May 23, 2022

मानस-पुत्र

अविनाशी और अव्यय

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नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिनः।।१६।।

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।। 

विनाशं अव्ययस्यास्य न किञ्चित्कर्मतुर्हति।।१७।।

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता शरीरिणः।। 

अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत।।१८।।

य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम्।।

उभे तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।।१९।।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

देहीऽस्मिन्यथादेहे कौमारं यौवनं जरा।। 

तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यते।।१३।।

(गीता अध्याय २)

उस एकमेव सत् स्वरूप मूल तत्त्व से, जिसका अभाव अर्थात् अनस्तित्व संभव नहीं है, (और यदि है भी, तो इस कल्पना का अस्तित्व तो स्वयं-सिद्ध ही है), उस अविनाशी अव्यय अर्थात् अक्षर परमात्मा से ही, जो कि सर्वत्र है, जो सब कुछ है, और जिसमें ही सब कुछ है, समस्त दृश्य-अस्तित्व अव्यक्त से व्यक्त होकर पुनः पुनः अव्यक्त में भी लौट जाता है, काल अर्थात् मन का उद्भव होता है। यही काल अर्थात् मन आत्मा का मानस-पुत्र है। 

अक्षरात्संजायते कालो कालाद् व्यापकः उच्यते व्यापको हि भगवान् रुद्रो भोगायमानो, यदा शेते रुद्रो संहार्यते प्रजा:।।

(शिव-अथर्वशीर्ष)

मन अर्थात् काल परमात्मा का मानस-पुत्र है। कठोपनिषद् के सन्दर्भ में यही उशना का पुत्र नचिकेता है,जिसे उसके पिता द्वारा विश्वजित यज्ञ में उसके द्वारा प्रश्न किए जाने पर मृत्यु को दान में दे दिया गया।

रुद्र इसी रूप में एकादश अर्थात् ग्यारह कहे जाते हैं। 

शरीरी या 'देही' वह है, जो कि शरीर से संबद्ध जीवन / चेतना है। मन और शरीर, एक दूसरे पर आश्रित हैं और अहंकार, चित्त तथा बुद्धि इसी के अन्य नाम, रूप और प्रकार हैं। बुद्धि जागते ही बुद्धि में ही अहं (मैं) और इदं (यह / वह) की वृत्ति सक्रिय हो जाती है। काल भी बुद्धि का ही अनुमान है, क्योंकि 'पहले' और 'बाद में' का आगमन बुद्धि के प्रस्फुटन से ही होता है किन्तु इसी अनुमान से फिर काल नमक किसी स्वतंत्र सत्ता की सत्यता को स्वीकार कर उस धारणा के आधार पर समस्त ज्ञात को अतीत और आगामी की तरह विभाजित कर लिया जाता है। पुनः इसी तरह अनुमान से ही, प्रकृति और पुरुष का प्राकट्य भी बुद्धि के जागने के बाद ही संभव होता है, इसी दृष्टि से बुद्धि को प्रकृति और पुरुष से भी विलक्षण कहा जाता है :

प्रकृतेः पुरुषात् परम्।।

(गणपति अथर्वशीर्ष)

उस एकमेव सत् स्वरूप अविनाशी, अव्यय परमात्मा से ही, जो कि जीवन / चेतना से अभिन्न है, जो शिव और भवानी के रूप में अर्धनारीश्वर है, बुद्धि का प्राकट्य होता है और असंख्य देहों में वह पृथक् अहंकार के रूप में देह से अपने आपके अभिन्न होने के आभास को ही सत्य मान लेता है। किन्तु जब विवेक अर्थात् नित्य-अनित्य के चिन्तन से यही अहंकार विलीन होकर शुद्ध बोध-मात्र की तरह जाना जाता है तो उसी अक्षर, अव्यय और अविनाशी तत्त्व का अपरोक्ष भान होता है जिसे वेदों में ॐ पद से वर्णित किया जाता है। इस रूप में वह तत्त्व 'अक्षर', वर्ण, ध्वनि भी है। और इसी अक्षर का उपदेश यमराज नचिकेता को इस प्रकार से दे रहे हैं :

एतद् ह्येवाक्षरं ब्रह्म एतद् ह्येवाक्षरं परम्।। 

एतद् ह्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।।१६।।

एतद् आलम्बनं श्रेष्ठं एतद् आलम्बनं परम्।।

एतद् आलम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।।१७।।

किन्तु चूँकि मृत्युलोक से लेकर ब्रह्मलोक तक अनित्य अर्थात् नश्वर स्थितियाँ है, वहाँ नित्य शान्ति होना कैसे संभव है?

इसलिए यमराज अपने इस सर्वाधिक प्रिय (प्रेष्ठ) शिष्य के लिए इस आत्मा (परमात्मा के परम धाम) के सत्य को उद्घाटित और प्रतिपादित करते हैं। 

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