टः।।१५।।
तमब्रवीत् प्रीयमाणो महात्मा
वरं तवेहाद्य ददामि भूयः।।
तवैव नाम्ना भवितायमग्निः
सृङ्कां चैमामनेकरूपां गृहा।।१६।।
यमराज ने नचिकेता से कहा :
"इस स्वर्ग्य-विद्या (स्वर्गलोक प्राप्त करने की विद्या) को तुम्हारे जानने के लिए तुमसे कहता हूँ, ध्यान से सुनकर इसे समझ लो। यह ज्ञान-रूपा अग्नि, बुद्धि है जिसका स्थान गुह्य है। मनुष्य का ध्यान इस पर तभी जाता है जब यह व्यक्त रूप में होती है। बुद्धि का आगमन जहाँ से होता है, उस स्थान को मनुष्य नहीं जानता, इसलिए उसे गुहा कहा जाता है।
[मनुष्यों में अलग अलग समय पर अलग अलग बुद्धि व्यक्त होती है। मनुष्य की बुद्धि कभी तो स्पष्ट, कभी अस्पष्ट, कभी मलिन, तो कभी शुद्ध, कभी चञ्चल या अस्थिर, तो कभी पैनी होती है। इसी प्रकार बुद्धि स्थिर भी हो सकती है, किन्तु मनुष्य के लिए वह हितकारी ही हो, आवश्यक नहीं। गीता में इस बारे में बुद्धि के ये दो प्रकार बतलाए गए हैं :
एषा तेऽभिहिता साङ्ख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।।
बुद्ध्या युक्तो मया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।३९।।
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।।४०।।
व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन।।
बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्।।४१।।
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः।।
वेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।४२।।
कामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलप्रदाम्।।
क्रियाविशेषबहुलां भोगैश्वर्यगतिं प्रति।।४३।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।४४।।
(अध्याय २)]
स्वर्ग्यविद्या कर्मकाण्ड है, जिस पर विश्वास करनेवाले यह मानते होते हैं कि यज्ञ आदि कर्मों के सतत अनुष्ठान से अनंतकाल तक स्वर्ग के सुखों का भोग किया जा सकता है। और अगले श्लोकों में हम पढ़ेंगे, -नचिकेता को यह स्पष्ट है, कि समस्त भोग और लोक अनित्य होने से काल से बाधित हैं, और उनके माध्यम से नित्य सुख प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु क्या इससे भिन्न कोई उपाय है, जिससे नित्य वस्तु की प्राप्ति हो?
उपरोक्त श्लोकों १४, १५, तथा १६ में यमराज ने नचिकेता की जिज्ञासा को शान्त किया और इस कर्मकाण्ड का अनुष्ठान करने के लिए यज्ञकुण्ड आदि के निर्माण में कौन सी और कितनी ईटें प्रयुक्त होती हैं, किन मंत्रों को प्रयोग किया जाता है, यह भी उसे समझाया। फिर उससे यह सब सुन कर यह पुष्टि भी कर ली कि उसने यह विद्या अच्छी तरह समझ ली है। फिर पुरस्कार स्वरूप इन मंत्राक्षरों / वर्णों की दिव्य माला उपहार स्वरूप उसे प्रदान कर दी। यमराज ने यह भी वर उसे दिया, कि इस स्वर्ग्यविद्या के ज्ञान और इसकी अग्नि का उल्लेख त्रिणाचिकेतः नाम से किया जाएगा।
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