कठोपनिषद् की कक्षा
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केनोपनिषद् की कक्षा की शिक्षा परसों पूरी हो गई।
चौथे खण्ड के अंतिम तीन मंत्रों के समय कुछ ऐसा संयोग बना कि संतोषप्रद तरीके से विवेचना नहीं कर सका। कारण केवल यह था कि अचानक कम्यूनिकेशन कट गया।
दोनों छात्रों को अलग अलग इन मंत्रों का तात्पर्य समझाया।
कल कठोपनिषद् का अवलोकन करते समय ध्यान उशन् अर्थात् उशना कवि के सन्दर्भ पर गया। याद आया :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कविं।।३७।।
(गीता अध्याय १०)
जैसे राजन् प्रातिपदिक का प्रथम पुरुष एकवचन राजा होता है, उसी प्रकार उशन् प्रातिपदिक का प्रथम पुरुष एकवचन उशना होता होगा। इसकी पुष्टि गीता के शाङ्कर-भाष्य से भी हो जाती है कि 'उशना' यह नाम दैत्यों के गुरु शुक्राचार्य का ही है।
कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय, प्रथम वल्ली का प्रारम्भ इस मंत्र से होता है :
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ। तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस।।१।।
त्ँ ह कुमार्ँ सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽमन्यत।।२।।
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः।।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।३।।
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यतीति। द्वितीयं तृतीयं त्ँ होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति।।४।।
बहूनामेति प्रथमो बहूनामेति मध्यमः।।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाऽद्य करिष्यति।।५।।
अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथापरे।।
सस्यमिव मर्त्यः पच्यते सस्यमिवाजायते पुनः।।६।।
वैश्वानरः प्रविश्यत्यथिर्ब्राह्मणो गृहान्।।
तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्।।७।।
उपरोक्त कथा का प्रतीत होनेवाला तात्पर्य प्रायः इस उपनिषद् के सभी भाष्यों / व्याख्याओं में मिल जाएगा।
उपनिषद् का गूढार्थ यद्यपि इस आधार से भी समझा जा सकता है कि उशन् जो नचिकेता का पिता है, आत्मानुसन्धान करने के लिए उद्यत हुआ, तब उसने "सर्ववेदसं ददौ" अर्थात् सम्पूर्ण ज्ञात को त्याग दिया। उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था। नचिकेता का व्युत्पत्ति से अर्थ 'संशयरहित ज्ञान' हो सकता है। संशयरहित यह ज्ञान मनुष्य में उठनेवाला अपने अस्तित्व का शुद्ध भान या बोध अर्थात् 'शुद्ध अहमस्मि भान' है।
जब उशन् अर्थात् वाजश्रवा के पुत्र ने आत्मानुसन्धान का कार्य प्रारंभ किया तो उसने अन्य सभी गौओं को अर्थात् मन की सभी उन वृत्तियों को त्याग दिया जिनका प्रयोजन सांसारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए होता है। इन सभी वृत्तियों को यहाँ पीतोदका, दुग्धदोहा, जग्धतृणा और निरिन्द्रिया कहा जा सकता है। केवल वृत्तियों का त्याग कर देने से ही आनन्द की प्राप्ति नहीं होती है, इसके लिए आवश्यक है "येन त्यजसि तत्त्यज" अर्थात् उसे भी त्याग दिया जाए जिससे इन्हें त्याग दिया जाता है। तात्पर्य यह है कि जब तक अहंवृत्ति का निवारण नहीं हो जाता तब तक अन्य सभी वृत्तियों को त्याग भी दिया जाए तो भी आनन्द की प्राप्ति नहीं होती और मनुष्य 'अनन्द' या आनन्द से रहित अवस्था में ही रहता है।
इस प्रकार उशन् के मन में स्थित अहंवृत्ति में प्रश्न उठा कि पिता ऐसी समस्त वृत्तियों को त्याग रहे हैं, जो मानों उन गायों की ही तरह हैं, जिन्हें पीतोदका, जग्धतृणा, दुग्धदोहा और निरीन्द्रियाः कहा गया है।
तब उस अहंवृत्ति में जो कि अभी सद्यजात बालबोध ही थी, यह जिज्ञासा उत्पन्न हुई : पिता जो अनुष्ठान कर रहे हैं सर्वजित् नाम के उस यज्ञ में तो सब कुछ त्याग दिया जाता है! तो वह कौन है जिसे पिता दान में देने के लिए, मुझे दान की वस्तु की तरह दान में अर्पित करेंगे!
जब नचिकेता ने दूसरी और तीसरी बार भी यही प्रश्न पिता से पूछा तो पिता ने कहा : 'मृत्युवे।'
आत्मानुसन्धान में यही तो होता है।
अहंवृत्ति तब मृत्यु को प्राप्त हो जाती है।
पुनः जब अहंवृत्ति यम के सान्निध्य से शुद्ध हो जाती है तो लौट आती है, क्योंकि न तो आत्मा और न अहंवृत्ति का नाश होता है। आत्मानुसन्धान होने पर अहंवृत्ति ही अहंस्फूर्ति के रूप में प्रखर, और अधिक तेज से युक्त होती है।
इसीलिए अहंवृत्ति में ही यह प्रश्न उठा :
बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यमः।।
किं स्विद्यमस्य कर्तव्यः यन्मयाऽद्य करिष्यति।।५।।
अर्थात् अहंवृत्ति अनेकों में भी प्रथम होती है और अनेक उसे ही मध्यम के रूप में भी जानते हैं। अहंवृत्ति इस प्रकार उत्तम पुरुष (first person) या मध्यम पुरुष (second person) ही हो सकती है, अन्य पुरुष (third person) कभी नहीं। आप स्वयं को 'मैं', या दूसरा कोई आपको 'तुम' कह सकता है, किन्तु न तो आप स्वयं को, और न ही कोई और आपको 'वह' कह कर संबोधित कर सकता है।
इसके पश्चात् नचिकेता मनुष्य के उस मर्त्य रूप की तुलना सस्य (अनाज) से करता है जो पुनः पुनः मृत्यु को प्राप्त होती है, और फिर पुनः उत्पन्न होती है। यह पुनर्जन्म का चक्र ही इस ग्रन्थ का मुख्य विषय है।
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